बेटा ख़ुदा है और शख़्स है

चूँकि ये जुम्ला कि “जिसे उस ने अपने ही लहू से मोल लिया” मसीह से निस्बत रखता है और यहां पर उस की शान में लफ़्ज़ ख़ुदा आया है। इस मुक़ाम में बाअज़ नुस्ख़ों में लफ़्ज़ ख़ुदा के एवज़ (बजाय) लफ़्ज़ ख़ुदावंद भी पाया जाता है। इसलिए बाअज़ लोग ये एतराज़ करते हैं कि इस आयत को ताअलीम-ए-तस्लीस की ताईद में हम पेश ना करें। लेकिन हमको यक़ीन-ए-वासिक़

The Son is God and The Person

बेटा ख़ुदा है और शख़्स है

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Oct 12, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 12 अक्तूबर 1894 ई॰॰

आमाल बाब 20:28 पस अपनी और इस सारे गल्ले (जमाअत) की ख़बरदारी करो जिस पर रूहूल-क़ुद्दुस ने तुम्हें निगहबान ठहराया कि ख़ुदा की कलीसिया को जिसे उस ने अपने ही लहू से मोल लिया चराओ।

चूँकि ये जुम्ला कि “जिसे उस ने अपने ही लहू से मोल लिया” मसीह से निस्बत रखता है और यहां पर उस की शान में लफ़्ज़ ख़ुदा आया है। इस मुक़ाम में बाअज़ नुस्ख़ों में लफ़्ज़ ख़ुदा के एवज़ (बजाय) लफ़्ज़ ख़ुदावंद भी पाया जाता है। इसलिए बाअज़ लोग ये एतराज़ करते हैं कि इस आयत को ताअलीम-ए-तस्लीस की ताईद में हम पेश ना करें। लेकिन हमको यक़ीन-ए-वासिक़ (पक्का यक़ीन) है कि लफ़्ज़ ख़ुदा ही इस आयत में दुरुस्त नुस्ख़ा है क्योंकि मुक़द्दस अगनेशियस अपने ख़त इफ़िसियों के बाब अव़्वल में जो 107 ई॰ में उसने लिखा है ख़ुदा के लहू का ज़िक्र करता है जो ऐसी इबारत है जिसके इस्तिमाल करने की कोई इन्सान जुर्आत नहीं कर सकता तावक़्ते के उस को ऐसे कलाम करने की माक़ूल व मोअतबर सनद (मुनासिब व क़ाबिल-ए-एतबार सबूत) हासिल ना हो चुकी हो। मगर सिवाए आमाल बाब 20, आयत 28 के ऐसी इबारत के इस्तिमाल की कोई और सनद ही नहीं है तो इस से साफ़ साबित है कि मुक़द्दस अगनेशियस के वक़्त में भी लफ़्ज़ ख़ुदा ही मतन में मौजूद था। लेकिन जब वो 107 ई॰ में शहीद हुआ तो बड़ा ज़ईफ़ व सन-रसीदा (कमज़ोर और बूढ़ा) था और चूँकि किताब आमाल 63 ई॰ में लिखी गई थी यानी सिर्फ 43 बरस क़ब्ल-ए-शहादत के तो उसने इस किताब आमाल को इस के तहरीर होने के थोड़े ही दिनों बाद पढ़ा होगा और इस के मज़ामीन से वाक़फ़ीयत हासिल की होगी। पस हमको हर तरह से इख़्तियार व सनद हासिल है कि इस आयत को इब्न (बेटा) की उलूहियत (ख़ुदाई) के बारे में पेश करें।

अगर हम इन्जील के मुख़्तलिफ़ नुस्ख़ों पर लिहाज़ करें तो इस में भी हम कुछ टोटे (नुक़्सान) में ना रहेंगे। जितना हमको ख़सारा (नुक़्सान) होगा उतना ही हमको नफ़ा भी हो जाएगा। क्या मअनी कि जितने नुस्ख़े हमारे ख़िलाफ़ निगलेंगे उतने ही हमारे मुवाफ़िक़ भी निकल आएँगे। मसलन अगर हम यूहन्ना बाब 1:18 को इक़्तिबास करें तो वहां पर बजाय इकलौते बेटे के ख़ुदा इकलौता बहुत से मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग) ने दुरुस्त नुस्ख़ा रखा है तो ये नुस्ख़ा यहां पर ग़ालिबन इस नुस्खे “ख़ुदावंद बजाय ख़ुदा” आमाल बाब 20:28 से ज़्यादातर दुरुस्त व सही मालूम होता है।

यूहन्ना बाब 20:28, 29, और तोमा ने जवाब में उसे कहा, ऐ मेरे ख़ुदावंद और ऐ मेरे ख़ुदा, येसू ने उसे कहा, ऐ तोमा इस लिए कि तू ने मुझे देखा तू ईमान लाया है मुबारक वो हैं। जिन्हों ने नहीं देखा तो भी ईमान लाए। ऊपर की इबारत की मतानत (संजीदगी) और ज़ोर इस बात में पाया जाता है कि मसीह ने तोमा को मलामत (झिड़कना) और सरज़निश (तंबीया) करने के बजाय कि तू ने क्यों ख़ुदा का लक़ब मुझको दिया उस के इस फ़ेअल व एतिक़ाद को क़ाबिल-ए-तहसीन (तारीफ़ के लायक़) क़रार दिया। अब देखिए कौन ऐसा उस्ताद दुनिया में होगा। जो मह्ज़ जाम बशरीयत (सिर्फ़ इन्सान हो) रखता हो और इस लक़ब ख़ुदा से मुलक़्क़ब (ख़िताब दिया गया) होना पसंद करे। मआज़-अल्लाह हिना! मह्ज़ इन्सान अपने तईं ख़ुदा कहलाना कभी पसंद ना करेगा।

ख़त कुलिस्सियों का बाब 2:9 “क्योंकि उलूहियत का सारा कमाल उस में मुजस्सम हो रहा।” ख़त फिलिप्पियों को बाब 2:5 से 9 “तक पस तुम्हारा मिज़ाज वही हो जो मसीह येसू का भी था कि उस ने ख़ुदा की सूरत में हो के ख़ुदा के बराबर होना ग़नीमत ना जाना लेकिन उसने अपने आपको छोटा किया कि ख़ादिम की सूरत पकड़ी और इन्सान की शक्ल बना और आदमी की सूरत में ज़ाहिर हो के अपने आप को पस्त (कमतर, नीचा) किया और मरने तक बल्कि सलीबी मौत तक फ़र्मांबरदार रहा। इस वास्ते ख़ुदा ने उसे बहुत सर्फ़राज़ किया और उस को ऐसा नाम जो सब नामों से बुज़ुर्ग बख़्शा।”

आयात मज़कूर-उल-सदर (ऊपर लिखी हुई आयात) की मितानत (संजीदगी) की क़द्र बख़ूबी उसी को मालूम हो सकती है जो इन को अस्ल ज़बान यूनानी में पड़े लेकिन कुल इबारत का मतलब ये है कि मसीह अगरचे क़ब्ल मुजस्सम होने (जिस्म इख्तियार करने से पहले) के जब वो कलिमा ग़ैर-मुजस्सम था अस्ल ज़ात व मिज़ाज ख़ुदा रखता था और इसलिए वो ख़ुदा के बराबर था तो भी उसने इस हमसरी और ख़ुदा की बराबरी को रखना ग़नीमत ना जाना बल्कि उसने इसे तर्क करके ख़ादिम की सूरत पकड़ी और इन्सान की शक्ल बना।

तोमा ने जवाब में उसे कहा, ऐ मेरे ख़ुदावंद और ऐ मेरे ख़ुदा

ख़त इब्रानियों बाब 1, 2, 3 के बीच तक ख़ुदा जिसने अगले ज़माने में नबियों के वसीला बाप दादों से बार-बार और तरह ब-तरह कलाम किया इन आख़िरी दिनों में हमसे बेटे के वसीले बोला जिसको उसने सारी चीज़ों का वारिस ठहराया और जिसके वसीले उसने आलम (दुनिया) बनाए। वो उस के जलाल की रौनक और उस की माहीयत (असलियत) का नक़्श हो के सब कुछ अपनी ही क़ुद्रत के कलाम से संभालता है। अल-ग़र्ज़ ये मुम्किन है कि हम और बहुत सी आयतें पेश करें मगर हमने सिर्फ़ चंद आयात ऐसी पेश की हैं जिन पर मुबाहिसा हो सकता है और हमने अज़-राह ख़ुदा-तरसी व बह रास्त मुआमलगी (दुरुस्त मुआमला) इस बात से बचने की कोशिश की है कि किसी आयत के मअनी खींच खांच और तोड़-मरोड़ कर अपने हक़ में ज़बरदस्ती से आइद करें। जैसा कि हम नहीं चाहते कि किसी आयत के लफ़्ज़ी मअनी को खींच खांच तोड़-मरोड़ कर हमारे मुतख़ासिमीन (मुख़ालिफ़ीन) अपने हक़ में आइद कर लें वैसा ही हमने भी नहीं किया बक़ौल :-

شخصے ہر چہ برخود نہ پسندی بر دیگراں من پسند

हाँ ये भी कहना दुरुस्त है कि अह्दे-जदीद में बहुत सी आयतें ऐसी मौजूद हैं जो बाज़ों के नज़्दीक उलूहियत मसीह की मुतनाक़िज़ व मुआरिज़ (मुख़ालिफ़) हैं मसलन वो लोग जो मसीही ताअलीम व तल्क़ीन से कम वाक़फ़ीयत रखते हैं। ऐसी ऐसी आयतों को पेश करते हैं जिनमें मसीह की इन्सानियत का ज़िक्र है। कि उसने इन्सान हो कर तरह तरह का दुख उठाया और ताईनात और क़ुयूद (हद बंदीयां) इन्सानी व बशरी का पाबंद रहा और मोअतरज़ीन (एतराज़ करने वाले) ये सवाल कर बैठते हैं कि वो क्योंकर ख़ुदा हो सकता है जिस हालत में कि वो क़ुयूद (हदूद) इन्सानी का पाबंद था यानी जब उस को भूक और प्यास लगती थी और मांदगी (थकान) व ईज़ा (तक्लीफ) व मौत का मुतीअ (ताबे) होता था। यहां तक कि बाअज़ ये भी हुज्जत (बह्स) करते हैं कि इल्म में भी ताईनात बशरी (इन्सानी हदबंदी) का पाबंद था तो फिर वो क्योंकर ख़ुदा ठहरा। हम इस को फ़ुज़ूल व बेकार समझते हैं कि इन आयात को यहां पर पेश करें। क्योंकि हमारे मुतख़ासिमीन व मोअतरज़ीन (मुख़ालिफ़ीन, एतराज़ करने वाले) इनको इस बारे में बतौर हवाला पेश कर चुके हैं। और हम इनको तमाम व कमाल मख़लाबाल-तबाअ (बे-तकल्लुफ़) हो कर तस्लीम करते हैं। हक़ तो ये है कि मसीही की पूरी पूरी इन्सानियत और उस की पूरी पूरी उलूहियत दोनों ही की मसीही दीन के लिए ज़रूरत है वाज़ेह हो कर मसीह की उलूहियत व इंसानियत दो रुक्न मतीन इमारत मसीही दीन हैं। इन ही पर इस इमारत की बुनियाद क़ायम है। जब तक ये क़ायम हैं ये इमारत भी क़ायम है। बग़ैर इनके कुल नक़्शा नजात व मुसालहते (रिहाई, भलाई) इन्सान मिट जाएगा। अगर ये दोनों रुक्न इमारत दीन-ए-मसीही से निकाल डाले जाएं तो सारी इमारत दहम से गिर पड़ेगी और बर्बाद हो जाएगी। हमारा मसअला दीन ये है कि ख़ुदा कलिमा अज़ली ने कामिल इन्सानी मिज़ाज को कुँवारी मर्यम मुक़द्दसा की माहीयत (असलियत) से जिस्म व रूह समेत इख़्तियार व क़ुबूल किया ताकि जिस्म व रूह उस के लिए दोनों एक आला हों जिसके ज़रीये से वो मुहब्बत व रहमत ख़ुदा का ज़हूर हलक़ा इन्सानियत में दिखलाय और अपने तईं इन्सानियत से पैवंद (जोड़ना) कर के इस दूरी व महजूरी (जुदाई, फ़ासिले) को जो ख़ुदा और इन्सान के दर्मियान हाइल हो गई दूर करे।

फ़ील वाक़ेअ ये इन्सान की ज़ात जो कि उसने इख़्तियार की दरहक़ीक़त ज़ात इन्सान थी क्योंकि ख़ुदा की ज़ात में दरोग़ (झूट) का साया तक भी हो नामुम्किन नहीं है।

पस जो कुछ मुजस्सम यानी मसीह ने किया और सहा वो उसने दरहक़ीक़त किया और सहा। और मख़्फ़ी (छिपी) न रहे कि मसीह ने जो कुछ ईज़ा बर्दाश्त की वो बहैसियत ज़ाते इलाही बर्दाश्त नहीं की बल्कि बहैसियत ज़ात-ए-इन्सान जिसको उसने इख़्तियार किया था बर्दाश्त की।

अक्सर लोग ऐसी आयतों के ना समझने के बाइस जो कि मसीह की ज़ात-ए-इन्सान से मुताल्लिक़ हैं उस की उलूहियत के बारे में ग़लत नतीजा निकाल लेते हैं। ऐसी कुल आयात को यहां लिखना तो अम्र मुहाल (मुशकिल काम) है मगर हाँ दो-चार आयात को बतौर नमूना पेश करते हैं जिनसे इस किताब के पढ़ने वालों को मोअतरज़ीन की ग़लतफ़हमी ज़ाहिर हो जाएगी। अक्सर लोग मत्ती 4:10 को याक़ूब 1:13 से मुक़ाबला करके ये ग़लत नतीजा निकालते हैं कि मसीह ख़ुदा नहीं है। चुनान्चे मत्ती 4:10 में ये लिखा है, तब येसू रूह के वसीले ब्याबान में लाया गया ताकि शैतान उसे आज़माऐ और याक़ूब 1:13 में ये लिखा है जब कोई इम्तिहान में फंसे तो वो ना कहे कि मैं ख़ुदा की तरफ़ से इम्तिहान में फंसा क्योंकि ख़ुदा बदियों से ना आप आज़माया जाता है और ना किसी को आज़माता है। मगर एक ज़रा से तहम्मुल व ग़ौर (सोच बिचार) करने से ये ख़याल-ए-फ़ासिद (ख़याल) दूर हो जाएगा। हाँ ये तो सच्च है कि ख़ुदा बहैसियत ख़ुदा किसी बदी से आज़माया नहीं जाता लेकिन ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़ ही नहीं हो सकता अगर वो ज़ात इन्सान को इन्सानी तजुर्बे हासिल करने के लिए इख़्तियार ना कर सके। हाँ वह तजुर्बा जो ख़ुदा इन्सान हो कर हासिल करेगा, इन्सानी तजुर्बा रहेगा। वो इलाही तजुर्बा हरगिज़ ना हो जाएगा। बल्कि उस इलाही शख़्स का तजुर्बा होगा जिसने इन्सानी ज़ात को इख़्तियार किया है। अब याद रखना लाज़िम है कि मसीही दीन की यही ताअलीम है जो कि ख़ुदा के कलाम से हासिल होती है। कि ख़ुदा ने मुजस्सम हो कर इतना ही किया कि उसने ज़ात-ए-इन्सान इख़्तियार कर के इन्सानी तजुर्बा हासिल किया। पस मोअतरिज़ को इख़्तियार है जो जी चाहे सौ कहे मगर वो ये नहीं कह सकता कि आयात मज़्कूर बाला इस ताअलीम से नकीज़ (मुख़ालिफ़त) रखती हैं। नक़ीज़ तो दर-किनार बल्कि वो मसीही ताअलीम से ऐन मुताबिक़त रखती हैं।

अब बाअज़ आयात ऐसी हैं जिनकी बाबत मोअतरज़ीन ये कहते हैं कि उनसे मसीह का ख़ुदा ना होना साफ़ साबित है। हम इस मुक़ाम पर दो एक ऐसी मशहूर आयतों को जांच कर ये दिखाना चाहते हैं, कि आया वो मसीह की नफ़ी उलूहियत (ख़ुदाई का इन्कार) के लिए काफ़ी हैं या नहीं। या…..मोअतरिज़ की मह्ज़ ग़लतफ़हमी है पहला ख़त कुरिन्थियों बाब 8 आयत 6 में ये लिखा है हमारा एक ख़ुदा है जो बाप है जिससे सारी चीज़ें हुईं और हम उसी के लिए हैं। और एक ख़ुदावंद है जो येसू मसीह है जिसके सबब से सारी चीज़ें हुईं और हम उसी के वसीले से हैं। अक्सर लोग इस आयत के पहले हिस्से को इक़्तिबास कर के ये दलील करने लगते हैं कि उलूहियत सिर्फ़ ख़ुदा बाप ही की निस्बत क़रार दी जा सकती है। मगर मुद्दई (दावा करने वाला) से हमारी दरख़्वास्त ये है कि आप पूरी पूरी आयत को इक़्तिबास कर के पेश करें। तब कैफ़ीयत मालूम होगी। अगर आयत के पहले हिस्से से ये बात निकलती है कि उलूहियत सिर्फ़ ख़ुदा बाप ही की निस्बत क़रार दी जा सकती है तो इसी आयत के दूसरे हिस्से से ये बात भी पैदा होती है, कि ख़ुदावंदी इसी तरीक़ इस्तिदलाल (देना) और तर्ज़ तफ़सीर से फ़क़त बेटे ही की निस्बत क़रार दी जा सकती है। बाप पर ख़ुदावंदी का इतलाक़ सादिक़ नहीं आता।

मगर ऐसा नतीजा किताब मुक़द्दस के सरीहन ख़िलाफ़ है। पस इस सूरत में हम पर ये लाज़िम आता है कि ऐसी तफ़्सीर की तरमीम (दुरुस्ती) करें और इस आयत से वो ताअलीम हासिल करें जो कुछ उस की इबारत से निकलती है। जानना चाहिए कि बाप और बेटे के दर्मियान वो यगानगत है जो किसी तरह एक दूसरे से जुदा हो नहीं सकती। फ़िल-वाक़ेअ इन दोनों अक़ानीम में वो इत्तिहाद व पैवस्तगी है कि जो कुछ एक की निस्बत क़रार दिया जाएगा वही दूसरे पर भी सादिक़ आएगा। चुनान्चे ये दोनों बाएतबार अपनी अपनी ज़ात व सिफ़ात के एक हैं। फिर यूहन्ना 17:3 और हमेशा की ज़िंदगी ये है कि वो तुझको अकेला सच्चा ख़ुदा और येसू मसीह को जिसे तू ने भेजा है, जानें। इस आयत में हमारा ख़ुदावंद ब-हैसियत इन्सान अपने बाप से मुख़ातिब है। वो इस मुक़ाम में जैसा कि उसने और भी बारहा किया अपने तईं बेटा नहीं कहता बल्कि येसू मसीह कहता है ताकि अपने इन्सानी वजूद को लोगों के दिलों पर अच्छी तरह से नक़्श कर दे। जानना चाहिए कि येसू उस का शख़्सी नाम है और मसीह उस का नाम बाएतबार उस के उस ओहदा के रखा गया जिस पर कि वो ख़ुदा की तरफ़ से मुतय्यन व मुक़र्रर किया गया था। पस इस आयत में ख़ुदावंद येसू मसीह के इन्सानी ओहदा व ज़ात का मुक़ाबला अकेले और सच्चे ख़ुदा की ज़ात के साथ किया जाता है। और साफ़ मालूम होता है कि मुद्दई का एतराज़ सिर्फ इस वजह से है कि वो मसीही दीन की ताअलीम को सही सही तौर पर नहीं समझता। वाज़ेह हो कि कोई मसीही ये दीन की ताअलीम को सही सही तौर पर नहीं समझता। वाज़ेह हो कि कोई मसीही ये एतिक़ाद नहीं रखता कि सिवाए एक वाहिद और हक़ीक़ी ख़ुदा के कोई और भी दूसरा ख़ुदा है या…. वो ये समझता हो कि मसीह सिवाए ख़ुदा बाप के कोई दूसरा ख़ुदा है। हर एक मसीही का यही एतिक़ाद है कि ख़ुदा एक है आयत मज़्कूर बाला की ताअलीम और हर मसीही के एतिक़ाद की रु से ख़ुदा बाप ही अकेला और सच्चा ख़ुदा है और इसी तरह कलिमा और रूहुल-क़ुद्दुस भी अकेला और सच्चा ख़ुदा है। ख़ुदा एक ही है। दो या तीन ख़ुदा नहीं हैं और ना हो सकते हैं। और उसी अकेले और सच्चे ख़ुदा पर जिसने अपने तईं हम पर ज़ाहिर किया है। और मुजस्सम कलिमा की नजात के काम पर जो कि उसने इस दुनिया में आकर किया एतिक़ाद रखने और पूरा एतबार करने से हर एक गुनेहगार हयात-ए-अबदी का मुस्तहिक़ (हक़दार) हो जाता है। फ़िल-हक़ीक़त ये एतिक़ाद व एतबार हयात-ए-अबदी के साथ ऐसा मज़्बूत इलाक़ा रखता है कि इन दोनों को दर-हक़ीक़त एक ही समझना लाज़िम है।

फिर अक्सर लोग इस बात के सबूत में आयात पेश करते हैं कि मसीह की हस्ती और क़ुद्रत जुबल्ली और ज़ाती नहीं बल्कि वो बाप से अख़ज़ (निकालना) की गई है। मसलन यूहन्ना 6:57 को पेश करते हैं जहां ये लिखा है, कि जिस तरह से कि ज़िंदा बाप ने मुझे भेजा और मैं बाप से ज़िंदा हूँ। फिर यूहन्ना 5:26 जिस तरह बाप आप में ज़िंदगी रखता है। उसी तरह उसने बेटे को भी दिया है, कि अपने में ज़िंदगी रखे। आयात मज़्कूर बाला इस बात के सबूत में पेश की जाती हैं कि मसीह हर शैय के लिए ख़ुदा बाप पर इन्हिसार और भरोसा रखता था। और इसलिए वो ख़ुद ख़ुदा ना था। लेकिन एक ज़रा सी फ़िक्र ताम्मुल से ये बात ज़ाहिर हो जाएगी, कि ये आयतें तमाम व कमाल तौर से फ़क़त मसीही दीन की ताअलीम से मुवाफ़िक़त व मुताबिक़त ही नहीं रखतीं बल्कि ये कहना चाहीए कि मसीही दीन दीन की ताअलीम ऐसी ही आयतों से ली गई है। फ़िलवाक़े मसीह की इन्सानी ज़ात मख़्लूक़ थी। उस को ख़ुदा ने बज़रीया कलिमा और रूह के और मख़्लूक़ात की तरह ख़ल्क़ किया था। हाँ उलूहियत के पहलू से अज़लियत की राह से अपना अपना वजूद अख़ज़ करते हैं। मिनजुम्ला दो आयात मज़्कूर बाला के दूसरी आयात से ये साफ़ ज़ाहिर है कि बेटा जो अपना वजूद बाप से हासिल करता है वो बाप ही का सा वजूद है। और ये गोया उस की उलूहियत का एक सरीह सबूत (वाज़ेह सबूत) है क्योंकि ये ख़ुदा ही का वस्फ़ है कि वो अपने में हयात रखे।

इस ख़याल की रु से जिसका अभी ऊपर ज़िक्र हुआ है हम इस मज़्मून को जो यूहन्ना 14:28 में दर्ज है बख़ूबी समझ सकते हैं और वो ये है, “मेरा बाप मुझसे बड़ा है।” हमारे ख़ुदावंद के तर्ज़-ए-कलाम से ऐसा मालूम होता है कि वो इस जगह अपनी इन्सानियत की निस्बत कह रहा है। क्योंकि आप अपने शागिर्दों से ये फ़र्माते हैं कि अब में तुमसे जुदा हो जाऊँगा। और ये जुदाई जिसका कि मसीह ज़िक्र करता है सिर्फ उस के इन्सानी वजूद पर इतलाक़ कर सकती है। उलूहियत की राह से वो उनसे जुदा हरगिज़ नहीं हो सकता। मगर हाँ जिस्म की राह से वो उनसे जुदा हो सकता है और जुदा हुआ भी। पस मसीह का अपनी निस्बत ये कहना कि, “मेरा बाप मुझसे बड़ा है” अक़्लन बहुत दुरुस्त है क्योंकि बाएतबार अपनी इन्सानियत के वो बाप से कम तर है। लेकिन अगर कोई इस पर भी ये नुक्ता-चीनी करे और कहे कि मसीह ने यहां पर अपनी उलूहियत की निस्बत भी अपने तईं अपने बाप से कमतर कहा है। तो हम नुक्ता चीन के इस क़ौल को भी ख़ुशी से तस्लीम कर लेते हैं कि हाँ उलूहियत की निस्बत भी एक तरह से ये कहना दुरुस्त है और ये हमारे दीन का मसअला भी है। हम मानते हैं कि बाप और बेटे और रूहुल-क़ुद्दुस के दर्मियान एक तक़दीम (फ़ौक़ियत) सिलसिला तो है। मगर तक़दीम ज़माना नहीं है। मासिवाए उस के बाप बेटे से इस बात में भी बड़ा है कि बाप जो कुछ है वो अज़खु़द है और किसी से नहीं है। मगर बेटा जो कुछ है वो बाप से है। उस का वजूद बाप के वजूद से लिया जाता है। लेकिन मख़्फ़ी नर (छिपा हुआ नहीं) है कि हम ये नहीं मानते कि उनके सिफ़ात में कुछ फ़र्क़ है क्योंकि ज़ाते इलाही की तक़्सीम नहीं हो सकती कि एक जुज़्व तो उस को अता किया जाये और दूसरा ना दिया जाये। माहीयत मुम्तना अल-तक़्सीम (तक़्सीम ना होने वाला वजूद) है। पस, वाज़ेह हो कि इस क़िस्म की जितनी आयतें पेश की जाएँगी उनकी तफ़्सीर से सिर्फ यही साबित होगा, कि वो ताअलीम के मुवाफ़िक़ हैं और यही नहीं बल्कि उनसे मसीही दीन के मसाइल की ताकीद व ताईद भी बख़ूबी होती है। मगर याद रखना चाहिए कि ऐसी ऐसी आयतें वही लोग पेश करते हैं जो मुहम्मद साहब की तरह मसीही दीन की ताअलीम से अच्छी तरह नहीं।

ऐसे लोग बड़ी जाँ-फ़िशानी (सख़्त कोशिश) और जानकाही (वाक़फ़ीयत) से ऐसे ऐसे ख़यालात और तसव्वुरात की तक़्ज़ीब व तर्दीद (झुटलाना, रद्द करना) करते हैं जिनको कोई ख़वांदा (पढ़ा लिखा) और वाक़िफ़कार मसीही कभी मानता ही नहीं मसलन ये कि मसीह मासिवाए ख़ुदा के एक दूसरा ख़ुदा है। भला ये बतलाए तो सही कौन मसीही ऐसे ख़याल को मानता है?

अब एक आयत और है जिसकी बाबत कुछ कहना बहुत मुनासिब है। और वो मर्क़ुस 13:32 है जहां ये लिखा है कि “उस दिन और उस घड़ी की बाबत सिवा बाप के ना तो फ़रिश्ते जो आस्मान पर हैं और ना बेटा कोई नहीं जानता है।”

जब सरसरी नज़र से हम इस आयत को देखते हैं तो अलबत्ता बड़ी मुश्किल मालूम होती है क्योंकि इस पर मोअतरिज़ ये एतराज़ कर सकता है कि इस आयत के दर्मियान जिसमें मसीह की सिफ़त हमादानी (सब कुछ जानना) का इन्कार है और दूसरी आयतों में जो मह्ज़ उस के इन्सानी तजुर्बे से इलाक़ा रखती हैं। ज़ाहिरन बड़ा फ़र्क़ मालूम होता है। बिलफ़र्ज़ अगर ये मान लिया जाये कि दूसरी क़िस्म की जितनी आयतें हैं वो मसीही दीन की ताअलीम से बिल्कुल मुवाफ़िक़त व मुताबिक़त रखती हैं तो भी ये किस तरह से साबित हो सकता है कि ये आयत भी मसीही दीन की ताअलीम से मुवाफ़िक़त व मुताबिक़त रखती है। क्योंकि इस में तो मसीह की सिफ़त हमादानी का है।

मगर जानना चाहिए कि ये इस अमीक़ (गहिरी) ताअलीम का सिर्फ एक जुज़्व है। जिसको कुंबंस यानी कलिमा अज़ली का ख़ुद अपने तईं ख़ाली करना कहते हैं। ख़त फिलिप्पियों 2:7 में इस को ख़ुद इंकारी व ख़ुद पस्तगी की एक आला सिफ़त कर के बयान किया है कि मसीह ने ख़ादिम की सूरत पकड़ कर और इन्सान की शक्ल बन कर अपने तईं ख़ाली कर दिया अस्ल ज़बान यूनानी की इबारत ये है।

जिसका तर्जुमा ये है, कि “ख़ादिम की सूरत पकड़ कर और इन्सान की शक्ल बन कर उसने अपने तईं ख़ाली कर दिया और माक़ब्ल की आयत में लिखा है कि उसने ख़ुदा की सूरत में हो के यह काम किया। पस नतीजा ये निकलता है कि ख़ाली करने से सिर्फ यही मुराद है कि उसने अपनी इन्सानी ज़िंदगी में अपनी इलाही सिफ़ात से कुछ काम ना लिया। अगर हमको इस ख़ाली करने की कोई मिसाल भी दस्तयाब ना होती तो भी हम ये नतीजा निकालते कि उसने इल्म व क़ुद्रत की क़ैद को अपनी मर्ज़ी से इख़्तियार कर लिया। पस इस आयत और बहुत सी और आयतों से जो कि इसी की मानिंद में हमको मसीह की ज़िंदगी और उस के काम सही सही क़ियास व गुमान हो सकता है। हमारा दावा सिर्फ इतना ही है कि आयत मद्द-ए-नज़र और दीगर आयात अपने अपने मौक़े व महल के मुवाफ़िक़ मसीही दीन की ताअलीम की इमारत की तामीर करती हैं। और ये ताअलीम किताब मुक़द्दस का ख़ुलासा है इस में कोई कलाम नहीं।

मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी की बातिल पेशीनगोई

इस क़ौल के मुताबिक़ ही के रस्सी सटर (जल) गई पर वट (बल) ना गया। मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी की पेशीनगोई, मिस्टर अब्दुल्लाह आथम साहब की बाबत, कि “अगर वो हक़ की तरफ़ रुजू ना करेंगे तो 5 जून 1893 ई॰ से 5 सितम्बर 1894 ई॰ तक मर जाऐंगे। 6 सितम्बर 1894 ई॰ को बातिल (झूटी) साबित हुई क्योंकि आथम साहब ज़िंदा रहे।

The false Prophecy of Mirza Ghulam Ahmad Qadiani

मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी की बातिल पेशीनगोई

By

G. L. Thakur Das
अल्लामा जी॰ एल॰ ठाकुरदास

Published in Nur-i-Afshan Sep 28, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 28 सितम्बर 1894 ई॰

उस की मुकर्रर तक़रीर 9 सितम्बर 1894 ई॰ वाली

इस क़ौल के मुताबिक़ ही के रस्सी सटर (जल) गई पर वट (बल) ना गया। मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी की पेशीनगोई, मिस्टर अब्दुल्लाह आथम साहब की बाबत, कि “अगर वो हक़ की तरफ़ रुजू ना करेंगे तो 5 जून 1893 ई॰ से 5 सितम्बर 1894 ई॰ तक मर जाऐंगे। 6 सितम्बर 1894 ई॰ को बातिल (झूटी) साबित हुई क्योंकि आथम साहब ज़िंदा रहे। अब अपनी रु स्याही (मुँह काला) को ढापंने और मुरीदों (पैरोकारों) का दिल बहलाने के लिए एक और तक़रीर शाएअ की है, जो हमारे सामने पड़ी है। नाज़रीन मिर्ज़ा साहब की फ़रेब बाज़ी से ख़ुद ही चौकन्ने (होशियार) हो गए हैं। इसी तरह उन की दूसरी तक़रीर से भी चौकस (होशियार) होना चाहिए। मिर्ज़ा साहब का नया इश्तिहार ज़ाहिर करता है कि उन्हों ने ख़ौफ़-ज़दा और परेशान हो कर ये तक़रीर शाएअ की है कि आ भाई अब की दफ़ाअ फिर आ। उस में,

अव़्वल बात ये है, कि मिर्ज़ा साहब ने अपनी तक़रीर का उन्वान “फ़त्ह इस्लाम पर मुख़्तसर तक़रीर” लिखा है। ये एक अजीब धोका अहले-इस्लाम के लिए है जो मिर्ज़ा साहब अपनी बनावटी पेशीनगोई में इस्लाम को ख़्वाह-मख़्वाह लपेट रहे हैं। और ताज्जुब (हैरानगी) है कि पेशीनगोई के बातिल साबित होने पर भी आपने फ़त्ह इस्लाम की नाहक़ पुकार कर दी। क्या अहले-इस्लाम मिर्ज़ा की पेशीनगोई और इस्लाम में कोई ज़ाती निस्बत मानते हैं?

दोम ये कि मिर्ज़ा साहब ने अपनी पेशीनगोई के बातिल ठहरने के बाद उस के दो पहलू बतलाए हैं, “अव़्वल ये कि फ़रीक़ मुख़ालिफ़ जो हक़ पर नहीं हाविया (जहन्नम) में गिरेगा। और उस को ज़िल्लत पहुँचेगी। दूसरा ये कि अगर हक़ की तरफ़ रुजू करेगा, तो ज़िल्लत और हाविया से बच जाएगा।” “उन की मिस्टर आथम की निस्बत इल्हामी फ़िक़्रह यानी हाविया के लफ़्ज़ की तश्रीह हमने ये की थी कि इस से मौत मुराद है। बशर्ते के हक़ की तरफ़ वो रुजू ना करें। अब हमें ख़ुदा तआला ने अपने ख़ास इल्हाम से जतलाया, कि उन्हों ने अज़मते इस्लाम का ख़ौफ़ व ग़म अपने दिल में डाल कर किसी क़द्र हक़ की तरफ़ रुजू किया। जिससे वाअदे मौत में ताख़ीर (देर) हुई क्योंकि ज़रूर था कि ख़ुदा तआला अपनी अपनी क़रार दादा शर्त का लिहाज़ रखता।”

मिर्ज़ा साहब का ये पिछ्ला फ़रेब पहले से भी बदतर मालूम होता है। जब तक पंद्रह महीने गुज़र ना गए इस पहलू पर ज़ोर रहा कि आथम मर जाएगा। ज़रूर मर जाएगा। जब पंद्रह महीने पूरे गुज़र गए और आथम साहब ज़िंदा ही रहे। तो दूसरे पहलू की सोची है। यानी पंद्रह महीने से चार दिन बाद, कि उस ने किसी क़द्र हक़ की तरफ़ रुजू किया, और इसलिए नहीं मरा। मगर पेश्तर इस से कि मिर्ज़ा साहब को नया इल्हाम हुआ मिस्टर आथम साहब ने इस की भी बेख़कुनी (जड़ से उखाड़ना) कर दी। यानी 6 सितम्बर 1894 ई॰ को आम जलसे में एलानिया ये इज़्हार किया, कि “कलीसिया ख़ुदावंद के कलाम को याद रखे जो मूसा की मार्फ़त हुआ, कि “अगर कोई तुम्हारे दर्मियान झूटा नबी आए और निशान मुक़र्रर करे और उस के कहने बमूजब (के मुताबिक़) हो। तो ख़बरदार तुम उस के पीछे ना जाना। क्योंकि ख़ुदावंद तुम्हारा ख़ुदा तुमको आज़माता है।” और ये जो महीने गुज़रे हैं उनकी बाबत उन्होंने फ़रमाया कि, मैंने फ़क़त दो बातें मालूम कीं जिनसे मेरी तसल्ली रही। यानी ख़ुदावन्द रूह-उल-क़ुद्दुस का सहारा और ख़ुदावंद येसू मसीह का ख़ून।”

मिस्टर आथम साहब ने इस तक़रीर से कई एक बातें ज़ाहिर कर दीं। अव़्वल ये कि अगर डिप्टी साहब को मरना भी होता, तो भी वो मिर्ज़ा साहब को झूटा ही जानते और शुरू से उन के इल्हाम को बातिल जानते रहे। दूसरे ये कि इस्लाम का ख़ौफ़ व ग़म उस मर्द-ए-मैदान (बहादुर, सूरमा) के ख़याल में भी ना गुज़रा था। क्योंकि जिस दिल में रूह-उल-क़ुद्दुस की पुश्ती (मज़बूती, सहारा) और मसीह ईसा ख़ुदावंद का कफ़्फ़ारा सहारा रहे वहां इस्लाम के ख़ौफ़ और क़ादियानी पेशीनगोई का क्या गुज़र हो सकता था? तीसरे ये कि आथम साहब ने मिर्ज़ा साहब वाले हक़ की तरफ़ रुजू ना किया था और फिर यही ज़िंदा रहे। और उनको ज़िंदा रखकर ख़ुदा तआला ने साबित कर दिया कि मिर्ज़ा क़ादियानी ने जो कहा ख़ुदा की तरफ़ से नहीं था। और मिर्ज़ा साहब और नाज़रीन भी ग़ौर करें, कि क्या इस्लाम की तरफ़ रुजू करना इस को कहते हैं, कि मिस्टर आथम साहब का ईमान मसीह के कफ़्फ़ारे पर क़ायम रहा और क़ायम है और पाक तस्लीस के अक़ानीम को अपना पुश्त-पनाह् (मददगार) जानते रहे। और क़ुरआन वाले इस्लाम की हिमायत में कभी एक लफ़्ज़ भी ना कहा और ना अपनी तस्नीफ़ात पर जो इस्लाम के बरख़िलाफ़ लिख चुके हैं किसी क़द्र भी तास्सुफ़ (अफ़्सोस) ज़ाहिर किया? इस हाल में क्योंकर माना जाये कि डिप्टी साहब ने मिर्ज़ा वाले हक़ की तरफ़ किसी क़द्र रुजू किया। और इसलिए नहीं मरे ये मिर्ज़ा साहब का एक ढकोसला (फ़रेब, धोका) है जिससे आपकी झूटी पेशीनगोई को ज़रा भी ज़ोर नहीं पहुंचता। और ज़ाहिर है कि आथम साहब की ज़िंदगी ने मिर्ज़ा साहब की मौत वाली पेशीनगोई के हर पहलू को (झूटा) बातिल साबित किया है।

ऐ मिर्ज़ा क़ादियानी! ये जान रुख, कि ख़ुदावंद फ़रमाता है कि तू ख़ुदावंद अपने ख़ुदा का नाम बे-जा मत ले। क्योंकि जो उस का नाम बेजा लेता है ख़ुदावंद उसे बेगुनाह ना ठहराएगा। (ख़ुरूज 20:7) और यही यसअयाह 8:19, 20 मिर्ज़ा क़ादियानी ने ख़ुदावंद, और उस के मसीह के बरख़िलाफ़ मुँह खोला। और ख़ुदा ने उस को ठट्ठों में उड़ाया है। (ज़बूर दूसरा) कि उस की पेशीनगोई को उस का अपना वहम और जुनून साबित किया है। मिर्ज़ा क़ादियानी ने अपने नए इश्तिहार के सफ़ा 3 में ये सरासर ग़लत लिखा है, कि “ख़ुदा तआला को मंज़ूर था, कि ईसाईयों को कुछ अर्से तक झूटी ख़ुशी पहुंचा दें।” ख़ुदा तआला ऐसी बातों से दिल-लगी नहीं करता है। बरअक्स इस के उस ने ज़ाहिर किया, कि जब बाअज़ आदमी मिर्ज़ा क़ादियानी की पैरवी में बेतमीज़ हो रहे थे। और बाज़ नहीं आते थे। तो पंद्रह माह के लिए मिरज़ाइयों को बेतमीज़ी की ख़ुशी में छोड़ दिया। (रोमीयों 1:28) लेकिन अब फिर मौक़ा बख़्शता है, कि बेतमीज़ी और ज़िद को तर्क करें। और सच्चाई की पैरवी करें क्योंकि ख़ुदा ने साफ़-साफ़ फ़ैसला कर दिया है।

सोम यह कि मिर्ज़ा साहब ने अब झूटे ठहरने के बाद एक और तज्वीज़ सोची है और क्या करते। दिल का बल अभी नहीं गया है। नाज़रीन ने वो रायगां (बेकार) तज्वीज़ पढ़ी होगी। इसलिए उस की नक़्ल यहां नहीं की जाती है। पहले इल्हाम की मदद से तो मिर्ज़ा साहब ने ख़ुद डिप्टी साहब पर लानत की थी और वो चड़ गई। और अब तर्मीम शूदा इल्हाम की रु से ये बंदो बस्त चाहते हैं, कि मिस्टर आथम साहब ख़ुद अपने ऊपर लानत करें। हाँ आपकी पेशीनगोई से तो कुछ बन ना पड़ा। अब डिप्टी साहब से वही पेशीनगोई करवाते हैं। ऐसी बातें सिर्फ़ कमीना पन को ज़ाहिर करती हैं। मैं कहता हूँ कि मिस्टर आथम साहब को क्या ग़र्ज़ है, कि आपके साथ लानत बाज़ी में शरीक हों। आप ख़ुद ही पेशीनगोई कर गए थे, और ख़ुद ही झूटे निकले। डिप्टी साहब ने तो एसी हरकत के लिए तहरीक नहीं की थी। सो अब उन से फिर बाज़ी लगाना क्या फ़ायदा है? आपके इश्तिहार से शायद आपको और आपके मुरीदों (पैरोकार) को कुछ तसल्ली होगी। लेकिन वो झूट जो साबित हो चुका, वो तो नहीं मिटता। मिर्ज़ा साहब इस तज्वीज़ में जो इक़रार मिस्टर आथम साहब से एलानिया करवाना चाहते हैं, वो इक़रार उन्होंने 6 सितम्बर को अमृतसर के जलसे में कर दिया था। और मिर्ज़ा साहब को तो इल्हाम भी पीछे हुआ चाहिए था कि ज़रा कादियां से बाहर निकलते, और इस जलसे में शरीक होते। मिस्टर आथम साहब पाबंद नहीं, कि अब किसी क़िस्म की शर्त का लिहाज़ करें।

कमतरीन ने नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 17, अगस्त में, मज़्मून इल्हाम इलाही, और इल्हाम अर्वाही के आख़िर में अपनी दूर अंदेशी (अक़्लमंदी) से ये लिखा था, कि कहीं ऐसे ना हो जो आपकी पेशीनगोई की तारीख़ बढ़ जाये और अगर ऐसा हुआ करे तो मिस्टर आथम क्या, जिसको चाहें तारीख़ों ही से मार सकते हैं। अब मिर्ज़ा क़ादियानी ने अपने इस इश्तिहार की रु से जिसकी कैफ़ीयत सुना रहा हूँ, कमतरीन की दूर अंदेश (अक़्लमंदी) की तक्मील कर दी है। और एक साल की ज़्यादा तारीख़ बढ़ाने के लिए मिस्टर आथम साहब से दरख़्वास्त की है। अगर मिर्ज़ा साहब को सच-मुच इल्हाम हुआ था, तो उस इल्हाम की ख़ुदा को ज़्यादा फ़िक्र होनी चाहिए थी। और लाज़िम था। कि जब हमने अंदेशा ज़द याद तारीख़ का ज़ाहिर किया था, तो मिर्ज़ा साहब भी तर्मीम इल्हाम 5 सितम्बर से पहले मुश्तहिर (इश्तिहार) कर देते। लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता। बेहतर है कि मिर्ज़ा साहब अब इल्हाम की आदत छोड़ दें और सच्चे दिल से तौबा करें। ख़ुदावंद ऐसों को क़ुबूल करने का वाअदा फ़रमाता है। और उन के मुरीदों को चाहिए, कि मिर्ज़ा साहब की इस नई तर्मीम इल्हाम की कुछ परवा ना करें। और अब मिर्ज़ा साहब का पीछा छोड़ें जो कुछ हो चुका सो काफ़ी है।

मिर्ज़ा क़ादियानी का बहाना

सब पर रोशन है कि मिर्ज़ा क़ादियानी की वो पेशीनगोई कि जिसके पर्दे में आपने अमृतसरी मुबाहिसा में मसीहीयों की फ़त्हयाबी को बज़अम ख़ुद पंद्रह माह के अर्से तक किसी क़द्र पोशीदा कर के अपनी मुहम्मदियत के बचाओ की सूझी थी सो पंद्रह माह पूरे होने पर वो पेशीनगोई 6 सितम्बर

The excuse of Mirza Ghulam Ahmad Qadiani

मिर्ज़ा क़ादियानी का बहाना

By

Thomas Howell Bashir
टॉमस हावल बशीर

Published in Nur-i-Afshan Sep 21, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 21 सितम्बर 1894 ई॰

सब पर रोशन है कि मिर्ज़ा क़ादियानी की वो पेशीनगोई कि जिसके पर्दे में आपने अमृतसरी मुबाहिसा में मसीहीयों की फ़त्हयाबी को बज़अम ख़ुद पंद्रह माह के अर्से तक किसी क़द्र पोशीदा कर के अपनी मुहम्मदियत के बचाओ की सूझी थी सो पंद्रह माह पूरे होने पर वो पेशीनगोई 6 सितम्बर 1894 ई॰-को चीर बोल गई। ना तो मरने को अल्लाह जल्लेशाना (बड़ी शान वाला) की मदद मिली ना उन के कहने के मुवाफ़िक़ आस्मान टल गए और ना सूरज तक्मीले पैशन गोई के लिए ठहरा जैसा कि मिर्ज़ा गप हाँका करते थे बल्कि मिर्ज़ाई झूट सब पर फ़ाश (ज़ाहिर) हो गया और दावा मुमासिलत व मसीहाई मुबद्दल बद जाल कज़्ज़ाब साबित हुआ। और जो इन्सान ज़ालिम की आदत होती है कि बावजूद देखने के नहीं देखता और बावजूद समझने के नहीं समझता और बावजूद सुनने के नहीं सुनता और अपने क़सूर पर क़सूर शोख़ी पर शोख़ी बढ़ाता करता जाता है। आख़िरकार वही कुछ मिर्ज़ा क़ादियानी से भी ज़हूर में आया। चुनान्चे आपका 9 तारीख़ का शाएअ किया हुआ पर्चा फ़त्हे इस्लाम (बरअक्स ना हिंद नाम ज़ंगी काफ़ूर) हमारी नज़र से भी गुज़रा। जिससे मालूम होता है कि आपने और भी अपनी गत (मार पीट) अपने ही हाथों से बसबब वही तबाही व कच्ची हीला साज़ियों के बिना डाली। और ऐसे ऐसे बहानों से उन्होंने अपने तईं दानिशमंदों के रूबरू ज़्यादातर दरोग़ बे फ़ुरूअ का मिस्दाक़ (गवाह) तो क्या बल्कि दरोग़ बे फ़ुरूअ का मुजस्सम पुतला व हीला साज़ो मक्कारों का बाप साबित कर दिया है। अब आपके बहाना पर ग़ौर कीजिए :-

आप लिखते हैं कि “हमारी पेशीनगोई के दो हिस्से थे।” भला मिर्ज़ा जी दो-चार दिन पहले क्यों ना कह दिया कि हमारी पेशीनगोई का फ़ुलां हिस्सा पूरा होने वाला है। ख़ैर चूक (ग़लती होना) गए अब भी किसी काने लंगड़े को गवाह बना लीजीए वर्ना मौलवी नूर उद्दीन व ग़ुलाम क़ासिम तो हाज़िर होंगे उन्हीं से बालक दिला दीजिए।

फिर आप लिखते हैं, “उन की (आथम साहब) की निस्बत इल्हामी फ़िक़्रह यानी हाविया के लफ़्ज़ की तश्रीह हमने ये की थी कि इस से मौत मुराद है।” दरोग़ गोरा हाफ़िज़ा ना बाशद हज़रत आपने तो ये लिखाया था “वो फ़रीक़ जो ख़ुदा तआला के नज़्दीक झूट पर है वो पंद्रह माह के अर्से में आज की तारीख़ से बसज़ा-ए-मौत हाविया में ना पड़े तो मैं हर एक सज़ा के उठाने लिए तैयार हूं।” फिर हाविया के लफ़्ज़ की तश्रीह की क्या ज़रूरत? ये तो लुगात से सब पर रोशन है कि हाविया सातवें दोज़ख़ का नाम है। जो सबसे अस्फ़ल (निहायत नीचा) है। इस से तो आपके दिल दिमाग़ का मुवाज़ना हुआ कि आप कैसे शख़्स हैं। मगर वो रू व स्याही (मुंह काला) जो आपने अपने हाथों हासिल की वो जूं की तूं ही बनी रही। फिर आप लिखते हैं, “कि अब हमें ख़ुदा तआला ने अपने ख़ास इल्हाम से जता दिया।” वाह मिर्ज़ा जी क्या ख़ूब इल्हाम भी ख़ास व रास हुआ करते हैं। क्या वो इल्हाम आपका ख़ास ना था कि जिसमें आपने कहा था, “कि अगर ये पेशीनगोई अल्लाह तआला की तरफ़ से ज़हूर ना फ़रमाती तो हमारे ये पंद्रह दिन ज़ाए गए थे।” और ये कि “अगर मैं झूटा हूँ तो मेरे लिए सूली तैयार रखो और तमाम शैतानों और बदकारों और लानतियों से ज़्यादा मुझे लानती क़रार दो।” अग़लबन ये ख़ास इल्हाम आपको सब ज़िल्लतों व लानतों के पड़ने के बाद अब मिला है। और वो जो था सो यारों को दाम नज़ुवेर में सिर्फ फँसाने ही के लिए जाल था कोई ख़ास इल्हाम ना था। वाह कैसे मौक़े पर आपके ख़ुदा को अब ख़ास इल्हाम देने की सूझी जब कि सदाए नफ़रीन (मज़म्मत) व लानत व मलामत (फटकार) आपके नाम पर चहार तरफ़ से बह आवाज़ दुहल आपके गले का हार हो कर आस्मान तक पहुंच चुकी तब आपको इल्हाम हुआ।

भला साहब ये ख़ास इल्हाम आपको पहले क्यों ना हुआ क्या ख़ुदा आपसे कुछ नाराज़ थे। फिर अब इस ख़ास इल्हाम का क्या एतबार शायद ये भी उस पहले की तरह कि जिसमें आपने लिखाया था, “वो फ़रीक़ जो ख़ुदा तआला के नज़्दीक झूट पर है वो पंद्रह माह के अर्से में आज की तारीख़ से बसज़ा-ए-मौत हाविया में ना पड़े तो मैं हर एक सज़ा के उठाने के लिए तैयार हूँ मुझको फांसी दी जाये हर एक बात के लिए तैयार हूँ। और मैं अल्लाह जल्लशाना (बड़ी शान वाले) की क़सम खा कर कहता हूँ कि ज़रूर वो ऐसा ही करेगा ज़रूर करेगा, ज़मीन आस्मान टल जाएं पर उसकी बातें ना टलेंगी अगर मैं झूटा हूँ तो मेरे लिए सूली तैयार रखो और तमाम शैतानों और बदकारों और लानतियों से ज़्यादा मुझे लानती क़रार दो। ख़ास ना हो और झूटा निकले। फिर क्या किया जाये क्योंकि अगला क़र्ज़ा मक़बूला ख़ुद आस्मानी फ़ैसले से जब कि मिर्ज़ा जी के ज़िम्मे हनूज़ बाक़ी है दीगर का क्या एतबार कि हम फिर नई उधार चढ़ा कर ख़ुद दिवालिया बनें। बहरहाल मिर्ज़ा जी का वो इल्हाम दो अम्रों से ख़ाली ना होगा या तो ये कि अल्लाह तआला जल्ले शानहु को मंज़ूर था कि मिर्ज़ा को ऐसा इल्हाम दिया जाये कि जिससे मिर्ज़ा हर तरह की सज़ा उठाए ज़लील किया जाये रू-सियाह (काला मुंह) किया जाये रस्सा आपके रूबरू रखा जाये कि ख़ुद बख़ुद अपने गले में डालने की नौबत तक पहुंचे तब ख़ास इल्हाम दिया जाये। दोम, ऐसा झूटा इल्हाम ख़ुदा की तरफ़ से आपको ना आगे हुआ और ना अब, सिर्फ बहाना बना कर अपने मुँह पर की स्याही जो मेहंदी रंगे मुखड़े पर वसमा (ख़िज़ाब) का रंग दे रही है इल्हाम इल्हाम पुकार कर धोना चाहते हैं जो धुल नहीं सकती। ग़र्ज़ कि इस दरोग़ (झूट) बे फ़रोग़ ने आपके इल्हाम को उस बिल में वापिस घुसा दिया है कि जिससे वो निकला था। लिहाज़ा अल्लाह का नाम इस में लेना अब बेजा है। शैतान का नाम आप जितनी बार चाहें अपने इल्हाम के साथ जोड़ सकते हैं क्योंकि इस में मिरज़ाई मुमासिलत भी मुहम्मद साहब के साथ ख़ूब फबती है। देखो सूरह हज 7 रुकूअ में है, وَماَاَرَسَلنَامِنرَسُولِوّلاَبَيِ اِلاَ اِذااتُمنٰی لقے الشيطٰنُ فِی اُمِنتہ “और नहीं भेजा हमने पहले तुझसे कोई रसूल और ना नबी मगर जिस नफ़त आरज़ू करता था डाल देता था शैतान बीच आरज़ू उस की के।” और ये जो लिखा, “उन्होंने यानी आथम साहब ने अज़मत इस्लाम का ख़ौफ़ और वहम और ग़म अपने दिल में डाल कर किसी क़द्र हक़ की तरफ़ रुजू किया। और नेक काम के सबब वो ज़िंदा रहे।”

डीपटी अब्दुल्लाह आथम साहब

याद रखिए कि आथम साहब के दिल में अज़मते इस्लाम के ख़ौफ़ का नाम तक नहीं और ना आएगा वो मर्द ख़ुदा पाक-बाज़ हैं। आपके इस्लाम को उन्होंने कब का रद्दी कर छोड़ा हुआ है। जैसा कि अब भी उन के अक़्वाल व अफ़आल से अज़हर-मिन-श्शम्स (सूरज की तरह ज़ाहिर) है। अलबत्ता लुच्चे और चक्के बद-मआश (गुंडे मवाली) जो इस अर्से में उनकी जान के ख़्वाहां (ख़्वाहिशमंद) और आपकी पेशीनगोई के पूरा करने के औज़ार बन कर वक़्त ब-वक़्त खु़फ़ीया उन की घात (दाओ) में लगे रहते थे। वो उन से बड़े इस्तिक़लाल व सब्र (साबित क़दमी, बर्दाश्त) से सब तकालीफ़ व ख़र्च कसीर (बहुत पैसा ख़र्च करना) की बर्दाश्त कर के अपनी जान ख़ून ख़्वारों से नक़ल-ए-मकान (एक जगह से दूसरी जगह जाना) कर के बचाते रहे। अगर इसी का नाम आपके यहां अज़मते इस्लाम बाक़ी रहा है तो लो ये भी रद्दी गया वो मर्द-ए-ख़ुदा जूँ का तूं आपका क़ाफ़िया तंग (परेशान करना) करने को मौजूद है। अभी ज़रा आगे तो आओ क्या ही अज़मत टपक पड़ती है।

फिर आप लिखते हैं ख़ुलासा, कि “तीन दफ़ाअ आथम साहब इन्कार करें कि पंद्रह माह में उन्हें सच्चाई इस्लाम का ख़याल अज़मत व सदाक़त इल्हाम ने गिर्दाबे गम (दुख का भंवर) में नहीं डाला वग़ैरह। तो एक हज़ार रुपया अमानत बज़मानत डाक्टर क्लार्क साहब व इमाद-उद्दीन साहब के पास रख देते हैं। अगर एक साल में वो फ़ौत हो जाएं तो रुपया मज़्कूर ज़ामिनों (ज़मानत देने वालों) से बिला-तवक़्कुफ़ (देर किए बग़ैर) वापिस मिल जाये। वर्ना उनका मालिक हो जाये।”

नाज़रीन को याद होगा कि मिर्ज़ा मज़्कूर रूपयों की शर्त अक्सर लगाता रहा है कहीं पाँच सौ कहीं हज़ार कहीं दस हज़ार की लेकिन आज तक किसी को फूटी कोड़ी भी नहीं दी। और ना मानूँगा ना मानूँगा तो आपके शेवा (आदत) में दाख़िल और विर्द ज़बान ही रहा है। आपने जब अमृतसर मुबाहिसे में पैशन गोई लिखवाई तो उस में ये शर्त क़रार दी थी, “कि मैं हर एक सज़ा उठाने के लिए तैयार हूँ। मुझको ज़लील किया जाये। रू-सियाह (काला मुंह) किया जाये मेरे गले में रस्सा डाल दिया जाये। मुझको फांसी दिया जाये। अगर मैं झूटा हूँ तो मेरे लिए सूली तैयार रखो और तमाम शैतानों और बदकारों और लानतियों से ज़्यादा मुझे लानती क़रार दो।” और अब इस शर्त से बढ़कर हज़ार रुपया सो वो भी ज़मानत पर अमानत रखने की आपको सूझी है। सो अगर अपनी ज़िल्लत रू-स्याही (काला मुंह) वग़ैरह के लिए भी आप अपने यारों वग़ैरह में से कई एक ज़मानत में ईसाईयों के पेश किए होते तो आजकल जब कि आप साफ़ झूटे साबित हो चुके थे, कि आपका इल्हाम व पेशीनगोई चर बोल गए। तो जैसे अब आप सज़ा के ख़ौफ़ से कतरा कर बहाने जोड़ने लगे आपके शरीफ़ ज़ामिन तो ऐसा ना करते और नहीं तो माफ़ी तो हाथ जोड़ के मांगते पर आप ख़ूब खेल खेला करते हैं दाओ के पक्के हैं शैतान की भी किया मजाल जो आप जैसा करतब कर जाये।

सुनीए मिर्ज़ा जी पहले आप अपनी पहली शर्त तो पूरी करें फिर ज़ांबाद दूसरी शर्त का नाम लें। और वो भी अपने हाथों उसे पूरी कीजिए। क्योंकि बुज़ुर्ग आथम साहब ने तो ना आपको शर्त लगाने को फ़रमाया और ना आपकी पैशनगोई व शर्त को मंज़ूर किया था। ये तो आप ही ने ख़ुद बख़ुद अपने लिए तज्वीज़ की थी। सो अब आप ही इस को अपने हाथों पूरा कर के अपने वाअदे के सच्चे बन कर दिखाएं और जब कि आप अपने कहे को ही ज़ेब नहीं देते तो अब आथम साहब क्यों आप जैसे से जो बरकोल ख़ुद…के मिस्दाक़ (गवाह) हैं ज़रा सी भी तवज्जोह मबज़ूल (मुतवज्जोह होना) फ़रमाएं। और ये भी याद रखिए कि जब कि हम मसीही अपने तईं ब-रज़ाए ख़ुदावन्द सपुर्द कर चुके हैं। मौत से कुछ ख़ाइफ़ (ख़ौफ़ खाने वाले) नहीं बल्कि मौत हमारे नज़्दीक नफ़ा और विसाल-ए-ख़ुदावन्द (ख़ुदा से मुलाक़ात) का एक दरवाज़ा है तो हम उस के ना आने के लिए शर्त ही क्यों बांधें। और अपने ईमान के ख़िलाफ़ क्यों करें। हमारे रात-दिन ये विर्द ज़बान है, “ऐ ख़ुदावन्द अब तू अपने बंदे को अपने कलाम के मुवाफ़िक़ सलामती से रुख़्सत देता है क्योंकि मेरी आँखों ने तेरी नजात देखी।”

मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी का इल्हाम

बड़ी धूम, बड़ी धाम, बड़ी शौहरत, बड़ा एहतिमाम, मिर्ज़ा क़ादियानी का इल्हाम, लेना लेना, जाने ना पाए, वो मारा चारों शाने चित्त। (کجامیروی باش باش کہ رسیدم ۔ این خیر ماشد) ये आपको क्या हो गया जो लगे बे-तुकी हाँकने। कहीं शैतान ने तो आपको उंगली नहीं दिखाई। लाहौल पढ़ के ज़मीन पर थूक दीजिए।

Inspiration of Mirza Ghulam Ahmad Qadiani

मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी का इल्हाम

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Sep 21, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 21 सितम्बर 1894 ई॰

बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का
जो चीरा तो इक क़तरा ख़ूँ ना निकला

बड़ी धूम, बड़ी धाम, बड़ी शौहरत, बड़ा एहतिमाम, मिर्ज़ा क़ादियानी का इल्हाम, लेना लेना, जाने ना पाए, वो मारा चारों शाने चित्त। (کجامیروی باش باش کہ رسیدم ۔ این خیر ماشد) ये आपको क्या हो गया जो लगे बे-तुकी हाँकने। कहीं शैतान ने तो आपको उंगली नहीं दिखाई। लाहौल पढ़ के ज़मीन पर थूक दीजिए। अजी कुछ नहीं है। बंदा होश में है। देखिए नेचर की सब कार्रवाई बाक़ायदा हो रही है। सूरज निकलने पर है। सितारे रफ़्ता-रफ़्ता ग़ायब हो चले। रोशनी आहिस्ता-आहिस्ता ये कहती हुई बढ़ने लगी। उठो सोने वालो कि मैं आ रही हूँ। उजाला ज़माने में फैला रही हूँ। ठंडी ठंडी भीनी भीनी (ख़ूशबूदार) हवा चल रही है। मुल्ला ने अज़ान की हाँक लगा दी पंडित-जी महाराज सुन्का बजाने पोटले बैठे हैं। ये लो वोह सुबह हो गई। गुड मोर्निंग। आख़्वाह आप हैं आए आए। तशरीफ़ का टोकरा फ़र्क़ मुबारक से मोढ़े पर जमा दीजिए। बहुत दिनों बाद मुलाक़ात हुई। मिज़ाज तो अच्छा है? कोई डाल की टूटी ताज़ा ख़बर भी लाए हो या ख़ाली भेजा खाने के वास्ते आ बैठे? क़िब्ला ख़बर तो वो सुनाऊँ, कि आप भी फूल कर कुपा (मोटा होना, ख़फ़ा होना) हो जाएं। भला सब हिन्दुस्तान इस ख़बर के लिए हमा-तन (पूरी तवज्जोह से) मुंतज़िर। और एक आप हैं कि कानों में तेल डाले बैठे हैं। लीजिए ऐनक चढ़ाए सुनिए।

रेश दराज़ शेख़ की साफ़ी बनाएँगे
गाड़ी छिनेगी आज रक़ीब से

मिर्ज़ा क़ादियानी को जब वो पिछले साल अमृतसर के जंग मुक़द्दस में डिप्टी अब्दुल्लाह आथम साहब से ज़क (शिकस्त, शर्मिंदगी) उठा चुके। इल्हाम हुआ, कि डिप्टी साहब पंद्रह महीने के अंदर अदम गंज को पहुंच जाऐंगे। वो मीयाद (मुद्दत) तो गुज़र गई और डिप्टी (आथम) साहब (उम्रश दराज़ बाद) बफ़ज़्ल ख़ुदा जूँ के तूं सही व सालिम हैं। हत तेरी इल्हाम की दुम में नमदा (वो ऊनी कपड़ा जो घोड़े की पीठ पर ज़ीन के नीचे डालते हैं) इल्हाम है या बंदर की टोपी जो सर तक पहुँचती ही नहीं या कन्कवे की स्टरील डोर जिसको लोग कहते हैं चुचू नद र छू गई। या गंधक का सर्द पाया हुआ पटाखा जो रंजक (बारूद) चाट कर रह गया। जिसको मिर्ज़ा साहब डायनामाईट (धमाका दार बारूद) समझे हुए थे। तड़ाक पड़ाक किया मअनी सट पट भी तो ना हुई यूंही सुर सुरा कर रह गया। इल्हाम है, कि लद्दू घोड़ा (वो हैवान जो बोझ उठाने के काम आए) जिस पर मिर्ज़ा साहब ने मुमासिलते मसीह की ज़ीन किस (चार जामा कसना) कर आलम-ए-बाला (आस्मान) पर पहुंचना चाहा। मगर आप जानए लद्दू टट्टू को लाख डंडी रसीद करो। तो बड़ा दिखाओ ये अपनी हट (ज़िद) से कब बाज़ आए। क्या मअनी पहले आपको इल्हाम हुआ कि घर में लड़का होगा। मगर क़िस्मत में तो लिखी थी लकड़ी तौबा लड़की। लड़का होता तो किस तरह। खिसिया (शर्मिंदा होना) कर रह गई। और आपकी मर्तबा तो बड़े मअरका का इल्हाम था। यहां भी मज़ामत (शर्मिंदगी) ही उठाई पड़ी।

मिर्ज़ा साहब एक हिक्मत भूल गए आपकी क़ियाफ़ा शनासी (अलामात से बुरे भले की पहचान का इल्म) हिक्मत रमल (ज्योतिषी का इल्म) और दूसरे नाजायज़ वसाइल। मसलन ज़हरीले साँपों का डिप्टी साहब मौसूफ़ के मकान के धोके में दूसरे साहब के मकान पर छुड़वाना। चोरों का गिरोह डिप्टी साहब के वास्ते मुक़र्रर करना। बददुआ करना और कराना तो दम दे गए।

ऐ ज़ाहिद रियाई (मुनाफ़िक़ परहेज़गार) देखी नमाज़ तेरी। नीयत अगर यही है तो क्या सवाब होगा। अगर आप अपने मुरीदों (पैरोकारों) को भी इल्हाम का लटका बता देते, तो शायद ये जवाईंट स्टाक कंपनी कुछ कर दिखाई। एक ताओ की कसर रह गई। मगर हक़ तो ये है, वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है। ना तो आपका इल्हाम कुछ कर सकता है। ना इल्म-ए-रमल व हिक्मत को इस मुआमले में दख़ल है। “(नशई) के कहने से गाय भैंस मर नहीं जाती”  अब तो मिर्ज़ा ख़ुद को पहचान गए हो। अब तो भरम अच्छी तरह खुल गया।

नाज़रीन नूर अफ़्शां मिर्ज़ा साहब की इल्हाम की कैफ़ीयत से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं। आपका इल्हाम नहीं है। ये तो मुद्दतों के मश्वरे का नतीजा है। क्या मअनी कि आपके भाई साहब ने तो भंगियों (नशई) को सुधारने का बेड़ा उठाया। और आप मसीहीयों और मुहम्मदियों की तरफ़ झुके। वो तो लाल बैग बन बैठे और ये मसील मसीह (मसीह की तरह)

ع ببین نفاوت رہ از کجاست تابہ کجا

भला वो दिमाग़ ही क्या जिसमें इख़्तिरा की (नई बात ईजाद करना) क़ुव्वत ना हो। हिन्दी भाई तो भोले लोग हैं। जहां मदारी की डुगडुगी सुनी और पहुंचे तू भी चल वो भी चल तू तले में ऊपर। तमाशा देखना है ज़रूर ख़्वाह गाँठ गिरह में कोड़ी (एक सिक्का) भी ना हो। मगर मिर्ज़ा साहब ने एक नई डुगडुगी बजाई और दो-चार नाचने वाले भी आपको दस्तयाब हो गए। तब ही तो औरों की निस्बत कुछ ज़्यादा ही ईंठा (धोका देकर हासिल करना) बग़ैर मनी आर्डर के निवाला ही ना तोड़ा। मुठ्ठी अलग गर्म होती रही। और पुलाव और क़ोर्मा पर अलग हाथ साफ़ होता रहा। रोटी तो कमा खाए किसी तौर मछंदर (मस्ख़रा) मगर डिप्टी साहब का क्या कहना। मिर्ज़ा के इल्हाम की मुतलक़ परवा ना की। मसीही ताक़त में वही दिलेर के दिलेर बने रहे।

इस का राज़ तो आयेद मरवां चुनें कनंद। परेशान क्या मअनी

आँख तक तो नीची ना की। नीची रक़ीब से ना हुई उम्र भर

मैं झुकता क्यों नज़र में तुम्हारा ग़ुरूर था। सब्र व इस्तिक़लाल (साबित क़दमी) को हाथ से जाने ना दिया। तुम्हारी तेग़ (तल्वार) का मुँह चढ़ाके ले लिया बोसा। कभी ना आपसे हम दब के बांकपन (टेढ़ापन, सरकशी) में रहे। रुख़्सत अब किया मिर्ज़ा साहब के टाँके ढीले करना हैं बख़ईए उधेड़ना, धज्जियाँ उड़ाना या कुछ और भी है लो टट्टू आगे बढ़ाए।

हाँ एक मनहनी सी बात और भी है। हाफ़िज़ वली मुहम्मद जून पेट्रोलियम्स (नाबीना) को भी इस बारे में इल्हाम हुआ था कि डिप्टी साहब मौसूफ़ इस अर्से के अंदर नहीं मरेंगे बल्कि ज़िंदा रहेंगे। लीजिए साहब इल्हाम है या इज्तिमा-ए-नक़ीज़ैन (मुख़ालिफ़ीन) एक की खोपड़ी तो कुछ कहती और दूसरे की कुछ और ना हाफ़िज़ साहब ने सोचा, कि मिर्ज़ा तो अपना करतब दिखा चुके। मैं क्यों रह जाऊं। बुगाला की लकड़ी सूंघ कर सो गए। और कहाँ पहुंचे। आलम-ए-बाला पर। ख़बर मिल गई और वापिस आते ही अपने इल्हाम का नतीजा खट से मुश्तहिर (इश्तिहार देना) कर दिया। भैंस ना कूदी कूदी गौन। अब तो आप लोग देखेंगे कि इल्हाम गली गली मारा फिरेगा। टके सैर (दो पैसे का किलो) भी तो कोई ना पूछेगा। सलामती से लगा तो लग गया है। डिप्टी साहब जो ज़िंदा हैं ये कुछ हाफ़िज़ साहब के इल्हाम की बदौलत नहीं है। और अगर वो (ख़ुदा-न-ख़्वास्ता) इंतिक़ाल कर जाते तो मिर्ज़ा के इल्हाम की वजह से नहीं। ये सब कुछ ख़ुदा के हाथ में है। आदमी इन बातों को नहीं जान सकता। मगर हाँ इतना तो ज़रूर हुआ, कि मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी साहब के मुँह में ख़ाक तो पड़ गई। अगर कुछ ग़ैरत हो, तो वो अब भी इस इल्हामी ढकोसले (फ़रेब, धोका) को छोड़कर राह-ए-रास्त पर आ सकते हैं।

राक़िम

रेश व राज़ शेख़ में है ज़ुल्मत फ़रेब

इस मक्र चांदनी पे ना करना गुमान सुबह

मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी की पैशनगोई

हमारे नाज़रीन मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी के नाम-ए-नामी से बख़ूबी वाक़िफ़ होंगे आप इस ज़माने आज़ादी के मसीह मौऊद मह्दी आख़िर-उज़्ज़मान और ख़ुदा जाने क्या क्या हैं और अपने दाअवों के सबूत में इल्हामी पेशीनगोईयां फ़रमाया करते हैं और ये तरीक़ा अवाम और जहां के फांसने के लिए अब तक बहुत कुछ मुफ़ीद साबित हुआ है।

Prophecy of Mirza Ghulam Ahmad Qadiani

मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी की पैशनगोई

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Sep 21, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 21 सितम्बर 1894 ई॰

हमारे नाज़रीन मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी के नाम-ए-नामी से बख़ूबी वाक़िफ़ होंगे आप इस ज़माने आज़ादी के मसीह मौऊद मह्दी आख़िर-उज़्ज़मान और ख़ुदा जाने क्या क्या हैं और अपने दाअवों के सबूत में इल्हामी पेशीनगोईयां फ़रमाया करते हैं और ये तरीक़ा अवाम और जहां के फांसने के लिए अब तक बहुत कुछ मुफ़ीद साबित हुआ है।

सन गुज़श्ता में मिर्ज़ा क़ादियानी और अब्दुल्लाह आथम के माबैन मज़्हबी मुबाहिसा बमुक़ाम अमृतसर हुआ था जिस के ख़ातिमे पर जून 1893 ई॰ मिर्ज़ा साहब ने पेशीनगोई की थी कि अगर अब्दुल्लाह आथम मुसलमान ना हुआ तो वो पंद्रह महीने के अंदर मर जायेगा। इस की मियाद 5 सितम्बर 1894 ई॰ तक थी लेकिन अब्दुल्लाह आथम का बाल तक बीका नहीं हुआ चुनान्चे वो आजकल मज़े से अमृतसर में दनदना रहा है। अब मालूम नहीं कि पैग़म्बर व मह्दी क़ादियान इस इल्हाम की क्या तावील (बचाओ दलील) फ़रमाएँगे अगर शर्म हो तो चुल्लू भर पानी काफ़ी है लेकिन वो ऐसे ग़ैरतदार नहीं मालूम होते।

इस क़ौम को अपनी क़िस्मत पर रोना चाहिए जिसमें ऐसे हज़रात हादियान-ए-दीन (दीन के रहनुमा) के लिबास में जलवागर हों इस्लाम पर तबाही और अदबार (बर्बादी) की आफ़त लाने वाले मुसलमानों में निफ़ाक़ व इख़्तिलाफ़ (दुश्मनी, फूट) के मनहूस कोशिश करने वाले और मन को दीनी व दुनियावी तरक़्क़ी से महरूम रखने की यही नापाक औज़ार हैं जिनको मौलवी के ख़िताब से मुख़ातब किया जाता है।

گر مسلمانی ہمیں است کہ واعظ وارد

وائے گراز پس امر وز بود فروائے

हम यहां ये ज़ाहिर कर देना भी ज़रूरी समझते हैं कि अगर ईसाई इस पैशनगोई को तमाम मुसलमानों की तरफ़ से ख़याल करें तो उन की सख़्त ग़लती होगी क्योंकि मिर्ज़ा क़ादियानी अपने आमाल व अफ़आल का ख़ुद जवाबदेह है ना कि इस्लाम। मादूद चंद (बहुत कम) आदमीयों के सिवा हिन्दुस्तान के तमाम अहले-इस्लाम मिर्ज़ा क़ादियानी को सख़्त नफ़रत और हिक़ारत की निगाहों से देखते हैं और उस की पेशीन गोईयाँ ख़ुद मुसलमानों के नज़्दीक मज्ज़ूब (मस्त, मलंग) की बड़ (मजनूं की बकवास) से ज़्यादा वक़अत (हैसियत) नहीं रखतीं।

6 सितम्बर की सुबह को अब्दुल्लाह आथम फ़िरोज़ पूर से अमृतसर जाते हुए थोड़ी देर लाहोर रेलवे स्टेशन पर ठहरे थे। बहुत से लोग कमाल इश्तियाक़ (बहुत शौक़) से उन को देखने गए थे। जिन्हों ने उन को सही व सलामत देखकर ख़ुशी ज़ाहिर की। फ़ौरन ये ख़बर तमाम लाहौर में फैल गई आम जोश मसर्रत और ख़ुशी के लिहाज़ से हम कह सकते हैं कि 6, सितम्बर का दिन मुसल्मानान-ए-लाहौर के लिए ईद से किसी तरह कम ना था।

बिलफ़र्ज़ मिर्ज़ा क़ादियानी की पेशीनगोई सही भी निकलती तो फिर भी उनको एक नजूमी यार माइल (ज्योतिषी) से ज़्यादा वक़अत नहीं दी जा सकती थी क्योंकि बारहा ऐसा इत्तिफ़ाक़ हुआ है कि नुजूमियों की पैशनगोईयाँ सही साबित हुई हैं।

मिर्ज़ा साहब ने ऐलान दिया था कि अगर ये पेशीनगोई ग़लत निकले तो मेरे गले में रस्सा डाल कर तशहीर (मशहूर) किया जाये और फांसी पर चढ़ाया जाये वग़ैरह-वग़ैरह। लेकिन मिर्ज़ा साहब को इस बात का यक़ीन है कि ब्रिटिश अहद-ए-सल्तनत में कोई उनके गले में रस्सा डालने नहीं आएगा। फांसी का तो क्या ज़िक्र है। लेकिन अगर हम ग़लती नहीं करते तो वो कम से कम तख़वीफ़-ए-मुजरिमाना (बदनीयती से डराना) के ज़रूर मुर्तक़िब (मुजरिम) हुए हैं और अब्दुल्लाह आथम मुल्क पर एहसान करेंगे, अगर वो इस मुलहम काज़िब (झूटा इल्हाम रखने वाला) को अदालत के कटहरे पर खड़ा करेंगे। वाक़ई ये अम्र निहायत ही ग़ैर-मुस्तहिक़ है कि एक शख़्स को पूरी आज़ादी दी जाये कि वो ख़ौफ़नाक पैशनगोइयों से लोगों को डराता फिरे। ये ब्रिटिश गर्वनमैंट के अहद-ए-सल्तनत की बरकत है कि मसीह व मह्दी तो क्या अगर कोई (नऊजु-बिल्लाह, अल्लाह की पनाह) ख़ुदाई के भी दाअवे करने लगे तो किसी को उस की तरफ़ आँख उठाकर देखने की भी जुर्आत नहीं हो सकती ईरान व रुम तो इस्लामी सल्तनतें हैं रूसी अमलदारी में भी मान मुदईयान ख़ुद के लिए साइबेरिया का मैदान मौजूद है।

मिर्ज़ा साहब के आइन्दा इल्हाम सही हूँ या ग़लत वो हमारी इस पेशीनगोई को याद रखें कि उन के जदीद फ़िर्क़े के ज़वाल के दिन क़रीब आ गए हैं और उन को अब इस की तरक़्क़ी से बिल्कुल मायूस हो चाहिए।

इब्ने आदम बचाने आया

ये एक मशहूर आलम मक़ूला है, कि “कहने और करने में बड़ा फ़र्क़ है।” और ये किसी हद तक सच्च भी है कि हौसलामंद अश्ख़ास जैसा कहते हैं, वैसा कर नहीं सकते और यूं उन के अक़्वाल व अफ़आल में एक फ़र्क़ अज़ीम वाक़ेअ हो जाता है। मगर हम इस अजीब शख़्स येसू नासरी के तमाम अक़्वाल व अफ़आल में एक ऐसी लासानी मुवाफ़िक़त व मुताबिक़त पाते हैं कि जो तारीख़ दुनिया में किसी

The Son of Man came to save life

इब्ने आदम बचाने आया

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Sep 21, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 21 सितम्बर 1894 ई॰

क्योंकि इब्ने आदम लोगों की जान बर्बाद करने नहीं बल्कि बचाने आया। (लूक़ा 9:58)

ये एक मशहूर आलम मक़ूला है, कि “कहने और करने में बड़ा फ़र्क़ है।” और ये किसी हद तक सच्च भी है कि हौसलामंद अश्ख़ास जैसा कहते हैं, वैसा कर नहीं सकते और यूं उन के अक़्वाल व अफ़आल में एक फ़र्क़ अज़ीम वाक़ेअ हो जाता है। मगर हम इस अजीब शख़्स येसू नासरी के तमाम अक़्वाल व अफ़आल में एक ऐसी लासानी मुवाफ़िक़त व मुताबिक़त पाते हैं कि जो तारीख़ दुनिया में किसी इन्सान की ज़िंदगी में हरगिज़ नहीं पाई जाती। इस में शक नहीं कि बाअज़ आदमी ऐसे भी होते कि जैसा वो कहते वैसा करने की कोशिश करते हैं। लेकिन अपनी इन्सानी कमज़ोरी के बाइस कर नहीं सकते और अपने क़ौल व फ़ेअल की मुताबिक़त ज़ाहिर व साबित करने में क़ासिर (मज्बूर) रहते हैं। मगर येसू नासरी ने जैसा कहा हमेशा वैसा ही किया क्योंकि वो अपने क़ौल व फ़अल को मुताबिक़ रखने पर क़ादिर था और यही बाइस है, कि उस के कलाम व काम में कभी सर मोफ़र्क़ ना आया। जैसा उस ने कहा था कि “इब्ने-आदम लोगों की जान बर्बाद करने नहीं बल्कि बचाने आया।” वैसा ही उस ने अपनी ज़िंदगी के दौरान में कर के दिखाया। इन्सान की ज़िंदगी में अक्सर ऐसे मौके़ पेश आ जाते हैं कि जिनमें उस की हरारत-ए-तबई जोश में आ जाती और वो अपने कलाम व काम में तख़ालुफ़ (बाहम होना) ज़ाहिर करने पर माज़ूर व मज्बूर समझा जाता है। लेकिन येसू नासरी सख़्त तरीन आज़माईश के मौक़ों के पेश आने पर भी अपने अक़्वाल पर साबित व क़ायम रहा और कभी उन के मुख़ालिफ़ कारबंद ना हुआ। मुन्दरिजा उन्वान कलाम उस ने अपने शागिर्दों याक़ूब और यूहन्ना से एक ऐसे मौक़े पर फ़रमाया जब कि उस ने उन्हें यरूशलेम को जाते हुए असनाए राह में शब बाश (रात गुज़ारना) होने के लिए सामरियों की एक बस्ती में अपने आगे भेजा था। मगर उन ना मुसाफ़िर परवर सामरियों ने उन्हें अपनी बस्ती में आने और ठहरने की मुतलक़ (बिल्कुल) इजाज़त ना दी। पस उन्होंने सामरियों की ऐसी बेरहिमाना व वहशियाना हरकत पर ग़ज़ब आलूदह हो कर ख़ुदावंद के पास वापिस आकर कहा, “क्या तू चाहता है कि जैसा इल्यास ने किया, हम हुक्म करें कि आग आस्मान से नाज़िल हो और उन्हें जला दे। इस के जवाब में ख़ुदावंद ने उन्हें धमकाया और कहा  “तुम नहीं जानते कि तुम कैसी रूह के हो क्योंकि इब्ने-आदम लोगों की जान बर्बाद करने नहीं बल्कि बचाने आया है।” क्या कोई शख़्स जिसमें मुख़ालिफ़ों की बदसुलूकी के इंतिक़ाम लेने की क़ुद्रत व ताक़त मौजूद हो। ऐसे मौक़े पर दर-गुज़र (माफ़) कर सकता है? हरगिज़ नहीं। लेकिन ख़ुदावंद येसू मसीह ने अपने क़ौल के मुताबिक़ कि वो लोगों की जान मारने वाला नहीं बल्कि जान बचाने वाला था अपने अमल से साबित किया।

जैसा उस ने फ़रमाया था कि “अपने दुश्मनों को प्यार करो और और जो तुम पर लानत करें, उन के लिए बरकत चाहो। जो तुमसे कीना (दुश्मनी) रखें। उनका भला करो और जो तुम्हें दुख दें और सताएं, उन के लिए दुआ माँगो।” वैसा उस ने अमलन ख़ुद कर के दिखलाया, जब कि उन्हों ने अपने तिश्ना ख़ून (ख़ून के प्यासे) दुश्मनों के लिए, जो उस की मस्लुबियत के वक़्त सर हिला-हिला कर उसे मलामत (भला बुरा कहना) करते और कहते थे, वाह तू जो हैकल का ढाने वाला, और तीन दिन में बनाने वाला है। अपने आप को बचा। अगर तू ख़ुदा का बेटा है, सलीब पर से उतर आ। दुआ मांगी कि ऐ बाप इन्हें माफ़ कर क्योंकि वो नहीं जानते कि क्या करते हैं।”

जंग मुक़द्दस का ख़ातिमा और अमृतसर में मसीहीयों का इज्लास

नाज़रीन में से हर एक पर वो मशहूर-ए-आलम पेशीनगोई रोशन है, जो मिर्ज़ा क़ादियानी ने मुबाहिसा अमृतसर के इख़्तताम पर की थी कि “डिप्टी अब्दुल्लाह आथम साहब फ़रीक़ सानी 15 माह तक यानी 5 सितम्बर 1894 ई॰ तक बह सराय मौत हाविया (जहन्नम) में डाले जाऐंगे।

The End of Holy War and Procession of Christians in Amratser

जंग मुक़द्दस का ख़ातिमा और अमृतसर में मसीहीयों का इज्लास

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Waris-ul-Din
वारिस उद्दीन

Published in Nur-i-Afshan Sep 14, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 14 सितम्बर 1894 ई॰

नाज़रीन में से हर एक पर वो मशहूर-ए-आलम पेशीनगोई रोशन है, जो मिर्ज़ा क़ादियानी ने मुबाहिसा अमृतसर के इख़्तताम पर की थी कि “डिप्टी अब्दुल्लाह आथम साहब फ़रीक़ सानी 15 माह तक यानी 5 सितम्बर 1894 ई॰ तक बह सराय मौत हाविया (जहन्नम) में डाले जाऐंगे।

इस ख़बर ने इस क़द्र शौहरत पकड़ी कि पंजाब के हर एक शहर और गांव का बच्चा बच्चा इस का ज़िक्र करता था। ना फ़क़त पंजाब, पर दुनिया के एक बड़े हिस्से में इस का चर्चा था और सबकी आँख 5 सितम्बर 1894 ई॰ की तरफ़ लगी हुई थी और इस के नतीजे के ज़हूर (ज़ाहिर होना) के मुंतज़िर थे।

इस मुक़ाम पर इस बात का ज़िक्र करना ख़ाली अज़ लुत्फ़ ना होगा कि अमृतसर में डिप्टी (आथम) साहब के हलाक करने के लिए तीन दफ़ाअ हमले किए गए।

चूँकि उनका अमृतसर में रहना बाइस अंदेशा था। इसलिए डिप्टी साहब 30 अप्रैल को अमृतसर से जंडियाला तशरीफ़ ले गए और वहां से लुधियाना को चले गए। जहां एक शख़्स बरछी से डिप्टी साहब का काम तमाम करना चाहता था।

लुधियाना में कुछ दिन रह कर डिप्टी साहब फ़िरोज़ पूर में रौनक अफ़रोज़ (तशरीफ़ लाना) हुए। इस जगह इन पर चार हमले हुए। बंदूक़ से दो दफ़ाअ गोली चली। एक दफ़ाअ एक शख़्स गंडासा लिए हुए नज़र आया। दो दफ़ाअ 3, 3, आदमी रात के वक़्त क़रीब के खेतों में छिपे हुए मालूम हुए। जो पौलुस के तआक़ुब (पीछा करना) करने से मफ़रूर (भागना) हो गए और उन्हीं में से एक दफ़ाअ रात के वक़्त तीन आदमी कोठी का दरवाज़ा तोड़ रहे थे। चूँकि ऐसे वक़्त में ज़्यादा हिफ़ाज़त की ज़रूरत थी जो पेशीनगोई का आख़िरी रोज़ था इसलिए डाक्टर क्लार्क साहब 5 सितम्बर 1894 ई॰ को अमृतसर से फ़िरोज़ पूर तशरीफ़ ले गए। रात के वक़्त हस्ब-ए-मामूल पुलिस का पहरा रहा।

12 बजे रात के बाद 6 सितम्बर 1894 ई॰ उन मसीहीयों ने जो हाज़िर थे अव़्वल ख़ुदा का शुक्र किया और इस के बाद डिप्टी (अब्दुल्लाह आथम) साहब को मुबारकबाद दी इस के बाद पंजाब के मुख़्तलिफ़ शहरों में दस तार ख़बरें भेजी गईं। जिनमें से एक मिर्ज़ा क़ादियानी के नाम पर थी और वो ये है कि, “आथम, तंदुरुस्त, गदहा, सिपाही रस्सी है या भेजूँ? 4 बजे सुबह हम लोग फ़िरोज़ पूर से डिप्टी अब्दुल्लाह आथम साहब के हमराह अमृतसर को रवाना हुए।

रास्ते में रायविंड के लोगों को डिप्टी साहब को देखने का बड़ा शौक़ था। चुनान्चे बहुत लोग रेल-गाड़ी के क़रीब आकर हाज़िर हुए। जिनमें से एक क़ादियानी का मुरीद (पैरोकार) भी था। जब उसने अपनी आँखों से डिप्टी साहब को देखा तो कहने लगा कि मैं इस वक़्त से उस का पैरौ (पीछे चलने वाला) नहीं हूँ और मैं कोशिश करूँगा कि मेरे और पैरु (मिर्ज़ा जी के मानने वाले) भाई भी उस से अलग हो जाएं।

फिर जब हम लाहौर पहुंचे तो सबसे पहले अंजुमन हिमायत-ए-इस्लाम के सैक्रेटरी हाज़िर हुए और कहने लगे, कि आथम साहब की बाबत तमाम शहर में शोर पड़ा हुआ है और तार-ख़बर मशहूर हुई है कि आथम साहब फ़ौत हो गए हैं। लेकिन चूँकि मुझे ख़बर मिली थी कि वो इस गाड़ी में आते हैं। तो मैं बचश्म ख़ुद (ख़ूद आँख से देखना) देखने को हाज़िर हुआ हूँ। और उन्होंने ये भी कहा कि मैं 31, अगस्त 1894 ई॰ को मौज़ा कादियां में मौजूद था और मैंने मिर्ज़ा साहब से इस पैशन गोई की बाबत पूछा, तो उन्होंने कहा कि बेशक 5 सितम्बर 1894 ई॰ की रात के ठीक 12 बजे पेशीनगोई पूरी होगी और ऐसे वक़्त में जब कि वो खाते पीते और तंदुरुस्त नज़र आएँगे और डाक्टर साहब फ़त्वा देंगे कि सब ख़ैर है। मैंने पूछा कि अगर वो ना मरें तो या हज़रत उस की कोई तावील (बचाओ दलील) भी है तो कहने लगे कोई नहीं। ज़रूर ज़रूर 12 बजे रात के 5 सितम्बर 1894 ई॰ को पेशीनगोई पूरी होगी। इलावा अज़ीं लाहौर के दीगर मोअज़्ज़िज़ीन व ऐडीटर अख़बारात और एक जमाअत अहले-इस्लाम ख़ुर्द कलां डिप्टी साहब को बचश्म ख़ुद (ख़ुद आँख से देखना) देखी गई।

फिर जब हमारी ट्रेन अमृतसर के स्टेशन पर पहुंची तो मसीहीयों और मुहम्मदियों और मिर्ज़ाइयों वग़ैरह की कसीर तादाद स्टेशन के अंदर प्लेटफार्म पर जमा थी। और मसीही फूलों के हार लेकर इस्तिक़बाल करने को आए थे। उन्होंने डिप्टी साहब को देखते ही ख़ुशी का नारा मारा और पुकारे कि “मसीह की जय, मसीह की जय” बड़ी ख़ुशी से मुलाक़ातें हुईं। मुहम्मदी बकस्रत मौजूद थे नीज़ मिर्ज़ाई भी जो देखते ही फ़रार हो गए। जिस तरह कोई शेर से भागता है। वाक़ई ये गिरोह अगरचे शेर बब्बर की तरह गरजती रही पर वक़्त पर गीदड़ से ज़्यादा बुज़दिल निकली। ईसाई दर किनार जिन मुहम्मदियों पर सौ-सौ तोहमतें लगाते थे उनके मुक़ाबले पर भी ना ठहरे। थोड़े अर्से के बाद डिप्टी (आथम) साहब गाड़ी पर से उतरे। मैडीकल मिशन के चंद जवानों ने मुहाफ़िज़त के लिए उन्हें घेर लिया।

बरसते फूलों में स्टेशन से रवाना हो कर हम लोग डाक्टर क्लार्क साहब की कोठी पर जा पहुंचे। यहां ऐसा इंतिज़ाम देखने में आया, जिससे दिल शाद हो गया। कोठी सब्ज़ी और फूलों से आरास्ता की हुई और शामियाना लगा हुआ था और सुनहरी हर्फ़ों में “वेल्कम” लिखा हुआ था। दरियां बिछाई हुई थीं। इस कुल इंतिज़ाम को मैडीकल मिशन के लोगों ने डाक्टर फ़ख़्रउद्दीन लाहिज़ साहब की मार्फ़त निहायत ही जाँ-फ़िशानी (सख़्त मेहनत) और उम्दगी से किया था। क्योंकि डाक्टर क्लार्क साहब फ़िरोज़ पूर चले गए थे। और उन्होंने अपनी तरफ़ से ये इंतिज़ाम डाक्टर लाहिज़ साहब के सपुर्द किया था। अगरचे वक़्त बहुत तंग था तब भी आला दर्जे की दुरुस्ती से किया गया था। जो क़ाबिल-ए-तारीफ़ है।

थोड़े से आराम के बाद उन मेहमानों के लिए जो पिशावर भेरा, क्लार्क आबाद, नारोवाल, बहड़वाल, जालंधर, बटाला, फ़त्ह गड्डू, ब्यास, सुल्तान दंड, फ़िरोज़ पूर और जंडियाला वग़ैरह से आए हुए थे बआम (खाना) मौजूद किया गया।

ग्यारह बजे सुबह अमृतसर की कलीसिया के शुरका जमा हो गए। साढे़ ग्यारह बजे शुक्राना की बंदगी (इबादत) ठीक उसी जगह पर जहां कि गुज़श्ता साल में मुबाहिसा हुआ था। शुरू हुई।

इस बंदगी का एक ख़ास तरीक़ा था। एक ख़ास गीत जो इस मौक़े के लिए छापा गया था और गाया गया। बाद-अज़ां पादरी वेड साहब ने दुआ की और डाक्टर क्लार्क साहब ने 30 और 103 ज़बूर विर्द के तौर पर पढ़ कर सुनाए। (हर एक मसीही को लाज़िम है कि इन ज़बूरों को देखे। जो गोया ख़ुदा की रूह ने ऐन इस मौक़े के लिए नाज़िल किए थे) बादअज़ां पादरी ठाकुर दास साहब ने दुआ मांगी। फिर पादरी टॉमस हाइल साहब ने जो मुबाहिसा में डिप्टी (आथम) साहब के ख़ास मुआविनों (मददगारों) में एक थे वाअज़ किया। जिसका मज़्मून ये था :-

“अब शुक्र ख़ुदा का जो मसीह में हमको हमेशा फ़त्ह बख़्शता है। और अपनी पहचान की ख़ुशबू हमसे हर जगह ज़ाहिर करवाता है।” (2 कुरिन्थियों 14:2) तब लाला चन्दूलाल साहब ने ख़ास इस मतलब का मज़्मून सुनाया कि मुख़ालिफ़ीन के लिए हम दुआ मांगें और उनका भला चाहें और सब्र व शुक्र से अपनी जानों को बचाते जाएं और किसी से ना डरें। बाद अज़ां डिप्टी अब्दुल्लाह आथम साहब ने महफ़िल में खड़े हो कर अपना हाल सुनाया, कि “मेरे लिए अलबत्ता ये एक इम्तिहान आया था और मेरा ख़याल था कि शायद मैं मारा भी जाऊँगा। लेकिन इस पर भी कलीसिया ख़ुदावंद के कलाम को याद रखे, जो मूसा की मार्फ़त हुआ कि, “अगर कोई तुम्हारे दर्मियान झूटा नबी आए। और निशान मुक़र्रर करे। और उस के कहने के बमूजब हो, तो ख़बरदार तुम उस के पीछे ना जाना। क्योंकि ख़ुदावंद तुम्हारा ख़ुदा तुमको आज़माता है।” और ये जो महीने गुज़रे हैं। इनकी बाबत उन्होंने फ़रमाया कि “मैंने फ़क़त दो बातें देखीं। जिनसे मेरी तसल्ली है यानी ख़ुदावंद रूहुल-क़ुद्दुस का सहारा और ख़ुदावंद येसू मसीह का ख़ून। ये कह के बे-इख़्तियार उन के आँसू निकल पड़े नीज़ जमाअत के भी आँसू बहे। ये एक निहायत ही संजीदा मौक़ा था और कुल जमाअत पर साबित हुआ कि क़ादियानी ने अपने हसद और झूट से इस बंदा-ए-ख़ुदा, और उन के अज़ीज़ों को इतने अर्से तक मुफ़्त में कैसी अज़ीयत (तक्लीफ) पहुंचाई। जमाअत क्या बल्कि अग़्लब (मुम्किन) है कि जहां की नज़र में ये शख़्स (क़ादियानी) घिनौना गिना गया। जिसने एक बुज़ुर्ग उम्र रसीदा को जो कि हर दिल अज़ीज़ है, नाहक़ सताया। बेशक मिर्ज़ा क़ादियानी एक नफ़रती शख़्स है। ख़ुदा उस पर रहम करे। फिर मौलवी इमाद-उद्दीन लाहिज़ साहब ने आख़िरी दुआ की और पादरी अब्दुल्लाह साहब ने बरकत के कलिमे से बंदगी को ख़त्म किया।

इस जलसे में बख़ूबी देखा जाता था कि मसीही यगानगत और मुहब्बत कैसी उम्दा चीज़ हैं। मुख़्तलिफ़ मिशनों से मसीही बुज़ुर्ग तशरीफ़ लाए थे और हम सब एक ही आस्मानी बाप के फ़र्ज़न्द हो कर ख़ुदावंद रूहुल-क़ुद्दुस के वसीले से अपने ख़ुदावंद येसू मसीह की हम्द कर रहे थे और एक फ़त्ह अज़ीम के लिए जो ना किसी शख़्स की और ना किसी मिशन की बल्कि कुल मसीही कलीसिया की फ़त्ह है। शुक्रिया अदा करते थे।

ऐन जलसे के वक़्त डेरा ग़ाज़ी ख़ान के मसीहीयों की तरफ़ से तार ख़बर मिली कि जिसमें मुबारकबादी व ख़ुदा की सताइश थी जिसे डाक्टर क्लार्क साहब ने उसी वक़्त हाज़िरीन को सुनाया।

अगरचे सब ख़ुदा के शुक्रगुज़ार थे। तो भी ख़ास जोश और शुक्रगुज़ारी उन की थी जो कि मुबाहिसे के दिनों में उसी बरामदा में बैठ कर कैफ़ीयत देखते थे। कहाँ वो दिन? और कहाँ ये दिन? तब छोटी सी एक जमाअत कमज़ोरी की हालत में ख़ुदावंद का हक़ ज़ाहिर कर रही थी। अब कुल कलीसिया फ़त्हमंद हो कर। ख़ुदावंद रब-उल-अफ़्वाज की हम्द व सना-गार ही थी। बेशक वो कमज़ोरी में ज़ोर-आवर किए गए और उन्हीं के वसीले से जो शुमार में नहीं आते। ख़ुदावंद ने उन्हें जो अपने आपको बहुत ही इक़तिदार वाले समझते थे शिकस्त दी और ज़लील व किया।

उस सुतून के पास जहां दौराने मुबाहिसा में मौलवी अब्दुल करीम सियालकोटी खड़ा हो के मिर्ज़ा के कुफ़्र नामे ब-आवाज़ बुलंद सुनाता था। अब इसी जगह अखुंद मुहम्मद यूसुफ़ ख़ान साहब जो मिर्ज़ा साहब के ग़ाज़ी थे ख़ुदावंद मसीह के ख़ून ख़रीदे हो के बैठ कर याद कर रहे थे कि उस ने मुझ पर भी रहम किया और कितने गहरे पानियों से निकाला। (और कितने और का ख़याल आया, जो मुहम्मदियत की दलदल से भी एक मिर्ज़ा के ज़्यादा कुफ़्र में मुब्तला थे) चूँकि उनमें से एक मुहम्मद सईद साहब देहलवी जो मिर्ज़ा साहब की बीवी के ख़ालाज़ाद भाई हैं और चार साल उन की मिर्ज़ा के ज़टलियात (बेमाअनी बातें) में मुब्तला रहे। अपने ख़यालात एक इश्तिहार में ज़ाहिर कर चुके हैं उस के ज़्यादा ज़िक्र की ज़रूरत नहीं क्योंकि वो कुल हिन्दुस्तान में पिशावर से मदारिस तक फैल चुका है)

इबादत के बाद हाज़िरीन को चाय मिठाई दी गई। बाद अज़ां पंजाब के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में तार ख़बरें, ख़ुतूत इश्तिहारात रवाना किए गए और कई तार वसूल किए गए। फिर 5 बजे ब-वक़्त-ए-शाम बहुत से मसीही सात गाड़ीयों पर सवार हो कर मए डिप्टी अब्दुल्लाह आथम साहब हाल बाज़ार के रास्ते शहर (अमृतसर) में दाख़िल हुए। हाल बाज़ार में एक शख़्स ने एक छत पर बैठ कर चलती गाड़ीयों पर फूल बरसाए बाद-अज़ां कर्मों की डेवड़ ही, आलू वालिया, बाज़ार, घी मंडी कटटरा महां संग, बगियायाँ, घनीयाँ, हाथी, दरोज़ाह, लोहगड़ दरवाज़ा, लाहौरी, कटटरा सफ़ैद, हाल दरवाज़ा, रामबाग का सैर किया और फिर डाक्टर क्लार्क साहब की कोठी पर जा पहुंचे।

उस वक़्त का नज़ारा, अवाम के ख़यालात, वाक़ियात का असर, क़ाबिले दीद था कि लोग दूकानों, मकानों, खिड़कियों, कूचों, छतों और बाज़ारों से डिप्टी (अब्दुल्लाह आथम) साहब को ऐसे शौक़ से देखते और हमदर्दी करते थे कि जिस तरह कोई बड़े फ़ातेह और मुल्की हमदर्द के लिए करता है।

चूँकि रात को अमृतसर में ये तार ख़बर मशहूर कर दी गई थी कि आथम साहब फ़ौत हो गए हैं। इसलिए ये प्रोसेशन (जलूस का शान व शौकत से गुज़रना) और भी ताज्जुब की निगाह से देखी जाती थी।

बाज़ों ने ये मशहूर कर रखा था कि डिप्टी साहब वही नहीं हैं पर कोई रबड़ का आदमी बना कर अमृतसर में लाए हैं। जिसे डाक्टर साहब पैर से दबाते हैं, और वो सलाम करता है!

बाअज़ ने कहा, कि अब सच्च और झूट का ठीक फ़ैसला हो गया है।

बाज़ों ने कहा, कि ख़ुदा का सानी कौन है? (यानी मिर्ज़ा ख़ुदा का सानी बनना चाहता था। पर ख़ुदा ने उस को रुस्वा किया)

बाअज़ के गुमान में प्रोसेशन के साथ बाजा ज़रूर चाहीए था।

बाज़ों के ख़याल थे कि ये प्रोसेशन क़ादियान को जानी ज़रूर थी।

बहुतों ने कहा, कि इसी तरह मिर्ज़ा को गधे पर चढ़ा कर उसी शहर में फिराना चाहिए। कई एक ने कहा, कि बेईमान झूटा ख़ुदा का सानी बनना चाहता था।

कई एक ने कहा कि बेईमान जीते-जी मर गया।

किसी ने कहा कि उस के जेल ख़ाने जाने से ज़्यादा उस की रुस्वाई हो चुकी है। ग़र्ज़ कि हज़ार-हा आदमीयों के मुँह से तरह-तरह के ख़यालात ज़ाहिर होते थे और चारों तरफ़ से क़ादियानी पर लानत बरसती थी।

जहां तक देखा गया, एक दिल और एक ज़बान हो कर बुलंद आवाज़ से क्या अदना क्या आला क्या अहले हनूद और क्या अहले इस्लाम ख़ुदा का शुक्र करते थे कि तू ने इस मिर्ज़ा मूज़ी को आज के दिन रूसियाह (मुंह काला) किया। और निहायत ही ख़ुशी और ख़ूबी से डिप्टी साहब और मसीहीयों को मुबारकबादी देते और मुलाक़ात करते थे।

डिप्टी (आथम) साहब अपनी सवारी से लोगों से मुलाक़ात करते और सलाम लेते और देते थे।

हमारे मसीही दोस्त जो उस वक़्त हमारे साथ प्रोसेशन (जलूस) में शरीक थे। ख़ूब जानते हैं कि क्या कुछ हो रहा था और कि किस तरह बच्चे-बच्चे के मुँह से मसीही दीन की सदाक़त का इज़्हार होता था।

ये एक ऐसा दिन था, जिसमें ख़ुदावंद ने एक कामिल फ़त्ह अपनी कलीसिया को बख़्शी थी। यरीहू की दीवारें गिर गईं। अब इस्राईल के वास्ते लौटने का रास्ता खुल गया है। आज तक इस मुल्क में ना ऐसा दिन ना ऐसा मौक़ा गुज़रा। और अब साफ़ ज़ाहिर है कि ज़माने का रुख बड़ा पलट गया है और मसीहीयों को चाहिए कि ख़ूब कमर-बस्ता हो कर ख़ुदा की बरकतों में से एक को ना जाने दें। ये वो दिन था, जो आज तक पंजाब की कलीसिया को देखना नसीब ना हुआ था। ये वो दिन था, जिसने मिर्ज़ा को जड़ से उखेड़ कर गिरा दिया। और वो ता-अबद ना उठ सकेगा। ये वो दिन था कि जिसमें तमाम पंजाब, और हिन्दुस्तान में ख़ुदावंद (यहोवा) के नाम की बुजु़र्गी हुई और मुहम्मदियत को कामिल शिकस्त मिली।

हम दुबारा मैडीकल मिशन की हिम्मत और मेहरबानी का शुक्रिया अदा करते हैं। जो इंतिज़ाम और मेहमान-नवाज़ी के बारे में हुई कि हर एक इंतिज़ाम बिल्कुल दुरुस्त था और कि उन्होंने 5400 इश्तिहारात इस फ़त्हमंदी के मुताल्लिक़ छपवाकर तमाम हिन्दुस्तान में तक़्सीम किए। चुनान्चे उन में से सिर्फ अमृतसर ही में 15 सौ बाँटे गए।

शाम के वक़्त बाअज़ हाज़िरीन-ए-जलसा बा-सबब किल्लत-ए-वक़्त (वक़्त की कमी) की वजह से के जालंधर, बटाला, लाहौर वग़ैरह को तशरीफ़ ले गए। बाक़ी जो मौजूद थे, उन्हें पादरी वेड साहब और डाक्टर क्लार्क साहब की कोठी पर खाना खिलाया गया।

रात के वक़्त बीसियों मसीही डाक्टर क्लार्क साहब के बंगले पर सो रहे। 7 सितम्बर सुबह के वक़्त डिप्टी अब्दुल्लाह आथम साहब के हमराह डाक्टर क्लार्क साहब, पादरी टॉमस हाओल साहब फ़िरोज़ पूर तशरीफ़ ले गए और डिप्टी साहब को सलामती से फिर वहां पहुंचा दिया।

रास्ते में अमृतसर फ़िरोज़ पूर के दर्मियान के स्टेशनों पर राक़िम (लिखने वाला) ने फ़त्हमंदी के इश्तिहारात तक़्सीम किए।

कोई मसीही फ़ख़्र ना करे। ये फ़त्ह किसी शख़्स की नहीं है मगर जो कुछ किया ख़ुदा ने ख़ुद किया है। इमरोज़ (आज का दिन) ताअबद (हमेशा तक) हश्मत व जलाल क़ुद्रत और इख़्तियार और फ़त्ह-उल-मसीह ता-अबद ख़ुदा ए मुबारक की है।

बाअज़ ख़यालात मुहम्मदी पर सरसरी रिमार्क्स

हिंदूओं में भी कई एक तीर्थ मशहूर हैं। मसलन बदरी नाथ, किदार नाथ, द्वार का, बनारस, व प्राग वग़ैरह जहां बाअज़ हिंदू जाना और मूरतों के दर्शन करना और बाअज़ रस्मी बातों का अदा करना ज़रूरी और मूजिब सवाब ख़याल करते हैं।

Short Remarks on some thoughts of Muhammad

बाअज़ ख़यालात मुहम्मदी पर सरसरी रिमार्क्स

By

Bahadur Masih
बहादुर मसीह

Published in Nur-i-Afshan Sep 14, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 14 सितम्बर 1894 ई॰

(9) (फ़र्ज़ हज) क़ुरआन में लिखा है “तहक़ीक़ सफ़ा और मर्वा निशानीयां अल्लाह की हैं। पस जो कोई हज करे घर का या उमरा करे पस नहीं गुनाह ऊपर उस के ये कि तवाफ़ करे बीच इन दोनों के और जो कोई ख़ुशी से भलाई करे पस तहक़ीक़ अल्लाह क़द्र-दान है जानने वाला।” (सूरह अल-बक़रह रुकूअ 9)

हिंदूओं में भी कई एक तीर्थ मशहूर हैं। मसलन बदरी नाथ, किदार नाथ, द्वार का, बनारस, व प्राग वग़ैरह जहां बाअज़ हिंदू जाना और मूरतों के दर्शन करना और बाअज़ रस्मी बातों का अदा करना ज़रूरी और मूजिब सवाब ख़याल करते हैं।

इस फ़र्ज़ हज मुहम्मदी के इबादती दस्तुरात अजीब ख़यालात से मुरक्कब हैं और बहुत कुछ हिंदूओं के ख़यालात के मुवाफ़िक़ मालूम होते हैं, जिनका दर्ज करना बा सबब तवालत छोड़ा गया। चुनान्चे उन की पूरी कैफ़ीयत किताब अक़ाइद इस्लामीया तर्जुमा मौलवी मुहम्मद शफ़क़त-उल्लाह हमीदी सफ़ा 247 से 255 तक और किताब तहक़ीक़-उल-ईमान मुसन्निफ़ पादरी मौलवी इमाद-उद्दीन साहब एतराज़ चहारुम सफ़ा 112 में दर्ज है।

मगर ताअलीमे इन्जील किसी ख़ास जगह को इबादत इलाही के वास्ते मख़्सूस नहीं ठहराती बल्कि हर जगह जहां इन्सान उस की मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ अमल करे क़ुर्बत-ए-इलाही हासिल कर सकता है। चुनान्चे इन्जील यूहन्ना 4:19-24 तक मज़्कूर है, “औरत ने उस से (मसीह से) कहा ऐ ख़ुदावंद मुझे मालूम होता है कि आप नबी हैं हमारे बाप दादों ने इस पहाड़ पर परस्तिश की और तुम (यहूदी) कहते हो कि वो जगह जहां परस्तिश करनी चाहिए, यरूशलेम में है। येसू ने उस से कहा, कि “ऐ औरत मेरी बात का यक़ीन रख कि वो घड़ी आती है कि जिसमें तुम ना तो इस पहाड़ पर और ना यरूशलेम में बाप की परस्तिश करोगे तुम उस की जिसे नहीं जानते हो परस्तिश करते हो। हम उस की जिसे जानते हैं परस्तिश करते हैं क्योंकि नजात यहूदीयों में से है। पर वो घड़ी आती बल्कि अभी है, कि जिसमें सच्चे परस्तार रूह व रास्ती से बाप की परस्तिश करेंगे। क्योंकि बाप भी अपने परस्तारों को चाहता है कि ऐसे होएं। ख़ुदा रूह है और उस के परस्तारों को फ़र्ज़ है, कि रूह व रास्ती से परस्तिश करें।”

पस याद करो अल्लाह को खड़े या बैठे

पस अब इस रुहानी तरीक़ा इबादत-ए-इलाही को छोड़कर जो उस की ऐन मर्ज़ी और सिफ़ात के मुवाफ़िक़ है। जिसकी तश्बीह व अलामतें अहकामात-ए-तौरेत में क़ौम यहूद पर ज़ाहिर की गईं। जो सिर्फ जिस्मानी ख़यालात पर मबनी थीं कौन फ़र्ज़ ख़याल कर सकता है? मगर सिर्फ वही जो जिस्मानी तबीयत रखता हो और रुहानी ताअलीम-ए-इन्जील से अपनी आँखें बंद करले। जैसा लिखा है, “मगर नफ़्सानी आदमी ख़ुदा की रूह की बातें क़ुबूल करता कि वो उस के आगे बेवक़ूफ़ीयाँ हैं और ना उन्हें जान सकता है। क्योंकि वो रुहानी तौर पर बूझी जाती हैं।” (1 कुरिन्थियों 2:15)

(10) (झूट बोलना) किताब हिदायत-उल-मुस्लिमीन के सफ़ा 31 में यूं दर्ज है, “कि ये लोग मुहम्मदी ख़ुदा की राह में झूट बोलना सवाब जानते हैं। चुनान्चे सूरह साफ़्फ़ात रुकूअ 3 की (88) आयत قَنَظَر نَظَرۃ فی النُجوم के नीचे अब्दुल क़ादिर के सातवें फ़ायदा में लिखा है कि अल्लाह की राह में झूट बोलना अज़ाब नहीं बल्कि सवाब है।”

हिंदू भी “दीदा व दानिस्ता (जान-बूझ कर) रहम की नज़र से झूट बोलने में स्वर्ग (जन्नत) से नहीं गिरता। और इस की बानी मनु वग़ैरह देवता की बानी के बराबर समझते हैं। जहां सच्च बोलने से ब्रहमन, क्षत्री, देश, शूद्र क़त्ल होता हो। वहां झूट बोलना सच्च से भी अच्छा है।” शास्त्र मनु अध़्याय 8, श्लोक 103, 104

मगर ताअलीम बाइबल दीदा व दानिस्ता (जान-बूझ कर) किसी हालत में झूट बोलने की मुतलक़ परवाह (इजाज़त, हुक्म) नहीं देती है बल्कि हर हालत में झूट बोलने पर मुन्दरिजा ज़ैल फ़त्वा (शरई हुक्म) ज़ाहिर करती है यानी “वो जो दग़ाबाज़ है मेरे घर में हरगिज़ ना रह सकेगा और झूट बोलने वाला मेरी नज़र में ना ठहरेगा।” (ज़बूर 101:7) “झूटे लबों से ख़ुदावन्द को नफ़रत है। पर वो जो रास्ती से काम रखते हैं उस की ख़ुशी हैं।” (अम्साल 12:22) “सारे झूटों का हिस्सा उसी झील में होगा जो आग और गंधक से जलती है।” (मुकाशफ़ा 21:8) “ऐ ख़ुदावन्द तेरे ख़ेमे में कौन रहेगा और तेरे कोह मुक़द्दस पर कौन सुकूनत करेगा। वो जो सीधी चाल चलता, और सदाक़त के काम करता है। और दिल से सच्च बोलता है।” (ज़बूर 15:1, 2)

(11) (नमाज़ की बाबत) क़ुरआन में मज़्कूर है, “मुहाफ़िज़त करो ऊपर नमाज़ों के और नमाज़ बीच वाली पर यानी अस्र और खड़े हो वास्ते अल्लाह के चुपके।” (सूरह अल-बक़रह रुकूअ 31) “पस जब तमाम कर चुको नमाज़ को। पस याद करो अल्लाह को खड़े या बैठे और ऊपर करवटों अपनी के। पस जब आराम पाओ पस तुम सीधी करो नमाज़ को। तहक़ीक़ नमाज़ है ऊपर मुसलमानों के लगे हुए वक़्त मुक़र्रर किए हुए।” (सूरह अल-निसा रुकूअ 15)

हिंदू भी बाअज़ वक़्त संध्या पूजा करना बेहतर समझते हैं। चुनान्चे शास्त्र मनु में मज़्कूर है, “प्राथ काल (फ़ज्र) गायत्री का जप करता रहे जब एक सूरज का दर्शन ना हो और इसी तरह सायंकाल (शाम) में जब तक तारे ना दिखलाई दें। प्राथ काल (फ़ज्र) की संध्या करने से रात का पाप छूट जाता है। और साएँ काल की संध्या करने से दिन का पाप छूट जाता है। जो आदमी दोनों वक़्त की संध्या नहीं करता वो शूद्र की तरह दोज करम से बाहर हो जाता है।” (अध्याय 2 श्लोक 101 से 103 तक)

कलाम-ए-ख़ुदा बाइबल से ज़ाहिर है कि नमाज़ करने का दस्तूर क़दीम से चला आता है। यहूदी भी नमाज़ करना ज़रूरी समझते थे। चुनान्चे ज़बूर 95:6 में मज़्कूर है, “आओ हम सज्दा करें और झुकें और अपने पैदा करने वाले ख़ुदावन्द के हुज़ूर घुटने टैकें।” इन्जील-ए-मुक़द्दस में भी मज़्कूर है कि, “और जब तू दुआ मांगे रियाकारों की मानिंद मत हो। क्योंकि वो इबादत ख़ानों में और रास्तों के कोनों पर खड़े हो के दुआ मांगने को दोस्त रखते हैं, ताकि लोग उन्हें देखें। मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि वो अपना बदला पा चुके। लेकिन जब तू दुआ मांगे अपनी कोठरी में जा और अपना दरवाज़ा बंद कर के अपने बाप से जो पोशीदगी में है दुआ मांग। और तेरा बाप जो पोशीदगी में देखता है ज़ाहिर मैं तुझे बदला देगा और जब दुआ मांगते हो ग़ैर-क़ौमों की मानिंद बेफ़ाइदा बक-बक मत करो। क्योंकि वो समझते हैं कि ज़्यादा गोई (बहुत बोलना) से उनकी सुनी जाएगी।” (मत्ती 6:5-7) फिर रसूल फ़रमाता है, “दुआ मांगने में मशग़ूल और इस में शुक्रगुज़ारी के साथ होशियार रहो।” (कुलिस्सियों 4:2) पस इसलिए मसीही लोग भी दुआओं नमाज़ों में अक्सर मशग़ूल रहते हैं क्योंकि ज़रूरी बात है।

बेशक मुहम्मदी नमाज़ का ये क़ायदा कि जमाअत के बहुत से लोग फ़राहम हो कर दुआ या नमाज़ करते हैं। एक उम्दा और अहले-किताब के मुवाफ़िक़ क़ायदा है। मगर उन की नमाज़ का मंशा वही है जो हिंदूओं का है यानी नमाज़ों के ज़रीये आदमी नेक बने और गुनाह (पाप) से छूट जाये या सवाब हासिल करे पर मसीही नमाज़ों का ये मंशा नहीं है। बल्कि ये कि आदमी पहले नेक हो या बने ताकि ख़ुदा की शुक्रगुज़ारी अदा कर सके और उस के साथ दुआ में हम-कलाम हो कर ख़ुशी हासिल करे। पस मुहम्मदी हिंदूओं की नमाज़ें इन्सान के पाक होने और सवाब पाने का एक ज़रीया ख़याल की जाती हैं। मगर मसीही नमाज़ें नजात याफ्ताह लोगों की शुक्रगुज़ारी समझी जाती हैं, जो ज़रूरी है।

12 (बहिश्त (जन्नत) की बाबत) क़ुरआन में मज़्कूर है, “और ख़ुशख़बरी दे उन लोगों को कि ईमान लाए और काम किए अच्छे। ये कि वास्ते उन के बहिश्त (जन्नत) में चलती मय नीचे उन के लिए नहरें।” (सूरह अल-बक़रह रुकूअ 3) मगर बंदे अल्लाह के ख़ालिस किए गए ये लोग वास्ते उन के रिज़्क़ है मालूम मेवे और वो इज़्ज़त दिए जाऐंगे बीच बाग़ों नेअमत के ऊपर तख़्तों के आमने सामने फिर आया जाएगा ऊपर उन के पियाला शराब लतीफ़ (पाकीज़ा, लज़ीज़) का। सफ़ैद मज़ा देने वाली पीने वालों को। ना बीच उस के ख़राबी है और ना वो इस से बेहुदा कहेंगे और नज़्दीक उनके बैठी होंगी नीचे रखने वालियाँ ख़ूबसूरत आँखों वालियाँ गोया कि वो अंडे हैं छुपाए हुए।” (सूरह साफ़्फ़ात रुकूअ 2)

पस बहिश्त (जन्नत) की बाबत ऐसा ही कम व बेश ज़िक्र क़रीबन 28 या 29 जगह क़ुरआन में मज़्कूर है। मगर किसी आयात बहिश्ती में कहीं ये मज़्कूर नहीं है कि बहिश्त (जन्नत) में ख़ुदा उन के साथ होगा और मोमिनीन उस के चेहरे पर नज़र करेंगे और उस की सताइश व तारीफ़ में अबद-उल-आबाद मशग़ूल (मसरूफ़) रह कर लासानी ख़ुशी हासिल करेंगे।

हिन्दुओं के ख़याल के मुवाफ़िक़ परलोक का आनंद (राहत) सिर्फ ये है कि आदमी अपनी भूल व भरम से छूट कर जिसका नतीजा करम के समान आवागवन में हासिल करता रहता है। ज्ञान (इल्म, दानिश) हासिल कर के  “सब जानदारों में आत्मा के वसीले से आत्मा को देखता है और समदर्शी हो कर बड़ी ब्रहम पद-दिति को पाता है।” (शास्त्र मनू अध्याय 12, श्लोक 125) यानी परमेश्वर में लीन (वस्ल) हो जाता है और बस।

मगर इन्जील-ए-मुक़द्दस में इस पाक बहिश्त और उस की लासानी ख़ुशी की बाबत लिखा है कि ख़ुदा ने अपने मोहब्बतों (मुहब्बत करने वाले, दोस्त) के लिए वो चीज़ें तैयार कीं, “जो ना आँखों ने देखी। ना कानों ने सुनी। और ना आदमी के दिल में आई। बल्कि ख़ुदा ने अपनी रूह के वसीले हम पर ज़ाहिर किया।” (1 कुरिन्थियों 2:9) जिसकी ख़्वाहिश में उस के सच्चे मोमिनीन मरने तक मुस्तइद रहते हैं। (मुकाशफ़ा 4:10) यूं ज़ाहिर किया। “येसू ने जवाब में उनसे कहा तुम नविश्तों और ख़ुदा की क़ुद्रत को ना जान कर ग़लती करते हो क्योंकि क़ियामत में लोग ना ब्याह करते ना ब्याहे जाते हैं। बल्कि आस्मान पर ख़ुदा के फ़रिश्तों की मानिंद हैं।” (मत्ती 23:29, 30)

1. बहिश्त में ख़ुदा अपने मुकदसों के साथ सुकूनत करेगा। (मुकाशफ़ा 21:3)

2. बहिश्तियों की ख़ुशी। (मुकाशफ़ा 7:16-17 और 21:4, 25)

3. बहिश्तियों का कारोबार, उस के चेहरे पर निगाह रखना। (मुकाशफ़ा 22:4) और अबद-उल-आबाद उस की सताइश व तारीफ़ करना। (मुकाशफ़ा 4:10, 11 और 19:6)

हरसिह मज़ाहिब की ताअलीम बहिश्ती मज़्कूर बाला की बाबत नाज़रीन ख़ुद इन्साफ़ करें, कि कौन सी ताअलीम अक़्लन व नक़्लन इन्सानी दर्जा और ख़ुदा की शान के मुवाफ़िक़ ज़ाहिर होती है। क्या वो जिसमें सिर्फ नफ़्सानी ख़यालात मौजूद हैं। जो बग़ैर जिस्म उस क़ुद्दूस के हुज़ूर में मह्ज़ बेमतलब और उस की क़ुद्दुसियत के ख़िलाफ़ हैं। या वो जिसमें अपने ख़ालिक़ क़ादिर-ए-मुतलक़ के अंदर वस्ल (मुलाक़ात, हिजर की ज़िद, माशूक़ से मिलना) हो जाना। जो इन्सान के लिए मुहाल बल्कि उन होना है। “चह निस्बत ख़ाक राबआलम पाक” मगर हाँ वो जिसमें हमेशा उस के हुज़ूर हाज़िर रह कर अबद-उल-आबाद उस की तारीफ़ करना असली व सच्ची ख़ुशी ज़ाहिर होती है। (बाक़ी आइन्दा)

एक बड़ा बख़्शिंदा

किसी शख़्स को उस की मेहनत की उज्रत देना बख़्शिश नहीं है। पर बिला मेहनत और काम के किसी को कुछ देना बख़्शिश है। दुनिया में लोगों को उन की मुलाज़मत, ख़िदमत और मज़दूरी का हक़ मिलता है। लेकिन बाअज़ साहिबे दौलत किसी अपने होशियार और मेहनती कारिंदे (मज़दूर, काम करने वाले) को कभी-कभी कुछ बख़्शिश भी दिया करते हैं और अगरचे वो भी उस की उम्दा ख़िदमत

A Great Saviour

एक बड़ा बख़्शिंदा

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Sep 14, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 14 सितम्बर 1894 ई॰

किसी शख़्स को उस की मेहनत की उज्रत देना बख़्शिश नहीं है। पर बिला मेहनत और काम के किसी को कुछ देना बख़्शिश है। दुनिया में लोगों को उन की मुलाज़मत, ख़िदमत और मज़दूरी का हक़ मिलता है। लेकिन बाअज़ साहिबे दौलत किसी अपने होशियार और मेहनती कारिंदे (मज़दूर, काम करने वाले) को कभी-कभी कुछ बख़्शिश भी दिया करते हैं और अगरचे वो भी उस की उम्दा ख़िदमत के सबब से ही होती है। लेकिन फिर भी वो बख़्शिश कनिंदा की ख़ुश-नूदी मिज़ाज (दिली ख़ुशी) और मेहरबानी का इज़्हार है। जिसका पाने वाले को कोई हक़ नहीं होता। फिर अगर किसी नेक ख़िदमत के एवज़ में और नमक हलाली और दियानतदारी के बदले में एक आक़ा अपने ख़ादिम को इलावा उस की उज्रत और मेहनत के कुछ देता है और बख़्शिश कनिंदा (बख़्शिश देने वाला) कहलाता है। तो क्या वो बिला मेहनत और मशक़्क़त के आप जैसे नावाक़िफ़ लोगों को बड़ी-बड़ी अजीब व ग़रीब आस्मानी और रुहानी बरकतें इनायत करे तो वो बड़ा बख्शिंदा (बख्शने वाला) ना होगा?

अब मैं नाज़रीन से इस बड़े बख्शिन्दा की बख़्शिशों का मुख़्तसर बयान अर्ज़ करना चाहता हूँ। ये भी याद रखना चाहिए कि ये बड़ा बख्शिन्दा अपनी बख्शिश-ए-आम दुनिया के तमाम बाशिंदों को देना चाहता है। किसी क़ौम या ज़ात या दर्जे के लिए कोई ख़ुसूसीयत नहीं है। वो बड़ा बख्शिन्दा ख़ुदावंद येसू मसीह इब्ने-अल्लाह और इब्ने-आदम है। जो 1900 बरस से रहमत और बख़्शिश का दरवाज़ा खोले हुए सबको सिर्फ एक आसान सी शर्त के क़ुबूल कर लेने से बरकतों पर बरकतें देता है। वो शर्त सिर्फ़ ईमान है। वो चाहता है, कि बेकस लाचार और गुम-गश्ता (खोया हुआ, भुला हुआ) गुनेहगार उस से मुफ़्त में इलाही नेअमतें पाएं। उस की बख़्शिश में ज़ेल की बड़ी-बड़ी बातें शामिल हैं।

वो बहुतों के लिए अपनी जान फ़िद्या में देता है।
  1. वो बहुतों के लिए अपनी जान फ़िद्या में देता है। मत्ती बाब 20 आयत 28 बल्कि हर एक गुनेहगार रसूल की तरह पर कह सकता है कि उसने अपने आप को मेरे बदले दे दिया। नामा ग़लतीयों 2 बाब 20 आयत ये कैसी अजीब बख़्शिश है? ऐ नाज़रीन अगर आप ज़रा सोचो तो इस अजीब बख़्शिश की अशद ज़रूरत को आप मालूम कर लोगे। गुनेहगार बा सबब अपने गुनाहों की सज़ा और अज़ाबे अबदी का मुस्तजिब (सज़ावार) हो चुका है। अगर वो ख़ुद उस सज़ा को उठाए, तो हलाक हो जाये लेकिन गुनेहगार का ऊज़ी (मुआवज़ा, बदला) हो कर येसू मसीह अपनी जान देकर फिर ज़िंदा हुआ। और गुनाह की सज़ा को ख़ुद सह लिया। और ख़ुदा के अदल को पूरा कर दिया। और रहमत इलाही का दरवाज़ा गुनेहगार के लिए खोल दिया। जिसके ज़रीये से गुनेहगार मौत और अज़ाब से बचता है और हमेशा की ज़िंदगी पाता है।
  2. दूसरी बख़्शिश जो ये बख़्शिश कनिंदा देता है दिली आराम है। मत्ती 21 बाब 28 आयत। गुनाह के साथ बे आरामी और बेचैनी है। जब कि मसीह ने अपनी जान दे दी, और गुनाह की सज़ा उठाई। तो गुनेहगार को सज़ा का अंदेशा और धड़का (डर, ख़ौफ़) ना रहा। बल्कि दिली तसल्ली और इत्मीनान उस को हासिल हुआ।
  3. वो अपनी सलामती देता है। जब कि इस बख़्शिश कनिंदा ने गुनाह की सज़ा उठाई और आराम दिया तो फिर अब सलामती है ख़तरा जाता रहा। आस्मानी और रुहानी बरकतें और नेअमतें गुनेहगार को मिलेंगी और फिर कोई ख़ौफ़ उस पर ना आएगा बल्कि उस के तमाम दुश्मन दूर व दफ़ाअ हो जाऐंगे। और वह सलामती में आ जाएगा।
  4. फिर वो अपने ईमानदारों को हयात-ए-अबदी और हमेशा की ज़िंदगी की बख़्शिश देता है। यूहन्ना 1 बाब 28 आयत
  5. वो उन को ज़िंदा पानी देता है। यूहन्ना 4 बाब 10 आयत बल्कि वो ज़िंदगी के पानी का चश्मा देता है। मुकाशफ़ात 31 बाब 6 आयत।
  6. वो अपने ईमानदारों को जलाल की बख़्शिश देगा। जो कभी जाता ना रहेगा। यूहन्ना 17 बाब 22 आयत।

मुन्दरिजा बाला तमाम रुहानी बख़्शिश ये बड़ा बख्शिन्दा येसू मसीह गुनेहगारों को देता है। अब अगर कोई गुनेहगार चाहे कैसा ही बड़ा गुनेहगार क्यों ना हो नजात और आस्मानी बरकतें चाहे, तो मसीह के पास आए। और वो ये तमाम बरकतें मुफ़्त में पाएगा।

मिर्ज़ा की पैशन गोई और अब्दुल्लाह आथम

लो एडीटर साहब। यारों का भी टोटख़ा-ए-क़ियाफ़ा ज़रा गोश-ए-दिल (बड़ी तवज्जोह) से से सुन लीजिए। नऊज़-बिल्लाह (अल्लाह की पनाह) ! मिर्ज़ा साहब को सूली की तो क्या सूझी होगी और मुरम्मत व तज्दीद (दुरुस्ती व नयापन) इस्लाम अगर सूझेगी, तो अपने बेटरे और अपने अंसार की ज़रूर सूझेगी कि अब कौनसी करवट हिक्मत की बदलें। और सिम्ते तावील अस्मा अहमद اسمہ احمد पर नया हाशिया चड़हाएं कि जिससे उनका हाथ दुम्बे के दुम्बे पर रहे और घर का आटा भी बना है।

Mirza’s Prediction And Abdullah Atham

मिर्ज़ा की पैशन गोई और अब्दुल्लाह आथम

By

Golkhnath
गोलख नाथ

Published in Nur-i-Afshan Sep 14, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 14 सितम्बर 1894 ई॰

अजी ऐडीटर साहब जब मैं आलम-ए-ख़्वाब से बेदार (जागना) हुआ, तो क्या देखता हूँ कि मुजद्दिद (तजदीद करने वाला) क़ादियानी इल्हामी ने तमाम आलम को मसनद-ए-इब्ने-अल्लाह (ख़ुदा के बेटे की कुर्सी) पर जलूस फ़र्मा कर और आयत कुरानी اسمہ ُاحمد की तावील (बचाओ दलील) अपने ऊपर मन्सूब (निस्बत किया गया) कर के शशदरो हैरान (हक्का बका) कर छोड़ा है। और اُکمَلتَلکم دينکم و ہاتممت عليکم نعمتیا आंहज़रत का वज़ीफ़ा है और आपकी क़ियाफ़ाशनासी (चेहरा बुशरा देखकर आदमी का किरदार मालूम करना) व पेशीन गोइयों का चर्चा वबा-ए-आलमगीर (दुनिया में फैली हुई बीमारी) की तरह शहरा आफ़ाक़ (मशहूर आलम) हो रहा है। और कुल बनी-नूअ ने डिप्टी अब्दुल्लाह आथम को अपने तीरे निगाह (निगाह के तीर) का हदफ़ (निशाना) बना रखा है, कि आँहज़रत की बददुआ व नीज़ आपके अंसार (मददगार) के कोसने से वो तख़्ता ज़मीन से मादूम (नेस्त किया गया) किए जाऐंगे या कि क़ादियानी इल्हाम गधे के सींग की तरह उड़ जाएगा। या बक़ौल वाक़िया ना ख़ुद उन की फांसी का दिन आ पहुंचेगा। ना मालूम कि अंधे को अंधेरे में क्या सूझी?

लो एडीटर साहब। यारों का भी टोटख़ा-ए-क़ियाफ़ा ज़रा गोश-ए-दिल (बड़ी तवज्जोह) से से सुन लीजिए। नऊज़-बिल्लाह (अल्लाह की पनाह) ! मिर्ज़ा साहब को सूली की तो क्या सूझी होगी और मुरम्मत व तज्दीद (दुरुस्ती व नयापन) इस्लाम अगर सूझेगी, तो अपने बेटरे और अपने अंसार की ज़रूर सूझेगी कि अब कौनसी करवट हिक्मत की बदलें। और सिम्ते तावील अस्मा अहमद اسمہ احمد पर नया हाशिया चड़हाएं कि जिससे उनका हाथ दुम्बे के दुम्बे पर रहे और घर का आटा भी बना है।

दोम, वो कश्ती हज़रत क़ादियानी जिसकी तामीर ब-वक़्ते तूफ़ान ज़लालत (गुमराही, तबाही) आग़ाज़ थी और बशारते सवारी (ख़ुश-ख़बरी की सवारी) अपने मुरीदों को बहालत मुराक़बा (ख़ुदा का ध्यान करना) तवज्जोह से सुना रहे थे। अब वो कश्ती ना-मुकम्मल ही नहीं रही बल्कि उस के पुर्जे़ गिर्दाबे अदम (पानी का चक्कर की गैर-हाज़िरी) में कुल अदम (नापैद, ख़त्म) हो गए जिसकी बदनामी का धब्बा आपके चेहरा अनवर पर तायौमे नश्वर (रोज़ क़ियामत) जाकर रहेगा। भला साहब। आँहज़रत का पहला ही इल्हाम ना था। (ऐसे इल्हाम तो पेश्तर हज़ार-हा मुख़्तलिफ़ा अश्ख़ास की निस्बत आपकी ज़बान गौहर फ़िशां (फ़ायदा पहुंचाने वाली) से जल्वा-अफ़रोज़ (ख़ास अंदाज़ से ज़ाहिर होना) होते रहे हैं।) बजाय इस के कि आप मक्का मुअज़्ज़मा में जा कर इमाम मह्दी की चंदे तक़्लीद (पैरवी) कर के बमूजब अक़ाइद इस्लाम ब-पहलूए हज़रत मुहम्मद मदफ़ून (दफ़न) हों। नदामत व ज़लालत (शर्मिंदगी, गुमराही) के भंवर (पानी का चक्कर) में ख़ुद ग़र्क़ होंगे। क्यों ना हो साहिबे शर्म हैं।

डिप्टी अब्दुल्लाह आथम साहब का ऐसे मौक़े पर ज़िंदा रहना मिन-जानिबे ख़ुदा था। ताकि इस मुबाहिसे का ख़ास नतीजा व सिदक़ व किज़्ब (सच्च व इलज़ाम) मुतनाज़ा फिया मज़ाहिब (मज़ाहिब का झगड़ा) का आफ़्ताब आलमताब की तरह रोशन हो जाऐंगे। अल-हम्दु-लिल्लाह ऐसा ही हुआ बल्कि बाअज़ अफ़नख़ास ख़ानदानी ताअलीम याफ्तह मुताल्लिक़ा मुबाहिसा मुहम्मदियत व अहमदियत को तर्क कर के मुशर्रफ़ व मुम्ताज़ (मुअज़्ज़िज़ व नामवर) बमज़्हब मसीहिय्यत व क़ुद्दुसियत हो गए। और मसीहीयों की बुर्दबारी व इन्किसारी (तहम्मुल व आजज़ी) इन माअहूदा अय्याम (मशहूर व मुक़र्रर अय्याम) में ख़ूब नुमायां हुई। भला क्यों ना हो ये तो आदी हैं। अगर दीगर मज़ाहिब की तरह होते, तो ज़रूर अदालत से चारा-जुई (फ़र्याद) करते और कामयाब होते और मिर्ज़ा साहब अपने किए की सज़ा पाते। फिर क़ैदीयों को जा कर अपना इल्हाम सुनाते। लेकिन वहां भी मुँह की खाते और डांवां डोल फिरते। ख़ैर मफ़ा मामज़ी, अब हम सब मसीही मिर्ज़ा साहब के वास्ते ये दुआ करते हैं। कि ऐ ख़ुदा उन की आँखें खोल और उन को तौबा की तौफ़ीक़ अता फ़र्मा। ताकि तेरी तरफ़ रुजू ला कर तेरे गल्ले में शामिल हो कर हमेशा की ज़िंदगी और बरकत हासिल करें और बजाय फ़र्ज़ी और मस्नूई (खुदसाख्ता) इल्हाम के हक़ीक़ी इल्हाम व इर्फ़ान को हासिल करें।

सुम्मा आमीन