इन्सान की तीन बड़ी ज़रूरतें

ब्रहमो मिस्ल दीगर अक़ला के इक़रार करते हैं कि गुनाह आशनान वग़ैरह से दूर नहीं हो सकता। मगर वो कर्म की ताअलीम में कुछ तादाद सज़ा की मुक़र्रर करते हैं जो नज़ा (मौत, जान कनी) के वक़्त होती है। ये जानना तो बहुत ही मुश्किल है। कि क्या सज़ा हो सकती है और कब मसीही मज़्हब इस के ख़िलाफ़ ज़ाहिर करता है। कि बतकाज़ा अदल ख़ुदा से माफ़ी क्योंकर हो सकती है।

Three Major Needs of Man

इन्सान की तीन बड़ी ज़रूरतें

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Feburary 1, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 1 फरवरी 1895 ई॰

इन्सान के पास रूह व जिस्म हैं। उन में से हर एक की ज़रूरतें अलैहदा अलैहदा (अलग-अलग) हैं।

1. जिस्म को ग़िज़ा, पोशाक और मकान की ज़रूरत होती है। 2. रूह को भी बहुत बड़ी-बड़ी ज़रूरतें होती हैं।

चंद मुद्दत-बाद जिस्म फ़ना हो जाएगा। मगर रूह तो ख़्वाह लाइन्तहा ख़ुशी में ख़्वाह तकालीफ़ में मुब्तला रहेगी। एक बड़े मुअल्लिम का क़ौल है “कि उस शख़्स को क्या हासिल जिसने तमाम दुनिया की लज़्ज़तों को हासिल किया। मगर रूह-ए-अज़ीज़ हलाक किया।” हमारी ग़र्ज़ रूह की उन जरूरतों की तक्मील से है। जो हस्ती की बिला इख़्तताम हालत के लिए ज़रूरी हैं। जो हमारी मुंतज़िर है। और थोड़े अर्से में हम सब जिसमें दाख़िल होंगे।

अव़्वल, इन्सान को माफी गुनाह की ज़रूरत है। हम सबको अपने गुनाहों का मुक्कर (इक़रार करना) होना चाहिए। चंद ब्रहमन रोज़ाना ऐसा इक़रार करते हैं। पापो हम। पाप कर मुहिम। पा पतिमा। पाप समबहवाह यानी मैं गुनेहगार हूँ। मैंने गुनाह किया मेरी जान गुनेहगार है। मैं गुनाह में पैदा हुआ। हाँ ये इक़रार ऐसा ही है। कि हर शख़्स करे। मगर अब सवाल ये आइद होता है। कि आया गुनाह माफ़ हो सकता है?

हिंदू मज़्हब के दो जवाब हैं जो एक दूसरे के बरअक्स (उलट) हैं। बहुत ख़याल करते बल्कि यक़ीन करते हैं। कि गुनाह दरिया-ए-गंग (गंगा) या किसी दीगर पाक पानी के आशनान (नहाना) से धुल सकता है। और किसी देवता का नाम लेने से भी गुनाह दूर हो जाता है। चुनान्चे एक मशहूर शख़्स अजमील का ज़िक्र है। कि उस ने नज़ा (मौत, जान कनी) के वक़्त अपने लड़के नारायन को पानी लाने के लिए बुलाया चूँकि नारायन ख़ुदा का भी नाम है। वो बहिश्त में दाख़िल हुआ।

अब इस के बरअक्स इस ताअलीम को भी देखो कि कर्म की ताअलीम के मुताबिक़ माफ़ी गुनाह ग़ैर-मुम्किन है। शंकर आचार्य कहता है कि बरहतम (हमा औसत) (सब कुछ ख़ुदा है) को कर्म के साथ कुछ दस्त अंदाज़ी (मुदाख़िलत) नहीं है।

ब्रहमो मिस्ल दीगर अक़ला के इक़रार करते हैं कि गुनाह आशनान वग़ैरह से दूर नहीं हो सकता। मगर वो कर्म की ताअलीम में कुछ तादाद सज़ा की मुक़र्रर करते हैं जो नज़ा (मौत, जान कनी) के वक़्त होती है। ये जानना तो बहुत ही मुश्किल है। कि क्या सज़ा हो सकती है और कब मसीही मज़्हब इस के ख़िलाफ़ ज़ाहिर करता है। कि बतकाज़ा अदल ख़ुदा से माफ़ी क्योंकर हो सकती है। ख़ुदा तमाम शरीअत का बख़्शने वाला है। अगर गुनाह की माफ़ी बग़ैर कफ़्फ़ारे के हो तो इन्सान को इलाही गर्वनमैंट के ख़िलाफ़ बग़ावत का सख़्त इश्तिआल (गु़स्सा) होगा ख़ुदा ने ख़ुद एक शफ़ी (शफ़ाअत करने वाला) बख़्शा उस ने इन्सान को ऐसा प्यार किया। कि अपने इकलौते बेटे येसू को दुनिया में भेजा। कि वो इन्सानी जामा इख़्तियार करे। दुनिया में रहे उन के लिए मरे। उस ने गुनाह की सज़ा को बर्दाश्त किया। कामिल तौर से ख़ुदा की शरीअत को पूरा किया वो जो उस को अपना शफ़ी समझ कर उस पर ईमान लाते हैं वो उन के गुनाहों का जवाब देता है। और अपनी रास्तबाज़ी की पोशाक में उन को छुपाता है। ख़ुदा फैज़ान-ए-रहमत (रहम की बड़ी बख़्शिश) के चशमे से कुल माफ़ी येसू मसीह के नाम से बख़्शता है हमें उस की तलाश में मंदिर हमिंदर जात्र व अश्नान (मुक़द्दस मुक़ामात की ज़ियारत व ग़ुस्ल) के लिए मारे मारे फिरने की ज़रूरत नहीं। ख़ुदा हर जगह हाज़िर व नाज़िर है। दस्त-ए-दुआ सर बसजूद हो कर कहो “ऐ क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा मैं इक़रार करता हूँ कि मैं गुनेहगार हूँ। इस लायक़ नहीं कि अपने को बचाऊं।”

मैं ख़ुदावन्द मसीह येसू के नाम से माफ़ी का ख़्वास्तगार (उम्मीदवार, सवाली) हूँ मैं सिर्फ उसी की पनाह में आता हूँ। उस की ख़ातिर से मेरे गुनाहों को मिटा दे “ऐसी दुआ मक़्बूल होगी।”

दुवम, इन्सान को पाकीज़गी की बड़ी ज़रूरत है हालाँकि गुनाह की माफ़ी एक बहुत बड़ी बख़्शिश है मगर यही काफ़ी नहीं है। फ़र्ज़ करो कि किसी आदमी को सज़ा-ए-मौत का हुक्म है और वो मर्ज़-ए-महलक में भी मुब्तला है। अगर वो सज़ा-ए-मौत से बरी किया जाये। तो माफ़ी के साथ ही ज़रूर है, कि उसका ईलाज भी हो। वर्ना सिर्फ माफ़ी ही माफ़ी है तो उस मर्ज़ से उस मर्ज़ का जल्द ख़ातिमा हो जाएगा।

नज़र बहालात उस को एक मुआलिज की ज़रूरत है। ताकि उस की तंदरुस्ती वापिस हो। हम सब मिस्ल कूड़े के मकरूह व ईलाज गुनाह के मर्ज़ में मुब्तला हैं। ख़ुदा के हुज़ूर हम सब सड़े नासूरों से भरे हैं। इस हालत से हम उस के मुक़द्दस बहिश्त (जन्नत) में हरगिज़ दाख़िल नहीं हो सकते। मज़्हब हिंदू कौनसा ज़रीया हमको पाकीज़गी में तरक़्क़ी करने का बख़्शता है? अफ़्सोस कोई भी नहीं। क्योंकि शाष्त्र के मुताबिक़ उस के तीन बड़े देवता।

1, ब्रहम 2, विष्णु 3, शिव ख़ुद ही गुनेहगार थे। तो इस सूरत में क्योंकर वो अपने परस्तार को बचा सकते हैं? क्या मुम्किन है, कि अंधा अंधे को रास्ता दिखला दे? हरगिज़ नहीं। क्या ख़ाना मंदिर कोई मदद दे सकता है। क्या उस में कोई पाकीज़गी की नसीहत है? बाअज़ में रन्डीयों का नाच होता है। जिसका असर अज़हर-मिन-श्शम्स (सूरज की तरह रोशन) है। हिंदू मज़्हब के अक़ाइद के मुताबिक़ कुल अच्छे व बुरे कामों का तर्क ख़ूब है। यहां तक कि ये अम्र हद तयक़्क़ुन (बेहद एतबार करना) को पहुंच जाये अहम ब्रह्मास्मि। मैं ब्रहम हूँ। यानी हमा औसत। जो एक हल तलब मसाइल है।

वाहिद व सच्चा ख़ुदा इलावा माफ़ी के एक हकीम का मर्ज़-ए-असयान (गुनाह का मर्ज़) के ईलाज के लिए वाअदा फ़रमाता है। और वो रूहुल-क़ुद्दुस है। हकीम दवा देता है। पस रूहुल-क़ुद्दुस ही गुनाह की माफ़ी व पाकीज़गी के लिए तरकीबें बतलाता है। चंद उन में से ज़ेल में दर्ज हैं :-

1. तिलावत किताब-ए-मुक़द्दस। ये किताब हक़ीक़ी शास्त्र है। हमारे रफ़्तार के लिए रोशनी। और राह़-ए-रास्त पर चलाने के रहनुमा किताब-ए-मुक़द्दस को रोज़ पढ़ना और इसी पर अमल चाहीए।

2. दुआ। जिस तरह बच्चे नाहमवार सड़क पर चलते हुए गिरते हैं। हम सब ही मासियत (गुनाह) में गिरते पड़ते हैं। मगर दुआ के ज़रीये आस्मानी बाप का हाथ पकड़ कर चलते हैं। हर सुबह गुज़श्ता शब की रहमतों का शुक्रिया अदा करना चाहीए। दिन-भर के लिए मदद हर शाम को आराम करने से क़ब्ल दिन-भर के गुनाहों का इक़रार कर के माफ़ी। और आज़माईश के वक़्त ख़ुदा की तरफ़ रुजू हो कर दुआ मांगनी चाहीए।

3. इबादत। ख़ुदा ने सात दिन में एक दिन ख़ास इबादत के लिए मुक़र्रर फ़रमाया है। हमको गुज़श्ता हफ्ते के अफ़आल पर नज़र-ए-सानी करना चाहीए। किताब मुक़द्दस पढ़ना। इबादतखाना में इबादत करना चाहीए।

4. गुनाह से एहतियात। “ख़बरदार रहो और दुआ माँगो ताकि आज़माईश में ना पड़ो।” जहां तक मुम्किन हो वो अफ़आल जिनसे आज़माईश में पड़ने का ख़तरा हो तर्क करना चाहीए। बे-दीनों की सोहबत। ख़राब किताबों की सैर से मत्रुक (छोड़ना) होना चाहीए। सोहबत नेक उम्दा किताबों की सैर एक ज़रीया तरक़्क़ी का हो सकती हैं। एक मरीज़ को दवा का हुक्म दिया जाता है वो उदूल करके कभी तंदरुस्ती की उम्मीद नहीं रख सकता। इसी तरह अगर हम रूहुल-क़ुद्दुस की हिदायत पर अमल ना करें। तो मर्ज़ इस्याँ (गुनाह) से शिफ़ा पाने की उम्मीद बेफ़ाइदा है।

सर गर्मी से दुआ माँगो। “ऐ बाप आस्मानी ख़ुदावंद मसीह की ख़ातिर से अपना रूहुल-क़ुद्दुस नाज़िल फ़र्मा। ताकि वो सदाक़त की रहनुमाई करे। मेरे दिल को पाक करे और पाकीज़गी में मिस्ल तेरे बनाए।”

सोइम, आस्मान या बहिश्त की ज़रूरत। हुज़ूर केसरा हिंद (हिन्दुस्तान का बादशाह) ज़ाइद अज़ पचास साल हुआ तख़्त हुकूमत पर रौनक अफ़रोज़ हैं। मगर कुछ रोज़ बाद ताज-ए-शाहाना रखा रहेगा। और अपने बुज़ुर्गों की तरह गोशा क़ब्र में जांनशीन होंगे। पस क्या थोड़ी सी ख़ुशी पर मतमीन होना चाहीए? नहीं हरगिज़ नहीं। हमको अबदी ख़ुशी व मसर्रत की ज़रूरत है। हिंदूओं का ख़याल है कि अपने फ़र्ज़ी नेक अफ़आल व खेरात या दान व चहना से बहिश्त खरीदेंगे। उन में से एक बहुत बड़ा ख़याल ये भी है। कि बवक़्त-ए-मौत अगर गाय की दुम ब्रहमन को पकड़ा कर दान दी जावे तो कष्ट (मुश्किल) दूर हो जाएगा। आक़िल बशरान तरीक़ों की बे बुनियादी पर ग़ौर कर सकता है। मरने वाला हिंदू दुनिया को आइंदा के ख़ौफ़ से बड़े तरद्दुद रंज में छोड़ता है। उस को अपने साबिक़ के मुतअद्दिद जन्मों का ख़याल जांकाह सख़्त परेशानी व उलझन में डालता है। और वो डरता है, कि बाद मौत के प्राण (सांस, दम) के मुताबिक़ उस को निवाला जहन्नम होना पड़ेगा।

मसीही कभी अपने नेक अफ़आल के भरोसे पर बहिश्त हासिल करने की उम्मीद नहीं रखते। उनका क़ौल है कि उन के नेक अफ़आल भी लौस इस्यान (गुनाह की आलूदगी) से ममलू (भरा हुआ) रहते हैं। और माफ़ी की ज़रूरत है। उन को सिर्फ ख़ुदावंद येसू मसीह की बेदाग रास्तबाज़ी के ज़रीये से बचने की उम्मीद है। उस के वसीले से उन के गुनाह माफ़ हो सकते हैं। और बहिश्त नसीब हो सकता है। बवक़्त-ए-मौत सच्चे मसीही को हरगिज़ किसी क़िस्म का ख़ौफ़ नहीं होता। यूंही कि रूह क़ालिब से परवाज़ करती है। फ़ौरन आस्मान में ख़ुदा के हुज़ूर अबदी ख़ुशी के लिए जाती है। ख़ुदा हमारा आस्मानी बाप है। क्योंकि उस ने हमें पैदा किया। हिंदूओं का जैसा ख़याल है। हमारा ख़याल हरगिज़ नहीं है, कि हम अबदी हैं। बल्कि ख़ुदा ने हमको अपने में बुलाया। हमारा हर एक नफ़्स उस की मर्ज़ी पर मौक़ूफ़ है। हम उस की दुनिया में रहते हैं। तमाम चीज़ें जो हमारे पास हैं। उस की बख़्शिश हैं। जिस तरह लड़कों को अपने बाप की फ़रमांबर्दारी व मुहब्बत लाज़िम है। इसी तरह हम पर उस का हक़ है। मगर अफ़्सोस कि हम नाशुक्रगुज़ार और बाग़ी लड़के हैं। उस के अहकाम की तामील व क़द्र नहीं करते। और अपनी गुनाह आलूद ख़्वाहिश पर चलते हैं। ताहम वो अपनी पिदराना शफ़क़त ज़ाहिर करता है। और अपनी तरफ़ बुलाता है। क्योंकि अक़्लमंद बाप अपने लड़कों को खेल में तज़ीअ औक़ात (वक़्त ज़ाया करना) नहीं करने देगा। उस की मर्ज़ी उस की फ़रमांबर्दारी से है। और नेक-चलनी से है। वो अपने लड़कों की ग़लतीयों की इस्लाह करता है। पस ख़ुदा भी अपने फ़रज़न्दों के साथ ऐसा ही सुलूक करता है। मुद्दा ये है कि हम अबदी ख़ुशी की तैयारी करें। और जो मज़्हब इन तीनों जरूरतों को रफ़ा करे इख़्तियार करें।

 

ईसा की इन्जील

अगरचे इस की बाबत और कुछ लिखना ज़रूरी नहीं है। क्योंकि इस के क़ब्ल ही विलायत में राज़ सर बस्ता (छिपा हुआ) खुल गया है। और साथ ही इस के हज़रत नोटोविच की क़लई (हक़ीक़त ज़ाहिर होना) भी खुल गई, कि वो क्या हैं। और हिन्दुस्तान के मशहूर व मारूफ़ अंग्रेज़ी अख़बारों ने भी बड़े ज़ोर से नोटोविच की तर्दीद (रद्द करना)

Gospel of Issa

ईसा की इन्जील

By

Ahmad Shah Shiaq
अहमद शाह शावक

Published in Nur-i-Afshan Dec 28, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 28 दिसंबर 1894 ई॰

अगरचे इस की बाबत और कुछ लिखना ज़रूरी नहीं है। क्योंकि इस के क़ब्ल ही विलायत में राज़ सर बस्ता (छिपा हुआ) खुल गया है। और साथ ही इस के हज़रत नोटोविच की क़लई (हक़ीक़त ज़ाहिर होना) भी खुल गई, कि वो क्या हैं। और हिन्दुस्तान के मशहूर व मारूफ़ अंग्रेज़ी अख़बारों ने भी बड़े ज़ोर से नोटोविच की तर्दीद (रद्द करना) कर दी। और उनका अगला पिछ्ला हाल भी अपने नाज़रीन को सुना दिया। जिन्हों ने मॉर्निंग पोस्ट और पायोनियर को बराबर पढ़ा होगा। वो इस हक़ीक़त से बख़ूबी आगाह होंगे। मगर फिर भी हमको अपना वो वाअदा पूरा करना ज़रूरी है, जो हम अपनी तहरीर में जो हम्स की ख़ानक़ाह से सरसरी (मामूली) तौर पर लिखी थी, किया था। और जो नूर-ए-अफ़्शां मत्बूआ 31 अगस्त 1894 ई॰ में शाएअ हो कर पब्लिक के मुलाहिज़ा से गुज़र चुकी है। उस के आख़िरी अल्फ़ाज़, कि “बाक़ी फिर लिखूँगा” हमको मज्बूर कर रहे हैं, कि ज़रूर कुछ लिखना चाहिए। और बाअज़ अहबाब की भी यही ख़्वाहिश है जो अक्सर अपने नवाज़िश नामों में इस की बाबत इसरार (ज़िद) करते हैं। लिहाज़ा ख़याल ख़ातिर अहबाब चाहिए हर दम। अनीस ठेस ना लग जाये आबगीनों को।

नाज़रीन का बेशक़ीमत वक़्त और नूर-अफ़्शां के क़ाइल क़द्र कालमों के वक़्फ़ होने लिए माफ़ किया जाऊं।

कप्तान ऐस ऐच गॉड फ़्री साहब ब्रिटिश जवाईंट कमिर लद्दाख की तहक़ीक़ात का नतीजा

साहब मौसूफ़ ने हमारी व नीज़ मूरीवीन मिशनरी साहिबान की दरख़्वास्त पर इस अम्र में ब हैसियत कमिशनरी तफ़्तीश (तहक़ीक़ात) शुरू की। उन्होंने कप्तान रामज़ी साहब को जो साबिक़ में यहां के ब्रिटिश जवाईंट कमिशनर थे एक ख़त बदीं मज़्मून लिखा, कि “क्या आपके ज़माने में कोई शख़्स निकोलस नोटोविच लद्दाख में आया था?” उन्होंने उस के जवाब में तहरीर किया “हाँ 1887 ई॰ माह-ए-अक्तूबर में एक शख़्स इस नाम का आया था। और वो दाँत के दर्द की शिकायत करता था जिसका मुआलिजा डाक्टर मार्क्स साहब ने जो उस वक़्त लद्दाख के मैडीकल ऑफीसर थे किया था। उस का दाँत उन्होंने उखाड़ा था। और ये शख़्स सिर्फ दो तीन दिन लद्दाख में रह कर चला गया था।” डाक्टर सूरज मल जो उस ज़माने में यहां दरबार कश्मीर की तरफ़ से गवर्नर लद्दाख थे। उन्होंने भी इस बात को तस्लीम किया, कि नोटोविच लद्दाख 1887 ई॰ में आया था। और दो तीन रोज़ रह कर चला गया था। इन दोनों तहरीरों से हमको इस क़द्र तो साबित हो गया, कि नोटोविच लद्दाख तक ज़रूर आए। मगर इस से ये हरगिज़ साबित ना होगा, कि वो इंजीली ईसा को हमस से ले गए। और अब तक उस के लिए बहुत कोशिश की गई, कि कोई सबूत इस अम्र का मिले। मगर कोई कामयाबी की सूरत नज़र नहीं आती।

हमस की ख़ानक़ाह के राहिब (ईसाई आबिद या ज़ाहिद) को भी ब्रिटिश जवाईंट कमिशनर साहब ने एक सर शता (महिकमा, कचहरी, शोबा) का ख़त लिखा, कि आया तुम्हारे यहां कोई शख़्स किसी वक़्त इस हालत में ख़ानक़ाह में रहा, कि “उस की टांग टूटी हो। और तुमने, या तुम्हारे और किसी साथी ने इस की ख़िदमत की हो। और अगर तुम्हारी ख़ानक़ाह में कोई ऐसी किताब हो जिसमें येसू मसीह की ज़िंदगी के हालात हों, या कोई दूसरी किताब जो मज़्हब ईस्वी से ताल्लुक़ रखती हो। इस बात की भी इत्तिला दो। और ये भी बतलाओ कि क्या किसी रूसी सय्याह, या और किसी शख़्स ने तुम्हारी ख़ानक़ाह में रह कर किसी किताब का जो “ईसा” से मन्सूब (मुताल्लिक़ किया हुआ) हो तर्जुमा किया?”

इस के जवाब में वहां के हैड लामा ने जवाब दिया, कि “ना तो कोई शख़्स हमारे यहां टूटी हुई टांग लेकर आया, कि हमने उस की ख़िदमत से फ़ख़्र हासिल किया हो। और ना कोई किताब हमारी ख़ानक़ाह में मज़्हब ईस्वी के मुताल्लिक़ है। और ना किसी शख़्स को हमने कभी कोई किताब दी कि वो तर्जुमा करता।” ये ख़ुलासा है कमिशनर साहब की तहक़ीक़ात का। हम गुज़श्ता हफ़्ता फिर ख़ानक़ाह हमस को गए थे। और वहां के कुल राहिबों से जो शुमार में क़रीब पाँच सौ के हैं बज़रीया मुतर्जिम दर्याफ़्त करते रहे। मगर किसी ने भी जवाब इस बात का ना दिया, कि उनको इस मुआमले से कुछ ख़बर है। उनका बयान है, कि “अव़्वल तो कोई ऐसा शख़्स यहां आया ही नहीं। और अगर अंग्रेज़ लोग ख़ानक़ाह देखने के लिए आते हैं तो ख़ानक़ाह के मकान के बाहर एक बाग़ है। उसी में अपना ख़ेमा लगा कर रहते हैं कोई अंग्रेज़, या रूसी कभी ख़ानक़ाह के अंदर नहीं रहा। ना ये हमारा दस्तूर (रिवाज) है, कि किसी को ख़ानक़ाह के अंदर आने की इजाज़त दें। और ना हम किसी को अपनी किताब छूने देते हैं। और ना किताब को ख़ानक़ाह के बाहर ले जाते हैं। और ना किसी को ऐसा करने की इजाज़त दे सकते हैं।”

रेवरेंड एफ़ बी शा और मिस्टर नोटोवि

अख़्बार डेली न्यूज़ लंडन मत्बूआ 2 जुलाई 1894 ई॰ में पादरी एफ़॰ बी॰ शाअ मौर्योविन मिशनरी लद्दाख ने नोटोविच साहब की तर्दीद में एक ख़त लिखा, कि “हमस की ख़ानक़ाह में ना तो कोई नुस्ख़ा पाली ज़बान में है। और ना कोई पाली ज़बान से वाक़िफ़ है। हत्ता कि कोई शख़्स पाली हुरूफ़ को पहचान भी नहीं सकता। और ना कोई शख़्स नोटोविच नाम का हमस की ख़ानक़ाह में आया। और ना कोई शख़्स टांग टूटी हुई हालत में ख़ानक़ाह हमस के राहिबों से ईलाज किया गया। और ना कोई ऐसा शख़्स कभी ख़ानक़ाह में रहा। वग़ैरह।” इस के जवाब में नोटोविच साहब तहरीर फ़र्माते हैं, कि “ज़रूर इन्जील ईसा” का असली नुस्ख़ा हमस की ख़ानक़ाह में मौजूद है। बशर्ते के उस को वहां के पादरीयों ने वहां से अलेहदा (अलग) ना कर दिया हो।” और साथ ही इस के ये भी लिखा है, कि “मैं साल आइंदा फिर लद्दाख को जाऊँगा। और हमस की ख़ानक़ाह में इस नुस्खे को तलाश करूँगा। और अगर वहां ना मिला तो लासा की ख़ानक़ाह में जा कर तफ़्तीश करूँगा।” हम नोटोविच साहब की दाद देते हैं। क्योंकि उनको सूझी बड़ी दूर की आप फ़र्माते हैं, कि “अगर पादरीयों ने इस नुस्खे को वहां से अलग ना कर दिया हो।” ऐ हज़रत जब आप ख़ुद उस के ख़रीदने में कामयाब ना हुए और बक़ौल आपके, कि “टांग की क़ीमत देकर सिर्फ तर्जुमा ही नसीब हुआ।” तो फिर बेचारे पादरी कहाँ से और किस तरह उस के वहां से अलग करने में कामयाब हो सकते हैं? ये सिर्फ़ आपकी बद-गुमानी है। जो अपने झूट को लोगों से छिपाने के लिए पैदा की। नोटोविच साहब के इस की नक़्ल 6 जुलाई 1894 ई॰ के होम न्यूज़ में भी की गई है उस में भी इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि “नोटोविच साहब साल आइंदा में फिर लद्दाख को जाऐंगे।” ख़ैर वह आएं। हम भी उनका ख़ैर मुक़द्दम करने को यहां बैठे हैं। मगर हमको भी इस के लिए मुंतज़िर रहना चाहिए। कि जल्द हम इस ख़बर को किसी अंग्रेज़ी अख़्बार में पड़ेंगे, कि नोटोविच साहब सख़्त बीमार हो गए। या ख़ुदा-न-ख़्वास्ता जिस तरह हमस की ख़ानक़ाह में टांग टूट गई थी। उसी तरह और कोई उज़ू (जिस्म का हिस्सा) नाकारा हो गया। इसलिए वो अब लद्दाख को इस साल नहीं जा सकते। क्योंकि अगर वो यहां आएँगे तो बनाएँगे क्या, “इन्जील ईसा” जहां से पहले पैदा की वहीं जाएं। हमस और लासा को जाना फ़ुज़ूल है।

नोटोविच साहब का साफ़ इन्कार कि उनकी टांग नहीं टूटी और ना उन्होंने नुस्ख़ा पाली ज़बान में देखा बल्कि तिब्बती ज़बान में देखा

चूँकि पादरी साहब ने नोटोविच साहब की तर्दीद में लिखा था कि कोई शख़्स हमस की ख़ानक़ाह में टांग टूटने की हालत में नहीं रहा और ना कोई नुस्ख़ा वहां ज़बान पाली में है। और ना कोई पाली जानता है।” इस पर नोटोविच साहब ने एक आर्टीकल एक फ़्रैंच अख़्बार में जो पैरिस से निकलता है इस तर्ज़ से लिखा कि “मैंने कभी नहीं कहा, कि मेरी टांग टूटी थी। और हमस के मालिकों ने मेरी मदद की। बल्कि मैंने ये कहा, कि मैं बीमार था। और इस बीमारी की हालत में हमस की ख़ानक़ाह में रहा। और वो नुस्ख़ा पाया। और तर्जुमा किया। और मैंने ये भी नहीं कहा कि वो नुस्ख़ा पाली ज़बान में मैंने देखा। बल्कि ये कि अस्ल नुस्ख़ा पाली ज़बान का लासा में मौजूद है। और इस का तर्जुमा तिब्बती ज़बान में हमस में मौजूद है।” नोटोविच साहब का ये बयान अख़्बार (Lintermedivere) जिल्द 30 नम्बर 662 मौरख़ा 10, अगस्त 1894 ई॰ में शाएअ हुआ है। और अपने बयान में इन्जील ईसा के 148 सफ़ा का हवाला देकर वही ज़िक्र शुरू किया है। जो अक्सर उर्दू व अंग्रेज़ी अख़बारों में ईसा की ज़िंदगी के मुताल्लिक़ शाएअ हो चुका है। इस का इआदा (दोहराना) इस जगह फ़ुज़ूल है।

अब मुक़ाम हैरत है, कि इब्तिदा इब्तिदा जब अख़बारों में ये ख़बर मशहूर हुई। तो उन्हें दो उन्वाने नू (नया) से हुई थी। और नोटोविच साहब ने ज़र्रा भर इस की मुख़ालिफ़त नहीं की। मगर जिस वक़्त पादरी शाअ साहब की तरफ़ से इस पर नोटिस लिया गया। तो नोटोविच साहब को ये सूझी, कि इन दोनों बातों से इन्कार कर जाओ तो बेहतर है। और हम यक़ीनी तौर पर ये कहते हैं, कि ज़रूर नोटोविच साहब भी ख़ुद इन मज़्कूर बाला ख़बरों के मुख़्बिर (ख़बर रखने वाला) होंगे। और बाद को जब देखा, कि झूट के पांव उखड़ गए। तो झट ये सूझ गई। अब या तो नोटोविच साहब इस बात की तस्दीक़ कराएं, कि क्योंकर अख़्बार नवीसों ने इस ख़बर को शाएअ किया। और या ये कहें, कि पहले मैंने अपनी बहादुरी दिखलाने को ये कह दिया था। अब मैंने देखा, कि उलटी आँतें गले में पढ़ीं। इसलिए मैं अपने झूट को मान लेता हूँ। सबसे अव़्वल विलायत के अख़बारों ने नोटोविच का साथ दिया। और वहीं से ये ख़बरें हिन्दुस्तान में पहुंचीं और हम आगे साबित कर देंगे, कि नोटोविच साहब की आदत झूट कहने की 1887 ई॰ से हिन्दुस्तान में साबित है।

आपका ये कहना, कि हमस में लासा वाले पाली नुस्खे का तर्जुमा है। आपकी लियाक़त क़ाबिलीयत का सबूत दे रहा है। कि आपने इस तर्जुमे को असली के साथ मुक़ाबला करने से पहले ही दुरुस्त व सही क़रार दे दिया। लासा आप गए नहीं। असली नुस्खे को देखा नहीं। और ये तो बतलाए, कि उस तर्जुमे का तर्जुमा किस की मदद से आपने किया? हमको हमस में एक भी शख़्स ऐसा नज़र नहीं आया। जो आपको अंग्रेज़ी या फ़्रैंच या और किसी ज़बान में इस का तर्जुमा समझा कर करा सकता। शायद आपने ख़ुद तिब्बती में इस क़द्र महारत पैदा की होगी। मगर ये भी मुहाल मालूम होता है। ख़ैर जो कुछ हो हम देखेंगे, कि किस तरह आप इस को यहां आकर साबित करते हैं।

प्रोफ़ैसर मेक्स मूलर साहब का मज़्मून नोटोविच साहब की इन्जील ईसा” पर

प्रोफ़ैसर मेक्स मूलर साहब के क़ाबिल अक्दर क़लम से एक मज़्मून उन्नीसवीं सदी बाबत माह-ए-अक्तूबर 1894 ई॰ में शाएअ हुआ है। जिसमें उन्होंने नोटोविच साहब के दाअवों को हर पहलू से जाँचा है। हमको उम्मीद थी, कि ज़रूर नोटोविच साहब प्रोफ़ैसर मेक्स मूलर साहब की तर्दीद में कुछ ख़ामा-फ़रसाई (लिखना) करेंगे। मगर हनूज़ (अभी तक) इंतिज़ार ही इंतिज़ार है। और उम्मीद पड़ती है, कि हमेशा तक ये इंतिज़ार बाक़ी रहेगा।

प्रोफ़ैसर साहब ने बहुत वाज़ेह दलाईल से साबित किया है, कि “इन्जील ईसा” हरगिज़ हरगिज़ बूदा (कमज़ोर, कम हिम्मत) लोगों के दर्मियान ना कभी थी। और ना अब है। और ना नोटोविच साहब ने कभी हमस की ख़ानक़ाह में टांग टूटने की हालत में पनाह ली और ना इस मतलब के वास्ते उन्होंने कभी टांग तोड़ी कि “इन्जील ईसा” उन को दस्तयाब हो। और इस बयान की ताईद (हिमायत) में बहुत से सय्याहों और मिशनरियों के हवाले दिए हैं जो लद्दाख में रहते हैं और जो लोग सय्याहों में से हमस को गए। एक लेडी के ख़त का ख़ुलासा जो प्रोफ़ैसर साहब को 26 जून को उस लेडी ने लद्दाख से भेजा ज़ेल में नाज़रीन के लिए तर्जुमा करता हूँ। ताकि नाज़रीन को मालूम हो जाये। कि सिर्फ हम और मिशनरी ही ऐसा नहीं कहते। बल्कि और लोग भी जिनको इस से कुछ ताल्लुक़ नहीं इस बात की बाबत किस क़द्र तलाश करते हैं और क्या राय रखते हैं लेडी के ख़त का ख़ुलासा :-

“क्या आपने ये सुना कि एक रूसी जिसको ख़ानक़ाह के अंदर जाने की इजाज़त ना मिली थी। तब उस ने अपनी टांग ख़ानक़ाह के फाटक के बाहर तोड़ डाली। और यूं ख़ानक़ाह के अंदर उस को पनाह दे दी गई? और उस का मतलब इस से सिर्फ ये था, कि बुद्धा लोगों के दर्मियान जो येसू मसीह की सवानिह उम्री है उस को हासिल करे और वो इसी ख़ानक़ाह में थी। और उस का बयान है, कि उस ने उसे हासिल किया। और उस ने उस को फ़्रैंच ज़बान में शाएअ भी करा दिया। इस क़िस्से का हर एक लफ़्ज़ सच्चाई से ख़ाली है। कोई रूसी वहां नहीं गया। ना कोई शख़्स गुज़श्ता पचास बरस से टूटी हुई टांग की हालत में इस सेमिनरी में दाख़िल हुआ और ना मसीह की कोई सवानिह उम्री वहां मौजूद है।” इस राकमा को लद्दाख से कोई ताल्लुक़ नहीं। वो सिर्फ़ बतौर सैर के यहां आई थी। और इस हालत में उस ने अख़बारों में इस ख़बर को पढ़ कर प्रोफ़ैसर साहब को इस सफ़ैद झूट से मुत्ला`अ (बाख़बर) किया।

नेक नीयत प्रोफ़ैसर साहब अपने मज़्मून में लिखते हैं कि “मुम्किन है कि नोटोविच ने हमस और लद्दाख का सफ़र किया हो। और उन की सब बातें दुरुस्त हों। मगर इस का जवाब नोटोविच साहब दें, कि क्यों हमस के राहिब लद्दाख के मिशनरीयों व अंग्रेज़ी सय्याहों, और दूसरे लोगों को इस बात की शहादत नहीं देते। कौनसा अम्र उन को मानेअ (मना) करता है।” और हम भी प्रोफ़ैसर मेक्स मूलर के हम ज़बान हो कर यही कहते हैं। हमने बहुत से पोशीदा वसीले इस बात के दर्याफ़्त करने के लिए बरते। मगर कोई बात भी इस के मुताल्लिक़ मालूम ना हुई जिससे सिर्फ ये गुमान कर सकते कि नोटोविच ज़रूर हमस में आए। और “इन्जील ईसा” उन को वहां मिली।

पायोनियर का एक नामा निगार नोटोविच साहब की 87 ई॰ की जालसाज़ी को ज़ाहिर करता है

पायोनियर में किसी नामा निगार ने (नम्बर का पता मैं नहीं दे सकता। क्योंकि जिस पर्चे में मैंने उस को देखा उस में से सिर्फ उसी क़द्र हिस्से काट लिया। जो नोटोविच साहब से मुताल्लिक़ था। तारीख़ व नम्बर का ख़याल ना रहा। ग़ालिबन 8 अक्तूबर के बाद किसी पर्चा में ये दर्ज है) लिखा है, कि “आपके नाज़रीन में से बहुतेरे एक रूसी मुसम्मा निकोलस नोटोविच के नाम से मानूस होंगे जो 1887 ई॰ की मौसम-ए-बहार में शमला पर आया। और वहां उस की ज़रक़-बरक़ व तुमतराक़ (शानो-शौकत, दाब) की बाइस इस पर लोगों की ख़ास तवज्जोह मबज़ूल हुई। उसने बयान किया कि मैं रूसी अख़्बार (Navoe upence) (जो रूस में बड़ा मशहूर अख़्बार है) का ख़ास नामा निगार हूँ।

और रूसी फ़ौज में ओहदा कप्तानी पर मामूर हूँ। जिस वक़्त ये ख़बर अख़्बार मज़्कूर के कान तक पहुंची उस ने बड़ी सफ़ाई के साथ इस की तर्दीद (रद्द) अपने कालमों में की। और बयान किया कि ना वो उनका नामा निगार है। और ना किसी रूसी फ़ौज का अफ़्सर है। और ना किसी और काम से रूस से उस को ताल्लुक़ है। वो पैरिस को वापिस गया। और वहां एक किताब येसू मसीह की सवानिह उम्री के नाम से फ़्रैंच ज़बान में शाएअ की। जिसमें वो कुछ कामयाब हुआ। और बहुत से अख़्बार को धोका देकर अपने साथ उस की ताईद (हिमायत) कराई। नामा निगार मज़्कूर लिखता है, कि मुझको बड़े अफ़्सोस के साथ कहना पड़ता है, कि बाअज़ उन अख़बारों में से हिन्दुस्तान के थे। जिनको इस की बाबत ज़्यादा बा-ख़बर होना वाजिब (लाज़िमी) था। फिर नामा निगार मज़्कूर ने नोटोविच की मुतर्जमा सवानिह उम्र अलगुज़ींडर सोवेम मर्हूम पर भी एक मज़ेदार चुटकी ली है। मगर वो हमारी बह्स से ख़ारिज है इसलिए क़लम अंदाज़ किए देते हैं।

अब नाज़रीन ख़ुद नोटोविच की दियानतदारी को मीज़ान इन्साफ़ (इन्साफ़ के तराज़ू) में तौल लें। हम अपनी तरफ़ से कुछ ना कहेंगे।

शमला पर नोटोविच को पोलेटिकल मुख़्बिर होने के लिए शुब्हा किया जाना और उनका फ़रार होना

जिस वक़्त हम श्री नगर से लद्दाख को ब्रिटिश जवाईंट कमिशनर साहब के हमराह आ रहे थे। तो रास्ते में हमको हमारे मेहरबान कर्नल वार्ड साहब मिले। उन से असनाए गुफ़्तगु (दौरान-ए-गुफ़्तगु) में नोटोविच, और उन की “इन्जील ईसा” का ज़िक्र हुआ। उन्हों ने नोटोविच का नाम सुनने पर ताज्जुब (हैरान होना) किया। और बयान किया, कि “जब मैं 1887 ई॰ में शिमला पर गर्वनमैंट आफ़ इंडिया की तरफ़ से वहां का सपरंटंडिंग इंजिनियर था। तो मैंने नोटोविच को देखा था। उस वक़्त वो एक रूसी अफ़्सर की वर्दी में था। और मैंने उस का फ़ोटो लिया था। और शिमला में उस पर शुब्हा किया गया था। कि वो कोई रूसी पोलिटिकल मुख़्बिर (सियासी ख़बर देने वाला) है। इसलिए पुलिस उस की निगरां रही। और उस को गिरफ़्तार करना चाहत्ता थी। मगर वो अय्यार (चालाक) पुलिस को झांसा देकर निकल गया।”

अब गुमान ग़ालिब है, कि ज़रूर नोटोविच साहब पुलिस के डर से शिमला से बख़्त रास्त लद्दाख आ गए हों। क्योंकि शिमला से लद्दाख को किलो के रास्ते बहुत आसानी होती है। और ख़ुसूसुन ऐसे पोलिटिकल मुख़बिरों के लिए उम्दा रास्ता है। क्योंकि सदहा मील तक आबादी का पता तक नहीं। और अक्सर ताजिरान शिमला इसी रास्ते से लद्दाख को बराए तिजारत आते हैं। हर जगह पर हमको नोटोविच साहब के चाल चलन का सबूत मिलता जाता है, कि वो क्या हैं। और इन सब बातों से की “इन्जील ईसा” की वक़अत (हैसियत) भी हमको मालूम हो गई।

नोटोविच साहब की तस्वीर फ़ौजी वर्दी में

पाल माल बजट जिल्द 26 नम्बर 1358 ई॰ मौरख़ा 14 अक्तूबर 1894 ई॰ में नोटोविच साहब की तस्वीर शाएअ हुई है। जिसकी बाबत ऐडीटर मुख़्बिर (ख़बर देने वाला) है। कि ये वो तस्वीर है जो नोटोविच साहब के हिंद में मौजूद होने के वक़्त ली गई। और ये भी कि सिर्फ दो साल हुए जब ये तस्वीर हिन्दुस्तान में उतारी गई थी। इस से नोटोविच साहब का अनक़रीब 1892 ई॰ तक हिन्दुस्तान ही में मौजूद होना साबित है। तस्वीर बिल्कुल फ़ौजी वर्दी में है। बड़े बड़े तमगे लगाए हुए हैं। तल्वार ज़ेब कमर है। तस्वीर देखने से बिल्कुल गबरू जवान मालूम होते हैं। मगर रूसी अख़्बार तर्दीद कर रहा है, कि वो रूस की किसी फ़ौज में कोई ओहदा नहीं रखता। पस साबित हुआ, कि सिर्फ अवाम को धोका दही की ग़र्ज़ से ये वज़ा तराशी (शक्ल, सूरत तराशना) थी। और यूँही “इन्जील ईसा” का ढोकोसला पैरिस में जा कर बघारा। इस तस्वीर से हमें अपने मेहरबान कर्नल वार्ड साहब का फ़रमाना याद आया, कि उन्होंने नोटोविच को शिमला पर फ़ौजी वर्दी में देखा था।

नोटोविच साहब की इन्जील ईसा की तब सोएम और अंग्रेज़ी तर्जुमा

किसी अख़्बार में हमने पढ़ा, कि नोटोविच साहब की “इन्जील ईसा” बार सोएम तबाअ हो चुकी यानी फ़्रैंच ज़बान में। और बहुत जल्द अंग्रेज़ी तर्जुमा पब्लिक को पेशकश किया जाएगा। इस से इस क़द्र तो हम भी समझ गए, कि नोटोविच साहब का मक़्सद ख़ातिर-ख़्वाह पूरा हो गया। और कुछ अजब नहीं, कि यही मतलब इनको मज्बूर करे कि हमस की ख़ानक़ाह से इस का बरामद होना हत्ता-उल-वसीअ (जहां तक हो सके) कर ही दिखाएं। और ऐसे बहरुपिए के नज़्दीक ये कोई मुश्किल अम्र नहीं है। मगर साथ इस के हमको यक़ीन-ए-कामिल है, कि हमस से तो उस का बरामद होना मुश्किल है। मगर नोटोविच ने इस की भी पेशबंदी कर ली है। वो होम न्यूज़, और डेली न्यूज़ में लिखते हैं, कि इलावा हमस के और भी ख़ानक़ाहों में उस की नक़्लें होंगी। ये सिर्फ़ इसी से मालूम होता है, कि अगर हमस से इस का बरामद करना नामुम्किन हो, तो और किसी जगह से किसी को कुछ ले देकर उस को बरामद दें।

हमको अफ़्सोस है, कि बावजूद इस क़द्र तर्दीद (रद्द करना, जवाब देना) के जो विलायत के अंग्रेज़ी अख़बारों में उनकी इन्जील की बाबत हो चुकी है। फिर भी इस जाली इन्जील की मांग बदस्तूर है। लोग ना मालूम क्यों इस के शैदा (फ़िदा, आशिक़) हैं। हमारे ख़याल में शैतान अपने एजैंटों की मार्फ़त लोगों को तर्ग़ीब (लालच) दे रहा है, कि वो ज़रूर उस को जो उन के लिए ज़हर हलाहिल का असर रखती है, ख़रीद कर अपनी रूहों को हलाक करें। हर एक नई शैय की क़द्र इंगलैंड में बड़े तपाक से की जाती है। और उन लोगों के लिए जो मज़्हब ईस्वी के मुख़ालिफ़ हैं मिस्टर नोटोविच और ऐम॰ पाल इस्टंडाफ़ जिनके मतबअ (छापने की जगह) में ये किताब शाएअ हुई है। अपने ख़याल में एक उम्दा औज़ार तैयार कर रहे हैं। मगर आख़िर को ये औज़ार नाकारा साबित हो चुका और हो जाएगा। गो इस वक़्त नोटोविच और उन के मतबाअ (छापाख़ाना) वालों की चांदी हो रही है। मगर ख़ुदा-ए-तआला को अपनी इन करतूतों का जवाब ज़रूर देना होगा। हमारे ख़याल में मिस्टर कोएलम, कर्नल इल्क़ाट, मिस्टर अलगज़ेन्डर देब, और एनी सैंट से नोटोविच ज़्यादा ही ले निकलेंगे। मगर उनको ख़याल करना चाहिए, कि “इन्सान अगर सारी दुनिया को कमाए और अपनी रूह को हलाक करे तो उस को क्या हासिल?”

अब हम इस का फ़ैसला नाज़रीन पर छोड़ते हैं, कि वो “इन्जील ईसा” की बाबत क्या ख़याल करें और उन उर्दू अख़बारात को अपनी तरफ़ से मोदबाना सलाह (मश्वरा) देते हैं। जिन्हों ने अपने अख़बारों में नोटोविच की इन्जील को असली ख़याल कर के उस पर लंबे चौड़े हाशिया चढ़ाए थे। कि अब अपने अख़बारों में सिर्फ इसी क़द्र लिख दें, कि नोटोविच की इन्जील अब तक ज़ेर-ए-बहस है। उस का असली होना अब तक साबित नहीं हुआ। और साल आइंदा में जब नोटोविच साहब यहां आकर इस को असली साबित कर दें। उस वक़्त जो चाहें सो लिखें। उस वक़्त हम भी उन की बड़ी अदब से सुनेंगे। अगर हक़ का पास होगा तो ज़रूर हमारी इस आख़िरी मुख़्तसर तहरीर को अपने अख़बारों में जगह देंगे। बाक़ी रहे अंग्रेज़ी अख़्बार, सो बाअज़ में तो तर्दीद हो चुकी। और जिनमें अब तक नहीं हुई उन में हम ख़ुद समझेंगे।

दूसरी न्यू डाल नहीं सकता

एक ग़ैर-मुक़ल्लिद (तक़्लीद करने वाला, पैरौ) मुहम्मदी ताअलीम याफ्ता ने ये सवाल किया था, कि अगर “हम मसीह और मुहम्मद दोनों पर ईमान रखें तो क्या क़बाहत (बुराई) है?” वो शख़्स इसी एतिक़ाद (यक़ीन) पर मुत्मइन है। और अक्सर ये भी कहता है, कि “मैं मसीह

For no other foundation can lay

दूसरी न्यू डाल नहीं सकता

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Dec 28, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 28 दिसंबर 1894 ई॰

क्योंकि, सिवा उस न्यू के जो पड़ी है। कोई दूसरी न्यू डाल नहीं सकता। वो येसू मसीह है।

1 कुरुन्थियों 3:11

एक ग़ैर-मुक़ल्लिद (तक़्लीद करने वाला, पैरौ) मुहम्मदी ताअलीम याफ्ता ने ये सवाल किया था, कि अगर “हम मसीह और मुहम्मद दोनों पर ईमान रखें तो क्या क़बाहत (बुराई) है?” वो शख़्स इसी एतिक़ाद (यक़ीन) पर मुत्मइन है। और अक्सर ये भी कहता है, कि “मैं मसीह को सब नबियों से अफ़्ज़ल व आला तर समझता हूँ। लेकिन उस की उलूहियत का क़ाइल व मुअतक़िद (एतिक़ाद रखने वाला) नहीं हों।” वो बाइबल व क़ुरआन अपने पास रखता। और दोनों किताबों की तिलावत करना दाख़िल इबादत समझता है। हम नहीं समझ सकते, कि बावजूद हर दो कुतुब में अक्सर उसूली मसाइल और तवारीख़ी वाक़ियात में इख़्तिलाफ़ात अज़ीम होने के कोई ज़ी इल्म व अक़्ल (अक़्ल व इल्म रखने वाला) मुहक़्क़िक़ (तहक़ीक़ करने वाला) क्योंकर दोनों को मिनज़्ज़ल मिनल्लाह (अल्लाह कि जानिब से) तस्लीम कर सकता। और क्योंकर उन नामुम्किन-उल-ततबीक (ना-मुम्किन बराबरी) उमूर की कोई तावील व तश्रीह कर के अपना दिली इत्मीनान हासिल कर सकता है। जिनके दर्मियान आस्मान व ज़मीन का फ़र्क़ है? मुम्किन है कि फ़ी ज़माना इस ख़याल के और मुहम्मदी अश्ख़ास भी मौजूद हों। जो बाइबल व क़ुरआन दोनों को किताब-उल्लाह जान कर उन की तिलावत करते हों। और मसीह व मुहम्मद दोनों को नबी बरहक़ जान कर ईमान रखने में कुछ क़बाहत (बुराई) ना समझते हों। इसलिए निहायत मुनासिब मालूम होता है, कि हम पहले उस मसीह का जिसका बयान बाइबल में पाया जाता है। उन के लिए कुछ ज़िक्र करें। कि वो कौन था। क्यों आया था। और क्या काम किया। और अगर मुहम्मद साहब में मसीह के से कमालात व सिफ़ात ना हों, तो उन पर ईमान लाने और मसीह के मनासिब (ओहदे) जलीला में उन्हें उस का शरीक ठहराने में बड़ी क़बाहत (ख़राबी) है।

वो येसू था और उस का ये नाम बहुक्म ख़ुदा जिब्राईल फ़रिश्ते की मार्फ़त रखा गया। जिसके माअने अपने लोगों को उनके गुनाहों से बचाने वाला है। वो गुम-शुदा बनी-आदम को ढ़ूढ़ने और बचाने के लिए इस दुनिया में आया। मत्ती 18:11 लूक़ा 19:10, उस के इस काम की निस्बत 587 बरस पेश्तर हिज़्क़ीएल नबी की मार्फ़त यूं पैशन गोई की गई थी, “मैं उस को जो खो गया ढूढूंगा। और उसे जो हाँका गया है फेर लाऊँगा। और उस की हड्डी को जो टूट गई है। बाँधूंगा और बीमारों को तक़वियत (ताक़त, क़ुव्वत) दूंगा।” हिज़्क़ीएल 34:16

पस इस अज़ीम काम के सरअंजाम के लिए सिर्फ उसी पर ईमान रखना वाजिब है। और बस। “वो लोगों की जान बर्बाद करने नही, बल्कि बचाने आया।” लूक़ा 9:56 उन के बचाने के लिए उस ने अपनी बेनज़ीर (बेमिसाल) मुहब्बत को ज़ाहिर किया जिसका बयान यूहन्ना रसूल यूं करता है, कि “हमने इस से मुहब्बत को जाना कि उस ने हमारे वास्ते अपनी जान दी।” 1 यूहन्ना 3:16 पौलुस रसूल लिखता है, कि “ख़ुदा ने अपनी मुहब्बत हम पर यूं ज़ाहिर की, कि जब हम गुनेहगार ठहरे थे मसीह हमारे वास्ते मुआ।” रोमीयों 5:8 उस के ऐसा करने की निस्बत यसअयाह नबी ने 712 बरस पेश्तर यूं नबुव्वत की थी, “लेकिन ख़ुदावंद को पसंद आया कि उसे कुचले। उस ने उसे ग़मगीं किया। जब उस की जान गुनाह के लिए गुज़रानी जाए।” यसअयाह 53:1 इसलिए सिर्फ उसी अकेले पर ईमान रखना चाहिए। ना किसी ऐसे शख़्स पर जो उस की कफ़्फ़ारा आमेज़ मौत का मुन्किर (इन्कार करने वाला) हो कर उस के झुटलाने की कोशिश करे। और इस अज़ीम हक़ीक़त पर पर्दा डाले। चुनान्चे मुहम्मद साहब ने ऐसा किया। और इसलिए मसीह के साथ मुहम्मद पर ईमान रखने में बड़ी क़बाहत (बुराई) है।

सवाल मज़्कूर का क़तई फ़ैसला कर देने वाला जवाब इन्जील मुक़द्दस से ये मिलता है, कि “किसी दूसरे से नजात नहीं क्योंकि आस्मान के तले आदमीयों को कोई दूसरा नाम बजुज़ येसू मसीह नहीं बख़्शा गया। जिससे हम नजात पा सकें।” आमाल 4:12 ख़ुदा एक है और ख़ुदा और आदमीयों के बीच एक आदमी भी दर्मियानी है। और वो येसू मसीह है।” 1 तीमुथियुस 2:5

मौत

नसीम-ए-सहरी (सुबह की हवा) के ठंडे ठंडे झोंकों ने ख़फ़तगान ख़्वाब-ए-नाज़ को चौकन्ना (होशियार) किया। मूअज़्ज़न की अज़ान ने नमाज़ सुबह के वास्ते नमाज़ियों को मुतवज्जोह किया। अल-सलात ख़ैर मिनल-नौम की सदा सुनते ही नमाज़ी कुलबुला कर उठ बैठे।

Death

मौत

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Dec 21, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 21 दिसंबर 1894 ई॰

ज़िंदगी मौत के आने की खबर देती है
ये इक़ामत हमें पैग़ाम अस्फ़र देती है

नसीम-ए-सहरी (सुबह की हवा) के ठंडे ठंडे झोंकों ने ख़फ़तगान ख़्वाब-ए-नाज़ को चौकन्ना (होशियार) किया। मूअज़्ज़न की अज़ान ने नमाज़ सुबह के वास्ते नमाज़ियों को मुतवज्जोह किया। अल-सलात ख़ैर मिनल-नौम की सदा सुनते ही नमाज़ी कुलबुला कर उठ बैठे। ब्रहमन के नाक़ूस (संख जो हिंदू पूजा करते वक़्त बजाते हैं) की सदा (आवाज़) ने हिन्दुओं को पूजापाट के वास्ते बुलाया। गिरजे के घंटे की आवाज़ ने मसीहियों को निदा (आवाज़, पुकार) दी, कि आओ। सुबह का हद्या ख़ुदा ए अज़्ज़ व जल के रूबरू पेश करो। शब गुज़श्ता की ख़ैरीयत के वास्ते शुक्र अदा करो। दिन की ख़ैर व आफियत (सेहत, सलामती, अमन) व बरकत के लिए मिन्नत करो। तुलूअ आफ़्ताब ने आलम-ए-ख़ामोशी को आलमे कारोबार कर दिखाया। हर शख़्स अपने धंदे में मसरूफ़ हुआ। मगर अफ़्सोस ! आक़िबत (आख़िरत) से बेख़बर सोने वालों पर ज़माने ने कोई असर नहीं किया। ना हवादिस (हादिसे) ने कोई मोअस्सर ताज़ियाना (कोड़ा) लगाया। बहतेरा जगाया, गुद गुदाया, शाना हिलाया, टांगें पकड़ के खींचीं, मगर यहां कोई ख़बर ना हुई। ऐसी ग़फ़लत (लापरवाही) की नींद सो रहे हैं, कि साँप के सूंघ जाने का एहतिमाल (गुमान) होता है। या किसी डाक्टर ने क्लोरा फ़ार्म सुंघाकर, चित्त (नशे में बेहोश होना, मर जाना) कर दिया हो अल्लाह रे लापरवाई, इस्ति़ग़ना (बेफ़िक्री) बे-एअतिनाई (बेपर्वाई) जीते जागते मुर्दों से बदतर हो रहे हैं कोस-ए-रहलत (रवानगी की घंटी) की आवाज़ बारहा कानों में आई मगर इस कान से सुनी, और उस से उड़ा दी। मौत[1] अपना काम बराबर कर रही है। बक़ौल हज़रत दाग़। आबाद किस क़द्र ही इलाही अदम की राह। हर-दम मुसाफ़िरों का ही तनता (मजमा) लगा हुआ। मगर यहां इस से कभी कोई सबक़ नहीं सीखा। किसी अज़ीज़ के मर जाने पर तो दिखाने को दो-चार आँसू बहा दिए। बाक़ी अल्लाह अल्लाह खैर सलाह।

चश्म अहले फ़ना पे डाले हैं
ऐ अजल तूने पर्दे ग़फ़लत के

 

ज़िंदगी और मौत का साथ अगर देखा जाये, तो कुछ आज से नहीं है। बल्कि इस का सिलसिला दुनिया की पैदाइश से ही बराबर चला आ रहा है। बाबा आदम ने गुनाह किया। और मौत उस की सज़ा ठहरी मुतक़द्दिमीन (अगले ज़माने के लोग) में से कौन है। जो आज के दिन सफ़ा दुनिया पर नज़र आता है? इस का जवाब सिवाए नफ़ी के और कोई नहीं। बड़े बड़े नामवर बादशाह, फल्सफियों (आलिम) और दाना अश्ख़ास जो कि ज़माने गुज़श्ता में हो चुके हैं आज कहाँ हैं? अगर ढूंडते हो तो उनकी ख़ाक का भी पता ना लगे। बस नामवर बज़ीर ज़मीन दफ़न कर दह अंद। कर हस्तीश बरुए ज़मीन यकंशां नुमा नद। वो लोग क्या हुए और कहाँ गए? पहली बात का जवाब तो आसान है, कि वो इस दुनिया से कूच कर गए। दारा हाना जम ना सिकन्दर सा बादशाह। तख़्त ज़मीन पे सैंकड़ों आए चले गए। मगर दूसरी बात का जवाब अभी इन्सान को मालूम नहीं हो सकता जब तक कि असली मौक़ा न आ जाए।

ये एक खुला हुआ मुआमला है, कि जिस चीज़ का आग़ाज़ है। उस का अंजाम भी ज़रूर है। ये अंजाम क्या है? मौत। आए दिन सुनते हैं, कि आज फ़ुलां शख़्स का जनाज़ा क़ब्रिस्तान में लिए जा रहे हैं आज फ़ुलां मरघट (शमशान, हिन्दू के मुर्दे जलाने की जगह) पर पहुंचाया गया। आलमे नबातात (सबज़ीयां, तरकारियां) में ज़िंदगी और मौत दोनों हैं। उनका सरसब्ज़ रहना उन की ज़िंदगी है। और उनका मुरझाना या सूख जाना काट डाला जाना उनका अंजाम या मौत है।

अतबा (हकीम, डाक्टर, दवा दारू करने वाले) दौरान ख़ून के बराबर जारी रहने को ज़िंदगी कहते हैं और इस के बरख़िलाफ़ जो है उस को मौत। जहां ये दौरा बंद हुआ, आदमी मअन (फ़ौरन, उसी वक़्त) दूसरे आलम में पहुंच गया। ख़्वाह ये दौरा दिमाग़ के फ़ुतूर (ख़राबी, नुक़्स) के बाइस। या फेफड़ों के काम में ख़लल (ख़राबी, बिगाड़) होने से बंद हो जाये। या दिल ख़ुद अपना काम ना कर सके। या किसी और वजह से ख़ून की गर्दिश मसुदूद (बंद, रुका हुआ) हो जाये। तिब्बी मसअला है, कि जब कि ख़ून मुस्फ़ा शरयानों में दौरा ना करेगा। या क़ल्ब (दिल) अपनी हरकत से बाज़ रहेगा। तो कोई जानदार शैय ज़िंदा ना रहेगी। गो कि जिस्म के बारीक ज़र्रात (अपी थेलीम) का ज़ाए होना। और उन की जगह दूसरे ज़र्रात का पैदा हो जाना ज़िंदगी व मौत की नज़ीरें (मिसालें) हैं। मगर ये जुज़वी मौत कहलाती है। इस से हमारी बह्स नहीं है।

मौत वो हालत है, कि जिसमें रूह और जिस्म का ताल्लुक़ मुनक़तेअ (इख़्तताम को पहुंचा हुआ) हो जाता है। हवास ज़ाहिरी व बातिनी अपने-अपने अफ़आल छोड़ बैठते हैं। जिस्म बे-हिस व हरकत हो जाता है। देखने में सब आज़ा थोड़ी देर तक ज़ाहिरन दुरुस्त रहते हैं। मगर बदन को हाथ लगाओ तो हरारत-ए-ग़रीज़ी (फ़ित्री, हक़ीक़ी) मफ़्क़ूद (ग़ायब) पाओगे। आँख, नाक, कान, मुँह, हाथ, पांव, ज़ाहिरन तो सब मौजूद रहते हैं। मगर अपने अपने काम से आजिज़। (बेबस) आज़ाए अंदरूनी में दिल मौजूद है। मगर अपनी हरकत नहीं करता। फेफड़े हैं, मगर उन में सांस लेने और निकालने की ताक़त है ना ख़ून साफ़ करने की। दिमाग़ है मगर वो ना निज़ाम आसाबी का बंदो बस्त कर सकता है, ना सोचने की ताक़त रखता है। अल-ग़र्ज़ आज़ा तो सब मौजूद रहते हैं। मगर कारहाए मफूज़ा उनसे नहीं हो सकते। ये कैफ़ीयत थोड़ी ही दिनों तक रहती है। बादह (इस के बाद) सड़न (बोसीदगी) दौड़ जाती है। जिसको तिब्बी इस्तिलाह में डीकंपोज़ीशन। DECOMPOSITION) कहते हैं।

और यहां से वो ज़माना शुरू होता है, कि इन्सान ख़ाक में ख़ाक होना शुरू होता है। बदबूदार हवाएं निकल कर कुर्राह जहां की हवा में तेरना शुरू होते हैं। हड्डियां कुछ दिनों तक तो सालिम (साबित, मुकम्मल, महफ़ूज़) रहती हैं। मगर आख़िर वो भी ज़मीन का हिस्सा हो जाती हैं। कीड़े पड़ जाते हैं और दरिंदे अगर मौक़ा मिले तो लाश को खा जाते हैं। ये ही है आदमी का अंजाम।

मौत के पंजे से बचने की कोशिश करना एक बेहूदा ख़याल है। इस से आज तक कोई कहीं बचा है? सिवाए एक शख़्स हनोक के और ना आइंदा कोई बच सकता है।

बक़ौल दाग़, अजल के हाथ से ऐ दाग़ बचने का नहीं कोई। ना छोड़ा दोस्त को उसने ना छोड़ेगी ये दुश्मन को।

दुनिया का जाह हश्म शान व शौकत माल व दौलत इज़्ज़त व सर्वत, और हिक्मत व हुकूमत इस के सामने सब हीच (नाकारा, निकम्मा) हैं। जहां इस का पैग़ाम आ पहुंचा, सिवाए तामील के और कोई चारा नहीं। वो लोग जो इस शेअर पर भूले हुए हैं। आक़िबत (आख़िर) की ख़बर ख़ुदा जाने। अब तो आराम से गुज़रती है। ज़रा थोड़ी देर के वास्ते आख़िरत के नताइज का ख़याल अपने दिमाग़ों में आने दें। कहीं इस शेअर के मिस्दाक़ (तस्दीक़ करने वाले गवाह) ना हों।

आक़िबत में पढ़ेंगे जुते ख़ूब। ख़ाक आराम से गुज़रती है।

अमीर व ग़रीब यहां यकसाँ हैं, कोई फ़र्क़ नहीं है। क्या जाने मौत दौलत-ए-दुनिया की शान को। दर्जा यहां है एक अमीर व ग़रीब का। वही चार के कांधे पर आख़िरी मस्कन पर पहुंचा दिए गए। अमीर आदमी के साथ अगर भीड़भाड़ (शान व शौकत) हुई भी क्या हासिल? अंजाम तो एक ही है। इतना ख़याल ज़रूर है।

तू कल दो गज़ कफ़न को होएगा मुहताज ग़ैरों का। ना हो ख़ुश आज गो तू साहिबे शाल दो व शाला है।

मौत से बचना वाक़ई ना-मुम्किन है। हाँ जो बात क़ाबिले गौर है, वो ये है, कि इस के बाद क्या हाल होगा। हम तनासुख़ (एक सूरत से दूसरी सूरत इख़्तियार करना) के क़ाइल (तस्लीम करने वाले) नहीं हैं। इस का सबब यही है, कि ये ताअलीम हमारी समझ में नहीं आती। भला अशरफ़-उल-मख़्लूक़ात को कीड़े मकोड़े मच्छर भेंगे की जून में डाल देना बे इंसाफ़ी नहीं है, तो क्या है? तब ये कहना होगा, “इन्सान बना के क्यों मेरी मिट्टी ख़राब की” हम क़ियामत के मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) हैं। जब कुल बनी-आदम का इन्साफ़ होगा। और इस के मुवाफ़िक़ सज़ा जज़ा मिलेगी। हम अपने नेक-आमाल पर भी भरोसा नहीं रखते क्योंकि “हमारी नेकियां गंदी धज्जी की मानिंद हैं।” हम सिर्फ उस की सलीबी मौत के तुफ़ैल (सबब) से बचने की उम्मीद रखते हैं। जिसने मौत और क़ब्र दोनों पर फ़त्ह पाई।

सलीबी मौत ने तेरी हमें वो दी जुर्आत। उठेंगे शान से महशर में इम्तिहान के लिए।

“ऐ मौत तेरा ढंग कहाँ? और ऐ कब्र तेरी फ़त्ह कहाँ?” और सिर्फ उसी के वसीले से हम हयात-ए-अबदी पा सकते हैं, जिसने कहा :-

“राह, और हक़, और ज़िंदगी मैं हूँ।”

दोस्तो ये ख़ुशख़बरी हम सिर्फ अपने तक महदूद रखना नहीं चाहते। क्योंकि हुक्म है। कि “तुमने मुफ़्त पाया है मुफ़्त दो” इसलिए हम उन लोगों को जो अभी तक फ़ज़्ल से महरूम हैं बरमला सुनाए देते हैं, कि ख़ुदावंद येसू मसीह पर जो शख़्स ईमान लाएगा हयात-ए-अबदी उसी की है। फिर कोई आख़िर को ये ना कहे :-

कौन तुझसे रह गया महरूम ऐ फ़ैज़ बहार हाँ मगर मैं रह गया मेरा ब्याबां रह गया।

राक़िम

वो अज़ाब जिसका कि खटका था। नहीं डर कुछ इस का हमें रहा

ऐ लतीफ़ चीज़ है मौत क्या। ये तो अपनी आँखों में ख्व़ाब है।

 


[1] नोट – तहक़ीक़ात से मालूम हुआ है कि दुनिया भर में फी सेकण्ड दो आदमी फौत होते हैं।

दर्स

तब पौलुस अरयुपगस के बीच खड़ा होके बोला, “ऐ अथेने वालो मैं देखता हूँ, कि तुम हर सूरत से द्यूतों (देवतों) के बड़े पूजने वाले हो। 22 क्योंकि मैंने सैर करते और तुम्हारे माबूदों पर नज़र करते हुए एक क़ुर्बान-गाह पाई जिस पर ये लिखा था, कि नामालूम ख़ुदा के लिए पस जिसको तुम बेमालूम किए पूजते हो मैं

Lesson

दर्स

By

Kedar Nath
केदारनाथ

Published in Nur-i-Afshan Dec 21, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 21 दिसंबर 1894 ई॰

आमाल 17:22, 31 पर

तब पौलुस अरयुपगस के बीच खड़ा होके बोला, “ऐ अथेने वालो मैं देखता हूँ, कि तुम हर सूरत से द्यूतों (देवतों) के बड़े पूजने वाले हो। 22 क्योंकि मैंने सैर करते और तुम्हारे माबूदों पर नज़र करते हुए एक क़ुर्बान-गाह पाई जिस पर ये लिखा था, कि नामालूम ख़ुदा के लिए पस जिसको तुम बेमालूम किए पूजते हो मैं तुमको उसी की ख़बर देता हूँ।” 23।

इन पहली दो आयतों में रसूल के वाअज़ की तम्हीद पाई जाती है। ये इल्हामी तम्हीद एक अजीब दिलकश तम्हीद (किसी मज़्मून का उन्वान, दीबाचा) है। रसूल इस तम्हीद को ऐसी संजीदगी के साथ बयान करता है, कि सुनने वालों के ख़यालात ख़्वाह कैसे ही परागंदा (परेशान, हैरान) क्यों ना हों फ़ौरन मक़नातीसी कशिश की मानिंद खींच कर दिल व जान से सुनने के वास्ते मर्कज़ (ऐन, वस्त) बन जाएं। और जो कुछ वो बयान करना चाहता है। वो सामईन की मौजूदा हालत पर बख़ूबी असर पज़ीर हो। ऐसी तम्हीद ना सिर्फ बयान करने वाले की क़ुव्वत बयानिया को वुसअत (गुंजाइश, कुशादगी) बख़्शती है, बल्कि सामईन को भी तय्यार (तेज़-रौ) करती है। कि वो तह-ए-दिल से सुनने को मुख़ातिब हों। तम्हीद की दूसरी आयत के दर्मियानी हिस्से में रसूल वो जुम्ला इस्तिमाल करता है, जो कि उस के वाज़ का मौज़ू है। और वो जुम्ला रसूल ना अपनी तरफ़ से पेश करता है। बल्कि उन्हीं के क़ुर्बान-गाह के किताबा को इक़्तिबास (अख़ज़ करना) कर के उस की अस्लियत की तरफ़ उन को रुजू करता है यानी “नामालूम ख़ुदा के लिए।”

ये दस्तूर (रिवाज) हमारे हिन्दुस्तानी बुत-परस्तों में भी राइज है। कि जब वो सारे जाने हुए देवी देवताओं को पूजा पाठ चढ़ा लेते हैं। तब भूले हुए देवता के नाम पर भी चढ़ाते हैं। मुहम्मदी फ़िर्क़ा भी बावजूद ये कि एक ख़ुदा पर बहुत ज़ोर देता है। इसी भूल-भुलय्याँ में पड़ कर ख़ुदा के इस्म-ए-आज़म से नावाक़िफ़ है। और शब-ए-बरात में हस्बे नाम बनाम फ़ातिहा-ख़्वानी हो चुकती है। तब वो भी हिन्दुओं की तक़्लीद (नक़्ल, पैरवी) पर अनजाने हुए के नाम पर फ़ातिहा पढ़ते हैं। पस कुछ शक नहीं, कि एथनीयों में भी एक ऐसी कुर्बानगाह हो। जो नामालूम ख़ुदा के लिए उनके दर्मियान क़ाइम हुई।

तुम हर सूरत से द्यूतों (देवतों) के बड़े पूजने वाले हो

यहां किसी क़द्र मुश्किल है तो सिर्फ इस बात में कि उसी ख़ुदा, और नामालूम ख़ुदा मैं क्योंकर तत्बीक़ (बराबरी) हो सकती हैं। और कि एथनीयों के नामालूम ख़ुदा की बाबत रसूल का ये दावा, कि मैं तुम्हें उसी ख़ुदा की ख़बर देता हूँ। कहाँ तक वाजिब और वाक़ई मालूम होता है। लेकिन ये मुश्किल इस तौर से हल हो जाती है, कि दुनिया के हालात और मुख़्तलिफ़ अक़्वाम की तारीख़ पर नज़र करने से एक एसी हस्ती का वजूद ज़रूर साबित होता है। जिसका कम से कम वहशी अक़्वाम में भी किसी ना किसी तौर ख़याल पाया जाता है। और नीज़ इस की उन सिफ़तों पर जिनकी तरफ़ ख़ुद रसूल, अपने वाअज़ में इशारा देता है। और ख़ासकर ख़त रोमीयों के 1:19, 20 आयात में क़ाइल करने वाली दलील की सूरत में बयान हुआ है। सख़्त से सख़्त बुत-परस्त भी इक़रार करता है। और वो इक़रार ना किसी मन्तिक़ी दलील या फ़ल्सफ़ी वजूह पर बल्कि हर एक शख़्स के ज़मीर और हवास-ए-ख़मसा (पाँच हवास, देखने, सुनने, सूँघने, चखने, और छूने की पाँच क़ुव्वतें) की बुनियाद पर मौक़ूफ़ (ठहराया गया) है। अगर मुम्किन होता तो किसी दहरिया (ख़ुदा को ना मानने वाले) के दिल को चीर कर दिखा देते, कि इस नामालूम ख़ुदा की बाबत उस की ज़बानी नहीं नहीं उस का बातिनी हाँ हाँ पर किस क़द्र ज़ोर देती है। इल्हामी किताबों के सिलसिले में आस्तर की किताब जो तूमार नेचर (नेचर की किताब) या औराक़ फ़ित्रत का एक हिस्सा रही, हमको साफ़ बता देती है, कि वही जिसका नाम इस किताब में नहीं। “ख़लासी और यहूदीयों के वास्ते नजात दूसरी तरफ़ से तुलूअ करेगा।” आस्तर 4:14 और जैसा कि ख़ुद ख़ुदा ने मूसा से फ़रमाया, कि मैं वो हूँ जो मैं हूँ, और वो जो है। ख़ुरूज 3:14, 15, पस साफ़ ज़ाहिर है, कि पौलुस उसी ख़ुदा की मुनादी करता था। जो ख़ास तौर से यहूदीयों का, और आम तौर से तमाम जहां का ख़लासी (रिहाई) और नजातदिहंदा है। गो दुनिया के लोग उस से नावाक़िफ़ हैं। क्योंकि हमारे ख़ुदावंद ने दुनिया में से उन्हें आदमीयों पर ख़ुदा के नाम को ज़ाहिर किया जो उसे दिए गए। यूहन्ना 17:16 पस इस दलील (वजह, सबूत) से भी साबित हुआ, कि नामालूम ख़ुदा वही ख़ुदा है। जिसको मसीह अपना बाप कहता है। और कि वो दुनिया के लोगों पर ना मालूम है। 24 आयत।

“ख़ुदा, जिसने दुनिया और सब कुछ जो इस में है पैदा किया। जिस हाल में कि वो आस्मान व ज़मीन का मालिक है हाथ की बनाई हुई हैकलों में नहीं रहता।”

यहां रसूल-ए-ख़ूदा की लामहदूदी पर हवाला देकर साबित करता है, कि वो जो ख़ास जगह में रहता। ख़ुदा नहीं हो सकता और दो ला-महदूद हस्तीयों का होना अक़्लन मुहाल (दुशवार) है। पस नामालूम ख़ुदा के सिवा और जितने ख़ुदा हैं। वो ख़ुदा नहीं हैं। क्योंकि अव़्वल तो महदूद हैं। दुवम लामहदूद, एक से ज़्यादा मुम्किन नहीं 25 आयत में है। कि “ना आदमीयों से ख़िदमत लेता गोया कि किसी चीज़ का मुहताज (ज़रूरतमंद) है। क्योंकि वो तो आप सबको ज़िंदगी और सांस और सब कुछ बख़्शता है। इस बयान से बुतों की मोहताजी पर ज़ोर देकर उन की उलूहियत को रद्द करता है। और ख़ुदा की बख़्शिशों का ज़िक्र करके साफ़ ज़ाहिर करता है, कि देवताओं में ये सिफ़त पाई नहीं जाती। पस वो अपने पूजारीयों को कुछ दे नहीं सकते।

26 वीं आयत में है, कि “और एक ही लहू से आदमीयों की सब क़ौम तमाम ज़मीन की सतह पर बसने के लिए पैदा की। और मुक़र्ररा वक़्तों और उन की सुकूनत की हदों को ठहराया।”

इस में कई बातें हैं।

अव़्वल, ज़मीन की तमाम मख़्लूक़ से आला मख़्लूक़ आदमीयों की सब क़ौम की निस्बत बताया जाता है। कि ख़ुदा ने एक ही लहू से बनाया। पस ये ख़याल कि ज़ात में ऊंचाई और ऊंचाई है एक आला है और दूसरा औला। ये ख़ुदा की तरफ़ से नहीं। बल्कि आदमीयों की बनावट है।

दुवम, कि इस से ख़ुदा की अजीब क़ुद्रत भी ज़ाहिर होती है कि बावजूद ये कि, सब एक ही लहू से बनाए गए हैं। तो भी एक दूसरे से सूरत में मुख़्तलिफ़ हैं।

सोइम, कि ख़ुदा की दानाई और उस की आलिम-उल-गैबी, और अज़ली तक़दीरें ऐसी लाज़िम व मल्ज़ूम (एक दूसरे से वाबस्ता) हैं, कि बग़ैर इनको ख़ुदा में माने हुए हमको इत्मीनान नहीं होता, कि दुनिया के सारे वाक़ियात ना इत्तिफ़ाक़ी, बल्कि उसी लामहदूद हस्ती के ठहराए हुए इरादे के मुवाफ़िक़ होते हैं। लेकिन देवताओं के पूजारी इन बातों से मह्ज़ बे-ख़बर अपनी ही कारीगरी को कहते हैं कि तुम हमारे ख़ुदा हो।

27 वीं, आयत में है, कि “ख़ुदावंद को ढूँढें शायद कि टटोल कर उसे पाएं। अगरचे वो हम में किसी से दूर नहीं।”

इस आयत में रसूल साबित करता है, कि नामालूम ख़ुदा जिसकी ख़बर मैं तुमको देता हूँ माद्दी (ज़ाती, क़ुदरती) नहीं है। यहां तक कि वो हर तरह के माद्दे से ख़्वाह कसीफ़ (गाढ़ा) हो। ख़्वाह लतीफ़ (नरम) जिनको हम हवास ज़ाहिरी या बातिनी से छू सकते हों अलेहदा (अलग) है। यहां टटोलने का लफ़्ज़ वारिद (ज़ाहिर) है। इस तर्ज़ पर हमारे ख़ुदावंद ने अपने जी उठने के बाद जब कि शागिर्द घबरा के और ख़ौफ़ से ख़याल करते थे, कि किसी रूह को देखते हैं। इस्तिदलाल (दलील) किया, कि “मेरे हाथ पांव को देखो, कि मैं ही हूँ। और मुझे छूओ और देखो। क्योंकि रूह को जिस्म और हड्डी नहीं जैसा मुझमें देखते हो।” लूक़ा 24:39 फिर ये कि “वो हम में किसी से दूर नहीं।” अगरचे इस जुम्ले से ख़ुदा की हमा जा (हर जगह) हाज़िरी साफ़ तौर पर ज़ाहिर होती है लेकिन इस से बढ़कर ये बताया जाता है, जैसा कि 28 आयत में है, कि “उसी से हम जीते, और चलते फिरते, और मौजूद हैं।” यानी ख़ुदा की हर जा हाज़िरी, और सब के साथ मौजूदगी इसलिए और भी ज़रूरी है, कि हमारा हस्ती में रहना और चलना फिरना सिर्फ ख़ुदा पर मौक़ूफ़ (ठहराया) गया है। पस बाअज़ नादानों का ये ख़याल, कि ख़ुदा ने ख़ल्क़त में एक मशीन बना दी है। कि वो अज़ ख़ुद चली जाती है। ख़ुदा के हाज़िर व नाज़िर होने की कुछ ज़रूरत नहीं, ग़लत साबित होता है। इसी आयत में रसूल उन के एक शायर का क़ौल नक़्ल करता है, कि हम “तो उसी की नस्ल हैं।” मालूम होता है कि रसूल ने ये फ़िक़्रह क़िलक़ियाह के शायर मुसम्मा अरातस की तस्नीफ़ से इक़्तिबास किया है। 29 आयत में इस फ़िक़्रह से ग़ैरत दिलाने वाला नतीजा ज़ाहिर किया जाता है, कि “पस ख़ुदा की नस्ल हो के हमें मुनासिब नहीं, कि ये ख़याल करें, कि ख़ुदा सोने रूपये या पत्थर की मानिंद है जो आदमी के हुनर और तदबीर (सोच बिचार) से घड़हे गए।”

अब 30 वीं आयत में रसूल बहुत गहरी न्यू (बुनियाद) खोदने के बाद जिसमें बयान हुआ है, कि “ग़र्ज़ ख़ुदा जहालत के वक़्तों से तरह दे के (दर गुज़र कर के) अब सब आदमीयों को हर जगह हुक्म देता है, कि तौबा करें।” एक ऐसे पत्थर की जो कोने का सिरा है। और जिसे मुअम्मारों ने रद्द कर दिया। बुनियाद डालता है। जो उस के तमहीदी बयान में नामालूम ख़ुदा कहलाता है। मगर साथ है इस के रसूल का तर्ज़ ख़ातिमा भी अमीक़ (कामिल गहरी) नज़र से देखने के क़ाबिल है। कि जिस हालत में, कि वो अरियुपगस की अदालत-गाह में वाअज़ करता था। ब-नज़र संजीदगी और मुनासबत मुक़ाम अदालत का ज़िक्र करने लगा। और इस से बढ़कर ये बात भी, कि बयान का सिलसिला ख़ुद हमको यहां पहुँचाता है। ताकि ज़ाहिर हो जाये, कि ऐसे बेहूदा काम करने वाले क्योंकर उस अदालत से बच निकलेंगे। जिसका बयान 31 वीं आयत में यूं होता है, कि उस ने एक दिन ठहराया है। जिसमें वो रास्ती से दुनिया की अदालत करेगा। उस आदमी की मार्फ़त जिसे उस ने मुक़र्रर किया। और उसे मुर्दों में से उठा के ये बात सब पर साबित की, कि जिसने गुनेहगारों के वास्ते अपनी जान दी। वो इस लायक़ है कि ज़िंदों और मुर्दों की अदालत करे। आमीन।

हमारे लिए एक लड़का तवल्लुद हुआ

हमारे लिए एक लड़का तवल्लुद (पैदा) हुआ। और हमको एक बेटा बख़्शा गया। और सल्तनत उस के कांधे पर होगी। और वो इस नाम से कहलाता है। अजीब, मुशीर, ख़ुदा-ए-क़ादिर अबदीयत का बाप। सलामती का शहज़ादा, उस की सल्तनत के इक़बाल (ख़ुश-क़िस्मती) और

For to us a child is born

हमारे लिए एक लड़का तवल्लुद हुआ

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Dec 21, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 21 दिसंबर 1891 ई॰

हमारे लिए एक लड़का तवल्लुद (पैदा) हुआ। और हमको एक बेटा बख़्शा गया। और सल्तनत उस के कांधे पर होगी। और वो इस नाम से कहलाता है। अजीब, मुशीर, ख़ुदा-ए-क़ादिर अबदीयत का बाप। सलामती का शहज़ादा, उस की सल्तनत के इक़बाल (ख़ुश-क़िस्मती) और सलामती की कुछ इंतिहा ना होगी। वो दाऊद के तख़्त पर और उस की ममलकत पर आज से लेकर अबद तक बंदो बस्त करेगा। और अदालत व सदाक़त (सच्चाई) से उसे क़ियाम बख़्शेगा। रब-उल-अफ़्वाज की गय्युरी (बहुत ग़ैरत करने वाला) ये करेगी।

यसअयाह 9:6, 7

इस में शक नहीं, कि ख़ुदावंद तआला जो तमाम दुनिया माफ़ीहा का ख़ालिक़ व मालिक है। हक़ीक़ी बादशाह, और कुल ख़ल्क़त पर मुसल्लत (हाकिम, मुक़र्रर किया गया) है। और अपने तख्ते सल्तनत पर मुतमक्किन (क़ायम, जगह पकड़ने वाला) हो कर अज़ल से अबद तक ग़ैर-मुरई (जो चीज़ देखी ना जाये) तौर पर हुक्मरान है। चुनान्चे राक़िम ज़बूर कहता है, कि “सल्तनत ख़ुदावंद की है। क़ौमों के दर्मियान वही हाकिम है।” ज़बूर 22:28, लेकिन उस ने ज़मीन बनी-आदम को इनायत (अतीया) की, कि वो उस पर सल्तनत व हुकूमत करें। जैसा लिखा है, कि “ख़ुदा ने इन्सान को अपनी सूरत पर पैदा किया। और उन्हें बरकत देकर कहा, कि फलो, और बढ़ो और ज़मीन को मामूर (आबाद) करो। और उस को मह्कूम (रियाया, हुक्म किया गया) करो। और समुंद्र की मछलीयों पर। और आस्मान के परिंदों पर। और सब चरिन्दों पर जो ज़मीन पर चलते हैं। सरदारी करो।” पैदाइश 1:28 अगरचे ख़ुदा तआला ग़ैर-मुरई (जो चीज़ देखी ना जाये) तौर पर बनी-आदम पर हुक्मरान और उनका हक़ीक़ी सुल्तान (बादशाह) था। ताहम उस ने ना चाहा, कि वो बग़ैर इन्सानी इंतिज़ाम सल्तनत के मुतलक़-उल-अनान (ख़ुद-सर, आज़ाद) रह कर ताईफ़-अल-मलोकी के वहशयाना तरीक़े को अपना दस्तूर-उल-अमल बनाएँ। इसलिए एक अज़ीमुश्शान इन्सानी सल्तनत की बुनियाद डालने के लिए रुए-ज़मीन की क़ौमों में से एक दीनदार व बा-ख़ुदा ख़ानदान इब्राहीमी को चुन लिया। जिसको दुनिया की तमाम क़ौमों की बरकत याबी का बाइस ठहराया। और जिससे एक ख़ास क़ौम ऐसी पैदा की। जिसको आईन व कवानिन मुल्की व मज़्हबी देकर अपने लिए इस इरादा से मख़्सूस किया।

हमारे लिए एक लड़का तवल्लुद (पैदा) हुआ। और हमको एक बेटा बख़्शा गया।

कि सल्तनत मज़्कूर उस में क़ायम हो कर तमाम रुए-ज़मीन पर हुक्मरान रहे। और वो सल्तनत एक अबदी सल्तनत हो इस क़ौम के मशहूर व मारूफ़ बादशाह दाऊद को मक़्बूल व पसंदीदा फ़र्मा कर ख़ुदावंद ख़ुदा ने उस से अहद किया, कि “तेरी सल्तनत हमेशा तक तेरे आगे क़ायम रहेगी। तेरा तख़्त हमेशा साबित होगा। 2 समूएल 7:16 इस अहद की निस्बत उस ने फ़रमाया, “मैं अपने अहद को ना तोडूँगा। और उस सुख़न (कलाम, शेअर, बात) को जो मेरे मुँह से निकल गया, ना बदलूँगा। मैंने एक बार अपनी कुद्दूसी की क़सम खाई। मैं दाऊद से झूट ना बोलूँगा। उस की नस्ल अबद तक क़ायम रहेगी। और उस का तख़्त मेरे आगे सूरज की मानिंद। वो चांद की तरह, और आस्मान के सच्चे गवाह की मानिंद अबद तक क़ायम रहेगा।” ज़बूर 89:34, 35, 36 फिर जिस क़द्र इस सल्तनत अज़ीम के क़ायम होने और उस बादशाह जलील-उल-क़द्र के ज़हूर (इज़हार, ऐलान) पुर नूर का वक़्त क़रीब आता गया। उसी क़द्र उस की निस्बत पैशन गोईयाँ और नबुव्वतें ज़्यादातर वज़ाहत व सराहत (तश्रीह) के साथ उस क़ौम के मुलहम (इल्हाम रखने वाले) अश्ख़ास की मार्फ़त बयान होने लगीं। जिन सबको मुजतमा (इकट्ठे) कर के देखें तो एक मुकम्मल और सही हुलिया बईनियह उस सुल्तान-उल-सलातिन (बादशाहों का बादशाह) का पेश-ए-नज़र मालूम होता है। इन मुलहम अश्ख़ास में से यसअयाह बिन अमोस ने जिसको अगर इंजीली नबी कहा जाये, तो निहायत मुनासिब व मौज़ूं होगा। इस क़द्र बवज़ाहत उस का बयान अपने सहीफे में किया। कि गोया एक तस्वीर उस के सरापा (सर से पावं तक, हुल्या) की खींच दी। ताकि जब वो ज़ाहिर हो हर एक ब-आसानी उस के साथ मुताबिक़ करले। सनद की आयत बाला में नबी ने ऐसी तर्ज़-ए-इबारत में उस की विलादत बा-करामत (मोअजज़ाना पैदाइश) का नक़्शा खींचा है। गोया कि वो इस वाक़िये को बचश्म ख़ुद (अपनी आँख) देख रहा है। और उस मौलूद मसऊद (नेक, मुबारक) की सल्तनत लाज़वाल के जलाल व इक़बाल पर इब्तिदा से इंतिहा तक नज़र कर रहा है और जैसा कि इसी बाब की तमहीदी इबारत में बयान हुआ वो “ऐसा ख़ुश होता जैसे दर्रो (फ़स्ल की कटाई) के वक़्त और ग़नीमत (मुफ़्त मिली हुई चीज़) की तक़्सीम के वक़्त लोग ख़ुश होते हैं।”

इस नबुव्वत के सात सौ चालीस बरस बाद उस की तक्मील। और मौलूद-ए-मौऊद (वाअदा किया हुआ बेटे) के ज़हूर मोफुर-उल-सरूर (बहुत इज़्हार वाला बादशाह) का वक़्त आ पहुंचा। और ये वो वक़्त था कि जिसमें तमाम यहूद एक बड़े बादशाह के पैदा होने। और तख्त-ए-दाऊदी पर मुतमक्किन (जगह पकड़ने वाला) हो कर एक बअमन व इक़बाल आलमगीर सल्तनत करने के लिए मुंतज़िर और चश्मबराह (इंतिज़ार करना) थी। और ना सिर्फ क़ौम यहूद में, बल्कि ग़ैर-अक़्वाम में भी ये इंतिज़ार व इश्तियाक़ (शौक़) था। कि कोई अज़ीमुश्शान व रफ़ी-उल-मकान बादशाह इस ज़माने में ज़ाहिर होने वाला है। चुनान्चे तासीतस, और सेवटेनियुस मोरख़ान रूमी अपनी किताबों में लिखते हैं, कि उस ज़माने में तमाम दुनिया में एक बादशाह की इंतिज़ारी थी। जो मुल़्क यहूदिया से इंतज़ाम-ए-इलाही के मुताबिक़ निकलने वाला था।

“पस जब वक़्त पूरा हुआ, तब ख़ुदा ने अपने बेटे को भेजा। जो औरत से पैदा हो कर शरीअत के ताबे हुआ। ताकि वो उन को जो शरीअत के ताबे हैं मोल ले। और हम (मसीही) लेपालक होने का दर्जा पाएं।” (ग़लतीयों 4:4, 5)

पस हम भी जो मसीही हैं इंजीली नबी के साथ अपने मसीह बादशाह की विलादत बासआदत (ख़ुशनसीबी) की यादगार में ऐसे ख़ुश हों। जैसे दूर्र (फसल की कटाई) के वक़्त और ग़नीमत की तक़्सीम के वक़्त लोग ख़ुश होते हैं। और मिन्नत के मौलूद मुक़द्दस से चंद बंद अपनी तफ़रीह-ए-तबा के लिए दुहराएं। औरत की नस्ल अदन में जिसको कहा गया।

मूसा ने जिसको एक नबी का लक़ब दिया।

कहता है बादशाह जिसे दाऊद बादशाह।

काहिन का भी ख़िताब जिसे पेश्तर मिला मर्द आश्ना-ए-रंज व अलम जिसका नाम है। क़ादिर ख़ुदा का नजात दह ख़ास व आम है।

पैदा हुआ वह बैत-लहम की सिरा में आज। शादी की धूम क्यों ना हो अर्ज़ (ज़मीन) व समान (आसमान) में आज।

क्यों साँप मुब्तला ना हो भारी बला में आज। होता है मेल ख़ल्क़ और उस के ख़ुदा में आज।

अब बर्गज़ीदे हाथ ना शैतान के आएँगे। अपने नजात बख़्श के क़दमों में जाऐंगे।

मुरासलात

ये सब औरतों और येसू की माँ मर्यम और उस के भाईयों के साथ एक दिल हो के दुआ और मिन्नत कर रहे थे। ये एक तवारीख़ी वक़ूआ (वाक़िया) है। जो कि आमाल की किताब में मुन्दरज है। वो ये ज़ाहिर करता है, कि उन शागिर्दों ने जो रोज़ व शब मसीह के साथ रहे। मसीही तरक़्क़ी में एक बड़ी भारी मंज़िल तेय कर

Letters

मुरासलात

By

Golkh Nath
गोलख नाथ

Published in Nur-i-Afshan Dec 14, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 14 दिसंबर 1894 ई॰

आमाल 1_14

ये सब औरतों और येसू की माँ मर्यम और उस के भाईयों के साथ एक दिल हो के दुआ और मिन्नत कर रहे थे। ये एक तवारीख़ी वक़ूआ (वाक़िया) है। जो कि आमाल की किताब में मुन्दरज है। वो ये ज़ाहिर करता है, कि उन शागिर्दों ने जो रोज़ व शब मसीह के साथ रहे। मसीही तरक़्क़ी में एक बड़ी भारी मंज़िल तेय कर ली थी। और इनका उस वक़्त इकट्ठे होना, ना सिर्फ इकट्ठे होना, बल्कि दुआ और मिन्नत के लिए यक दिल होना एक वक़ूआ (वाक़िया) है। जो क़ाबिल-ए-ग़ौर है। अव़्वल और अव़्वल जब वो मसीह के मुक़ल्लिद (पैरौ, मुरीद) हुए उन की ये हालत ना थी। उनको दुआ माँगना तक ना आता था। बल्कि एक दफ़ाअ ख़ुदावंद के पास आए, और उस से दरख़्वास्त की कि हमको दुआ माँगना सिखा। उन में कमज़ोरियाँ पाई जाती थीं बल्कि बसा-औक़ात फी माबैन (आपस में) निफ़ाक़ (बिगाड़, दुश्मनी) भी होता रहा। लिहाज़ा ये नई सूरत उन की साफ़ ज़ाहिर करती है, कि वो बहुत कुछ मसीही तरक़्क़ी कर गए थे। यहां पर ये सवाल लाज़िम आता है, कि वो कौन सी शराइत थीं, जिनको उन्होंने पूरा किया। और इस लिए अब उस मर्तबे तक पहुंचे, कि ख़ुदावंद के नए ज़हूर यानी रूह पाक को हासिल करें?

अलिफ़, इब्तिदा उन की तबीयत का मीलान (तवज्जोह, रुझान) दीन की तरफ़ है। ऐसे बहुत कम लोग नज़र आते हैं जो मुतलाशी दीन (दीन की तलाश करने वाला) हैं। बल्कि बहुतों की ज़िंदगी बेफ़िक्री और दुनियादारी में सर्फ होती है। मगर इन शागिर्दों की तबीयत शुरू ही से मज़्हब की तरफ़ माइल व राग़िब (मुतवज्जोह व ख़्वाहिशमंद) थी। चुनान्चे जब मसीह ने उन को हिदायत की, तो उन्होंने बखुशी तमाम उस के कलाम को सुना बल्कि दरख़्वास्त की, कि ऐ रब्बी तू कहाँ रहता है? मसीह ने कहा आओ और देखो और जब फिलिप्पुस ने भी नतनीएल से मसीह की निस्बत ज़िक्र किया। और वो हैरान हुआ कि क्या नासरत से कोई उम्दा चीज़ निकल सकती है। तो फिलिप्पुस ने कहा, आ, और देख। वो आया और देखा और ईमान लाया। उस वक़्त से उन्होंने सब कुछ तर्क कर के मसीह की पैरवी की। और उस से ताअलीम पाते रहे। हमारे हिन्दुस्तान के लोगों की ये हालत है, कि तास्सुब (मज़्हब की बेजा तरफ़ दारी) से भरे हुए। और ताअलीम से भी किनारा-कश होते हैं। मगर वो शागिर्द जूं जूं मसीह से आश्ना (वाक़िफ़ कार, जान पहचान वाला) होते गए। और उस की क़ुद्रत व मोअजज़ात को देखा। तो वो मसीह को अपना रब्बी और नबी और उस्ताद कहने लगे। और और आइंदा तरक़्क़ी करते हुए उस की इताअत (ताबेदारी) को क़ुबूल किया हत्ता कि जब मसीह ने हुक्म दिया, कि वो तमाम गर्दो नवाह में जा कर मुनादी करें तो वो उस के हुक्म को बतूअ ख़ातिर बजा लाए। और तौबा व इस्तिग़फ़ार (बख्शीश चाहना) की मुनादी जा-ब-जा की। और फिर जब मसीह ने उन से ख़ुदा की बादशाहत का ज़िक्र आग़ाज़ किया। और नीज़ उस बशारत (ख़ुशख़बरी) का भी, कि इस बादशाहत में तुम्हारा भी एक बड़ा हिस्सा है। तो वो इस बात पर एतिक़ाद (यक़ीन) लाए तू ज़िंदा ख़ुदा का बेटा है।

, सूरत तरक़्क़ी की ये थी, कि उन्होंने अपने आपको दुनिया से अलैहदा कर लिया था। चुनान्चे मसीह की गलीली ख़िदमत गुज़ारी के वक़्त उस के शागिर्दों ने बनिस्बत साबिक़ा ख़िदमत गुज़ारी के जो उस से यहूदिया में सरज़द हुई थी। अब ज़्यादातर मसीह के साथ रिफ़ाक़त (मुहब्बत) इख़्तियार की। चुनान्चे वो उस के साथ खाने और पीने में शामिल होते थे। और अक्सर एक ही घर में क़ियाम करते थे। यहां तक कि उनका उन्स व प्यार मसीह के साथ इस क़द्र बढ़ गया, कि एक मौक़े पर पतरस ने अलानिया कहा, कि “देखो ऐ ख़ुदावंद हमने तेरी पैरवी (पीछे चलना) करने में सब कुछ तर्क (छोड़ना) कर दिया” बेशक यही बड़ी बात थी। अव़्वल ही अव़्वल मसीह ने उन को कहा, मेरे पीछे आओ। लेकिन अब जब कि मसीह से उन की ज़्यादा आश्नाई (दोस्ती) हुई। और उस की बे-बहा क़द्र को पहचाना। तो बे-इख़्तियार उन के मुँह से ये कलाम निकला, कि देखिए ख़ुदावंद हमने तेरी पैरवी करने में सब कुछ तर्क कर दिया। और मसीह ने इस कलाम की क़द्र की और कहा, मैं तुमसे सच्च कहता हूँ, कि जिसने घर, माँ बाप मेरी ख़ातिर छोड़ा उस का सौ गुना इस जहां और उस जहां में पाएगा। उन्होंने अपने तईं बख़ातिर मसीह दुनिया से अलैहदा कर लिया था। चुनान्चे पौलुस रसूल भी कुरिन्थुस की कलीसिया को ख़त 2 बाब 6:17, 18 आयत में इस बात की हिदायत कर के, कि तुम बेईमानों के साथ नालायक़ जोए में मत जोते जाओ, कि रास्ती (सच्चाई, ईमानदारी) और नारास्ती में कौनसा साझा (हिस्सादारी, शराकत) है। और रोशनी को तारीकी से कौनसा मेल (मुनासबत) है। और मसीह को बाअल के साथ कौनसी मवाफिक़त (बराबरी) है। यूं कहता है, इस वास्ते तुम उन के दर्मियान से निकल आओ। और जुदा हो। और नापाक को मत छू। और मैं तुमको क़ुबूल करूँगा। और मैं तुम्हारा बाप हूँगा। और तुम मेरे बेटे, बेटियां।

अल-ग़र्ज़ कि मसीह के शागिर्द ख़तनों के रुहानी मतलब को पहुंच गए थे। क्योंकि उन्होंने अपने तईं दुनिया के जुए से हटा लिया था। बनी-इस्राईल जब ब्याबान में थे। वो ख़तने व फ़सह की रस्म को जो मूसवी शरीअत के मुवाफ़िक़ उन के लिए ज़रूरी थी। चालीस बरस तक उनकी अदायगी से बाज़ रहे। ग़रज़ कि वो बग़ावत (ना-फ़र्मानी) की हालत में थे। और उन की रुहानी हालत निहायत ही अबतर (बद-हाल) थी। मगर शागिर्दों ने ख़तने के रुहानी मतलब को बख़ूबी अदा किया। इस वक़्त से जब कि उन्होंने मसीह की ख़ातिर दुनिया को तर्क किया।

, सूरत तरक़्क़ी की ये थी, कि वो मसीह के साथ फ़सह की आख़िरी रस्म में शरीक हुए। जिसमें उन्होंने ये ज़ाहिर किया, कि वो गुज़श्ता अलामतन रस्म शरीअत-ए- मूसवी को पूरा कर के मसीह में शामिल होने को थे। यानी उस की मौत में। चुनान्चे मसीह के मस्लूब होने के बाद जब वो उन पर ज़ाहिर हुआ। और नविश्तों (नविश्ता की जमा, लिखा हुआ) को उन पर मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर, अयाँ) किया, कि इस का मरना और जी उठना लाज़िमी था। तो वो फ़ील-फ़ौर इस पर ईमान लाए। और लिखा है कि उन की आँखें मुनव्वर हो गईं, और मसीह को जाना। क्या वो मसीह को पहले नहीं जानते थे। क्या उस के साथ खाते पीते उठते ना थे? क्या उस के बड़े बड़े कामों को नहीं देखा था? क्या उस को ज़िंदा ख़ुदा का बेटा नहीं कहा? बेशक ताहम वो मसीह की मौत से अब तक नाआशना (अजनबी) थे? लेकिन अब वो मसीह की सलीबी मौत से आगाह हुए। और उस की फ़िदाकारी (क़ुर्बानी) पर ईमान लाए।

, सूरत तरक़्क़ी की ये थी, कि वो मसीह के सऊद (ऊपर चढ़ना, आस्मान पर जाना) फ़रमाने के बाद इस बात से बख़ूबी आगाह हो गए थे, कि हम अपने नहीं बल्कि ख़ास मसीह के हैं। यानी मसीह के लहू के ख़रीदे हुए हैं। अब वो बिल्कुल तब्दील हो गए थे। चुनान्चे आमाल के पहले बाब से ज़ाहिर होता है, कि किस क़द्र उन्होंने अपना ताल्लुक़ ख़ुदावंद मसीह के साथ कर लिया था। जब उन्होंने दो शख्सों का इंतिख़ाब किया, कि उनमें से एक उनके साथ रसूलों में शामिल हो। तो उन्होंने इस का इंतिख़ाब ख़ुदावंद पर छोड़ा। और लिखा है कि उन्होंने दुआ की। मसीह के साथ अपना ताल्लुक़ पहचान कर उनकी तबीयत दुआ करने की आदी हो गई थी। हर एक बात में ख़ुदावंद से इस्तिफ़सार (पूछना, दर्याफ़्त करना) करते थे। मसीह की हीने-हयात (जीते जी) में वो उनके लिए जलाल व फ़ख़्र का बाइस था। और मसीह की फ़त्हयाबी उनकी ख़ुशी का बाइस। मसीह ही सब कुछ उनके लिए था। गम व इज़तिरार (बेक़रारी) के वक़्त और इम्तिहान व आज़माईश के वक़्त। और ख़ुशी व ख़ोरी में भी। मसीह ही सब कुछ उनके लिए था। मगर मसीह की वफ़ात के वक़्त सब पर आलम मायूसी छा गया था। और वो इस हालत यास में एक दूसरे के साथ ग़मगुसारी (हम्दर्दी) करते। और ग़मख़ारी (दुख-दर्द में शिरकत) में शरीक होते थे। एक गिरोह इनमें से एक कोठरी में इकट्ठा था। और दो उन में से अमाऊस की तरफ़ बाहम बातें करते हुए जाते थे। और उन के दिल मग़्मूम (रंजीदा, ग़मगीं) थे। मगर मसीह के जी उठने पर उन की उम्मीदें भर आई। और मसीह के सऊद (ऊपर जाने) फ़रमाने पर जैसा कि लूक़ा की इन्जील में मस्तूर (लिखा गया) है। वो यरूशलेम को वापिस हुए और उन के दिल-ख़ुशी से मामूर थे। ये बात गौरतलब है, कि अव्वलन जब मसीह ने अपने शागिर्दों से अपनी जुदाई का ज़िक्र किया। और कहा, कि किस ज़िल्लत व रुस्वाई के साथ लोग उस को सलीब देंगे। तो वो नाराज़ हुए। बल्कि पतरस ने मसीह को अलेहदा (अलग) कर के सुना दिया, कि ऐ ख़ुदावंद ऐसी बात तेरे हक़ में हरगिज़ ना हो। और जब मसीह पकड़वाया गया। तो सब उस को छोड़कर भाग गए। लेकिन उस वक़्त जब मसीह उन की आँखों से ज़ैतून के पहाड़ पर से ग़ायब हो गया। तो वो यरूशलेम को वापिस आए। मगर ग़म व मायूसी की हालत में नहीं। बल्कि उन के दिल-ख़ुशी से मामूर (भरे) थे। गोया अब उन्होंने उस इत्मीनान को हासिल कर लिया था। जिसका मसीह ने मस्लूब होने से पेश्तर ज़िक्र किया था। यूहन्ना 14 बाब। पस जब कि वो यरूशलेम को वापिस आए। तो उनकी आरज़ू (ख़्वाहिश) एक ही थी। और उन की ग़र्ज़ भी एक। उनके दिल तैयार हो गए थे। और जब उन्होंने दुआ की तो यकदिल व यकजाँ हो कर की। बल्कि लिखा है, कि दुआ में लगे रहे। उस दिन से जब कि वो यरूशलेम में वापिस आए और पंतीकोस्त के दिन तक यानी बारह दिन के अर्से तक बराबर दुआ में मसरूफ़ रहे। अगर पूछा जाये, कि वो एक दिल हो के किस तरह दुआ मांग सके। और इस फ़ेअल में क्या भेद (राज़) था। तो इस का जवाब ये है, कि हर एक उन में से फ़रदन और मजमूअन मुतवज्जोह इलल्लाह था। और जब कि ख़ुदा के साथ एक थे। तो आपस में भी यकदिल हो सके।

नतीजा, इत्तिहाद (एका, मिलाप) क़ुव्वत का बाइस है। और बाहमी इत्तिहाद में ज़्यादातर ख़ुदावंद हमारी सुनता है। चुनान्चे रसूल भी इस बात का बार-बार ज़िक्र करता है, कि मुहब्बत में गठे (बंधे) रहो। पिलातूस की दारुल-अदालत में मसीह के दुश्मन यक आवाज़ बोले, कि इस को सलीब दो। इस को सलीब दो। हत्ता कि पिलातूस ने उनकी सुन ली। स्तिफ़नुस जब अपनी तक़रीर यहूदी बुज़ुर्गों के सामने कर चुका। तो लिखा है, कि वो कट गए। दाँत पीसते थे। एक दिल हो कर उस पर लपके। काश कि हमारे दिल भी बाहमी मुहब्बत में ऐसे ही बस्ता व पैवस्ता (बंधा हुआ) हो जाएं। और मसीह को अपना मुनज्जी (नजातदिहंदा) और मालिक तस्लीम कर के रूह की बारिश के लिए यक-दिल हो कर दुआ करें। क्योंकि वो वाअदा आज के दिन हमारा है। और हम उस वाअदे के मुस्तहिक़ (हक़दार) हो सकते हैं। चुनान्चे आमाल 2:29 आयत में मर्क़ूम है, क्योंकि ये वाअदा तुम्हारे और तुम्हारे लड़कों के वास्ते है और सब के लिए जो दूर हैं जितनों को हमारा ख़ुदावंद बुलाए।

दुआ यानी दो धारी तल्वार

मुझे कामिल (पूरा) यक़ीन है, कि जो लोग अक़्ल और इल्म पर ज़्यादा भरोसा रखते हैं। मेरी इस सरगुज़िश्त (माजरा) को सुनकर हँसेंगे। लेकिन मसीही ईमानदारों के नज़्दीक ये बात ना-मुम्किनात से नहीं होगी। क्योंकि अक्सर कई एक वाक़ियात उन के तजुर्बे से गुज़रे होंगे।

Prayer is Two Edge Sword

दुआ यानी दो धारी तल्वार

By

Dena Nath Shad
दीनानाथ शाद

Published in Nur-i-Afshan Dec 7, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 7 दिसंबर 1894 ई॰

मुझे कामिल (पूरा) यक़ीन है, कि जो लोग अक़्ल और इल्म पर ज़्यादा भरोसा रखते हैं। मेरी इस सरगुज़िश्त (माजरा) को सुनकर हँसेंगे। लेकिन मसीही ईमानदारों के नज़्दीक ये बात ना-मुम्किनात से नहीं होगी। क्योंकि अक्सर कई एक वाक़ियात उन के तजुर्बे से गुज़रे होंगे।

तख़मीनन डेढ़ साल का अर्सा गुज़रा है, कि यक-ब-यक मुझे खांसी और तख़मा (बद-हज़मी) की बीमारी ने आ पकड़ा। अव़्वल अव़्वल मैंने चंद ईलाज जो बुज़ुर्गों की ज़बानी सुने थे किए। लेकिन कुछ फ़ायदा ना हुआ। बाद मैंने अक्सर यूनानी हुकमा की अदवियात को आज़मा देखा लेकिन सेहत कहाँ (सेहत तो ख़ुदावंद के लबों में पाई जाती है।) इस के बाद मैंने अंग्रेज़ी डाक्टरों की तरफ़ रुख किया लेकिन किसी का मुआलिजा सूदमंद (फ़ायदा) ना हुआ। और बीमारी ने मुझे ऐसा दबाया, कि ना तो बदन में ताक़त छोड़ी ना दिमाग़ में क़ुव्वत बाअज़ बाअज़ वक़्त जब मैं निहायत लाचार (बेबस) हो जाता था। तो मेरी ज़बान से अक्सर, बातें ख़ुदावंद की शान के बरख़िलाफ़ निकलती थीं।

ऐ नाज़रीन मेरी उस वक़्त की मुसीबत अय्यूब की मुसीबत से कम ख़याल ना करना शायद अपने हलाक होने में देरी ज़रा ना थी। बिस्मिल था नीम-जाँ को तो चश्म बक़ा ना थी। तरफ़ माजरा ये कि बावजूद इस सब मुसीबत के मैं ऐसा संगदिल (बेरहम) था, कि शिफ़ायाबी के लिए कभी ख़ुदा से दुआ ना मांगता था। क्योंकि मेरा ख़याल था कि शिफ़ायाबी के लिए दुआ माँगना फ़ुज़ूल बात है। क्या ख़ुदावंद नहीं जानता, कि मेरा बंदा बीमार है? वो आप ही शिफ़ा बख़्शेगा।

आख़िरकार

एक रात को मुझे इस मर्ज़ ने ऐसा तंग किया, कि मैं ज़ार ज़ार रोने लग गया। और इसी हालत में दुआ माँगना शुरू कर दिया। लेकिन ज़बान से तो ना रोने की आवाज़ और ना दुआ के अल्फ़ाज़ निकल सकते थे। दिल ही दिल में रो-रो कर और आँसू बहा कर ख़ुदावंद की मिन्नत करता था। कि ऐ ख़ुदा बाप इस बीमारी से अपने प्यारे बेटे येसू मसीह की ख़ातिर मुझे नजात बख़्श। आमीन

उसे फ़ज़्ल करते नहीं लगती बार

ना हो उस से मायूस उम्मीदवार

सिर्फ बारह या पंद्रह मिनट ही में मेरी हालत बिल्कुल बदल गई। और मुझे कामिल (पूरा) यक़ीन हो गया, कि अब बीमारी का नाम व निशान भी बाक़ी नहीं है। और दर-हक़ीक़त ऐसा ही ज़हूर (इज़्हार, वक़ूअ) में आया।

तब रूह-उल-क़ुद्दुस ने

मुझे ये तहरीक (किसी बात को शुरू करना, हरकत देना) दिलाई, कि ख़ुदावंद की बख़्शिश का इज़्हार जहां तक हो सके, ज़रूर करना चाहिए। लेकिन मैंने सिर्फ एक दो मौक़े पर ख़ुदावंद की इस बड़ी बख़्शिश का तज़्किरा (ज़िक्र) किया। इस के बाद मेरे अपने दिल से भी ये बात उठ गई। जिसकी सज़ा में मैं फिर बीमार हो गया। और फिर बदस्तूर साबिक़ (पहला, अव्वल) बहुत से मुआलिजात (ईलाज) किए लेकिन किसी से फ़ायदा ना हुआ। आख़िर फिर दुआ की तरफ़ रुजू किया और शिफ़ा पाई। तब मैंने यक़ीन जाना कि दुआ फ़िल-हक़ीक़त दो-धारी तल्वार है। जिसका ख़ाली-अज़-तासीर (असर, नतीजा) होना दुशवार (मुश्किल) है।

सफ़ीर हासिल हुई सेहत मदद रूह पाक से। तक़्दीर वर्ना अपनी तो ऐसी रसा ना थी।

मेरी ग़र्ज़ इस सरगुज़श्त के दर्ज नूर-अफ्शां कराने से ये है, कि पिछले साल मुझे एक मसना सौंपा गया था। जो कि मैंने रूमाल में लपेट के ज़मीन में दफ़न कर दिया। जिसकी सज़ा में मुझे रोना और दाँत पीसना पड़ा लेकिन अब के साल मुझे दो मसना सौंपी गई हैं। इसलिए मैं एक तो सर्राफ़ (साहूकार, मालदार) की कोठी में जमा कराता हूँ। ताकि सूद समेत लूं। और एक से आप व्यपार (कारोबार) करने का इरादा है। ताकि बढ़होतरी हो। और जिस वक़्त मेरा मालिक मुझसे हिसाब मांगे उस से अर्ज़ करूँ, कि देख तेरी इस मसनाने दो और पैदा किए तब मेरा मालिक मुझे अपनी ख़ुशी में शामिल करे आमीन।

ये भी उस के साथ था

फ़िक़्रह मुन्दरिजा उन्वान लूक़ा की इन्जील के बाईस्वीं बाब की छप्पनवीं (22:56) आयत में मज़्कूर है। इस के मतलब पर थोड़ी देर के लिए ग़ौर और फ़िक्र करें। ताकि नाज़रीन नूर-अफ़्शां ख़्वाह हिंदू हों, ख़्वाह मुसलमान इस तारीकी से जो अभी तक ब्रिटिश इंडिया के बाअज़ मख़्फ़ी हिसस (छुपे हिस्सों) में छाई हुई है। निकल कर आफ़्ताब सदाक़त (सच्चाई का सूरज) के परतो जलाल (जलाली साया) से मुनव्वर जाएं।

He was also with Him

ये भी उस के साथ था

By

Kaidar Nath
केदार नाथ

Published in Nur-i-Afshan Dec 7, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 7 दिसंबर 1894 ई॰

फ़िक़्रह मुन्दरिजा उन्वान लूक़ा की इन्जील के बाईस्वीं बाब की छप्पनवीं (22:56) आयत में मज़्कूर है। इस के मतलब पर थोड़ी देर के लिए ग़ौर और फ़िक्र करें। ताकि नाज़रीन नूर-अफ़्शां ख़्वाह हिंदू हों, ख़्वाह मुसलमान इस तारीकी से जो अभी तक ब्रिटिश इंडिया के बाअज़ मख़्फ़ी हिसस (छुपे हिस्सों) में छाई हुई है। निकल कर आफ़्ताब सदाक़त (सच्चाई का सूरज) के परतो जलाल (जलाली साया) से मुनव्वर जाएं।

मिस्र के बादशाह फ़िरऔन ने बनी-इस्राईल को क्यों सताया? इसलिए कि याक़ूब के मिस्र में ख़ुश बाश होने के कुछ अर्से पेश्तर एक क़ौम से जो हिकसॉस कहलाती थी। और जो गल्लाबानी करती थी। शाहान-ए-मिस्र को सख़्त तक्लीफ़ पहुंची थी। मज़्कूर फ़िरऔन और उस की रियाया ने अपने वहम में ये ख़याल किया कि यक़ीनन ये भी वही हैं। ऐसा ना हो, कि उनकी तरक़्क़ी फिर हमारे ज़वाल (नाकामी, पस्ती) का बाइस ठहरे। पस उन्होंने बनी-इस्राईल को अज़ीयत पहुंचाने पर कमर बाँधी। उन की औलाद नरिना (लड़के) क़त्ल की गई उन से ख़िश्त पज़ी (ईंटें पकाना) की बेगार ली (बग़ैर मज़दूरी) और उज्रत कोड़ी ना दी। यहां तक, कि उन की हलाकत की ख़्वाहिश में आप ही दरिया-ए-क़ुलज़ुम में ग़र्क़-ए-आब (पानी में डूबे) हुए।

आज तक हमारे हिंदू भाई आलमगीर को बदी के

हमारे मुल्क हिन्दुस्तान में सुल्तान औरंगज़ेब मुहम्मद आलमगीर ने एक हिंदू फ़िर्क़ा सत नारायन से मुतवहि्ह्श (नफ़रत करने वाला) हो कर कुल हिंदूओं पर इस ख़ामख़याली से, कि ये भी वही हैं। इस क़द्र सख़्ती रवा रखी, कि आज तक हमारे हिंदू भाई आलमगीर को बदी के साथ याद करते हैं।

वालिया भोपाल के शौहर मुतवफ़्फ़ी (वफ़ात पाने वाला) अमीर-उल-मुल्क वाला जाह नवाब सिद्दीक़ अल-हसन ख़ान साहब भी इसी मर्ज़ लाइलाज में मुब्तला हो कर राहे मुल्क-ए-अदम (मरने के बाद की जगह) हुए।

1857 ई॰ में बाद कंपनी बहादुर कारतुस मुँह से काटे जाने के हुक्म पर अमरीकन पादरीयों और हिन्दुस्तानी मसीहियों का सताया जाना। जानों से मारा जाना। अभी तक हमारी आँखों के सामने होलनाक नज़ारा मौजूद है।

क़ैसर मलिका मुअज़्ज़मा दाम इक़बालहा के अहद-ए-मादिलत (अदल व इन्साफ़ का दौर) महद में बाद नफ़ा ज़ाएकट असलाह हिंदूस्तानियों के मसीह को क़ुबूल करने पर ये कहना कि अब तो ये साहब लोग हो गए। कोट पतलून पहनेंगे। छुरी कांटे से खाएँगे। फिर इस पर ये कहता, कि मस के इश्तियाक़ (शौक़) में ईसाई हो गए रोटियों का सहारा हो गया। बे-धरम हो गए। अब तो आबदस्त से भी छूटे। फिर मसीहियों से सख़्त नफ़रत और अदावत (दुश्मनी) हर वक़्त लान तअन (लानत) कुँओं से पानी भरने की मुमानिअत (मना करना)

अब मैं कहता हूँ, कि अगर मसीही भी वही हैं। और इसी लिए उन की हिक़ारत (ज़िल्लत, नफ़रत) करना और उनको तक्लीफ़ पहुंचाना हमारे हिंदू मुहम्मदियों के वहम में मुतमक्किन (क़रार पकड़ने वाला, जागज़ीन) है। तो मेहरबानी कर के ज़ेल की मुश्किल को हल कर दें। जो निहायत ख़तरनाक है। इस अक़्दह (गिरह, मुश्किल) के खोलने में यक़ीनन हमारे हम-अस्र नूर अला नूर तो ज़रूर है कुछ ना कुछ रोशनी इनायत (तवज्जोह) फ़रमाएँगे। क्योंकि :-

मैदान अख़्बार तंग नहीं, और पाए क़लम लंग नहीं

देखिए गुज़श्ता तवारीखे हिन्द पर नज़र डालने से साबित हो चुका है, कि ब्रिटिश गवर्नमेंट की मुसावी (बराबर, यकसाँ) कोई सरकार इस मुल्क-ए-हिंद को नसीब नहीं हुई रेल, तार, जहाज़, शिफ़ाख़ाना, मदरिसा, सड़क, पुल, मुख़्तलिफ़ कलें (मशीनें) अस्बाबे तिजारत। छापा वग़ैरह इस मुल्क को कब मिला था?

मज़्हबी आज़ादी, हिंदू संख (बड़ी कोड़ी जो मंदिरों में बजाई जाती है) बजाएँ। मुल्ला बाँग लगाऐं ब्रहमो समाज, देव समाज, आर्या समाज, सिंह सभा, धर्म सभा, अंजुमन हिमायत इस्लाम, इशाअत-उल-सुन्नत, तहज़ीब-उल-अख़लाक़ एक ऐसी शक्ल जिसके अज़ला मुख़्तलिफ़, और गोशा ग़ैर मुसावी। फिर भी चेन चान अमन अमान ख़ुश गुज़राँ। पस ईसाईयों से इनाद व अदावत (लड़ाई दुश्मनी) मह्ज़ इस ग़र्ज़ से कि ये भी वही हैं यानी उसी ख़ुदावंद येसू मसीह को मानते हैं, जिसे अंग्रेज़ भी अपना नजातदिहंदा जानते हैं। اولیٰ الام منکم की साफ़ तफ़्सीर (तश्रीह, वज़ाहत) है या नहीं और, الناس علے دین ملوکھم के ख़िलाफ़ तक़रीर है या नहीं?

मसीह का जी उठना

क़ब्ल इस के, कि हम मसीह के जी उठने की निस्बत यूरोपियन मुल्हिदों (दीन से फिरे हुए, काफ़िर) और मुनकिरों (इन्कार करने वाले) के क़ियास रुयते ख़्याली (ज़हूर के ख़्याली अंदाज़े लगाना) के तर्दीदी मज़्मून के सिलसिले को ख़त्म करें। ये मुनासिब मालूम होता है,

Ressurection of Jesus Christ

मसीह का जी उठना

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Dec 7, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 7 दिसंबर 1894 ई॰

 

 

 

क़ब्ल इस के, कि हम मसीह के जी उठने की निस्बत यूरोपियन मुल्हिदों (दीन से फिरे हुए, काफ़िर) और मुनकिरों (इन्कार करने वाले) के क़ियास रुयते ख़्याली (ज़हूर के ख़्याली अंदाज़े लगाना) के तर्दीदी मज़्मून के सिलसिले को ख़त्म करें। ये मुनासिब मालूम होता है, कि वो एक और उस की हक़ीक़ी रवैय्यतों मुन्दरिजा अह्दे-जदीद (नया अहदनामा) का ज़िक्र करें। ताकि बख़ूबी मालूम हो जाये, कि बक़ौल लूक़ा तबीब कातिब-ए-इन्जील “उस ने अपने शागिर्दों पर अपने मरने के पीछे अपने आपको बहुत सी क़वी (मज़्बूत) दलीलों से ज़िंदा साबित किया” था। जी उठने के बाद की उस की मुख़्तलिफ़ कम अज़ कम दस रवैय्यतों (ज़हूर) का बयान अहदे जदीद में मिलता है। जिनसे ना सिर्फ उस का शागिर्दों का बेयक निगाह नज़र आना। और फ़ौरन ग़ायब हो जाना। बल्कि बदेर उन के साथ हम-कलाम होना। उन के साथ खाना। और अपनी जिस्मानी हैयत (जिस्मानी साख़त) कज़ाई को ज़ाहिर करना साबित होता है। गुज़श्ता ईशू (मसलन) में उस का अमाऊस की राह में दो शागिर्दों को नज़र आने। उन के हमराह गुफ़्तगु करते हुए मकान तक पहुंचने। और उन के साथ रोटी खाने में शरीक होने का ज़िक्र किया गया।

और तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठा

और अब हम एक और रुयते (दीदार) का ज़िक्र करेंगे। जिससे ख़्याली रुयते का क़ियास कुल्लियतन बातिल (झूट) व आतिल ठहरेगा। और साबित व ज़ाहिर होगा, कि कोई ख़्याली ग़ैर-हक़ीक़ी सूरत नहीं। बल्कि वही मसीह था जो बैत-लहम में पैदा हुआ। नासरत में परवरिश पाई। जो क़रीब साढे़ तीन बरस तक अपने शागिर्दों के दर्मियान रहा। यरूशलेम के कूचों में फिरा। हैकल में वाज़ किया। मोअजज़ात दिखलाय। और बिलआख़िर मस्लूब व मदफ़ून (सलीब पर चढ़ा व दफ़न हुआ) हुआ। और तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठा। और अपने शागिर्दों को इसी मस्लूब शूदा जिस्म से बार-बार दिखलाई दिया। चुनान्चे यूहन्ना रसूल अपनी इन्जील के 20 बाब में लिखता है, कि हफ़्ता के पहले दिन यानी इतवार की शाम को जब कि शागिर्द एक मकान में, जिसके दरवाज़े यहूदीयों के डर से बंद कर रखे थे। जमा थे और ग़ालिबन इन्ही बातों का तज़्किरा बाहम कर रहे थे कि इतने में येसू उन के दर्मियान आ खड़ा हुआ। और उन्हें कहा तुम पर सलाम। और वो उस को देखकर ख़ुश हुए लेकिन तोमा इस रुयते (दीदार) के वक़्त ग़ैर-हाज़िर था। और जब और शागिर्दों ने उस से कहा, कि हमने ख़ुदावंद को देखा है। तो उस ने उन के कहने पर यक़ीन ना किया। और कहा कि “जब तक कि मैं उस के हाथों में कीलों के निशान ना देखूं। और कीलों के निशानों में अपनी उंगलीयां ना डालूं जो भाले से छेदा गया था कभी यक़ीन ना करूँगा।” तोमा की इस दरख़्वास्त तहक़ीक़ात मूशिगाफ़ (बारीक बीन) और इत्मीनान बख़्श के लिए हम उस पर बे-एतिक़ादी (शक करना) या गुस्ताख़ी का इल्ज़ाम नहीं लगा सकते। क्योंकि अगरचे वो अपने साथीयों की सदाक़त व रास्ती की निस्बत बदज़न (शक्की, बदगुमान) ना था। ताहम अक़्ल इंसानी के नज़्दीक ऐसे एक ग़ैर-मुम्किन अल-वक़ूअ। अम्र को दूसरों से सुन लेने। और यक़ीन करने की बनिस्बत दह बचश्म ख़ुद देखना (ख़ुद अपनी आँख से देखना) और ना सिर्फ देखना, बल्कि छूना। और ख़ातिर-ख़्वाह इत्मीनान हासिल कर के यक़ीन करना बदर्जा हा बेहतर समझता था। इलावा अज़ीं ख़ुद ख़ुदावंद ने भी उस की ऐसी राज़ जो तफ़्तीश को दाख़िल गुस्ताख़ी ना समझा और उस के हस्बे दिल-ख़्वाह (दिली-ख़्वाहिश) तमानियत (इत्मीनान) बख़्शने से उस को महरूम व मायूस ना किया। चुनान्चे लिखा है, कि “आठ रोज़ के बाद जब उस के शागिर्द जमा थे। और तोमा उन के साथ था। तो दरवाज़ा बंद होते हुए येसू आया। और बीच में खड़ा हो कर बोला, तुम पर सलाम फिर उस ने तोमा को कहा, कि अपनी उंगली पास ला। और मेरे हाथों को जिनमें आहनी मेख़ों (कीलों) के ज़ख़्म थे देख। और अपना हाथ पास ला। और उसे मेरे पहलू में जो भाले से छेदा गया था डाल। और बेईमान मत हो। बल्कि ईमान ला” और यूं तोमा, जब कि वो क़ुव्वत-ए-बासिरा (देखने की क़ुव्वत)  सामिआ (सुनने वाला) और लासिर के ज़रीये मालूम कर चुका। तो ना सिर्फ उस को हक़ीक़ी फिर ज़िंदा हुई इन्सानियत व जिस्मानियत का, बल्कि उस की उलूहियत का क़ाइल व मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) हो गया। और बिला-ताम्मुल (बग़ैर सोचे समझे) सर-ए-तस्लीम झुका कर कहा, “ऐ मेरे ख़ुदावंद। और ऐ मेरे ख़ुदा” जिस पर ख़ुदावंद ने फ़रमाया कि, ऐ तोमा इसलिए कि तू ने मुझे देखा तू ईमान लाया है। मुबारक वो हैं जिन्हों ने नहीं देखा, तो भी ईमान लाए।

अब हम उन लोगों से जो मसीह की ख़्याली रुयते (वहमी नज़ारे) के क़ियास को पेश करते और उस के फ़िल-हक़ीक़त जी उठने को ग़ैर-मुम्किन समझते सवाल कर सकते हैं, कि क्या ये बयान सिर्फ किसी ख़्याली रुयते (वहमी नज़ारे) का है? क्या ख़्याली रुयते अपनी जिस्मानियत को इस तरह पर साबित करने के लिए मुस्तइद व आमादा हो सकती। और किसी मुश्ताक़ रुयते (नज़ारे) के साथ ऐसी सराहत (तश्रीह, वज़ाहत) के साथ इस क़द्र अर्से तक हम-कलाम हो कर इस के शकूक औहाम (शक व वहम) दिली को रफ़ा दफ़ाअ कर सकती है? कौन मुहक़्क़िक़ (तहक़ीक़ करने वाला) और तालिब सदाक़त (सच्चाई का चाहने वाला) ऐसे बे-बुनियाद क़ियास (अंदाज़ा) को बमुक़ाबला ऐसी साफ़ और वाज़ेह तहरीरी शहादतों (सबूतों) के क़ुबूल कर सकता है?