हमारे ख़यालात के सिलसिले की पहली जुंबिश (हरकत, गर्दिश) से बख़ूबी साबित हो चुका, कि मुहम्मदियों का रसूल मुहम्मद किसी नहज (रोशन और कुशादा) रास्ते पर वो नबी नहीं हो सकता जो कि मूसा की मानिंद है। और इसी के ज़िमन (ताल्लुक़) में ख़ातिमा पर हकीम नूर उद्दीन भैरवी के वहम (शक) का इज़ाला (मिटाना, दूर करना) भी कर दिया गया। कि आइंदा ऐसी फ़ाश (सरीह, ज़ाहिर) ग़लती ना करें। अब इरादा था कि ख़ुदावन्द येसू मसीह की निस्बत जो कुछ ख़ुदा ही के कलाम से वाज़ेह होता है। नाज़रीन के मुलाहिज़ा के वास्ते पेश किया जाये। मगर फिर ख़याल आया कि मुहम्मदियों के इमाम साहब सय्यद अबू अल-मंसूर ने बज़अमे-ख़ुद अपनी किताब नवेद जावेद के सफ़ा 458 पर चंद मुशाबहतें मूसा और मुहम्मद में मिला कर दिखलाई हैं। और गो कि मुहम्मदियों का ऐसा गुस्ताख़ी के साथ मूसा का मुक़ाबला करना कोई अजीब बात नहीं जब कि वो लोग ख़ुदा के साथ अपने कलिमा में मुहम्मद को मिलाते हुए नहीं डरते। पर तो भी बाअज़ कम फ़ह्म (कम-अक़्ल) मुहम्मदियों को इन के दाम फ़रेब और रोग़न क़ाज़ (चिकनी चुपड़ी बातों से) मिलने से बचाया जाये मुनासिब मालूम हुआ कि इमाम मज़्कूर के ख़यालात फ़ासिद (फ़ालतू) और तुहमात का सदा (शक, नाक़िस) के काटने को अपने ख़यालात के सिलसिले को दूसरी जुंबिश दी जाये और वो ये है।
1. हज़रत नबी आखिरुज़्ज़मान ने जिहाद किया जैसे हज़रत मूसा ने जिहाद (दीन की हिमायत के लिए हथियार उठाना) किया था।
जवाब : ये आपका गुल (मुआमला) सर सय्यद है ये पहली मुशाबहत आपको ख़ूब सूझी। कहाँ मुहम्मद साहब की लड़ाईयाँ और कहाँ मूसा का ग़ैर-अक़्वाम को सज़ा देना जो बिल्कुल ख़ुदा के हुक्म से था।
2. हज़रत सलअम (मुहम्मद) पर शरीअत नाज़िल हुई। जैसे हज़रत मूसा पर।
जवाब : अव़्वल दिखा दिया होता कि मुहम्मदी शरीअत ये है तब मूसा की शरीअत का मुक़ाबला कर के मालूम होता हमने तो अब तक नहीं सुना कि मूसा के सिवा किसी और पर भी शरीअत उतरी हो।
3. हज़रत सलअम (मुहम्मद) क़ज़ाए फ़ेसल (फ़ैसला) करते थे। जैसे हज़रत मूसा।
जवाब : ख़ुरूज 18:19 से मालूम होता है, कि मूसा ख़ुदा की जगह हो कर ऐसा करता था। और फिर 18:26 में यूं मर्क़ूम है कि मुश्किल मुक़द्दमा मूसा के पास लाते थे। पर छोटे मुक़द्दमे आप ही फ़ैसल करते थे। जनाब अबू अल-मंसूर साहब यहां किस अम्र में मूसा और मुहम्मद में मुशाबहत आपने दिखलाई है आप तो अपने मतलब की बातों को ऐसे बे-तहाशा (बेहद, बहुत ज़्यादा) निगलते जाते हैं। कि ज़रा मक्खी बाल का भी ख़याल नहीं करते। क्या आपके ख़याल में कोई मह्ज़ इंसान मूसा की मानिंद हो सकता है और क्या मुहम्मद साहब भी ख़ुदा की जगह हैं। ज़रा सोच समझ कर मुशाबहत पैदा कीजिए।
सँभल कर पांव रखना महफ़िल रिंदां में ए ज़ाहिद यहां पगड़ी उछलती है इसे मय-ख़ाना कहते हैं।
4. हज़रत ने मदीना में हिज्रत की। जैसे मूसा ने मिद्यान में।
जवाब : ये मुशाबहत शायद मदीना और मिद्यान के क़रीब अल-मख़रज (क़रीब एक जैसे नाम) होने से आपके दिमाग़ में मुतख़य्युल (ख़याल गया) हो गई होगी। मगर इतना तो ख़याल कर लिया होता कि मवेशी अपनी जान बचाने को भागा था ना इंतिक़ाम की फ़िक्र में। मगर मुहम्मद साहब तो मदीना में इस ग़र्ज़ से फ़रार हुए थे, कि वहां जमईयत बहम पहुंचा कर अहले मक्का पर हमला-आवर हों। यहां तो हमको मौलवी रुम के अशआर आपके हस्ब-ए-हाल याद आते हैं।
کارپاکاں راقیاس از کو دیگر ۔ وربمانددرنوشتن شیر و شیر۔ آں یکے شیریکہ مردم میکورد۔
آں یکے شیر یکہ مردم میخورد ۔ देखिए आख़िरी शेअर के दोनों मिसरे कैसे एक दूसरे की मानिंद हैं। पर तो भी जब इस के मअनी और मफ़्हूम पर ग़ौर किया जाता है तो साफ़ मालूम होता है कि एक ख़ुराक है। और दूसरा ख़ुरिंदा एक में शेर नज़र आता है जो आदमी को खाता है और दूसरी में दोदह जिसको आदमी खाता है। इसी तरह इस चौथी मुशाबहत में मूसा बेचारा अपनी जान बचा कर भागा और मुहम्मद ने मदीना में जा कर हज़ार-हा बेगुनाह बंदगान ख़ुदा का नाहक़ ख़ून कराया।
5. हज़रत ने मेअराज में अकेले ख़ुदा से कलाम किया, जैसे हज़रत मूसा ने तूर पर।
जवाब : मुहम्मद का मेअराज में अकेले ख़ुदा से कलाम करना। आप देख रहे होंगे। उस्मान मुसन्निफ़ हज़ा अल-क़ुरआन तो इस की बाबत दम भी नहीं मारता। फिर मूसा की मुलाक़ात चालीस दिन रात भूक प्यास के साथ थी मगर मुहम्मद साहब की मुद्दत मुलाक़ात ऐसी है, कि कुछ भी नहीं यानी जब मुहम्मद साहब ज़ंजीर खोल कर बुराक़ (ताज़िया जिसका धड़ घोड़े और चेहरा आदमी सा है) पर सवार हुए और जब लौट कर वापिस आए तो वो हिलती थी। और बिछौना भी गर्म था अब मैं अपने तजुर्बे से अर्ज़ करता हूँ कि ज़ंजीर खुलने के बाद शायद ज़्यादा से ज़्यादा दोस्ट हिले तो हिले वर्ना वो भी नहीं तो आप ही इन्साफ़ कीजिए, कि इस कह मुकरनी में और मुहम्मदी मेअराज में क्या तफ़ादत (जुदा फ़र्क़) है।
मूसा की मुलाक़ात का हाल यूं लिखा है और सब लोगों ने देखा कि बादल गरजे बिजलियां चमकीं करनाअ (तुर्रम) की आवाज़ हुई पहाड़ से धुआँ उठा और सब लोगों ने जब ये देखा तो हटे और दूर जा खड़े रहे। तब उन्होंने मूसा से कहा कि तू ही हमसे बोल और हम सुनें। लेकिन ख़ुदा हमसे ना बोले। जनाब इमाम साहब आपके पैग़म्बर की मेअराजी मुलाक़ात और कलाम करना ऐसा है जैसे कुल्हिया में गुड़ टूटा (छुप कर कोई काम करना। ना-मुम्किन काम करना)
6. हज़रत ने चांद को अंगुश्त अश्शहादत (शहादत की ऊँगली) उठा कर दो टुकड़े किया। जैसे मूसा ने असा उठा कर बहर-ए-कुल्जुम को दो हिस्से किया।
जवाब : अभी तक तो साबित हुआ ही नहीं कि दुनिया में कभी चांद दो टुकड़े हुआ ख़ुद क़ुरआन ही से नहीं साबित होता क़ुरआन में चांद का फटना क़ियामत पर मौक़ूफ़ (मुन्हसिर) है। अगर बिलफ़र्ज़ चांद फट जाता तो मुम्किन ना था कि निज़ामे आलम में गड़बड़ ना पड़ती। हम सब के सब सूरज में या किसी और सय्यारे या सवाबित (वो सितारे जो गर्दिश नहीं करते) में एक दूसरे से टकरा कर नेस्त (तबाह) हो जाते ये इल्म क़ुव्वत-ए-कशिश के बिल्कुल ख़िलाफ़ है।
7. हज़रत की उंगलीयों से पानी के सोते (चश्मे) जारी हुए जैसे मूसा ने चट्टान से पानी निकाला था।
जवाब : अब यहां मूसा से मुशाबहत पैदा करने को और ना सही यही सही कि मूसा की चट्टान और मुहम्मद की उंगलियां। मारों घुटना फूटे आँख।
8. हज़रत ने अपने भाई अली को बमंज़िला हारून कहा।
जवाब : हज़रत मूसा ने हारून को भाई नहीं कहा बल्कि ख़ुद जनाब बारी ने फ़रमाया, देखो ख़ुरूज 4:14 क्या नहीं है लावियों में से हारून तेरा भाई मैं जानता हूँ, कि वो भी तेरी मुलाक़ात को आता है। और फिर फ़रमाया कि 16, आयत में, तू उस के लिए ख़ुदा की जगह होगा। जनाब मौलवी साहब मुहम्मद कब अली के लिए ख़ुदा की जगह थे। ये कैसी मुशाबहत आपने पैदा की।
9. हज़रत की पुश्त-ए-मुबारक पर मुहर-ए-नबूवत थी। जैसे हज़रत मूसा के हाथ में यद-ए-बैज़ा (हज़रत मूसा का मोजज़ा-नुमा हाथ)
जवाब : ख़ुरूज 4:6 में यूं है कि फिर ख़ुदावन्द ने उसे कहा कि तू हाथ अपनी छाती पर छुपा के रख चुनाचे उसने अपनी छाती पर छुपा के रखा। और जब उसने उसे निकाला तो देखा कि उस का हाथ बर्फ़ की मानिंद सफ़ैद मबरूस (फुलबहरी का मरीज़) था। फिर 7 आयत में है कि फिर उसने कहा कि तू अपना हाथ फिर अपनी छाती पर छुपा के रख उसने फिर रखा जब बाहर निकाला तो देखा कि वो फिर वैसा ही था जैसा उस का सारा बदन था। हो गया अब आपका क्या मतलब है आया वही है जो मुंशी अंदर मन मुरादाबादी ने अदा किया हम तो इस को आज तक गो ना गुस्ताख़ी (किसी क़द्र बे-अदबी) और सूर अदबी समझते थे। मगर अब इस मुशाबहत से पूरा यक़ीन हो गया कि मुंशी साहब का फ़रमाना है कि वो कोढ़ था जैसा कि मूसा के हाथ के निशान के हक़ में उर्दू तर्जुमा मुरव्वजा में लफ़्ज़ मबरूस तहरीर है। सच्च है हमारे भाई मुहम्मदी हमसे नाराज़ ना होंगे क्योंकि उनके मौलवी साहब ने ख़ुद मुहम्मद साहब को ऐसा बनाया। मगर ताहम रोज़ अव़्वल है और हनूज़ दिल्ली दूर ही है (अभी मंज़िल दूर ही है) जब कि मूसा का निशान था और ना था। मगर मुहम्मद साहब की मुहर की निस्बत कहा जाता है कि तादम ज़ीस्त (ज़िंदगी, उम्र) रही।
रहा ये कि वो दाग़-ए-बरस मुहर-ए-नबूवत था ऐसा ही है जैसा आप सा ख़ुश एतिक़ाद घोड़े परी को बुर्राक़ या गधे को दुलदुल कहे बाक़ी और कुछ नहीं।
10. हज़रत ने काअबा के बुत परस्तों में नश्वो नुमा पाई। जैसे मूसा ने फ़िरऔन की सोहबत (मददगारी, पास रहना) में।
जवाब : नहीं जनाब काअबे के बुत परस्तों में नहीं बल्कि अबू-तालिब की गोद में जो ख़ुद उनका हक़ीक़ी चचा था। जिसके मुआवज़े में उस के फ़र्ज़न्द अली ने बावजूद ये कि मुहम्मद साहब का चचेरा भाई (चचाज़ाद भाई) था। दामादी का हारपा या और चौथे दर्जे में ख़िलाफ़त का कुल कारोबार। लेकिन हज़रत मूसा बेकस पानी में छोड़े हुए थे। दुश्मन ख़ुदा और ख़ुदा के लोगों की मुख़ालिफ़ फ़िरऔन की बेटी के ज़ेरे नज़र परवरिश पाई और मिस्रियों का कुल इल्म व हिक्मत उस को सिखलाए गए वो उम्मी (अनपढ़) ना था जैसे आपके पैग़म्बर साहब।
11. हज़रत बाअयाल (बीवी बच्चे वाले) थे जैसे हज़रत मूसा।
जवाब : तो भी इस मुशाबहत में कुछ कसर रहेगी यानी हज़रत मूसा ने सिपर ख़वांदा (पढ़ा लिखा की आड़) में ख़ुद की जोरू को घर में नहीं डाला और ना अठारह जोरुएँ (औरतें) रखीं ना आम तौर से मूसा की जोरु किसी उम्मती की माँ थी। जैसे मुहम्मद साहब के इज़्दिवाज़ उम्महात-उल-मोमिनीन कहलाती हैं। और इस सबब से किसी मुसलमान को रवा ना था कि बाद वफ़ात उनकी आईशा से निकाह कर सकता। अगरचे ख़ुद मुहम्मद साहब अपने मुसलमानों की रांडों (बेवाओं) या बेवाओं से जो कि उनकी जोरूओं (बीवियों) की बेटियां या नवासीयाँ थीं शादी करते थे। हज़रत मूसा ने कभी ऐसा नहीं किया। पस अयालदारी में भी आपकी मुशाबहत नाक़िस निकली।
12. हज़रत के जांनशीन (खलीफा) फ़र्मां रवा हुए, जैसे हज़रत मूसा के।
जवाब : अगरचे हज़रत यशूअ मूसा के बाद बनी-इस्राईल को कनआन में ले गए तो भी ये बात अबू बक्र और उमर और उस्मान और अली और हज़रत मुआवीया और हज़रत यज़ीद और हसन व हुसैन की ख़िलाफ़त से ज़रा भी इलाक़ा नहीं रखते मुझे इस वक़्त याद नहीं आता कि ये शेअर किस का है :-
چوں صحابہ جاہ و حشمت یا فتند مصطفے را بے کفن اندا ختند ۔
मुझे हज़रत मुहम्मद माफ़ फ़रमाएं लेकिन इतना तो ज़ाहिर है कि इस ख़िलाफ़त की बदौलत कितने मुहम्मदियों की जानें हलाक हुईं। और अगर हम इन वाक़ियात को भी मद्द-ए-नज़र रखें जिनका बयान रो-रो कर अहले तशई (शिया) करते हैं। और बाग़ फ़दक और क़िरतास का मुक़द्दमा भी फिर ज़ेर तज्वीज़ हो तो मालूम होगा कि यहां भी ज़मीन व आस्मान का फ़र्क़ है। हज़रत यशूअ को ख़ुदा ने मुक़र्रर किया ताकि बनी-इस्राईल को मुल्क मौऊद में दाख़िल करे। और यहां मुहम्मद की वफ़ात के बाद कुल मुसलमान जम्म-ए-ग़फ़ीर (ज़बरदस्त हुजूम) हो कर मुक़ाम सक़िफ़ा में जमा हुए सिवाए हज़रत अली और उनके चंद ख़ास अहबाबों के इस बात पर मुत्तफ़िक़ हुए कि अबू बक्र को ख़िलाफ़त (ख़लीफ़ा) का ओहदा मिलना चाहिए। चूँकि उस का नसीब सिकन्दर था जब कि बीबी आईशा जो हज़रत की प्यारी बीबी थीं अबू बक्र की लख़्त-ए-जिगर थी मुआमला दुरुस्त हो गया। और उसने अपने मरते दम उमर को नामज़द किया उस्मान की ख़िलाफ़त में मिस्र का फ़ित्ना उठा बेचारा मारा गया। अगरचे उस के क़िसास (इंतिक़ाम) में बीबी आईशा और तलहा वग़ैरह ने जंग जमल में बहुत अर्क़ रेज़ि (कमाल मेहनत करना) की। पर तन ब तक़्दीर मुआमले ने अली की तरफ़ रुख किया और जब वही ख़िलाफ़त नहल मुख़ाफ़त जिससे मुंतक़िल होते होते मुआवीया के सपूत यज़ीद तक पहुंची तो बेचारे हुसैन का ख़ून पी कर ख़त्म हुई ज़्यादा झगड़ा कौन करे। और बहुत सा दुखड़ा कौन रो दे हम तो न अनीस हैं जो सोज़ उड़ाएं और ना दुबैर जो मर्सिया पढ़ें।
हज़रत मूसा के जांनशीन यशूअ और उस के बाद उस के जांनशीनों ने तमाम मुल्क यहूदिया को फ़त्ह कर के बनी-इस्राईल को बारह ख़ानदानों में ऐसा तक़्सीम किया कि दाऊद से बादशाह और सुलेमान से फ़रमांरवा अपना झंडा गाड़ गए। पस इस मुशाबहत से भी आपको सिवाए ज़िल्लत और ख़ारी के कुछ नसीब नहीं हुआ।
13. हज़रत चालीस बरस की उम्र में नबी हुए जैसे हज़रत मूसा ने पूरे चालीस बरस की उम्र में मिस्री को मार डाला।
जवाब : चलिए झगड़ा ही ख़त्म हुआ अब बाएतक़ाद शैय जो कोई चालीस बरस की उम्र में किसी को मार डाले वो नबी है और कैसा नबी कि मूसा की मानिंद जिसकी मानिंद आज तक कोई नबी नहीं उठा। लेकिन ख़ुदा के कलाम से यूं साबित होता है, कि जब मूसा पूरे एसी (80) बरस का हुआ। आमाल 7:23, 30 तब ख़ुदा सा हो कर मिस्र को गया जनाब मौलवी साहब होश कहाँ हैं आप साबित क्या करते हैं।
और साबित क्या होता है ख़ाक भी नहीं। जनाब-ए-मन ईसाईयों के साथ मुक़ाबला करना बहुत दुश्वार है मुहम्मद साहब को धमकाए तोहफ़ा अस्ना व अशरिया मुलाहिज़ा फ़रमाए अभी तो घर ही के झगड़े नबेड़ने पड़े हैं तुम्हारा कोई शायर कहता है :-
جبرائیل کہ آمد زیر خالق بيچوں در پیش محمدؐ شد و مقصود علی بود ۔
आपकी देखा देखी और हिरसा हिरसी कोई शीई (शिया) अली को ना मूसा सा साबित करने लगे तो और लेने के देने पड़ जाएं।
14. हज़रत दुनिया में मदफ़ून (दफ़न) रहे, जैसे हज़रत मूसा।
जवाब : दुनिया में तो सब मदफ़ून हैं। मगर आपके मुहम्मद साहब मदीना में बीबी आईशा के हुज्रे में और हज़रत मूसा अगरचे दुनिया में मदफ़ून हैं पर तो भी मालूम नहीं कि कहाँ और हज़रत मुसैलमा कज़्ज़ाब सलअम रहमान अल-यमामा भी तो इसी दुनिया में मदफ़ून हैं इन को भी हज़रत मूसा से मिला दीजिए।
15. हज़रत यरूशलम से बाहर नबुव्वत करते रहे जैसे हज़रत मूसा।
जवाब : यरूशलम से आपकी क्या मुराद है आया हक़ीक़ी तो फिर मूसा के मिस्र में जाने और मुहम्मद के मक्का में आने वाली मुशाबहत को याद कीजिए। वहां मिस्र के मअनी मजाज़ी (नक़्ली, ग़ैर हक़ीक़ी) और यहां यरूशलेम के मअनी हक़ीक़ी आपने तो ख़ूब ही अंधा धुंद मचाई है। बक़ौल शख़से जहां को रास्त चाहे मेतवां कुंद। फिर सबसे बढ़कर ये है कि अभी तक मुहम्मद साहब की नबुव्वत ही साबित नहीं। अब सारी दुनिया ख़दीजा तो है नहीं, कि हर एक वहमी तबीयत पर नबुव्वत का प्लास्तर चढ़ा दे। मुहम्मद साहब ने अरबिस्तान में अगर कुछ किया हो तो ये कि बुत-परस्ती अदना अक़्ल भी मंज़ूर नहीं कर सकती। ख़्वाह वो संग-ए-असवद (वो स्याह पत्थर जो काअबा शरीफ़ की दीवार में नसब है और जिसे मुसलमान बोसा हैं) हो या सालगराम का बेटा आतिश آتش کشتن و اخگر گذاشتن وافعی کشتن و بچہ اش را نگاہد اشتن کا رخر دہنداں نیست ۔ अगरचे हज़रत ने काअबा के 360 बुतों के ख़िलाफ़ नबुव्वत की मगर संग-ए-असवद को उसी तरह रहने दिया। जिस तरह हमारे मुल्क में रामानंद के चेले कबीर ने बुत-परस्ती पर हमला करते हुए राम व कृष्ण को रहने दिया लेकिन हज़रत मूसा की नबुव्वत यरूशलेम के बाहर ना सिर्फ बाहर थी मगर अंदर भी देखो ख़ुरूज से इस्तिस्ना तक।
16. हज़रत निहायत हसीन थे। जैसे हज़रत मूसा।
जवाब : बेशक हज़रत मूसा ख़ूबसूरत थे। मगर आमाल 7:20 को ग़ौर से पढ़ो वहां यूं लिखा है। यूनानी में ख़ूबसूरत ख़ुदा के सामने। और जनाब पादरी इमाद-उद्दीन साहब अपनी तफ़्सीर में लिखते हैं कि यूसेफ़स मुअर्रिख़ यहूदी कहता है कि जब मूसा बाज़ारों में फिरता था तो लोग काम छोड़कर उस की तरफ़ देखते थे। क्योंकि निहायत ख़ूबसूरत था मगर ख़ुदा के सामने निहायत ख़ूबसूरत था।
अब ज़रा हज़रत दाऊद बादशाह से जो ख़ुद पैग़म्बर थे इस महबूब की तारीफ़ बनें और उनसे पूछें कि वो कौन है देखिए। ज़बूर 45:2 तू हुस्न में बनी-आदम से कहीं ज़्यादा है। फिर ज़बूर 45:6 तेरा तख़्त ऐ ख़ुदा अबद-उल-आबाद है। यहां तो साफ़ साबित हो गया कि वो जो निहायत ख़ूबसूरत बल्कि बनी-आदम से ज़्यादा ख़ूबसूरत है ख़ुदा है। क्या आपके ख़याल में मुहम्मद साहब नऊज़बिल्लाह मिन ज़ालिक, ख़ुदा हैं? मौलवी साहब हम आपको कहाँ तक याद दिलाएँ मूसा ख़ुदा सा था और निहायत ख़ूबसूरत था अब सिवाए हक़ीक़ी ख़ुदा के निहायत ख़ूबसूरत हो के मूसा के मशाबहा और कोई फ़र्द बशर नहीं हो सकता यूं तो लैला را بچشم مجنوں باید دید و الا ضرب المثل फ़िक़्रह उस शैतान को भी याद था जो एक मैंडक को सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत समझता था।
17. हज़रत बड़े मवह्हिद (मुसलमान) थे, जैसे हज़रत मूसा।
जवाब : जनाब-ए-मन मवह्हिद वहाबियों का ख़िताब है। मुहम्मद साहब तो छोटे मवह्हिद भी ना थे। हमारे गज़नी के सुल्तान महमूद बुत शिकन को सदा फिरें (वाह वाह, किया कहना) कि बे-इंतिहा दौलत पाते हुए भी सोमनात के बुत को तोड़ दिया मगर आपके बड़े मवह्हिद ने तो ना सिर्फ संगे असवद ही को बाक़ी रखा। बल्कि कोह-ए-सफ़ा और मर्वा की भी रिआयत रखी। और क़ुबूर (क़ब्र की जमा) की ज़ियारत और उनसे तलब दुआ किया शिर्क (ख़ुदा के साथ किसी और को शरीक जानना) तक नहीं पहुंचानी और ख़ुद हज़रत का कलिमा ला-इलाहा इलल्लाह मुहम्मद रसूल अल्लाह क्या पूरा शिर्क नहीं। लेकिन हज़रत मूसा ने तो कहीं ऐसा जली शिर्क रवा नहीं रखा पर तो भी अगर झाड़ी वाले ख़ुदा को हज़रत मूसा ने सच्चा ज़िंदा अबराहाम और इस्हाक़ और याक़ूब का ख़ुदा मान लिया। और उसी के आगे अपने को ख़म (झुकाओ) किया। और मुहम्मद साहब उसी ख़ुदा की उलूहियत (ख़ुदाई) के बुतलान (तर्दीद) में यूं फ़र्माते हैं, कि वो दोनों खाया करते थे। तो मुहम्मदी इल्म-ए-इलाही के मुताबिक़ हज़रत मूसा बड़े मवह्हिद ना थे। बल्कि हम मसीहियों के साथ तौबा तौबा बक़ौल शमा वो भी मुश्रिक थे। जनाब मौलवी साहब मुहम्मदी तौहीद हज़रत मूसा ने ख्व़ाब में भी नहीं देखी थी। पस ये मुशाबहत भी ग़ज़बूद से कमपाया की नहीं है।
18. हज़रत के सन हिज्री जारी हुए, जैसे हज़रत मूसा के।
जवाब : मौलवी साहब क्यों मुट्ठियों ख़ाक भर भर कर भले मानसों की आँखों में डालते हो। थोड़ी देर गुज़री होगी कि 4 मुशाबहत में मुहम्मद की हिज्रत मदीना को मूसा की हिज्रत मिद्यान से मुशाबह ठहराया था। अब यहां 18 वीं मुशाबहत हैं, बनी-इस्राईल के खुरुजी सन को मुहम्मदी हिज्री सन से मुशाबेह ठहराते हो आपकी अक़्ल तो मुझसे ज़्यादा है आपको क्या हो गया है कभी मुहम्मद को मूसा की मानिंद ठहराते हो और कभी बनी-इस्राईल की मानिंद। चाहिए यूं था कि मूसा के मिदयानी सन हिज्री और मुहम्मद के मदीनी सन हिज्री मुशाबेह किए होते। पस ये मुशाबहत ना मूसा से बल्कि बनी-इस्राईल से साबित होई सो ये भी मह्ज़ बेमाअनी।
19. हज़रत ने गल्लाबानी (निगहबानी, मुहाफ़िज़त, रेवड़ की रखवाली) की जैसे हज़रत मूसा ने।
जवाब : चंद रोज़ दाई हलीमा और बच्चों के साथ चरागाह को जाते थे। ना कि ख़ुद गल्लाबान (चरवाहा) थे। मगर हज़रत मूसा ने तो क़रीब चालीस बरस तक गल्लेबानी की और ख़ुद तमाम बनी-इस्राईल का आबाई पेशा ये ही था। और यही पेशा उन बेचारों पर मिस्र में फ़रावनी वहम से क़ौम हकसास के धोके में सख़्त मुसीबत लाया। लेकिन मुहम्मद साहब के बाप दादा ने तो मक्का के बुत ख़ाने के पुरोहित (ब्रहमन या पण्डित) या पंडा थे। ये मुशाबहत कहाँ हुई।
20. हज़रत यरूशलेम से बाहर मदफ़ून हुए जैसे हज़रत मूसा।
जवाब : हज़रत मूसा का मदफ़न किसी को नहीं मालूम। ये क्या मुशाबहत है हज़रत मुस्लेमा कज़्ज़ाब भी यरूशलेम से बाहर यमामा में मदफ़ून हैं।
21. हज़रत ने काअबा के बुतों को तोड़ा जैसे मूसा ने इस बिछड़े को।
जवाब : क्या काअबा के बुत मुसलमानों के बुत थे क्योंकि बछड़ा तो बनी-इस्राईल का बुत था। वाह साहब ! गोसाला पाएर शूदा गा व शद।
22. जिस तरह ख़ुदा ने क़ौम यहूद को दुनिया की तमाम क़ौमों से चुनकर हज़रत मूसा की मार्फ़त अपनी वहदानियत की ताअलीम में मुम्ताज़ फ़रमाया। इस तरह ख़ुदा ने मुसलमानों को यहूद व नसारा से चुनकर हज़रत मुहम्मद की मार्फ़त बर्गुज़ीदगी और ताअलीम तौहीद में मुम्ताज़ फ़रमाया।
जवाब : दुनिया की तमाम क़ौमों से नहीं चुना है और ना उस वक़्त कोई क़ौम यहूद बनाई गई आप तौरेत को पढ़ें तो मालूम होगा कि ख़ुदा ने अबराहाम को फ़रमाया कि तू अपने मुल्क और अपने नातेदारों के दर्मियान से और अपने बाप के घर से उस मुल्क में जो मैं तुझे दिखाऊँगा। निकल चल और मैं तुझे एक बड़ी क़ौम बनाऊँगा। पैदाइश 12:1 जनाब अभी तो मूसा पैदा भी नहीं हुआ था और अबराहाम की औलाद का बढ़ाओ सिर्फ उसी की ज़ात से इस तरह हुआ कि अबराहाम से इज़्हाक़ और इज़्हाक़ से याक़ूब और याक़ूब से बारह घरानों के सरदार पैदा हुए आमाल 7:8 बनी-इस्राईल का यहूदी नाम तो उस वक़्त से हुआ है जिस वक़्त कि सत्तर बरस की असीरी के बाद फिर अपने मुल्क को वापिस आए उनमें फ़िर्क़ा यहूद की कस्रत थी पस वो यहूदी कहलाए। अगरचे ये सच्च है कि यहूदीयों के सिवा ताअलीम तौहीद में सारी दुनिया की अक़्वाम बे-बहरा हैं लेकिन अबराहाम की बुलाहट और क़ौम यहूद की बर्गुज़ीदगी की इल्लत-ए-ग़ाई (वजह) ताअलीम तौहीद नहीं हो सकती इसलिए कि उस की तौहीद से ना किसी अस्वद परस्त (पत्थर की पूजा करने वाले) को इन्कार है और ना किसी मूर्त परस्त को तकरार सब बिल-इत्तिफाक़ एक ख़ुदा एक परमेश्वर पुकारते हैं। अबराहाम की बर्गुज़ीदगी का मतलब था ये कि दुनिया के सब घराने उस से बरकत पाएँगे। पैदाइश 12:3 यानी खुदा की नजात जिसका वाअदा पैदाइश 3:15 में था।
क़ौमे यहूद औरों को पहुँचेगी चुनान्चे ज़ाहिर है कि जब तक ख़ुदावन्द येसू मसीह जो औरत की नस्ल है ना आया तब तक क़ौम यहूद अपने मुल्क में आबाद और हैकल में क़ुर्बानियां चढ़ा-चढ़ा कर दिल-शाद थे लेकिन जब वो बरकत उनसे हो कर औरों को पहुंची हैकल मिस्मार हुई और वो क़ौम निहायत ज़लील और ख़ार हुई क्योंकि अब उस का वजूद मह्ज़ बेमाअनी था क्योंकि मतलब निकल गया। मौलवी साहब आप धोका बहुत दिया कि करते हैं अब अपने हज़रत की सुनिए आपका ये क़ौल कि मुसलमानों को यहूद व नसारा से चुनकर ताअलीम तौहीद में मुम्ताज़ फ़रमाया बिल्कुल झूटा है। आप ख़ुद लिख चुके कि दुनिया की सारी क़ौमों से यहूदीयों को चुन कर ख़ुदा ने ताअलीम तौहीद में मुम्ताज़ फ़रमाया। फ़रमाईए, कि वो कौन सी ताअलीम तौहीद थी जो यहूदीयों को ना मिली थी वो तो ख़ुद ताअलीम तौहीद में बक़ौल शमा सारी दुनिया की क़ौमों से मुम्ताज़ थे। जब कि मुहम्मद के बाप दादों तक का वजूद ना था फिर मुहम्मदी ताअलीम तौहीद को क्या जानें मुहम्मद साहब ने ईसाईयों से ताअलीम पाई उन्हीं के साथ आप ये सुलूक करते हैं। सादी सच्च कहा।
किस ना आमोखत इल्म तेरा ज़मन। कि मिरा आक़िबत निशाना न करो।
अब बक़ौल एक अंग्रेज़ नव मुस्लिम की कि जो तौहीद मेरे दिमाग़ में गूंज रही थी वो बाइबल में ना मिली मगर क़ुरआन में और इसी लिए मैं मुसलमान हो गया। चेह ख़ुश-दादी आपकी तौहीद ज़रा कलिमा तो पढ़े तो मुहम्मदी तौहीद की सारी क़लई (ज़ाहिरी सजावट, पोल) खुल जाये।
اندر من چہ خوش فرمود کہ محمدؐ یا ں در کلمہ نام محمدؐ ابا نام خُدا یکجا کردہ اندر دبدیں نمط راہ شرک پمیودہ اند
लीजिए एक मुश्रिक जिसको आप काफिर कहते हैं वो भी शाहिद (गवाह) है कि आप मुश्रिक हैं ना मवह्हिद अफ़्सोस तशरीक़ के परस्तार तौहीद के दावेदार। बरअक्स ना हिंद नाम ज़लगी काफ़ूर। चलिए ये तश्बीह भी घोड़े के सींगों पर जा बैठी।
23. हज़रत में मुतलक़ इन्सानियत थी, जैसे हज़रत मूसा में मह्ज़ इन्सानियत।
जवाब : पहली मुख़ालिफ़त उस मुशाबहत में मुतलक़ और मह्ज़ की रफ़ा कीजिए फिर आगे बढ़िए क्योंकि बेवा के पिसर (बेटा) को सुहागन के फ़र्ज़न्द से क्या मुनासबत है।
24. हज़रत मूसा से ख़ुदा परस्ती के लिए इबादतखाने का आग़ाज़ और हज़रत से इस का तकमिला (ज़मीमा जो अस्ल मज़्मून को मुकम्मल करे) चुनान्चे बैतुल-मुक़द्दस और काअबा शरीफ़ दोनों पर नज़र करना चाहिए।
जवाब : हम तो ना सिर्फ काअबा शरीफ़ बल्कि अजमेर शरीफ़ और मदीना मुनव्वरा और करबलाए मुअल्ला और नजफ़ अशरफ़ इन सब पर भी ऐनक लगा कर नज़र कर रहे हैं। मगर आप बिल्कुल आँखें मूँदे बैठे हैं कजा (कहाँ) हैकल पाक हज़रत सुलेमान पैग़म्बर की बनाई हुई। ख़ुदा का घर जिसमें लोगों के देखते ख़ुदा ने अपनी हुज़ूरी ज़ाहिर की जिस वक़्त कि सुलेमान उसे महखूस कर रहा था और कजा (कहाँ) बुत-परस्तों का चौखूँटा बुत ख़ाना आपको ज़रा भी ख़ुदा का ख़ौफ़ नहीं। ये मुशाबहत मह्ज़ ख़ाना ख़ुदा से गुस्ताख़ी है और कुछ नहीं।
25. यहूदीयों में तीन सालाना ईदें थीं ईद फ़सह, ईद ख़ेमा ईद, पंतीकोस्त। मुसलमानों में ईद-उल-अज़हा ईद-उल-फित्र और शबरात।
जवाब : मुशाबहत पैदा करने को शब-ए-बरात भी ईद बनाई वाह मौलवी साहब वाह ख़ूब मुशाबहतें पैदा करते हो हम आपको दो ईदें और बताते हैं एक ईद गदीर और एक ईद शुजाअ इन सबको भी किसी ईद यहूद से मिला दीजिए।
26. हज़रत मूसा की औलाद काहिनों के ज़ेर हुक्म थी। जैसे खुलफ़ा-ए-राशिदीन के हाल से इस का सबूत ज़ाहिर है।
जवाब : अब मालूम हुआ कि अबू बक्र, उमर, उस्मान, अली, मुहम्मदी मज़्हब के काहिन हैं। यक ना शुद दोशद।
27. येशूआ ने मुल्क कनआन में तसर्रुफ़ (इख़्तियार) किया और उमर ने वहीं तसल्लुत (क़ब्ज़ा) करके मस्जिद अकसा बनवाई।
जवाब : तितुस शहज़ादा रुम ने वहां तसल्लुत कर के हैकल को मुनहदिम (गिराना) कर दिया पस इन दोनों में कोई माबा अल-इम्तियाज़ (वो चीज़ जिससे शनाख़्त हो सके) बतला दीजिए। जैसा तितुस वैसा उमर दोनों ख़ुदा को जवाब देंगे। और जो उनके इस फ़ेअल क़बीहा (बुरा काम) के मद्दाह (तारीफ़ करना) हैं। वो भी मुनाफे में उनके हमराह होंगे इस में मुशाबहत ना मूसा के बल्कि तितुस बुत-परस्त के साथ हुई।
28. दुनिया में तीन ही कौमें ख़ुदा-परस्त गिनी जाती हैं यानी यहूद और नसारा और मुसलमान और इन तीनों क़ौमों की जो इल्हामी किताबें हैं उनका शुरू हज़रत मूसा से और ख़ातिमा हज़रत मुहम्मद से हुआ। क्योंकि उस ख़ुदा की तरफ़ से जो अबराहाम व इज़्हाक़ व याक़ूब का ख़ुदा है और किसी मज़्हब के बानी ने कोई किताब ज़ाहिर नहीं की।
जवाब : यहूद, नसारा के साथ अपना नाम क्यों मिला देते हो। जब कि क़ुरआन के साथ तौरेत व ज़बूर व इन्जील को नहीं मिलाते। अगर बक़ौल शमा वह मन्सूख़ हैं तो लाबदोह भी मर्दूद हैं लेकिन आप ही की दलील से जो किताब कि अबराहाम व इज़्हाक़ व याक़ूब के ख़ुदा की तरफ़ से ना हो वो इल्हामी नहीं है तब तो क़ुरआन भी उस ख़ुदा की तरफ़ से नहीं क्योंकि इस्माईल का ख़ुदा बाइबल में कहीं नहीं लिखा पस अगर इस्माईल के ख़ुदा की किताब इल्हामी हो सकती हैं। तो क्यों दायेवा गिनी अंदर अमगरा (دایواگنی اندر امگرہ) के ख़ुदा की किताब इल्हामी ना हो और हमारे देस के बाबा नानक और साधू के गुरु और कबीर दास और पण्डित अग्नी होतरी के ख़ुदा की किताबें भी क्यों इल्हामी ना हों। जवाब ये होगा कि सिर्फ अबराहाम व इज़्हाक़ व याक़ूब के ख़ुदा की ना इस्माईल वग़ैरह की। पस इस मुशाबहत ने तो आपको बिल्कुल ही सदाक़त से महरूम कर दिया। 30,31,32, 33 ये चारों मह्ज़ क़ुरआन के कलामे इलाही होने पर मौक़ूफ़ हैं और इस का सबूत आज तक नहीं हुआ अल-हज़ा हम मौलवी साहब की तरह बेफ़ाइदा काग़ज़ के मुँह को सियाह ना करेंगे। आख़िरी 34 मुशाबहत चूँकि एक अंग्रेज़ की किताब से मौलवी साहब ने निकाली है इस का जवाब देता हूँ।
हज़रत मुहम्मद बेपढ़े थे, जैसे मूसा। जवाब : मह्ज़ झूट हज़रत मूसा पढ़े थे। ये चौंतीस मुशाबहतें 33 फ़ाक़ों में अबु-अल-मंसूर साहब ने पैदा की थीं वो यारों के एक ही निवाले में हज़म हो गईं अब और कुछ बाक़ी नहीं रहा। हम जानते हैं कि मुहम्मदी लोग अपने हज़रत की मुहब्बत में ऐसे बढ़े हुए हैं कि उनको कुछ परवाह नहीं कि किसी नबी की या ख़ुद ख़ुदा की बेइज़्ज़ती होती है। उनका तो ये हाल है। अब उनके सपूत सय्यद नुसरत अली का हाल सुनिए जो कुछ अबूल-मंसूर से बचा था इस को उन्होंने पूरा किया बक़ौल शायर अगर पिदर नतवांद पिसर तमाम कुंद।
कलिमा-तुल-हक़ मुसन्निफ़ा सय्यद नुसरत अली में किसी मंसूर नामी हल्लाज को ख़ुदावंद रब्बना येसू अल-मसीह से मुताबिक़ किया है इस हदीस के मुताबिक़ मेरी उम्मत के मौलवी ऐसे हैं जैसे बनी-इस्राईल के अम्बिया। लाहौल वला को एन ख़ाना तमाम आफ़्ताब अस्त। जब ये ना ख़ुदा से डरते हैं और ना उस के भेजे हुए से तो जो चाईं सो कहें मसीही सल्तनत आज़ादी का चस्का क़लम दवात काग़ज़ मौजूद आएं बाएं शाएं जो चाहें सो लिखें। कोई पूछने वाला नहीं अब हम इस जुंबिश में साबित करेंगे कि सिर्फ ख़ुदावन्द येसू अल-मसीह ही वो नबी है जो मूसा की मानिंद है। ख़ुदावन्द अपने फ़ज़्ल से तो हमारे मुहम्मदी भाईयों को अरबी वहशत से निकाल कर अपनी सच्ची दानाई इनायत कर और उनकी आँखों को खौल ताकि वो ख़ुदा के प्यारे बेटे मसीह मस्लूब को अपना माबूद मस्जूद (ख़ुदा, जिसे सज्दा करें) जान कर सज्दा करें। आमीन।