मसीह गुनेहगारों का कफ़्फ़ारा

मसीह के कफ़्फ़ारा होने का ज़िक्र इन्जील में बहुत जगह है। चुनान्चे मिन-जुम्ला इस की चंद आयतें बयान की जाती हैं इफ़िसियों का ख़त 5 बाब 2, आयत जिसमें पौलूस रसूल यूं लिखता है तुम मुहब्बत से चलो जैसा मसीह ने हमसे मुहब्बत की। और ख़ुशबू के लिए हमारे एवज़ में अपने तईं ख़ुदा के आगे नज़र और क़ुर्बान किया।

The Christ Atonement of Sinners

मसीह गुनेहगारों का कफ़्फ़ारा

By

Kidarnath
केदारनाथद

Published in Nur-i-Afshan Nov 6-12, 1873

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 6 ता 12 नवम्बर 1873 ई॰

पर्चा हाय गुज़श्ता अख़्बार में मसीह की उलूहियत और इंसानियत का बयान हुआ। अब उस के कफ़्फ़ारे होने का सबूत पेश किया जाता है।

1. नबियों के कलाम में मसीह जाबजा कफ़्फ़ारे के तौर पर बयान हुआ है। ख़ासकर यसअयाह नबी की किताब में देखो 53 बाब और इस की 4, 5, 6, 8, आयत इस में यूं बयान है, “यक़ीनन उस ने यानी मसीह ने हमारी मशक्क़तें उठालीं। और हमारे ग़मों का बोझ अपने ऊपर चढ़ाया। पर हमने उस का ये हाल समझा, कि वो ख़ुदा का मारा कूटा और सताया हुआ है। पर वो हमारे गुनाहों के सबब घायल (ज़ख़्मी) किया गया। और हमारी बदकारियों के सबब कुचला गया। हमारी ही सलामती के लिए उस पर सियासत हुई। ताकि उस के मार खाने से हम चंगे हों। हम सब भेड़ों की मानिंद भटक गए और हम में से हर एक अपनी राह से फिरा और ख़ुदावन्द ने हम सभों की बदकारी उस पर लादी एज़ाओं के और उस पर हुक्म कर के वो उसे ले गए। पर कौन उस के ज़माने का बयान करेगा कि वो जिन्दों की ज़मीन से काट डाला गया। मेरे गिरोह के गुनाहों के सबब उस को मार पड़ी। उस की क़ब्र भी शरीरों के दर्मियान ठहराई गई थी। पर अपने मरने के बाद दौलतमंदों के साथ वो हुआ क्योंकि उस ने किसी तरह का ज़ुल्म ना किया। और उस के मुँह में किसी तरह का छल फ़रेब, धोका ना था। लेकिन ख़ुदावन्द को पसंद आया कि उसे कुचले उस ने उसे ग़मगीं किया। जब उस की जान गुनाह के लिए गुज़रानी जाये तो वो अपनी नस्ल को देखेगा और उस की उम्र दराज़ होगी। और ख़ुदा की मर्ज़ी उस के हाथ के वसीले बर आएगी अपनी जान ही का दुख उठा के वो उसे देखेगा और सैर होगा। अपनी ही पहचान से मेरा सादिक़ (सच्चा) बंदा बहुतों को रास्तबाज़ ठहराएगा। क्योंकि वो उनकी बदकारीयाँ अपने ऊपर उठा लेगा।

और दानीएल नबी 6 बाब में पैदाइश मसीह से चार सौ नव्वे (490) बरस पेश्तर यूं कहता है कि, बदकारी की बाबत कफ़्फ़ारा (गुनाह धो देने वाला) किया जाएगा और मसीह क़त्ल किया जाएगा पर ना अपने लिए।

मसीह के कफ़्फ़ारा होने का ज़िक्र इन्जील में बहुत जगह है। चुनान्चे मिन-जुम्ला इस की चंद आयतें बयान की जाती हैं इफ़िसियों का ख़त 5 बाब 2, आयत जिसमें पौलूस रसूल यूं लिखता है तुम मुहब्बत से चलो जैसा मसीह ने हमसे मुहब्बत की। और ख़ुशबू के लिए हमारे एवज़ में अपने तईं ख़ुदा के आगे नज़र और क़ुर्बान किया। पहला कुरिन्थियों का ख़त 5 बाब 3 आयत, मसीह हमारे गुनाहों के वास्ते मुआ। 1 पतरस दूसरा बाब 24 आयत, वो यानी मसीह आप हमारे गुनाहों को अपने बदन पर उठा के सलीब पर चढ़ गया। ताकि हम गुनाहों के हक़ में मर के रास्तबाज़ी में चलें। उन कोड़ों के सबब जो उस पर पड़े तुम चंगे हुए। पहला ख़त यूहन्ना 2 बाब 2 आयत। और वो यानी मसीह हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा है पर फ़क़त हमारे गुनाहों का नहीं बल्कि तमाम दुनिया के गुनाहों का भी। 2 कुरिन्थियों का ख़त 5 बाब 21, आयत उस ने यानी ख़ुदा ने उस को जो गुनाह से नावाक़िफ़ था। हमारे बदले गुनाह ठहराया ताकि हम उस में शामिल हो के इलाही रास्तबाज़ी ठहरें। रोमीयों का ख़त 5 बाब 10, आयत ख़ुदा ने अपने बेटे की मौत के सबब हमसे मेल किया। मुकाशफ़ात 5 बाब 9 आयत, तूने अपने लहू से हमको हर एक फ़िर्क़ा और अहले ज़बान और उम्मत और क़ौम में से मोल लिया।

और ख़ुदावन्द येसू मसीह ख़ुद फ़रमाता है, कि मैं अपनी जान अपनी भेड़ों के लिए देता हूँ बाप मुझे इसलिए प्यार करता है, कि मैं अपनी जान देता हूँ। ताकि मैं उसे फिर लूँ कोई शख़्स उसे मुझसे नहीं लेता पर मैं उसे आप देता हूँ। मेरा इख़्तियार है कि उसे दूँ। और मेरा इख़्तियार है कि उसे फिर लूं ये हुक्म मैंने बाप से पाया है। इस तरह बाइबल में जाबजा ज़िक्र है कि मसीह गुनाह का कफ़्फ़ारा है।

मैं ताज्जुब करता हूँ कि बावस्फ़ (सलीक़ा) इस के मलक शाह साहब किस तरह से फ़र्माते हैं कि बाइबल से मसीह का कफ़्फ़ारा होना साबित नहीं होता।

हर एक शख़्स इन आयतों से मालूम कर सकता है कि बाइबल से मसीह का कफ़्फ़ारा होना साबित है और नीज़ इन आयतों की किसी और तरह तफ़्सीर नहीं हो सकती जिससे इस के ख़िलाफ़ ख़याल दौड़ सके। इसलिए मुनासिब है कि मलिक शाह साहब इन पर ग़ौर फ़र्मा कर ये इल्ज़ाम ईसाईयों पर से उठालें, कि बाइबल से मसीह का कफ़्फ़ारा होना साबित नहीं।

मलिक शाह साहब के वास्ते तो इतने दलाईल (सबूत) काफ़ी हैं। लेकिन इसलिए कि और लोगों को कफ़्फ़ारा के माने और ख़ासियत मालूम नहीं, मैं इस की निस्बत बयान करता हूँ। और चंद और दलाईल देता हूँ मसीह के कफ़्फ़ारा के माने और ख़ासियत समझने के लिए पहले इन बातों पर ग़ौर करना वाजिब है जिनका ज़िक्र ज़ेल में किया जाता है।

1. सारे इंसान गुनेहगार हैं कोई रास्तबाज़ (सच्चा, ईमानदार) नहीं एक भी नहीं सब गुमराह (बेदीन बिद्अती, मुतकब्बिर) हैं कोई नेकोकार नहीं एक भी नहीं। इस कलाम में महल इंसान शामिल हैं अदना फ़क़ीर अमीर पीर पैग़म्बर नबी मुर्सल ग़र्ज़ कि ये कलाम हर फ़र्दे बशर पर मुहीत (घेरा) है।

और याद रहे कि गुनाह दो क़िस्म के हैं एक अमली दूसरा ख़्याली अमली गुनाह तो वो हैं जो ज़ाहिरी अमल और काम व काज में होते हैं। और जिसको हर एक इंसान देख सकता है। और ख़्याली वो हैं जो सिर्फ ख़याल से ताल्लुक़ रखते हैं। और सिर्फ इंसान के दिल में वसवसा (अंदेशा, डर, शक) अंदाज़ होते हैं जैसा कि लालच, ग़ुस्सा, तमअ (हिर्स, ख़्वाहिश) ख़यालात, फ़ासिद (नाक़िस, बर्बाद, तबाह) और दीगर उमूरात मज़मूम (बुरा, ख़राब) मालूम रहे कि ख़ुदा दिल और गुर्दों का जांचने वाला है। और उस के सामने ख़्याली गुनाह भी वैसा ही है जैसा कि अमली। और ये दोनों उस के हुज़ूर हम पल्ला (बराबर हैं। अगर अनुमानों को इन्सान मद्द-ए-नज़र रखे तो किसी को इस से या राय इन्कार नहीं। कि कोई शख़्स गुनाह से बुरी है क्योंकि अगर ज़ाहिरी गुनाह से अहितराज़ (परहेज़। किनारा-कशी भी किया जाये। ताहम ऐसा कोई फ़र्दे बशर नहीं जो ख़्याली गुनाह से बच जाये। पस इन्जील का वो कलाम कि सारे इंसान गुनेहगार हैं ऐन सच्च है।

2. ख़ुदा हमारा ख़ालिक़ मालिक और परवरदिगार है। उसने हमें बनाया और पैदा किया और जो कुछ हमारे पास है वो उस का है। इस वास्ते हम पर फ़र्ज़ है कि हम उस की बंदगी और फ़रमांबर्दारी करें। और उस की ताबेदारी बजा लाएं। और उस से दिल व जान से मुहब्बत रखें। और उस की मर्ज़ी पूरा करने के लिए कोशिश करें। अगर हम ये फ़र्ज़ अदा ना करें तो हम उस के क़सूरवार और गुनेहगार और फ़र्ज़ के क़र्ज़दार ठहरते हैं। और सज़ा के लायक़ होते हैं इस वास्ते हर एक गुनेहगार उस के हुज़ूर फ़र्ज़ और फ़रमांबर्दारी का देनदार है और सज़ा का सज़ावार है।

3. ये फ़र्ज़ का दीन इंसान तौबा के वसीले से अदा नहीं कर सकता। क्योंकि तौबा हमारी तरफ़ से ख़ुदा की तरफ़ वाजिब है। अगर वाजिब को अदा करें तो पिछ्ला देन साक़ित (निकम्मा, गिरा हुआ, मुस्तर्द) नहीं होता तो ये पिछली चीज़ों पर असर नहीं कर सकती। ये सिर्फ़ आइन्दा से ताल्लुक़ रखती है मसलन एक कर्ज़दार क़र्ज़ उठाने से तौबा करे। और आइंदा बल्कि क़ायम रहता है। हाँ आइंदा[1] को वो इस बोझ से सबकदोश (जिस पर कोई बोझ हो) रहता है। ऐसा ही अगर कोई शख़्स बेवक़ूफ़ी से अपने किसी अज़्व (बदन का टुकड़ा, जिस्म) को काट डाले और आइंदा को ऐसे काम करने से तौबा करे। और एहतियात अमल में लाए। तो इस तोहम करने से वो उस का उज़ू दुरुस्त नहीं हो जाएगा। गो आइंदा को उस के दूसरे उज़ू सलामत और महफ़ूज़ रहें। इसी तरह इंसान गुनेहगार जब अपने गुनाहों से पशेमान (शर्मिंदा) हो के तौबा करता है। और गुनाहों से परहेज़ और कफ़्फ़ारा करके ख़ुदा की तरफ़ मुतवज्जोह होता है, तो इस से उस के गुनाह साबिक़ा ज़ाइल (दूर, कम) नहीं हो जाते। हाँ उस की तौबा का असर उस की आइंदा ज़िंदगी पर ज़रूर पहुंचता है उस के साबिक़ा गुनाहों की माफ़ी के लिए कोई और तरीक़ या कोई और वसीला ज़रूर है लेकिन तौबा ईलाज नाकारा है।

4. एक और सबब है जिससे साबित होता है कि गुनाह तौबा से माफ़ नहीं हो सकता। वो ये है कि ख़ुदा आदिल (इन्साफ़) करने वाला और मुंसिफ़ है। और उस की अदालत उस के हर एक काम में ज़ाहिर होती है अदालत उस की ज़ात का एक हिस्सा है और इस के बग़ैर वो कुछ नहीं कर सकता। और हर एक अम्र (काम, फ़ेअल) में उस को मल्हूज़ (ख़याल, लिहाज़ रखना) रखता है। अदालत इस अम्र की मुक़तज़ी (ख़याल, तक़ाज़ा करने वाला) है, कि हर एक गुनेहगार गुनाह के एवज़ में सज़ा पाए। और हर एक ख़ता (ग़लती) और ग़फ़लत (लापरवाही) के एवज़ में इस पर सज़ा का फ़त्वा सादिर (नाफ़िज़) किया जाये। और वो किसी शख़्स को बरी ज़िम्मा नहीं करते, जब तक कि वो फ़रमांबर्दारी और इताअत (जो उस पर वाजिब है) ख़ुदा की तरफ़ अदा ना हुई हो अलबत्ता ये ज़रूर है कि ख़ुदा बड़ा रहीम है और रहीमी की सिफ़त उस में मौजूद है। लेकिन ये रहम उस का अदल (इन्साफ़, बराबरी) के साथ मिला हुआ है। और जब तक उस की अदालत का हक़ पूरा ना हो तब तक वो रहम गुनेहगारों की बख़्शिश और नजात में ज़ाहिर नहीं होता। पस फिर क्योंकर तौबा गुनाहों की माफ़ी का वसीला हो सकती है।

5. बसूरत हाय मस्बूक़-उल-ज़िक्र यानी जब कि ख़ुदा की बंदगी और फ़रमांबर्दारी और उस के अहकाम और शरीअत की इताअत हम पर[2] फ़र्ज़ और वाजिब (लाज़िमी) है। और हम बाखल्क़त गुनेहगार और मुसीबत परवरदह हैं। और किसी सूरत से हम उस के फ़र्ज़ को अदा नहीं कर सकते। और तौबा हमारी नजात का वसीला नहीं हो सकती और ना हमारे पिछले गुनाहों को मादूम (मिटाया गया, फ़ना) कर सकती है। और उस की अदालत हमारी निस्बत सज़ा का फ़त्वा सादिर (नाफ़िज़) करती है। और हमारे लिए कोई सूरत बरतीत की नहीं। और हम निहायत नाउम्मीदी और यास की हालत में हैं। तो ज़रूर था कि कोई और तरीक़ा हमारी नजात का होता जिससे ख़ुदा का रहम भी ज़ाहिर होता और उस का अदल (इन्साफ़) भी क़ायम और बरक़रार रहता।

पस ख़ुदा ने ऐसे बेहद रहम को काम में लाकर अपनी लातादाद हिक्मत से हमारे लिए एक तरीक़ा नजात का निकाला। जिससे उस की अदालत में भी कुछ फ़र्क़ नहीं आया वो ये है, कि ख़ुदावन्द येसू मसीह को जो इब्ने-अल्लाह था इस दुनिया में भेजा और इस ने पैराये इंसानियत में आकर 33 बरस तक दुनिया में ज़िंदगानी बसर की और आख़िर को उस ने गुनेहगारों का ज़ामिन बन के और उन के एवज़ में आप सज़ा उठा के ख़ुदा की शरीअत को पूरा किया और सारा हक़ उस की अदालत का पहुंचाया। यानी वो पूरी और कामिल फ़रमांबर्दारी जो इंसान पर ख़ुदा की तरफ़ वाजिब (लाज़िमी) थी। येसू मसीह ने इंसान का ज़ामिन (ज़मानत देने वाला) हो कर पूरी की। और आख़िरश (अंजाम-कार) उस ने अपनी जान इंसान के एवज़ में सलीब पर दी। और आप बेगुनाह हो कर उस ने गुनेहगारों की सज़ा अपने सर उठाई।

और यही अम्र यानी येसू का इंसान के एवज़ में ख़ुदा की फ़रमांबर्दारी उठाना और गुनाह की सज़ा का अपने ऊपर बर्दाश्त करना कफ़्फ़ारा कहलाता है जो शख़्स इस कफ़्फ़ारे पर ईमान लाता है वो गुनाह की सज़ा से बच जाता है। क्योंकि वो सज़ा और सियासत जो उस पर लाज़िम थी उस ने पूरी की।

अब अदालत भी बरक़रार रही। और उस का रहम भी बाज़हूर (ज़ाहिर होना) आ गया। और इंसान को नजात की उम्मीद हो गई। यही एक तरीक़ा नजात का है जिसका ज़िक्र ऊपर हुआ और जो इन्जील से ज़ाहिर है।

अब वाज़ेह राय ज़रीन नाज़रीन हो कि इस तरीक़ा नजात यानी कफ़्फ़ारे पर दो एतराज़ लाज़िम आते हैं :-

(अव़्वल ये) कि एक आदमी की मौत से किस तरह बहुतों की माफ़ी हो सकती है। ख़ुदावन्द येसू मसीह अकेला गुनेहगारों के एवज़ में सलीबी मौत उठा कर कफ़्फ़ारा हुआ। इस एक कफ़्फ़ारे से सारी दुनिया की नजात किस तरह हो सकती है एक आदमी के एवज़ में एक ही बच सकता है ना कि कुल दुनिया।

इस का जवाब ये है, कि ख़ुदावन्द येसू मसीह आम इंसानों के मुवाफ़िक़ इंसान नहीं था। बल्कि उस में उलूहियत थी यानी ज़ात व सिफ़ात ख़ुदा के मौजूद थी। और इस उलूहियत के सबब जो कुछ काम व काज उस ने जामा इंसानी में किया। उस में उलूहियत का असर पहुंचा और उस के दर्जा और सिफ़त ने इस में तास्सुर किया। इसलिए जब मसीह ने इंसान के एवज़ में फ़रमांबर्दारी और मौत उठाई। तब उस के अहकाम में भी दर्जा उलूहियत का पहुंचा। इसलिए मसीह की रास्तबाज़ी बेहद रास्तबाज़ी थी। उस की मौत का असर भी बेहद है वो पूरा और कामिल और बे नुक़्स और सबसे बढ़कर इन्सान था या ये कहें कि वो एक बड़ी क़द्र व मंजिलत का इंसान था। और उस में उलूहियत भी मौजूद थी। इसलिए उस की जान गिरामी सारी दुनिया का कफ़्फ़ारा हो सकती है। और उस की एक जान तमाम जहान के एवज़ काफ़ी ख़याल की जा सकती है बल्कि मेरी राय तो ये है कि उस की क़ीमत इस से भी बढ़कर है क्योंकि उस का मर्तबा बेहद है।

(दूसरा एतराज़) इस बयान से बेइंसाफ़ी ज़ाहिर होती है कि गुनाह और इंसानों ने किया और सज़ा मसीह ने उठाई इस से ख़ुदा का इन्साफ़ क़ायम नहीं रहता कि करे कोई और भरे कोई।

इस का पहला जवाब यूं है इस से ख़ुदा की बेइंसाफ़ी ज़ाहिर नहीं होती क्योंकि मसीह ने अपनी मर्ज़ी और अपनी ख़ुशी से ये सज़ा बओज़ गुनेहगारों के अपने ऊपर उठाई। देखो यूहन्ना की इन्जील जिसमें मसीह ख़ुदावन्द ख़ुद फ़रमाता है कि मैं अपनी जान भेड़ों के लिए देता हूँ मैं अपनी ख़ुशी से उसे देता हूँ कोई उसे मुझसे नहीं लेता मुझको इख़्तियार है, कि मैं उसे दूँ या फिर लूँ। वो आप इंसान पर रहम खा कर गुनेहगारों का ज़ामिन बना। और उन के एवज़ में उस ने ख़ुद गुनाह की सज़ा अपने सर पर उठाई इस हाल में क्योंकर ख़ुदा बे इन्साफ़ हो सकता है।

(2) जवाब ये हो सकता है कि एक के एवज़ में दूसरा सज़ा का सज़ावार हो। देखो दुनिया का आम वतिरा (दस्तूर) है कि ज़ामिन अपने अस्ल मुजरिम के एवज़ में माख़ूज़ (अख़ज़ करना) किया जाता है। और ख़ुदा के इंतिज़ाम में तो ये आम है और उस की परवरदिगारी के काम में हम अक्सर देखते हैं, कि एक शख़्स दूसरे के एवज़ जिससे उस का कुछ ताल्लुक़ हो सज़ा उठाता है। देखो बाप हरामकारी करता है और उस की बीमारी का असर बेटे पर पहुंचता है और वो आतिशक (एक जिन्सी बीमारी) की बीमारी से मरता और जलता है। बाप बदकारी में अपने जिस्म को कमज़ोर करता है और इस का अज़ाब उस की नस्ल पर पड़ता है। देखो गुनाह-ए-आदम से बज़हुर आया उस के एवज़ में उस की तमाम नस्ल को बहिश्त से महरूम रखा गया। ताहम हम ख़ुदा को बे इन्साफ़ नहीं कह सकते। ये सब परवरदिगारी के इंतिज़ाम हैं इस में हम नुक़्स नहीं निकाल सकते। पस जब इस में नुक़्स नहीं निकाल सकते तो हम पर वाजिब है, कि हम नजात के काम में भी नुक़्स ना निकालें बल्कि हमें वाजिब है कि हम उस के मुताबिक़ परवरदिगारी के कामों को क़ुबूल लें।

फ़ुर्सत हुई तो आइंदा अख़्बार में मसीह के खातिमुन-न्नबीय्यीन होने की निस्बत बयान होगा।

 


[1] बमतबअ अमरीकन मिशन लुदियाना बएहतमाम पादरी वेरी साहब के छपा। अगर नक़द सौदा लेता रहता है तो उस से उस का पिछला क़र्ज़ जाता नहीं रहता। बाक़ी हफ्ता आइन्दा।

 

[2] खान पर बाबत खेवा के जुर्माना हुआ है जो 1993 तक अदा किया जाएगा।

वो नजात पाएं

नाज़रीन नूर अफ़्शां को मालूम हुआ, कि हम मसीहियों में ये दस्तूर-उल-अमल है। कि नए साल के शुरू में बमाह जनवरी एक हफ़्ता बराबर मुख़्तलिफ़ मक़ासिद व मुतालिब पर ख़ुदा से दुआ मांगें। मसलन अपने गुनाहों का इक़रार।” ख़ुदा की नेअमतों का शुक्रिया, रूहुल-क़ुद्दुस की भर पूरी, उस के कलाम के फैलाए जाने की ख़्वाहिश

They get salvation

वो नजात पाएं

By

Kidarnath
केदारनाथ

Published in Nur-i-Afshan Jan 25, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 25 जनवरी 1895 ई॰

पूरी आयत इस पर है, “ऐ भाईयो मेरी दिल की ख़्वाहिश। और ख़ुदा से मेरी दुआ इस्राईल की बाबत ये है, कि वो नजात पाएं।”

नाज़रीन नूर अफ़्शां को मालूम हुआ, कि हम मसीहियों में ये दस्तूर-उल-अमल है। कि नए साल के शुरू में बमाह जनवरी एक हफ़्ता बराबर मुख़्तलिफ़ मक़ासिद व मुतालिब पर ख़ुदा से दुआ मांगें। मसलन अपने गुनाहों का इक़रार।” ख़ुदा की नेअमतों का शुक्रिया, रूहुल-क़ुद्दुस की भर पूरी, उस के कलाम के फैलाए जाने की ख़्वाहिश, हाकिमों पर बरकत, हिंदू मुसलमानों की नजात वग़ैरह। इसी सिलसिले में ख़ुदा की बर्गुज़ीदा क़ौम बनी-इस्राईल के वास्ते भी दुआएं मांगी जाती हैं। चुनान्चे हमारे यहां फर्रुखाबाद के गिरजाघर में भी बतारीख़ दहुम (10) माह जनवरी 95 ई॰ यही क़रार पाया, कि यहूदीयों के वास्ते दुआ व मुनाजात की जाये। और तारीख़ मुन्दरिजा सदर के वास्ते बंदा क़रार पाया था। लिहाज़ा 4 बजे शाम को मुन्दरिजा उन्वान आयत पर कुछ थोड़ी देर तक बयान हुआ। और ख़त रोमीयों 9 बाब पढ़ा गया। इस बाब की पहली आयत से पढ़ते हुए 5वीं आयत के इस आख़िरी फ़िक़्रह पर, कि “जो सब का ख़ुदा हमेशा मुबारक है।” पहुंचा, तब बंदे को ख़याल हुआ, कि रसूल का इस फ़िक़्रह से क्या मतलब है। और ख़याल पैदा होने का सबब ये था, कि अर्सा से बअवकात मुख़्तलिफ़ एक रिसाला मौसूमा उलूहियत मसीह मअनवता व मोइलफ़ा मिस्टर अकबर मसीह मुख़्तार बांदा बंदा के ज़ेर-ए-नज़र रहता है। रिसाला मज़्कूर में भी सफ़ा 97 पर इसी फ़िक़्रह की बाबत कुछ बह्स है। चूँकि मुख़्तार साहब उलूहियत मसीह के मुन्किर हैं।

लिहाज़ा उन्हों ने अपने ख़याल की ताईद में पौलुस रसूल की अफ़्ज़ल-उल-तफ़सील दलील को, जो बनी-इस्राईल की फ़ज़ीलत और दुनिया की तमाम अक़्वाम पर साबित करती है। बह्स की सूरत में लाना अपना फ़र्ज़ समझा। आपकी मिसाल वही है जो एक हकीम से निकली है। कि जिसने बग़ैर पढ़े और ताअलीम हासिल कएचंद जोहला देहात (अनपढ़ देहाती) को धोखा दे रखा था। एक मर्तबा का ज़िक्र है। कि हकीम मौसूफ़ के पास एक ऐसा मरीज़ लाया गया। जिसकी दवा आपके ज़हन शरीफ़ में ना आ सकी। और ना मर्ज़ की तशख़ीस हो सकी। अब अगर कहते हैं कि और हकीम के पास जाओ। तो पेट का धंदा जाता है। बदनामी होती है। लोग कहेंगे कि पूरे हकीम नहीं हैं। पस कुछ सोच साच कर आएं, बाएं शाएं तीन पुड़ीयां ख़ाक धूल बला की बना कर मरीज़ के हवाले कीं। और फ़रमाया कि इन पुड़यों को इस्तिमाल करते हुए ऊंट का ख़याल ना करना। मतलब ये कि अगर मरीज़ ने कभी ऊंट देखा भी ना हो। तो भी जब इन पुड़यों के खाने का इरादा करेगा, फ़ौरन ऊंट का ख़याल पैदा होगा। ग़र्ज़ ये कि इन पुड़ीयों से मरीज़ को फ़ायदा ना हुआ। इसलिए कि मरीज़ ऊंट के ख़याल को अपने दिमाग़ से बाहर ना कर सका। यही सबब था कि बंदे को विर्द पढ़ते हुए भी मुख़्तार साहब की दलील ना भूली। बल्कि ख़ुद बख़ुद ख़याल सब आ मौजूद हुए। और अच्छा हुआ, कि ऐसे वक़्त में ख़याल पैदा हुआ। क्योंकि चंद सबबों का बयान करना ज़रूरी था। ताकि कुल शुरका इबादत के दिल इस बात पर मुतवज्जोह हो जाएं, कि क्यों बनी इस्राईल के वास्ते आज दुआ चाहीए।

बल्कि येसू मसीह पर ईमान लाने से रास्तबाज़ गिना जाता है

मिनजुम्ला उन अस्बाब के पहला सबब क़वी (मज़्बूत) ये है, कि वो इस्राईली हैं। और फ़र्ज़ंदी, और जलाल, और ईदें, और शरीअत, और इबादत की रस्में। और वाअदे उन्हीं के हैं। और दूसरा सबब ये है कि बाप दादे उन ही में से हैं। और तीसरा सबब ये है कि जिस्म की निस्बत मसीह भी उन में से हुआ। लेकिन इस तीसरे सबब पर हमको एतराज़ है। अगर जिस्म के मअनी कुछ और ना हों। इस वास्ते कि बाप दादे यानी अबराहाम, इज़्हाक़, याक़ूब वग़ैरह क्या जिस्म नहीं रखते थे? फिर मसीह को बाप दादों से अलैहदा कर के बयान करने में रसूल का क्या मतलब है। मुख़्तार साहब हमको समझा दें। आया वही मतलब है, जो क़ुरआन की सूरह इन्ना अंज़लना के इस फ़िक़्रह में है, “تَنَزَّلُالملايکتہ وَالرُّوح” (उतरते हैं फ़रिश्ते और रूह) अगर रूह से रूहुल-क़ुद्दुस ख़ुदा मुराद नहीं तो क्या है। अगर जिब्राईल का नाम रूह है। तो क्या जिब्राईल फ़रिश्ता नहीं है। और फ़रिश्तों के उतरने में जिब्राईल को उतरा हुआ नहीं समझेंगे। या इस का वो मतलब है, जो क़ुरआन की इन आयतों में है, “فَارَنسَلُناَاِلَيھٰارُوُحنا۔فنَفَخُنَافيھامِن روحِناٰ” (पस फूंक दी हमने उस की तरफ़ अपनी रूह में से) क्या यहां इन दोनों रूहों में कुछ मुग़ाइरत (ना मुवाफ़िक़त, अजनबीयत) है। या नहीं? अगर है तो क़ुरआन से ख़ुदा की रूह की शख़्सियत साबित हो गई। और अगर मुग़ाइरत नहीं है। तो क्या जिब्राईल ने जिब्राईल को फूंक दिया? ये कैसी बात है।

नाज़रीन नाराज़ ना हों। और ना कहें कि इन्जील से मसीह की बह्स में क़ुरआनी दलाईल। और ख़ासकर रूह-उल-क़ुद्दुस की उलूहियत का बयान पेश करना चेह माअनी? जनाब-ए-मन बेमाअनी नहीं, बल्कि ये दिखाना चाहा है, कि युनिटेरियन दलाईल मुहम्मदी दलाईल के सगे भाई हैं। जो वहां है सो यहां है। जो यहां है सो वहां है। लेकिन हमारे एतराज़ का जवाब ख़ुद पौलुस रसूल से हमको ये मिलता है, कि प्यारे भाई, अगरचे ख़ुदावंद मसीह जिस्म की निस्बत बाप दादों से कुछ भी मुग़ाइरत नहीं रखता। (और मेरे दूसरे सबब ही में ये तीसरा सबब भी मिल जाता है) पर तो भी ज़माना आइंदा में मसीह के मुख़ालिफ़ उठेंगे। और लोगों के दिलों में शुब्हा पैदा करेंगे। इस वास्ते मैंने तुमको साफ़ बता दिया, कि जिस्म की निस्बत मसीह भी उन ही में से हुआ। जो सब का ख़ुदा हमेशा मुबारक है। मतलब ये है कि मसीह ख़ुदावन्द जब मुजस्सम हुआ। तब ग़ैर-अक़्वाम में नहीं। बल्कि ख़ुदा की बर्गुज़ीदा क़ौम इस्राईल में। क्योंकि नजात यहूदीयों में से है। और अगर ज़्यादा इत्मीनान ख़ातिर मंज़ूर हो, तो मर्क़ुस की इन्जील में सरदार काहिन से दर्याफ़्त करो। वो तुम्हें बता देगा। क्योंकि 14:61 में सरदार काहिन ने उस से पूछा, कि क्या तो मसीह उस मुबारक का बेटा है? तब 62वीं आयत में येसू ने उस से कहा, मैं वही हूँ

मुख़्तार साहब अगर मसीह में उलूहियत ना थी। तो बाप दादों से बिला-वजह मौजा अलेहदा करना ख़लल-ए-दिमाग़ के सिवा और क्या हो सकता है?। लेकिन मुलहम शख़्स की बाबत ऐसा बदगुमान ना तो आप कर सकते हैं और ना मैं। फिर आपकी ये दलील कि “मुक़द्दस पौलुस ने किसी एक जगह भी मसीह के के हक़ में ये ख़िताब इस्तिमाल नहीं किया” इस का जवाब ये है कि इस आयत में इस्तिमाल किया है। अगर दूसरी जगह भी इन ही अल्फ़ाज़ को इस्तिमाल करता तब आप क्या कहते? और तीसरी जगह भी इस्तिमाल करता। और चौथी जगह भी इस्तिमाल करता तो आप क्या कहते? फिर आप ही तो कहते हैं कि बजिन्सा ये वही फ़िक़्रह है, जो रोमीयों 1-25 में है। और ख़ल्क़ की निस्बत लिखा है। वाह जनाब यही तो दलील है। कि ख़ुदा के कलाम में मसीह के हक़ में अक्सर ख़िताब पाए जाते हैं। जो ख़ुदा की निस्बत हैं। पस बावजूद उन सिफ़ात के जो ख़ुदा की मुअर्रिफ़ (तारीफ़ करने वाला) हैं। मसीह की उलुहिय्यत को रद्द करना किस क़ानून की रु से दुरुस्त है? अब आख़िरी फ़ैसला सुनीए। ख़ुदा बाप की उलुहियत के आप भी क़ाइल हैं। और रूहुल-क़ुद्दुस की उलुहियत क़ुरआन से ज़ाहिर हो चुकी है। और मसीह की उलुहियत इस अफ़्ज़ल-उल-तफ़सील दलील-ए-पौलुस से आपको दिखाई गई। बराहे मेहरबानी तस्लीस की फिर तन्क़ीह (तहक़ीक़) फ़रमाए। और अपने रिसाले का जवाब जल्द छपवाए।

मसीह पर ईमान लाने से रास्तबाज़ गिना जाता है

मसीही मज़्हब और दीगर मज़ाहिब दुनिया में ये एक निहायत अज़ीम फ़र्क़ है। कि वो गुनेहगार इन्सान की मख़लिसी व नजात और हुसूल-ए-क़ुर्बत (नज़दिकी) व रजामंदी इलाही को उस के आमाल हसना का अज्र व जज़ा नहीं ठहराता। बल्कि उस को सिर्फ इलाही फ़ज़्ल व बख़्शिश ज़ाहिर करता है। जबकि दीगर मज़ाहिब ताअलीम देते हैं,

Counted rightous by having faith in Jesus Christ

मसीह पर ईमान लाने से रास्तबाज़ गिना जाता है

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 11, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 11 जनवरी 1895 ई॰

हम जो पैदाइश से यहूदी हैं। और ग़ैर क़ौमों में से गुनेहगार नहीं। ये जान कर कि आदमी ना शरीअत के कामों से, बल्कि येसू मसीह पर ईमान लाने से रास्तबाज़ गिना जाता है। हम भी येसू मसीह पर ईमान लाए। ताकि मसीह पर ईमान लाने से, ना कि शरीअत के कामों से रास्तबाज़ गिने जाएं। क्योंकि कोई बशर शरीअत के कामों से रास्तबाज़ गिना ना जाएगा। ग़लतीयों 3:16, 15

मसीही मज़्हब और दीगर मज़ाहिब दुनिया में ये एक निहायत अज़ीम फ़र्क़ है। कि वो गुनेहगार इन्सान की मख़लिसी व नजात और हुसूल-ए-क़ुर्बत (नज़दिकी) व रजामंदी इलाही को उस के आमाल हसना का अज्र व जज़ा नहीं ठहराता। बल्कि उस को सिर्फ इलाही फ़ज़्ल व बख़्शिश ज़ाहिर करता है। जबकि दीगर मज़ाहिब ताअलीम देते हैं, कि पहले काम और बाद इनाम। मसीही मज़्हब ताअलीम देता है, कि पहले इनाम और बाद काम। ये ताअलीम गुनेहगार लाचार व ख़्वार इन्सान के लिए, जिसमें नेक काम करने की ताक़त मुर्दा। और क़वाए नफ़्सानी व जिस्मानी ज़िंदा ज़ोर-आवर हैं, कि “तू पहले नेक काम कर तो नजात पाएगा।” कैसी ना-मुम्किन-उल-तामील और सख़्त व ना गवार मालूम होती है। क्या कोई तबीब हाज़िक़ (माहिर डाक्टर) किसी मरीज़ को जो अर्सा-ए-दराज़ से एक मर्ज़ इजानिस्तां (जान को सताने वाला रोग) में मुब्तला रह कर यहां तक नहीफ़ व नातवां (कमज़ोर व लाचार) हो गया हो। कि वो उठने बैठने और चलने फिरने के बिल्कुल ना क़ाबिल हो। क़ब्ल सेहत ये हुक्म दे सकता, कि तो चहलक़दमी किया कर। और तुर्श व बादी अग़्ज़िया (ग़िज़ा की जमा) से मुहतरिज़ (परहेज़ करना) रह? पस वो मज़्हबी हादी व मुअल्लिम जो अपने पैरौओं को, जो मुहताज-ए-नजात हैं। ये ताअलीम देता है कि अगर तुम नेक काम करो तो आख़िर को नजात पाओगे।

उसी तबीब की मानिंद हैं जो मरीज़ को क़ब्ल शिफ़ा याबी हुसूल-ए-ताक़त व तवानाई के लिए चहलक़दमी करने, और तंदुरुस्त रहने के लिए ना-मुवाफ़िक़ व सक़ील अग़्ज़िया (ठोस ग़िज़ा) से परहेज़ करने की सलाह देता है। इस में शक नहीं, कि वो जो बज़रीया-ए-आमाल हुसूल-ए-नजात की ताअलीम देते और जो ऐसी ताअलीम को पसंद और क़ुबूल करते हैं इन्सान की दिली ख़राब हालत। और पैदाइशी बिगड़ी हुई तबइयत से बिल्कुल नावाक़िफ़ और मह्ज़ ना-आश्ना हैं। मगर ये भी सच्च है कि जिन्हों ने कलाम-अल्लाह से बिगड़ी हुई इन्सानियत के हाल को मालूम ना किया हो। वो क्यूँ-कर उस की बुराई को बख़ूबी समझ सकते हैं। क्योंकि कलाम-अल्लाह ही सिर्फ एक ऐसा आईना मुसफ़्फ़ा व मजल्लाई () है, कि जिसमें बिगड़ी हुई इन्सानियत और उस के दिल की सहीह तस्वीर मए उस के उयूब व कबाएह (ऐब व बुराई की जमा) के साफ़ तौर पर खींची और दिखलाई गई हैं। हर चंद कि ख़ुद-पसंद इन्सान ऐसी कर यह-उल-मंज़र (बद-शक्ल) तस्वीर को देखना पसंद नहीं करते। ताहम निहायत ही मुनासिब और ज़रूरी मालूम होता है, कि उन फ़रेब-ख़ुर्दा अश्ख़ास के लिए जो “पहले काम, और पीछे इनाम” की ताअलीम पा कर नजात उख़रवी के उम्मीदवार हैं उस के हर दो तारीक पहलू किसी क़द्र किताब-अल्लाह से दिखलाए जाएं।

बल्कि येसू मसीह पर ईमान लाने से रास्तबाज़ गिना जाता है।

पैदाइश की किताब के 6 बाब 5 आयत में क़ब्ल तूफ़ान यूं लिखा है, कि “ख़ुदावन्द ने देखा कि ज़मीन पर इन्सान की बदी बहुत बढ़ गई। और उस के दिल के तसव्वुर और ख़याल रोज़ बरोज़ सिर्फ बद ही होते हैं।” और ये कि ख़ुदा ने ज़मीन पर नज़र की और देखा कि वो बिगड़ गई। क्योंकि हर एक बशर ने अपने अपने तरीक़ को ज़मीन पर बिगाड़ा था।” पैदाइश 6:12

फिर उसी किताब के 8 बाब 21 आयत में लिखा है, कि “इन्सान के दिल का ख़याल लड़कपन से बुरा है।” अय्यूब की किताब के 15 बाब 14 आयत में मर्क़ूम है, कि “इन्सान कौन है कि पाक हो सके। और वो जो औरत से पैदा हुआ क्या है कि सादिक़ ठहरे।” राक़िम ज़बूर नाक़ील (नक़्ल करना) है, कि “देख मैंने बुराई में सूरत पकड़ी। और गुनाह के साथ मेरी माँ ने मुझे पेट में लिया।” ज़बूर 51:5, फिर वो फ़रमाता है कि “ख़ुदावन्द इन्सान के ख़यालात को जानता है, कि वो बातिल हैं।” ज़बूर 94:11, यर्मियाह नबी ने इन्सानी ख़राब दिल की निस्बत यूं लिखा है, “दिल सब चीज़ों से ज़्यादा हीलेबाज़ है। हाँ वो निहायत फ़ासिद (फ़सादी, बिगड़ा हुआ) है। उस को कौन दर्याफ़्त कर सकता है?” यर्मियाह 14:9, ख़ुदावन्द मसीह ने, जिससे बेहतर इन्सान की माहीयत (असलियत, फ़ित्रत) को जानने वाला कोई नहीं हुआ। यूं फ़रमाया है कि “बुरे ख़याल, ख़ून, ज़िना, हरामकारी, चोरी, झूटी गवाही, कुफ्र, दिल ही से निकलते।” मत्ती 15:19, बिल-आख़िर पौलुस रसूल चौदहवीं ज़बूर की ताईद कर के बवज़ाहत तश्रीह करता और इन्सान के सरापा की यूं तस्वीर खींचता है, कि “कोई रास्तबाज़ नहीं एक भी नहीं। कोई समझने वाला नहीं। कोई ख़ुदा का तालिब नहीं। सब गुमराह हैं। सब के सब निकम्मे हैं कोई नेकोकार नहीं। एक भी नहीं। उनका गला खुली हुई गुरू (क़ब्र) है। उन्हों ने अपनी ज़बान से फ़रेब दिया है। उन के होंटों में साँपों का ज़हर है। उन के मुँह में लानत और कड़वाहट भरी हैं। उन के क़दम ख़ून करने में तेज़ हैं। उन की राहों में तबाही और परेशानी है। और उन्हों ने सलामती की राह नहीं पहचानी। उन की आँखों के सामने ख़ुदा का ख़ौफ़ नहीं।” रोमीयों 3:10 से 18 तक।

इन्सान की निस्बत कुतुब-ए-मुक़द्दसा में ऐसे साफ़ और बेलाग (बेग़र्ज़) बयानात का मज़्कूर होना भी उन के मिंजानिब-अल्लाह होने की एक दलील मिनजुम्ला दीगर दलाईल है। क्योंकि कोई इन्सान अपनी तस्नीफ़ में इन्सानी बुरी हालत और दिली ख़राबी की ऐसी बद-हेइय्यत तस्वीर हरगिज़ नहीं खींच सकता। क्योंकि बक़ौल राक़िम ज़बूर “अपनी भूल चूकों को कौन जान सकता है।” और यही सबब है कि दीगर अहले-मज़ाहिब गुनाह को एक ख़फ़ीफ़ (मामूली) बात जान कर ज़ाहिरी शुस्त व शो (धो कर साफ़ करना) और अदाए रस्मियात व दस्तुरात मज़्हबी के ज़रीये माफ़ व महू हो जाने के ख़याल में मुत्मईन पाए जाते हैं। पस जब कि इन्सान की तबीयत व फ़ित्रत गुनाह के बाइस इस क़द्र बिगड़ गई है, कि बक़ौल यसअयाह नबी तमाम सर बीमार है। और दिल बिल्कुल सुस्त है। तलवे से लेकर चांदी तक उस में कहीं सेहत नहीं बल्कि ज़ख़्म और चोट और सड़े हुए घाओ (ज़ख़्म) हैं। जो ना दबाए गए ना बाँधे गए। ना तेल से नरम किए गए हैं।”

तो उस को आमाल-ए-हुस्ना (नेक काम) के ज़रीये हुसूल-ए-मग़्फिरत व नजात (माफ़ी व रहाई) की ताअलीम देना उस को धोके और उम्मीदे बातिल (झूटी उम्मीद) में रखकर हलाक करने के सिवा और कुछ नहीं है। ज़रूर है कि पहले वो नई पैदाइश जिसको निकुदेमुस जैसा ज़ी इल्म (आलिम) यहूदी ना समझ सका। हासिल करे और एक मुस्तक़ीम (दुरुस्त, रास्त, मज़्बूत) रूह उस के बातिन में नए सिरे से डाली जाये। और एक पाक-दिल उस के अंदर पैदा किया जाये। तब आमाल-ए-हुस्ना के उस से सरज़द होने की उम्मीद हो सकती है। वर्ना बक़ौल अय्यूब “कौन है जो नापाक से पाक निकाले? कोई नहीं।” अय्यूब 14:4 ताहम याद रखना चाहिए कि मौजूदा बिगड़ी हुई और गिरी हुई इन्सानियत के सुधारने। और उस को उठाने के लिए सिर्फ ताअलीम ही काफ़ी नहीं हो सकती। बल्कि एक कामिल नमूने की ज़रूरत है। जिसकी निस्बत फिर लिखेंगे।

मुझसे सीखो

गुज़श्ता ईशू में हमने एक नमूने की ज़रूरत का ज़िक्र किया। जिसको पेश-ए-नज़र रखकर और जिसके नक़्श-ए-क़दम पर चल कर बिगड़ा और गिरा हुआ इन्सान सुधर सके। और इन्सानियत के दर्जा आला पर सर्फ़राज़ हो कर क़ुर्बते इलाही के लायक़ बन सके। लेकिन ऐसे नमूने की तलाश अगर आदम से ताएं दम जिन्स बशर में की जाये,

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मुझसे सीखो

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 18, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 18 जनवरी 1895 ई॰

मेरा जूवा अपने ऊपर ले लो। और मुझसे सीखो। क्योंकि मैं हलीम और दिल से ख़ाकसार हूँ। तो तुम अपने जी में आराम पाओगे। मत्ती 11:29

गुज़श्ता ईशू में हमने एक नमूने की ज़रूरत का ज़िक्र किया। जिसको पेश-ए-नज़र रखकर और जिसके नक़्श-ए-क़दम पर चल कर बिगड़ा और गिरा हुआ इन्सान सुधर सके। और इन्सानियत के दर्जा आला पर सर्फ़राज़ हो कर क़ुर्बते इलाही के लायक़ बन सके। लेकिन ऐसे नमूने की तलाश अगर आदम से ताएं दम जिन्स बशर में की जाये, तो कोई ना मिलेगा। और बजुज़ मायूसी और कुछ नतीजा तलाश ना निकलेगा। बेशक दुनिया की तवारीख़ क़दीम में बड़े-बड़े जलील-उल-क़द्र और फ़ताह-ए-आज़म बादशाहों और शहंशाहों के नाम पाए जाते हैं। शह ज़ोर पहलवानों और बहादुरों की ख़बर मिलती है। हकीमों, दानाओं और आलिमों का पता लगता है। लेकिन किसी कामिल रास्तबाज़ इन्सान का नाम, जो तमाम बनी-आदम के लिए क़ाबिले नमूना हो, कहीं नहीं मिलता। जो नाक़िस इन्सान से ये कहने की जुर्रत कर सके, कि “तू मेरे हुज़ूर में चल। और कामिल हो।” तू पाक हो। क्योंकि मैं पाक हूँ। तू रास्तबाज़ हो। जैसा कि मैं रास्तबाज़ हूँ। फिर इस बात के मुक़र्रर (दुबारा) कहने की ज़रूरत नहीं, कि मौजूदा ख़राब हालत में इन्सान को सिर्फ ये ताअलीम देना कि तू नेक बन। आमाल-ए-हसना कर। बिल्कुल बेफ़ाइदा है। क्योंकि जब तक कोई नेक व पाक नमूना उस के हम-जिंसों में उस के पेशें नज़र ना हो। वो हरगिज़ नेक व पाक बन नहीं सकता। नमूना नसीहत व ताअलीम से बेहतर है। और हम इस मक़ूला के क़ाइल नहीं, कि اُنظُرالح ما قال   و لا تنظر الیٰ من قال और ना हम ऐसे लोगों को क़ाबिल-ए-नमूना समझ सकते हैं, जो बक़ौल फ़ारसी शायर :-

ترک دنيا بمر دم آموزند+خويشتن سيم وغلہ اندوزند

क्योंकि क़ाएल के अक़्वाल कैसे ही मुफ़ीद व उम्दा क्यों ना हों। कुछ असर पैदा नहीं कर सकते। अगर वो उस के मुताबिक़ ख़ुद आमिल हो कर अपने को एक नमूना दूसरों के लिए ना बना दे।

पस जब कि हम बिगड़े हुए इन्सान किसी कामिल नमूने की तलाश अपने तमाम हम-जिंसों में करते, ता कि उस पर नज़र कर के और उस के नक़्श-ए-क़दम पर चल कर हम सुधर जाएं। और इस तलाश में मायूस व नाकाम हो कर नज़र उठाते हैं। तो एक इब्ने आदम दिखलाई देता है, जो हम में से हर एक को फ़रमाता है, “मेरे पीछे हो ले” और अगर हम उस की पुर मुहब्बत बुलाहट को सुन कर और सभों को छोड़कर सिर्फ उसी की पैरवी करें।

तो बेशक वो हमको बदी और गुनाह से बचा कर नेकी और सलामती की सिराते मुस्तक़ीम (सीधी राह) पर चलाएगा। और तब हम दाऊद के हम-आहंग हो कर नग़मा सरा होंगे, कि “ख़ुदावन्द मेरा चौपान है। मुझको कमी नहीं। वो मुझे हरियाली चरागाहों में बिठाता है। वो राहत के चश्मों की तरफ़ मुझे ले पहुँचाता है। वो मेरी जान फेर लाता है। और अपने नाम की ख़ातिर मुझे सदाक़त की राहों में लिए फिरता है। बल्कि जब मैं मौत के साये की वादी में फिरूँ। तो मुझे ख़ौफ़ व ख़तरा ना होगा। क्योंकि तू मेरे साथ है। तेरी छड़ी और तेरी लाठी ही मेरी तसल्ली के बाइस हैं।” लेकिन अगर हम आमाल-ए-हसना पर भरोसा कर के ऐसी बड़ी नजात से ग़ाफ़िल रहें तो बजुज़ हलाकत व कफ अफ़्सोस मिलने के और कुछ हासिल ना होगा। ख़ुदावन्द के रसूल पौलुस के ये अक़्वाल व सवाल निहायत गौरतलब हैं :-

देखो। तुम उस फ़रमाने वाले से ग़ाफ़िल ना रहो। क्योंकि अगर वो भाग ना निकले। जो उस से जो ज़मीन पर फ़रमाता था ग़ाफ़िल रहे। तो हम भी अगर उस से जो हमें आस्मान पर से फ़रमाता हे मुंह मोड़ें। क्योंकि भाग निकलेंगे? इब्रानियों 12:25

गुनेहगारों को क़ुबूल करता है

अगरचे ख़ुदावन्द येसू मसीह जिस्म की निस्बत क़ौम यहूद में से था। जो अपनी क़ौम के सिवा तमाम आदमजा़द को गुनेहगार, नापाक बल्कि मिस्ल सग (कुत्ते की तरह) समझते थे। मगर चूँकि वो तमाम बनी-आदम का नजातदिहंदा और सारे गुनेहगारों का ख्वाह यहूदी हों या ग़ैर क़ौम बचाने वाला था।

He Accept the Sinners

गुनेहगारों को क़ुबूल करता है

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 25, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 25 जनवरी 1895 ई॰

और फ़रीसी व फ़क़ीह कुड़कुड़ा कर कहते थे, कि ये शख़्स गुनेहगारों को क़ुबूल करता और और उन के साथ खाता है। लूक़ा 15:2

अगरचे ख़ुदावन्द येसू मसीह जिस्म की निस्बत क़ौम यहूद में से था। जो अपनी क़ौम के सिवा तमाम आदमजा़द को गुनेहगार, नापाक बल्कि मिस्ल सग (कुत्ते की तरह) समझते थे। मगर चूँकि वो तमाम बनी-आदम का नजातदिहंदा और सारे गुनेहगारों का ख्वाह यहूदी हों या ग़ैर क़ौम बचाने वाला था। उस ने यहूदियाना तास्सुब व तनफ़्फ़ुर (बेजा तरफ़-दारी, नफ़रत) के ख़िलाफ़ यूनानियों, रोमीयों, सामरियों, ख़राज गीरों (टैक्स लेने वाले), और ऐसे लोगों के साथ जिन्हें यहूदी गुनेहगार समझते थे। मेल-जोल रखा। और उन्हें नजात की ख़ुशख़बरी पहुंचाने में दरेग़ ना किया। “क्योंकि सभों ने गुनाह किया और ख़ुदा के जलाल से महरूम थे।” मसीह का ग़ैर-यहूदीयों के साथ ऐसा बर्ताव यहूदीयों की समझ में निहायत मज़मूम (बुरा, ख़राब) था। और वो अक्सर ऐसे मौक़ों पर उस पर कुड़कुड़ाते। और इल्ज़ामन कहते थे, कि “ये शख़्स गुनेहगारों को क़ुबूल करता और उन के साथ खाता है।” और बहिक़ारत उस को ख़राजगीरों और गुनेहगारों का दोस्त नाम देते थे। मगर उस ने जो फ़िल-हक़ीक़त गुनेहगारों का दोस्त था। यहूदीयों के ऐसे बेहूदा ख़यालात की कुछ परवाह ना की। और उन्हें हमेशा ये माक़ूल जवाब दिया, कि “भले चंगों को हकीम दरकार नहीं। बल्कि बीमारों को। मैं रास्तबाज़ों को नहीं, बल्कि गुनेहगारों को तौबा के लिए बुलाने आया हूँ।”

इसी उसूल और तबीयत के मुताबिक़ उस के ख़िदमतगुज़ार और दीनदार बंदे हमेशा चलते रहे। और अब भी चलते हैं। और उन लोगों के साथ हम्दर्दी करने और उन्हें नजात की ख़ुशख़बरी सुनाने में जो अहले-दुनिया की नज़र में नीच और नाचीज़ हैं। कोताही करना नहीं चाहते। अगरचे उन की ये कार्रवाई ख़ुद-पसंद और मग़रूर इन्सानों के ख़याल में निहायत बुरी और क़ाबिल-ए-मलामत है। हम देखते हैं कि फ़ी ज़माना हिन्दुस्तान में नीच अक़्वाम के मसीही कलीसिया में शामिल होने पर हिंदू और मुहम्मदी लोग मसीहियों पर कैसी तंज़ करते। और मिशनरी साहिबान के उन के पास जाने, और मेल मिलाप रखने पर किस तरह ज़बान तअन व तशनीअ (बुरा भला कहना) दराज़ करते हैं। मगर ये मसीहियों की बनावटी आदत नहीं। बल्कि मसीहिय्यत की ताअलीम का असर है। क्योंकि जैसा वो ख़ुदा की अबवीयत (बाप) और बनी-आदम की उखुव्वत (भाई चारा) का इज़्हार करती। किसी और मज़्हब में ऐसा इज़्हार नहीं किया गया। और यही सबब है, कि मज़ाहिब मज़्कूर के पैरौ किसी ग़ैर मज़्हब व ग़ैर क़ौम। अपने से कमतर और अदना बनी नूअ इन्सान के साथ हम्दर्दी और मदद-दही में क़ासिर रहते हैं। और ये क़सूर उनका नहीं। बल्कि उन के मक़बूला मज़ाहिब का है। जो बनी-आदम की उखुव्वत और ख़ुदा तआला की अबवीयत की ताअलीम से ख़ाली हैं। और जिनमें बसफ़ाई ये ताअलीम नहीं मिलती, कि “ख़ुदा ने एक ही लहू से आदमीयों की सब क़ौम तमाम ज़मीन पर बसने के लिए पैदा की” आमाल 17:26, और ये कि “एक ख़ुदा है जो सब का बाप, सब के ऊपर और सब के दर्मियान और तुम सब में है।” इफ़िसियों 4:6 पस अदना दर्जे के लोगों से हम-कलाम ना होना। और उन्हें बनज़र हिक़ारत व नफ़रत देखना इस मुल्क के उम्रा ही का ख़ास्सा और निशान नहीं। जैसा कि ब्रह्मा प्रचारक लिखता है। बल्कि तमाम उमरा व गुरबाए अहले हनूद व इस्लाम का यही हाल है। चुनान्चे ब्रह्मा प्रचारक लिखता है, कि “हमारे मुल्क में उमूमन बड़े आदमी या अमीर होने की पहचान है, कि वो अदना दर्जे के आदमीयों से बोलते तक नहीं। और उन्हें नफ़रत की निगाह से देखते हैं। शाज़ोनादर ही कोई अमीर आदमी ऐसा होगा, कि जो किसी मिहतर (बड़ा बुज़ुर्ग) के घर बीमार पुरसी के लिए जाये। लेकिन ऐसी हालत में उस को किसी धर्म पुस्तक (मज़्हबी किताब) का पढ़ कर सुनाना हमारे मुल्क के अमीरों से अगर ना-मुम्किन ना माना जाये। तो प्रले दर्जे का मुश्किल ज़रूर है। मगर दूसरे ममालिक में क्या हाल है।

मिस्टर गिलीड स्टोन साहब साबिक़ वज़ीर-ए-आज़म इंग्लिस्तान के बारे में बयान किया जाता है, कि जब वो गिरजाघर में नमाज़ पढ़ने जाया करते थे। तो रास्ते में उन्हें एक मिहतर (बुज़ुर्ग) फाटक पर मिला करता था। एक दिन हस्ब-ए-मामूल गिरजाघर जाते वक़्त फाटक पर बजाय इस मिहतर के किसी और शख़्स को पाया। और दर्याफ़्त करने से मालूम हुआ, कि वो मिहतर घर में बीमार पड़ा है। मिस्टर गलीड स्टोन ने इस मिहतर के घर का पता पूछ कर पाकेट बुक में लिख लिया और दूसरे दिन इस मिहतर के मकान को तलाश कर के उस के पास गए। उस की बीमार पुरसी की। और तसल्ली दी। और बाइबल पढ़ कर उसे सुनाई।

क़ुरआन क्या है?

कहीए जनाब कैसी दलील सुनाई। लाए मुसाफ़ा (हाथ मिलाना) कीजिए। اللّٰہم صَلِّ पानी पी के लौटा रख दो। खटीया (चारपाई) के तले। मन्तिक़ (दलील) ने नातिक़ा (बोलने की ताक़त) बंद किया। अताए तौबा लकाए तो वाला जवाब दिया। क्या सबब कि तौरेत मूसा से रक़म हुई। ज़बूर दाऊद से ज़ेरे क़लम हुई। सहाईफ़ के मुसन्निफ़ अम्बिया ए मक़्बूल हैं।

What is Quran?

क़ुरआन क्या है?

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 25, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 25 जनवरी 1895 ई॰

 

 

 

प्यारे एडीटर : क्या ही अनोखा सवाल है। आप इसका जवाब तो दीजिए। देखें कोई क्या कहता है। क़िब्ला माफ़ कीजिए। दिल्ली के मुहम्मद शाह को सलीम गड्डा के फोर्ट में ही में सलामत रहने दीजिए। सल्तनत से दस्त बर्दारी ही बेहतर है। सय्यद तख़्त पर पांव धरते ही सर क़लम कर देंगे। ऐ हज़रत ये क्या फ़र्माते हो। मैं तो मज़्हबी बात पूछता हूँ। आप तवारीख़ हिंद सुनाते हो। जनाब मैंने तो आपको आक़िल समझ कर तकफ़ीय-तूल-इशारा पर एमा किया था। मगर अब मालूम हुआ, कि आप निरे निरे इग्नोरेंट ही हैं। माफ़ फ़रमाए। और ज़रा ज़हर क़तरा मामूर बराह इनायत बेग़ाइयत (बे-इंतिहा) अपने इज्माल की तफ़्सील सुनाए। आपने सुना नहीं, कि मौलवी पादरी इमाद-उद्दीन साहब लाहिज़ डी डी ने थोड़े ही दिन गुज़रे, कि इस सवाल का जवाब ना ज़बान से बल्कि हाथों से ऐसा दिया। कि यार लोग अब तक उंगलीयां चाट रहे हैं। बल्कि मुख़ालिफ़ीन तैश में आकर पुश्त-ए-दस्त (हाथ का पिछ्ला हिस्सा) काट रहे हैं। सौ क्यों? इसलिए कि उस अलामत अल-दहर मनशई अतारिद-रक़म ने अपने दहान क़लम (क़लम के मुँह से) से उर्दू तर्जुमा अल-क़ुरआन में वो वो मोती बरसाए। गोया जवाहरात के ढेर लगाए। जिसकी चमक धमक से दुश्मनों की आँखों में पानी उतर आया। और हज़ारहा आँखें अंधे हाफ़िज़ों के मसील नाम नैन-सुख को मोतियाबिंद का आर्ज़िया (मर्ज़) नज़र आया। इस सारी अर्क़ रेज़ि (तहक़ीक़) और खून-ए-जिगर सेज़ी का ख़ूँ-बहा सिवाए तख़वीफ़ हलाकत (मारने की धमकी) के इशाक-ए-क़ुरआन (क़ुरआन के आशिक़) ने और क्या दिया? पर तो भी इस मर्द-ए-मैदान-ए-दिलेरी ने उस्मान जामेअ-उल-क़ुरआन की सूरत فسيکفيھم اللّہ पर भरोसा किया। अब और कुछ सुनना चाहते हो? वाह साहब और कुछ सुनना चाहते हैं। ले सुनीए क़ुरआन अरबी ज़बान में एक किताब है। जो बक़ौल मुहम्मदियान रब-उल-काअबा की तस्नीफ़ नायाब है। कहते हैं कि ये तस्नीफ़ बहुत खरी है। फ़साहत (ख़ुश-बयानी) कूट कूट कर भरी है। पूछो रब-उल-काअबा कौन है? कोई होगा जिसे वो अपना माबूद समझते हैं। और औरों के ख़ुदा या माबूद का नाम सुन कर बहुत उलझते हैं। लेकिन ये तो बतलाए कि क़ादियानी इस्तकरा (तलाश करना, पैरवी) के ख़िलाफ़ क़ुरआन ख़ुदा की तस्नीफ़चेह माअनी दारद? हमने तो आज तक भी सुना था। कि कुतुब इल्हामियाह साबिक़ा मनज्ज़िल मिनल्लाह मुख़्तलिफ़ अश्ख़ास के ज़बान और क़लम से हीता तहरीर में आई हैं। पस अगर क़ुरआनी दलील के मुताबिक़ रसूल-अल्लाह होने को हमेशा मह्ज़ और मुजर्रिद इंसानियत शर्त है। और ख़ुदावंद मसीह जो बा मुहावरा क़ुरआनी कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) और रसूल-अल्लाह। और रूह-मिनहु है। ख़ुदा कामिल हो कर रसूल नहीं हो सकता। क्योंकि दलील इस्तकराई के खिलाफ है।

तो ये पाँसा उल्टा पड़ा। बक़ौल नसीम लखनवी :-

पासे की बदी आशकारा

राजा नल सल्तनत है हार

कहीए जनाब कैसी दलील सुनाई। लाए मुसाफ़ा (हाथ मिलाना) कीजिए। اللّٰہم صَلِّ पानी पी के लौटा रख दो। खटीया (चारपाई) के तले। मन्तिक़ (दलील) ने नातिक़ा (बोलने की ताक़त) बंद किया। अताए तौबा लकाए तो वाला जवाब दिया। क्या सबब कि तौरेत मूसा से रक़म हुई। ज़बूर दाऊद से ज़ेरे क़लम हुई। सहाईफ़ के मुसन्निफ़ अम्बिया ए मक़्बूल हैं। और अनाजील व ख़ुतूत वग़ैरह के मुहर्रर (तहरीर करने वाले) ख़ुदावंद येसू के रसूल हैं। मेहरबानी कीजिए। जवाब दीजिए कुल कुतुब-ए-इल्हामियाह की तस्नीफ़ का मूलहमों (इल्हाम रखने वाले) परदार व मदार हो। मगर ताज्जुब है। कि मुहम्मदियों के सरवरे अम्बिया का क़ुरआन के एक हर्फ़ पर भी ना एतबार हो? ये सुन कर तो मेरा सर चक्कर खाता है। कलेजा बाँसों मुंह को आता है। मुझे रुख़्सत फ़रमाए। जाये बक बक कर सर ना खाए बहुत ख़ूब।

राक़िम

شادم کہ ازرقيباں دامن کشاں گذشتم

گو مشت خاک     ماہم    برباد رفتہ  باشد

दुश्मने मसीहियत

सब के सब एक ही से हैं । पस शेख़ अहमद कोईलम नव मुस्लिम का ये क़ौल, कि हम मुसलमान लोग मसीह की हद से ज़्यादा ताज़ीम करते हैं। कई वजह से बातिल (झूट) है। और अंग्रेज़ी हुक्काम को धोखा देने के सिवाए मह्ज़ आतल। अव्वलन, क़ुरआन की मुन्दरिजा बाला ताअलीम के ख़िलाफ़ है।

The Enimeis of the Christiniaty

दुश्मने मसीहियत

By

Kidarnath
केदारनाथ

Published in Nur-i-Afshan Jan 4, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 4 जनवरी 1894 ई॰

नाज़रीन नूरअफ़्शाँ : हाथी के दाँत खाने के और होते हैं। और दिखाने के और। मुहम्मदी भाई कितने ही ज़ोर शोर से दावे क्यों ना करें। कि हम ख़ुदावन्द येसू मसीह की हद से ज़्यादा ताज़ीम (इज़्ज़त) करते हैं। लेकिन उन के ऐसे लायानी (फ़ुज़ूल, बेहुदा) दावे को किसी दलील से भी तक़वियत नहीं पहुँचती। अव्वलन क़ुरआन ख़ुद उन को झुटला रहा है। और لا نفرق بين احدہِ यानी नहीं फ़र्क़ करते दर्मियान किसी एक के बतला रहा है। देखिए यहां साफ़ साफ़ कहा जाता है। कि येसू मसीह और मूसा और सुलेमान वग़ैरह नबियों में कोई तफ़ावुत (फ़र्क़) नहीं।

सब के सब एक ही से हैं । पस शेख़ अहमद कोईलम नव मुस्लिम का ये क़ौल, कि हम मुसलमान लोग मसीह की हद से ज़्यादा ताज़ीम करते हैं। कई वजह से बातिल (झूट) है। और अंग्रेज़ी हुक्काम को धोखा देने के सिवाए मह्ज़ आतल। अव्वलन, क़ुरआन की मुन्दरिजा बाला ताअलीम के ख़िलाफ़ है। दोएमन, जुम्ला अहले इस्लाम मुहम्मद को कुल अम्बिया पर फ़ौक़ियत (बरतरी) देते हैं। अगर हम अपने मुहम्मदी भाईयों का इस अम्र में हिंदू भाईयों के साथ मुक़ाबला करते हैं। तो और ही मुआमला नज़र आता है। क्योंकि मुहम्मदी बावजूद ये कि ख़ुदावन्द येसू मसीह को नबी क़रार देते। लेकिन साथ ही उसे झूटा भी ठहराते। लेकिन हिंदू भाई अगरचे उसे नबी नहीं कहते। पर तो भी धर्मात्मा (नेक) कहने में शक नहीं लाते। इस पर तुर्रह (अनोखा) ये है, कि अभी तक मुहम्मदियों को इतना तक मालूम ही नहीं, कि मुहम्मद का नसब नामा इस्माईल तक दुनिया के किसी हिस्से में मौजूद नहीं। ना यूरोप में, न एशिया में, ना अफ़्रीक़ा में, ना अमरीका में। तो फिर किस बरते पर तता पानी मांगा (गर्म-जोशी दिखाना) जाता है? अगरचे ख़ुदा का कलाम हमको डंके की चोट पुकार पुकार कर कह रहा है, कि “लौंडी का बेटा आज़ाद के बेटे के साथ वारिस नहीं हो सकता है। लौंडी और उस के बेटे को घर से निकाल दो।” तो भी अगर किसी सूरत से मुहम्मद साहब को इस का कुछ सहारा कुतुब इल्हामियाह से मिल जाता। उस वक़्त हम इतना मान लेने को तैयार हो जाते। जितना कि अब्रहाम की दूसरी बीवी कतुरह की औलाद को। मगर यहां तो मुत्ला`अ ही साफ़ आता नज़र है।

इस पर हम अपने मुहम्मदी भाईयों को याद दिलाना चाहते हैं कि पण्डित दया शंकर नसीम के शेअर को याद करें :-

भाई थे जोश ख़ूँ कहा जाये

सदमा हुआ दर्द से कहा हाय

क्या मुनादी में सरे बाज़ार बह्स के वक़्त आप लोग हिंदूओं को अपनी तरफ़ नहीं मिला लेते हैं। और उन के तुहमात की ताईद में गुल नहीं मचाते हैं? इस का जवाब अक्सर मुहम्मदियों की ज़बान से ये निकलता है, कि हिंदू मुसलमान भाई भाई हैं। पस मुहम्मदियों ही के इक़रार से इस्लाम ईसाईयत का दुश्मन साबित हो गया। और अगर उलमा-ए-इस्लाम इस को अवाम मुहम्मदियों की जहालत क़रार दें। तो हमारी अर्ज़ ये है कि احل لکم طعام الذين اوتو الکتاب के ख़िलाफ़ कुफ़्फ़ार का (बक़ौल इस्लाम) दूर से दिया हुआ खाना नोशे जान फ़रमाना। बाज़ारी हलवाइयोँ की पुख़्ता पूरी कचौरी खाना। उन के लोटे का पानी चुल्लुओं से पी जाना। और ईसाई की हाथ की दवा तक ना खाना क्यों हिन्दुस्तान के मुहम्मदियों में वबा-ए-हैज़ा की तरह फैला हुआ है? और इस बीमारी का सर चशमा अनपढ़ मुहम्मदी नहीं, बल्कि पढ़े हुए फ़ाज़िल।

चुनाचे मुहम्मदियों के इमाम फ़न मुनाज़रा अबू अल-मंसूर देहलवी अपनी किताब तन्क़ीह-उल-बयान। जवाब तफ़्सीर-उल-क़ुरआन मुसन्निफ़ सर सय्यद अहमद ख़ान साहब सितारा हिंद के सफ़ा 171 की सतर बारहवीं में लिखते हैं, कि “اب طعام الذين اوتو الکتاب  ” की तफ़्सीर मुझसे सुन लीजिए। कि इस आयत में “وصف اوتو الکتاب” इस बात पर दलालत करता है, कि जो खाना बहैसीयत नुज़ूल-ए-किताब उन के इस्तिमाल में है वह खाना तुमको भी हलाल है।” چو کفر از کعبہ برخيزدکجا ماند مسلمانی लेकिन हम मुफ़स्सिर साहब से पूछते हैं, कि कुफ़्फ़ार के हाथ के पके हुए खाने में बहैसीयत नुज़ूल-ए-किताब की शान-ए-नुज़ूल भी बतला दीजिए। लेकिन इस का जवाब शायद आप या और मुहम्मदी भी देंगे। कि हिंदू मुसलमान भाई भाई हैं। अंग्रेज़ों के हम मज़्हब ईसाई हैं। लेकिन अगर शेख़ कोईलम साहब नव मुस्लिम का दिल और ज़बान एक ही है। तो उन बिचारे हिन्दुस्तानी करोड़ों मुसलमानों के कलेजों में हाथ डाल कर ईसाईयत की दुश्मनी को निकालें। और फ़ौरन अमरीका से बइतफ़ाक राय उलमा-ए-मक्का एक फ़त्वा हिन्दुस्तान के मौलवियों के नाम रवाना फ़रमाएं, कि अहले-किताब के साथ खाना खा कर अपने बुग़्ज़ दिली (दिल में हसद) को निकालें। और गर्वनमैंट बर्तानिया की नज़र में साबित कर दिखाएं, कि हम या इस्लाम दुश्मन ईसाईयत नहीं हैं। अब हम क़ुरआन के “लानफ़रक” का जवाब देकर ख़ुदा से दुआ मांगते हैं। कि प्यारे बाप हमारे मुहम्मदी भाईयों के दिलों से इस बुग़्ज़ को, जो तेरे अज़ीज़ फ़र्ज़न्द की तरफ़ से हो दूर कर। आमीन।

अब लानफ़रक का जवाब ये है, कि अगर हक़ीक़त में नबियों के दर्मियान कुछ फ़र्क़ ना करना चाहिए। और अगर ख़ुदावन्द यसू अल-मसीह नबी से बढ़कर ख़ुदा नहीं है। तो हमारी समझ में नहीं आता, कि तरीक़ा मौजूदा के ख़िलाफ़ उस के इन्सानी जिस्म में आने के लिए बाप की ज़रूरत क्यों नहीं हुई। फिर तमाम क़ुरआन में और अम्बिया के गुनाह लिखे हुए। येसू मसीह की कोई भी कमज़ोरी इशारतन या किनायतन क्यों ना लिख दी ना फिर अगर उस की मौत गुनाह का कफ़्फ़ारा ना थी। तो क़ुरआन में “ما قتلوہ و ما صلبوہ” पर क्यों ज़्यादा ज़ोर दिया गया। जब कि और नबियों की क़त्ल व ईज़ा से चंदाँ इन्कार नहीं है।

इन बातों पर लिहाज़ करने से शुब्हा पैदा होता है।

बक़ौल मिर्ज़ा नौशा देहलवी :-

बे-ख़ुदी बेसबब नहीं ग़ालिब

कुछ तो है जिसकी पर्दा-दारी है

पैदाइश 28:10-15

अब हम सीढ़ी पर ग़ौर करते हैं। यूहन्ना 1:15 के लिहाज़ से अगरचे इस सीढ़ी से इब्ने आदम मुराद है। पर हमारी राय में यहां सीढ़ी को सलीब से ज़्यादा मुनासबत पाई जाती है। क्योंकि वो मिलाप जो ख़ुदा और इन्सान में अज सर-ए-नौ फिर क़ायम हुआ वो इब्ने आदम के वसीले से है। लेकिन उस के क़ायम होने का तरीक़ा मसीह का दुख और उस की सलीबी मौत है क्योंकि जो काठ पर लटकाया गया सो लानती हो।

Genesis 28:10-15

पैदाइश 28:10-15

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 11, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 11 जनवरी 1895 ई॰

10 वीं आयत पर ग़ौर करने से ज़ाहिर होता है कि इन्सान में ये एक अजीब ख़ासीयत है कि मौजूदा हालत की बनिस्बत जब उसे कुछ तक्लीफ़ पेश आती है अपनी पिछली हालत को अक्सर याद करता है। चुनान्चे याक़ूब के हाल से हमको इस की शहादत भी मिलती है जैसा लिखा है, कि वो हारान की तरफ़ गया। शहर हारान क़स्दियों के ऊर से जुनूब मग़रिब की तरफ़ 20 मील के फ़ासिले पर है। जहां तारा मए अपने ख़ानदान के 15 बरस तक रहा। और जिसको अबराहाम ने तारा की मौत के बाद बिल्कुल छोड़ दिया ताकि वो ख़ुदा के हुक्म के मुताबिक़ मुल्क-ए-मौऊद (वाअदा किया मुल्क) को जाये। इसी तरह बनी-इस्राईल जब कि मिस्र से निकल कर ब्याबान में सफ़र कर रहे थे ज़रा ज़रा सी तक्लीफ़ के ख़याल से हाय मिस्र हाय मिस्र पुकारने लगते थे। बावजूद ये कि मिस्र में वो गु़लामी की हालत में थे और जो कुछ ख़ुदा उन के साथ महरबानीयाँ करता था उन से वाक़िफ़ थे। लेकिन यहां याक़ूब और बनी-इस्राईल अगरचे मिस्र को लौट नहीं गए पर तो भी सिवाए यशूअ और क़ालिब के सब के सब ब्याबान में ही हलाक हुए। और याक़ूब अगरचे हारान को गया भी और वहां रहा भी फ़रेब से बरकत भी हासिल की। लेकिन ख़ुदावन्द ने उसे निहायत बरकत बीवीयां, औलाद, माल अस्बाब, चार पाए सब कुछ मर्हमत (करम, मेहरबानी) फ़रमाया और फिर कनआन में वापिस लाया। अब अगर कोई पूछे कि ऐसा क्यों हुआ तो हम कहेंगे कि ख़ुदा की मर्ज़ी। यहां से बर्गज़ीदगी की ताअलीम की ताईद होती है कि बर्गज़ीदों को ख़ुदा कभी हलाक ना होने देगा। पस याद रखना चाहिए कि इसी सूरत से हम में भी यही कमज़ोरी पाई जाती है। लेकिन जिसे ख़ुदा ने चुन लिया है उस को इस से कुछ नुक़्सान ना होगा। पर शर्त ये है कि ख़ुदा की रूह को रंजीदा ना करें। बल्कि उस की हर एक हिदायत पर अमल करने को तैयार रहें। जैसा कि 12 वीं आयत में याक़ूब को सीढ़ी दिखाई गई। सीढ़ी के बयान से पेश्तर हम ये ज़ाहिर करेंगे कि ईमानदार पर मुसीबत का आना ज़रूर है।

1. आदम पर ग़ौर करो ख़ुदा ने उसे अपनी सूरत पर बनाया। वो हर-दम ख़ुदा की हुज़ूरी में निहाल (ख़ुश) रहता था। सिवाए ख़ुशी के रंज नाम को भी ना था पर जब गुनाह आया तो वो सख़्त मुसीबत में पड़ गया। बाग-ए-अदन से निकाला गया ख़ुदा की क़ुर्बत (नज़दिकी) से महरूम हुआ।

2. हाबिल रास्तबाज़ जिसकी क़ुर्बानी ख़ुदा ने क़ुबूल की जान ही से मारा गया।

3. अबराहाम को जब ख़ुदा ने बुलाया तो उसे अपना वतन अपना शहर अपना ख़ानदान ज़मीन जगह सब कुछ छोड़ना पड़ा।

4. फिर इज़्हाक़ अपने बाप का इकलौता जो वाअदे का कहलाता है उस के ज़ब्ह किए जाने का हुक्म हुआ।

5. याक़ूब बरकत पाते ही हारान को भागा।

6. यूसुफ़ सूरज चांद और सितारों का मस्जूद (जिसको चांद सितारे सज्दा करें) हो कर गु़लामी की हालत में मिस्र को गया क़ैद में पड़ा।

7. मूसा मिस्र से जान को बचा कर भागा।

8. ख़ुदावन्द येसू मसीह को जब कि वो गुनेहगारों के बचाने पर मुक़र्रर हुआ। आस्मानी तख़्त छोड़ना और इन्सानी बदन ग़रीबी की हालत में इख़्तियार करना पड़ा। फिर जब बपतिस्मा पाते वक़्त रूहे पाक उस पर नाज़िल हुआ तब ब्याबान में 40 दिन तक शैतान से आज़माया गया।

9. मसीह के रसूल भी रूहुल-क़ुद्दुस पाते ही सख़्त अज़ीयतों में पड़े मस्लूब हुए मक़्तूल हुए।

10. ज़माना ब ज़माना मसीह के शागिर्द बुत परस्त बादशाहों हाकिमों रियाया से सताए गए। यहां तक कि शहीदों का ख़ून कलीसिया का बीज हुआ। पस सवाल है कि बर्गज़ीदों के वास्ते मुसीबतें क्यों ज़रूरी हैं। तवज्जोह अब ये है कि हम ख़ुदा के फ़र्ज़न्द हैं और जब फ़र्ज़न्द हुए तो वारिस भी और मीरास में मसीह के शरीक बशर्ते के हम उस के साथ दुख उठाएं ताकि उस के साथ जलाल भी पाएं।

रोमीयों 8:15,16 क्योंकि मेरी समझ में ज़माना-ए-हाल के दुख दर्द इस लायक़ नहीं कि उस जलाल के जो हम पर ज़ाहिर होने वाला है मुक़ाबिल हों। रोमीयों 8:18

अब हम सीढ़ी पर ग़ौर करते हैं। यूहन्ना 1:15 के लिहाज़ से अगरचे इस सीढ़ी से इब्ने आदम मुराद है। पर हमारी राय में यहां सीढ़ी को सलीब से ज़्यादा मुनासबत पाई जाती है। क्योंकि वो मिलाप जो ख़ुदा और इन्सान में अज सर-ए-नौ फिर क़ायम हुआ वो इब्ने आदम के वसीले से है। लेकिन उस के क़ायम होने का तरीक़ा मसीह का दुख और उस की सलीबी मौत है क्योंकि जो काठ पर लटकाया गया सो लानती हो। उसी ने हमको मोल ले के शरीअत की लानत से छुड़ाया। कि वो हमारे बदले मस्लूब हो कर लानती हुआ। जिस तरह याक़ूब ने ख़ुदावन्द को उस के ऊपर खड़ा देखा। उसी तरह हम मसीह ख़ुदावन्द को सलीब पर देखते हैं, कि वो अपने दोनों हाथ फैलाए हुए बर्गज़ीदों को बुलाता है। कि आओ ख़ुदावन्द से मिलाप करो। दुनिया में भी मिलाप का यही निशान है, कि जब वो मुख़ालिफ़ बाहम मेल करते हैं तो छाती से लगा लेते हैं। 13 वीं आयत में ख़ुदावन्द याक़ूब से कहता है कि मैं तेरे बाप अबराहाम का ख़ुदा हूँ हालाँकि रिश्ते के लिहाज़ से वो इस का दादा था। यहां उस मिलाप के हासिल करने का वसीला बतलाया जाता है कि अबराहाम ईमानदारों का बाप है। जो ईमान लाता है वो अबराहाम का फ़र्ज़न्द है। अब जो ईमान लाता है वो अबराहाम का फ़र्ज़न्द है अब जो ईमान लाता है ख़ुदावन्द उस का ख़ुदा है और वही इस मिलाप को हासिल कर सकता है।

14 वीं आयत में है कि तेरी नस्ल को। यहां नस्ल से खासतौर पर मसीह मुराद है। क्योंकि इब्तिदा ही से हाँ बाग-ए-अदन के वाअदे से वो नस्ल कहलाया। और आम तौर पर उस की कलीसिया क्योंकि लिखा है कि तो पूरब पच्छिम उत्तर दक्षिण को फूट निकलेगा सो देख लो कि मसीह की कलीसिया का यही हाल है। लेकिन याक़ूब की जिस्मानी औलाद यहूदी जो अब सिर्फ सत्तर लाख हैं मुराद लें तो निहायत मुश्किल है। कि दुनिया के तमाम घराने उन से बरकत पाएं। वो तो आप ज़लील व हक़ीर हो रहे हैं ख़ुदा उन पर रहम करे कि वो भी मसीह से बरकत पाए।

15 वीं आयत में है कि मैं तेरे साथ हूँ तेरी निगहबानी करूँगा। और तुझे इस मुल्क में फिर लाउंगा। यहां ईमानदारों के लिए बड़ी तसल्ली की बात है कि ख़ुदा उन के साथ है। मसीह ने फ़रमाया कि ज़माने के तमाम होने तक हर रोज़ तुम्हारे साथ हूँ कुछ परवाह नहीं, कि माँ बाप भाई अज़ीज़ व अका़रिब सब छोड़ दें लेकिन ख़ुदा साथ है। वो उन की निगहबानी करता है जिस तरह गडरिया भेड़ की ताकि वो भेड़ या जो शैतान है या जो उस के हम-शक्ल हैं फाड़ ना खाएं। और सबसे ज़्यादा ये कि इस जहान की मुसाफ़िरत और दौड़ धूप के बाद हक़ीक़ी कनआन में फिर लाने का वाअदा करता है। जहां हमेशा का आराम हमेशा की ज़िंदगी सब कुछ मौजूद है।

अय्यूब 42

इन आयतों में एक ही मज़्मून है। यानी अपना इन्कार करना। अय्यूब की इब्तिदाई हालत और शैतान के एतराज़ से ज़ाहिर होता है कि बसा औक़ात ख़ुदा से हर क़िस्म की दुनियावी बरकतों को हासिल करते हुए दीनदार की दीन-दारी वो दर्जा नहीं रखती, जो तक्लीफ़ और मुसीबत में वक़अत (क़द्र, हैसियत) पाती है। हाँ सोना सोना तो है मगर आग में तापाया जा कर कुंदन बनता है।

Job Chapter 42

अय्यूब 42

By

Kidarnath
कैदार-नाथ

Published in Nur-i-Afshan Jan 11, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 11 जनवरी 1894 ई॰

बिल-इत्तिफ़ाक़ मूसा की किताब तौरेत से क़दीम तर कोई किताब दुनिया में पाई नहीं जाती। लेकिन ये अजीब बात है कि अय्यूब की किताब इस से भी ज़्यादा क़दीम है। एक निहायत मशहूर मुनज्जम डाक्टर हलीज़ साहब ने अय्यूब 9:9, 38:31,32 के मुताबिक़ हिसाब कर के बताया है कि अय्यूब की किताब क़ब्ल अज़ मसीह 2130 और अब्राहम से 184 बरस पेश्तर तस्नीफ़ हुई। लेकिन अक्सरों का गुमान है कि अय्यूब की किताब को मूसा ने उस वक़्त तस्नीफ़ किया। जब कि वो मिस्र से भाग कर मिद्यान में औक़ात-ए-बसरी करता था। बहर-ए-हाल इस का तौरेत से क़दीम होना दोनों सूरतों में ज़ाहिर है। हमारी सनद की आयतें इसी किताब के 42 बाब में मुन्दरज हैं। चूँकि आदमी की बा-तबेअ (फ़ित्रत के लिहाज़ से) ये ख़ासीयत है कि वो क़दीम से क़दीम किताब का पढ़ना और उस पर ग़ौर करना चाहता है। और गुज़रे ज़मानों के हालात का मौजूदा हालत से मुक़ाबला कर के दर्याफ़्त करना चाहता है कि ज़माने के रोज़ाना इन्क़िलाब ने क़दीम बात की आज क्या हालत पैदा कर दी है। इसी तरह मज़्हबी बातों में जब ऐसा सिलसिला हाथ आ जाता है। तो नाज़रीन के दिल पर कैसी तासीर पड़ती है। ईसाई मज़्हब की ताअलीमात का यही हाल है वो एक ज़ंजीर है। जो मुख़्तलिफ़ ज़मानों में मुख़्तलिफ़ कारीगरों के हाथ से बनाई गई और जिस में 66 कड़ियाँ हैं। मगर जब उन की यकसानियत पर ग़ौर किया जाता है तो साफ़ मालूम होता है, कि दर-हक़ीक़त इन 66 कड़ीयों का बनाने वाला एक ही लोहार है। जब ये हाल है तो हम देखें कि इस पुरानी ताअलीम से आज हमारे वास्ते क्या फ़ायदा हासिल होता है। और ख़ुदा जो अगले ज़मानों में नबियों के वसीले बाप दादों से बार-बार और ख़ासकर अय्यूब से बगोले और गर्द बाद में कलाम करता रहा। इस आख़िरी ज़माने में बेटे के वसीले हमसे क्या बोलता है।

इन आयतों में एक ही मज़्मून है। यानी अपना इन्कार करना। अय्यूब की इब्तिदाई हालत और शैतान के एतराज़ से ज़ाहिर होता है कि बसा औक़ात ख़ुदा से हर क़िस्म की दुनियावी बरकतों को हासिल करते हुए दीनदार की दीन-दारी वो दर्जा नहीं रखती, जो तक्लीफ़ और मुसीबत में वक़अत (क़द्र, हैसियत) पाती है। हाँ सोना सोना तो है मगर आग में तापाया जा कर कुंदन बनता है। और यही एक कसौटी है जिस पर हम ईमान के सोने को कस (परख) कर देख सकते हैं। किताब के आख़िरी हिस्से से ज़ाहिर होता है कि ख़ुदा को भी यही मंज़ूर था, कि अय्यूब की आज़माईश हो। सच्च है कि वो जो अपने ही फ़र्ज़न्द को रूह के वसीले ब्याबान में आज़माने को ले जाता है। वो अय्यूब को कब बग़ैर आज़माऐ हुए छोड़ देता। मत्ती 4:1 जब हरे दरख़्त के साथ ऐसा करते हैं तो सूखे के साथ क्या ना किया जाएगा। लूक़ा 23:31 क्योंकि ख़ुदा के हुज़ूर किसी की तरफ़-दारी नहीं होती। रोमीयों 2:11 लेकिन शैतान की आज़माईश की ग़र्ज़ हलाकत और बर्बादी है। मगर ख़ुदा की ग़र्ज़ आज़माईश में दीनदार की रुहानी तरक़्क़ी और बरकतों का सबब है। अय्यूब के इस इक़रार कि मैंने तेरी ख़बर कानों से सुनी थी। पर अब मेरी आँखें तुझे देखती हैं। मालूम होता है कि अगरचे वो कामिल सादिक़ ख़ुदातरस था। तो भी उस में एक चीज़ की कमी थी जैसा हमारे ख़ुदावंद ने उस दौलतमंद से फ़रमाया कि तो भी तुझमें एक चीज़ बाक़ी है। जा और जो कुछ तेरा हो बेच डाल। और ग़रीबों को दे। मर्क़ुस 10:21 और वो भी चीज़ थी कि जब उस ने किसी ना किसी सूरत से ख़ुदा को आँखों से देखा तो इक़रार किया कि मैं अपने ही से बेज़ार हूँ। अगरचे हम जानते हैं कि ख़ुदा को किसी ने कभी ना देखा। यूहन्ना 1:18 पर तो भी इब्रानियों 10:2 और यूहन्ना 1:18 और यशूअ 5:14 के मुक़ाबले से वाज़ेह होता है कि बाइबल में जहां कहीं ख़ुदा के ज़हूर का बयान है वहां हमारे ख़ुदावंद येसू मसीह से मुराद है। और उस का देखना ख़ुदा का देखना है। जैसा कि उसने आप ही फ़रमाया कि जिसने मुझे देखा है उस ने बाप को देखा है। यूहन्ना 14:9 और ख़ुद अय्यूब ही उस ख़ुदा की बाबत जिसके आइंदा देखने की भी उम्मीद रखता है। एक ऐसा लक़ब इस्तिमाल करता है कि हमको कुछ शुब्हा नहीं रहता कि वो मसीह ही है। वो कहता है क्योंकि मुझको यक़ीन है कि मेरा फ़िद्या देने वाला ज़िंदा है। और वो रोज़ आख़िर ज़मीन पर उठ खड़ा होगा। और हर चंद मेरी पोस्त (जिल्द) के बाद मेरा जिस्म क्रम ख़ूर्दा (बोसीदा) होगा। लेकिन मैं अपने गोश्त में से ख़ुदा को देखूँगा। अय्यूब 19-26:25 साथ ही उस के हमको याद रखना है कि मसीही ख़ुद इंकारी और ग़ैर-क़ौम की ख़ुद इंकारी में फ़र्क़ है। हिंदू मज़्हब का वेदांती फ़िर्क़ा (ज़ात-ए-इलाही पर बह्स करने वाला) इस बात पर बहुत ज़ोर देता है कि हम कुछ नहीं और ख़ल्क़त कुछ नहीं। जो कुछ है सो ख़ुदा है इसी बेहूदा ख़याल से हमा ओसती (हर चीज़ ख़ुदा है) की तारीकी ने हमारे हिंदू भाईयों को अंधेरे में डाल दिया है। चाहीए कि हम इस तारीकी से दूर रहें और बाइबल की सच्ची ख़ुद इंकारी का सबक़ सीखें। वहां इस से बेहतर ताअलीम हमको ये मिलती है, कि हमारी हस्ती तो क़ायम रहती है और हमारे हवास-ए-ख़मसा (पाँच हवास) गवाही देते हैं कि हम मौजूद हैं मगर साफ़ ज़ाहिर होता है कि जो कुछ अच्छा हो सकता या अच्छा कहा जा सकता वो हमसे नहीं बल्कि ख़ुदा से है। जैसा रसूल फ़रमाता है कि “मसीह के साथ सलीब पर खींचा गया लेकिन ज़िंदा हूँ पर तो भी मैं नहीं बल्कि मसीह मुझमें ज़िंदा है।” ग़लतियों 2:20 ग़र्ज़ कि इंजीली ताअलीम सच्ची ख़ूद इंकारी सिखाती है। आप जानते हैं कि ख़ुदा की बाबत हमने और और लोगों ने बहुत कुछ सुना और सुनते हैं। दुनिया के मुअल्लिम यही करते रहे और करते हैं यहां तक कि लोग सुनते सुनते सुन हो गए। और नतीजा ये हुआ कि अपनी ख़ूबीयों को देखते देखते ख़ूदी ने यहां तक लोगों के दिलों में घर कर लिया कि ख़ुदा कोसों दूर हो गया और तमाम इन्सान उस ऊंट की मानिंद शुत्र बे मुहार (बेलगाम ऊंट) हो गए। जो अपने आपको तमाम मौजूदात से ऊंचा और बुलंद समझता है। लेकिन पहाड़ के नीचे जा कर उसे मालूम होता है कि मैं तो बिल्कुल छोटा और नाटा हूँ। इसी तरह घमंडी आदमी जब रूह की मदद से ख़ुदा के पहाड़ तले आकर साफ़ जानता है कि मुझमें यानी मेरे जिस्म में कोई अच्छी चीज़ नहीं बस्ती। रोमीयों 7:18 और क्या रोज़ाना तजुर्बा नहीं बता देता कि सब के सब गुनाह के तले दबे हैं। “कोई रास्तबाज़ नहीं एक भी नहीं। कोई समझने वाला नहीं, कोई ख़ुदा का तालिब नहीं। सब के सब गुमराह हैं, सब के सब निकम्मे हैं, कोई नेकोकार नहीं एक भी नहीं।” जब ये हाल हो तो क्या अय्यूब के दोस्तों की मानिंद ख़ुदा हमसे नहीं कहता कि अपने लिए सोख़्तनी क़ुर्बानी गुज़रानो। पर ख़ुदा का शुक्र है कि ख़ुदा ने अपना बर्रा भेज दिया जो जहान का गुनाह उठा ले जाता है। आओ आज हम उसे अपना कफ़्फ़ारा समझ कर ख़ुदा के हुज़ूर गुनाहों की माफ़ी हासिल करें। और देखें कि ख़ुद इंकारी में कौन कौन सी बातें शामिल हैं। क्योंकि ये अम्र इसलिए ज़रूरी है कि ख़ुदावंद मसीह ने साफ़ लफ़्ज़ों में फ़रमाया कि जो कोई मेरे पीछे आना चाहे चाहिए कि वो अपने से इन्कार करे। मर्क़ुस 9:34

1. ज़ात से इन्कार। बहुतेरे मसीही ख़ासकर इन्जील के ख़ादिम भी कोई कोई इस फंदे में फँसते हैं वो ग़ैर क़ौमों से कहते कि ज़ात पात कुछ नहीं। मगर आप ही ग़ैर क़ौमों की मानिंद अपने को ऊंची ज़ात और दूसरों को नीच ज़ात समझ कर बहुतेरों के वास्ते ठोकर का सबब हैं चाहिए कि हम इस से इन्कार करें।

2. ख़ानदान से इन्कार। ये भी एक ख़ुदा से दूरी और कमाल मग़रूरी का बाइस है कि हम तो आला ख़ानदान से ताल्लुक़ रखते लेकिन नासरत से कोई अच्छी चीज़ नहीं निकल सकती है इस से भी इन्कार करना चाहिए।

3. दुनिया के ऐश व इशरत से इन्कार जब मसीह ने साफ़ फ़र्मा दिया कि इन्जील और मेरे वास्ते हर तरह के दुख-दर्द में मुब्तला होना ज़रुरी है। तो क्या हम ख़याल कर सकते हैं कि वो जो रात-दिन दुनियावी ऐश व इशरत में पड़ कर इन्जील और मसीह की सलीब से कोसों भागता है। ख़ुदावंद का शागिर्द या मुनाद है? नहीं। पस ऐसे आराम से भी हमको इन्कार …….. करना चाहिए।

4. नेक कामों से इन्कार। इस से ये मुराद नहीं कि हम नेक काम ना करें। जिस हाल में कि हम मसीह में इसी लिए सर-ए-नौ पैदा हुई कि नेकी करें लेकिन ग़र्ज़ ये है कि उन कामों को नेक समझ कर अपने आपको नेक ना जानें। क्योंकि हमारे ख़ुदावंद का फ़र्मान है कि नेक कोई नहीं मगर एक यानी ख़ुदा। पस ऐसी नेकी से भी इन्कार करना ज़रूर है।

हासिल कलाम। आज के वाज़ से हमको कई बातें मालूम हुईं

1. ईमानदार की ज़िंदगी जो इस दुनिया में बसर होती है आज़माईश है।

2. दीनदारी जो दौलतमंदी में है वो मुसीबत और तंगी में रहे तो दीनदारी है वर्ना मक्कारी।

3. ख़ुदा जब दीनदारों को आज़माईश में डालता है तो उन को ज़्यादा रुतबा और दौलत भी इनायत करता है।

4. अगर कोई ईमानदार तक्लीफ़ में मुब्तला हो जाये तो हमसे ज़्यादा गुनेहगार नहीं साबित होता।

5. जब तक ख़ुदा को देखते नहीं तब तक अपना इन्कार नहीं हो सकता।

उलमा अहले इस्लाम से सवाल

मिर्ज़ा साहब की तहक़ीक़ात और उन के हवारियों (शागिर्दों) के बयानात से ये मालूम होता है। कि साहब ममदूह (जिसकी तारीफ़ की गई हो) मसीह मौऊद (वाअदा किया हुआ) और मुल्हिम-ए-ग़ैब (इल्हाम रखने वाला) हैं। और पंजाब के रिसाला जात और जाहिल आदमीयों की रिवायत से ये ज़ाहिर होता है,

Questions to the Muslim Scholars

उलमा अहले इस्लाम से सवाल

By

Abdul Hamid
अब्दुल हमीद मुदर्रिस कठोली

Published in Nur-i-Afshan Jan 4, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 4 जनवरी 1895 ई॰

मिर्ज़ा साहब की तहक़ीक़ात और उन के हवारियों (शागिर्दों) के बयानात से ये मालूम होता है। कि साहब ममदूह (जिसकी तारीफ़ की गई हो) मसीह मौऊद (वाअदा किया हुआ) और मुल्हिम-ए-ग़ैब (इल्हाम रखने वाला) हैं। और पंजाब के रिसाला जात और जाहिल आदमीयों की रिवायत से ये ज़ाहिर होता है, कि आँजनाब मह्दी-ए-वक़्त (रहनुमा) और मज़हरे इलाही (ख़ुदा को ज़ाहिर करने वाला) हैं।

जंग-ए-मुक़द्दस के बाद जो कि साहब मौसूफ़ ने मिस्टर साहब अब्दुल्लाह आथम ईसाई की बाबत पैशन गोई दर्ज फ़रमाई। जब उस में सूरत सदाक़त नज़र ना आई तो आपने सख़्त लाचार हो कर ताविलों (दलीलें) की भर मार कर चंद इश्तिहार निकाले जो दर-हक़ीक़त धोके की टट्टी (आड़ लेने की जगह) या फ़रेब के जाले थे। (जिससे आपके मसीह मौऊद होने और मह्दी-ए-वक़्त कहलाने की कैफ़ीयत ख़ुद बख़ुद मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) होती है।)

हमारे सच्चे नबी हज़रत मुहम्मद ﷺ की वो तमाम हदीसें जो कि ईसा इब्ने मर्यम की दुबारा तशरीफ़ आवरी के बाब में वारिद हैं। और क़ुरआन शरीफ़ की वो सब आयतें जो आने वाले मसीह की ख़ुशख़बरी सुनाती हैं। अगर बइत्तीफ़ाक उलमा-ए-अहले-इस्लाम वो दुरुस्त व रास्त हैं। और उन के मिस्दाक़ (तस्दीक़ करने वाला) भी साहब अल्लामा आफ़ाक़ हैं तो ऐसे इस्लाम और मुक़तिदायान इस्लाम (रहनुमा, पेशवा) को सलाम।

गर मसीहा दुशमन-ए-जान हो तो कब हो ज़िंदगी

कौन रह बतला सके जब ख़िज़र भटकाने लगे

और अगर उलमा-ए-इस्लाम को मिर्ज़ा साहब के मसीह मौऊद होने में कलाम है तो अजब अहले-इस्लाम हैं कि हदीसों और आयतों के तर्जुमों में किसी की राय नहीं मिलती। और बाहम मुत्तफ़िक़ हो कर एक बात मुक़र्रर नहीं करते। मिर्ज़ाई साहिबान अपने आपको जन्नती गिनते हैं और उन के मुख़ालिफ़ उन्हें काफ़िर क़रार देते हैं। इस के इलावा तहत्तर 73 फ़िर्क़ों से जिस अहले-मज़्हब के साथ गुफ़्तगु की जाती है वही अपने आपको नाजी बताता है और दूसरे को नारी (दोज़ख़ी, जहन्नुमी) क़रार देता है। अब नया मुतलाशी किस को सच्चा समझे और किस को झूटा क़रार दे। इसलिए मेरा जुम्ला उलमा-ए-अहले-इस्लाम से सवाल है इन चौहत्तर 74 मज़्हबों में से सच्चा कौन सा है। कि जिसके हासिल करने से नजात मिले।