हमारी ज़िंदगी

Eastern View of Jerusalem

इंसान की ज़िंदगी में ख़ास तीन हालतें हैं या यूं कहो कि इंसान के अय्यामे ज़िन्दगी तीन बड़े हिस्सों में मुनक़सिम (तक़्सीम) हैं। बचपन, जवानी, बुढ़ापा। इनमें से उम्र का पहला हिस्सा वालदैन की निगरानी और उस्तादों की सुपुर्दगी में गुज़रता है। और नाबालिग़ होने की सूरत में दूसरों की मर्ज़ी और ख़्वाहिश के मुवाफ़िक़ चलना पड़ता है बाक़ी उम्र दो

Our Life

हमारी ज़िंदगी

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan March 23, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 23 मार्च 1894 ई॰

ज़िंदगी के तीन बड़े हिस्से

इंसान की ज़िंदगी में ख़ास तीन हालतें हैं या यूं कहो कि इंसान के अय्यामे ज़िन्दगी तीन बड़े हिस्सों में मुनक़सिम (तक़्सीम) हैं। बचपन, जवानी, बुढ़ापा। इनमें से उम्र का पहला हिस्सा वालदैन की निगरानी और उस्तादों की सुपुर्दगी में गुज़रता है। और नाबालिग़ होने की सूरत में दूसरों की मर्ज़ी और ख़्वाहिश के मुवाफ़िक़ चलना पड़ता है बाक़ी उम्र दो हिस्सों का बहुत कुछ दारो मदार (इन्हिसार) इसी पर मुन्हसिर (मुताल्लिक़, वाबस्ता) है। बल्कि अगर यूं कहा जाये कि ये ज़िंदगी का हिस्सा मिस्ल बीज के बोने का वक़्त है और बाक़ी दोनों वक़्त इस बोए हुए के काटने का वक़्त हैं तो दुरुस्त है। पैदा होते ही जब कि इंसान अपने हवास-ए-ख़मसा (पाँच हवास, देखने, सुनने, सूंघने, चखने और छूने की पाँच क़ुव्वतें) को काम में लाने लगता है। इस वक़्त से वो इस दुनिया की बातों को सीखने लगता है। बचपन का ज़माना गोया सीखने का ज़माना है बच्चा इस उम्र के हिस्से में चाहे कुछ सीख ले इल्म या हुनर, नेकी या बदी, और जो कुछ चाहो उस को सिखा लो। सीखने का माद्दा इस में ख़ालिक़ ने बना दिया है। दो तरह से इंसान का बच्चा सीखता है एक तो सिखाने पढ़ाने से दूसरा सोहबत संगत से। अगर पहली तरह की ताअलीम अच्छी और वाजिबी तौर पर की जाये। और इस के मुअल्लिम और अतालीक़ (उस्ताद) साहिब-ए-लियाक़त (क़ाबिलीयत) और दीनदार हों तो वो दाना (अक़्लमंद) और होशियार हो जाता है और ख़ुशी और फ़ारिगुलबाली (ख़ुशहाली) से बाक़ी उम्र के हिस्से गुज़रानता है। पर अगर ताअलीम व तर्बीयत अच्छी ना हो बल्कि कोई बुरा पेशा या गुनाह का काम कि जिसका करना अख़्लाक़ी और मुल्की शराअ की रु से मुनासिब ना हो सीख ले। तो तमाम उम्र बर्बाद हो जाती है। सोहबत भी दो तरह की हैं नेक सोहबत और बद-सोहबत। जिस तरफ़ बच्चे को लगा लो वो वैसा ही बन जाएगा। ज़िंदगी के इस हिस्से में बड़ी भारी होशयारी और ख़बरदारी लाज़िम व मुनासिब है और जिनके जो बच्चे सपुर्द हैं उनका बिगड़ना और सँवरना उनके ही इख़्तियार में है। कलाम इलाही में ज़िंदगी के इस हिस्से के लिए बच्चों को बड़ी उम्दा नसीहतें हैं जिनमें से चंद एक का ज़िक्र करना ख़ास करना नूर अफ़्शां के नाज़रीन तालिब-ए-इल्मों के लिए जो ज़िंदगी के इस हिस्से में हैं फ़ाइदेमंद होंगे।

और अपनी माँ की ताक़ीद को मत तर्क कर

बच्चों के वास्ते हिदायतें :-

ऐ मेरे बेटे अपने बाप की तर्बीयत का शुन्वा (सुनने वाला) हो। और अपनी माँ की ताकीद (ताअलीम) को मत तर्क कर। अम्साल 1:8 इस का फ़ायदा ये है कि ये तेरे सर के लिए रौनक का ताज और तेरी गर्दन के लिए तौक़ (गले का हार) हैं। अम्साल 1:9

ऐ लड़को बाप की ताअलीम सुनो और अक़्लमंदी के हासिल करने पर ध्यान रखो। अम्साल 4:1 ऐ मेरे बेटे मेरी शरीअत को फ़रामोश मत कर पर तेरा दिल मेरे हुक्मों को हिफ़्ज़ करे। अम्साल 3:1

इस का फ़ायदा ये होगा कि वो उम्र की दराज़ी और पीरी और सलामती तुझको बख़्शेंगे। तो तू ख़ुदा और ख़ल्क़ का मंज़ूर-ए-नज़र हो के नेअमत और बड़ी क़द्र पाएगा। अम्साल 3:4

ऐ मेरे बेटे अगर गुनेहगार लोग तुझे फुसला दें तो मत मान। अम्साल 1:10

अपने सारे दिल से ख़ुदावन्द पर तवक्कुल कर और अपनी समझ पर तकिया मत कर और अपनी सारी राहों में उस का इक़रार कर और वो तेरी रहनुमाई करेगा। अम्साल 3:5, 6

अपनी निगाह में (अपने) आपको दानिश मंद मत जान। ख़ुदावन्द से डर। और बदी से बाज़ रह। इस का फ़ायदा ये होगा, कि ये नाफ़ के लिए सेहत और तेरी हड्डीयों के लिए तरावट होगी। अम्साल 3:7, 8

शरीरों की राह में दाख़िल मत हो और ख़बीसों के रस्ते पर मत जा। इस से बाज़ रह और इस के नज़्दीक गुज़र ना कर। उधर से फिर जा और गुज़र जा। अम्साल 4:14, 15

दानिश मंद बेटा बाप को ख़ुश-नूद करता है पर बेदानिश फ़र्ज़न्द अपनी माँ का बार-ए-ख़ातिर होता है। अम्साल 10:1

दानिश्वर बेटा अपने बाप की ताअलीम सुनता है पर ठट्ठा करने वाला सरज़निश पर कान नहीं धरता। अम्साल 13:1

होशियार बेटा बाप को खुशनूद करता है पर बेवक़ूफ़ आदमी अपनी माँ की तहक़ीर करता है। अम्साल 15:20

ऐ मेरे बेटे तू सुन और दानिशमंद हो और अपने दिल की राहबरी कर। अम्साल 23:19

अपने बाप की बात जिस से तू पैदा हुआ है सुन और अपनी माँ को उस के बुढ़ापे में हक़ीर ना जान। अम्साल 23:22

ऐ मेरे बेटे तू ख़ुदावन्द से और बादशाह से डर और उन लोगों के साथ सोहबत ना रख जो तलव्वुन मिज़ाज हैं। अम्साल 24:21

काश कि तमाम बच्चे लड़कपन में दाऊद की तरह कहें, मैं पैदा होते ही तुझ पर फेंका गया। जब मैं अपनी माँ के पेट से निकला तब ही से तू मेरा ख़ुदा है। ज़बूर 22:10

जवानी के अय्याम

हमारी ज़िंदगी में ये वक़्त निहायत क़ीमती और भारी और नाज़ुक है। और ख़तरनाक आज़माईश में मुब्तला होने के बड़े अंदेशे (ख़तरे) का वक़्त है। इंसान के क़वाइद बदनी तंदुरुस्त और मज़्बूत होते हैं। और नफ़्सानी और हैवानी ख़्वाहिशें ज़ोर पर होती हैं। इंसान बड़ी आसानी से हर एक काम अंजाम कर सकता है। चाहे बुरा हो चाहे भला। लेकिन चूँकि इंसान की बिगड़ी तबीयत का फैलान बड़ाई की तरफ़ ज़्यादा हो गया है उमूमन बुरे काम करने में जवानों के क़दम बड़े तेज़ और चालाक हो जाते हैं। दाऊद ज़बूर की किताब में एक सवाल पेश करता है जो हक़ीक़त में एक भारी सवाल है कि “जवान अपनी राहें किस तरह साफ़ कर रखे?” ज़बूर 119:9

शायद कोई इस का जवाब देता लेकिन दाऊद ख़ुद ही इस का जवाब यूं देता है, इस पर ख़ूब निगाह करने से तेरे कलाम के मुताबिक़।” ज़बूर 119:9 जवानों के लिए वाइज़ सबसे बड़ी हिदायत ये देता है। जो हर एक जवान के लिए ग़ौर तलब है। अपनी जवानी के दिनों में अपने ख़ालिक़ को याद कर।

सारी बातों को आजमाओ बेहतर को इख्तियार करो

बुढ़ापा

इंसान की ज़िंदगी में ये वक़्त तक्लीफ़ और दिक़्क़त (मुश्किल) का है। इन्सान के बदन की ताक़त ज़ाइल (ज़ाए) हो जाती है। आज़ा बेकार हो जाते हैं। काम काज हो नहीं सकता। गुज़र औक़ात मुश्किल हो जाती है। ज़िंदगी बे-लुत्फ़ (बेमज़ा) मालूम होती है। तबइयत को कोई चीज़ ख़ुश मालूम नहीं होती। इस उम्र की बख़ूबी तश्रीह व वाइज़ ने अपनी किताब के 12 बाब में ख़ूब उम्दा तौर से की है। वो इस उम्र को “बुरे दिन” कहता है। जैसा कि लिखा है जब कि बुरे दिन हनूज़ नहीं आए और वो बरस नज़्दीक ना हुए जिनमें तू कहेगा, कि उनसे मुझे कुछ ख़ुशी नहीं। जब कि हनूज़ सूरज और रोशनी और चांद और सितारे अंधेरे नहीं होते। और बदलियां फिर बारिश के बाद जमा नहीं होतीं। जिस दिन कि घर के रखवाले थर-थराने लगें। (यानी टांगें कमज़ोर हो जाएं) और ज़ोर-आवर लोग हो जाएं (यानी पीठ) और पीसने वालियाँ बे काज रहें यानी दाँत इसलिए कि वो थोड़ी सी हैं और वो जो खिड़कियाँ से झाँकती हैं धुँदला जाएं। (यानी आँखें) और गली के किवाड़े बंद हो जाएं (यानी कान) जब चक्की की आवाज़ धीमी होती और वह चिड़िया की आवाज़ से चौंक उठे और नग़मा की सारी बेटियां ज़ईफ़ हो जाएं। (यानी गाने की ताक़त ना रहे) और जब वो चिड़ियों से भी डर जाएं और दहश्तें राह में हूँ। और बादाम ना पसंद होए और टिड्डी एक बोझ मालूम हो और ख़्वाहिश नफ़्स मिट जाये। क्योंकि इंसान अपने दाइमी मकान में चला जाएगा। और मातम करने वाले गली गली फिरेंगे। पेश्तर इस से कि चांदी की डोरी खोली जाये यानी जान और सोने की कटोरी तोड़ी जाये और घड़ा चशमे पर (यानी जिस्म) फट जाये। और हौज़ का चर्ख़ टूट जाये। उस वक़्त ख़ाक ख़ाक से जा मिलेगी। जिस तरह आगे मिली हुई थी और रूह ख़ुदा के पास फिर जायेगी। जिसने उसे दिया। वाइज़

अक्सर बाअज़ इंसान अपनी जवानी ख़राबी और बड़ाई और हर तरह के नजिस (नापाक) कामों में सर्फ कर देते हैं और बुढ़ापे में माला या तस्बीह लेकर बैठ जाते हैं और ख़याल करते हैं, कि अब हम बंदगी कर के ख़ुदा को ख़ुश कर लेंगे ये ऐसे लोगों का ख़याल बिल्कुल ग़लत है अगर एक लड़का आम के फल या किसी और क़िस्म के फल का गुदा आप खा ले। और ख़ाली गुठली अपने बाप को दे। तो क्या उस का बाप उस को क़ुबूल कर लेगा। हरगिज़ नहीं बल्कि ऐसे ख़याल पर वो ऐसे नादान लड़के को ख़ूब तंबीया करेगा।

अगर हम अपनी बचपन की उम्र और जवानी के अय्याम ख़ुदा की राह पर चलने में काटें तो हमारा बुढ़ापा मुबारक होगा। और हम दाऊद की तरह से कह सकेंगे, मैं जवान था अब बूढ़ा हुआ पर मैंने सादिक़ को तर्क किए हुए और उस की नस्ल में से किस को टुकड़े मांगते ना देखा। ज़बूर 37:25

हमने सुना भी नहीं कि रूह-उल-क़ुद्स नाज़िल हुआ है

ये जवाब इफ़िसुस शहर के उन शागिर्दों ने पौलुस रसूल को दिया था, जब कि वो ऊपर के अतराफ़ मुल्क में इन्जील सुना कर इफ़िसुस में पहुंचा। और उसने पूछा, क्या तुमने जब ईमान लाए रूह-उल-क़ुद्स पाया? अगरचे ये लोग कमज़ोर, और बग़ैर रूह-उल-क़ुद्स पाए हुए ईसाई थे। तो भी शागिर्द कहलाए क्योंकि वो मसीह ख़ुदावन्द पर ईमान रखते थे।

We have not even heard that there is a holy spirit.

हमने सुना भी नहीं कि रूह-उल-क़ुद्स नाज़िल हुआ है

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan February 9, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 9 फरवरी 1894 ई॰

उन्हों ने उस से कहा हमने तो सुना भी नहीं कि रूह-उल-क़ुद्स नाज़िल हुआ है। (आमाल 19:2)

ये जवाब इफ़िसुस शहर के उन शागिर्दों ने पौलुस रसूल को दिया था, जब कि वो ऊपर के अतराफ़ मुल्क में इन्जील सुना कर इफ़िसुस में पहुंचा। और उसने पूछा, क्या तुमने जब ईमान लाए रूह-उल-क़ुद्स पाया? अगरचे ये लोग कमज़ोर, और बग़ैर रूह-उल-क़ुद्स पाए हुए ईसाई थे। तो भी शागिर्द कहलाए क्योंकि वो मसीह ख़ुदावन्द पर ईमान रखते थे। मुम्किन है कि एक गुनेहगार शख़्स इंजीली पैग़ाम सुनकर मसीह पर ईमान लाए। लेकिन रूह-उल-क़ूदस हनूज़ (अभी तक) उस को ना मिला हो। पस मुनासिब नहीं कि ऐसे शख़्स को मसीहिय्यत के दायरे से ख़ारिज और हक़ीर (कमतर) समझा जाये। क्योंकि वह ख़ुदावन्द जिसने ईमान के काम को उस के दिल में शुरू किया है। अपना रूह-उल-क़ुद्स अता कर के उस को कामिल (मुकम्मल) करेगा। वो जो मसले हुए सरकंडे को नहीं तोड़ता। और धूवां उठते हुए सन (रस्सी) को नहीं बुझाता। अपने कमज़ोर ईमान दारों को नाचीज़ समझ कर उन्हें तर्क नहीं कर देता है। जैसा कि हम इन इफसी शागिर्दों की हालत में पाते हैं। ख़ुदावन्द ने इन लोगों के दिली ईमान, और कमज़ोर हालत, और रूह-उल-क़ुद्स की एहतियाज (ज़रूरत) को मालूम कर के पौलुस रसूल को उनके पास भेजा। और जब उसने उन पर हाथ रखा। तो रूह-उल-क़ुद्स उन पर नाज़िल हुआ। और वो तरह तरह की ज़बानें बोलने। और नबुव्वत करने लगे।

इस में शक नहीं कि मसीही कलीसिया में अब भी अक्सर ऐसे शागिर्द मौजूद हैं। जो रूह-उल-क़ुद्स की तासीर (असर) से हनूज़ (अभी तक) मोअस्सर नहीं हुए। हालाँकि उन्होंने बाप बेटे, और रूह-उल-क़ुद्स के नाम से बपतिस्मा पाया है। और उन इफ़िसियों की मानिंद नहीं कह सकते, कि “कि हमने तो सुना भी नहीं, कि रूह-उल-क़ुद्स है।” ताहम मुनासिब नहीं, कि हम उन्हें हक़ीर व नाचीज़ समझें। या जैसा बाज़ों का दस्तूर (रिवाज) है। उन्हें जमा कर के पूछें कि तुमने रूह-उल-क़ुद्स पाया, या नहीं? और उनके दर पै हो कर और दिक़ (ज़बरदस्ती) कर के रूह-उल-क़ुद्स के पाने का इक़रार करवाएं। बल्कि ऐसे मसीहियों को कलाम से नसीहत करें। उनके लिए और उनके साथ दुआ मांगें। कि वो रूह-उल-क़ुद्स की तासीरात और नेअमतों को हासिल करें।

तज़किर-तुल-अबरार में लिखा है कि “अगरचे इफ़िसुस में और भी ईसाई थे। मगर वो लोग जो रूह-उल-क़ुद्स से कम वाक़िफ़ थे सिर्फ बारह एक थे। अब भी जमाअतों में ज़ोर-आवर और कमज़ोर लोग रले मिले रहते हैं। मुनासिब है कि ऐसे लोग तलाश किए जाएं। और उन्हें जमा कर के सिखाया जाये। और उनके लिए दुआ की जाये। मगर अफ़्सोस की बात है, कि इस वक़्त जो बाअज़ मिशनरी बाहर से आते हैं। वह अक्सर ज़ोर-आवर और नामदार भाईयों को तलाश कर के उनसे बहुत बातें करते हैं। पर कमज़ोर और अफ़्सरदह दिल भाईयों की तरफ़ कम मुतवज्जोह होते हैं। और अगर कुछ ज़िक्र भी आता है, कि फ़ुलां भाई कमज़ोर है। तो ये लोग इस उम्मीद पर कि वहां का पास्टर उनकी मदद करेगा। उन्हें छोड़ देते हैं। इस बात पर नहीं सोचते कि अगर वहां के पास्टर की ताक़त रूहानी के दफ़ाअ-ए-मर्ज़ (बीमारी को दूर करना) के लिए मुफ़ीद होती, तो वो अब तक क्यों ऐसे कमज़ोर रहते।

मुनासिब है कि अब दूसरे भाई की रूहानी ताक़त उनकी मदद करे। शायद वह बच जाएं। इफ़िसुस में अकोला और परसकिला भी रहते थे। जिन्हों ने अपोलूस जैसे फ़ाज़िल (आलिम) आदमी को भी सिखाया। तो भी अकोला और परसकिला की ताक़त से ये बारह शख़्स मज़्बूत ना हुए। मगर पौलुस की मुनादी और ईमान और दस्तगीरी (हिमायत) से देखो उन्होंने कितनी क़ुव्वत पाई। पस हर मुअल्लिम हर रूह के लिए मुफ़ीद नहीं है। मदारिज मुख़्तलिफ़ हैं और क़ुव्वतें भी मुख़्तलिफ़ हैं। सबको सब कहीं जहां मौक़ा मिले ख़िदमत करना चाहिए।”

कोई दानिशमंद कोई ख़ुदा का तालिब

ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस की नज़र में बनी-आदम की गुनाह आलूदा हालत की निस्बत ये एक ऐसे शख़्स की शहादत (गवाही) है। जो मुलहम (इल्हाम शुदा) होने के इलावा, बहैसीयत एक बड़ी क़ौम का बादशाह होने के ख़ास व आम के हालात व मुआमलात से बख़ूबी वाक़िफ़, और तजुर्बेकार था। और ये ना सिर्फ उसी की शहादत है,

Someone wise, Someone seeking God

कोई दानिशमंद कोई ख़ुदा का तालिब

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 9, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 9 जनवरी 1894 ई॰

“ख़ुदावंद आस्मान पर से बनी-आदम पर निगाह की ताकि देखे कि कोई दानिशमंद कोई तालिब है या नहीं। वो सब के सब गुमराह हुए। वो बाहम नजिस हो गए। कोई नेकोकार नहीं। एक भी नहीं। (ज़बूर 14:1-3)

ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस की नज़र में बनी-आदम की गुनाह आलूदा हालत की निस्बत ये एक ऐसे शख़्स की शहादत (गवाही) है। जो मुलहम (इल्हाम शुदा) होने के इलावा, बहैसीयत एक बड़ी क़ौम का बादशाह होने के ख़ास व आम के हालात व मुआमलात से बख़ूबी वाक़िफ़, और तजुर्बेकार था। और ये ना सिर्फ उसी की शहादत है, बल्कि वो सब भी जिन्हों ने नेअमत इल्हाम पा के पाक नविश्तों को क़लम-बंद किया। बनी-आदम की अला-उल-उमूम (आम तौर पर) गुनाहगारी का इज़्हार व इक़रार करते हैं।

बाइबल ही एक ऐसी किताब है जिससे मालूम हो सकता है कि आदम से ता एंदम कोई बशर मुबर्रा अनिलल-ख़ता (ग़लती से पाक होना) ना हुआ। और ना ताकियाम क़ियामत हो सकता है। ये किताब किसी नबी, रसूल या बादशाह के गुनाह पर पर्दा नहीं डालती। और ना उनके किसी गुनाह को तर्क ऊला, या लीला कह कर उस को ख़फ़ीफ़ (मामूली) ठहराती है। वो ना अम्बिया दायमा को मासूम साबित करने की कोशिश करती, और ना महाऋषियों और महात्माओं की निस्बत ये ताअलीम देती है, कि सामर्थी को दोश नहीं। बल्कि साफ़ तौर पर ज़ाहिर करती है, कि “सभों ने गुनाह किया। और ख़ुदा के जलाल से महरूम हैं” वो गुनाह के नतीजे को भी बसफ़ाई बताती, और बनी-आदम को आगाह करती है, कि “जो जान गुनाह करती है सो ही मरेगी” और ये कि “गुनाह की मज़दूरी मौत है।”

इस में शक नहीं कि इन्सानी ख़ुद-पसंद तबीयत, और फ़रेब ख़ुर्दह दिल को ये बात पसंद नहीं, कि वो इल्हाम की ऐसी आवाज़ सुने कि “सभों ने गुनाह किया” सब के सब बिगड़े हुए हैं। और कोई नेकोकार नहीं एक भी नहीं लेकिन ख़्वाह कोई इन बातों को क़ुबूल व पसंद करे या ना करे वो दरहक़ीक़त बहुत ही सही, और सादिक़ (सच्चे) हैं। वो लोग जो गुनाह की बुराई से और ख़ुदा तआला की अदालत व कुद्दूसी (पाकीज़गी) से नावाक़िफ़ हैं। और जिन्हों ने अपनी दिली व अंदरूनी हालत को नहीं पहचाना। किसी बुज़ुर्ग शख़्स की निस्बत मासूमियत का ख़याल कर सकते। और अपने को भी बनिस्बत दूसरों के पाक और रास्त समझते हैं। बल्कि बाअज़ ऐसे लोग भी मौजूद हैं, जो मसीहियों से सवाल किया करते हैं कि “गुनाह क्या है?” एक दफ़ाअ एक वाइज़ ने दौरान वाज़ कहा कि “हम सब गुनेहगार हैं” तो सामईन में से एक आदमी ने जो शायद ब्रहमन था जवाब दिया, “बेशक तुम सब गुनेहगार हो मगर मैं नहीं हूँ” क्या ये अम्र निहायत अफ़्सोस के क़ाबिल नहीं, कि कितने हज़ार आदमी बग़ैर गुनाह की पहचान, और उस की माफ़ी हासिल किए, इस दुनिया से गुज़र जाते हैं। और मरने के बाद उन्हें अबदी अज़ाब में मुब्तला होना पड़ता है।

लेकिन अगरचे सारे बनी-आदम गुनाह से मग़्लूब (हारना) हो गए तो भी आदम-ए-सानी (दूसरा आदम यानी येसू मसीह) जो ख़ुदावन्द आस्मान से था। ज़ाहिर हुआ। और गुनाह और मौत पर ग़ालिब आकर अपने सब हम-जिंसों के लिए मुफ़्त नजात का दरवाज़ा खोल दिया। जैसा कि लिखा कि “जब एक ही की ख़ता (ग़लती, गुनाह) के सबब बहुत से मर गए। तो एक ही आदमी यानी येसू मसीह के वसीले से ख़ुदा का फ़ज़्ल, और फ़ज़्ल से बख़्शिश बहुतेरों के लिए कितनी ज़्यादा हुई।”

रूह-उल-क़ुद्स और मुहम्मद

लूक़ा के चौबीसवें बाब की 49 वीं आयत में ख़ुदावन्द मसीह ने रूह-उल-क़ुद्स को मौऊद (वाअदा किया गया) फ़रमाया और शागिर्दों से कहा। देखो मैं अपने बाप के उस मौऊद को तुम पर भेजता हूँ। लेकिन तुम जब तक आलम-ए-बाला की क़ुव्वत से मुलब्बस (क़ुव्वत से भरना) ना हो यरूशलेम में ठहरो। ये ख़ुदावन्द की आख़िरी तसल्ली बख़्श बात थी।

Holy Spirit and Muhammad

रूह-उल-क़ुद्स और मुहम्मद

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 12, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 12 जनवरी 1891 ई॰

लेकिन जब रूह-उल-क़ुद्स तुम पर आएगा तो तुम क़ुव्वत पाओगे। और यरूशलेम और सारे यहूदिया व सामरिया में बल्कि ज़मीन की हद तक मेरे गवाह होगे। (आमाल 1:8)

लूक़ा के चौबीसवें बाब की 49 वीं आयत में ख़ुदावन्द मसीह ने रूह-उल-क़ुद्स को मौऊद (वाअदा किया गया) फ़रमाया और शागिर्दों से कहा। देखो मैं अपने बाप के उस मौऊद को तुम पर भेजता हूँ। लेकिन तुम जब तक आलम-ए-बाला की क़ुव्वत से मुलब्बस (क़ुव्वत से भरना) ना हो यरूशलेम में ठहरो। ये ख़ुदावन्द की आख़िरी तसल्ली बख़्श बात थी। जिसमें एक ऐसा वाअदा शामिल था, कि जब तक वो पूरा ना हो लिया मसीह के रसूल उस की गवाही देने के क़ाबिल ना हो सके। क्योंकि सिर्फ रूह-उल-क़ुद्स ही क़ुव्वत व क़ुद्रत का वो सर-चशमा है। जिससे सब मुक़द्दसों में क़ुव्वत और हिम्मत व जुर्रत पैदा होती। और कलाम के समझने, मज़ामीन रुहानी की बर्दाश्त, रुहानी जंग की क़ुव्वत, कलाम की ख़िदमत उसी की मदद से होती है। मालूम होता है कि मसीह के आस्मान पर उरूज (उठाया जाना) फ़रमाने के बाद सब शागिर्द यरूशलेम ही में एक बाला -ख़ाना में फ़राहम (इकट्ठे) रह कर इस मौऊद मसऊद (मुबारक वाअदा) की इंतिज़ारी में शब व रोज़ दुआ मांगने और इबादत करने में मशग़ूल (मसरूफ़) रहे। और जब ईदे पंतकोस्त का दिन आया तो वो वाअदा अजीब तौर से पूरा हुआ। और जब कि ईद मज़्कूर की तक़रीब के बाइस तख़मीनन पचपिस लाख यहूदी ममालिक मुख़्तलिफ़ा के यरूशलेम में जमा थे। सब के देखते हुए रोज़-ए-रौशन में मजमा-ए-आम में आतिशी ज़बान की सूरत में नाज़िल हो कर उन बेइल्म उम्मी (अनपढ़) गलीली मछोओं को ग़ैर-ज़बानों में ख़ुदा की उम्दा बातें बोलने और मसीह के नजात बख़्श नाम की निहायत दिलेरी व इस्तिक़लाल (मज़बूती) के साथ गवाही देखने के क़ाबिल कर दिया। ज़रूर था कि अव्वलन मसीह की ख़ुशख़बरी यहूदीयों को दी जाये। और यरूशलेम से ये काम शुरू किया जाये। जहां के हज़ारों आदमीयों ने मसीह को मस्लूब होते हुए देखा था।

उस की ज़िंदगी में उस के कलाम को सुना था। और उस को बख़ूबी जानते पहचानते उस के मोअजज़ात को मुशाहिदा कर चुके थे। क्योंकि ये बातें कोने में नहीं हुईं। पस रसूलों ने इस वक़्त से एक अर्सा तक मसीह की गवाही यरूशलेम शहर में बड़े जोश व ख़रोश के साथ दी। और सबसे ज़्यादा ज़ोर इसी एक बात पर दिया कि येसू वही मसीह है जिसका ज़िक्र नविश्तों में किया गया। जिसको क़ौम यहूद ने पिलातूस से दरख़्वास्त कर के सलीब दिलवा दी और क़त्ल किया। और वही येसू मुर्दों में से जी उठा है। आख़िर दिन में वही दुनिया की अदालत करने को फिर आएगा। और ये कि उस के सिवा और कोई नजातदिहंदा नहीं। जो उस के नाम पर ईमान लाता है। सो वही नजात पाएगा।

अगरचे ये हुक्म ख़ुदावन्द ने उस वक़्त उन ही शागिर्दों को जो हाज़िर थे दिया। मगर इस की तामील (अमल करना) हर एक मसीही ईमानदार पर फ़र्ज़ है। हर एक मसीही मोमिन ख़ुदावन्द मसीह का गवाह है। और वाजिब है कि वो अपने आमाल व अक़्वाल, हरकात व सकनात ज़िंदगी और मौत से अपने नजातदिहंदा की गवाही दे और ऐसा करने से वो अपने को फ़रिश्तों, नबियों और रसूलों का हम-ख़िदमत साबित करेगा।

और मैं अपने बाप से दरख़्वास्त करूंगा। और वो तुम्हें दूसरा तसल्ली देने वाला देगा, कि तुम्हारे साथ अबद तक रहे। यानी सच्चाई का रूह जिसे दुनिया नहीं पा सकती। क्योंकि उसे नहीं देखती ना उसे जानती है। लेकिन तुम उसे जानते हो। क्योंकि वो तुम्हारे साथ रहता है। और तुम में होगा। यूहन्ना 14_16:17

दूसरा तसल्ली देने वाला

जिस यूनानी लफ़्ज़ का तर्जुमा है वो दरअस्ल पाराक़लीतस (दूसरा मददगार) है। मुहम्मदी इस को फ़ारक़लीत (فارقلیط) (तारीफ़ किया गया) कहते और मुहम्मद साहब की ख़बर समझते और कहते हैं, कि फ़ारक़लीत (فارقلیط) के मअनी अहमद हैं। इसी लिए क़ुरआन में आया है कि मसीह ने कहा, اِنّی مُبشرِاً بِرُسول ياتی من بَعدی اسمہ احمد यानी मैं ख़ुशख़बरी देता हूँ एक रसूल की जो मेरे बाद आएगा। उस का नाम अहमद होगा। तमाम अहद-ए-जदीद (नया अहदनामा) में ये ही एक ऐसा मुक़ाम है। जिस पर मुहम्मदियों ने हज़रत को रसूल मौऊद (वाअदा किया हुआ) ठहराने के लिए बहुत ज़ोर मारा है। मगर मसीहियों ने मक़्दूर भर (ताक़त मुताबिक़) उनकी ग़लतफ़हमी को रफ़ा (दूर) करने की कोशिश की। और मुदल्लल (दुरुस्त) तौर पर बहुत कुछ लिखा। तो भी अभी तक मुहम्मदी ये ही समझते हैं कि ज़रूर फ़ारक़लीत (فارقلیط) से मुराद मुहम्मद साहब ही हैं। लेकिन अगर इन तमाम आयात पर जो इस मौऊद की निस्बत इन्जील में पाई जाती हैं। बख़ूबी ग़ौर किया जाये तो साफ़ मालूम हो जाएगा, की मसीह ख़ुदावन्द ने जो काम और सिफ़तें इस से मन्सूब की हैं वो किसी इन्सान के दरकिनार (जुदा, अलग) किसी फ़रिश्ते के साथ भी हरगिज़ मन्सूब नहीं की जा सकती हैं। और यूं तो मुहम्मद साहब को क्या हर एक शख़्स को जिसका नाम हो इख़्तियार है, कि वो अपने को फ़ारक़लीत (فارقلیط) तसव्वुर कर के मौऊद तसल्ली देने वाला ज़ाहिर करे। चुनान्चे अक्सरों ने मसीह के बाद ऐसा दावा किया है। और बाअज़ मुहम्मदियों ने भी जिनके नाम में लफ़्ज़ अहमद शामिल था। अपने को और दीगर मुहम्मदी अश्ख़ास को धोका दिया। मिन-जुम्ला उनके एक मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद साहब क़ादियानी हैं। जो इस आयत क़ुरआनी को अपने ऊपर जमाते और कहते हैं कि मैं आया हूँ। और मेरा नाम अहमद है। देखो इज़ाला सफ़ा 673

लेकिन जैसा कि तोज़ीन-उल-अक़वाल से ज़ाहिर होता है। पंद्रहवीं सदी से इस उन्नीसवीं सदी तक हिंदुस्तान में चार अहमद ज़ाहिर हो चुके हैं। जिन्हों ने दीन-ए-इस्लाम की मुरम्मत और सल़्तनत-ए-इस्लामीया के बारे में फ़िक्र किया है। और मुजद्दिद (पुराने को नया करने वाला, तजदीद करने वाला) होने के मुद्दई (दावा करने वाला) हुए हैं।

पहला अहमद : शेख़ अहमद सर हिन्दी हैं। जिनका इंतिक़ाल 134 हिज्री में हुआ। और शहर सरहिंद में उनका मक़बरा है। वो मज़्हब इस्लाम के एक जय्यद आलिम (ज़बरदस्त इल्म रखने वाला) और सूफ़ी (परहेज़गार) थे। उनको मुहम्मदियों ने मुजद्दिद अलफ़सानी का ख़िताब दिया था। जो अब तक इनमें मक़्बूल है। यानी वो दीन-ए-इस्लाम के मुजद्दिद या रीफ़ारमर (दुरुस्त करने वाला) और अहमद सानी कहलाए। पहला अहमद मुहम्मद साहब हुए। और दूसरा अहमद ये हज़रत समझेगे। आख़िरकार उनके ख़याल में भी कुछ ऐसा आ गया, कि मैं दूसरा अहमद हो के मुहम्मद साहब के क़रीब आ गया हूँ। ज़रूर दूसरे अस्हाब-ए-रसूल से मुझे सबक़त (बरतरी) हासिल हुई है। ऐसे ख़याल की बू दर्याफ़्त (मालूम) कर के बाअज़ मुहम्मदी उन पर तअन करने लगे थे। तब उन्हें कहना पड़ा कि ये ग़लत है। मेरा गुमान (ख़याल) ऐसा नहीं है। (सफ़िनत-उल-औलीया) मगर

تانبا شد اند کے مردم نگو يند چيز ہا۔

दूसरा अहमद : सय्यद अहमद ग़ाज़ी हैं। उनका हाल नाज़रीन बग़ौर सुनें। क्योंकि मिर्ज़ा साहब ने उन की तक़्लीद (नक़्ल, पैरवी) कर के नबी और मसीह होने का दावा किया है। और इस तरह के कुछ बंदो बस्त नज़र आते हैं। ये हज़रत क़ौम से सय्यद और रायबरेली के बाशिंदे थे। और सीधे मिज़ाज के आदमी बेइल्म शख़्स थे और ऊला नवाब टोंक के सवारों में मुलाज़िम थे। शाह अब्दुल अज़ीज़ की शौहरत सुनके दिल्ली में आए और सराय में उतरे। इरादा था कि शाह साहब के मुरीद (चेला) हो के वापिस चले जाऐंगे।

उस वक़्त दो मौलवी साहब हमराज़ दोस्त और दुनिया की तरफ़ से तंग, और शाह साहब से बा बातिन कशीदा-ख़ातिर, बज़ाहिर उन के अज़ीज़ किसी मन्सूबा में गुशट किया करते थे। यानी मौलवी इस्माईल और मौलवी अब्दुल हइ मौलवी इस्माइल बड़ा अलस्सान (ख़ुशगुफ़तार) और उम्दा वाइज़ शाह साहब का भतीजा था। उस को उम्मीद थी कि शाह साहब जो ला-वलद (बेऔलाद) थे अपनी मीरास में से इस भतीजे को हिस्से देंगे। लेकिन शाह साहब उन के मुक़ल्लिद (पैरवी) ख़यालात से ख़ुश ना थे। कुछ तरका (मीरास) ना दिया। सब कुछ अपने दामाद के नाम लिख दिया। तब इस्माइल ने सख़्त नाराज़ हो के मुक़ल्लिदीन फ़िर्क़े की बेख़कुनी (नेस्त व ना-बूद कर देना) की। और अपनी मईशत दुनियावी के फ़िक्र में हो गए। और अब्दुल हइ उन के दोस्त जो मेरठ के किसी सरकारी दफ़्तर में मुहर्रिर थे। बरख़ास्त हो के दिल्ली में आ गए थे। दोनों फ़िक्रमंद दोस्त हमराह चलते फिरते और किसी तज्वीज़ (राय, सलाह) के दरपे थे। नागाह सराय में सैर के लिए गए। वहां सय्यद अहमद साहब को मुसाफ़िराना उतरते हुए पाया। मुलाक़ात हुई और हाल पूछा। मिज़ाज देखा। और जिहाद की पट्टी पढ़ाई। और अपने पंजे में फंसा लिया। और मंसूबे बांध लिए। और शाह साहब के पास मुरीद (चेला, पैरवी करने वाला) कराने को ले गए। जब वो मुरीद हो के बाहर निकलते पालकी मौजूद थी उन्हें सवार किया। और एक मौलवी दहने एक बाएं हुआ। और अदब से पालकी के साथ दौड़ते थे। और जब वो जामा मस्जिद में नमाज़-ए-जुमा के लिए आते, तो मस्जिद के दरवाज़ा पर एक जूती उनकी मौलवी इस्माईल, और दूसरी जूती मौलवी अब्दुल हइ अदब से उठा लेते। और दस्त-बस्ता (हाथ बांध कर) पीछे खड़े रहते थे। लोग हैरान थे कि ये क्या मुआमला है, कि ऐसे बड़े-बड़े मौलवी इस शख़्स की पाए ख़ाक (पांव की ख़ाक) हो गए हैं। ये कौन साहब हैं। तब ये दोनों मौलवी कहते थे, कि हज़रत सय्यद अहमद साहब बड़े वली अल्लाह हैं। ये हज़रत मुहम्मद साहब के मुशाबेह पैदा हुए हैं।

ख़ुदा ने उनको भेजा कि सल्तनत इस्लामीया को क़ायम करें और दीन-ए-इस्लाम को रौनक दें। और ख़ुदा ने उनसे हम-कलाम हो के बड़ी फ़त्हमंदी के वाअदे फ़रमाए हैं। अब ये हज़रत इमाम हो के जिहाद (दीन की हिमायत के लिए हथियार उठाना) करेंगे। और काफ़िरों को मार के हिन्दुस्तान से निकाल देंगे। तमाम मुसलमानों को चाहिए, कि अपनी जान से और माल से उनकी मदद करें। और उनके साथ हो के जिहाद में जाना ऐसा समझें जैसे रसूल-अल्लाह के साथ गए। देखो किताब सिरात-उल-मुस्तक़ीम तस्नीफ़ मौलवी इस्माईल, जो इन्हीं अय्याम में जल्द लिखी गई। दीबाचे में लिखा है कि जनाब सय्यद अहमद का नफ़्स आली-जनाब रिसालत माआब के साथ कमाल मुशाबहत पर बद्दू फ़ित्रत में पैदा किया गया है। और ख़ातिमा में लिखा है कि हज़रत नबी साहब को सय्यद साहब ने ख्व़ाब में देखा और नबी साहब ने अपने हाथ से उनको ख़रमे (खजूर की शक्ल की मिठाई) खिलाइ। फिर किसी रोज़ हज़रत अली और हज़रत फ़ातिमा भी ख्व़ाब में उनसे मिलने को आईं। अली ने बदस्त ख़ुद उनको ग़ुस्ल दिया और फ़ातिमा ने बदस्त ख़ुद उनको उम्दा पोशाक (लिबास) पहनाई। फिर एक रोज़ ख्व़ाब में उनसे ख़ुदा तआला ने मुलाक़ात की। और अपनी क़ुद्रत के हाथ से उन को पकड़ लिया। और पाक चीज़ें उनके सामने रख के कहा कि ये चीज़ें मैंने तुझे दीं और आइन्दा को और चीज़ें भी तुझे दूंगा। ग़र्ज़ सय्यद साहब को पीर बना के ले उड़े। और तमाम हिन्दुस्तान में पालकी ले के फिर गए। और जाबजा वाज़ कर के मुल्क के मुसलमानों को अपनी तरफ़ खींच लिया। बेशुमार रुपया जमा किया और जा-ब-जा हंडवी भेज के महाजनों (ख़ज़ानची) में जमा कराया। और हज़ार हज़ार जाहिल नमाज़ी मुसलमान जिहाद के लिए तैयार कर के कुछ आगे भेज दिए कुछ हमराह लिए। और शहर शहर सय्यद साहब के ख़लीफ़े बिठाए ता कि रुपया और आदमी भी पीछे रवा ना रहें।

जब अंग्रेज़ों ने पूछा कि ये क्या मुआमला है? तो कहा कि हम आप लोगों से नहीं पंजाब के सिखों से जिहाद करेंगे। वो वक़्त ऐसा था कि अंग्रेज़ भी मस्लिहतन चुप कर गए। और ये हज़रत फ़ौज बना के बराए सिंध स्वात बूनेर तक पहुंचे ताकि इस तरफ़ से सिखों पर हमला हो।… उम्मीद थी कि अफ़्ग़ान भी साथ हो जाऐंगे और जब मुल़्क पंजाब सिखों से ख़ाली करा लेंगे। तब अंग्रेज़ों को समझ लेंगे। और यूं सल्तनत इस्लामीया क़ायम हो जाएगी। मौलवी अब्दुल हई कोइटा की राह में बा-रज़ा तप-ए-लरज़ा इंतिक़ाल कर गए। और इस्माईल व सय्यद अहमद वहां पहुंचे। कई दिन फ़ौज ले के कुछ लड़े। आख़िरकार बाअज़ पठानों की मदद से सिखों ने रात को ऐसा उन पर छापा मारा कि सबको क़त्ल किया। मौलवी इस्माईल वहां मारे गए। और सारे मोमिनीन मुजाहिदीन क़त्ल हुए सय्यद अहमद साहब की टांग में गोली लगी थी। और वो मैदान में बैठ गए थे। इसी जगह मर गए कोई कहता है कि एक पठान उनको अपने घर उठा ले गया था। वहां जा के मर गए। कोई आदमी भाग के बमुशकिल वापिस आया था। और ये वाक़िया 1827 ई॰ में वाक़ेअ हुआ था। (देखो किताब मौलवी ग़ुलाम हुसैन होशियार पूरी व अनवर आरिफीन तस्नीफ़ मुहम्मद हुसैन मुराद आबादी)

जब तक इस पुश्त के लोग ना मरे उनको यही ख़याल रहा कि सय्यद साहब पहाड़ों में पोशीदा (छुपे) हैं। किसी वक़्त निकलेंगे। इस मन्सूबा इस्माईल का नतीजा क्या निकला? ये कि इन्सानी चालाकी थी रसूली मुशाबहत और वो सब ख्व़ाब बातिल (झूटे) थे। सब दोड़ धुप बर्बाद हुई। आप भी मारे गए। और सदहा जाहिल नमाज़ी अतराफ़ पूरब (मशरिक़) के मोमिनीन क़त्ल करवा दिए। उनकी औरतें रांड (बेवा) हुईं बच्चे यतीम हो के मुहताज हुए। ख़ाना-ख़राबियाँ हो गईं बादशाही हाथ ना आई। हाँ इस्लाम की इस क़द्र मुरम्मत हुई कि ग़ैर-मुक़ल्लिद फ़िर्क़ा उनके वाज़ों से और उनकी किताब, तक़वियत-उल-ईमान वग़ैरह से पैदा हो गया।

अब मिर्ज़ा क़ादियानी साहब का वही तौर (तरीक़ा) नज़र आता है वो ख़ुद मुसलमानों को सिखाते हैं। (फ़त्ह इस्लाम सफ़ा 8, 71) कि रस्मी उलूम और क़ुरआन व अहादीस के तर्जुमों की इशाअत से इस्लाम की मुरम्मत नहीं हो सकती। आस्मानी सिलसिले की तरफ़ देखना चाहिए। मतलब मैं आस्मान की तरफ़ से नबी और मसीह मुक़र्रर हो के आया हूँ। मेरी इताअत (ताबादारी) से मुरम्मत इस्लाम होगी ना तुम्हारे रिवाजी दस्तुरात से। और अपनी बेशुमार तारीफ़ें आप अपने मुँह से करते हैं कि मैं बड़ा कामिल (मुकम्मल) शख़्स हूँ। और जैसे सय्यद अहमद ग़ाज़ी को दो मौलवी उड़ाने वाले मिल गए थे। इनको भी हकीम नूर उद्दीन और ग़ुलाम क़ादिर फ़सीह साहब और मौलवी मुहम्मद अह्सन साहब मिल गए हैं। इनका अंजाम उनसे ज़्यादा ख़तरनाक होगा। सुन्नी मुसलमानों ने जो मिर्ज़ा को रद्द किया दानिशमंदी से अपने मज़्हब के मुवाफ़िक़ काम किया है। और मुहम्मद हुसैन बटालवी तहसीन (तारीफ़) के लायक़ हैं। और वो जो मिर्ज़ा साहब की सलाह (मश्वरा) में शरीक हैं अपने मज़्हब के और अक़्ल सलीम (पूरी अक़्ल) के ख़िलाफ़ काम करते हैं।

तीसरा अहमद : सय्यद अहमद ख़ान साहिब-ए-बालकाबह हैं। उन्होंने सबसे ज़्यादा इस्लाम का तजदद किया। इस्लाम क़दीम को काठ की हंडिया (झूट और दग़ा बाज़ी) बता के छोड़ दिया। और क़ुरआन व हदीस को नेचरीयत के पैराये में ला के इस़्पात (फ़ौलाद की हंडिया) बनाया। और क़ुरआन की तफ़्सीर नेचरी लिखी। मुहम्मद साहब ने अपने इस्लाम का रुख अम्बिया-ए-बनी-इस्राईल की तरफ़ कुछ-कुछ रखा था। सय्यद साहब ने इधर से बमुश्किल खींचा, और फ़िलोसफ़ी की तरफ़ कर दिया। इस के सिवा और कुछ नहीं किया। लेकिन ये इमारत जो उन्होंने उठाई है तालिब-ए-हक़ के दिल में कुछ तसल्ली तो पैदा नहीं कर सकती। और ना कुछ पायदार (मज़्बूत) है। बल्कि बहुत जल्द गिर जाएगी। क्योंकि अल्फ़ाज़ क़ुरआन से उनके मज़ामीन मुख़्तरा (बानी, ईजाद करने वाला) को कुछ इलाक़ा (ताल्लुक़) नहीं है। उनके बयान उनकी तफ़्सीर में मर्क़ूम (लिखा हुआ) पड़े रहेंगे। और अल्फ़ाज़ व इबारात क़ुरआन अपने मअनी व मज़ामीन लाज़िमा को हरगिज़ ना छोड़ेंगे। और वो जो मुहक़्क़िक़ (तहक़ीक़ करने वाला) पैदा होंगे। हमेशा अहले-ज़बान से मअनी दर्याफ़्त करेंगे। सबसे बड़ी अक़्ली तफ़्सीर (अक़्ल से तश्रीह करना) क़ुरआन की इमाम फ़ख़्रउद्दीन राज़ी[1] ने लिखी है। जहां से सय्यद साहब ने बहुत कुछ लिया। तो भी फ़ख़्र-उद्दीन साहब के मज़ामीन अक़लीया मुसलमानों के ईमान में शामिल ना हुए बल्कि जलाल उद्दीन सियूती ने इस के तफ़्सीर को चंद सतरों में ज़लील कर दिखलाया, और लिखा है।

इमाम फ़ख़्रउद्दीन ने अपनी तफ़्सीर को अक़वाल-ए-हुकमा और फ़लासफ़ा वग़ैरह से भर दिया है। और एक से दूसरी बात की तरफ़ निकल गया। यहां तक कि नाज़िर (देखने वाला) को मौरिद आयत के साथ अदम मुताबिक़त (मुवाफ़िक़ ना होना) से ताज्जुब (हैरानगी) होता है। अबू हयान ने कहा कि राज़ी ने अपनी तफ़्सीर में नहवी बातें (गराइमरी बातें) जिनकी इल्म तफ़्सीर में हाजत (ज़रूरत) नहीं। बकस्रत लंबी चौड़ी भरी हैं। इसी वास्ते बाअज़ उलमा ने कहा, कि इस की तफ़्सीर में सब कुछ है, लेकिन क़ुरआन के मअनी नहीं।

इस बिद्अती का और कुछ इरादा नहीं है। मगर ये कि आयतों को तहरीफ़ (रद्दो-बदल) करे। और अपने फ़ासिद (बेकार) मज़्हब के बराबर बनाए। इस तरह से कि जब उस को कोई दूर से दौड़ता हुआ वहम (गुमान, शक) नज़र आ गया। तो उसी के दरपे हो लेता है। या कोई ऐसी जगह मिल जाये जहां ज़रा खड़ा हो सके, तो उधर दौड़ पड़ता है। यही हाल इन सब नेचरियों का है। आप क़ुरआन के ताबे नहीं होते। मगर क़ुरआन को अपने ताबे करते हैं और अपने ज़हन में कुछ मज़्हब कहीं से ला के क़ायम कर लिया है। इस के मुवाफ़िक़ क़ुरआन को बनाते चले जाते हैं। फ़िल-हक़ीक़त तफ़्सीर नेचरी इन्हीं दो-चार लफ़्ज़ों से गिर जाती है, कि वो क़ुरआन की असली वज़ाअ के खिलाफ है।

चौथा अहमद : मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद हैं। वो अहमद सोइम का मज़्हब रखते हैं। और अहमद दुवम की रविश (तरीक़ा) पर चलते हैं। और क़ुरआन व हदीस को ना बसिम्त अम्बिया, और ना बसिम्त फ़िलासफ़ा मगर बसिम्त दरिया-ए-ख़बत खींच रहे हैं। और अहमद चहारुम रहना नहीं चाहते। अहमद अव़्वल बनने का इश्तियाक़ (शौक़) है। इसी लिए क़ुरआन में हाथ डाला। और अस्मा अहमद वहां से अपने लिए निकाला। जो साबिक़ के किसी अहमद को ना सूझी थी। अभी क्या कोई दिन में अहमद बिला मीम अपना नाम रखेंगे। क्योंकि सूफ़ी भी हैं। और अभी देख लो वो कहते हैं, कि ख़ुदा ने मुझसे कहा ऐ मिर्ज़ा तू मुझसे है। और मैं तुझसे हूँ। गोया मिर्ज़ा ख़ुदा से पैदा हुए और ख़ुदा मिर्ज़ा से पैदा हुआ है। अगर कुछ और मतलब हो तो उनके ज़हन में होगा इबारत का मतलब यही है।

और अगर ये दो मअनी कलाम है तो ऐसी दो मअनी कलाम बोलना जिसके एक मअनी से ख़ुदा की तहक़ीर (कमतर समझना) हो बेईमान आदमी का काम है।

लेकिन अगर ख़ुदा की तरफ़ से है

ग़मलीएल फ़रीसी एक मुअज़्ज़िज़ मुअल्लिम शरीअत की उम्दा व मस्लिहत आमेज़ सलाह (अच्छा मश्वरा, मुनासिब तज्वीज़) जो उसने क़ौमी ख़ैर ख़्वाही व हम्दर्दी के जोश में अपने अकाबिर (अकबर की जमा, बड़े लोगों) क़ौम को दी। आयात-ए-मज़्कूर बाला की बातें अठारह सौ बरस से कैसा साफ़ सबूत दिखा रही हैं।

But if it is from God

लेकिन अगर ख़ुदा की तरफ़ से है

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan December 10, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 10 दिसंबर 1891 ई॰

“क्योंकि ये तदबीर या काम अगर आदमीयों की तरफ़ से है तो आप बर्बाद हो जाएगा। लेकिन अगर ख़ुदा की तरफ़ से है तो तुम इन लोगों को मग़्लूब ना कर सकोगे।” (आमाल 5:38-39)

ग़मलीएल फ़रीसी एक मुअज़्ज़िज़ मुअल्लिम शरीअत की उम्दा व मस्लिहत आमेज़ सलाह (अच्छा मश्वरा, मुनासिब तज्वीज़) जो उसने क़ौमी ख़ैर ख़्वाही व हम्दर्दी के जोश में अपने अकाबिर (अकबर की जमा, बड़े लोगों) क़ौम को दी। आयात-ए-मज़्कूर बाला की बातें अठारह सौ बरस से कैसा साफ़ सबूत दिखा रही हैं। और मुवाफ़िक़ व मुख़ालिफ़ (मुताबिक़ व बरअक्स) तूअन व करहान उनकी सदाक़त (सच्चाई) के मुकर (इक़रार करने वाले) हैं। जो लोग इल्म तवारीख़ के माहिर हैं जानते हैं, कि रसूलों के ज़माने से आज तक इस तदबीर या काम मसीहिय्यत को ज़ाए करने वाले और ख़ुदा से लड़ने वाले कैसे कैसे ज़बरदस्त लोग दुनिया में हुए और अब तक हैं। मगर फ़त्हमंद व कामयाब ना हुए और ना होंगे।

ग़मलीएल उस वक़्त तक ना जानता था, कि वो नासरी जिसने ऐसा बड़ा दावा किया कि “राह हक़ और ज़िंदगी मैं हूँ” वो ही है जो इस्राईल का मख़लिसी व नजात देने वाला ख़ुदावन्द है। और उसी के नाम की मुनादी ये गलीली लोग करते हैं। जो क़ौम के नज़्दीक वाजिब-उल-क़त्ल (क़त्ल करने के क़ाबिल) ठहरे हैं। मसीहिय्यत को वो “तदबीर या काम” समझा हुआ था। जो ख़्वाह इंसान या ख़ुदा की तरफ़ से हो। उसने उस का फ़ैसला तजुर्बे पर छोड़ा। और उस वक़्त अपनी क़ौम को रसूलों के क़त्ल कर डालने से बाज़ रखा। अगरचे उस वक़्त उन्हें धमका के और कोड़े मार के छोड़ दिया। और हुक्म मुहकम (मज़्बूत हुक्म) दिया, कि येसू के नाम पर बात ना करें। लेकिन थोड़े ही अर्से में यहूदीयों की आतिश-ए-ग़ज़ब (ग़ुस्सा की आग) फिर मुश्तअल (भड़की) हुई। और स्तिफ़नुस को संगसार (पत्थर मार मार कर हलाक करना) कर के यरूशलेम की कलीसिया पर जो इब्तिदाई हालत में बहुत क़लील (कम) और कमज़ोर थी, बड़ा ज़ुल्म किया, मसीहियों को सताया, क़ैद और क़त्ल किया, और मसीहिय्यत के नेस्त व नाबूद (तबाह व बर्बाद) करने के लिए मक़्दूर (ताक़त) भर ज़ोर मारा। मगर आख़िर को थक कर बैठ गए। और अपने दिलों में क़ाइल (तस्लीम करने वाले) हुए कि हम इस “तदबीर या काम” को ज़ाए नहीं कर सकते। रोमी शहंशाहों और हुक्काम ने मुसम्मम (पक्का) इरादा किया। कि इस मसीह मुख़ालिफ़-ए-क़ैसर, और इस के रोज़-अफ़्ज़ूँ पैरओं (पीछे चलने वालों) को जो हमारे देवताओं के आगे सर-बजूद (सर झुकाना) नहीं होते। सफ़ा हस्ती से मिटा दें, उन्होंने मसीहियों को मारा, जलाया, दरिंदों से फड़वाया, और बिल-आख़िर हैरान हो के कहा कि “मुल़्क ईसाईयों से भर गया। कहाँ से इतनी तलवारें आएं जो इनको क़त्ल किया जाये” यूनानियों ने अपने इल्म व हिक्मत के आगे मसीहिय्यत को हक़ीर (बेक़द्र, छोटा) जाना। और उसे ठट्ठों (मज़ाक़) में उड़ाया। मुबश्शिरों को बकवासी और बेवक़ूफ़ समझा। और आख़िर को मसीह मस्लूब के आगे सर झुकाया। छः सौ बरस बाद कुतब-ए-मुक़द्दसा की पेशीन गोइयों के मुताबिक़ मुल्क-ए-अरब से एक धुआँ-धार मुख़ालिफ़त ने सर उठाया। ईबतदन (शुरू में) तो मसीह और मसीहियों की बड़ी तारीफ़ व तौसीफ़ (ख़ूबी) का इज़्हार किया। मसीह को रूह-मिन्हू (अल्लाह कि तरफ से रूह) और कलमा (अल्लाह का कलमा) और आयत-उल-आलमीन (तमाम आलम के लिए निशान) वग़ैरह आला ख़िताब दीए। और मसीहियों को अहले मुवद्दत (मुहब्बत लायक़) यहूदीयों से ज़्यादा नर्म-दिल। मुश्रिकों (बुत परस्तों) की दोस्ती पर भरोसा ना रखने वाले। आलिम और सच्चे। आबिद (इबादत करने वाला) सोमा नशीन (राहिब) तकब्बुर (ग़ुरूर) ना करने वाले। हक़ को मानने वाले वग़ैरह बताया। और फिर दोस्त नुमा दुश्मन बन कर उनकी और उनके दीन की बेख़कुनी (नेस्त व नाबूद कर देना) की। ख़लीफ़ा सानी ने तो ग़ज़ब (अज़ाब) ही ढाया। बेशुमार मसीही मर्दों और औरतों को तह-ए-तेग़ (तल्वार से क़त्ल करना) बे दरेग़ किया हज़ार-हा गिरजा मिस्मार (गिरा देना) कर डाले। और बेशक़ीमत कुतब ख़ानों को जला कर राख कर दिया। ये तूफान-ए-बेतमीज़ी उस वक़्त से शुरू हो कर आज तक मसीहिय्यत की बर्बादी व बेख़कुनी पर हर वक़्त उमड़ा (तैयार) रहता। और फ़ी ज़माना इस के साथ तल्ख़ अदावत (सख़्त दुश्मनी) व मुख़ालिफ़त में ग़ैर-अक़्वाम ख़्वाह मवह्हिद (पक्का मुसलमान) हों। या बुत-परस्त व मुल्हिद (काफ़िर) हों सब एक हो जाते। और मुत्तफ़िक़ (इकट्ठे) हो कर हमला करते हैं। लेकिन मटर के छर्रे जबराल्टर के क़िले की मुस्तहकम व मज़्बूत दीवारों पर क्या असर पहुंचा सकते हैं। बावजूद इन सख़्त मुख़ालफ़तों और मजनूनाना हमलों के, मसीहिय्यत की रोज़-अफ़्ज़ूँ (रोज़ाना) तरक़्क़ी, मुल्क-ए-हिंद और दीगर ममालिक में देखकर हमें ग़मलीएल की दाना सलाह (दानिशमंद मश्वरा) की बातें इस वक़्त याद आती हैं। और तजुर्बा हमें सिखा और बता रहा है कि “अगर ये तदबीर या काम इंसान से होता तो कभी का ज़ाए हो जाता। मगर चूँकि ये ख़ुदा से है। कोई इंसानी मुख़ालिफ़ कोशिश और जद्दो जहद इस को ज़ाए ना कर सकी। और ना कर सकेगी।” और जो लोग इस की मुख़ालिफ़त में कोशां (कोशिश में) हैं ख़ुदा से लड़ते हैं जिसका नतीजा उन्हीं की शिकस्त-ए-फ़ाश ज़हूर (ज़ाहिर होना) में आएगा।

इसी तरह जब तुम इन सब बातों को देखो

ये सब देखो” यानी मसीह के आने की अलामतें। मिन-जुम्ला जिनके ये कि झूटे मसीह और झूटे नबी उठेंगे। और ऐसे बड़े निशान और करामातें (अनोखापन) दिखाएँगे, कि अगर हो सकता तो बर्गज़ीदों (ख़ुदा के चुने हुए) को भी गुमराह करते।” हम आजकल अपने ही मुल्क में कैसा साफ़ देख रहे हैं। कि कोई मह्दी अपने को ज़ाहिर करता। तो कोई अपने को मसील-ए-मसीह ठहराता है।

The Reply to the Objection from Mulwai Gulam Nabi

इसी तरह जब तुम इन सब बातों को देखो

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan December 3, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 3 दिसंबर 1891 ई॰

इसी तरह जब तुम इन सब बातों को देखो तो जान लो कि वो नज़्दीक बल्कि दरवाज़े पर है। (मत्ती 24:33)

“ये सब देखो” यानी मसीह के आने की अलामतें। मिन-जुम्ला जिनके ये कि झूटे मसीह और झूटे नबी उठेंगे। और ऐसे बड़े निशान और करामातें (अनोखापन) दिखाएँगे, कि अगर हो सकता तो बर्गज़ीदों (ख़ुदा के चुने हुए) को भी गुमराह करते।” हम आजकल अपने ही मुल्क में कैसा साफ़ देख रहे हैं। कि कोई मह्दी अपने को ज़ाहिर करता। तो कोई अपने को मसील-ए-मसीह ठहराता है। और कितने हैं जो उनके मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) व मुरीद (एतिक़ाद रखने वाला व चेला) हो कर बदल व जान उनकी इलाही रिसालत (ख़ुदा की तरफ़ से रसूल होना) को यक़ीन किए हुए हैं। सच्च है नफ़्स-उल-अम्र (हक़ीक़त) में किसी को कुछ इख़्तियार नहीं। इसी लिए कलाम-उल्लाह की पेशीन गोईयाँ हमारी हिदायत के लिए लिखी गई हैं, कि किसी झूटे मसीह या झूटे नबी को अपना मसीह हरगिज़ ना मानें। लेकिन जिनके पास पैशन गोइयों का ये बे-बहा ख़ज़ाना नहीं। वो बाआसानी हर किसी मुद्दई मसीहाई (मसीह होने का दावा करने वाला) के दामे अक़ीदत में फंस जाते हैं। जैसा कि हमारे मुअज़्ज़िज़ मिर्ज़ा मवह्हिद साहब। मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद साहब क़ादियानी के दावे मुमासिलते मसीहा (मसीह की मानिंद होना) पर मिटे हुए हैं। और उन्हें जो उनके खिलाफ-ए-अक़ीदा हैं। और क़ादियानी साहब की मसीहाई को तस्लीम (मानना) नहीं करते। सलवातें (बुरा भला कहना) सुनाते। और जो चाहते हैं वज़ीर हिंद में उनकी निस्बत बुरा भला लिखते हैं। चुनान्चे वज़ीर-ए-हिंद मत्बूआ 15 नवम्बर में एक लीडर आपने बउनवान “मसीह-उल-ज़मान” शेअर हज़ा के साथ शुरू किया है :-

“तुझ सा कोई ज़माने में माजिज़यां नहीं। आगे तेरे मसीह के मुँह में ज़बान नहीं।”

फिर आपने उनके मुबाहिसा दिल्ली का ज़िक्र कर के, दिल्ली वाले एक दूसरे मुद्दई मसीहाई की तर्दीद फ़रमाई है। और क़ादियानी साहब के बड़े गुन गा के। हमारे हाल पर मेहरबानी फ़रमाई। और लिखा है कि “मगर वो लोग ख़ुसूसुन ऐडीटर नूर अफ्शां कि जो आँहज़रत के सामने तो तिफ़ल-ए-मक्तब (तालिबे इल्म, ना तजुर्बेकार शख़्स) की तरह बैठा हुआ चुपका मुँह तकता रहता है।

और मिशन में जा कर जो जी में आता है धर घसीटता है। अला हज़ा (इसी तरह) आजकल अक्सर अख़बारात में मसीह-उल-ज़मान के ख़िलाफ़ वाक़ियात लोगों ने लिखने शुरू किए हैं। जिनको हम पढ़ कर ताज्जुब (हैरत) की निगाह से देखते हैं। हालाँकि इन लोगों को मसीह-उल-ज़मान की ख़ूबीयों और कमालात के देखने का कभी मौक़ा ख्व़ाब व ख़याल में भी नहीं मिला। वो घर बैठे उनके ख़िलाफ़ तब्अ-आज़माई (ज़हानत इम्तिहान) कर रहे हैं।” पस इस के जवाब में सिर्फ इतना लिखना मुनासिब जानते हैं, कि हम सिर्फ एक मर्तबा मए लाला उम्राओ सिंह साहब सैक्रेटरी आर्या समाज लूदियाना और दो एक मुअज़्ज़िज़ अहले शहर के उनसे मिलने के लिए (जब कि वो लूदियाना में मुक़ीम थे) गए और जैसा आप फ़र्माते हैं तिफ़्ल-ए-मक्तब (तालिबे इल्म) की तरह बैठे हुए चुपके मुँह तकते रहने के लिए नहीं लेकिन सिर्फ ये दर्याफ़्त करने को, कि आप जो खिलाफ-ए-अक़ीदा आम इस्लाम। मसीह की वफ़ात के क़ाइल (तस्लीम करने वाले) हैं।

मेहरबानी कर के ये भी बता सकते हैं कि इस की सूरत व तरह वफ़ात क्या थी। और जो जो अब आपने दिया हमने उसी हफ्ते के नूर अफ़्शां में शाएअ कर दिया। दूसरा सवाल बाइबल मुक़द्दस की अस्लियत व तहरीफ़ (बदल देना) के बारे में था। जिनके जवाब में मिर्ज़ा साहब ने फ़रमाया कि ये एक तवील (लंबी) और बहस-तलब बात है। जिसकी निस्बत हालते मौजूदह में वो कुछ भी ना बोले। और एक मर्तबा हस्ब-उत-तलब। इस बेफ़ाइदा मुबाहिसे में मिर्ज़ा साहब को देखा। जो लूदियाना में मौलवी मुहम्मद हसन साहब के मकान पर मौलवी मुहम्मद हुसैन साहब बटालवी के साथ हुआ था। वहां किसी तीसरे शख़्स के बोलने की ज़रूरत ना थी। मवह्हिद साहब को यूं तो इख़्तियार है कि वो क़ादियानी साहब को मसीह-उल-ज़मान किया बल्कि जिनके रूबरूं (बक़ौल उनके) मसीह भी बेज़बान है समझें। लेकिन मुनासिब नहीं कि वो औरों को, जो उनके ऐसे मुहमल इल्हाम (बेमाअनी इल्हाम) और मसील-ए-मसीह (मसीह की मानिंद) होने के दावे को क़ुबूल ना करें, बुरा भला कहें।

ख़ुदावन्द मसीह, जिसके मसीही मुंतज़िर (इंतिज़ार करने वाले) हैं। जब फिर दुनिया में तशरीफ़ लाएगा। तो उस को मौलवियों और पंडितों के साथ मुबाहिसा (बह्स) करने। किताबें छपवा के फ़रोख़्त करने। और इश्तिहारात जारी करने की कुछ ज़रूरत ना होगी क्योंकि जैसे बिजली पूरब (मशरिक़) से कौंद के पक्षिम (मग़रिब) तक चमकती वैसा ही इब्ने-आदम का आना भी होगा।” पस मवह्हिद साहब हमसे नाराज़ ना हों। क्योंकि हम मसीही लोग किसी मसील के मुंतज़िर नहीं। बल्कि मसीह ही के मुंतज़िर हैं। जिसके लिए ब-वक़्त सऊद (आस्मान पर वक़्त) फ़रिश्तों ने रसूलों से कहा कि “ऐ गलीली मर्दो। तुम क्यों खड़े आस्मान की तरफ़ देखते हो। यही येसू जो तुम्हारे पास से आस्मान पर उठाया गया इसी तरह जिस तरह तुमने उसे आस्मान को जाते देखा फिर आएगा। (आमाल 1:11) यही वजह है कि मसीहियों ने क़ादियानी साहब के दाअवों और इल्हामों पर मुतलक़ (बिल्कुल) तवज्जोह ना की। और है भी यूं, कि क़ादियानी साहब मुहम्मदियों ही के सामने अपनी मसीहाई को पेश कर रहे हैं। और उनका रक़ीब (हमपेशा, मुक़ाबला करने वाला) भी जो दिल्ली में खड़ा हुआ वो मुहम्मदियों में से है मसीहियों को ऐसी बेसूद बातों से कुछ सरोकार (मतलब) नहीं। मवह्हिद साहब नाहक़ हम पर अपनी ख़फ़गी (नाराज़गी) ज़ाहिर करते हैं।

वोह अपने आपको दाना जता कर बेवक़ूफ़ बन गए

वोह अपने आपको दाना जता कर बेवक़ूफ़ बन गए। (रोमीयों 1 बाब 22 आयत) पौलुस रसूल ने शहर रोम के मसीहियों को ख़त लिखते वक़्त ये फिक़रा उस वक़्त के उलमा और फुज़ला और यूनानी उस्तादों के हक़ में लिखा। जो ख़ुदा के कलाम की निस्बत अपने इल्म व हिक्मत की रु से मुख़ालिफ़त ज़ाहिर करते थे।

Although they claimed to be wise, they became fools.

वोह अपने आपको दाना जता कर बेवक़ूफ़ बन गए

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan November 12, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 12 नवम्बर 1891 ई॰

वोह अपने आपको दाना जता कर बेवक़ूफ़ बन गए। (रोमीयों 1 बाब 22 आयत) पौलुस रसूल ने शहर रोम के मसीहियों को ख़त लिखते वक़्त ये फिक़रा उस वक़्त के उलमा और फुज़ला और यूनानी उस्तादों के हक़ में लिखा। जो ख़ुदा के कलाम की निस्बत अपने इल्म व हिक्मत की रु से मुख़ालिफ़त ज़ाहिर करते थे। और ज़िद और तास्सुब (मज़्हब की बेजा हिमायत, तरफ़-दारी) से अंधे हो कर मसीहियों को सताते और तक्लीफ़ पर तक्लीफ़ देते थे। उनके दाना (अक़्लमंद) और हकीम (होशियार, तबीब) और साहिब-ए-इल्म होने पर रसूल ने कुछ एतराज़ नहीं किया। अगरचे पौलुस ख़ुद एक बड़ा आलिम व फ़ाज़िल (बहुत पढ़ा लिखा व दाना) था। और अगर कोई बात इल्म व अक़्ल की बाबत क़ाबिले गिरफ्त थी। (एतराज़ के लायक़) होती तो वह ज़रूर उस का नोटिस ले सकता था। उसने उनके दुनियावी इल्म की निस्बत उनको नादान (बेवक़ूफ़) नहीं कहा। बल्कि उस को इस “जहां की हिक्मत” कहा। (1 कुरिन्थियों 3 बाब 19 आयत) मगर दीनी इल्म व समझ की बाबत उनको साफ़ कहा कि वो नादान (नासमझ, बेवक़ूफ़) हो गए। गुनेहगार इंसान के बचाने और उस की नजात के बारे में कोई तज्वीज़ (राय, सलाह) किसी आलिम ने जो दुनियावी इल्म में कैसा ही माहिर (तजुर्बेकार) क्यों ना हो। और इल्म-ए-फ़ल्सफ़ा और दानाई से पुर हो अब तक नहीं निकाली। और कोई तदबीर (तज्वीज़, सोच बिचार) हिक्मत इंसान से बन ना पड़ी बल्कि वो सब दानाई सरासर (तमाम) बेवक़ूफ़ी ठहरी। क्योंकि इन्सान के गुनाह माफ़ कराने और दोज़ख़ की सज़ा से रिहाई दिलाने और पाक व साफ़ बनाने में आलिमों का तमाम इल्म व दानाई और कुल तदबीरें नाक़िस (ख़राब) और रद्दी बल्कि मह्ज़ बेवक़ूफ़ी ठहरीं। जिस तरह उस वक़्त के आलिम व फ़ाज़िल लोगों का ये हाल था।

इस तरह हर ज़माने में ऐसा ही रहा है। चुनान्चे आजकल भी ऐसा ही देखने में आता है। बड़े-बड़े आलिम व फ़ाज़िल लोग अपने इल्म व अक़्ल के दीवाने हो कर मसीह और मसीही दीन की मुख़ालिफ़त में ज़बान खोलते और बुरा भला कहते और लिखते हैं। वो अपनी अक़्ल पर तकिया (भरोसा) कर के ख़ुदा की क़ु्दरत के मुन्किर (इन्कार करने वाले) बन जाते। और रफ़्ता-रफ़्ता हक़ से दूर जा पड़ते हैं और दाना हो कर नादान बनते हैं। आजकल मुहम्मदी अख़बारात मुक़ाम लोर पोल में एक पादरी साहब के मुसलमान हो जाने का ज़िक्र बड़े फ़ख़्र के साथ दर्ज करते हैं। उस को दीने मुहम्मदी की सदाक़त (सच्चाई) तसव्वुर करते हैं। अगरचे इस ख़बर की सेहत में तो क़फ़ (देर, वक़्फ़ा) और कलाम (एतराज़) है। लेकिन ताज्जुब (हैरत) नहीं कि ये दुरुस्त ही हो। अगर किसी पादरी या बिशप साहब ने ऐसा किया भी हो तो उस ने बुरा किया। और हमको उस के हाल पर अफ़्सोस आता है कि वो रुहानी नेअमतों का मज़ा चख के गिर गया। उसने शायद इस दुनिया की हिक्मत को जिसको ख़ुदा बेवक़ूफ़ी ठहराता है पसंद किया या जिस्मानी और नफ़्सानी ख़यालात में मुब्तला हो कर उनका मग़्लूब (हारा हुआ, ज़ेर) हो गया। हम साफ़ कह सकते हैं कि उसने इस जहान की बेशक़ीमत और हमेशा तक रहने वाली बरकतों को इस दुनिया-ए-दून (दुनिया की ख़्वाहिश) के एवज़ (बदले) में बेच डाला जिसका अंजाम आख़िर को पछताना और अफ़्सोस करना होगा। और ज़्यादातर अफ़्सोस उन साहिबान पर आता है कि जो ऐसे लोगों पर नाज़ाँ (फ़ख़्र वाले) होते हैं।

कहाँ मर्द ख़ुदा मूसा ख़ुदा सा कहाँ उम्मी मुहम्मद मुस्तफ़ा सा

हमारे ख़यालात के सिलसिले की पहली जुंबिश (हरकत, गर्दिश) से बख़ूबी साबित हो चुका, कि मुहम्मदियों का रसूल मुहम्मद किसी नहज (रोशन और कुशादा) रास्ते पर वो नबी नहीं हो सकता जो कि मूसा की मानिंद है। और इसी के ज़िमन (ताल्लुक़) में ख़ातिमा पर हकीम नूर उद्दीन भैरवी के वहम (शक) का इज़ाला

Prophet Moses And illiterate Prophet Mohammad

कहाँ मर्द ख़ुदा मूसा ख़ुदा सा कहाँ उम्मी मुहम्मद मुस्तफ़ा सा

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Kedarnath
केदारनाथ

Published in Nur-i-Afshan Sep 6, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 6 सितंबर 1895 ई॰

हमारे ख़यालात के सिलसिले की पहली जुंबिश (हरकत, गर्दिश) से बख़ूबी साबित हो चुका, कि मुहम्मदियों का रसूल मुहम्मद किसी नहज (रोशन और कुशादा) रास्ते पर वो नबी नहीं हो सकता जो कि मूसा की मानिंद है। और इसी के ज़िमन (ताल्लुक़) में ख़ातिमा पर हकीम नूर उद्दीन भैरवी के वहम (शक) का इज़ाला (मिटाना, दूर करना) भी कर दिया गया। कि आइंदा ऐसी फ़ाश (सरीह, ज़ाहिर) ग़लती ना करें। अब इरादा था कि ख़ुदावन्द येसू मसीह की निस्बत जो कुछ ख़ुदा ही के कलाम से वाज़ेह होता है। नाज़रीन के मुलाहिज़ा के वास्ते पेश किया जाये। मगर फिर ख़याल आया कि मुहम्मदियों के इमाम साहब सय्यद अबू अल-मंसूर ने बज़अमे-ख़ुद अपनी किताब नवेद जावेद के सफ़ा 458 पर चंद मुशाबहतें मूसा और मुहम्मद में मिला कर दिखलाई हैं। और गो कि मुहम्मदियों का ऐसा गुस्ताख़ी के साथ मूसा का मुक़ाबला करना कोई अजीब बात नहीं जब कि वो लोग ख़ुदा के साथ अपने कलिमा में मुहम्मद को मिलाते हुए नहीं डरते। पर तो भी बाअज़ कम फ़ह्म (कम-अक़्ल) मुहम्मदियों को इन के दाम फ़रेब और रोग़न क़ाज़ (चिकनी चुपड़ी बातों से) मिलने से बचाया जाये मुनासिब मालूम हुआ कि इमाम मज़्कूर के ख़यालात फ़ासिद (फ़ालतू) और तुहमात का सदा (शक, नाक़िस) के काटने को अपने ख़यालात के सिलसिले को दूसरी जुंबिश दी जाये और वो ये है।

1. हज़रत नबी आखिरुज़्ज़मान ने जिहाद किया जैसे हज़रत मूसा ने जिहाद (दीन की हिमायत के लिए हथियार उठाना) किया था।

जवाब : ये आपका गुल (मुआमला) सर सय्यद है ये पहली मुशाबहत आपको ख़ूब सूझी। कहाँ मुहम्मद साहब की लड़ाईयाँ और कहाँ मूसा का ग़ैर-अक़्वाम को सज़ा देना जो बिल्कुल ख़ुदा के हुक्म से था।

2. हज़रत सलअम (मुहम्मद) पर शरीअत नाज़िल हुई। जैसे हज़रत मूसा पर।

जवाब : अव़्वल दिखा दिया होता कि मुहम्मदी शरीअत ये है तब मूसा की शरीअत का मुक़ाबला कर के मालूम होता हमने तो अब तक नहीं सुना कि मूसा के सिवा किसी और पर भी शरीअत उतरी हो।

3. हज़रत सलअम (मुहम्मद) क़ज़ाए फ़ेसल (फ़ैसला) करते थे। जैसे हज़रत मूसा।

जवाब : ख़ुरूज 18:19 से मालूम होता है, कि मूसा ख़ुदा की जगह हो कर ऐसा करता था। और फिर 18:26 में यूं मर्क़ूम है कि मुश्किल मुक़द्दमा मूसा के पास लाते थे। पर छोटे मुक़द्दमे आप ही फ़ैसल करते थे। जनाब अबू अल-मंसूर साहब यहां किस अम्र में मूसा और मुहम्मद में मुशाबहत आपने दिखलाई है आप तो अपने मतलब की बातों को ऐसे बे-तहाशा (बेहद, बहुत ज़्यादा) निगलते जाते हैं। कि ज़रा मक्खी बाल का भी ख़याल नहीं करते। क्या आपके ख़याल में कोई मह्ज़ इंसान मूसा की मानिंद हो सकता है और क्या मुहम्मद साहब भी ख़ुदा की जगह हैं। ज़रा सोच समझ कर मुशाबहत पैदा कीजिए।

सँभल कर पांव रखना महफ़िल रिंदां में ए ज़ाहिद यहां पगड़ी उछलती है इसे मय-ख़ाना कहते हैं।

4. हज़रत ने मदीना में हिज्रत की। जैसे मूसा ने मिद्यान में।

जवाब : ये मुशाबहत शायद मदीना और मिद्यान के क़रीब अल-मख़रज (क़रीब एक जैसे नाम) होने से आपके दिमाग़ में मुतख़य्युल (ख़याल गया) हो गई होगी। मगर इतना तो ख़याल कर लिया होता कि मवेशी अपनी जान बचाने को भागा था ना इंतिक़ाम की फ़िक्र में। मगर मुहम्मद साहब तो मदीना में इस ग़र्ज़ से फ़रार हुए थे, कि वहां जमईयत बहम पहुंचा कर अहले मक्का पर हमला-आवर हों। यहां तो हमको मौलवी रुम के अशआर आपके हस्ब-ए-हाल याद आते हैं।

کارپاکاں   راقیاس  از کو دیگر  ۔ وربمانددرنوشتن شیر و شیر۔ آں یکے  شیریکہ  مردم میکورد۔

آں یکے شیر یکہ مردم میخورد ۔ देखिए आख़िरी शेअर के दोनों मिसरे कैसे एक दूसरे की मानिंद हैं। पर तो भी जब इस के मअनी और मफ़्हूम पर ग़ौर किया जाता है तो साफ़ मालूम होता है कि एक ख़ुराक है। और दूसरा ख़ुरिंदा एक में शेर नज़र आता है जो आदमी को खाता है और दूसरी में दोदह जिसको आदमी खाता है। इसी तरह इस चौथी मुशाबहत में मूसा बेचारा अपनी जान बचा कर भागा और मुहम्मद ने मदीना में जा कर हज़ार-हा बेगुनाह बंदगान ख़ुदा का नाहक़ ख़ून कराया।

5. हज़रत ने मेअराज में अकेले ख़ुदा से कलाम किया, जैसे हज़रत मूसा ने तूर पर।

जवाब : मुहम्मद का मेअराज में अकेले ख़ुदा से कलाम करना। आप देख रहे होंगे। उस्मान मुसन्निफ़ हज़ा अल-क़ुरआन तो इस की बाबत दम भी नहीं मारता। फिर मूसा की मुलाक़ात चालीस दिन रात भूक प्यास के साथ थी मगर मुहम्मद साहब की मुद्दत मुलाक़ात ऐसी है, कि कुछ भी नहीं यानी जब मुहम्मद साहब ज़ंजीर खोल कर बुराक़ (ताज़िया जिसका धड़ घोड़े और चेहरा आदमी सा है) पर सवार हुए और जब लौट कर वापिस आए तो वो हिलती थी। और बिछौना भी गर्म था अब मैं अपने तजुर्बे से अर्ज़ करता हूँ कि ज़ंजीर खुलने के बाद शायद ज़्यादा से ज़्यादा दोस्ट हिले तो हिले वर्ना वो भी नहीं तो आप ही इन्साफ़ कीजिए, कि इस कह मुकरनी में और मुहम्मदी मेअराज में क्या तफ़ादत (जुदा फ़र्क़) है।

मूसा की मुलाक़ात का हाल यूं लिखा है और सब लोगों ने देखा कि बादल गरजे बिजलियां चमकीं करनाअ (तुर्रम) की आवाज़ हुई पहाड़ से धुआँ उठा और सब लोगों ने जब ये देखा तो हटे और दूर जा खड़े रहे। तब उन्होंने मूसा से कहा कि तू ही हमसे बोल और हम सुनें। लेकिन ख़ुदा हमसे ना बोले। जनाब इमाम साहब आपके पैग़म्बर की मेअराजी मुलाक़ात और कलाम करना ऐसा है जैसे कुल्हिया में गुड़ टूटा (छुप कर कोई काम करना। ना-मुम्किन काम करना)

6. हज़रत ने चांद को अंगुश्त अश्शहादत (शहादत की ऊँगली) उठा कर दो टुकड़े किया। जैसे मूसा ने असा उठा कर बहर-ए-कुल्जुम को दो हिस्से किया।

जवाब : अभी तक तो साबित हुआ ही नहीं कि दुनिया में कभी चांद दो टुकड़े हुआ ख़ुद क़ुरआन ही से नहीं साबित होता क़ुरआन में चांद का फटना क़ियामत पर मौक़ूफ़ (मुन्हसिर) है। अगर बिलफ़र्ज़ चांद फट जाता तो मुम्किन ना था कि निज़ामे आलम में गड़बड़ ना पड़ती। हम सब के सब सूरज में या किसी और सय्यारे या सवाबित (वो सितारे जो गर्दिश नहीं करते) में एक दूसरे से टकरा कर नेस्त (तबाह) हो जाते ये इल्म क़ुव्वत-ए-कशिश के बिल्कुल ख़िलाफ़ है।

7. हज़रत की उंगलीयों से पानी के सोते (चश्मे) जारी हुए जैसे मूसा ने चट्टान से पानी निकाला था।

जवाब : अब यहां मूसा से मुशाबहत पैदा करने को और ना सही यही सही कि मूसा की चट्टान और मुहम्मद की उंगलियां। मारों घुटना फूटे आँख।

8. हज़रत ने अपने भाई अली को बमंज़िला हारून कहा।

जवाब : हज़रत मूसा ने हारून को भाई नहीं कहा बल्कि ख़ुद जनाब बारी ने फ़रमाया, देखो ख़ुरूज 4:14 क्या नहीं है लावियों में से हारून तेरा भाई मैं जानता हूँ, कि वो भी तेरी मुलाक़ात को आता है। और फिर फ़रमाया कि 16, आयत में, तू उस के लिए ख़ुदा की जगह होगा। जनाब मौलवी साहब मुहम्मद कब अली के लिए ख़ुदा की जगह थे। ये कैसी मुशाबहत आपने पैदा की।

9. हज़रत की पुश्त-ए-मुबारक पर मुहर-ए-नबूवत थी। जैसे हज़रत मूसा के हाथ में यद-ए-बैज़ा (हज़रत मूसा का मोजज़ा-नुमा हाथ)

जवाब : ख़ुरूज 4:6 में यूं है कि फिर ख़ुदावन्द ने उसे कहा कि तू हाथ अपनी छाती पर छुपा के रख चुनाचे उसने अपनी छाती पर छुपा के रखा। और जब उसने उसे निकाला तो देखा कि उस का हाथ बर्फ़ की मानिंद सफ़ैद मबरूस (फुलबहरी का मरीज़) था। फिर 7 आयत में है कि फिर उसने कहा कि तू अपना हाथ फिर अपनी छाती पर छुपा के रख उसने फिर रखा जब बाहर निकाला तो देखा कि वो फिर वैसा ही था जैसा उस का सारा बदन था। हो गया अब आपका क्या मतलब है आया वही है जो मुंशी अंदर मन मुरादाबादी ने अदा किया हम तो इस को आज तक गो ना गुस्ताख़ी (किसी क़द्र बे-अदबी) और सूर अदबी समझते थे। मगर अब इस मुशाबहत से पूरा यक़ीन हो गया कि मुंशी साहब का फ़रमाना है कि वो कोढ़ था जैसा कि मूसा के हाथ के निशान के हक़ में उर्दू तर्जुमा मुरव्वजा में लफ़्ज़ मबरूस तहरीर है। सच्च है हमारे भाई मुहम्मदी हमसे नाराज़ ना होंगे क्योंकि उनके मौलवी साहब ने ख़ुद मुहम्मद साहब को ऐसा बनाया। मगर ताहम रोज़ अव़्वल है और हनूज़ दिल्ली दूर ही है (अभी मंज़िल दूर ही है) जब कि मूसा का निशान था और ना था। मगर मुहम्मद साहब की मुहर की निस्बत कहा जाता है कि तादम ज़ीस्त (ज़िंदगी, उम्र) रही।

रहा ये कि वो दाग़-ए-बरस मुहर-ए-नबूवत था ऐसा ही है जैसा आप सा ख़ुश एतिक़ाद घोड़े परी को बुर्राक़ या गधे को दुलदुल कहे बाक़ी और कुछ नहीं।

10. हज़रत ने काअबा के बुत परस्तों में नश्वो नुमा पाई। जैसे मूसा ने फ़िरऔन की सोहबत (मददगारी, पास रहना) में।

जवाब : नहीं जनाब काअबे के बुत परस्तों में नहीं बल्कि अबू-तालिब की गोद में जो ख़ुद उनका हक़ीक़ी चचा था। जिसके मुआवज़े में उस के फ़र्ज़न्द अली ने बावजूद ये कि मुहम्मद साहब का चचेरा भाई (चचाज़ाद भाई) था। दामादी का हारपा या और चौथे दर्जे में ख़िलाफ़त का कुल कारोबार। लेकिन हज़रत मूसा बेकस पानी में छोड़े हुए थे। दुश्मन ख़ुदा और ख़ुदा के लोगों की मुख़ालिफ़ फ़िरऔन की बेटी के ज़ेरे नज़र परवरिश पाई और मिस्रियों का कुल इल्म व हिक्मत उस को सिखलाए गए वो उम्मी (अनपढ़) ना था जैसे आपके पैग़म्बर साहब।

11. हज़रत बाअयाल (बीवी बच्चे वाले) थे जैसे हज़रत मूसा।

जवाब : तो भी इस मुशाबहत में कुछ कसर रहेगी यानी हज़रत मूसा ने सिपर ख़वांदा (पढ़ा लिखा की आड़) में ख़ुद की जोरू को घर में नहीं डाला और ना अठारह जोरुएँ (औरतें) रखीं ना आम तौर से मूसा की जोरु किसी उम्मती की माँ थी। जैसे मुहम्मद साहब के इज़्दिवाज़ उम्महात-उल-मोमिनीन कहलाती हैं। और इस सबब से किसी मुसलमान को रवा ना था कि बाद वफ़ात उनकी आईशा से निकाह कर सकता। अगरचे ख़ुद मुहम्मद साहब अपने मुसलमानों की रांडों (बेवाओं) या बेवाओं से जो कि उनकी जोरूओं (बीवियों) की बेटियां या नवासीयाँ थीं शादी करते थे। हज़रत मूसा ने कभी ऐसा नहीं किया। पस अयालदारी में भी आपकी मुशाबहत नाक़िस निकली।

12. हज़रत के जांनशीन (खलीफा) फ़र्मां रवा हुए, जैसे हज़रत मूसा के।

जवाब : अगरचे हज़रत यशूअ मूसा के बाद बनी-इस्राईल को कनआन में ले गए तो भी ये बात अबू बक्र और उमर और उस्मान और अली और हज़रत मुआवीया और हज़रत यज़ीद और हसन व हुसैन की ख़िलाफ़त से ज़रा भी इलाक़ा नहीं रखते मुझे इस वक़्त याद नहीं आता कि ये शेअर किस का है :-

چوں صحابہ   جاہ و  حشمت   یا فتند    مصطفے را بے کفن  اندا ختند ۔

मुझे हज़रत मुहम्मद माफ़ फ़रमाएं लेकिन इतना तो ज़ाहिर है कि इस ख़िलाफ़त की बदौलत कितने मुहम्मदियों की जानें हलाक हुईं। और अगर हम इन वाक़ियात को भी मद्द-ए-नज़र रखें जिनका बयान रो-रो कर अहले तशई (शिया) करते हैं। और बाग़ फ़दक और क़िरतास का मुक़द्दमा भी फिर ज़ेर तज्वीज़ हो तो मालूम होगा कि यहां भी ज़मीन व आस्मान का फ़र्क़ है। हज़रत यशूअ को ख़ुदा ने मुक़र्रर किया ताकि बनी-इस्राईल को मुल्क मौऊद में दाख़िल करे। और यहां मुहम्मद की वफ़ात के बाद कुल मुसलमान जम्म-ए-ग़फ़ीर (ज़बरदस्त हुजूम) हो कर मुक़ाम सक़िफ़ा में जमा हुए सिवाए हज़रत अली और उनके चंद ख़ास अहबाबों के इस बात पर मुत्तफ़िक़ हुए कि अबू बक्र को ख़िलाफ़त (ख़लीफ़ा) का ओहदा मिलना चाहिए। चूँकि उस का नसीब सिकन्दर था जब कि बीबी आईशा जो हज़रत की प्यारी बीबी थीं अबू बक्र की लख़्त-ए-जिगर थी मुआमला दुरुस्त हो गया। और उसने अपने मरते दम उमर को नामज़द किया उस्मान की ख़िलाफ़त में मिस्र का फ़ित्ना उठा बेचारा मारा गया। अगरचे उस के क़िसास (इंतिक़ाम) में बीबी आईशा और तलहा वग़ैरह ने जंग जमल में बहुत अर्क़ रेज़ि (कमाल मेहनत करना) की। पर तन ब तक़्दीर मुआमले ने अली की तरफ़ रुख किया और जब वही ख़िलाफ़त नहल मुख़ाफ़त जिससे मुंतक़िल होते होते मुआवीया के सपूत यज़ीद तक पहुंची तो बेचारे हुसैन का ख़ून पी कर ख़त्म हुई ज़्यादा झगड़ा कौन करे। और बहुत सा दुखड़ा कौन रो दे हम तो न अनीस हैं जो सोज़ उड़ाएं और ना दुबैर जो मर्सिया पढ़ें।

हज़रत मूसा के जांनशीन यशूअ और उस के बाद उस के जांनशीनों ने तमाम मुल्क यहूदिया को फ़त्ह कर के बनी-इस्राईल को बारह ख़ानदानों में ऐसा तक़्सीम किया कि दाऊद से बादशाह और सुलेमान से फ़रमांरवा अपना झंडा गाड़ गए। पस इस मुशाबहत से भी आपको सिवाए ज़िल्लत और ख़ारी के कुछ नसीब नहीं हुआ।

13. हज़रत चालीस बरस की उम्र में नबी हुए जैसे हज़रत मूसा ने पूरे चालीस बरस की उम्र में मिस्री को मार डाला।

जवाब : चलिए झगड़ा ही ख़त्म हुआ अब बाएतक़ाद शैय जो कोई चालीस बरस की उम्र में किसी को मार डाले वो नबी है और कैसा नबी कि मूसा की मानिंद जिसकी मानिंद आज तक कोई नबी नहीं उठा। लेकिन ख़ुदा के कलाम से यूं साबित होता है, कि जब मूसा पूरे एसी (80) बरस का हुआ। आमाल 7:23, 30 तब ख़ुदा सा हो कर मिस्र को गया जनाब मौलवी साहब होश कहाँ हैं आप साबित क्या करते हैं।

और साबित क्या होता है ख़ाक भी नहीं। जनाब-ए-मन ईसाईयों के साथ मुक़ाबला करना बहुत दुश्वार है मुहम्मद साहब को धमकाए तोहफ़ा अस्ना व अशरिया मुलाहिज़ा फ़रमाए अभी तो घर ही के झगड़े नबेड़ने पड़े हैं तुम्हारा कोई शायर कहता है :-

جبرائیل   کہ آمد زیر خالق   بيچوں  در پیش محمدؐ شد و مقصود  علی بود ۔

आपकी देखा देखी और हिरसा हिरसी कोई शीई (शिया) अली को ना मूसा सा साबित करने लगे तो और लेने के देने पड़ जाएं।

14. हज़रत दुनिया में मदफ़ून (दफ़न) रहे, जैसे हज़रत मूसा।

जवाब : दुनिया में तो सब मदफ़ून हैं। मगर आपके मुहम्मद साहब मदीना में बीबी आईशा के हुज्रे में और हज़रत मूसा अगरचे दुनिया में मदफ़ून हैं पर तो भी मालूम नहीं कि कहाँ और हज़रत मुसैलमा कज़्ज़ाब सलअम रहमान अल-यमामा भी तो इसी दुनिया में मदफ़ून हैं इन को भी हज़रत मूसा से मिला दीजिए।

15. हज़रत यरूशलम से बाहर नबुव्वत करते रहे जैसे हज़रत मूसा।

जवाब : यरूशलम से आपकी क्या मुराद है आया हक़ीक़ी तो फिर मूसा के मिस्र में जाने और मुहम्मद के मक्का में आने वाली मुशाबहत को याद कीजिए। वहां मिस्र के मअनी मजाज़ी (नक़्ली, ग़ैर हक़ीक़ी) और यहां यरूशलेम के मअनी हक़ीक़ी आपने तो ख़ूब ही अंधा धुंद मचाई है। बक़ौल शख़से जहां को रास्त चाहे मेतवां कुंद। फिर सबसे बढ़कर ये है कि अभी तक मुहम्मद साहब की नबुव्वत ही साबित नहीं। अब सारी दुनिया ख़दीजा तो है नहीं, कि हर एक वहमी तबीयत पर नबुव्वत का प्लास्तर चढ़ा दे। मुहम्मद साहब ने अरबिस्तान में अगर कुछ किया हो तो ये कि बुत-परस्ती अदना अक़्ल भी मंज़ूर नहीं कर सकती। ख़्वाह वो संग-ए-असवद (वो स्याह पत्थर जो काअबा शरीफ़ की दीवार में नसब है और जिसे मुसलमान बोसा हैं) हो या सालगराम का बेटा आतिश آتش  کشتن  و اخگر  گذاشتن  وافعی  کشتن و بچہ اش  را نگاہد اشتن کا رخر دہنداں   نیست ۔    अगरचे हज़रत ने काअबा के 360 बुतों के ख़िलाफ़ नबुव्वत की मगर संग-ए-असवद को उसी तरह रहने दिया। जिस तरह हमारे मुल्क में रामानंद के चेले कबीर ने बुत-परस्ती पर हमला करते हुए राम व कृष्ण को रहने दिया लेकिन हज़रत मूसा की नबुव्वत यरूशलेम के बाहर ना सिर्फ बाहर थी मगर अंदर भी देखो ख़ुरूज से इस्तिस्ना तक।

16. हज़रत निहायत हसीन थे। जैसे हज़रत मूसा।

जवाब : बेशक हज़रत मूसा ख़ूबसूरत थे। मगर आमाल 7:20 को ग़ौर से पढ़ो वहां यूं लिखा है। यूनानी में ख़ूबसूरत ख़ुदा के सामने। और जनाब पादरी इमाद-उद्दीन साहब अपनी तफ़्सीर में लिखते हैं कि यूसेफ़स मुअर्रिख़ यहूदी कहता है कि जब मूसा बाज़ारों में फिरता था तो लोग काम छोड़कर उस की तरफ़ देखते थे। क्योंकि निहायत ख़ूबसूरत था मगर ख़ुदा के सामने निहायत ख़ूबसूरत था।

अब ज़रा हज़रत दाऊद बादशाह से जो ख़ुद पैग़म्बर थे इस महबूब की तारीफ़ बनें और उनसे पूछें कि वो कौन है देखिए। ज़बूर 45:2 तू हुस्न में बनी-आदम से कहीं ज़्यादा है। फिर ज़बूर 45:6 तेरा तख़्त ऐ ख़ुदा अबद-उल-आबाद है। यहां तो साफ़ साबित हो गया कि वो जो निहायत ख़ूबसूरत बल्कि बनी-आदम से ज़्यादा ख़ूबसूरत है ख़ुदा है। क्या आपके ख़याल में मुहम्मद साहब नऊज़बिल्लाह मिन ज़ालिक, ख़ुदा हैं? मौलवी साहब हम आपको कहाँ तक याद दिलाएँ मूसा ख़ुदा सा था और निहायत ख़ूबसूरत था अब सिवाए हक़ीक़ी ख़ुदा के निहायत ख़ूबसूरत हो के मूसा के मशाबहा और कोई फ़र्द बशर नहीं हो सकता यूं तो लैला را بچشم  مجنوں  باید دید و الا ضرب المثل   फ़िक़्रह उस शैतान को भी याद था जो एक मैंडक को सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत समझता था।

17. हज़रत बड़े मवह्हिद (मुसलमान) थे, जैसे हज़रत मूसा।

जवाब : जनाब-ए-मन मवह्हिद वहाबियों का ख़िताब है। मुहम्मद साहब तो छोटे मवह्हिद भी ना थे। हमारे गज़नी के सुल्तान महमूद बुत शिकन को सदा फिरें (वाह वाह, किया कहना) कि बे-इंतिहा दौलत पाते हुए भी सोमनात के बुत को तोड़ दिया मगर आपके बड़े मवह्हिद ने तो ना सिर्फ संगे असवद ही को बाक़ी रखा। बल्कि कोह-ए-सफ़ा और मर्वा की भी रिआयत रखी। और क़ुबूर (क़ब्र की जमा) की ज़ियारत और उनसे तलब दुआ किया शिर्क (ख़ुदा के साथ किसी और को शरीक जानना) तक नहीं पहुंचानी और ख़ुद हज़रत का कलिमा ला-इलाहा इलल्लाह मुहम्मद रसूल अल्लाह क्या पूरा शिर्क नहीं। लेकिन हज़रत मूसा ने तो कहीं ऐसा जली शिर्क रवा नहीं रखा पर तो भी अगर झाड़ी वाले ख़ुदा को हज़रत मूसा ने सच्चा ज़िंदा अबराहाम और इस्हाक़ और याक़ूब का ख़ुदा मान लिया। और उसी के आगे अपने को ख़म (झुकाओ) किया। और मुहम्मद साहब उसी ख़ुदा की उलूहियत (ख़ुदाई) के बुतलान (तर्दीद) में यूं फ़र्माते हैं, कि वो दोनों खाया करते थे। तो मुहम्मदी इल्म-ए-इलाही के मुताबिक़ हज़रत मूसा बड़े मवह्हिद ना थे। बल्कि हम मसीहियों के साथ तौबा तौबा बक़ौल शमा वो भी मुश्रिक थे। जनाब मौलवी साहब मुहम्मदी तौहीद हज़रत मूसा ने ख्व़ाब में भी नहीं देखी थी। पस ये मुशाबहत भी ग़ज़बूद से कमपाया की नहीं है।

18. हज़रत के सन हिज्री जारी हुए, जैसे हज़रत मूसा के।

जवाब : मौलवी साहब क्यों मुट्ठियों ख़ाक भर भर कर भले मानसों की आँखों में डालते हो। थोड़ी देर गुज़री होगी कि 4 मुशाबहत में मुहम्मद की हिज्रत मदीना को मूसा की हिज्रत मिद्यान से मुशाबह ठहराया था। अब यहां 18 वीं मुशाबहत हैं, बनी-इस्राईल के खुरुजी सन को मुहम्मदी हिज्री सन से मुशाबेह ठहराते हो आपकी अक़्ल तो मुझसे ज़्यादा है आपको क्या हो गया है कभी मुहम्मद को मूसा की मानिंद ठहराते हो और कभी बनी-इस्राईल की मानिंद। चाहिए यूं था कि मूसा के मिदयानी सन हिज्री और मुहम्मद के मदीनी सन हिज्री मुशाबेह किए होते। पस ये मुशाबहत ना मूसा से बल्कि बनी-इस्राईल से साबित होई सो ये भी मह्ज़ बेमाअनी।

19. हज़रत ने गल्लाबानी (निगहबानी, मुहाफ़िज़त, रेवड़ की रखवाली) की जैसे हज़रत मूसा ने।

जवाब : चंद रोज़ दाई हलीमा और बच्चों के साथ चरागाह को जाते थे। ना कि ख़ुद गल्लाबान (चरवाहा) थे। मगर हज़रत मूसा ने तो क़रीब चालीस बरस तक गल्लेबानी की और ख़ुद तमाम बनी-इस्राईल का आबाई पेशा ये ही था। और यही पेशा उन बेचारों पर मिस्र में फ़रावनी वहम से क़ौम हकसास के धोके में सख़्त मुसीबत लाया। लेकिन मुहम्मद साहब के बाप दादा ने तो मक्का के बुत ख़ाने के पुरोहित (ब्रहमन या पण्डित) या पंडा थे। ये मुशाबहत कहाँ हुई।

20. हज़रत यरूशलेम से बाहर मदफ़ून हुए जैसे हज़रत मूसा।

जवाब : हज़रत मूसा का मदफ़न किसी को नहीं मालूम। ये क्या मुशाबहत है हज़रत मुस्लेमा कज़्ज़ाब भी यरूशलेम से बाहर यमामा में मदफ़ून हैं।

21. हज़रत ने काअबा के बुतों को तोड़ा जैसे मूसा ने इस बिछड़े को।

जवाब : क्या काअबा के बुत मुसलमानों के बुत थे क्योंकि बछड़ा तो बनी-इस्राईल का बुत था। वाह साहब ! गोसाला पाएर शूदा गा व शद।

22. जिस तरह ख़ुदा ने क़ौम यहूद को दुनिया की तमाम क़ौमों से चुनकर हज़रत मूसा की मार्फ़त अपनी वहदानियत की ताअलीम में मुम्ताज़ फ़रमाया। इस तरह ख़ुदा ने मुसलमानों को यहूद व नसारा से चुनकर हज़रत मुहम्मद की मार्फ़त बर्गुज़ीदगी और ताअलीम तौहीद में मुम्ताज़ फ़रमाया।

जवाब : दुनिया की तमाम क़ौमों से नहीं चुना है और ना उस वक़्त कोई क़ौम यहूद बनाई गई आप तौरेत को पढ़ें तो मालूम होगा कि ख़ुदा ने अबराहाम को फ़रमाया कि तू अपने मुल्क और अपने नातेदारों के दर्मियान से और अपने बाप के घर से उस मुल्क में जो मैं तुझे दिखाऊँगा। निकल चल और मैं तुझे एक बड़ी क़ौम बनाऊँगा। पैदाइश 12:1 जनाब अभी तो मूसा पैदा भी नहीं हुआ था और अबराहाम की औलाद का बढ़ाओ सिर्फ उसी की ज़ात से इस तरह हुआ कि अबराहाम से इज़्हाक़ और इज़्हाक़ से याक़ूब और याक़ूब से बारह घरानों के सरदार पैदा हुए आमाल 7:8 बनी-इस्राईल का यहूदी नाम तो उस वक़्त से हुआ है जिस वक़्त कि सत्तर बरस की असीरी के बाद फिर अपने मुल्क को वापिस आए उनमें फ़िर्क़ा यहूद की कस्रत थी पस वो यहूदी कहलाए। अगरचे ये सच्च है कि यहूदीयों के सिवा ताअलीम तौहीद में सारी दुनिया की अक़्वाम बे-बहरा हैं लेकिन अबराहाम की बुलाहट और क़ौम यहूद की बर्गुज़ीदगी की इल्लत-ए-ग़ाई (वजह) ताअलीम तौहीद नहीं हो सकती इसलिए कि उस की तौहीद से ना किसी अस्वद परस्त (पत्थर की पूजा करने वाले) को इन्कार है और ना किसी मूर्त परस्त को तकरार सब बिल-इत्तिफाक़ एक ख़ुदा एक परमेश्वर पुकारते हैं। अबराहाम की बर्गुज़ीदगी का मतलब था ये कि दुनिया के सब घराने उस से बरकत पाएँगे। पैदाइश 12:3 यानी खुदा की नजात जिसका वाअदा पैदाइश 3:15 में था।

क़ौमे यहूद औरों को पहुँचेगी चुनान्चे ज़ाहिर है कि जब तक ख़ुदावन्द येसू मसीह जो औरत की नस्ल है ना आया तब तक क़ौम यहूद अपने मुल्क में आबाद और हैकल में क़ुर्बानियां चढ़ा-चढ़ा कर दिल-शाद थे लेकिन जब वो बरकत उनसे हो कर औरों को पहुंची हैकल मिस्मार हुई और वो क़ौम निहायत ज़लील और ख़ार हुई क्योंकि अब उस का वजूद मह्ज़ बेमाअनी था क्योंकि मतलब निकल गया। मौलवी साहब आप धोका बहुत दिया कि करते हैं अब अपने हज़रत की सुनिए आपका ये क़ौल कि मुसलमानों को यहूद व नसारा से चुनकर ताअलीम तौहीद में मुम्ताज़ फ़रमाया बिल्कुल झूटा है। आप ख़ुद लिख चुके कि दुनिया की सारी क़ौमों से यहूदीयों को चुन कर ख़ुदा ने ताअलीम तौहीद में मुम्ताज़ फ़रमाया। फ़रमाईए, कि वो कौन सी ताअलीम तौहीद थी जो यहूदीयों को ना मिली थी वो तो ख़ुद ताअलीम तौहीद में बक़ौल शमा सारी दुनिया की क़ौमों से मुम्ताज़ थे। जब कि मुहम्मद के बाप दादों तक का वजूद ना था फिर मुहम्मदी ताअलीम तौहीद को क्या जानें मुहम्मद साहब ने ईसाईयों से ताअलीम पाई उन्हीं के साथ आप ये सुलूक करते हैं। सादी सच्च कहा।

किस ना आमोखत इल्म तेरा ज़मन। कि मिरा आक़िबत निशाना न करो।

अब बक़ौल एक अंग्रेज़ नव मुस्लिम की कि जो तौहीद मेरे दिमाग़ में गूंज रही थी वो बाइबल में ना मिली मगर क़ुरआन में और इसी लिए मैं मुसलमान हो गया। चेह ख़ुश-दादी आपकी तौहीद ज़रा कलिमा तो पढ़े तो मुहम्मदी तौहीद की सारी क़लई (ज़ाहिरी सजावट, पोल) खुल जाये।

اندر من  چہ خوش  فرمود کہ محمدؐ یا ں  در کلمہ نام محمدؐ ابا نام خُدا یکجا  کردہ  اندر  دبدیں  نمط راہ   شرک پمیودہ اند

लीजिए एक मुश्रिक जिसको आप काफिर कहते हैं वो भी शाहिद (गवाह) है कि आप मुश्रिक हैं ना मवह्हिद अफ़्सोस तशरीक़ के परस्तार तौहीद के दावेदार। बरअक्स ना हिंद नाम ज़लगी काफ़ूर। चलिए ये तश्बीह भी घोड़े के सींगों पर जा बैठी।

23. हज़रत में मुतलक़ इन्सानियत थी, जैसे हज़रत मूसा में मह्ज़ इन्सानियत।

जवाब : पहली मुख़ालिफ़त उस मुशाबहत में मुतलक़ और मह्ज़ की रफ़ा कीजिए फिर आगे बढ़िए क्योंकि बेवा के पिसर (बेटा) को सुहागन के फ़र्ज़न्द से क्या मुनासबत है।

24. हज़रत मूसा से ख़ुदा परस्ती के लिए इबादतखाने का आग़ाज़ और हज़रत से इस का तकमिला (ज़मीमा जो अस्ल मज़्मून को मुकम्मल करे) चुनान्चे बैतुल-मुक़द्दस और काअबा शरीफ़ दोनों पर नज़र करना चाहिए।

जवाब : हम तो ना सिर्फ काअबा शरीफ़ बल्कि अजमेर शरीफ़ और मदीना मुनव्वरा और करबलाए मुअल्ला और नजफ़ अशरफ़ इन सब पर भी ऐनक लगा कर नज़र कर रहे हैं। मगर आप बिल्कुल आँखें मूँदे बैठे हैं कजा (कहाँ) हैकल पाक हज़रत सुलेमान पैग़म्बर की बनाई हुई। ख़ुदा का घर जिसमें लोगों के देखते ख़ुदा ने अपनी हुज़ूरी ज़ाहिर की जिस वक़्त कि सुलेमान उसे महखूस कर रहा था और कजा (कहाँ) बुत-परस्तों का चौखूँटा बुत ख़ाना आपको ज़रा भी ख़ुदा का ख़ौफ़ नहीं। ये मुशाबहत मह्ज़ ख़ाना ख़ुदा से गुस्ताख़ी है और कुछ नहीं।

25. यहूदीयों में तीन सालाना ईदें थीं ईद फ़सह, ईद ख़ेमा ईद, पंतीकोस्त। मुसलमानों में ईद-उल-अज़हा ईद-उल-फित्र और शबरात।

जवाब : मुशाबहत पैदा करने को शब-ए-बरात भी ईद बनाई वाह मौलवी साहब वाह ख़ूब मुशाबहतें पैदा करते हो हम आपको दो ईदें और बताते हैं एक ईद गदीर और एक ईद शुजाअ इन सबको भी किसी ईद यहूद से मिला दीजिए।

26. हज़रत मूसा की औलाद काहिनों के ज़ेर हुक्म थी। जैसे खुलफ़ा-ए-राशिदीन के हाल से इस का सबूत ज़ाहिर है।

जवाब : अब मालूम हुआ कि अबू बक्र, उमर, उस्मान, अली, मुहम्मदी मज़्हब के काहिन हैं। यक ना शुद दोशद।

27. येशूआ ने मुल्क कनआन में तसर्रुफ़ (इख़्तियार) किया और उमर ने वहीं तसल्लुत (क़ब्ज़ा) करके मस्जिद अकसा बनवाई।

जवाब : तितुस शहज़ादा रुम ने वहां तसल्लुत कर के हैकल को मुनहदिम (गिराना) कर दिया पस इन दोनों में कोई माबा अल-इम्तियाज़ (वो चीज़ जिससे शनाख़्त हो सके) बतला दीजिए। जैसा तितुस वैसा उमर दोनों ख़ुदा को जवाब देंगे। और जो उनके इस फ़ेअल क़बीहा (बुरा काम) के मद्दाह (तारीफ़ करना) हैं। वो भी मुनाफे में उनके हमराह होंगे इस में मुशाबहत ना मूसा के बल्कि तितुस बुत-परस्त के साथ हुई।

28. दुनिया में तीन ही कौमें ख़ुदा-परस्त गिनी जाती हैं यानी यहूद और नसारा और मुसलमान और इन तीनों क़ौमों की जो इल्हामी किताबें हैं उनका शुरू हज़रत मूसा से और ख़ातिमा हज़रत मुहम्मद से हुआ। क्योंकि उस ख़ुदा की तरफ़ से जो अबराहाम व इज़्हाक़ व याक़ूब का ख़ुदा है और किसी मज़्हब के बानी ने कोई किताब ज़ाहिर नहीं की।

जवाब : यहूद, नसारा के साथ अपना नाम क्यों मिला देते हो। जब कि क़ुरआन के साथ तौरेत व ज़बूर व इन्जील को नहीं मिलाते। अगर बक़ौल शमा वह मन्सूख़ हैं तो लाबदोह भी मर्दूद हैं लेकिन आप ही की दलील से जो किताब कि अबराहाम व इज़्हाक़ व याक़ूब के ख़ुदा की तरफ़ से ना हो वो इल्हामी नहीं है तब तो क़ुरआन भी उस ख़ुदा की तरफ़ से नहीं क्योंकि इस्माईल का ख़ुदा बाइबल में कहीं नहीं लिखा पस अगर इस्माईल के ख़ुदा की किताब इल्हामी हो सकती हैं। तो क्यों दायेवा गिनी अंदर अमगरा (دایواگنی اندر امگرہ) के ख़ुदा की किताब इल्हामी ना हो और हमारे देस के बाबा नानक और साधू के गुरु और कबीर दास और पण्डित अग्नी होतरी के ख़ुदा की किताबें भी क्यों इल्हामी ना हों। जवाब ये होगा कि सिर्फ अबराहाम व इज़्हाक़ व याक़ूब के ख़ुदा की ना इस्माईल वग़ैरह की। पस इस मुशाबहत ने तो आपको बिल्कुल ही सदाक़त से महरूम कर दिया। 30,31,32, 33 ये चारों मह्ज़ क़ुरआन के कलामे इलाही होने पर मौक़ूफ़ हैं और इस का सबूत आज तक नहीं हुआ अल-हज़ा हम मौलवी साहब की तरह बेफ़ाइदा काग़ज़ के मुँह को सियाह ना करेंगे। आख़िरी 34 मुशाबहत चूँकि एक अंग्रेज़ की किताब से मौलवी साहब ने निकाली है इस का जवाब देता हूँ।

हज़रत मुहम्मद बेपढ़े थे, जैसे मूसा। जवाब : मह्ज़ झूट हज़रत मूसा पढ़े थे। ये चौंतीस मुशाबहतें 33 फ़ाक़ों में अबु-अल-मंसूर साहब ने पैदा की थीं वो यारों के एक ही निवाले में हज़म हो गईं अब और कुछ बाक़ी नहीं रहा। हम जानते हैं कि मुहम्मदी लोग अपने हज़रत की मुहब्बत में ऐसे बढ़े हुए हैं कि उनको कुछ परवाह नहीं कि किसी नबी की या ख़ुद ख़ुदा की बेइज़्ज़ती होती है। उनका तो ये हाल है। अब उनके सपूत सय्यद नुसरत अली का हाल सुनिए जो कुछ अबूल-मंसूर से बचा था इस को उन्होंने पूरा किया बक़ौल शायर अगर पिदर नतवांद पिसर तमाम कुंद।

कलिमा-तुल-हक़ मुसन्निफ़ा सय्यद नुसरत अली में किसी मंसूर नामी हल्लाज को ख़ुदावंद रब्बना येसू अल-मसीह से मुताबिक़ किया है इस हदीस के मुताबिक़ मेरी उम्मत के मौलवी ऐसे हैं जैसे बनी-इस्राईल के अम्बिया। लाहौल वला को एन ख़ाना तमाम आफ़्ताब अस्त। जब ये ना ख़ुदा से डरते हैं और ना उस के भेजे हुए से तो जो चाईं सो कहें मसीही सल्तनत आज़ादी का चस्का क़लम दवात काग़ज़ मौजूद आएं बाएं शाएं जो चाहें सो लिखें। कोई पूछने वाला नहीं अब हम इस जुंबिश में साबित करेंगे कि सिर्फ ख़ुदावन्द येसू अल-मसीह ही वो नबी है जो मूसा की मानिंद है। ख़ुदावन्द अपने फ़ज़्ल से तो हमारे मुहम्मदी भाईयों को अरबी वहशत से निकाल कर अपनी सच्ची दानाई इनायत कर और उनकी आँखों को खौल ताकि वो ख़ुदा के प्यारे बेटे मसीह मस्लूब को अपना माबूद मस्जूद (ख़ुदा, जिसे सज्दा करें) जान कर सज्दा करें। आमीन।

जो कलाम की तहक़ीर करता है

सुलेमान का ये क़ौल ना सिर्फ हर फ़र्द बशर के हाल पर सादिक़ (सच्च) आता है। बल्कि क़ौमों का बढ़ना और घटना इस सदाक़त (सच्चाई) पर मबनी है। ना सिर्फ वो इन्सान जो कलामे इलाही की तहक़ीर करता है, और उस पर अमल नहीं करता बर्बाद होता है। बल्कि हर एक क़ौम और हर एक बादशाहत का उरूज (बुलंदी) और ज़िल्लत (रुस्वाई)

Those who despise the word of God

जो कलाम की तहक़ीर करता है

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Sep 6, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 6 सितंबर 1895 ई॰

जो कलाम की तहक़ीर (हक़ीर जानना) करता है हलाक किया जाएगा। पर जो हुक्म से डरता है उस की ख़ैरीयत होगी।

अम्साल 13:13 आयत।

सुलेमान का ये क़ौल ना सिर्फ हर फ़र्द बशर के हाल पर सादिक़ (सच्च) आता है। बल्कि क़ौमों का बढ़ना और घटना इस सदाक़त (सच्चाई) पर मबनी है। ना सिर्फ वो इन्सान जो कलामे इलाही की तहक़ीर करता है, और उस पर अमल नहीं करता बर्बाद होता है। बल्कि हर एक क़ौम और हर एक बादशाहत का उरूज (बुलंदी) और ज़िल्लत (रुस्वाई) उसी क़द्र वक़ूअ (वाक़्य) में आती है, जिस क़द्र वो क़ौम या बादशाहत ख़ुदा के कलाम की इज़्ज़त या हिक़ारत (कमतर समझना) करती है। जिस मुल्क या जिस क़ौम में बाइबल की ताअलीम हिक़ारत की नज़र से देखी जाती है। और इस पर अमल दरआमद नहीं होता उस मुल्क या उस क़ौम की तारीख़ के हर सफ़ा पर ज़ुल्म और किशत व ख़ून (ख़ूँरेज़ी) और हर एक तरह की बे एतिदालीयाँ (ना इंसाफ़ीयाँ) दिल की दुखाने वालियाँ पाई जाती हैं।

इस के बरअक्स जिस मुल्क या जिस क़ौम ने बाइबल की ताअलीम की क़द्र की और इस पर अमल करने की कोशिश की तो इस जगह इक़बालमंदी (ख़ुशनसीबी) और आज़ादगी के नुमायां आसार पाए जाते हैं। दूर क्यों जाते हो। हिन्दुस्तान की मौजूदा हालत को गुज़श्ता हालत से ज़रा तो मुक़ाबला कर के देखो। किस क़द्र आपको ऊपर के क़ौल की सदाक़त साबित होती नज़र आएगी। देखिए आज़ादगी किस तरह जगह जगह फूटती और कलियाँ निकालती है। जब कि और मुल्कों में ये आज़ादी लोग अपना ख़ून बहा-बहा कर हासिल नहीं कर सकते। मज़ालिम आरमीनीया इस अम्र की एक उम्दा नज़ीर (मिसाल) है।

इस में तो ज़रा शक नहीं कि लोग ये मान लेते हैं और कहते भी हैं। कि अंग्रेज़ी सल्तनत से हमको बहुत ही फ़ायदे पहुंचे हैं। मगर इस अम्र को क़ुबूल करने से ताम्मुल (सोचना) करते कि इस का बाइस क्या है वो कौन सी ताक़त है, कि जिससे ये खूबियां निकलती हैं। जवाब इस का सिवाए इस के और क्या हो सकता है कि ये बाइबल ही है जो हमको ऐसे बेश-बहा फ़ायदे पहुंचा रही है। और ये सख़्त नाशुक्री है कि हम इस की हिक़ारत करते हैं। दुनिया में अक्सर ये देखा जाता है कि इंसान अपने मुरब्बी (सरपरस्त) की परवाह नहीं करता जब वो इस नेअमत को हासिल कर लेता है। जो इस को उस के मुरब्बी के वसीले मिली कीना पनी (दुश्मनी रखना) और नाशुक्री के निशानात हैं। ऐसा ही वो जो बाइबल की रोशनी से मुस्तफ़ीद (फ़ायदा हासिल करना) हो कर बाइबल को नहीं मानते और इस की क़द्र नहीं करते अपने दिल की नाशुक्री को ज़ाहिर करते हैं।

अम्र तहक़ीक़ी

अक्सर मसीही मुनादों से ग़ैर-मज़्हबों के साइल (सवाल करने वाले) ऐसे सवालात करते हैं, कि जिनके जवाब देने में दरबारा मसाइल दीन के वो ख़ुद आजिज़ व परेशान हैं। क्योंकि दीनी ख़्वाह दुनियावी तवारीख़ के गुज़श्ता वाक़ियात को साबित करने ख़्वाह इस से कोई माक़ूल (मुनासिब) नतीजा निकालने के लिए एक अहले मज़्हब के

A thing to do Research

अम्र तहक़ीक़ी

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Aug 23, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 23 अगस्त 1895 ई॰

 अक्सर मसीही मुनादों से ग़ैर-मज़्हबों के साइल (सवाल करने वाले) ऐसे सवालात करते हैं, कि जिनके जवाब देने में दरबारा मसाइल दीन के वो ख़ुद आजिज़ व परेशान हैं। क्योंकि दीनी ख़्वाह दुनियावी तवारीख़ के गुज़श्ता वाक़ियात को साबित करने ख़्वाह इस से कोई माक़ूल (मुनासिब) नतीजा निकालने के लिए एक अहले मज़्हब के हाथ में उनकी मुक़द्दस किताब के वर्क़ों के सिवा अम्र ज़ेरे बह्स को सनद या ग़ैर-सनद मान लेने के लिए ज़ाहिरन कोई और चीज़ ज़्यादा क़ाबिले एतबार नहीं है। चह जायके हमारी इल्हामी किताब इन्जील की बाबत ख़ासकर अहले-इस्लाम हमसे तो बावजूद तस्लीम करने क़ुरआनी सनद के “कि इन्जील में हिदायत व नूर है” उन के किसी सवाल को इन्जील से जवाब देने पर नाक चढ़ाते हैं। और ख़ुद बरअक्स इस के अपनी दीनी बातों को बे सर व पा (बे-बुनियाद, ग़लत) क़िस्से कहानीयों से गोया साबित कर के फूले नहीं समाते।

इसलिए मैंने अपनी स्टडी के वक़्त से कुछ गुंजाइश कर के एक और तहक़ीक़ पर मह्ज़ क़ुरआन व इन्जील से सनद मान कर ग़ौर की है और बेतास्सुब (बेजा हिमायत) व दूर अंदेश (अक़्लमंद, दाना) व दक़ीक़ा शनास (होशियार, बारीक बीन) साहिबान की नज़र इन्साफ़ के सामने इसे पेश किया है।

जिससे सच्च सच्च व झूट झूट बज़ाता मह्ज़ इन्जील व क़ुरआन के मज़ामीन से साफ़-साफ़ ज़ाहिर व हुवेदा (वाज़ेह) हैं।

वहू हज़ा, (और वो ये है और वो यूं है)

ख़ुदा के पैग़ाम रसानों की हिक़ारत (नफ़रत, बेइज़्ज़ती) व ज़िल्लत व मुर्सल व अम्बिया (रसूल, पैग़म्बर, नबी) की ज़िद व कोब (मार पीट) व क़त्ल का वहां वालों की तरफ़ से जिनके पास वो भेजे गए वक़ूअ (ज़ाहिर) में आना ना सिर्फ इन्जील ही में बयान हुआ है। बल्कि मुतकल्लिम (बात करने वाला, कलाम करने वाला) कलामे क़ुरआन ने मुख़ालिफ़ों के क़ौल व फ़ेअल से ईज़ा (दुख, तक्लीफ़) पहुंचने को मुहम्मद साहब व ख़ुद कलामे क़ुरआन के हक़ में अपनी सदाक़त (सच्चाई) बयानी का एतबार जिस्मानी की ग़र्ज़ से बार-बार व फ़ख़्रिया ज़ाहिर किया है। और ऐसे बयान से अपने हक़ में ये फ़ायदा मुरत्तिब (तर्तीब देने वाला) समझा है कि मुहम्मद साहब भी गोया मिस्ल अम्बिया साबिक़ीन सताए गए। और लोगों से दुख उठाने के मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हुए हैं। लेकिन इस पहलू पर नज़र नहीं की कि मह्ज़ दुख उठाना ही हक़ीक़त की दलील (गवाही) नहीं है। बल्कि भला कर के दुख उठाने से बरकत मिलती है ना कि ईज़ा रसानी (तशद्दुद) के एवज़ ईज़ा सहना बरकत का बाइस हो सकता है।

और नीज़ वो बयान जो मह्ज़ क़ुरआन के ज़िमन (अंदर, ताल्लुक़) या क़ुरआन के मुख़ालिफ़ों व ग़ैर-मुख़ालिफ़ों की तरफ़ से मुहम्मद साहब व क़ुरआन के हक़ में क़ुरआन ही से हुआ है उस से इस बात का कि मुहम्मद साहब हक़ पर थे या क़ुरआनी कलाम हक़ था और मुख़ालिफ़ लोग नाहक़ कहते थे ज़रा भी ईमा (इशारा) पाया नहीं जाता गो कि क़ुरआन ने उन के मुख़ालिफ़ाना कलाम की तरह ब तरह तर्दीद (रद्द करना) की है। और जिन्नों का क़ुरआन पर ईमान लाना बतलाया है बरअक्स इस के येसू अल-मसीह व उस के कलाम की निस्बत जो कुछ मुख़ालिफ़ों वग़ैरह मुख़ालिफ़ों ने ब कलिमात हिक़ारत (कमतर समझना) या ठट्ठे (मज़ाक़) के तौर पर वग़ैरह कहा है ख़ुद ज़िमन (ज़ेल, अंदर) इन्जील व मुख़ालिफ़ों के बेसाख्ता (ग़ौर व फ़िक्र किए बग़ैर, ख़ुद बख़ुद) कलिमात से येसू मसीह की हक़ीक़त पर दाल (निशान, दलील) है। और उस से तम्सख़र व हिक़ारत (मज़ाक़ व ज़िल्लत) के बावजूद और उस के साथ है मसीह की आला सदाक़तें व हक़ीक़तें मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) होती हैं। जिससे उस का ना सिर्फ भला कर के दुख उठाना ज़ाहिर होता है। बल्कि नज़र बर पहलू हक़ीक़त वाक़ई के मुख़ालिफ़ाना बेसाख्ता कलिमात से शहादत (गवाही) बरहक़ अयाँ (वाज़ेह) होती है।

लिहाज़ा हवालेजात ज़ेल पर रास्ती पसंद साहिबान ग़ौर करें और राह व हक़ व ज़िन्दगी की पहचान हासिल कर के उस पर जो हक़ है ईमान लाएं। और नाहक़ को छोड़ दें। आमीन

क़ुरआन से

जब मुहम्मद को देखते हैं ठट्ठा ही करते हैं। सूरह फुर्क़ान आयत 43

मुहम्मद कोई नई बात नहीं लाया। सूरह मोमिनून आयत 7, मुहम्मद को कोई आदमी क़ुरआन सिखलाता है। सूरह नहल 105

मुहम्मद मुअल्लिम दीवाना है (यानी ताअलीम-याफ़्ता दीवाना) दुख़ान 13

लोग मुहम्मद की निस्बत हवादिस-ए-ज़माना की इंतिज़ार कर रहे थे। सूरह तूर आयत 30

अगर मुहम्मद अज़ ख़ुद क़ुरआन बना लाता तो ख़ुदा उस की गर्दन काट डालता। सूरह हाक़्क़ा आयत 43 से 49 तक।

मुहम्मद पाक किताबें पढ़ा करता है। बय्यिना 2

क़ुरआन

तबूक की राह पर मुजाहिदीन क़ुरआन पर हंसते थे। तौबा 66, 67, इजलास का क़ौल क़ुरआन की निस्बत तौबा 57 से 67

किस का ईमान बढ़ा। तौबा 125, 128

कहानियां हैं। नहल 26

ठट्ठा सूरह निसा, आयत 139

क्यों कोई आयत नहीं बनाई? आराफ़ 202

इन्जील

येसू मसीह

1. वो भीड़ उस की ताअलीम से दंग (हैरान) हुई। क्योंकि वो फ़क़ीहियों की मानिंद नहीं बल्कि इख़्तियार वाले के तौर पर सिखलाता था। मत्ती 7:29

2. प्यादों ने जवाब दिया कि हरगिज़ किसी शख़्स ने इस आदमी की मानिंद कलाम नहीं किया। यूहन्ना 7:46

3. जब उन जमाअतों ने देखा कि गूँगे बोलते और टुंडे तंदुरुस्त होते लंगड़े चलते और अंधे देखते तो ताज्जुब किया और इस्राईल के ख़ुदावन्द की सताइश की। मत्ती 15:31

4. निहायत हैरान हो के कहा कि उसने सब कुछ अच्छा किया कि बहरों को सुनने की और गूंगों को बोलने की ताक़त देता है। मर्क़ुस 7:37

5. कलिमात-ए-हिक़ारत (हक़ीर जानना) जिससे आला हक़ीक़त की शहादत (गवाही) मिलती है यानी गुनेहगारों का यार। मत्ती 11:19

6. लोग ताज्जुब (हैरत) कर के कहने लगे कि ये किस तरह का आदमी है कि हवा और दरिया भी इस की मानते हैं। मत्ती 8:27

7. तब लोगों ने ये देखकर ताज्जुब किया और ख़ुदा की तारीफ़ करने लगे कि ऐसी क़ुद्रत इंसान को बख़्शी। मत्ती 8:8

8. उन्होंने जो कश्ती पर थे आ के उसे सज्दा कर के कहा तू सच-मुच ख़ुदा का बेटा है। मत्ती 14:33

अल-रक़म

मीर आलम ख़ान तालिबे इल्म डिविनिटी स्कूल लाहौर