लेकिन जब रूह-उल-क़ुद्स तुम पर आएगा तो तुम क़ुव्वत पाओगे। और यरूशलेम और सारे यहूदिया व सामरिया में बल्कि ज़मीन की हद तक मेरे गवाह होगे। (आमाल 1:8)
लूक़ा के चौबीसवें बाब की 49 वीं आयत में ख़ुदावन्द मसीह ने रूह-उल-क़ुद्स को मौऊद (वाअदा किया गया) फ़रमाया और शागिर्दों से कहा। देखो मैं अपने बाप के उस मौऊद को तुम पर भेजता हूँ। लेकिन तुम जब तक आलम-ए-बाला की क़ुव्वत से मुलब्बस (क़ुव्वत से भरना) ना हो यरूशलेम में ठहरो। ये ख़ुदावन्द की आख़िरी तसल्ली बख़्श बात थी। जिसमें एक ऐसा वाअदा शामिल था, कि जब तक वो पूरा ना हो लिया मसीह के रसूल उस की गवाही देने के क़ाबिल ना हो सके। क्योंकि सिर्फ रूह-उल-क़ुद्स ही क़ुव्वत व क़ुद्रत का वो सर-चशमा है। जिससे सब मुक़द्दसों में क़ुव्वत और हिम्मत व जुर्रत पैदा होती। और कलाम के समझने, मज़ामीन रुहानी की बर्दाश्त, रुहानी जंग की क़ुव्वत, कलाम की ख़िदमत उसी की मदद से होती है। मालूम होता है कि मसीह के आस्मान पर उरूज (उठाया जाना) फ़रमाने के बाद सब शागिर्द यरूशलेम ही में एक बाला -ख़ाना में फ़राहम (इकट्ठे) रह कर इस मौऊद मसऊद (मुबारक वाअदा) की इंतिज़ारी में शब व रोज़ दुआ मांगने और इबादत करने में मशग़ूल (मसरूफ़) रहे। और जब ईदे पंतकोस्त का दिन आया तो वो वाअदा अजीब तौर से पूरा हुआ। और जब कि ईद मज़्कूर की तक़रीब के बाइस तख़मीनन पचपिस लाख यहूदी ममालिक मुख़्तलिफ़ा के यरूशलेम में जमा थे। सब के देखते हुए रोज़-ए-रौशन में मजमा-ए-आम में आतिशी ज़बान की सूरत में नाज़िल हो कर उन बेइल्म उम्मी (अनपढ़) गलीली मछोओं को ग़ैर-ज़बानों में ख़ुदा की उम्दा बातें बोलने और मसीह के नजात बख़्श नाम की निहायत दिलेरी व इस्तिक़लाल (मज़बूती) के साथ गवाही देखने के क़ाबिल कर दिया। ज़रूर था कि अव्वलन मसीह की ख़ुशख़बरी यहूदीयों को दी जाये। और यरूशलेम से ये काम शुरू किया जाये। जहां के हज़ारों आदमीयों ने मसीह को मस्लूब होते हुए देखा था।
उस की ज़िंदगी में उस के कलाम को सुना था। और उस को बख़ूबी जानते पहचानते उस के मोअजज़ात को मुशाहिदा कर चुके थे। क्योंकि ये बातें कोने में नहीं हुईं। पस रसूलों ने इस वक़्त से एक अर्सा तक मसीह की गवाही यरूशलेम शहर में बड़े जोश व ख़रोश के साथ दी। और सबसे ज़्यादा ज़ोर इसी एक बात पर दिया कि येसू वही मसीह है जिसका ज़िक्र नविश्तों में किया गया। जिसको क़ौम यहूद ने पिलातूस से दरख़्वास्त कर के सलीब दिलवा दी और क़त्ल किया। और वही येसू मुर्दों में से जी उठा है। आख़िर दिन में वही दुनिया की अदालत करने को फिर आएगा। और ये कि उस के सिवा और कोई नजातदिहंदा नहीं। जो उस के नाम पर ईमान लाता है। सो वही नजात पाएगा।
अगरचे ये हुक्म ख़ुदावन्द ने उस वक़्त उन ही शागिर्दों को जो हाज़िर थे दिया। मगर इस की तामील (अमल करना) हर एक मसीही ईमानदार पर फ़र्ज़ है। हर एक मसीही मोमिन ख़ुदावन्द मसीह का गवाह है। और वाजिब है कि वो अपने आमाल व अक़्वाल, हरकात व सकनात ज़िंदगी और मौत से अपने नजातदिहंदा की गवाही दे और ऐसा करने से वो अपने को फ़रिश्तों, नबियों और रसूलों का हम-ख़िदमत साबित करेगा।
और मैं अपने बाप से दरख़्वास्त करूंगा। और वो तुम्हें दूसरा तसल्ली देने वाला देगा, कि तुम्हारे साथ अबद तक रहे। यानी सच्चाई का रूह जिसे दुनिया नहीं पा सकती। क्योंकि उसे नहीं देखती ना उसे जानती है। लेकिन तुम उसे जानते हो। क्योंकि वो तुम्हारे साथ रहता है। और तुम में होगा। यूहन्ना 14_16:17
दूसरा तसल्ली देने वाला
जिस यूनानी लफ़्ज़ का तर्जुमा है वो दरअस्ल पाराक़लीतस (दूसरा मददगार) है। मुहम्मदी इस को फ़ारक़लीत (فارقلیط) (तारीफ़ किया गया) कहते और मुहम्मद साहब की ख़बर समझते और कहते हैं, कि फ़ारक़लीत (فارقلیط) के मअनी अहमद हैं। इसी लिए क़ुरआन में आया है कि मसीह ने कहा, اِنّی مُبشرِاً بِرُسول ياتی من بَعدی اسمہ احمد यानी मैं ख़ुशख़बरी देता हूँ एक रसूल की जो मेरे बाद आएगा। उस का नाम अहमद होगा। तमाम अहद-ए-जदीद (नया अहदनामा) में ये ही एक ऐसा मुक़ाम है। जिस पर मुहम्मदियों ने हज़रत को रसूल मौऊद (वाअदा किया हुआ) ठहराने के लिए बहुत ज़ोर मारा है। मगर मसीहियों ने मक़्दूर भर (ताक़त मुताबिक़) उनकी ग़लतफ़हमी को रफ़ा (दूर) करने की कोशिश की। और मुदल्लल (दुरुस्त) तौर पर बहुत कुछ लिखा। तो भी अभी तक मुहम्मदी ये ही समझते हैं कि ज़रूर फ़ारक़लीत (فارقلیط) से मुराद मुहम्मद साहब ही हैं। लेकिन अगर इन तमाम आयात पर जो इस मौऊद की निस्बत इन्जील में पाई जाती हैं। बख़ूबी ग़ौर किया जाये तो साफ़ मालूम हो जाएगा, की मसीह ख़ुदावन्द ने जो काम और सिफ़तें इस से मन्सूब की हैं वो किसी इन्सान के दरकिनार (जुदा, अलग) किसी फ़रिश्ते के साथ भी हरगिज़ मन्सूब नहीं की जा सकती हैं। और यूं तो मुहम्मद साहब को क्या हर एक शख़्स को जिसका नाम हो इख़्तियार है, कि वो अपने को फ़ारक़लीत (فارقلیط) तसव्वुर कर के मौऊद तसल्ली देने वाला ज़ाहिर करे। चुनान्चे अक्सरों ने मसीह के बाद ऐसा दावा किया है। और बाअज़ मुहम्मदियों ने भी जिनके नाम में लफ़्ज़ अहमद शामिल था। अपने को और दीगर मुहम्मदी अश्ख़ास को धोका दिया। मिन-जुम्ला उनके एक मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद साहब क़ादियानी हैं। जो इस आयत क़ुरआनी को अपने ऊपर जमाते और कहते हैं कि मैं आया हूँ। और मेरा नाम अहमद है। देखो इज़ाला सफ़ा 673
लेकिन जैसा कि तोज़ीन-उल-अक़वाल से ज़ाहिर होता है। पंद्रहवीं सदी से इस उन्नीसवीं सदी तक हिंदुस्तान में चार अहमद ज़ाहिर हो चुके हैं। जिन्हों ने दीन-ए-इस्लाम की मुरम्मत और सल़्तनत-ए-इस्लामीया के बारे में फ़िक्र किया है। और मुजद्दिद (पुराने को नया करने वाला, तजदीद करने वाला) होने के मुद्दई (दावा करने वाला) हुए हैं।
पहला अहमद
शेख़ अहमद सर हिन्दी हैं। जिनका इंतिक़ाल 134 हिज्री में हुआ। और शहर सरहिंद में उनका मक़बरा है। वो मज़्हब इस्लाम के एक जय्यद आलिम (ज़बरदस्त इल्म रखने वाला) और सूफ़ी (परहेज़गार) थे। उनको मुहम्मदियों ने मुजद्दिद अलफ़सानी का ख़िताब दिया था। जो अब तक इनमें मक़्बूल है। यानी वो दीन-ए-इस्लाम के मुजद्दिद या रीफ़ारमर (दुरुस्त करने वाला) और अहमद सानी कहलाए। पहला अहमद मुहम्मद साहब हुए। और दूसरा अहमद ये हज़रत समझेगे। आख़िरकार उनके ख़याल में भी कुछ ऐसा आ गया, कि मैं दूसरा अहमद हो के मुहम्मद साहब के क़रीब आ गया हूँ। ज़रूर दूसरे अस्हाब-ए-रसूल से मुझे सबक़त (बरतरी) हासिल हुई है। ऐसे ख़याल की बू दर्याफ़्त (मालूम) कर के बाअज़ मुहम्मदी उन पर तअन करने लगे थे। तब उन्हें कहना पड़ा कि ये ग़लत है। मेरा गुमान (ख़याल) ऐसा नहीं है। (सफ़िनत-उल-औलीया) मगर
تانبا شد اند کے مردم نگو يند چيز ہا۔
दूसरा अहमद
सय्यद अहमद ग़ाज़ी हैं। उनका हाल नाज़रीन बग़ौर सुनें। क्योंकि मिर्ज़ा साहब ने उन की तक़्लीद (नक़्ल, पैरवी) कर के नबी और मसीह होने का दावा किया है। और इस तरह के कुछ बंदो बस्त नज़र आते हैं। ये हज़रत क़ौम से सय्यद और रायबरेली के बाशिंदे थे। और सीधे मिज़ाज के आदमी बेइल्म शख़्स थे और ऊला नवाब टोंक के सवारों में मुलाज़िम थे। शाह अब्दुल अज़ीज़ की शौहरत सुनके दिल्ली में आए और सराय में उतरे। इरादा था कि शाह साहब के मुरीद (चेला) हो के वापिस चले जाऐंगे।
उस वक़्त दो मौलवी साहब हमराज़ दोस्त और दुनिया की तरफ़ से तंग, और शाह साहब से बा बातिन कशीदा-ख़ातिर, बज़ाहिर उन के अज़ीज़ किसी मन्सूबा में गुशट किया करते थे। यानी मौलवी इस्माईल और मौलवी अब्दुल हइ मौलवी इस्माइल बड़ा अलस्सान (ख़ुशगुफ़तार) और उम्दा वाइज़ शाह साहब का भतीजा था। उस को उम्मीद थी कि शाह साहब जो ला-वलद (बेऔलाद) थे अपनी मीरास में से इस भतीजे को हिस्से देंगे। लेकिन शाह साहब उन के मुक़ल्लिद (पैरवी) ख़यालात से ख़ुश ना थे। कुछ तरका (मीरास) ना दिया। सब कुछ अपने दामाद के नाम लिख दिया। तब इस्माइल ने सख़्त नाराज़ हो के मुक़ल्लिदीन फ़िर्क़े की बेख़कुनी (नेस्त व ना-बूद कर देना) की। और अपनी मईशत दुनियावी के फ़िक्र में हो गए। और अब्दुल हइ उन के दोस्त जो मेरठ के किसी सरकारी दफ़्तर में मुहर्रिर थे। बरख़ास्त हो के दिल्ली में आ गए थे। दोनों फ़िक्रमंद दोस्त हमराह चलते फिरते और किसी तज्वीज़ (राय, सलाह) के दरपे थे। नागाह सराय में सैर के लिए गए। वहां सय्यद अहमद साहब को मुसाफ़िराना उतरते हुए पाया। मुलाक़ात हुई और हाल पूछा। मिज़ाज देखा। और जिहाद की पट्टी पढ़ाई। और अपने पंजे में फंसा लिया। और मंसूबे बांध लिए। और शाह साहब के पास मुरीद (चेला, पैरवी करने वाला) कराने को ले गए। जब वो मुरीद हो के बाहर निकलते पालकी मौजूद थी उन्हें सवार किया। और एक मौलवी दहने एक बाएं हुआ। और अदब से पालकी के साथ दौड़ते थे। और जब वो जामा मस्जिद में नमाज़-ए-जुमा के लिए आते, तो मस्जिद के दरवाज़ा पर एक जूती उनकी मौलवी इस्माईल, और दूसरी जूती मौलवी अब्दुल हइ अदब से उठा लेते। और दस्त-बस्ता (हाथ बांध कर) पीछे खड़े रहते थे। लोग हैरान थे कि ये क्या मुआमला है, कि ऐसे बड़े-बड़े मौलवी इस शख़्स की पाए ख़ाक (पांव की ख़ाक) हो गए हैं। ये कौन साहब हैं। तब ये दोनों मौलवी कहते थे, कि हज़रत सय्यद अहमद साहब बड़े वली अल्लाह हैं। ये हज़रत मुहम्मद साहब के मुशाबेह पैदा हुए हैं।
ख़ुदा ने उनको भेजा कि सल्तनत इस्लामीया को क़ायम करें और दीन-ए-इस्लाम को रौनक दें। और ख़ुदा ने उनसे हम-कलाम हो के बड़ी फ़त्हमंदी के वाअदे फ़रमाए हैं। अब ये हज़रत इमाम हो के जिहाद (दीन की हिमायत के लिए हथियार उठाना) करेंगे। और काफ़िरों को मार के हिन्दुस्तान से निकाल देंगे। तमाम मुसलमानों को चाहिए, कि अपनी जान से और माल से उनकी मदद करें। और उनके साथ हो के जिहाद में जाना ऐसा समझें जैसे रसूल-अल्लाह के साथ गए। देखो किताब सिरात-उल-मुस्तक़ीम तस्नीफ़ मौलवी इस्माईल, जो इन्हीं अय्याम में जल्द लिखी गई। दीबाचे में लिखा है कि जनाब सय्यद अहमद का नफ़्स आली-जनाब रिसालत माआब के साथ कमाल मुशाबहत पर बद्दू फ़ित्रत में पैदा किया गया है। और ख़ातिमा में लिखा है कि हज़रत नबी साहब को सय्यद साहब ने ख्व़ाब में देखा और नबी साहब ने अपने हाथ से उनको ख़रमे (खजूर की शक्ल की मिठाई) खिलाइ। फिर किसी रोज़ हज़रत अली और हज़रत फ़ातिमा भी ख्व़ाब में उनसे मिलने को आईं। अली ने बदस्त ख़ुद उनको ग़ुस्ल दिया और फ़ातिमा ने बदस्त ख़ुद उनको उम्दा पोशाक (लिबास) पहनाई। फिर एक रोज़ ख्व़ाब में उनसे ख़ुदा तआला ने मुलाक़ात की। और अपनी क़ुद्रत के हाथ से उन को पकड़ लिया। और पाक चीज़ें उनके सामने रख के कहा कि ये चीज़ें मैंने तुझे दीं और आइन्दा को और चीज़ें भी तुझे दूंगा। ग़र्ज़ सय्यद साहब को पीर बना के ले उड़े। और तमाम हिन्दुस्तान में पालकी ले के फिर गए। और जाबजा वाज़ कर के मुल्क के मुसलमानों को अपनी तरफ़ खींच लिया। बेशुमार रुपया जमा किया और जा-ब-जा हंडवी भेज के महाजनों (ख़ज़ानची) में जमा कराया। और हज़ार हज़ार जाहिल नमाज़ी मुसलमान जिहाद के लिए तैयार कर के कुछ आगे भेज दिए कुछ हमराह लिए। और शहर शहर सय्यद साहब के ख़लीफ़े बिठाए ता कि रुपया और आदमी भी पीछे रवा ना रहें।
जब अंग्रेज़ों ने पूछा कि ये क्या मुआमला है? तो कहा कि हम आप लोगों से नहीं पंजाब के सिखों से जिहाद करेंगे। वो वक़्त ऐसा था कि अंग्रेज़ भी मस्लिहतन चुप कर गए। और ये हज़रत फ़ौज बना के बराए सिंध स्वात बूनेर तक पहुंचे ताकि इस तरफ़ से सिखों पर हमला हो।… उम्मीद थी कि अफ़्ग़ान भी साथ हो जाऐंगे और जब मुल़्क पंजाब सिखों से ख़ाली करा लेंगे। तब अंग्रेज़ों को समझ लेंगे। और यूं सल्तनत इस्लामीया क़ायम हो जाएगी। मौलवी अब्दुल हई कोइटा की राह में बा-रज़ा तप-ए-लरज़ा इंतिक़ाल कर गए। और इस्माईल व सय्यद अहमद वहां पहुंचे। कई दिन फ़ौज ले के कुछ लड़े। आख़िरकार बाअज़ पठानों की मदद से सिखों ने रात को ऐसा उन पर छापा मारा कि सबको क़त्ल किया। मौलवी इस्माईल वहां मारे गए। और सारे मोमिनीन मुजाहिदीन क़त्ल हुए सय्यद अहमद साहब की टांग में गोली लगी थी। और वो मैदान में बैठ गए थे। इसी जगह मर गए कोई कहता है कि एक पठान उनको अपने घर उठा ले गया था। वहां जा के मर गए। कोई आदमी भाग के बमुशकिल वापिस आया था। और ये वाक़िया 1827 ई॰ में वाक़ेअ हुआ था। (देखो किताब मौलवी ग़ुलाम हुसैन होशियार पूरी व अनवर आरिफीन तस्नीफ़ मुहम्मद हुसैन मुराद आबादी)
जब तक इस पुश्त के लोग ना मरे उनको यही ख़याल रहा कि सय्यद साहब पहाड़ों में पोशीदा (छुपे) हैं। किसी वक़्त निकलेंगे। इस मन्सूबा इस्माईल का नतीजा क्या निकला? ये कि इन्सानी चालाकी थी रसूली मुशाबहत और वो सब ख्व़ाब बातिल (झूटे) थे। सब दोड़ धुप बर्बाद हुई। आप भी मारे गए। और सदहा जाहिल नमाज़ी अतराफ़ पूरब (मशरिक़) के मोमिनीन क़त्ल करवा दिए। उनकी औरतें रांड (बेवा) हुईं बच्चे यतीम हो के मुहताज हुए। ख़ाना-ख़राबियाँ हो गईं बादशाही हाथ ना आई। हाँ इस्लाम की इस क़द्र मुरम्मत हुई कि ग़ैर-मुक़ल्लिद फ़िर्क़ा उनके वाज़ों से और उनकी किताब, तक़वियत-उल-ईमान वग़ैरह से पैदा हो गया।
अब मिर्ज़ा क़ादियानी साहब का वही तौर (तरीक़ा) नज़र आता है वो ख़ुद मुसलमानों को सिखाते हैं। (फ़त्ह इस्लाम सफ़ा 8, 71) कि रस्मी उलूम और क़ुरआन व अहादीस के तर्जुमों की इशाअत से इस्लाम की मुरम्मत नहीं हो सकती। आस्मानी सिलसिले की तरफ़ देखना चाहिए। मतलब मैं आस्मान की तरफ़ से नबी और मसीह मुक़र्रर हो के आया हूँ। मेरी इताअत (ताबादारी) से मुरम्मत इस्लाम होगी ना तुम्हारे रिवाजी दस्तुरात से। और अपनी बेशुमार तारीफ़ें आप अपने मुँह से करते हैं कि मैं बड़ा कामिल (मुकम्मल) शख़्स हूँ। और जैसे सय्यद अहमद ग़ाज़ी को दो मौलवी उड़ाने वाले मिल गए थे। इनको भी हकीम नूर उद्दीन और ग़ुलाम क़ादिर फ़सीह साहब और मौलवी मुहम्मद अह्सन साहब मिल गए हैं। इनका अंजाम उनसे ज़्यादा ख़तरनाक होगा। सुन्नी मुसलमानों ने जो मिर्ज़ा को रद्द किया दानिशमंदी से अपने मज़्हब के मुवाफ़िक़ काम किया है। और मुहम्मद हुसैन बटालवी तहसीन (तारीफ़) के लायक़ हैं। और वो जो मिर्ज़ा साहब की सलाह (मश्वरा) में शरीक हैं अपने मज़्हब के और अक़्ल सलीम (पूरी अक़्ल) के ख़िलाफ़ काम करते हैं।
तीसरा अहमद
सय्यद अहमद ख़ान साहिब-ए-बालकाबह हैं। उन्होंने सबसे ज़्यादा इस्लाम का तजदद किया। इस्लाम क़दीम को काठ की हंडिया (झूट और दग़ा बाज़ी) बता के छोड़ दिया। और क़ुरआन व हदीस को नेचरीयत के पैराये में ला के इस़्पात (फ़ौलाद की हंडिया) बनाया। और क़ुरआन की तफ़्सीर नेचरी लिखी। मुहम्मद साहब ने अपने इस्लाम का रुख अम्बिया-ए-बनी-इस्राईल की तरफ़ कुछ-कुछ रखा था। सय्यद साहब ने इधर से बमुश्किल खींचा, और फ़िलोसफ़ी की तरफ़ कर दिया। इस के सिवा और कुछ नहीं किया। लेकिन ये इमारत जो उन्होंने उठाई है तालिब-ए-हक़ के दिल में कुछ तसल्ली तो पैदा नहीं कर सकती। और ना कुछ पायदार (मज़्बूत) है। बल्कि बहुत जल्द गिर जाएगी। क्योंकि अल्फ़ाज़ क़ुरआन से उनके मज़ामीन मुख़्तरा (बानी, ईजाद करने वाला) को कुछ इलाक़ा (ताल्लुक़) नहीं है। उनके बयान उनकी तफ़्सीर में मर्क़ूम (लिखा हुआ) पड़े रहेंगे। और अल्फ़ाज़ व इबारात क़ुरआन अपने मअनी व मज़ामीन लाज़िमा को हरगिज़ ना छोड़ेंगे। और वो जो मुहक़्क़िक़ (तहक़ीक़ करने वाला) पैदा होंगे। हमेशा अहले-ज़बान से मअनी दर्याफ़्त करेंगे। सबसे बड़ी अक़्ली तफ़्सीर (अक़्ल से तश्रीह करना) क़ुरआन की इमाम फ़ख़्रउद्दीन राज़ी[1] ने लिखी है। जहां से सय्यद साहब ने बहुत कुछ लिया। तो भी फ़ख़्र-उद्दीन साहब के मज़ामीन अक़लीया मुसलमानों के ईमान में शामिल ना हुए बल्कि जलाल उद्दीन सियूती ने इस के तफ़्सीर को चंद सतरों में ज़लील कर दिखलाया, और लिखा है।
इमाम फ़ख़्रउद्दीन ने अपनी तफ़्सीर को अक़वाल-ए-हुकमा और फ़लासफ़ा वग़ैरह से भर दिया है। और एक से दूसरी बात की तरफ़ निकल गया। यहां तक कि नाज़िर (देखने वाला) को मौरिद आयत के साथ अदम मुताबिक़त (मुवाफ़िक़ ना होना) से ताज्जुब (हैरानगी) होता है। अबू हयान ने कहा कि राज़ी ने अपनी तफ़्सीर में नहवी बातें (गराइमरी बातें) जिनकी इल्म तफ़्सीर में हाजत (ज़रूरत) नहीं। बकस्रत लंबी चौड़ी भरी हैं। इसी वास्ते बाअज़ उलमा ने कहा, कि इस की तफ़्सीर में सब कुछ है, लेकिन क़ुरआन के मअनी नहीं।
इस बिद्अती का और कुछ इरादा नहीं है। मगर ये कि आयतों को तहरीफ़ (रद्दो-बदल) करे। और अपने फ़ासिद (बेकार) मज़्हब के बराबर बनाए। इस तरह से कि जब उस को कोई दूर से दौड़ता हुआ वहम (गुमान, शक) नज़र आ गया। तो उसी के दरपे हो लेता है। या कोई ऐसी जगह मिल जाये जहां ज़रा खड़ा हो सके, तो उधर दौड़ पड़ता है। यही हाल इन सब नेचरियों का है। आप क़ुरआन के ताबे नहीं होते। मगर क़ुरआन को अपने ताबे करते हैं और अपने ज़हन में कुछ मज़्हब कहीं से ला के क़ायम कर लिया है। इस के मुवाफ़िक़ क़ुरआन को बनाते चले जाते हैं। फ़िल-हक़ीक़त तफ़्सीर नेचरी इन्हीं दो-चार लफ़्ज़ों से गिर जाती है, कि वो क़ुरआन की असली वज़ाअ के खिलाफ है।
चौथा अहमद
मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद हैं। वो अहमद सोइम का मज़्हब रखते हैं। और अहमद दुवम की रविश (तरीक़ा) पर चलते हैं। और क़ुरआन व हदीस को ना बसिम्त अम्बिया, और ना बसिम्त फ़िलासफ़ा मगर बसिम्त दरिया-ए-ख़बत खींच रहे हैं। और अहमद चहारुम रहना नहीं चाहते। अहमद अव़्वल बनने का इश्तियाक़ (शौक़) है। इसी लिए क़ुरआन में हाथ डाला। और अस्मा अहमद वहां से अपने लिए निकाला। जो साबिक़ के किसी अहमद को ना सूझी थी। अभी क्या कोई दिन में अहमद बिला मीम अपना नाम रखेंगे। क्योंकि सूफ़ी भी हैं। और अभी देख लो वो कहते हैं, कि ख़ुदा ने मुझसे कहा ऐ मिर्ज़ा तू मुझसे है। और मैं तुझसे हूँ। गोया मिर्ज़ा ख़ुदा से पैदा हुए और ख़ुदा मिर्ज़ा से पैदा हुआ है। अगर कुछ और मतलब हो तो उनके ज़हन में होगा इबारत का मतलब यही है।
और अगर ये दो मअनी कलाम है तो ऐसी दो मअनी कलाम बोलना जिसके एक मअनी से ख़ुदा की तहक़ीर (कमतर समझना) हो बेईमान आदमी का काम है।