इस में कोई कलाम नहीं, कि मौजूदा सदी इल्म व हुनर की तरक़्क़ियात की सदी है। लेकिन शायद जिस क़द्र छापे की कुल (मशीन) ने शाइस्ता ममालिक में पांव फैलाए हैं। और सब कलें (मशीन की जमा) मिला कर इस से निस्फ़ काम नहीं करतीं। बल्कि ये कहना कुछ ग़लत ना होगा, कि इस ज़माने में तहरीरी कार्रवाई अपनी जायज़ हदूद से तजावुज़ कर के बहुत कुछ अमली कोशिशों पर ग़लबा
Need of Living Epistles
ज़िंदा ख़ुतूत की ज़रूरत
By
One Disciple
एक शागिर्द
Published in Nur-i-Afshan May 4, 1894
नूर-अफ्शाँ मत्बूआ 4 मई 1894 ई॰
इस में कोई कलाम नहीं, कि मौजूदा सदी इल्म व हुनर की तरक़्क़ियात की सदी है। लेकिन शायद जिस क़द्र छापे की कुल (मशीन) ने शाइस्ता ममालिक में पांव फैलाए हैं। और सब कलें (मशीन की जमा) मिला कर इस से निस्फ़ काम नहीं करतीं। बल्कि ये कहना कुछ ग़लत ना होगा, कि इस ज़माने में तहरीरी कार्रवाई अपनी जायज़ हदूद से तजावुज़ कर के बहुत कुछ अमली कोशिशों पर ग़लबा पा गई है। इस तिलस्माती चर्ख़ा के ईजाद से पेश्तर जो काम ज़िंदा इन्सानों से लिया जाता था, अब उस का दारोमदार काग़ज़ और रोशनाई (स्याही) पर मौक़ूफ़ है। अगर उन्नीस सदीयां पेश्तर मसीहीयों का मोटो आ और देख था, तो आज के दिन पढ़ और जांच है। पढ़ना दुनिया की जहालत और तारीकी को दूर करने का उम्दा वसीला है। लेकिन अव़्वल तो सब पढ़े लिखे नहीं। दोम अंदेशा है कि सब ग़ौर से नहीं पढ़ते और फिर पढ़ कर ख़यालात को परखना भी तो हर एक का काम नहीं। इस से ज़ाहिर है कि लाखों अख़बारात और किताबें छाप कर दुनिया में तक़्सीम कर देना मसीही मज़्हब को फैलाने का बेहतरीन तरीक़ा नहीं है। पढ़ने वाले बहुत कुछ पढ़ चुके हैं। और इस से उन की प्यास नहीं बुझी। अब इस अम्र की ज़रूरत बाक़ी है कि हर एक मसीही ऐसा ज़िंदा ख़त हो, जिसको अवाम सफ़ाई से पढ़ सकें। अगर हिन्दुस्तान या दीगर ममालिक में मसीही मज़्हब ख़ातिर-ख़्वाह तरक़्क़ी नहीं करता तो इस का ये मतलब नहीं कि यहां इन्जील की जिल्दें या दीनी कुतब कमयाब (कमी होना) हैं। बल्कि ये कि यहां मसीह के ख़त जो स्याही से नहीं, बल्कि ज़िंदा ख़ुदा की रूह से लिखे गए नमूदार नहीं हैं। इस वक़्त मसीही मुसन्निफ़ों या उन की तसानीफ़ के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहना चाहता और ना उस ख़ुदादाद (ख़ुदा की दी हुई) जलील ख़िदमत को हक़ीर समझता हूँ लेकिन मैं ज़िंदा और अमली मसिहिय्यत को किताबी और दिमाग़ी मसिहिय्यत पर ज़रूर तर्जीह देता हूँ। हर एक शख़्स ज़रा ग़ौर करने से इस अम्र को बख़ूबी समझ सकता है कि अफ़आल की आवाज़ अक़्वाल से किस क़द्र बुलंद है। आग की तस्वीर में हरारत मौजूद नहीं हो सकती ख़्वाह उसको माअनी और बह्ज़ाद ने खींचा हो या एंजलो और रफ़ाईल ने उम्र-भर रंग आमेज़ी (रंग भरना) की हो? क्या बाइस है कि इब्तिदाई ज़माने के मसीही अपने मिशन में कामयाबी हासिल कर गए। और आजकल बावजूद सिर्फ़ ज़र कसीर (ज़्यादा रुपया होना) के इस क़द्र तरक़्क़ी नज़र नहीं आती? बात ये है कि कामयाबी का राज़ उस ज़िंदा तासीर में मौजूद है जिससे मसीही ख़ुद मुतास्सिर हो कर औरों पर असर कर सकता है और उसको वही समझ सकता है जिसने मसीह की ज़िंदगी में हिस्सा पाया, और उस में क़ायम हो गया हो।
पौलुस रसूल कुरिन्थुस के मसीहीयों को इन्हीं ज़िंदा तासीरों की तरफ़ मुतवज्जोह कर के अमली मसीहिय्यत पर इस्तिदलाल (सबूत देना) करता है। वो फ़रमाता है, कि “फ़रेब ना खाओ। क्योंकि हरामकार और बुत-परस्त, ज़िना करने वाले, अय्याश, लौंडेबाज़, चोर, लालची, शराबी, गाली बकने वाले और लुटेरे ख़ुदा की बादशाहत के वारिस ना होंगे। और बाअज़ तुम्हारे दर्मियान ऐसे थे पर ख़ुदा की रूह से ग़ुस्ल दिलाए गए, और पाक हुए, और रास्तबाज़ भी ठहरे।” 1 कुरिन्थियों 6:9-11 फिर जस्टिन शहीद दूसरी सदी में अपने दूसरे माअज़िरत नामे में शाहाँ रूमा की तरफ़ मुख़ातब हो कर कहता है, कि “हम जो बुरी ख़्वाहिशों के ग़ुलाम थे, अब अख़्लाक़ की पाकीज़गी में ख़ुशी हासिल करते हैं। हमने जादूगरी को तर्क कर के अब अपने आपको अबदी और मेहरबान ख़ुदा की ख़िदमत के लिए मुक़द्दस बनाया है। हम जो सबसे ज़्यादा नफ़ा के तालिब थे। अब अपना सब कुछ फ़ायदा आम के लिए दे देते और हर एक को उस की ज़रूरत के मुताबिक़ बांट देते हैं। हम जो एक दूसरे से नफ़रत करते और क़ातिल थे। और इख्तिलाफ़-ए-रसूम के बाइस ग़ैरों को अपने हाँ आने की इजाज़त नहीं देते थे अब मसीह की आमद के बाइस उन के साथ मिलकर रहते हैं। हम अपने दुश्मनों के लिए दुआ मांगते हैं हम अपने कीनावरों (हसद करने वाले) को सिखाते हैं मसीह की ताअलीम जलील के मुताबिक़ अपनी ज़िंदगी इस तरह काटें कि हमारे साथ ख़ुदा से जो सब का ख़ुदावंद है बरकतें पाने के उम्मीदवार रहें।”
सुब्हान-अल्लाह किस दर्जे की तासीरें हैं जिनसे बड़े-बड़े स्याह दिल ख़ुद मुनव्वर हो कर अपने महदूद हलक़े में अपनी रोशनी चमका गए। जिनके सामने फ़ल्सफ़ा सर बगिरेबां (सोच बिचार की हालत, शर्मिंदा) और ज़ोर-ए-बाज़ू अपना इल्म सर निगों (झंडा झुकाना) किए हैरान व शशदर (हैरान व परेशान) खड़ा है कहते हैं कि इब्तिदाई मसीहीयों में इन तासीरात का कमाल इस दर्जे का था, कि गिर्द व नवाह की बुत-परस्त अक़्वाम उनके तरीक़-ए-मुआशरत को देखकर कहा करती थीं, कि “देखो मसीही एक दूसरे से कैसी मुहब्बत रखते हैं।” और हक़ीक़त में यही वो नया हुक्म है जो उसतादे अज़ीम दुनिया को सिखा गया और जिससे उस के शागिर्द और लोगों से इम्तियाज़ (फ़र्क़) किए जा सकते हैं। देखो यूहन्ना 13:34
मसीही नाज़रीन आप में ये सिफ़त कहाँ तक नुमायां है?
ऑरीजिन 249 ई॰ बेदीन फिलासफर सेलिस्टिस यूं तहरीर करता है, कि “हम में से बाअज़ की ज़िंदगी के हाल दर्याफ़्त करो। हमारे गुज़श्ता और मौजूदा तर्ज़े मुआशरत का मुक़ाबला करो। और तुम्हें फ़ौरन पता लग जाएगा, कि मसीही लोग मौजूदा ताअलीम को क़ुबूल करने से पेश्तर ना रास्तियों और ना पाकियों में कैसे फंसे थे, अब वो कैसे रास्त, संजीदा, परहेज़गार और क़ाइम मिज़ाज हो गए हैं। बाअज़ उन में से पाकीज़गी और नेकियों से इस दर्जे उल्फ़त रखते हैं कि जायज़ ख़ुशीयों से भी किनारा-कश हो गए हैं। जहां कहीं मसीही मज़्हब फैला है ऐसे लोग कस्रत से पाए जाते हैं। भला जिन लोगों ने बहुतेरों को बुराई के गढ़े से निकाल कर परहेज़गारी और नेको कारी में सर्फ़राज़ किया वो क्योंकर किसी तरह से मुल्क के नुक़्सान का बाइस हो सकते हैं। हमने मस्तूरात (औरतें) को बे-हयाई से और अपने खाविंदों (शौहरों) के साथ लड़ाई झगड़ा करने से रोका है। मर्दों को रंगारंग के बेहूदा राग व रंग से बाज़ रखा है और नौजवानों की शहवत को लगाम दी है।”
इसी तरह लक तन्नियुस 306 ई॰ में इन्जील की ज़िंदा तासीरों का ज़िक्र करके यूं लिखता है कि, “इस इलाही हिक्मत की तासीर ऐसी अज़ीम है कि इन्सान के दिल में आते ही सारी जहालत दूर व दफ़ाअ हो जाती है और इस के लिए किसी किताब या ग़ौरो फ़िक्र की ज़रूरत नहीं। अगर कान और दिल हिक्मत के प्यासे हों ये इनाम मुफ़्त बाआसानी और फ़ौरन हासिल हो जाएगा। आख़िर में वो सवाल करता है कि “क्या किसी बुत-परस्त फिलासफर ने भी इस क़िस्म का अज़ीम काम कर के दिखाया है?”
शायद कोई कहेगा कि ये तो अपने मुंह से आप मियां मिट्ठू बनता है लेकिन हम इस जगह बहुत से मुख़ालिफ़ों की शहादतें पेश कर सकते हैं, जिन्होंने ने दूर से इस नूर को देखा मोतरिफ़ (एतराफ़ किया) हुए लेकिन दिल में उसकी ज़िंदगी बख़्श किरनों को आने से रोक रखा। फ़क़त दो एक का ज़िक्र करना काफ़ी होगा।
रूमी शहनशाह जूलियन जो मुर्तद (इस्लाम से निकाला हुआ) और मसीही जमाअत में से रांदा (निकाला हुआ) था एक बुत-परस्त पूजारी की तरफ़ यूं तहरीर करता है, कि “बुत परस्तों के लिए शर्मनाक बात है कि वो अपने हम-मज़्हबों की निस्बत बेपर्वा हैं हालाँकि मसीही लोग अजनबियों और दुश्मनों के साथ नेक सुलूकी करते हैं। रूमी सल्तनत के ज़वाल व शिकस्तगी का मशहूर मुअर्रिख़ गेन अगरचे ख़ुद बेदीन था। लेकिन उस ने रूमी सल्तनत में मसीही रियाया का बयान निहायत ख़ूबी के साथ और बिला तास्सुब किया है। उस का क़ौल है कि “इब्तिदाई मसीही अपनी नेक सिफ़ात के ज़रीये अपने ईमान का इज़्हार करते थे। और उनका ये गुमान सही था, कि इलाही मदद से हमारे फ़हम मुनव्वर और दिल पाक हो जाते हैं और कारोबार में बरकत होती है। इस के बाद वो मसीहीयों में पाकीज़गी, रास्ती, ख़ाकसारी जैसी सिफ़ात की तारीफ़ करता है। नुक़्स उसकी तहरीर में है तो यही है कि वो इन सिफ़ात के अस्बाब बजाय उन के असली सर चश्मे के अख़्लाक़ी इंतिज़ाम व मुल्की हालात में तलाश करता है। आख़िर वो लिखता है कि “इन की यानी मसीहीयों की बाहमी मुहब्बत और एतबार के बेदीन भी मुक़िर (इक़रार करना) हैं। इब्तिदाई मसीहीयों के अख़्लाक़ की निस्बत ये बात निहायत इज़्ज़त की निगाह से देखने के क़ाबिल है। कहा उन के क़सूर जिनको सहव (भूल चूक) कहना बजा है नेकी की ग़ायत (ग़र्ज़) ही से होते हैं इस के बाद मोअर्रिख (तारीख़ लिखने वाला) उन की ख़ुद इंकारी की तारीफ़ करता है।
इसी तरह मुल्क फ़्रांस का मशहूर बेदीन रूसो मसीही ख़ुश-अख़्लाक़ी और ज़िंदगी बख़्श ईमान पर ग़ौर करके यूं तहरीर करता है कि, “अगर सब आदम सच्चे मसीही हों तो हर एक शख़्स अपना फ़र्ज़ अदा करेगा रियाया तो क़वानीन के ताबे होगी। हाकिम रास्तबाज़ और मुंसिफ़ बेदाग़ होंगे सिपाही मौत से ना डरेंगे और मुल्क से ग़ुरूर और ऐश व इशरत जाते रहेंगे।”
मोअज़्ज़ज़ मसीही नाज़रीन जो रूह उन इब्तिदाई मुक़द्दसों में काम करती थी वही अब भी मौजूद है। हम सब मुक़द्दसों के हम-वतन और ख़ुदा के घराने के हैं। सो आओ अपनी बुलाहट के लायक़ चलें और मसीह को अपनी ज़िंदगी में ज़ाहिर करें।