हमेशा की ज़िंदगी की बातें

शमाउन पतरस ने उसे जवाब दिया कि, “ऐ ख़ुदावंद हम किस के पास जाएं हमेशा की ज़िंदगी की बातें तो तेरे पास हैं। और हम तो ईमान लाए और जान गए हैं कि तू ज़िंदा ख़ुदा का बेटा मसीह है।” (युहन्ना 6:68-69) दरिया-ए-तबरियास के पार जब कि एक बड़ी भीड़ ख़ुदावंद के एजाज़ी कामों की शौहरत सुनकर उस की ताअलीम सुनने और उसकी करामतों को देखने के लिए फ़राहम

Words of the Eternal Life

हमेशा की ज़िंदगी की बातें

By

Allama G. L. Thakur Das

अल्लामा जी॰ एल॰ ठाकुरदास

Published in Nur-i-Afshan Jun 18, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 18 जून 1891 ई॰

शमाउन पतरस ने उसे जवाब दिया कि, “ऐ ख़ुदावंद हम किस के पास जाएं हमेशा की ज़िंदगी की बातें तो तेरे पास हैं। और हम तो ईमान लाए और जान गए हैं कि तू ज़िंदा ख़ुदा का बेटा मसीह है।” (युहन्ना 6:68-69) दरिया-ए-तबरियास के पार जब कि एक बड़ी भीड़ ख़ुदावंद के एजाज़ी कामों की शौहरत सुनकर उस की ताअलीम सुनने और उसकी करामतों को देखने के लिए फ़राहम हो गई थी। तो लोगों को बहालत गिर संगी देखकर ख़ुदावंद को उन पर रहम आया। और पाँच रोटियों और दो छोटी मछलीयों को बरकत दे के तख़मीनन पाँच हज़ार आदमीयों को सैर कर दिया था। पस बहुत से लोग जो सिर्फ शिकम बंदा थे ये जान कर कि यसूअ की पैरवी में बिला-मशक्क़त रोटी हमें हमेशा मिलती रहेगी। उस को अपना बादशाह और उस्ताद बनाने और उस के मह्कूम व शागिर्द होने पर मुस्तइद व आमादा हो गए।

लेकिन ख़ुदावंद ने उन के मतलब व मक़्सद से वाक़िफ़ होकर जब उन्हें ये नसीहत की, कि तुम फ़ानी ख़ुराक के लिए नहीं, बल्कि उस खाने के लिए ज़्यादा-तर मेहनत व फ़िक्र करो जो हमेशा की ज़िंदगी बख़्शता और अबद तक ठहरता है। और वो ख़ुराक तुम्हें इब्न-ए-आदम के कफ़्फ़ारा आमेज़ मौत से और उस के पाक जिस्म की क़ुर्बानी से सिर्फ हासिल हो सकती है। इसीलिए उस ने साफ़ तौर पर कहा कि, “मैं वो ज़िंदा रोटी हूँ जो आस्मान से उतरी, अगर कोई शख़्स इस रोटी को खाए तो अबद तक जीता रहेगा। और रोटी जो मैं दूँगा मेरा गोश्त है जो मैं जहां की ज़िंदगी के लिए दूँगा। मेरा गोश्त फ़िल-हक़ीक़त खाने और मेरा लहू फ़ील-हक़ीक़त पीने की चीज़ है।” मगर शिकम परस्त (पेट के पूजारी) अश्ख़ास इन बातों का मतलब ना समझे। और ना आजकल ऐसे लोगों की समझ में ये बात आती है। और जैसा उस वक़्त बहुत लोग इन बातों को सख़्त कलाम जान कर बोले कि, “कौन इन बातों को सुन सकता है।” और उस की पैरवी को बेसूद जान कर उल्टे फिर गए। वैसा हर ज़माने में होता रहा। और अब भी अक्सर होता है। क्योंकि नफ़्सानी आदमी दुनियवी व जिस्मानी चीज़ों को रुहानी व ग़ैर-फ़ानी चीज़ों से ज़्यादा पसंद करते। और अगर दुनियवी व जिस्मानी अश्या के हासिल होने में मसीह से उन्हें कोई सूरत नज़र ना आए (अगरचे वो सब कुछ सख़ावत के साथ देता है) तो वो फ़ौरन उस को छोड़कर तरीक़ हलाकत में चलने को पसंद करते हैं। लेकिन जो अबदी ज़िंदगी के तालिब सादिक़ हैं और फ़ानी व दुनियवी चीज़ों पर ज़्यादा दिलदादा नहीं हैं। वो बहरहाल पतरस के हम ज़बान होकर कहेंगे कि, “ऐ ख़ुदावंद हम किस के पास जाएं हमेशा की ज़िंदगी की बातें तो तेरे पास हैं।” कौन ऐसे बदबख़्त लोगों की बुरी हालत का अंदाज़ा कर सकता है?

मसीही शायर ने दुरुस्त कहा है :-

तेरे दरबख़्शिश से जो महरूम चला जाये

शामत ही उस की नहीं तक़सीर किसी की

फ़िल-हक़ीक़त ऐसे लोग ना इधर के रहते ना उधर के। और अपनी ग़म आलूदा व पुर अफ़्सोस ज़िंदगी दिली बे आरामी व नदामत के साथ बसर करके मौत के वक़्त अमीक़ व बेहदयास व हिर्स में इस दुनिया से गुज़र जाते और अबदी हलाकत में पड़ के जहन्नम को आबाद करते हैं। जहां की आग कभी नहीं बुझती और कीड़ा कभी नहीं मरता है।

इस क़िस्म के बद-बख़्त लोगों में से एक शख़्स का हाल अभी हमने सुना है। जिसकी निस्बत अख़्बार आम (मत्बूआ 5 जून में बहवाला ट्रीबीवन एक तवील आर्टीकल बउनवान ईसाई का फिर हिंदू हो जाना) शाएअ हुआ है। इस शख़्स का नाम तुलसीदास बा अब्दुल मसीह मुक़ीम डेरा ग़ाज़ी ख़ान है जो क़रीब दस (10) बरस हुए ईसाई हो गया था और अब फिर हिन्दुओं में आ मिला है। गंगा पर जा के प्रायश्चित (तौबा) करके उस ने वहां के पंडितों से शुद्ध (पाक) होने का ज़रूरी सर्टीफ़िकेट हासिल किया। और फिर डेरा ग़ाज़ी ख़ान में वापिस आया। और वहां के ब्रह्मणों से दरख़्वास्त की, कि उस को बिरादरी में शामिल किया जाये। लेकिन वहां के लोगों ने मंज़ूर ना किया। बल्कि बरअक्स इस के पुराने फ़ैशन के लोगों ने एक बड़ा जोश उस के ख़िलाफ़ पैदा कर दिया। लिहाज़ा तुलसी दास ने आर्या समाज से मदद मांगी जिसने खुलेबंदों इसे शामिल कर लिया।

अख़्बार आम का ख़्याल इस शख़्स को हिंदू बनाने के ख़िलाफ़ है। और जो कुछ हिंदू मज़्हब के क़ुयूद व क़वानीन की निस्बत ऐसे मुआमलात में उसने लिखा वो बिल्कुल दुरुस्त है। हम अख़्बार मज़्कूर के कुल बयान को लिखना नहीं चाहते। मगर उस के चंद फ़िक्रात का इंतिख्व़ाब करना काफ़ी समझते हैं। ताकि हिन्दुओं के मज़्हब की सूरत और ऐसे अश्ख़ास की क़ाबिल-ए-अफ़सोस हालत नाज़रीन के ज़हन नशीन हो सके चुनान्चे वो लिखता है कि, “अब इतने अरसे के बाद फिर हिन्दुओं में शुमार होने को आपके धान में पानी फिर आया और प्रायश्चित की ठहराई। जिस पण्डित के ऐसे ईसाई को बाद हिंदू होने की इजाज़त दी और बे सतहा निकाली है बिल्कुल ख़िलाफ़ धर्मशास्त्र कार्रवाई की है और कोई पक्का हिंदू उस के फ़तवे को रास्त क़ुबूल नहीं कर सकता। ऐसा कोई प्रायश्चित हिंदू धर्मशास्त्रों में नहीं है।” न्यू फ़ैशन के लोग मस्लहत-ए-वक़्त के ख़्याल से ऐसे लोगों को फिर शामिल कर लेना मूहिब तरक़्क़ी क़ौम समझें। लेकिन ओल्ड फ़ैशन के लोग यानी न्यू फ़ैशन वालों के बाप-दादा किसी साया-दार दरख़्त की हिफ़ाज़त के लिए उस किसी पत्ते या टहनी को काट कर फेंक देना इस से बेहतर समझते हैं कि ऐसी शाख़ें जिनको घुन या कीड़ा लगा हुआ है और जिसकी बोसीदगी सारे दरख़्त को नुक़्सान पहुंचाएगी फिर इस में पैवंद की जाएं। क्या आपको यक़ीन है कि गंगा जी के पंडितों का फ़रमान ख़ुदाई है जो एक पापी को क़लम के दो हर्फ़ों से पवित्र (पाक) कर सकता है? क्या आप ख़्याल करते हैं कि हरिद्वार के पण्डित के पास[1] चिट्ठी ले जा कर उस की हिदायत में सर मुंडवा कर आपके सब पाप धोए गए? आपके इस रवैय्ये से कई ख़तरनाक मिसालें हिंदू मज़्हब के लिए “ओल्ड फ़ैशन” वालों के नज़्दीक पैदा होने लगी। हम कभी ख़्याल नहीं कर सकते कि पण्डित तुलसीराम जी ने कौन से वजूहात से और कौन से धर्मशास्त्र से एक ऐसे हिंदू के शूदा होने की बेवस्तहा फ़त्वा दी है। जो दस (10) पंद्रह (15) बरस खुल्लम-खुल्ला ईसाईयों में शामिल रहा, मकरूह खाना खाया, हिन्दुओं और उन के पंडितों को गालियां दीं। और अब फिर सब कुछ कर के हिन्दुओं में जिन्हें चोर और ग़ुलाम बतलाया जाता है शामिल करने की नाजायज़ कोशिश की जाती है। ताज्जुब की बात है कि बक़ौल आम “न्यू फ़ैशन वाले” यानी आर्या दयानंदी गंगा में किसी पापी को शुद्ध (पाक) करने की ताक़त के हरगिज़ मुअतक़िद (अक़ीदतमंद, पैरौ) नहीं हैं। लेकिन चूँकि उनका दस्तूर-उल-अमल मस्लहत-ए-वक़्त और हिक्मत-ए-अम्ली पर इब्तिदा से रहा है किसी ऐसे शख़्स को शूदा होने के लिए फिर भी गंगा में स्नान करने और वहां के पन्डों से जिन्हें वो पोप का ख़िताब हक़ारतन देते हैं हिन्दुओं में घसीटने पर नेक ख़्याल से सर्टीफ़िकेट हासिल करने की तर्ग़ीब देते हैं। क्या ये दियानत की बात है? हरगिज़ नहीं हम अख़्बार आम के हम-राए हो कर बिला-ताम्मुल कह सकते हैं कि ऐसे कहु-चल लट्टूओं के शामिल करने से हिंदू सोसाइटी और ना दियानंदी फ़िर्क़े की तरक़्क़ी व सर सब्ज़ी ज़ाहिर व साबित होगी, बल्कि ये एक मिनजुम्ला दीगर बवायस व वजूहात के उन के तनज़्ज़ुल दादबार का सरीह निशान है। हम इस मज़्मून पर ज़्यादा लिखना चाहते लेकिन फ़िलहाल इतने ही पर इक्तिफ़ा करते हैं।