आदम की पैदाइश और क़ुरआन

Creation of Adam and Quran

आदम की पैदाइश और क़ुरआन

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Mar 19, 1891

नूर-अफ्शां मत्बूअ़ 19 मार्च 1891 ई॰ ई॰

सूरह अल-बक़र रुकूअ़ 3 में पैदाइश आदम की बाबत लिखा है, “और जब कहा तुम्हारे रब ने वास्ते सब फ़रिश्तों के कि “बेशक में पैदा करने वाला हूँ ज़मीन में एक ख़लीफ़ा” तो मलाइका ने उस से कहा “क्या पैदा करता है तू ज़मीन में उसे जो फ़साद करे उस में और ख़ूँरेज़ी करे?” तफ़्सीर में लिखा है कि इस बात से फ़रिश्तों की वाक़फ़ीयत हुक्म ईलाही से थी या लौह-ए-महफ़ूज़ में (जिसमें बाएतिक़ाद मुहम्मदयान ख़ुदा ने सब कुछ जो अज़ल से अबद तक होने वाला है लिख दिया है) उन्हों ने पढ़ा या उनकी अक़्लों में जमा हुआ था कि गुनाह ना करना उन्हीं का ख़ासा (ख़ूबी) है। ख़ुदा ने फ़रिश्तों से कहा, कि जो मैं जानता हूँ तुम नहीं जानते। और आदम को हक़ तआला ने सब के सब नाम सिखाए और उन नाम वालों को फ़रिश्तों के सामने पेश किया और कहा, कि बताओ मुझे इनके नाम अगर तुम सच्चे हो, फ़रिश्तों ने कहा “तज़ियह करते हैं हम तेरी, हमको कुछ इल्म नहीं मगर जो कुछ तू ने हमें सिखा दिया।” तब ख़ुदा ने आदम से कहा तू उन्हें इनके नाम बता दे। अगर हम इस बयान का तौरेत पैदाइश 2 बाब के साथ मुक़ाबला करें तो दोनों में ज़मीन व आस्मान का फ़र्क़ मालूम होगा। पहला बयान जो मूसा की मार्फ़त दो (2) हज़ार बरस से सिवा (कुछ) पेशतर से लिखा हुआ अहले-किताब के हाथ में मौजूद था। पिछले बयान की निस्बत कैसा अफ़्ज़ल व आला और ख़ुदा तआला के लायक़ मालूम होता है। क्या इस में कुछ ख़ूबी है कि ख़ुदा ने आदम को सब मख़्लूक़ात के नाम सिखा दीए तो उसने बता दीए और फ़रिश्तों को ना सिखाए और वो ना बता सके? क्यों फ़रिश्तों को नादानी से आदम के मुक़ाबले में मूत्हम (तशवीश में मुब्तला) व माअतूब (इल्ज़ाम लगाया जाये और मुजरिम ठहरया जाये) ज़ाहिर किया जाता? हाँ अगर ख़ुदा ने वो नाम उन्हें ना सिखाए थे तो वो इतना करते कि लौह-ए-महफ़ूज़ में देखकर इम्तिहान में पास हो जाते मगर ऐसा ना किया तो भी फ़रिश्तों की पेशीनगोई कि आदम ज़मीन पर फ़साद व ख़ूँरेज़ी करेगा, उसे क्यों पैदा किया जाता है? पूरी हुई ! इन्सानी तज़ीफ़ और कलाम-उल्लाह में कितना फ़र्क़-ए-अज़ीम है। ख़ुदा ने आदम को अपनी सूरत पर पैदा किया, उस को फ़रिश्तों से मश्वरा लेने की कुछ ज़रूरत ना थी। आदम को ना ज़ईफ़ ना नादान ना जल्दबाज़ बनाया और ना ख़ुदा ने लौह-ए-महफ़ूज़ में लिखा कि वो मुफ़सिद व ख़वीरेज़ (फ़साद और खूंरेंजी फैलाने वाला) होगा। ये भारी बातें हैं और तौरेत हमारी तसल्ली के लिए इनका काफ़ी और मुफ़स्सिल व माअ्क़ूल बयान करती है।

वाक़ियात तौरेत व क़ुरआन में सरीह मुख़ालिफ़त

The Contradictory Events of Torah and Quran

वाक़ियात तौरेत व क़ुरआन में सरीह मुख़ालिफ़त

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 8, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 8 जनवरी 1891 ई॰

तफ़्सीर क़ादरी तर्जुमा तफ़्सीर हुसैनी में लिखा है, कि हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम के क़िस्से में और उर्याह की औरत के साथ आपके निकाह करने में बहुत इख़्तिलाफ़ है। बाअज़ मुफ़स्सिरों ने ये क़िस्सा इस तरह बयान किया है कि शराअ और अक़्ल इसे क़ुबूल करने से इन्कार करती है। जो कुछ सेहत के साथ मालूम हो वो ये है कि उर्याह ने एक औरत के साथ अपने निकाह का पयाम दिया और क़रीब था कि उस का निकाह हो जाये। औरत के वलीयों (मालिक, शौहर) को इस के साथ कुछ ख़रख़शा (झगड़ा) पड़ा था, इसलिए निकाह ना होने दिया। हज़रत दाऊद ने अपने साथ निकाह का पयाम भेजा और हज़रत दाऊद के निनान्वें (99) बीबीयां थीं। अ़ताब ईलाही दाऊद पर इसलिए हुआ, कि उर्याह के पयाम देने के बाद हज़रत दाऊद ने पयाम दिया और उस से निकाह कर लिया। जिब्राईल और मीकाईल दो मतख़ासीन (मुख़ालिफ़) की सूरत पर अपने-अपने साथ फ़रिश्तों का एक-एक गिरोह बशक्ल इन्सान ले के दाऊद के पास आए और बयान किया, कि मेरे इस भाई के पास निनान्वें (99) भेड़ें हैं और मेरी एक ही भेड़ है उसने ग़लबा कर के वो भी ले ली। दाऊद ने कहा कि अगर ये कैफ़ीयत वाक़ई है तो उसने ज़ुल्म किया। जब हज़रत दाऊद ने ये बात कही तो वो खड़े हुए और नज़र से ग़ायब हो गए। पस हज़रत दाऊद सोच में पड़ गए और मग़फ़िरत मांगी। देखो तफ़्सीर सूरह (ص) स्वाद।

अब इस बयान का (जिसको मुफ़स्सिर सेहत के साथ मालूम किया हुआ बताता है) मुक़ाबला 2 समुएल 11, 12 बाब से करें, तो मालूम हो जाएगा कि मुसन्निफ़ और मुफ़स्सिर क़ुरआन सही वाक़ियात अम्बिया-ए-साबक़ीन मालूम करने में किस क़द्र क़ासिर हैं।

وَ یَعۡبُدُوۡنَ مِنۡ دُوۡنِ اللّٰہِ مَا لَا یَضُرُّہُمۡ وَ لَا یَنۡفَعُہُمۡ وَ یَقُوۡلُوۡنَ ہٰۤؤُلَآءِ شُفَعَآؤُنَا عِنۡدَ اللّٰہِ

तर्जुमा : यानी पूजते हैं अल्लाह के सिवा उस चीज़ को जो ना उनका बुरा करे और ना भला करे और कहते हैं ये हमारे सिफ़ारशी हैं अल्लाह के पास। (सूरह यूनुस आयत 18)

ये मुशरिकान अरब की निस्बत कहा गया और इस आयत क़ुरआनी से चार बातें साबित होती हैं। अव़्वल ये कि वो अपने बुतों को ना अपना और ना ग़ैर का ख़ालिक़ व मालिक बताते थे। और ना उनको ज़ात ईलाही के बराबर जानते थे। सोम ये कि वो ज़ात ईलाही की उलूहियत के मुन्किर भी ना थे और चौथे ये कि वो लोग उन अस्नाम मुअ़तक़िदा (बुतों पर ईमान) को अपना शाफ़े-इंद अल्लाह (सिफ़ारशी شافع عند اللہ) बताने के बाइस मुशरिक कहलाए। अब नाज़रीन ग़ौर करें कि हज़रत मुहम्मद साहब हजरे अस्वद मक्की में वो सिफ़त साबित करते जो मख़्सूस बज़ात ईलाही है, यानी इल्म-ए-ग़ैब। मिश्कात-उल-मसाबिह में दरबाब व ख़ौल मक्का व तवाफ़ सफ़ा 220 में लिखा है :-

قال رایت عمر یقبل الحجر ویقولون انی لا علم انک حجرالا تنفع ولا تضر ولولا انی رایت رسواللہ صلی اللہ علیہ واسلم یقبل ماقبلتک متفق علیہ

यानी आबस बिन रबीया से रिवायत है, कि कहा उसने कि देखा मैंने उमर को हज्र-ए-असवद चूमते हुए और कहता था कि मैं ख़ूब जानता हूँ कि तू पत्थर है, ना तो नफ़ा पहुँचाता है और ना नुक़्सान और अगर ना देखता मैं रसूल-अल्लाह को चूमते हुए तो ना चूमता मैं तुझे।

इस हदीस पर सब का इत्तिफ़ाक़ है। अब देखिए ये काला पत्थर (जिसको बाअज़ हिंदू मुकेश्वर महादेव कहते हैं) बक़ौल ख़लीफ़ा उमर के अपने चूमने वालों को कुछ नफ़ा नुक़्सान नहीं पहुंचा सकता, जैसा कि मुशरिकान अरब के बुत नफ़ा नुक़्सान अपने पर सितारों का नहीं पहुंचा सकते थे। तो भी ख़लीफ़ा उमर ने इस को चूमा और सब मुसलमान जो हज के लिए जाते इस को ज़रूर चूमते हैं और सुन्नत मुहम्मदिया क़रार देते हैं। अगरचे क़ुरआन में इस पत्थर का कुछ ज़िक्र नहीं है। लेकिन हमारी समझ में ख़लीफ़ा उमर का ये कहना कि हज्रुल-अस्वद अपने चूमने वालों को ना नफ़ा पहुंचा सकता है और ना नुक़्सान पहुंचा सकता है, दुरुस्त नहीं ठहरता। क्योंकि इसी किताब मिश्कात-उल-मसाबिह सफ़ा 219 में एक और हदीस पाई जाती है, जिस का तर्जुमा ये है कि इब्ने अब्बास ने कहा, कि फ़रमाया रसूल सलअम ने हज्रुल-अस्वद की शान में कि क़सम है अल्लाह की, कि देगा इस को ख़ुदा क़ियामत के दिन दो आँखें कि देखेगा वो उनसे और ज़बान देगा उस को कि बोलेगा वो इस से और गवाही देगा, इस पर जिसने इस को चूमा सच्चे इरादे से। रिवायत किया इस हदीस को तिर्मिज़ी और इब्ने माजा और दारमी ने। ख़लीफ़ा उमर फ़रमाते हैं कि इस पत्थर के चूमने वाले को कुछ नफ़ा और नुक़्सान हरगिज़ नहीं पहुंचता और मुहम्मद साहब फ़रमाते हैं कि हज्रुल-अस्वद अपने चूमने वालों के लिए बरोज़ क़ियामत ख़ुदा के रूबरू गवाह ख़ैर होगा। और बाएतिक़ाद चूमने वालों के लिए उस की गवाही बड़ी नफ़ा बख़्श होगी। और रियाकारी के साथ चूमने वालों के हक़ में इस की शहादत (गवाही) बाइस ज़रर ठहरेगी। पस कोई मुहम्मदी साहब बतलाएं कि इन दोनों साहिबों में से किस का क़ौल सही है।

ख़ुलासा अल-मसाईब

Summary of Troubles

ख़ुलासा अल-मसाईब

By

G.L.Thakur Dass

अल्लामा जी॰ एल॰ ठाकुरदास

Published in Nur-i-Afshan Feb 12, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 12 फरवरी 1891 ई॰

ख़ुलासा अल-मसाईब में रिवायत है कि एक रोज़ मुहम्मद साहब हुसैन के गले के बोसे लेते थे तो उन्हों ने पूछा, ऐ नाना क्या बाइस है आप मेरे गले को चूमते हैं? हज़रत रोए और फ़रमाया, ऐ फ़र्ज़न्द मैं इसलिए चूमता हूँ कि एक दिन ये गला ख़ंजर ज़ुल्मो-सितम से काटा जाएगा। हुसैन ने अर्ज़ की, ऐ नाना किस जुर्म व गुनाह पर मुझे क़त्ल करेंगे? हज़रत मुहम्मद बोले तू मासूम है जुर्म व खता से लेकिन शफ़ाअत मेरी उम्मत की तेरी शहादत पर मौक़ूफ़ (ठहराया गया) है। ज़रूरी नहीं कि हम इस वक़्त इस पर कुछ लिखें कि हुसैन जुर्म व खता से वाक़ई मासूम थे या नहीं। क्योंकि हम ये दिखाना चाहते हैं कि कफ़्फ़ारे की ज़रूरत हज़रत (स॰) को मालूम थी, अगरचे उन्हों ने क़ुरआन में इस भारी ज़रूरत का कुछ ज़िक्र नहीं किया। और उम्मते-मुहम्मदी की नजात सिर्फ उन आमाले-हस्ना (अच्छे काम) पर मौक़ूफ़ रखी गई है तो भी हम देखते हैं कि अहले इस्लाम बिलइत्तफ़ाक शहादत हुसैन को रफाह-ए-उम्मत (उम्मत की भलाई) पर मंसूब करते हैं और जो जहत्ता (झगड़ालू और लड़ाका) और कज-बह्स (उलटी सीधी बह्स करने वाले) अश्ख़ास मसीह की सलीबी मौत और उस के कफ़्फ़ारा गुनाहाने-मोमेनीन (मोमिनों के गुनाहों का कफ़्फ़ारा) होने पर एतराज़ किया करते और कहा करते हैं कि गुनाह तो करे दूसरा औरा उस के बदले में मारा जाये कोई दूसरा, ये कहाँ का इन्साफ़ व अदालत है? वो इस पर ग़ौर करें कि हज़रत ने भी नजात उम्मत-ए-मुहम्मद ये को क़त्ल-ए-हुसैन पर मौक़ूफ़ व मुनहसिर (वाबस्ता होना) ठहराया है। अलबत्ता ये ज़रूर है कि कफ़्फ़ारा गुज़ारनने वाला एवज़ी गुनाहान-ए-कबीरा व सग़ीरा (बड़े और छोटे गुनाह) से अक़लन व नक़लन (अज़रुए-अक़्ल और दूसरों की नक़्ल) पाक और मासूम हो। अब हम अहले इन्साफ़ की तवज्जोह व ग़ौर इस फ़ैसले पर रुजू कराते हैं कि फ़िल-हक़ीक़त कौन ऐसा है। क्या वो शख़्स जिसने मुख़ालिफ़ों के रूबरू दाअ्वा किया और कहा, कि “कौन तुम में से मुझ पर गुनाह साबित करता है?” (यूहन्ना 8:46) और जिसके हक़ में कलाम ईलाही में लफ़्ज़ क़ुद्दूस लिखा और कहा गया। देखो (लूका 1:35, आमाल 3-14, और आमाल 4:30) या वो शख़्स जिसने कहा हो “طاعتی قلیل ومعصیتی کثیر اً” यानी मेरी इबादत थोड़ी और मेरे गुनाह बहुत हैं? अहकाम-उल-अइम्मा।

अंजीर की तम्सील

PARABLE OF FIG TREE

अंजीर की तम्सील

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Editorial

ऐडीटर

Published in Nur-i-Afshan Jan 29, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 29 जनवरी 1891 ई॰॰

जनाब-ए-मसीह की ये तम्सील बतौरे ख़ास क़ौम यहूद से और बतौरे आम मसीहीयों और ग़ैर-मसीहीयों जुम्ला आदमजा़द से इलाक़ा रखती है। अगरचे हमारे मसीही नाज़रीन ने इस तम्सील को अक्सर इन्जील मुक़द्दस में पढ़ा होगा, लेकिन ग़ैर-अक़्वाम के फ़ायदे के लिए अगर हम अव्वलन तम्सील को पूरा लिखें तो नामुनासिब ना होगा। ख़ुदावंद ने फ़रमाया कि :-

“किसी के अंगूर के बाग़ में अंजीर का दरख़्त लगाया गया था और वो (बाग़ का मालिक) आया और इस पर फल ढूंढा और ना पाया। तब उसने बाग़बान को कहा कि देख तीन बरस से में आता हूँ और इस अंजीर का फल ढूंढता और नहीं पाता हूँ इसे काट डाल क्यों ज़मीन भी रोकी है। पर उसने जवाब दे के उसे कहा, ऐ ख़ुदावंद इस साल और भी इसे रहने दे ताकि इस के गर्द थाला (गढ़ा) खोदूँ और खाद डालूं शायद कि फल लाए, नहीं तो काट डाले।” (लूक़ा 13:6-9)

तक इस तम्सील का बयान ऐसा साफ़ है कि तफ़्सीर व शरह की ज़्यादा ज़रूरत नहीं ताहम चंद बातें लिखना मुनासिब समझते हैं। मुफ़स्सिरीन इन्जील ने इस की तफ़्सीर यूं की है, कि बाग़ का मालिक ख़ुदा है। अंगूर के बाग़ से दुनिया मुराद है और अंजीर का दरख़्त क़ौम यहूद है। बाग़बान ख़ुदावंद यसूअ मसीह है। और तीन साल मूसा और नबियों और ख़ुदावंद यसूअ मसीह का ज़माना हैं या ये कि मसीह यहूदीयों में तीन बरस अपनी ख़िदमत का काम करता रहा। या यूं समझिए कि इन्सान की ज़िंदगी के तीन ज़माने यानी लड़कपन जवानी और बुढ़ापा हैं। ग़र्ज़ तीन बरस जो अंजीर के फलने की इंतिज़ारी के लिए काफ़ी हैं, उनके ख़ातिमा पर भी सिवा पत्तों के इस में कुछ नज़र नहीं आता आख़िर हुक्म होता कि “इसे काट डाल क्यों कि ज़मीन भी रोकी है।” ये कैसे इबरतनाक अल्फ़ाज़ हैं “इसे काट डाल।” ये सच है कि हर फ़र्द व बशर इस बाग़-ए-आलम में अपनी जगह रोके हुए है। बाग़ का मालिक सब्र के साथ हर एक से फलों (कारहा-ए-ख़ैर) का इंतिज़ार करता है। एक साल यूँही गुज़र जाता और दूसरा शुरू होता है। लड़कपन खेल-कूद लहू व लइब (खेल तमाशों) में गुज़र जाता। जवानी में आँखों में चर्बी छा जाना नेक व बद कुछ नहीं सूझता शौक़ ऐश व इशरत तलब माल व दौलत नफ़्सानी व जिस्मानी ख़्वाहिशात की पैरवी में इन्सान दीवानादार जोयायाँ और पोयां रहता और नहीं जानता कि “उस की उम्र के दिन डाक से भी जल्द रूहैं वे उड़ जाते और चैन नहीं देखते हैं।” (अय्यूब 9:25) वो नहीं सोचता कि ख़ुदा की मेहरबानी इस पर इसी लिए है कि वो तौबा करे और उस के लायक़ फल लाए। नाज़रीन शायद हम तुम में से किसी की निस्बत 1890 ई॰ के इख़्तताम पर मालिक बाग़ की तरफ़ से फ़रमाया गया कि “इसे काट डाल क्यों कि ज़मीन भी रोकी है। लेकिन इस सिफ़ारिश कनुंदा यसूअ मसीह ख़ुदावंद की सिफ़ारिश पर जो मसले हुए सेंठे (सरकंडे) को नहीं तोड़ता और धुआँ उठते हुए सन को नहीं बुझाता, फ़रमाया हो कि इस साल 1891 ई॰ में और उसे रहने देता, कि इस के गर्द थाला (गड्ढा) खोदूँ और खाद डालूं शायद कि फल लाए, नहीं तो बाद इस के काट डालीयो हम फ़िलहाल इस बाग़-ए-आलम में मालिक बाग़ ने और रहने दिया, ताकि अम्साल उस के हस्ब-ए-मुराद फल ला दें। ख़ुदा करे नूर-अफ़्शाँ के नाज़रीन में से कोई ऐसा ना हो जिसके हक़ में साल-ए-रवां में ये फ़त्वा दिया जाये कि उसे काट डाल क्यों ज़मीन भी रोकी है।

ऐ हमारे बाप

OUR FATHER

ऐ हमारे बाप

By

Editorial

ऐडीटर

Published in Nur-i-Afshan Feb 5, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 5 फरवरी 1891 ई॰

इस में शक नहीं कि मज़्हब ईस्वी के अलावा दुनिया के अक्सर मज़्हबों में ख़ुदा के बहुत से ज़ाती व सिफ़ाती नाम पाए जाते हैं और उनकी दीनी किताबों में भी ख़ुदा तआला के अक्सर नाम लिखे हुए मौजूद हैं। मुसलमानों में ख़ुदा के 99 यानी निनान्वें नाम अरबी ज़बान में एक वज़ीफ़ा की किताब मौसूमा-बह-जोशन-कबीर में तर्तीबवार लिखे हुए हैं, जिन्हें वो बतौर वज़ीफ़ा रोज़मर्रा पढ़ते हैं अक्सर नाम अपने मुक़तदियों और शागिर्दों को उनके हादियों और उस्तादों ने खासतौर पर ताअलीम किए हैं, जिन्हें वो इस्म-ए-आज़म समझते और बाअज़ नाम के दरूद वज़ीफ़ा में एक मख़्सूस तासीर व ताक़त के मुअ़तक़िद हैं। मुहम्मदियों में ये ख़्याल बेशतर पाया जाता है। लेकिन ये एक मह्ज़ वहम व ख़्याल है कि फ़लां इस्म को हर रोज़ फ़लां वक़्त व मुक़ाम में फ़लां तौर व तरीक़े से सौ (100) या पांच सौ (500) या हज़ार (1000) दफ़ाअ पढ़ो और यह या वो मुराद व मतलब हासिल होगा। हमने मुसलमानों की अक्सर किताबों को इन इस्मयात (नामों) की तारीफ़ व तौसीफ़ और तर्कीब व फ़वाइद से भरा हुआ पाया और आज़माया मगर बजुज वसवास व उहाम के कुछ ना देखा। मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब के मुअल्लिमों में से किसी ने ये प्यारा नाम जो उन्वान में लिखा गया अपने पैरओं को कभी नहीं सिखलाया और ना ख़ुद उनके ज़हन में कभी आया क्योंकि उन्होंने ले-पालक होने की रूह ना पाई जिससे वो अब्बा यानी “ऐ बाप कह” सकते।

 

लेकिन इस मुअल्लिम यकता ने जो आस्मान से उतरा ख़ाकी बनी-आदम को ये शर्फ़ बख़्शा और सिखलाया कि वो ख़ुदा को “ऐ बाप” कह के पुकारते हैं और जो कुछ तासीर इस नाम में है मुहताज बयान नहीं। बाप की मुहब्बत का बयान जो कलामें-मुक़द्दस में पाया जाता है कौन उस की इंतिहा तक पहुंच सकता है? यूहन्ना रसूल अपने पहले ख़त में इन अल्फ़ाज़ का इस्तिमाल करता और कहता है, “देखो कैसी मुहब्बत बाप ने हमसे की है कि हम ख़ुदा के फ़र्ज़न्द कहलाएँ।” ख़ुदा ईमानदरों का बाप है और वह बिला-तकल्लुफ़ कह सकते हैं “ऐ हमारे बाप जो आस्मान पर है।” ख़ुदा की अलवियत मुहब्बत की मुक़तज़ी है। हम ख़ुदा की बाबत ख़्याल कर सकते हैं कि वो हमारा पैदा करने वाला, रहीम, हाफ़िज़ व निगहबान है। बावजूद इस सब के हम अपनी निस्बत उस की मुहब्बत को पहचानने में क़ासिर रहते हैं। कुम्हार मिट्टी के बर्तन का बनाने वाला है लेकिन वो अपनी बनाई हुई चीज़ से इस क़द्र मोहब्बत नहीं रखता।

बाज़-औक़ात हाकिम एक मुजरिम के ऊपर रहीम हो कर माफ़ी बख़्शता लेकिन वो मुजरिम के साथ और ज़्यादा मुहब्बत नहीं करता। एक सिपाही किसी क़ैदी का हाफ़िज़ व निगहबान मुक़र्रर किया जाता ताहम वो क़ैदी को महबूब व अज़ीज़ नहीं जानता। लेकिन ख़ुदा अपने लोगों का इस मानी में जो उस नाम के हैं बाप है। बाइबल ख़ुदा की मुहब्बत के इज़्हार से मामूर व भरपूर है। इस में सिर्फ ख़ुदा अपनी हक़ीक़ी मुहब्बत को अपने लोगों के साथ ऐसी मिसालियों से ज़ाहिर करता है, जो उस आदमी की समझ में जिसने इस मुहब्बत का कुछ मज़ा हासिल ना किया हो ख़ुदा की निस्बत हक़ीर मालूम होंगी और बेसाख़्ता उस की ज़बान से निकलेगा, कि ख़ुदा का अपने को ऐसी ना चीज़ मख़्लूक़ात से तश्बीह देना उस के जलाल और अज़मत के लायक़ नहीं। मसलन ख़ुदा अपने (आप) को उक़ाब से तश्बीह देता कि “जैसे उक़ाब अपने घोंसले को हिला-हिलाकर अपने बच्चों पर मंडलाता है, वैसे ही उसने अपने बाज़ुओं को फैलाया और उन को लेकर अपने परों पर उठाया। फ़क़त ख़ुदावंद ही ने उनकी रहबरी की और उस के साथ कोई अजनबी माबूद ना था।” (इस्तिस्ना 32:11-12) फिर ख़ुदावंद मुर्ग़ी से अपनी मिसाल देता और फ़रमाता “कितनी बार मैंने चाहा कि जिस तरह मुर्ग़ी अपने बच्चों को परों तले जमा कर लेती है, उसी तरह मैं भी तेरे लड़कों को जमा कर लूं।” (मत्ती 23:37) फिर वो अपने को दूध पिलाने वाली माँ से मुशाबेह करता और फ़रमाता, “क्या ये मुम्किन है कि कोई माँ अपने शीर-ख़्वार (दूध पीते) बच्चे को भूल जाये और अपने रहम के फ़र्ज़न्द पर तरस ना खाए? हाँ वो शायद भूल जाये पर मैं तुझे ना भूलूँगा। (यसअयाह 49:15) वो अपने को इन्सान से तश्बीह देता और फ़रमाता, “तू ने देखा कि जिस तरह इन्सान अपने बेटे को उठाए हुए चलता है, तुमको इसी तरह ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा तेरे उस जगह आ पहुंचने तक सारे रास्ते जहां-जहां तुम गए तुमको उठाए रहा।” (इस्तिस्ना 1:31) जब हम ऐसी मिसालों को जो ईलाही मुहब्बत के इज़्हार में कलाम-मुक़द्दस में बकस्रत पाई जाती हैं, पढ़ते हैं तो ताज्जुब से भर जाते। ख़ाकी कीड़ों पर इस क़द्र उस की मुहब्बत और प्यार का ज़ाहिर होना कैसी अजीब बात है। सच-मुच “क्योंकि ख़ुदा ने दुनिया से ऐसी मुहब्बत रखी कि उसने अपना इकलौता बेटा बख़्श दिया, ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो, बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।” (यूहन्ना 3:16) क्या ऐसी मुहब्बत ईलाही की मिसालें और बातें बजुज़ बाइबल और दीन-मसीही के और किसी किताब व मज़्हब में पा सकते हैं?

मसीहाना उम्मीद

Messianic Hope

मसीहाना उम्मीद

By

Kadarnath

कीदारनाथद

Published in Nur-i-Afshan Feb 19, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 19 फरवरी 1891 ई
(2 समुएल 24:13-14)

इस बयान का शुरू यूं होता है कि बाद इस के ख़ुदावंद का ग़ुस्सा इस्राईल पर भड़का, कि उसने दाऊद के दिल में डाला कि उनका मुख़ालिफ़ हो के कहे कि जा और इस्राईल और यहूदा को गिन। (2 समुएल 24:1)

मुख़ालिफ़ान मज़्हब ईस्वी इस आयत में उसने का मुशारन-इलय्या (जिसकी तरफ़ इशारा किया गया हो) ख़ुदावंद को ठहरा कर, 1 तवारीख़ की 21:1 से जहां लिखा है कि, शैतान इस्राईल के मुक़ाबले में उठा, पाक कलाम में मुख़ालिफ़त साबित करते हैं। लेकिन ये उनकी क़वाइद ज़बान (ज़बान के उसूल) से सरीह (बिल्कुल) ना-वाक़िफ़ी है, क्योंकि क़रीबन हर एक ज़बान में मह्ज़ इशारा हुस्न कलाम में दाख़िल है, फिर जो पहली आयत में मुक़द्दर है वो तवारीख़ में मौजूद है पस मुख़ालिफ़त ना रही। अब हम दाऊद की बादशाहत में मसीह का ईमा है। इस तरह उस की ज़िंदगी हम मसीहीयों की ज़िंदगी की ईमा (इशारा) ठहर सकती है। अगर हम इस बात का लिहाज़ रखें कि दुनिया के सफ़र में इन्सान को क़िस्म-क़िस्म के वाक़ियात का पेश आना ज़रूरी है और कि इन्सान की हालत यकसाँ नहीं ये सिर्फ़ ख़ुदावंद की सिफ़त है, जिसमें बदलने और फिर जाने का साया नहीं। (मलाकी 3:6, याक़ूब 1:17) चुनान्चे दाऊद की सवानिह उम्री इस मुद्दे की शाहिद है। एक वक़्त वो साऊल के मारने से बाज़ रहा। 1 समुएल 24:6 और 11:26 और एक वक़्त वो ज़िना में मुब्तला हुआ। 2 समुएल 11:4 ऊरिया को क़त्ल कराया।

2 समुएल 11:15 एक वक़्त वो ख़ुदा के संदूक़ के आगे नाचा। 2 समुएल 6:14 और एक वक़्त ख़ुदा की मर्ज़ी के बरख़िलाफ़ इस्राईल को शुमार कराया। 2 समुएल 24:1 और बावजूद मना करने के भी बाज़ ना आया। 2 समुएल 24:4 पर तो भी वो दिल से ख़ुदा के हुज़ूर रास्तबाज़ था। 1 सलातीन 3:14 दर्याफ़्त करना चाहिए कि वो रास्तबाज़ी दाऊद में क्या थी, जिसने बावजूद इस क़द्र सख़्त कमज़ोरीयों के भी उसे इस चट्टान पर क़ायम रखा? जिसका वो आप 18 ज़बूर की 2 में ज़िक्र करता है। इस का जवाब इसी 2 समुएल के 24:10 में मौजूद है कि दाऊद का दिल बेचैन हो गया और दाऊद ने कहा, कि मैं ख़ुदावंद का गुनाहगार हूँ। 2 समुएल 12:13 पर ये इक़रार वो इक़रार नहीं है जो यहूदा इस्करियोती को हलाकत तक पहुँचाता है। मत्ती 27:4 बल्कि पतरस के हम अश्कबारों को नजात के चशमें तक ले जाता है। मत्ती 75:26 इस इक़रार को हम मसीहाना उम्मीद कह सकते हैं और यही हमारी आयतों का मौज़ू है। आओ थोड़ी देर के लिए इस पर ग़ौर करें, और वो तीन ग़ौर हैं :-

अव़्वल : मसीहाना उम्मीद की तारीफ़

आने वाले ज़माने में किसी मिलने वाली चीज़ के आसार को उम्मीद कहते हैं ख़्वाह वो मिले ख़्वाह ना मिले, क्योंकि दुनिया बाउम्मीद क़ायम है। लेकिन मसीहाना उम्मीद इस के बरख़िलाफ़ है। ये उम्मीद शर्मिंदा नहीं करती। रोमीयों 5:5 बल्कि नाउम्मीदी में उम्मीद के साथ ईमान लाने का सबब है। रोमीयों 4:18 शरीरों (बेदीनों) की उम्मीद फ़ना होगी। अम्साल 10:28 पर मसीहाना उम्मीद ज़िंदा उम्मीद है। 1 पतरस 1:3 और ये उम्मीद ना इन्सान से, बल्कि ख़ुदा से लगाई गई है। ज़बूर 31:24 हाँ इसी उम्मीद पर रसूलों ने यरूशलेम को अपनी ताअलीम से भर दिया। आमाल 5:28 और इसी उम्मीद पर आज मसीही ताअलीम की इशाअत आलमगीर हो रही है।

दोम : मसीहाना उम्मीद की पाएदारी

दुनियादारों की उम्मीदें कमज़ोर हैं पर ख़ुदावंद के ख़ौफ़ में हमारी उम्मीद क़वी है। अम्साल 14:28 रियाकार की उम्मीद तोड़ी जाती है। अय्यूब 8:13 लेकिन हमारी उम्मीद आख़िर तक कामिल है। इब्रानियों 6:11 और वो उम्मीद गोया हमारी जान का लंगर है। इब्रानियों 6:19 वो किसी आज़माईश के टाले नहीं टलती और ना किसी मुसीबत से हटाए हटी है।

क्योंकि इस उम्मीद की बुनियाद ख़ुदावंद है। 1 तीमुथियुस 1:1 इस आग से जलती भट्टी पर नज़र करो, जिसमें सदरक मिसक और अबदनजू डाले गए। दानीएल 3:21 वो अपनी उम्मीदगाह पर साबित थे कि वो उन्हें बे-उम्मीद ना छोड़ेगा और बचाने पर क़ादिर है। दानीएल 3:17 जो ख़ुदा के बेटे की सूरत में इन तीनों में बनोकद-नज़र को चौथा नज़र आया। दानीएल 3:25

सोम : मसीहाना उम्मीद किन चीज़ों पर लगी है?

 

 

दुनियादारों की उम्मीद उन ही चीज़ों पर मौक़ूफ़ है जिन्हें वो देख सकते या जिन से मुतमत्ते (फ़ायदा उठाया जा सके) हो सकते वो उनकी नफ़्सानी ख़्वाहिशों के नताइज हैं या जिनको वो हासिल नहीं कर सकते। मसलन तमाम दुनिया की दौलत और हफ़्त…बादशाहत या दुनयवी सामान राहत पाने वाले जहान में। जन्नत और शराब व कबाब वग़ैरह पर शुक्र-ए-ख़ुदा कि मसीहाना उम्मीद उन अश्या पर लगी है, जिनको आँखों ने देखा और ना कानों ने सुना और ना दिल में आईं। 1 कुरिन्थियों 2:9 हम तो ख़ुदा के जलाल पर फ़ख़्र करते हैं। रोमीयों 5:2 और कि हम उम्मीद से बच गए। रोमीयों 8:24 बल्कि रूह के सबब ईमान की राह से रास्तबाज़ी की उम्मीद के बर आने के मुंतज़िर हैं। ग़लतीयों 5:5 और हमेशा की ज़िंदगी की उम्मीद है। तीतुस 1:2 और यही रुहानी ख़्वाहिशों के फल हैं। हासिल कलाम इस तमाम बयान से चंद फ़वाइद निकलते हैं।

  1. जो शख़्स फ़ज़्ल के तहत आ गया वो कभी हलाक नहीं हो सकता। ज़बूर 37:24, 2-कुरिन्थियों 9:4
  2. कोई शख़्स कैसा ही मज़्बूत क्यों ना हो पर गिर पड़ने का ख़ौफ़ है। 1 कुरिन्थियों 10:12
  3. आने वाली मुतअ़द्दिद मुसीबतों में से हल्की मुसीबत को इख़्तियार करना अक़्लमंदी का काम है।
  4. दुख-सुख दोनों हालतों में सिर्फ ज़िंदा ख़ुदा के हाथों में पड़ना ईमानदारी का निशान है।

राक़िम

केदारनाथ मिडिल क्लास मदरिसा इल्म ईलाही- सहारनपूर

मज़ाहिरे हक़

Mazahr-e-Haq

मज़ाहिरे हक़

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan March 5, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 5 मार्च 1891 ई॰

जिल्द सोम, किताब-उल-जिहाद सफ़ा 345 में लिखा है कि उन लोगों की निस्बत जो जिहाद में मारे जाते हैं। “हज़रत ने फ़रमाया, कि उनकी रूहें सब्ज़ परिंदे जानवरों के शिकम में रहती हैं और उनके लिए क़ंदीलें अर्श के नीचे लटकाई गई हैं जो बमंज़िला उनके घोंसलों के हैं। और वो बहिश्त (जन्नत) के मेवे खाते हैं और उन क़ंदीलों में ठिकाना (बसेरा) पकड़ते हैं। इस की बाबत इस किताब में बतौर शरह अगरचे ये लिख दिया है कि इस से तनासुख़ का इस्बात नहीं होता तनासुख़ उस को कहते हैं कि इस आलम में रूह बदन में रुजू करे ना कि आख़िरत में और मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) इन तनासुख़ (तनासुख़ पर ईमान रखने वाले) आख़िरत के मुन्किर हैं।”

लेकिन हमारे ख़्याल में नहीं आता कि ऐसा लिख देने से ये एतराज़ इस ताअलीम पर से क्योंकि दूर हो सकता है? अगर ये अम्र नामुम्किन तस्लीम किया जाये कि रूह इन्सानी इस आलम में किसी ग़ैर-जिन्स जिस्म में नहीं आ सकती तो फिर ये क्योंकर मुम्किन है कि वो रूह सब्ज़-रंग जानवरों में बहिश्त (जन्नत) में रखी जाये और वो जानवर क़ंदीलों में जो बजाय घोंसलों के अर्श में लटकती हैं बसेरा लें। इलावा-अज़ीं मुअतक़िदान (अक़ीदत रखने वाले) तनासुख़ मुन्किरे आख़िरत नहीं, बल्कि कहते हैं कि चौरासी भगत कर आख़िर को अबदी आराम में रूह पहुंच जाती है। हमारे नज़्दीक इन्सानी रूह का ना इस दुनिया में ना आख़िरत में किसी ग़ैर-जिन्स क़ालिब में जाना क़रीन-ए-अक़्ल व इल्हाम मालूम होता है। और ना हम ऐसी बातों को इन्सान की अबदी ज़िंदगी व ख़ुशहाली के मुताबिक़ पाते हैं। बेशक ख़ुदा के कलाम में जो कुछ इस अम्र में लिखा है वो निहायत तसल्ली बख़्श मालूम होता है। इन्जील में कुरिन्थियों के 15 बाब 39 आयत से यूं है,

“सब जिस्म वही जिस्म नहीं बल्कि आदमीयों का जिस्म और है, चौपाईयों का जिस्म और, मछलीयों का और है परिंदों का और, आस्मानी बदन हैं और ख़ाकी बदन हैं पर आस्मानियों का जलाल और है और ख़ाकियों का और, आफ़्ताब का जलाल और है और माहताब का जलाल और, और सितारों का जलाल और है क्योंकि सितारा सय्यारे से जलाल में फ़र्क़ रखता है। मुर्दों की क़ियामत भी ऐसी ही है। फ़ना में बोया जाता बक़ा में उठता है, बेहुरमती में बोया जाता जलाल में उठता है। कमज़ोरी में बोया जाता क़ुदरत में उठता है। हैवानी बदन बोया जाता है रुहानी बदन उठता है। हैवानी बदन है और रुहानी बदन है। चुनान्चे लिखा है कि पहला आदमी यानी आदम जीती जान हुआ और पिछ्ला आदम (यानी यसूअ मसीह) जिलानी वाली रूह। लेकिन रुहानी पहले ना था, बल्कि हैवानी बाद उस के रुहानी। पहला आदमी ज़मीन से खाकी था दूसरा आदमी ख़ुदावंद आस्मान से है। जैसा ख़ाकी वैसे वे भी जो ख़ाकी हैं, और जैसा आस्मानी वैसे भी वो भी आस्मानी हैं। और जिस तरह हम ने ख़ाकी की सूरत पाई है हम आस्मानी की सूरत भी पाएँगे।”

पस वो जो मरने के बाद आख़िरत में ये उम्मीद रखते हों ख़्वाह मुहम्मदी हों जो आक़िबत में सब्ज़-रंग परिंदों के पेट में रहने और मेवे खाने और क़ंदीलों में ठिकाना पाने के मुंतज़िर हैं या हिंदू जो चौरासी जीवन भोगने के ख़रख़शा में पड़े हुए हैं। कलाम ईलाही की आयात बाला पर ग़ौर करें और अगर उस ख़ुदावंद पर जो आस्मान से उतरा और इन्सानियत के लिबास को पहन कर हम ख़ाकियों का हम-शक्ल बना और गुनाह के सिवा सारी बातों में हमारी मानिंद आज़माया गया और अपने लहू से हमें मोल लेकर शरीअत की लानत से छुड़ा दिया ईमान लाएं तो वो जैसा उन्होंने ख़ाकी की सूरत पाई है रुहानी की सूरत भी पाएँगे। और सब्ज़-रंग परिंदों में या गधे कुत्तों के जीवन में रहने के ख़्याल से बेफ़िक्र और मुत्मइन होंगे।

मेरी चार आने वाली इन्जील

Gospel I Have Bought For Four Cents

मेरी चार आने वाली इन्जील

By

Kadarnath

कीदारनाथ

Published in Nur-i-Afshan Feb 19, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 19 फरवरी 1891 ई॰

अज़ीज़ो दोस्तो ! ये मेरी चार आने वाली इन्जील वही इन्जील है जिसको मैंने उस हालत में मोल लिया जब कि मैं शरारत और बेईमानी से इन्जील का मुख़ालिफ़ था और बावजूद कि प्यासा था तो भी नहीं चाहता था कि पानी के पास आऊँ, और बे-क़ीमत मोल लूं और आब-ए-हयात मुफ़्त पियूँ। पर साथ ही इस के मैं उनसे मुत्तफ़िक़-उल-राए ना था। जो फ़साना अजाईब और अलिफ़ लैला तो ख़रीद कर के पढ़ें मगर इन्जील को फूटी आँखों से भी देखना कुफ़्र और गुनाह समझें हरचंद को मेरा भी इन्जील को मोल लेना और पढ़ना ना उस ग़र्ज़ से था कि अपनी प्यास इस से बुझाऊं, बल्कि अपनी नालायक़ फ़हमीदा और नाशाइस्ता एतराज़ात से इस चशमे साफ़ी की रद्द को जो अजीब जोश में लहरें मारता मेरी तरफ़ आता था रोक दूं और यूं अपनी आबाई टूटे हौज़ की ओस से तिश्नगी बुझाना चाहता था, पर क्या हुआ? ख़ुदा के इस फ़ज़्ल की बोहतात के जो इन्जील के हर सफ़ा से ज़ाहिर है मेरे दिल को चारों तरफ़ से घेर लिया और मज्बूर किया कि इस चशमें से पीकर सेराब होऊं। तब मैंने पिया और इस तरह वो चार आने जिनकी कुछ अस्ल नहीं थी मेरे लिए इस क़द्र मुफ़ीद ठहरी कि आस्मानी ख़ज़ाना हाथ आ गया, कैसा नादान हैं वो शख़्स जो झूटी दौलत से सच्ची दौलत को नहीं ख़रीद करते और इस झूटी दौलत को यहां तक प्यार करते कि उनको गवारा नहीं होता कि वो पैसा देकर मत्ती या यूहन्ना की इन्जील को मोल लें और पढ़ें-पढ़वाएं ग़फ़लत और नादानी के वो पैसे के लालच में पड़ कर हमेशा की दौलत को खोते हैं, फिर दम-ए-आख़िर रोते हैं। काश कि हमारी कमाई के दो पैसे ही इन्जील के ख़रीद करने में सिर्फ हों, ताकि दौलत लाज़वाल हाथ आए। चूँकि अज़ीज़ो हिंदू-मुसलमानों ! ख्व़ाब-ए-ग़फ़लत से बेदार हो। लो ये दो पैसे कि यूहन्ना की इन्जील। इस में क्या लिखा है, नेक काम करो और नजात पाओ? नहीं। ये हो नहीं सकता। जिस हाल में हम बुरे हैं बस बुरों से बुरे ही काम होंगे। इस में लिखा है कि ख़ुदा ने जहान को ऐसा प्यार किया। वाह क्या उम्दा अल्फ़ाज़ हैं जो बेसाख़्ता तबीअतों को खींचे लेते हैं और फ़ौरन अव़्वल से सवाल पैदा होता है कि कैसा प्यार किया? जवाब मिलता है कि उसने अपना इकलौता बेटा बख़्शा। वाह क्या अच्छी बात है। पर हमको क्या फ़ायदा? जवाब मिलता है कि जो कोई इस पर ईमान लाए हलाक ना हो, बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए। हाँ दोस्तो क्या तुम हलाकत से बच कर हमेशा की ज़िंदगी पाना चाहते हो? अगर चाहते हो तो लो।

रफ़ीक़ मुहाजरत

I will send him to you

रफ़ीक़ मुहाजरत

John 16:7-8

By

Kidarnath

केदार नाथ

Published in Nur-i-Afshan Dec 19, 1889

नूर-अफ़शाँ मत्बुआ यक्म दिसम्बर 19 ,1889

“लेकिन मैं तुम से सच कहता हूँ कि मेरा जाना तुम्हारे लिए फ़ाइदेमंद है क्योंकि अगर मैं ना जाऊं तो वो मददगार तुम्हारे पास ना आएगा लेकिन अगर जाऊंगा तो उसे तुम्हारे पास भेज दूंगा, और वो आकर दुनिया को गुनाह और रास्तबाज़ी और अदालत के बारे में क़सूरवार ठहराएगा। (यूहन्ना 7:16-8) इन दोनों आयतों पर लिहाज़ करने से अगरचे और भी मौज़ू निकलते हैं मगर सबसे उम्दा कलाम इलाही के मुताबिक़ रफ़ीक़ मुहाजरत (رفیق مہاجرت) है, क्योंकि 2 कुरिन्थियों 13:14 इस तसल्ली दहिंदा की सिफ़ते रिफ़ाक़त मर्क़ूम है। अब दर्याफ़्त करना चाहीए कि लफ़्ज़ तसल्ली के मअनी लुग़त में सुकून-ए-क़ल्ब तहरीर हैं जिससे यहा मुराद हो सकती है कि मन जो चंचल है वो क़रार पाए। यही ख़ासीयत पाराह (پارہ) की हो। पस अगर मुम्किन हो कि हरारत पाराह को साकिन करती है तो लाज़िम है कि रूह पाक की हरारत गुनेहगार इन्सान के दिल को तस्कीन बख़्शे। याद रखना चाहीए कि ख़ुदावंद मसीह ख़ुदा हो कर दिलों का ख़ालिक़ है और पाराह भी उसी की मख़्लूक़ है और ज़रूर वो दोनों की उन खासियतों से भी जो कि उन में हैं वाक़िफ़ हो तब ही उस ने रूहुल-क़ुद्दुस से तसल्ली पाई यहां तक कि छल्ले अँगूठी तसावीर वग़ैरह को तसल्ली दहिंदा क़रार दे दिया बारहा देखा जा सकता है कि जब एक दूसरे से अलग होता है और जुदाई के सदमे से रोता है तब मुंदरजा बाला अश्या की हवालगी से तसल्ली पाने का झूटा ढकोसला (धोका) पेश किया जाता है। ये बात ना सिर्फ लोगों ही पर मौक़ूफ़ हो बल्कि मज़्हबी पेशवाओं में भी इस तसल्ली ने रिवाज पाया है।

 

चुनान्चे मुहम्मद साहब ने भी मरते वक़्त सहाबा से फ़रमाया कि, ’’انی تارک فیکم الثقلین ماان تمسکم بہمالن تضلوابعدی‘‘ यानी मैं तुम में छोड़ने वाला हूँ दो चीज़े गिरां कि जब तक तुम उन दोनों पर चंगुल मारते (चिमटे) रहोगे मेरे बाद हरगिज़ गुमराह ना होंगे उन दोनों में बड़ी चीज़ किताब-उल्लाह और छोटी मेरे क़िराबती, (रिश्तेदार, अहले बैत है।) लेकिन अक़्लमंद आदमी अगर ज़रा भी इन चीज़ों और उनकी हाजतों पर फ़िक्र करें तो मालूम हो जाएगा कि हक़ीक़ी नस्ली इनमें कहाँ है और दुनिया के लोगों और ख़ुदावंद मसीह के तसल्ली दहिंदा में ज़मीन व आसमान का फ़र्क़ है चूँकि मुहम्मदी भाई चंद मुतअस्सिब उलमा के बहकाने और उस्मान के फ़रमाने से इस सच्ची तसल्ली दहिंदा को मुहम्मद साहब मानते हैं जैसा कि मुबाहसात-फ़रीक़ैन (दोनों तरफ़ के लोगों की बह्स) से वाज़ेह है पस हमारा फ़र्ज़ है कि हम उन को हक़ीक़ी और असली तसल्ली दहिंदा की तरफ़ मुतवज्जोह कर दें। भाई मुहम्मदियों अगर बक़ौल उस्मान मुहम्मद साहब तसल्ली दहिंदा थे तो ख़ुद मुहम्मद साहब ने क़ुरआन और क़राबतयों (रिश्तेदारों) को तसल्ली दहिंदा क्यों माना? इसलिए आप लोगों का ये फ़हम बमंज़िला वहम (इतनी समझ जिस पर शक होने लगे) है अब क़ुरआन और क़राबतयों (रिश्तेदारों) के हक़ में ख़्याल फ़रमाईए मुहम्मद साहब के ख़ुसर्र जनाब उमर हसबना किताब-उल्लाह में (बस है मुझको अल्लाह की किताब काफी) क़राबतयों (रिश्तेदारों) से मह्ज़ इन्कार फ़रमाते हैं और मुहम्मद साहब के दामाद हज़रत अली कहते हैं, ھَذا قُرآن صامت ये क़ुरआन गूँगा है واناقرآنُ ناطق और मैं क़ुरआन गोया हूँ। देखो उमर के क़ौल से क़िराबती नदारद हुए और अली के इक़रार से क़ुरआन का तसल्ली दहिंदा ना होना साबित हुआ और मुहम्मद साहब के ख़्याल से ख़ुद मुहम्मद साहब तसल्ली दहिंदा नहीं हैं, फिर क्यों नहीं मसीह तसल्ली दहिंदा को क़ुबूल करते हो। अब ख़्याल करो कि ख़ुदावंद मसीह ने क्यों तसल्ली दहिंदा ज़रूरी समझा इसलिए कि बग़ैर उस के गुनाहगार इन्सान पाकीज़गी को हासिल नहीं कर सकता और जब तक पाक ना हो ख़ुदा को नहीं देख सकता। मत्ती की इंजील 8:5 तेरहवीं सदी के इमाम अबू अलनसूर साहब अपनी किताब नवेद जावेद के सफ़ा 496 सतर 14,13,12 में फ़रमाते हैं रूह-क़ुद्दुस तीसरा है दूसरा नहीं हो सकता।

लेकिन उन्होंने बे-सोचे ऐसा दावा किया जो कलाम इलाही के ख़िलाफ़ है देखो 2, कुरिन्थियों 13:14 में बाप दूसरा है और मुकाशफ़ात 1:4-5 में यही रूहुल-क़ुद्दुस दूसरा है फिर इस नज़ाअ-लफ़्ज़ी से क्या फ़ायदा और क्या ये तसल्ली मिल सकती है? फिर ख़ुदावंद मसीह ने फ़रमाया कि तसल्ली दहिंदा के आने के लिए मेरा जाना ज़रूरी है और ये सच है क्योंकि मसीह का इस जहां में आना इसलिए था कि नजात तैयार करे जिसमें उस का पैदा होना, सलीब पर जान देना, ज़िंदा होना और आस्मान पर सऊद फ़रमाना शामिल है क्योंकि अहबार 16:15 के मुताबिक़ ज़रूर था कि सरदार काहिन ख़ून लेकर पाक तरीन मकान में पर्दे के अंदर आए। इस तरह ख़ुदावंद मसीह अपना ख़ून लेकर ख़ुदा बाप के हुज़ूर में आया। अब कि नजात तैयार है ज़रूर हुआ कि दूसरा तसल्ली दहिंदा रूह उल-क़ुद्दुस जहान में आकर तमाम गुनाहगारो को ये नेअमत उज़्मा पहुंचा दे, क्या ये हो सकता था कि जब तक ख़ुदावंद हमारा काहिन लहू लेकर पाक तरीन में दाख़िल ना हो और हनूज़ कफ़्फ़ारा कामिल ना हुआ हो और रूहुल-क़ुद्दुस अपना काम शुरू करने को आ जाता मुम्किन नहीं ये मुहाल-ए-मुत्लक़ है। पस ख़ुदावंद का सऊद हमारा ऐन बहबूद है। फिर ख़ुदावंद ने आप ही फ़रमाया था कि, “और मैं अगर ज़मीन से ऊंचे पर चढ़ाया जाऊँगा तो सबको अपने पास खींचूँगा” यूहन्ना (12:32) और ये कशिश रूहुल-क़ुद्दुस पर मौक़ूफ़ थी “कोई बग़ैर रूहुल-क़ुद्दुस के यसूअ को ख़ुदावंद कह नहीं सकता।” 1 कुरिन्थियों 12:3 लफ़्ज़ ख़ुदावंद इब्रानी में यहोवा है जिसके मअनी हैं “नजातदिहंदा ख़ुदा” और वो मसीह है। दरहक़ीक़त ये दुनिया गुनाह का कुँआं है जिसमें इन्सान गिर गया तब ख़ुदावंद मसीह भी इस कुँए में आया ताकि गुनाहगार इन्सान को फिर ऊपर लाने का इंतिज़ाम करे बाद वो ऊपर आया अब रूहुल-क़ुद्दुस की डोरी से हर एक को खींचता है।

आठवीं आयत में लिखा है कि वो तसल्ली दहिंदा दुनिया को गुनाह और रास्ती और अदालत से मुल्ज़िम ठहराएगा वाक़ई ये भी ज़रूर था क्योंकि जब तक इन्सान भूका नहीं खाने की ज़रूरत नहीं समझता प्यासा नहीं पानी के पाने की परवाह नहीं रखता तक्लीफ़ ना देखे आराम की क़द्र नहीं करता। इसी तरह जब रूह पाक इन्सान को उस के गुनाह से वाक़िफ़ करता तब वो मानता है कि मैं गुनाहगार हूँ फिर रास्ती से जो क़ुव्वत मर्ज़ी है उसे साफ़ बताता है कि तेरी वो असली हालत कि जब सिर्फ रास्ती का तालिब था जाती रही और इस बर्गशतगी की हालत में दिल सरासर बुतलान का तालिब है तब वो गुनाहगार इक़रारी होता है कि फ़िल-वाक़ेअ मेरा यही हाल हो। फिर अदालत से रूह पाक इन्सान को यूं मुल्ज़िम क़रार देता है कि हाँ जब इन्सान गुनाहगार है और सच्चाई को खो बैठा तब ज़रूर है कि गुनाह की मज़दूरी मौत मुंदरजा पैदाइश 2:17 “जिस रोज़ तूने उस में से खाया तू मरा।” उस को बजाय ख़िलाफ़ उस के इन्साफ़ क़ायम नहीं रह सकता। उस वक़्त फोरन गुनाहगार के मुंह से ये कलिमा निकलता है कि, “ऐ साहिबो मैं क्या करूँ कि नजात पाऊं?” (आमाल 16:30) उस वक़्त ख़ुदावंद मसीह गुनाहगार को रूहुल-क़ुद्दुस के वसीले खींचता है। फिर सारे दुख-दर्द सहने भाई-बंद के छूटने बिरादरी की लॉन-तान हत्ता कि जान जाने तक में तसल्ली हासिल होती है जैसा कि ख़ुदावंद के शागिर्दों पतरस, याक़ूब, स्तिफ़नुस और पौलुस वग़ैरह के हालात से हमारे दिल को तसल्ली हासिल होती है। काश कि हमारे भाई मुहम्मदी साहिबान भी इस दूसरे तसल्ली दहिंदा के ज़ेर-ए-साया हमारी तरह ख़ुदावंद की मुहाजरत में उस के आने तक इस ज़िंदगी के सफ़र को बदल-जमुई तमाम तय करें।

मसीह का जी उठना

The Resurrection of Jesus

मसीह का जी उठना

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan May 01, 1884

नूर-अफ़शाँ मत्बुआ यक्म मई 1884 ई॰

पिछले महीने में यानी माह अप्रैल की तेरहवीं (13) तारीख़ में मसीही जमाअत के बहुत लोगों ने ख़ुदावंद यसूअ़-मसीह के जी उठने की यादगारी का त्यौहार मनाया इस त्यौहार का नाम ईस्टर का त्यौहार है मैं इसकी बाबत चंद बातें नूर-अफ़शाँ के पढ़ने वालों की गोश गुज़ार करता हूँ :-

 

1- ये त्यौहार जैसा ऊपर मज़्कूर हुआ मसीह की मुर्दों में से जी उठने की यादगारी में है सारे मसीहीयों का एतिक़ाद ये है कि ख़ुदावंद यसूअ़-मसीह सलीब पर खींचा गया मर गया और दफ़न हुआ और तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठा आख़िरी हिस्सा इस अक़ीदे का ऐसा ही एतबार के लायक़ है जैसा पहला हिस्सा यानी मसीह का मुर्दों में से जी उठना ऐसा ही पुख़्ता दलीलों से साबित किया हुआ है जैसा उसका सलीब पर खींचा जाना चारों इंजील नवीसों ने इस कर-सराहत से बयान किया है और आमाल की किताब और पौलुस रसूल और दीगर रसूलों के ख़ुतूत में सफ़ाई से मज़्कूर हुआ इन सारे बयानों को अगर हम फ़राहम करें तो हमें मालूम होगा कि ख़ुदावंद यसूअ़-मसीह जी उठकर चालीस दिन इस दुनिया में रहा और इस हंगाम (वक़्त, ज़माना) में मुख़्तलिफ़ तौर पर मुख़्तलिफ़ मौक़े में मुख़्तलिफ़ अश्ख़ास के रूबरू ज़ाहिर हुआ कम से कम ग्यारह ज़हूर का तज़्किरा नए अह्दनामें में पाया जाता है। पहले वो एक औरत पर जब कि वो अकेली थी ज़ाहिर हुआ फिर उसको कई औरतों ने मिलकर देखा बाद अज़ां एक मर्द ने और फिर दो मर्दों ने फिर दस रसूलों को शाम के वक़्त एक कमरे में दिखाई दिया उसके पीछे ग्यारह रसूलों पर जबकि वो एक कमरे में इकट्ठे थे और बाद उसके पाँच मुख़्तलिफ़ मवाज़े (गांवकीजमा, जगहों) में जिनमें से एक मौज़ा (गांव) में कम से कम पाँच सौ (500) आदमी हाज़िर थे शागिर्दों ने उसके बदन को छुआ और उसके साथ बात-चीत की और उसको खाते और पीते देखा ये लोग बलीग़-उल-एतिक़ाद (कामिल यक़ीन, पुख़्तायक़ीन) न थे जबतक उसको न देखा था उस पर यक़ीन न लाए कि वो सच-मुच जी उठा मगर जबकि कई बार मुशाहिदा हुआ तो यक़ीन आया मसीही मज़्हब में कोई बात ऐसी पुख़्ता और क़ाबिल-ए-एतिबार नहीं जैसा उसका मुर्दों में से जी उठना उसकी मुख़ालिफ़त में आजतक किसी लामज़्हब ने कोई कामिल दलील पेश नहीं की रसूलों पर इसका जी उठना ऐसा मोअस्सर हुआ कि उनकी अंदरूनी हालत और ज़िंदगी बिल्कुल बदल गई इससे पहले वो निहायत कमज़ोर और डरपोक थे लेकिन मसीह को ज़िंदा हुआ देखकर डर और ख़ौफ़ उन्हें न रहा और उन्होंने बड़ी दिलेरी के साथ इसी शहर के लोगों के सामने जहां मसीह पचास (50) रोज़ पैश्तर मस्लूब हुआ था और उन्हीं लोगों के सामने जिन्होंने उसको सलीब पर खींचा था यानी सरदार काहिन और क़ौम के बुज़ुर्गों के सामने मसीह के जी उठने पर गवाही दी हज़ार-हा आदमी उनकी गवाही को क़ुबूल कर के मसीही जमाअत में शामिल हुए उस वक़्त उसकी और उनकी गवाही के ख़िलाफ़ पर कोई खड़ा न हुआ और न उनके झुठलाने का किसी ने क़सद किया। अगर मसीह क़ब्र में से जी न उठता बेशक उसके दुश्मन जिन्होंने पीलातुस के पास जाकर कहा था कि तीन दिन तक क़ब्र की निगह-बानी हो ताकि उसके शागिर्द रात को आकर उसे चुरा न ले जाएं और कहें कि वो मुर्दों में से जी उठा है ताकि पिछ्ला फ़रेब पहले से बदतर न हो। अगर मसीह सच-मुच मुर्दों में से जी न उठता तो ज़रूर ये लोग उसकी लाश क़ब्र में से लाकर दिखला देते। इलावा बरीं हम अच्छी तरह से जानते हैं कि मसीह के जी उठने का यक़ीन शागिर्दों के दिलों में ऐसे कामिल तौर पर पैदा हो गया था कि उन्होंने उसकी ख़ातिर अपनी जान तक देना दरेग़ न किया और बाज़ों ने दे भी दी ऐसे यक़ीन का सबब उनका पूरा इत्मीनान ख़ातिर था अब चाहीए कि ये हमारे भी इत्मीनान का सबब ठहरे जर्मनी देश के मशहूर मुन्किर पास और एस्ट्रास साहब ने मान लिया है कि, “शहादत इस अम्र में ऐसी क़वी है कि अक़्ल बावर करती है कि ज़रूर कुछ अजीब बात इस माजरे के साथ वक़ूअ में आई होगी।”

2- मसीह का जी उठना जैसा क़ाबिल-ए-एतिबार है वैसा ही मसीह सच्चे दीन के उसूल और बुनियादी मसाइल में से शुमार हुआ। ये उसका कामिल सबूत है कि मसीह वही नजात देने वाला था जिसकी बाबत नबियों की पेशगोई में मज़्कूर हुआ ये वो बड़ा निशान है जिसका तज़्किरा ख़ुद मसीह ने किया जबकि यहूदीयों ने उससे आस्मानी मोअजिज़ा तलब किया यानी यूनाह नबी का निशान और हैकल की दुबारा तामीर करने का निशान उसके ढा देने के बाद अगर वो मुर्दों में से जी न उठता तो उसके शागिर्द उसपर ईमान न लाते। ये माजरा उस नजात के काम का इख्तिताम था जिसके पूरा करने के लिए वो दुनिया में आया इससे साबित हुआ कि ख़ुदा की दरगाह में उसका कफ़्फ़ारा मक़्बूल हुआ और गुनाह और मौत पर वो ग़ालिब आया इसलिए रसूल कहता है कि वो हमारी ख़ता के वास्ते हवाले कर दिया गया और फिर मुर्दों में से जिलाया गया ताकि हम रास्त-बाज़ ठहरें फिर लिखा है कि ख़ुदा ने हमको अपनी बड़ी रहमत से यसूअ़-मसीह के मुर्दों में से जी उठने के बाइस ज़िंदा उम्मीद के लिए अज़सर-ए-नौ पैदा किया। (रोमीयों 4:25, 1 पतरस 1:3)

इससे पाया जाता है कि अगर मसीह ज़िंदा न होता तो हमारी उम्मीद भी अम्र वो और मुनक़तेअ होती *सिवा इसके याद रखना चाहीए कि मसीह का मुर्दों में से जी उठना हमारी रुहानी ज़िंदगी और नेअमतों के साथ ताल्लुक़ रखता है। रसूलों के ख़त में ईमानदारों के हक़ में बयान हुआ है कि वो मसीह के साथ जी उठे और उसकी नई ज़िंदगी में शरीक होकर आस्मानी मकानों में उसके साथ बिठा के गए हैं। मसीह के जी उठने से हमको भी तसल्ली और यक़ीन होता है कि क़ियामत के रोज़ हम भी जी उठेंगे वो पहला फल है और जो उस पर ईमान रखते हैं उसके पीछे जी उठेंगे उनको मौत से मुख़ालिफ़त होना चाहीए और क़ब्र उनके वास्ते डरने का बाइस नहीं, मसीह उनका सर है और वो उनके बदन के आज़ा अगर सर ज़िंदा है तो बदन भी ज़िंदा है। जबकि हम मसीह के जी उठने की यादगारी करें तो हमें ये बातें भी याद रखनी चाहिए मसीह की मौत और कफ़्फ़ारा को याद करना अच्छा है लेकिन उसके जी उठने को याद करना उससे भी अच्छा है क्योंकि ये उसके कफ़्फ़ारे के तकमिला (तक्मील) का सबूत है।