बाअज़ ख़यालात मुहम्मदी पर सरसरी रिमार्क्स

हिंदूओं में भी कई एक तीर्थ मशहूर हैं। मसलन बदरी नाथ, किदार नाथ, द्वार का, बनारस, व प्राग वग़ैरह जहां बाअज़ हिंदू जाना और मूरतों के दर्शन करना और बाअज़ रस्मी बातों का अदा करना ज़रूरी और मूजिब सवाब ख़याल करते हैं।

Short Remarks on some thoughts of Muhammad

बाअज़ ख़यालात मुहम्मदी पर सरसरी रिमार्क्स

By

Bahadur Masih
बहादुर मसीह

Published in Nur-i-Afshan Sep 14, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 14 सितम्बर 1894 ई॰

(9) (फ़र्ज़ हज) क़ुरआन में लिखा है “तहक़ीक़ सफ़ा और मर्वा निशानीयां अल्लाह की हैं। पस जो कोई हज करे घर का या उमरा करे पस नहीं गुनाह ऊपर उस के ये कि तवाफ़ करे बीच इन दोनों के और जो कोई ख़ुशी से भलाई करे पस तहक़ीक़ अल्लाह क़द्र-दान है जानने वाला।” (सूरह अल-बक़रह रुकूअ 9)

हिंदूओं में भी कई एक तीर्थ मशहूर हैं। मसलन बदरी नाथ, किदार नाथ, द्वार का, बनारस, व प्राग वग़ैरह जहां बाअज़ हिंदू जाना और मूरतों के दर्शन करना और बाअज़ रस्मी बातों का अदा करना ज़रूरी और मूजिब सवाब ख़याल करते हैं।

इस फ़र्ज़ हज मुहम्मदी के इबादती दस्तुरात अजीब ख़यालात से मुरक्कब हैं और बहुत कुछ हिंदूओं के ख़यालात के मुवाफ़िक़ मालूम होते हैं, जिनका दर्ज करना बा सबब तवालत छोड़ा गया। चुनान्चे उन की पूरी कैफ़ीयत किताब अक़ाइद इस्लामीया तर्जुमा मौलवी मुहम्मद शफ़क़त-उल्लाह हमीदी सफ़ा 247 से 255 तक और किताब तहक़ीक़-उल-ईमान मुसन्निफ़ पादरी मौलवी इमाद-उद्दीन साहब एतराज़ चहारुम सफ़ा 112 में दर्ज है।

मगर ताअलीमे इन्जील किसी ख़ास जगह को इबादत इलाही के वास्ते मख़्सूस नहीं ठहराती बल्कि हर जगह जहां इन्सान उस की मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ अमल करे क़ुर्बत-ए-इलाही हासिल कर सकता है। चुनान्चे इन्जील यूहन्ना 4:19-24 तक मज़्कूर है, “औरत ने उस से (मसीह से) कहा ऐ ख़ुदावंद मुझे मालूम होता है कि आप नबी हैं हमारे बाप दादों ने इस पहाड़ पर परस्तिश की और तुम (यहूदी) कहते हो कि वो जगह जहां परस्तिश करनी चाहिए, यरूशलेम में है। येसू ने उस से कहा, कि “ऐ औरत मेरी बात का यक़ीन रख कि वो घड़ी आती है कि जिसमें तुम ना तो इस पहाड़ पर और ना यरूशलेम में बाप की परस्तिश करोगे तुम उस की जिसे नहीं जानते हो परस्तिश करते हो। हम उस की जिसे जानते हैं परस्तिश करते हैं क्योंकि नजात यहूदीयों में से है। पर वो घड़ी आती बल्कि अभी है, कि जिसमें सच्चे परस्तार रूह व रास्ती से बाप की परस्तिश करेंगे। क्योंकि बाप भी अपने परस्तारों को चाहता है कि ऐसे होएं। ख़ुदा रूह है और उस के परस्तारों को फ़र्ज़ है, कि रूह व रास्ती से परस्तिश करें।”

पस याद करो अल्लाह को खड़े या बैठे

पस अब इस रुहानी तरीक़ा इबादत-ए-इलाही को छोड़कर जो उस की ऐन मर्ज़ी और सिफ़ात के मुवाफ़िक़ है। जिसकी तश्बीह व अलामतें अहकामात-ए-तौरेत में क़ौम यहूद पर ज़ाहिर की गईं। जो सिर्फ जिस्मानी ख़यालात पर मबनी थीं कौन फ़र्ज़ ख़याल कर सकता है? मगर सिर्फ वही जो जिस्मानी तबीयत रखता हो और रुहानी ताअलीम-ए-इन्जील से अपनी आँखें बंद करले। जैसा लिखा है, “मगर नफ़्सानी आदमी ख़ुदा की रूह की बातें क़ुबूल करता कि वो उस के आगे बेवक़ूफ़ीयाँ हैं और ना उन्हें जान सकता है। क्योंकि वो रुहानी तौर पर बूझी जाती हैं।” (1 कुरिन्थियों 2:15)

(10) (झूट बोलना) किताब हिदायत-उल-मुस्लिमीन के सफ़ा 31 में यूं दर्ज है, “कि ये लोग मुहम्मदी ख़ुदा की राह में झूट बोलना सवाब जानते हैं। चुनान्चे सूरह साफ़्फ़ात रुकूअ 3 की (88) आयत قَنَظَر نَظَرۃ فی النُجوم के नीचे अब्दुल क़ादिर के सातवें फ़ायदा में लिखा है कि अल्लाह की राह में झूट बोलना अज़ाब नहीं बल्कि सवाब है।”

हिंदू भी “दीदा व दानिस्ता (जान-बूझ कर) रहम की नज़र से झूट बोलने में स्वर्ग (जन्नत) से नहीं गिरता। और इस की बानी मनु वग़ैरह देवता की बानी के बराबर समझते हैं। जहां सच्च बोलने से ब्रहमन, क्षत्री, देश, शूद्र क़त्ल होता हो। वहां झूट बोलना सच्च से भी अच्छा है।” शास्त्र मनु अध़्याय 8, श्लोक 103, 104

मगर ताअलीम बाइबल दीदा व दानिस्ता (जान-बूझ कर) किसी हालत में झूट बोलने की मुतलक़ परवाह (इजाज़त, हुक्म) नहीं देती है बल्कि हर हालत में झूट बोलने पर मुन्दरिजा ज़ैल फ़त्वा (शरई हुक्म) ज़ाहिर करती है यानी “वो जो दग़ाबाज़ है मेरे घर में हरगिज़ ना रह सकेगा और झूट बोलने वाला मेरी नज़र में ना ठहरेगा।” (ज़बूर 101:7) “झूटे लबों से ख़ुदावन्द को नफ़रत है। पर वो जो रास्ती से काम रखते हैं उस की ख़ुशी हैं।” (अम्साल 12:22) “सारे झूटों का हिस्सा उसी झील में होगा जो आग और गंधक से जलती है।” (मुकाशफ़ा 21:8) “ऐ ख़ुदावन्द तेरे ख़ेमे में कौन रहेगा और तेरे कोह मुक़द्दस पर कौन सुकूनत करेगा। वो जो सीधी चाल चलता, और सदाक़त के काम करता है। और दिल से सच्च बोलता है।” (ज़बूर 15:1, 2)

(11) (नमाज़ की बाबत) क़ुरआन में मज़्कूर है, “मुहाफ़िज़त करो ऊपर नमाज़ों के और नमाज़ बीच वाली पर यानी अस्र और खड़े हो वास्ते अल्लाह के चुपके।” (सूरह अल-बक़रह रुकूअ 31) “पस जब तमाम कर चुको नमाज़ को। पस याद करो अल्लाह को खड़े या बैठे और ऊपर करवटों अपनी के। पस जब आराम पाओ पस तुम सीधी करो नमाज़ को। तहक़ीक़ नमाज़ है ऊपर मुसलमानों के लगे हुए वक़्त मुक़र्रर किए हुए।” (सूरह अल-निसा रुकूअ 15)

हिंदू भी बाअज़ वक़्त संध्या पूजा करना बेहतर समझते हैं। चुनान्चे शास्त्र मनु में मज़्कूर है, “प्राथ काल (फ़ज्र) गायत्री का जप करता रहे जब एक सूरज का दर्शन ना हो और इसी तरह सायंकाल (शाम) में जब तक तारे ना दिखलाई दें। प्राथ काल (फ़ज्र) की संध्या करने से रात का पाप छूट जाता है। और साएँ काल की संध्या करने से दिन का पाप छूट जाता है। जो आदमी दोनों वक़्त की संध्या नहीं करता वो शूद्र की तरह दोज करम से बाहर हो जाता है।” (अध्याय 2 श्लोक 101 से 103 तक)

कलाम-ए-ख़ुदा बाइबल से ज़ाहिर है कि नमाज़ करने का दस्तूर क़दीम से चला आता है। यहूदी भी नमाज़ करना ज़रूरी समझते थे। चुनान्चे ज़बूर 95:6 में मज़्कूर है, “आओ हम सज्दा करें और झुकें और अपने पैदा करने वाले ख़ुदावन्द के हुज़ूर घुटने टैकें।” इन्जील-ए-मुक़द्दस में भी मज़्कूर है कि, “और जब तू दुआ मांगे रियाकारों की मानिंद मत हो। क्योंकि वो इबादत ख़ानों में और रास्तों के कोनों पर खड़े हो के दुआ मांगने को दोस्त रखते हैं, ताकि लोग उन्हें देखें। मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि वो अपना बदला पा चुके। लेकिन जब तू दुआ मांगे अपनी कोठरी में जा और अपना दरवाज़ा बंद कर के अपने बाप से जो पोशीदगी में है दुआ मांग। और तेरा बाप जो पोशीदगी में देखता है ज़ाहिर मैं तुझे बदला देगा और जब दुआ मांगते हो ग़ैर-क़ौमों की मानिंद बेफ़ाइदा बक-बक मत करो। क्योंकि वो समझते हैं कि ज़्यादा गोई (बहुत बोलना) से उनकी सुनी जाएगी।” (मत्ती 6:5-7) फिर रसूल फ़रमाता है, “दुआ मांगने में मशग़ूल और इस में शुक्रगुज़ारी के साथ होशियार रहो।” (कुलिस्सियों 4:2) पस इसलिए मसीही लोग भी दुआओं नमाज़ों में अक्सर मशग़ूल रहते हैं क्योंकि ज़रूरी बात है।

बेशक मुहम्मदी नमाज़ का ये क़ायदा कि जमाअत के बहुत से लोग फ़राहम हो कर दुआ या नमाज़ करते हैं। एक उम्दा और अहले-किताब के मुवाफ़िक़ क़ायदा है। मगर उन की नमाज़ का मंशा वही है जो हिंदूओं का है यानी नमाज़ों के ज़रीये आदमी नेक बने और गुनाह (पाप) से छूट जाये या सवाब हासिल करे पर मसीही नमाज़ों का ये मंशा नहीं है। बल्कि ये कि आदमी पहले नेक हो या बने ताकि ख़ुदा की शुक्रगुज़ारी अदा कर सके और उस के साथ दुआ में हम-कलाम हो कर ख़ुशी हासिल करे। पस मुहम्मदी हिंदूओं की नमाज़ें इन्सान के पाक होने और सवाब पाने का एक ज़रीया ख़याल की जाती हैं। मगर मसीही नमाज़ें नजात याफ्ताह लोगों की शुक्रगुज़ारी समझी जाती हैं, जो ज़रूरी है।

12 (बहिश्त (जन्नत) की बाबत) क़ुरआन में मज़्कूर है, “और ख़ुशख़बरी दे उन लोगों को कि ईमान लाए और काम किए अच्छे। ये कि वास्ते उन के बहिश्त (जन्नत) में चलती मय नीचे उन के लिए नहरें।” (सूरह अल-बक़रह रुकूअ 3) मगर बंदे अल्लाह के ख़ालिस किए गए ये लोग वास्ते उन के रिज़्क़ है मालूम मेवे और वो इज़्ज़त दिए जाऐंगे बीच बाग़ों नेअमत के ऊपर तख़्तों के आमने सामने फिर आया जाएगा ऊपर उन के पियाला शराब लतीफ़ (पाकीज़ा, लज़ीज़) का। सफ़ैद मज़ा देने वाली पीने वालों को। ना बीच उस के ख़राबी है और ना वो इस से बेहुदा कहेंगे और नज़्दीक उनके बैठी होंगी नीचे रखने वालियाँ ख़ूबसूरत आँखों वालियाँ गोया कि वो अंडे हैं छुपाए हुए।” (सूरह साफ़्फ़ात रुकूअ 2)

पस बहिश्त (जन्नत) की बाबत ऐसा ही कम व बेश ज़िक्र क़रीबन 28 या 29 जगह क़ुरआन में मज़्कूर है। मगर किसी आयात बहिश्ती में कहीं ये मज़्कूर नहीं है कि बहिश्त (जन्नत) में ख़ुदा उन के साथ होगा और मोमिनीन उस के चेहरे पर नज़र करेंगे और उस की सताइश व तारीफ़ में अबद-उल-आबाद मशग़ूल (मसरूफ़) रह कर लासानी ख़ुशी हासिल करेंगे।

हिन्दुओं के ख़याल के मुवाफ़िक़ परलोक का आनंद (राहत) सिर्फ ये है कि आदमी अपनी भूल व भरम से छूट कर जिसका नतीजा करम के समान आवागवन में हासिल करता रहता है। ज्ञान (इल्म, दानिश) हासिल कर के  “सब जानदारों में आत्मा के वसीले से आत्मा को देखता है और समदर्शी हो कर बड़ी ब्रहम पद-दिति को पाता है।” (शास्त्र मनू अध्याय 12, श्लोक 125) यानी परमेश्वर में लीन (वस्ल) हो जाता है और बस।

मगर इन्जील-ए-मुक़द्दस में इस पाक बहिश्त और उस की लासानी ख़ुशी की बाबत लिखा है कि ख़ुदा ने अपने मोहब्बतों (मुहब्बत करने वाले, दोस्त) के लिए वो चीज़ें तैयार कीं, “जो ना आँखों ने देखी। ना कानों ने सुनी। और ना आदमी के दिल में आई। बल्कि ख़ुदा ने अपनी रूह के वसीले हम पर ज़ाहिर किया।” (1 कुरिन्थियों 2:9) जिसकी ख़्वाहिश में उस के सच्चे मोमिनीन मरने तक मुस्तइद रहते हैं। (मुकाशफ़ा 4:10) यूं ज़ाहिर किया। “येसू ने जवाब में उनसे कहा तुम नविश्तों और ख़ुदा की क़ुद्रत को ना जान कर ग़लती करते हो क्योंकि क़ियामत में लोग ना ब्याह करते ना ब्याहे जाते हैं। बल्कि आस्मान पर ख़ुदा के फ़रिश्तों की मानिंद हैं।” (मत्ती 23:29, 30)

1. बहिश्त में ख़ुदा अपने मुकदसों के साथ सुकूनत करेगा। (मुकाशफ़ा 21:3)

2. बहिश्तियों की ख़ुशी। (मुकाशफ़ा 7:16-17 और 21:4, 25)

3. बहिश्तियों का कारोबार, उस के चेहरे पर निगाह रखना। (मुकाशफ़ा 22:4) और अबद-उल-आबाद उस की सताइश व तारीफ़ करना। (मुकाशफ़ा 4:10, 11 और 19:6)

हरसिह मज़ाहिब की ताअलीम बहिश्ती मज़्कूर बाला की बाबत नाज़रीन ख़ुद इन्साफ़ करें, कि कौन सी ताअलीम अक़्लन व नक़्लन इन्सानी दर्जा और ख़ुदा की शान के मुवाफ़िक़ ज़ाहिर होती है। क्या वो जिसमें सिर्फ नफ़्सानी ख़यालात मौजूद हैं। जो बग़ैर जिस्म उस क़ुद्दूस के हुज़ूर में मह्ज़ बेमतलब और उस की क़ुद्दुसियत के ख़िलाफ़ हैं। या वो जिसमें अपने ख़ालिक़ क़ादिर-ए-मुतलक़ के अंदर वस्ल (मुलाक़ात, हिजर की ज़िद, माशूक़ से मिलना) हो जाना। जो इन्सान के लिए मुहाल बल्कि उन होना है। “चह निस्बत ख़ाक राबआलम पाक” मगर हाँ वो जिसमें हमेशा उस के हुज़ूर हाज़िर रह कर अबद-उल-आबाद उस की तारीफ़ करना असली व सच्ची ख़ुशी ज़ाहिर होती है। (बाक़ी आइन्दा)

एक बड़ा बख़्शिंदा

किसी शख़्स को उस की मेहनत की उज्रत देना बख़्शिश नहीं है। पर बिला मेहनत और काम के किसी को कुछ देना बख़्शिश है। दुनिया में लोगों को उन की मुलाज़मत, ख़िदमत और मज़दूरी का हक़ मिलता है। लेकिन बाअज़ साहिबे दौलत किसी अपने होशियार और मेहनती कारिंदे (मज़दूर, काम करने वाले) को कभी-कभी कुछ बख़्शिश भी दिया करते हैं और अगरचे वो भी उस की उम्दा ख़िदमत

A Great Saviour

एक बड़ा बख़्शिंदा

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Sep 14, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 14 सितम्बर 1894 ई॰

किसी शख़्स को उस की मेहनत की उज्रत देना बख़्शिश नहीं है। पर बिला मेहनत और काम के किसी को कुछ देना बख़्शिश है। दुनिया में लोगों को उन की मुलाज़मत, ख़िदमत और मज़दूरी का हक़ मिलता है। लेकिन बाअज़ साहिबे दौलत किसी अपने होशियार और मेहनती कारिंदे (मज़दूर, काम करने वाले) को कभी-कभी कुछ बख़्शिश भी दिया करते हैं और अगरचे वो भी उस की उम्दा ख़िदमत के सबब से ही होती है। लेकिन फिर भी वो बख़्शिश कनिंदा की ख़ुश-नूदी मिज़ाज (दिली ख़ुशी) और मेहरबानी का इज़्हार है। जिसका पाने वाले को कोई हक़ नहीं होता। फिर अगर किसी नेक ख़िदमत के एवज़ में और नमक हलाली और दियानतदारी के बदले में एक आक़ा अपने ख़ादिम को इलावा उस की उज्रत और मेहनत के कुछ देता है और बख़्शिश कनिंदा (बख़्शिश देने वाला) कहलाता है। तो क्या वो बिला मेहनत और मशक़्क़त के आप जैसे नावाक़िफ़ लोगों को बड़ी-बड़ी अजीब व ग़रीब आस्मानी और रुहानी बरकतें इनायत करे तो वो बड़ा बख्शिंदा (बख्शने वाला) ना होगा?

अब मैं नाज़रीन से इस बड़े बख्शिन्दा की बख़्शिशों का मुख़्तसर बयान अर्ज़ करना चाहता हूँ। ये भी याद रखना चाहिए कि ये बड़ा बख्शिन्दा अपनी बख्शिश-ए-आम दुनिया के तमाम बाशिंदों को देना चाहता है। किसी क़ौम या ज़ात या दर्जे के लिए कोई ख़ुसूसीयत नहीं है। वो बड़ा बख्शिन्दा ख़ुदावंद येसू मसीह इब्ने-अल्लाह और इब्ने-आदम है। जो 1900 बरस से रहमत और बख़्शिश का दरवाज़ा खोले हुए सबको सिर्फ एक आसान सी शर्त के क़ुबूल कर लेने से बरकतों पर बरकतें देता है। वो शर्त सिर्फ़ ईमान है। वो चाहता है, कि बेकस लाचार और गुम-गश्ता (खोया हुआ, भुला हुआ) गुनेहगार उस से मुफ़्त में इलाही नेअमतें पाएं। उस की बख़्शिश में ज़ेल की बड़ी-बड़ी बातें शामिल हैं।

वो बहुतों के लिए अपनी जान फ़िद्या में देता है।
  1. वो बहुतों के लिए अपनी जान फ़िद्या में देता है। मत्ती बाब 20 आयत 28 बल्कि हर एक गुनेहगार रसूल की तरह पर कह सकता है कि उसने अपने आप को मेरे बदले दे दिया। नामा ग़लतीयों 2 बाब 20 आयत ये कैसी अजीब बख़्शिश है? ऐ नाज़रीन अगर आप ज़रा सोचो तो इस अजीब बख़्शिश की अशद ज़रूरत को आप मालूम कर लोगे। गुनेहगार बा सबब अपने गुनाहों की सज़ा और अज़ाबे अबदी का मुस्तजिब (सज़ावार) हो चुका है। अगर वो ख़ुद उस सज़ा को उठाए, तो हलाक हो जाये लेकिन गुनेहगार का ऊज़ी (मुआवज़ा, बदला) हो कर येसू मसीह अपनी जान देकर फिर ज़िंदा हुआ। और गुनाह की सज़ा को ख़ुद सह लिया। और ख़ुदा के अदल को पूरा कर दिया। और रहमत इलाही का दरवाज़ा गुनेहगार के लिए खोल दिया। जिसके ज़रीये से गुनेहगार मौत और अज़ाब से बचता है और हमेशा की ज़िंदगी पाता है।
  2. दूसरी बख़्शिश जो ये बख़्शिश कनिंदा देता है दिली आराम है। मत्ती 21 बाब 28 आयत। गुनाह के साथ बे आरामी और बेचैनी है। जब कि मसीह ने अपनी जान दे दी, और गुनाह की सज़ा उठाई। तो गुनेहगार को सज़ा का अंदेशा और धड़का (डर, ख़ौफ़) ना रहा। बल्कि दिली तसल्ली और इत्मीनान उस को हासिल हुआ।
  3. वो अपनी सलामती देता है। जब कि इस बख़्शिश कनिंदा ने गुनाह की सज़ा उठाई और आराम दिया तो फिर अब सलामती है ख़तरा जाता रहा। आस्मानी और रुहानी बरकतें और नेअमतें गुनेहगार को मिलेंगी और फिर कोई ख़ौफ़ उस पर ना आएगा बल्कि उस के तमाम दुश्मन दूर व दफ़ाअ हो जाऐंगे। और वह सलामती में आ जाएगा।
  4. फिर वो अपने ईमानदारों को हयात-ए-अबदी और हमेशा की ज़िंदगी की बख़्शिश देता है। यूहन्ना 1 बाब 28 आयत
  5. वो उन को ज़िंदा पानी देता है। यूहन्ना 4 बाब 10 आयत बल्कि वो ज़िंदगी के पानी का चश्मा देता है। मुकाशफ़ात 31 बाब 6 आयत।
  6. वो अपने ईमानदारों को जलाल की बख़्शिश देगा। जो कभी जाता ना रहेगा। यूहन्ना 17 बाब 22 आयत।

मुन्दरिजा बाला तमाम रुहानी बख़्शिश ये बड़ा बख्शिन्दा येसू मसीह गुनेहगारों को देता है। अब अगर कोई गुनेहगार चाहे कैसा ही बड़ा गुनेहगार क्यों ना हो नजात और आस्मानी बरकतें चाहे, तो मसीह के पास आए। और वो ये तमाम बरकतें मुफ़्त में पाएगा।

मिर्ज़ा की पैशन गोई और अब्दुल्लाह आथम

लो एडीटर साहब। यारों का भी टोटख़ा-ए-क़ियाफ़ा ज़रा गोश-ए-दिल (बड़ी तवज्जोह) से से सुन लीजिए। नऊज़-बिल्लाह (अल्लाह की पनाह) ! मिर्ज़ा साहब को सूली की तो क्या सूझी होगी और मुरम्मत व तज्दीद (दुरुस्ती व नयापन) इस्लाम अगर सूझेगी, तो अपने बेटरे और अपने अंसार की ज़रूर सूझेगी कि अब कौनसी करवट हिक्मत की बदलें। और सिम्ते तावील अस्मा अहमद اسمہ احمد पर नया हाशिया चड़हाएं कि जिससे उनका हाथ दुम्बे के दुम्बे पर रहे और घर का आटा भी बना है।

Mirza’s Prediction And Abdullah Atham

मिर्ज़ा की पैशन गोई और अब्दुल्लाह आथम

By

Golkhnath
गोलख नाथ

Published in Nur-i-Afshan Sep 14, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 14 सितम्बर 1894 ई॰

अजी ऐडीटर साहब जब मैं आलम-ए-ख़्वाब से बेदार (जागना) हुआ, तो क्या देखता हूँ कि मुजद्दिद (तजदीद करने वाला) क़ादियानी इल्हामी ने तमाम आलम को मसनद-ए-इब्ने-अल्लाह (ख़ुदा के बेटे की कुर्सी) पर जलूस फ़र्मा कर और आयत कुरानी اسمہ ُاحمد की तावील (बचाओ दलील) अपने ऊपर मन्सूब (निस्बत किया गया) कर के शशदरो हैरान (हक्का बका) कर छोड़ा है। और اُکمَلتَلکم دينکم و ہاتممت عليکم نعمتیا आंहज़रत का वज़ीफ़ा है और आपकी क़ियाफ़ाशनासी (चेहरा बुशरा देखकर आदमी का किरदार मालूम करना) व पेशीन गोइयों का चर्चा वबा-ए-आलमगीर (दुनिया में फैली हुई बीमारी) की तरह शहरा आफ़ाक़ (मशहूर आलम) हो रहा है। और कुल बनी-नूअ ने डिप्टी अब्दुल्लाह आथम को अपने तीरे निगाह (निगाह के तीर) का हदफ़ (निशाना) बना रखा है, कि आँहज़रत की बददुआ व नीज़ आपके अंसार (मददगार) के कोसने से वो तख़्ता ज़मीन से मादूम (नेस्त किया गया) किए जाऐंगे या कि क़ादियानी इल्हाम गधे के सींग की तरह उड़ जाएगा। या बक़ौल वाक़िया ना ख़ुद उन की फांसी का दिन आ पहुंचेगा। ना मालूम कि अंधे को अंधेरे में क्या सूझी?

लो एडीटर साहब। यारों का भी टोटख़ा-ए-क़ियाफ़ा ज़रा गोश-ए-दिल (बड़ी तवज्जोह) से से सुन लीजिए। नऊज़-बिल्लाह (अल्लाह की पनाह) ! मिर्ज़ा साहब को सूली की तो क्या सूझी होगी और मुरम्मत व तज्दीद (दुरुस्ती व नयापन) इस्लाम अगर सूझेगी, तो अपने बेटरे और अपने अंसार की ज़रूर सूझेगी कि अब कौनसी करवट हिक्मत की बदलें। और सिम्ते तावील अस्मा अहमद اسمہ احمد पर नया हाशिया चड़हाएं कि जिससे उनका हाथ दुम्बे के दुम्बे पर रहे और घर का आटा भी बना है।

दोम, वो कश्ती हज़रत क़ादियानी जिसकी तामीर ब-वक़्ते तूफ़ान ज़लालत (गुमराही, तबाही) आग़ाज़ थी और बशारते सवारी (ख़ुश-ख़बरी की सवारी) अपने मुरीदों को बहालत मुराक़बा (ख़ुदा का ध्यान करना) तवज्जोह से सुना रहे थे। अब वो कश्ती ना-मुकम्मल ही नहीं रही बल्कि उस के पुर्जे़ गिर्दाबे अदम (पानी का चक्कर की गैर-हाज़िरी) में कुल अदम (नापैद, ख़त्म) हो गए जिसकी बदनामी का धब्बा आपके चेहरा अनवर पर तायौमे नश्वर (रोज़ क़ियामत) जाकर रहेगा। भला साहब। आँहज़रत का पहला ही इल्हाम ना था। (ऐसे इल्हाम तो पेश्तर हज़ार-हा मुख़्तलिफ़ा अश्ख़ास की निस्बत आपकी ज़बान गौहर फ़िशां (फ़ायदा पहुंचाने वाली) से जल्वा-अफ़रोज़ (ख़ास अंदाज़ से ज़ाहिर होना) होते रहे हैं।) बजाय इस के कि आप मक्का मुअज़्ज़मा में जा कर इमाम मह्दी की चंदे तक़्लीद (पैरवी) कर के बमूजब अक़ाइद इस्लाम ब-पहलूए हज़रत मुहम्मद मदफ़ून (दफ़न) हों। नदामत व ज़लालत (शर्मिंदगी, गुमराही) के भंवर (पानी का चक्कर) में ख़ुद ग़र्क़ होंगे। क्यों ना हो साहिबे शर्म हैं।

डिप्टी अब्दुल्लाह आथम साहब का ऐसे मौक़े पर ज़िंदा रहना मिन-जानिबे ख़ुदा था। ताकि इस मुबाहिसे का ख़ास नतीजा व सिदक़ व किज़्ब (सच्च व इलज़ाम) मुतनाज़ा फिया मज़ाहिब (मज़ाहिब का झगड़ा) का आफ़्ताब आलमताब की तरह रोशन हो जाऐंगे। अल-हम्दु-लिल्लाह ऐसा ही हुआ बल्कि बाअज़ अफ़नख़ास ख़ानदानी ताअलीम याफ्तह मुताल्लिक़ा मुबाहिसा मुहम्मदियत व अहमदियत को तर्क कर के मुशर्रफ़ व मुम्ताज़ (मुअज़्ज़िज़ व नामवर) बमज़्हब मसीहिय्यत व क़ुद्दुसियत हो गए। और मसीहीयों की बुर्दबारी व इन्किसारी (तहम्मुल व आजज़ी) इन माअहूदा अय्याम (मशहूर व मुक़र्रर अय्याम) में ख़ूब नुमायां हुई। भला क्यों ना हो ये तो आदी हैं। अगर दीगर मज़ाहिब की तरह होते, तो ज़रूर अदालत से चारा-जुई (फ़र्याद) करते और कामयाब होते और मिर्ज़ा साहब अपने किए की सज़ा पाते। फिर क़ैदीयों को जा कर अपना इल्हाम सुनाते। लेकिन वहां भी मुँह की खाते और डांवां डोल फिरते। ख़ैर मफ़ा मामज़ी, अब हम सब मसीही मिर्ज़ा साहब के वास्ते ये दुआ करते हैं। कि ऐ ख़ुदा उन की आँखें खोल और उन को तौबा की तौफ़ीक़ अता फ़र्मा। ताकि तेरी तरफ़ रुजू ला कर तेरे गल्ले में शामिल हो कर हमेशा की ज़िंदगी और बरकत हासिल करें और बजाय फ़र्ज़ी और मस्नूई (खुदसाख्ता) इल्हाम के हक़ीक़ी इल्हाम व इर्फ़ान को हासिल करें।

सुम्मा आमीन

आज ये नविश्ता तुम्हारे सामने पूरा हुआ

उन्नीस सौ बरस के क़रीब गुज़रते हैं कि फ़िक़्रह मुन्दरिजा उन्वान शहर नासरत के इबादतखाने में बरोज़ सबत येसू नासरी की ज़बान-ए-मुबारक से यहूदी जमाअत परस्तारान (परस्तिश करने वाले) के रूबरू निकला था। जिसके हक़ में राक़िम ज़बूर (ज़बूर लिखने वाला) ने लिखा कि “तू हुस्न में बनी-आदम से कहीं ज़्यादा है। तेरे होंटों में लुत्फ़ बिठाया गया है। इसी लिए ख़ुदा ने तुझको अबद तक मु

Today This Scrpiture Is Fulfilled In Your Hearing

आज ये नविश्ता तुम्हारे सामने पूरा हुआ

लूक़ा 4:21

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Sep 14, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 14 सितम्बर 1894 ई॰

उन्नीस सौ बरस के क़रीब गुज़रते हैं कि फ़िक़्रह मुन्दरिजा उन्वान शहर नासरत के इबादतखाने में बरोज़ सबत येसू नासरी की ज़बान-ए-मुबारक से यहूदी जमाअत परस्तारान (परस्तिश करने वाले) के रूबरू निकला था। जिसके हक़ में राक़िम ज़बूर (ज़बूर लिखने वाला) ने लिखा कि “तू हुस्न में बनी-आदम से कहीं ज़्यादा है। तेरे होंटों में लुत्फ़ बिठाया गया है। इसी लिए ख़ुदा ने तुझको अबद तक मुबारक किया।” ये कैसा अजीब मंज़र था कि वो जो हैकल का ख़ुदावन्द था नासरत के इबादतखाने में एक मुश्ताक़ व हमा तन गोश (पूरी तवज्जोह से मुंतज़िर) यहूदी जमाअत को यसअयाह नबी की किताब खोल कर इस मुक़ाम को, जिसमें सात सौ बरस पहले वो बातें जो उस के हक़ में मुन्दरज की गई थीं, निकाल कर ब-आवाज़-ए-बुलंद सुनाता कि “ख़ुदावन्द की रूह मुझ पर है। उस ने इसलिए मुझे मसह किया, कि ग़रीबों को ख़ुशख़बरी दूँ। मुझको भेजा, कि टूटे दिलों को दुरुस्त करूँ। क़ैदीयों को छूटने और अँधों को देखने की ख़बर सुनाऊँ। और जो बैट्रीयों से घायल (ज़ख़्मी) हैं उन्हें छुड़ाऊं और ख़ुदावन्द के साल मक़्बूल की मुनादी करूँ।” और फिर किताब को बंद कर के और ख़ादिम को देकर ये कह कर बैठ जाता है, “आज ये नविश्ता जो तुमने सुना पूरा हुआ।” और तमाम हाज़िरीने इबादत ख़ाना बड़े ताज्जुब व हैरानी के साथ उस को तक रहे हैं और बे-इख़्तियार उन फ़ज़्ल की बातों पर गवाही दे के आपस में हैरान हो कर कह रहे हैं कि “ये बातें उसने कहाँ से पाईं? और ये क्या हिक्मत है, जो उसे मिली है।”

इस नज़ारे का ख़याल कर के हम बेसाख्ता ये कहने पर मज्बूर होते हैं कि अह्दे-अतीक़ में जो आने वाले मसीह मौऊद (वाअदा किया हुआ) का एक मुकम्मल हुल्या था और जिसमें उस के ख़त व ख़ाल और सूरत-ए-हाल का निहायत मुफ़स्सिल (तफ़्सीली) बयान अम्बिया ए वाजिब-उल-एहतराम (क़ाबिल-ए-इज़्ज़त) ने कलमबंद कर दिया था। अगर वो मुताबिक़ अस्ल ना होता या वो इस को मुहरफ़ व मन्सूख़ (तब्दील व ख़ारिज) ठहरा कर मतरूक-उल-तिलावत (तिलावत तर्क करना) और ग़ैर ज़रूरी समझता तो वोह आज के दिन तक एक ऐसा सर बमहर दफ़्तर (बंद कर के मुहर लगाया हुआ) रहता कि ना कोई यहूदी और ना ग़ैर-यहूदी जान सकता है कि वो क्यों लिखा गया और उस का असली मक़्सद व मतलब क्या है। लेकिन मसीह ने इन इल्हामी नविश्तों को अपने दस्ते मुबारक में लेकर और ख़ुद पढ़ कर साबित कर दिया कि ये नविश्ते फ़िल-हक़ीक़त वही हैं, जो इस पर गवाही देते हैं, कि “वो जो आने वाला था यही है।”

अब हम इस मंज़र-ए-अजीब के ख़िलाफ़ एक दूसरे मंज़र के नक़्शे पर ग़ौर करते और देखते हैं कि एक अरबी मुद्दई नबुव्वत (नबुव्वत का दावा करने वाला) जिसने कुतुब अह्दे-अतीक़ के मिन जानिब अल्लाह (ख़ुदा की तरफ़ से होना) होने पर गवाही दी और उन्हें हिदायत और नूर बख़्शने वाली किताबें बताया और مُصد قاً لما معھم उन की निस्बत कहा, एक जगह खड़ा हुआ है। और उस के अस्हाब व अहबाब उस के गर्द हलक़ा किए हुए मूओद्दब इस्तादा (अदब से खड़े हैं) हैं। कि इतने में एक ज़ी रुत्बा (बुलंद रुतबा) सहाबी तौरेत के औराक़ हाथ में लिए हुए वहां पहुंचता। और बाआवाज़ बुलंद हाज़िरीन को पढ़ कर सुनाता। जिसको सुन सुन कर मुद्दई-ए-नबुव्वत का रंग चेहरा मुतग़य्यर (चेहरा का रंग बदलना) हुआ जाता और वो उस को हुक्म देता, कि इस किताब को ना पढ़।” लेकिन वो पढ़ने से बाज़ नहीं आता। और ये देखकर दूसरा सहाबी पढ़ने वाले को मलामत (बुरा भला कहना) कर के वो औराक़ उस के हाथ से छीन लेता है। नाज़रीन क्या आप इन दोनों मंज़रों में आस्मान व ज़मीन का फ़र्क़ नहीं देखते? और ख़ुद अपने लिए अक़्ल-ए-सलीम (अक़्लमंदी) को काम में ला कर दुरुस्त नतीजा नहीं निकाल सकते? कि क्यों ये नाज़री बाइत्मीनान व ख़ुशदिली कुतुब अह्दे-अतीक़ को ख़ुद हाथ में लेकर पढ़ता। और सामईन (सुनने वाले) को सुनाता। और हुक्म देता कि “नविश्तों में ढूंडते हो। क्योंकि तुम गुमान (ख़याल) करते हो, कि उन में तुम्हारे लिए हमेशा की ज़िंदगी है और ये वही हैं जो मुझ पर गवाही देते हैं।” और अरबी का रंग चेहरा किताब मुक़द्दस को सुन कर क्यों मुतग़य्यर (तब्दील होना) होता। और वो उस के पढ़ने की क्यों मुमानिअत (मना करना) करता है।

मसीहिय्यत दरवेशी नहीं है

ये अक्सर कहा गया है, कि अगर मसीही मज़्हब दरवेशाना तौर से इस मुल्क में रिवाज दिया जाता, तो लोग इस को जल्द क़ुबूल कर लेते। इस ख़याल की वजह ये है, कि शुरू से हिन्दुस्तान के बाशिंदे दरवेशाना ज़िंदगी को एक आला तरीन ज़िंदगी तसव्वुर करते आए हैं। वो समझते हैं कि आबादी में रह कर आदमी रूहानियत में तरक़्क़ी नहीं कर सकता, कि हादीए दीन (दीनी रहनुमा) को ज़रूर ही ता

Christinaity is not Mysticism

मसीहिय्यत दरवेशी नहीं है

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan June 1, 1894

नूर-अफ्शाँ मत्बूआ 1 जून 1894 ई॰

ये अक्सर कहा गया है, कि अगर मसीही मज़्हब दरवेशाना तौर से इस मुल्क में रिवाज दिया जाता, तो लोग इस को जल्द क़ुबूल कर लेते। इस ख़याल की वजह ये है, कि शुरू से हिन्दुस्तान के बाशिंदे दरवेशाना ज़िंदगी को एक आला तरीन ज़िंदगी तसव्वुर करते आए हैं। वो समझते हैं कि आबादी में रह कर आदमी रूहानियत में तरक़्क़ी नहीं कर सकता, कि हादीए दीन (दीनी रहनुमा) को ज़रूर ही तारिक-उल-दुनिया (दुनिया को छोड़ना) होना चाहीए। और दुनिया के कारोबार, और ख़ानगी (घरेलू) मुआमलात से मुताल्लिक़ ताल्लुक़ ना रखना चाहीए। बल्कि किसी जंगल या ब्याबान में जा कर रहना, और तन्हा हो कर ध्यान और इबादत में ज़िंदगी बसर करना मुनासिब है। इसी ख़याल से ये गुमान किया गया है। कि इस तौर या तरीक़े से मसीही मज़्हब इस मुल्क में फैलाया जाता, तो यहां के बाशिंदों को मसीही मज़्हब के क़ुबूल करने के लिए बड़ी कशिश होती। क्योंकि हिंदूओं का यही ख़याल है, कि दुनिया के कारोबार में मशग़ूल रह कर आदमी रूहानियत में तरक़्क़ी नहीं सकता।

इस के जवाब में ये कहा जाता है, कि अगरचे वो तौर या तरीक़ा लोगों की कशिश का बाइस ठहरता, मगर वो क़तअन मसीही मज़्हब के उसूल के ख़िलाफ़ है। ख़ुदा ने अपनी ख़ालिस सच्चाई यूं ज़ाहिर की है, कि आदमी अपने मामूली कारोबार में मशग़ूल रह कर उस की इबादत कर सकता। और अपने हम-जिंसों के लिए बरकत का ज़रीया ठहर सकता। वो मज़्हब जो सिर्फ अपने ही लिए हो मिन-जानिब इलाह नहीं हो सकता। क्योंकि ख़ुदा ने हमें इस दुनिया में इसलिए रखा है, कि हमसे दूसरों को फ़ायदा पहुंचे। पस जबकि इंतिज़ाम इलाही इस तरह है कि हमारे हम-जिंसों की निस्बत जो फ़राइज़ हमारे ताल्लुक़ किए गए हैं, हमें उन्हें अंजाम को पहुंचाना है। तो उन फ़राइज़ को छोड़कर जंगल या ब्याबान को निकल जाना और किसी दूसरे को फ़ायदा ना पहुंचाना, गोया अपने हम-जिंसों का क़सूर करना, और ख़ुदा के हुज़ूर भी गुनेहगार ठहरना है। मसीही मज़्हब की ये ख़ूबी है कि इस के मुवाफ़िक़ चल कर आदमी कारोबार कर सकता, दिल में ख़ुदा की कुर्बत (नज़दीकी) हासिल कर सकता, और इस गुनाह आलूदा दुनिया में औरों को फ़ायदा पहुंचा है।

आला तरीन रुहानी ज़िंदगी ये नहीं है, कि आदमी आबादी को छोड़कर जंगल को भाग जाये। बल्कि ये है, कि दुनिया में रह कर ईमान की अच्छी लड़ाई लड़े। ख़ुदा का फ़ज़्ल हासिल कर के मुश्किलों और इम्तहानों पर ग़ालिब आए। अपने हम-जिंसों को फ़ायदा पहुंचाए। रोज़ बरोज़ रुहानी बरकात में ग़नी (दौलतमंद) होता जाये। और मुहब्बत के तक़ाज़े से ख़ुदा की ख़िदमत करे। (अज़ मिनहज़न मसीही)

मर्क़ुस 16 बाब

“बरअक्स इस के जो ईमान लाएँगे उनके साथ अलामतें होंगी, कि वो मेरे नाम से देवों (बद रूहों) को निकालेंगे और नई ज़बान बोलेंगे, साँपों को उठा लेंगे, और अगर कोई हलाक करने वाली चीज़ पियेंगे उन्हें कुछ नुक़्सान ना होगा। वो बीमारों पर हाथ रखेंगे तो चंगे हो जाऐंगे।”

Mark Chapter 16

मर्क़ुस 16 बाब

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan May 25, 1894

नूर-अफ्शाँ मत्बूआ 25 मई 1894 ई॰

“बरअक्स इस के जो ईमान लाएँगे उनके साथ अलामतें होंगी, कि वो मेरे नाम से देवों (बद रूहों) को निकालेंगे और नई ज़बान बोलेंगे, साँपों को उठा लेंगे, और अगर कोई हलाक करने वाली चीज़ पियेंगे उन्हें कुछ नुक़्सान ना होगा। वो बीमारों पर हाथ रखेंगे तो चंगे हो जाऐंगे।”

अब इन बातों का ये मतलब नहीं है, कि हर एक ईमान लाने वाले शख़्स में ये सब बातें पाई जाएँगी बल्कि ये कि किसी में देवओं के निकालने की ताक़त, और किसी में बीमारों को अच्छा करने की क़ुव्वत, और किसी में साँपों के उठा लेने की क़ुद्रत और किसी में नई ज़बानों के बोलने की लियाक़त (क़ाबिलीयत) और कोई ऐसा भी है जिसमें दो या तीन बातें पाई जाती हैं। देवओं का निकालना, ज़बान भी बोलना, बीमार को हाथ रखकर चंगा करना तो ये ईमान की ख़ूबी है। जैसा जिसका ईमान है वैसा ही क़ुद्रत व क़ुव्वत उस को इनायत होती है। और ये बातें मसीह ने अपने बारह शागिर्दों से फरमाईं। क्या उन्हों ने ऐसी क़ुद्रत नहीं दिखाई? ज़रूर दिखाई चुनान्चे इन्जील में ज़ाहिर है। और क्या बारह रसूलों के सिवा और शागिर्दों ने ऐसी करामातें (अनोखापन) नहीं दिखाईं? देखो आमाल 16_18 और क्या नई ज़बानें शागिर्दों ने नहीं बोलीं? (आमाल 10_46) क्या पौलुस ने साँप को नहीं उठाया? फिर ये शैतान से भी एक मिसाल है कि शैतान और उस के फ़रज़न्दों को उठा कर फेंक दिया। (आमाल 28_5) और क्या बीमारों को चंगा नहीं किया? (आमाल 28:8-9) ये सब मसीह के बाद हुआ। क्योंकि मसीह ने आने वाले ज़माने की बाबत कहा था, कि जो ईमान लाएँगे, ऐसा करेंगे। और क्या इस ज़माने में ऐसा नहीं होता है? ज़रूर जैसा जिसका ईमान होता है, वैसा ही उस के लिए ज़हूर में आता है। इन्सान में जो शैतान देव (बद रूह) सुकूनत करता है, जिससे वो उस का ग़ुलाम बन जाता है। उस को मसीह की मुनादी कर के दूर कर देते हैं। और मसीह की तरफ़ फ़िराते और ख़ुदा का बंदा बनाते हैं। क्योंकि मसीह ने यूं नहीं फ़रमाया, कि देवओं को उसी वक़्त दूर करेंगे बल्कि यूं फ़रमाया, कि ऐसा करेंगे। ऐसा ही पौलुस की बाबत और दूसरे शागिर्दों की बाबत भी फ़रमाया, अब हमको ये मालूम नहीं होता कि उन्हों उसी वक़्त शैतान को दूर किया, और बीमारों को भी एक दम चंगा किया, अगर फ़र्ज़ करो कि एक दम, या उसी वक़्त दूर किया तो उनका ईमान पूरा था। जैसा उनका ईमान मसीह के ऊपर पूरा था वैसा ही उन्हों ने किया। और अब जैसा ईमान मसीह पर है वैसा ही होता है। मगर तो ज़रूर हैं क्या अब ईमानदार मसीह के नाम से बीमारों को चंगा नहीं करते? ज़रूर करते हैं उनके लिए दुआ मांगा करते, और उन के पास जाकर उन पर दुआ व बरकत का हाथ रखते, और ख़ुदा के फ़ज़्ल से बीमार चंगे हो जाते हैं। और क्या शैतान यानी साँप को अपने पास से उठा कर फेंक नहीं देते हैं? जब उन के पास शैतान आता और बुरे ख़याल उन के दिल में डालता, और ख़ुदा की याद से ग़ाफ़िल करता तो वो उसे उठा कर अपने से दूर फेंक देते हैं। और क्या नई ज़बान यानी फ़रिश्तों की ज़बान नहीं बोलते हैं जो कभी सुनी ना थी? दर-हक़ीक़त पहले तो हम शैतानी ज़बान बोलते थे मगर अब मसीह के ऊपर ईमान ला ने से और उस के नाम से नई ज़बान बोलते थे और पाक बातें अपनी ज़बान या मुंह से निकाते और यसूअ नासरी और क़ुद्दूस क़ुद्दूस पुकारते, और रूहानी गीत और ग़ज़लें गाते, और अंग्रेज़ी टोन और हिन्दुस्तानी में उसकी हम्दसराई करते हैं।

क्या ख़ुदा इन्सानी क़ुर्बानी से ख़ुश है?

नाज़रीन ने पढ़ा होगा कि दर नेवला पूना में क्योंकर एक हिंदू ने अपने हमसाये की लड़की को देवता के आगे बलि (क़ुर्बानी) दे दिया। और अब वो अदालत में ज़ेर मुवाख़िज़ा (जवाबतल) है। बनारस में भी, जो अहले हनूद का मुक़द्दस व मुतबर्रिक शहर है। इसी तरह एक लड़के को चंद हिंदूओं ने बलि चढ़ा दिया था, जिसकी पादाश (सिला, बदला) में दो शख्सों को फांसी दी गई। हम चाहते हैं कि थोड़ी

Is the scrifice of Human being please God?

क्या ख़ुदा इन्सानी क़ुर्बानी से ख़ुश है?

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan June 22, 1894

नूर-अफ्शाँ मत्बूआ 22 जून 1894 ई॰

नाज़रीन ने पढ़ा होगा कि दर नेवला पूना में क्योंकर एक हिंदू ने अपने हमसाये की लड़की को देवता के आगे बलि (क़ुर्बानी) दे दिया। और अब वो अदालत में ज़ेर मुवाख़िज़ा (जवाबतल) है। बनारस में भी, जो अहले हनूद का मुक़द्दस व मुतबर्रिक शहर है। इसी तरह एक लड़के को चंद हिंदूओं ने बलि चढ़ा दिया था, जिसकी पादाश (सिला, बदला) में दो शख्सों को फांसी दी गई। हम चाहते हैं कि थोड़ी देर के लिए सवाल मुन्दरिजा उन्वान पर इस वक़्त मज़्हब और सरकारी नज़र से ग़ौर करें, कि इन्सान की क़ुर्बानी उन की रू से कैसी है। और उस के जवाज़ (क़ानूनी मंज़ूरी) अदम जवाज़ (ना मंज़ूरी) पर क्या अक़्ली व नक़्ली दलाईल पेश की जा सकती हैं। इस में शक नहीं, कि क़ुर्बानी गुज़रानना या बलि चढ़ाना मज़्हबी दस्तुरात में सबसे ज़्यादा क़दीम, और एक आलमगीर दस्तूर है। जो हर एक मज़्हब में किसी ना किसी तरीक़ पर अमलन माना जाता है।

मज़्हबी नज़र से ग़ौर करने में सिर्फ इन्सानी क़ुर्बानी ख़ुदा को मक़्बूल और पसंदीदा मालूम होती। और अगर क़ुर्बानी या बलि देने से गुनेहगार और ख़ताकार इन्सान के लिए अपना कोई कफ़्फ़ारा या बदला देना मक़्सूद है, तो इन्सान ही इन्सान का बदला हो सकता है। और अक़्ल भी इस को क़ुबूल करती है। क्योंकि ये अजीब बात होगी, कि इन्सान गुनाह करे, और अपने बदले हैवान (जानवर) को बलि देकर इलाही रजामंदी व माफ़ी हासिल करे। इस में शक नहीं कि “बदन की हयात लहू में है।” और इन्सान और हैवान दोनों का लहू सुर्ख़-रंग है। लेकिन हाँ हैवानी हयात और ज़ाहिरी रंग और सूरत से मुराद नहीं है। तमाम दुनिया के हैवानात और लहू इन्सानी रूह व जिस्म के हम-क़ीमत व हमक़द्र नहीं हो सकते। अलबत्ता इन्सानी रूह व जिस्म, इन्सानी रूह व जिस्म के साथ हम-क़ीमत व हमक़द्र हैं। पस ज़रूर है कि इन्सान के बदले इन्सानी क़ुर्बानी या बलि ही ख़ुदा की नज़र में मक़्बूल व पसंदीदा फ़िद्या, और ख़ताकार इन्सान के लिए ज़रीया इलाही रजामंदी और मूजिब हुसूल-ए-नजात अबदी हो। इब्राहिम से इज़्हाक़ को क़ुर्बानी के लिए तलब करना कोई फ़ुज़ूल और बेमाअनी अम्र ख़ुदा तआला की तरफ़ से ना था। बल्कि इस में यही इशारा था कि आदम ने इलाही हुक्म उदूली की, वो वाजिब-उल-क़त्ल है। उस का बदला इन्सानी लहू ही हो सकता है, और बस। सवाल हो सकता है, कि बिलफ़र्ज़ इज़्हाक़ का ज़बीहा फ़िलवाक़े गुज़रना गया होता, तो क्या वो बनी-आदम के गुनाहों का कफ़्फ़ारा और बदला हो सकता? हम ये जवाब कह सकते हैं, कि हरगिज़ नहीं। बल्कि उस हुक्म से ये ज़हन नशीन कराना कि “जान के बदले जान।” मक़्सूद था। और इस ताअलीम पर इब्राहिम के कामिल ईमान की आज़माईश थी, कि वो इन्सानी क़ुर्बानी की क़द्र व क़ीमत पहचान कर उस मुबारक नस्ल मौऊद पर अपना भरोसा और उम्मीद रखे, कि वो “इस लायक़ है।, कि उस किताब को ले। और उस की मोहरें तोड़े, क्योंकि वो ज़ब्ह हुआ। और अपने लहू से हमको हर एक फ़िर्क़े, और अहले ज़बान और मुल्क, और क़ौम से अपने ख़ुदा के वास्ते मोल लिया।

ताज्जुब नहीं, कि ये क़दीम ख़याल इन्सानी तबाईअ (तबइयत की जमा) में जागज़ीन (पसंदीदा) होने से बाअज़ अक़्वाम में इन्सानी क़ुर्बानी ज़्यादा अज़मत व इज़्ज़त के लायक़ मक़्सूद हो कर गुज़रानी गई हैं। और हिन्दुवों में अब भी वक़्तन-फ़-वक़्तन उस का ज़हूर कहीं ना कहीं हो जाता है। अब अगर कोई मोअतरिज़ (एतराज़ करने वाला) हो, कि दर हाल ये कि इन्सानी क़ुर्बानी मज़्हबन जारी है, तो क्यों उस के आमिल (अमल करने वाले) मुजरिम-ए-सरकार और सज़ावार मौत ठहरते हैं?, तो जवाब यही है, कि वो बेऐब इन्सानी क़ुर्बानी जो ख़ताकार बनी-आदम के लिए मतलूब (तलब करना थी) गुज़र चुकी, और अब किसी गुनाह आलूदा इन्सानी क़ुर्बानी का गुज़राँना अपने हम-जिंस का ख़ून करना है, क्योंकि “सभों ने गुनाह किया, और ख़ुदा के जलाल से महरूम हैं।”

ईसाई मज़्हब का फल

ग़ैर-विलायतों में, अव़्वल मुल्क यहूदिया में, इस मज़्हब की बिना मह्ज़ मुहब्बत और हिल्म (नर्मी, फिरोतनी) पर रखी गई है। इस के बानी ने जबकि वो इस छोटे से मुल्क में ज़ाहिर हुआ अवाम की बेहतरी और बहबूदी के दरपे हो कर अपने आराम का ख़याल ना कर के मुहब्बत की राह से हर तरह से औरों के आराम देने के ख़याल में मशग़ूल रहा। और मुहब्बत की कशिश से पहले बारह शागिर्द बनाए।

Fruit of Christian Religion

ईसाई मज़्हब का फल

By

J. S
जे॰ ऐस॰

Published in Nur-i-Afshan May 11, 1894

नूर-अफ्शाँ मत्बूआ 11 मई 1894 ई॰

ग़ैर-विलायतों में, अव़्वल मुल्क यहूदिया में, इस मज़्हब की बिना मह्ज़ मुहब्बत और हिल्म (नर्मी, फिरोतनी) पर रखी गई है। इस के बानी ने जबकि वो इस छोटे से मुल्क में ज़ाहिर हुआ अवाम की बेहतरी और बहबूदी के दरपे हो कर अपने आराम का ख़याल ना कर के मुहब्बत की राह से हर तरह से औरों के आराम देने के ख़याल में मशग़ूल रहा। और मुहब्बत की कशिश से पहले बारह शागिर्द बनाए।

और फिर और भी उसकी अजीब मुहब्बत और उम्दा ताअलीम देख और सुन कर उस पर ईमान ले आए और वो ख़ुद एक गुमनाम और ग़रीबी की हालत में था और अपने शागिर्द भी मछेरे और कम-क़द्र लोग चुने। लेकिन बावजूद ऐसी बातों के वो इस क़द्र दिलेर और ईमानदार हो गए कि उन्हों ने तमाम दुनिया को अपनी ताअलीम से भर दिया। अजीब व ग़रीब करिश्मे उन से ज़ाहिर हुए। उन की चाल व चलन रफ़्तार व गुफ़तार (चाल चलन व तौर तरीक़ा) आला दर्जे के और बेलौस हो गए। हत्ता कि उन्हों में से अक्सरों ने अपनी जानों को भी अज़ीज़ ना जाना। और अपने नफ़ा और फ़ायदे के तमाम कामों को छोड़कर दूसरों की जानों की नजात के लिए मुतफ़क्किर हो कर हर तरह की सऊबतें व तकलीफ़ें (मुश्किलें) जिनका उन को सामना पड़ा सब्र से बर्दाश्त करते थे। और बहुत उन में से शहीद हो गए। और उन के बाद भी मसीही इस मुल्क में ऐसे ही सरगर्म और मज़्बूत हुए, जिन्हों ने अपनी जानें निसार कर डालीं। और इस मुल्क से निकल कर और मुल्कों में बशारत फैलाई। और नजात की बरकत-ए-अज़ीम दूसरों तक पहुंचाई। यूरोप के लोगों ने भी इस ख़ुशख़बरी को क़ुबूल कर लिया। और जब से उन्हों ने इस को क़ुबूल किया उसी वक़्त से उन्हें हर सूरत से तब्दीली वाक़ेअ हुई। और उन में ईसाई मज़्हब का फल ज़ाहिर हुआ, कि मसीही मुहब्बत ने उन के दिलों को इन्सानी हम्दर्दी से भर दिया और उन्हों ने दूसरे मुल्कों में कलाम पहुंचाया। मुल्क अमरीका में भी ये कलाम फैल गया और उस दिन से नुमायां तरक़्क़ी हर अम्र में हुई। और वो लोग ख़ुद इस से मुस्तफ़ीज़ (फ़ैज़याब हुए) हुए। और वहां से दूसरे मुल्कों में ख़ुशख़बरी पहुंचाने का सबब हुए। मुल्क हिन्दुस्तान में इस मुल्क की हालत बा सबब बुत-परस्ती और बातिल परस्ती के निहायत अबतर (निहायत बुरी) हो रही थी। गोया कि ये मुल़्क नीम-वहशी हो रहा था। हिन्दुवों में कैसे-कैसे बुरे दस्तुरात फैले हुए थे। और ऐसे ही मुसलमानों में। लेकिन मसीही मज़्हब ने उन के नाजायज़ होने को बख़ूबी वाज़ेह कर दिखलाया। और अपनी सदाक़त का सबूत ऐसी उम्दगी और सफ़ाई के साथ दिया कि तमाम मुख़ालिफ़-ए-मसीही मज़्हब की अफ़्ज़ल और आला ताअलीमात से दंग और हैरान हैं। पर अफ़्सोस कि बावजूद इस के, कि क़ाइल होते और मान लेते हैं। मगर तो भी बग़ावत का झंडा खड़ा रखते और मसीहीयों की मुख़ालिफ़त और मसीही मज़्हब की निस्बत कलिमात नाजायज़ बोलने और तहरीर करने से मुताल्लिक़ दरेग़ नहीं करते। पर ये भी देखा जाता है कि अक्सर औक़ात जब कभी इत्तिफ़ाक़ पड़ता है तो ख़्वाह-मख़्वाह अच्छे-अच्छे ताअलीम-ए-याफ्ता लोगों की ज़बानों से बे-तक्लीफ़ निकल जाता है कि “इन्जील की ताअलीम उम्दा है, और यसूअ मसीह अच्छे पुरुष (आदमी) थे।” और जिन लोगों ने सच्चे दिल से मसीही मज़्हब को इख़्तियार किया है उन में मसीही मज़्हब का फल अच्छी तरह से ज़ाहिर होता है। उन की चाल चलन रफ़्तार व गुफ़तार साफ़ तौर से वाज़ेह करती है कि वो इस मज़्हब की ताअलीमात से मोअस्सर हो कर उस के फ़ाइदों से मुस्तफ़ीज़ हुए हैं। मुन्दरिजा ज़ैल फ़ायदे सच्चे मसीहीयों को दीन-ए-ईस्वी से पहुंचे हैं,

1. बुत-परस्ती से बच कर ख़ुदापरस्त बन गए।

2. वहमात (वहम की जमा) परस्ती और हर तरह के बुरे शुगून और बुरी रसूमात को मानने से छूट गए हैं।

3. फ़ुज़ूल अख़राजात (खर्चे) से बच गए हैं।

4. दीगर मज़ाहिब वाले हर क़िस्म के कामों में बा सबब बुत-परस्ती और बातिल ख़यालात के ज़र कसीर (बहुत रुपया) ख़र्च करते हैं लेकिन मसीही किसी क़िस्म की ऐसी फ़ुज़ूल कारवाई को रवा नहीं रखते।

5. दिली आराम और तसल्ली पाते हैं जो अक्सर दीनदार मसीहीयों की वफ़ात के वक़्त मुशाहिदे में आ चुकी है। और मौत से गुज़र कर ज़िंदगी में दाख़िल हुए हैं।

6. और आइन्दा आलमे बका में हमेशा की ज़िंदगी और तमाम नेअमतें आस्मानी और रुहानी उन को मिलेंगी जिनसे दीगर अक़्वाम महरूम रहेंगी।

पस जब इस दरख़्त में क़ायम होने से इतने फ़ायदे मिलते हैं तो क्यों इस में पैवंद (जुड़ना) ना हों? काश कि लोग ग़फ़लत की नींद से जागें और झूटे मज़ाहिब को कि जिनकी पैरवी करने से कुछ हासिल नहीं छोड़ दें और सच्चे मज़्हब में क़ायम हो कर मेवादार शाख़ बनें। ताकि आख़िरकार शर्मिंदा ना हों बल्कि दीन व दुनिया दोनों में इकबालमंद हों और हमेशा की ज़िंदगी के वारिस हो जाएं।

राक़िम

जे ऐस

साईंस और मसीहिय्यत

ये सवाल फ़ी ज़माना निहायत गौरतलब है। हमारे लोकल हम-अस्र सियोल ऐंड मिल्ट्री न्यूज़ के ख़याल में तो साईंस और उलूम-ए-जदीदा की तरक़्क़ी मसीहिय्यत को ना सिर्फ सदमा पहुंचा सकती है बल्कि बड़ा सदमा पहुंचाया है। वो लिखता है कि “फ़्रांस और अमरीका में 90 फ़ीसद आदमी ऐसे मिलेंगे जो तस्लीस के मुअतक़िद (मानने वाले) नहीं हैं और बाइबल को इल्हामी किताब नहीं मानते” और

Science and Christianity

साईंस और मसीहिय्यत

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan June 15, 1894

नूर-अफ्शाँ मत्बूआ 15 जून 1894 ई॰

ये सवाल फ़ी ज़माना निहायत गौरतलब है। हमारे लोकल हम-अस्र सियोल ऐंड मिल्ट्री न्यूज़ के ख़याल में तो साईंस और उलूम-ए-जदीदा की तरक़्क़ी मसीहिय्यत को ना सिर्फ सदमा पहुंचा सकती है बल्कि बड़ा सदमा पहुंचाया है। वो लिखता है कि “फ़्रांस और अमरीका में 90 फ़ीसद आदमी ऐसे मिलेंगे जो तस्लीस के मुअतक़िद (मानने वाले) नहीं हैं और बाइबल को इल्हामी किताब नहीं मानते” और अपने ख़याल के सबूत में लिखता है कि इंग्लिस्तान में भी जहां मुतव्वल (दौलतमन्द) और ख़ुश एतिक़ाद ईसाई इशाअते मज़्हब के लिए फ़य्याज़ी का नमूना दिखलाते थे, अब रोज़ बरोज़ ऐसे शख्सों की तादाद कम हो रही है। चुनान्चे अक्सर मिशनरी सोसाइटियां माली मुश्किलात में मुब्तिला हो जाती हैं। गुज़श्ता साल चर्च आफ़ इंग्लैण्ड मिशन के फ़ंड में पिछले साल की निस्बत 15 हज़ार पौंड कम आमदनी हुई। लंडन मिशनरी सोसाइटी के ख़ज़ाने में 33 हज़ार पौंड। और वस्लईन मिशनरी सोसाइटी के फ़ंड में 60 हज़ार पौंड बप्टिस्ट मिशनरी सोसाइटी की आमदनी में 14 हज़ार पौंड का घाटा था। इन माली मुश्किलात ने ना सिर्फ इसी क़द्र मसीही मज़्हब को सदमा पहुंचाया है, बल्कि हम-अस्र मौसूफ़ इस उम्मीद में मसरूर मालूम होता है, कि ज़र की कमी जो बावजह तरक़्क़ी साईंस यूरोप व अमरीका में बे-एतिक़ादी पैदा होने से वाक़ेअ होगी। वो मसीहिय्यत को सफ़ा-ए-दुनिया से नेस्त व नाबूद कर देगी। ग़ालिबन इस ने मसीही कलीसिया की तवारीख़ को नहीं पढ़ा वर्ना उस को मालूम होता, कि मसीहिय्यत चंदाँ (इस क़द्र) मुहताज-ए-ज़र (पैसे की मुहताज) नहीं है। और वो उस के क़दमों से लगा हुआ है वो ग़रीब व बे-ज़र लोगों से दुनिया में फैली और बढ़ी। और उस के वाइज़ीन अव्वलीन मुफ़लिस व नादार लोगों में से थे। लिखा है कि पतरस ने एक मादरज़ाद (पैदाइशी) लंगड़े को जो कुछ पाने की उम्मीद में था चंगा करने से पहले ये कहा “सोना चांदी मेरे पास नहीं। पर जो मेरे पास है तुझे देता हूँ। यसूअ नासरी के नाम उठ और चल।” मसीहिय्यत रुपये की नहीं, बल्कि रुपया मसीहिय्यत का है। “चांदी मेरी है और सोना मेरा है रब-उल-अफ़्वाज फ़रमाता है।” (हज्जी 2:8) हमारा हम-अस्र बाअज़ मिशनरी सोसाइटियों की कम आमदनी से मुतफ़क्किर (फ़िक्रमंद) ना हो। क्योंकि ऐसा अक्सर हुआ है और होता रहेगा, कि एक की कमी को दूसरे की मसीही सख़ावत पूरा कर देती है। मसीही कलीसिया अपने क़ियाम व तरक़्क़ी के लिए किसी दुनियावी फ़ानी शैय की दस्त-ए-निगर (ज़रूरतमंद) नहीं है। और अपना कामिल भरोसा अपने आस्मानी बाप के वादों पर रखती है, जो उस की इक़बालमंदी और ग़लबे की निस्बत किए गए हैं।

ऐ बेटी सुन ले और सोच और अपने कान इधर धर। और अपने लोगों और अपने बाप के घर को भूल जा। ताकि बादशाह तेरे जमाल का मुश्ताक़ हो, कि वो तेरा ख़ुदावन्द है। तू उसे सज्दा कर। और सूर की बेटी हदिए लाएगी। क़ौम के दौलतमंद तेरी ख़ुशामद करेंगे। (ज़बूर 25:10, 11, 12)

फिर साईंस और उलूम जदीदा की तरक़्क़ी व इशाअत से भी मसीहिय्यत को कुछ सदमा पहुँचेगा अंदेशा मुतलक (बिल्कुल) नहीं है। बल्कि वो उन्हें अपने फ़रमांबर्दार ख़ादिम क़ुबूल कर के ये शुक्रगुज़ारी उन की ख़िदमात से फ़ायदा हासिल करेगी। जैसा कि ज़माना-ए-हाल के एक मुस्तनद व नामवर आलिम अल-गुज़ींडर मिस्टर डी॰ डी॰ ने लिखा है कि “मसीहिय्यत ने इल्म तबई की सेहतों को ख़ुद अपने, और अपनी ख़िदमत के लिए मन्सूब करने, और नई और असली तहक़ीक़ात के साथ अपने इलाक़े को ठीक करने में कभी कोई मुश्किल दर पेश नहीं पाई। और ये इस साफ़ वजह से हुआ कि वो हक़ बातें थीं। बहुत से ईसाई टोलमक के पुराने निज़ाम-ए-शम्सी की शिकस्त पर, जिसके मुताबिक़ ज़मीन आलम का मर्कज़ क़रार दी गई थी, ख़ौफ़ज़दा हुए। इस हक़ीक़त का बयान करना ज़रूर नहीं कि, कोपरनिकन, जिसने इस सच्ची साइंटिफिक राय को सोचा, ख़ुद एक मज़्हबी, और निहायत फ़रोतन ईमानदार शख़्स था। और हम दिलजमई से कह सकते हैं कि उन दिनों में कोई होशियार ईसाई कोपरनिकन की राय को क़ुबूल करने में कोई मुश्किल नहीं पाता है। जबकि इल्मे तर्कीब ज़मीन के आलिमों ने ज़मीन की क़दामत मए (साथ) उस की कसीर नबाती और हैवानी किस्मों के साबित करनी शुरू की, तो बहुत ख़ौफ़ और बिद्अत की पुकार बे-लिहाज़ी से हुई थी। लेकिन अब कोई सही-उल-मिज़ाज ईसाई ज़मीन की क़दामत की हक़ीक़त को क़ुबूल करने, और इस बात को ज़ाहिर करने के लिए इल्म का शुक्रगुज़ार होने में कोई अज़ीम मुश्किल नहीं पाता है। और ऐसा ही बर्ताव साईंस के सही इज़्हारात के साथ जहां वो रिवायती इल्म इलाही की रायों के साथ टक्कर खायँगे आइन्दा ज़माने में होगा। ख़्वाह वो इब्तिदा में कैसे ही इज़तिराब (बेचैनी) का बाइस हों। मसीही दीन जल्द अपने को उनके साथ ठीक बनाने के क़ाबिल होगा। और ईसाईयों को असली सच्चाई ज़ाहिर करने के लिए, और ख़ुदा की पैदा करने वाली दानाई का कामिलतर और साफ़ इज़्हार बख़्शने के लिए इल्म तबई के शुक्रगुज़ार होने का माक़ूल (मुनासिब) सबब होगा।

बनज़र इस सब के जो बयान किया गया है। फ़िक्रमंद दिल को ये साफ़ ज़ाहिर होगा कि, कोई ज़रूरत इस हरारत माइल अंधे, और नामुनासिब ख़ौफ़ की नहीं है। जो अक्सर ईसाईयों पर साईंस की वजह से क़ाबिज़ होता, और उन्हें मुज़्तरिब करता है। इल्म तबई ना तो इस सच्चे मज़्हब का दुश्मन है, और ना हक़ीक़त में हो सकता है। ज़्यादातर बनिस्बत उस के कि, इल्मे तर्कीब ज़मीन इल्मे रियाज़ी व हिंदसा का दुश्मन हो सके या निज़ाम-ए-शम्सी। मैंटल फ़िलोसफ़ी या मुलकी किफ़ायत-शिआरी का दुश्मन हो सके। ना सच्चा इल्म तबई कभी सच्चे मज़्हब को नुक़्सान पहुंचा सकता है। और ऐसे ख़याल से इस के बर-ख़िलाफ़ एक अंधा धुंद ख़ौफ़ और दुश्मनी रखना वाजिब है। ऐसा करना मसीही दीन में एतिक़ाद पर नहीं, लेकिन उस में एतिक़ाद की कमी पर। हाँ सच्चाई और सच्चाई के ख़ुदा में एतिक़ाद की एक कमी पर दलालत (सबूत, हिदायत) करता है। अल-मुख़्तसर साईंस का अंधा धुंद ख़ौफ़ सिर्फ़ ख़ुदा से बे-एतिक़ाद होना, और बेईमानी की एक सूरत है।

ज़िंदा ख़ुतूत की ज़रूरत

इस में कोई कलाम नहीं, कि मौजूदा सदी इल्म व हुनर की तरक़्क़ियात की सदी है। लेकिन शायद जिस क़द्र छापे की कुल (मशीन) ने शाइस्ता ममालिक में पांव फैलाए हैं। और सब कलें (मशीन की जमा) मिला कर इस से निस्फ़ काम नहीं करतीं। बल्कि ये कहना कुछ ग़लत ना होगा, कि इस ज़माने में तहरीरी कार्रवाई अपनी जायज़ हदूद से तजावुज़ कर के बहुत कुछ अमली कोशिशों पर ग़लबा

Need of Living Epistles

ज़िंदा ख़ुतूत की ज़रूरत

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan May 4, 1894

नूर-अफ्शाँ मत्बूआ 4 मई 1894 ई॰

इस में कोई कलाम नहीं, कि मौजूदा सदी इल्म व हुनर की तरक़्क़ियात की सदी है। लेकिन शायद जिस क़द्र छापे की कुल (मशीन) ने शाइस्ता ममालिक में पांव फैलाए हैं। और सब कलें (मशीन की जमा) मिला कर इस से निस्फ़ काम नहीं करतीं। बल्कि ये कहना कुछ ग़लत ना होगा, कि इस ज़माने में तहरीरी कार्रवाई अपनी जायज़ हदूद से तजावुज़ कर के बहुत कुछ अमली कोशिशों पर ग़लबा पा गई है। इस तिलस्माती चर्ख़ा के ईजाद से पेश्तर जो काम ज़िंदा इन्सानों से लिया जाता था, अब उस का दारोमदार काग़ज़ और रोशनाई (स्याही) पर मौक़ूफ़ है। अगर उन्नीस सदीयां पेश्तर मसीहीयों का मोटो  और देख था, तो आज के दिन पढ़ और जांच है। पढ़ना दुनिया की जहालत और तारीकी को दूर करने का उम्दा वसीला है। लेकिन अव़्वल तो सब पढ़े लिखे नहीं। दोम अंदेशा है कि सब ग़ौर से नहीं पढ़ते और फिर पढ़ कर ख़यालात को परखना भी तो हर एक का काम नहीं। इस से ज़ाहिर है कि लाखों अख़बारात और किताबें छाप कर दुनिया में तक़्सीम कर देना मसीही मज़्हब को फैलाने का बेहतरीन तरीक़ा नहीं है। पढ़ने वाले बहुत कुछ पढ़ चुके हैं। और इस से उन की प्यास नहीं बुझी। अब इस अम्र की ज़रूरत बाक़ी है कि हर एक मसीही ऐसा ज़िंदा ख़त हो, जिसको अवाम सफ़ाई से पढ़ सकें। अगर हिन्दुस्तान या दीगर ममालिक में मसीही मज़्हब ख़ातिर-ख़्वाह तरक़्क़ी नहीं करता तो इस का ये मतलब नहीं कि यहां इन्जील की जिल्दें या दीनी कुतब कमयाब (कमी होना) हैं। बल्कि ये कि यहां मसीह के ख़त जो स्याही से नहीं, बल्कि ज़िंदा ख़ुदा की रूह से लिखे गए नमूदार नहीं हैं। इस वक़्त मसीही मुसन्निफ़ों या उन की तसानीफ़ के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहना चाहता और ना उस ख़ुदादाद (ख़ुदा की दी हुई) जलील ख़िदमत को हक़ीर समझता हूँ लेकिन मैं ज़िंदा और अमली मसिहिय्यत को किताबी और दिमाग़ी मसिहिय्यत पर ज़रूर तर्जीह देता हूँ। हर एक शख़्स ज़रा ग़ौर करने से इस अम्र को बख़ूबी समझ सकता है कि अफ़आल की आवाज़ अक़्वाल से किस क़द्र बुलंद है। आग की तस्वीर में हरारत मौजूद नहीं हो सकती ख़्वाह उसको माअनी और बह्ज़ाद ने खींचा हो या एंजलो और रफ़ाईल ने उम्र-भर रंग आमेज़ी (रंग भरना) की हो? क्या बाइस है कि इब्तिदाई ज़माने के मसीही अपने मिशन में कामयाबी हासिल कर गए। और आजकल बावजूद सिर्फ़ ज़र कसीर (ज़्यादा रुपया होना) के इस क़द्र तरक़्क़ी नज़र नहीं आती? बात ये है कि कामयाबी का राज़ उस ज़िंदा तासीर में मौजूद है जिससे मसीही ख़ुद मुतास्सिर हो कर औरों पर असर कर सकता है और उसको वही समझ सकता है जिसने मसीह की ज़िंदगी में हिस्सा पाया, और उस में क़ायम हो गया हो।

पौलुस रसूल कुरिन्थुस के मसीहीयों को इन्हीं ज़िंदा तासीरों की तरफ़ मुतवज्जोह कर के अमली मसीहिय्यत पर इस्तिदलाल (सबूत देना) करता है। वो फ़रमाता है, कि “फ़रेब ना खाओ। क्योंकि हरामकार और बुत-परस्त, ज़िना करने वाले, अय्याश, लौंडेबाज़, चोर, लालची, शराबी, गाली बकने वाले और लुटेरे ख़ुदा की बादशाहत के वारिस ना होंगे। और बाअज़ तुम्हारे दर्मियान ऐसे थे पर ख़ुदा की रूह से ग़ुस्ल दिलाए गए, और पाक हुए, और रास्तबाज़ भी ठहरे।” 1 कुरिन्थियों 6:9-11 फिर जस्टिन शहीद दूसरी सदी में अपने दूसरे माअज़िरत नामे में शाहाँ रूमा की तरफ़ मुख़ातब हो कर कहता है, कि “हम जो बुरी ख़्वाहिशों के ग़ुलाम थे, अब अख़्लाक़ की पाकीज़गी में ख़ुशी हासिल करते हैं। हमने जादूगरी को तर्क कर के अब अपने आपको अबदी और मेहरबान ख़ुदा की ख़िदमत के लिए मुक़द्दस बनाया है। हम जो सबसे ज़्यादा नफ़ा के तालिब थे। अब अपना सब कुछ फ़ायदा आम के लिए दे देते और हर एक को उस की ज़रूरत के मुताबिक़ बांट देते हैं। हम जो एक दूसरे से नफ़रत करते और क़ातिल थे। और इख्तिलाफ़-ए-रसूम के बाइस ग़ैरों को अपने हाँ आने की इजाज़त नहीं देते थे अब मसीह की आमद के बाइस उन के साथ मिलकर रहते हैं। हम अपने दुश्मनों के लिए दुआ मांगते हैं हम अपने कीनावरों (हसद करने वाले) को सिखाते हैं मसीह की ताअलीम जलील के मुताबिक़ अपनी ज़िंदगी इस तरह काटें कि हमारे साथ ख़ुदा से जो सब का ख़ुदावंद है बरकतें पाने के उम्मीदवार रहें।”

सुब्हान-अल्लाह किस दर्जे की तासीरें हैं जिनसे बड़े-बड़े स्याह दिल ख़ुद मुनव्वर हो कर अपने महदूद हलक़े में अपनी रोशनी चमका गए। जिनके सामने फ़ल्सफ़ा सर बगिरेबां (सोच बिचार की हालत, शर्मिंदा) और ज़ोर-ए-बाज़ू अपना इल्म सर निगों (झंडा झुकाना) किए हैरान व शशदर (हैरान व परेशान) खड़ा है कहते हैं कि इब्तिदाई मसीहीयों में इन तासीरात का कमाल इस दर्जे का था, कि गिर्द व नवाह की बुत-परस्त अक़्वाम उनके तरीक़-ए-मुआशरत को देखकर कहा करती थीं, कि “देखो मसीही एक दूसरे से कैसी मुहब्बत रखते हैं।” और हक़ीक़त में यही वो नया हुक्म है जो उसतादे अज़ीम दुनिया को सिखा गया और जिससे उस के शागिर्द और लोगों से इम्तियाज़ (फ़र्क़) किए जा सकते हैं। देखो यूहन्ना 13:34

मसीही नाज़रीन आप में ये सिफ़त कहाँ तक नुमायां है?

ऑरीजिन 249 ई॰ बेदीन फिलासफर सेलिस्टिस यूं तहरीर करता है, कि “हम में से बाअज़ की ज़िंदगी के हाल दर्याफ़्त करो। हमारे गुज़श्ता और मौजूदा तर्ज़े मुआशरत का मुक़ाबला करो। और तुम्हें फ़ौरन पता लग जाएगा, कि मसीही लोग मौजूदा ताअलीम को क़ुबूल करने से पेश्तर ना रास्तियों और ना पाकियों में कैसे फंसे थे, अब वो कैसे रास्त, संजीदा, परहेज़गार और क़ाइम मिज़ाज हो गए हैं। बाअज़ उन में से पाकीज़गी और नेकियों से इस दर्जे उल्फ़त रखते हैं कि जायज़ ख़ुशीयों से भी किनारा-कश हो गए हैं। जहां कहीं मसीही मज़्हब फैला है ऐसे लोग कस्रत से पाए जाते हैं। भला जिन लोगों ने बहुतेरों को बुराई के गढ़े से निकाल कर परहेज़गारी और नेको कारी में सर्फ़राज़ किया वो क्योंकर किसी तरह से मुल्क के नुक़्सान का बाइस हो सकते हैं। हमने मस्तूरात (औरतें) को बे-हयाई से और अपने खाविंदों (शौहरों) के साथ लड़ाई झगड़ा करने से रोका है। मर्दों को रंगारंग के बेहूदा राग व रंग से बाज़ रखा है और नौजवानों की शहवत को लगाम दी है।”

इसी तरह लक तन्नियुस 306 ई॰ में इन्जील की ज़िंदा तासीरों का ज़िक्र करके यूं लिखता है कि, “इस इलाही हिक्मत की तासीर ऐसी अज़ीम है कि इन्सान के दिल में आते ही सारी जहालत दूर व दफ़ाअ हो जाती है और इस के लिए किसी किताब या ग़ौरो फ़िक्र की ज़रूरत नहीं। अगर कान और दिल हिक्मत के प्यासे हों ये इनाम मुफ़्त बाआसानी और फ़ौरन हासिल हो जाएगा। आख़िर में वो सवाल करता है कि “क्या किसी बुत-परस्त फिलासफर ने भी इस क़िस्म का अज़ीम काम कर के दिखाया है?”

शायद कोई कहेगा कि ये तो अपने मुंह से आप मियां मिट्ठू बनता है लेकिन हम इस जगह बहुत से मुख़ालिफ़ों की शहादतें पेश कर सकते हैं, जिन्होंने ने दूर से इस नूर को देखा मोतरिफ़ (एतराफ़ किया) हुए लेकिन दिल में उसकी ज़िंदगी बख़्श किरनों को आने से रोक रखा। फ़क़त दो एक का ज़िक्र करना काफ़ी होगा।

रूमी शहनशाह जूलियन जो मुर्तद (इस्लाम से निकाला हुआ) और मसीही जमाअत में से रांदा (निकाला हुआ) था एक बुत-परस्त पूजारी की तरफ़ यूं तहरीर करता है, कि “बुत परस्तों के लिए शर्मनाक बात है कि वो अपने हम-मज़्हबों की निस्बत बेपर्वा हैं हालाँकि मसीही लोग अजनबियों और दुश्मनों के साथ नेक सुलूकी करते हैं। रूमी सल्तनत के ज़वाल व शिकस्तगी का मशहूर मुअर्रिख़ गेन अगरचे ख़ुद बेदीन था। लेकिन उस ने रूमी सल्तनत में मसीही रियाया का बयान निहायत ख़ूबी के साथ और बिला तास्सुब किया है। उस का क़ौल है कि “इब्तिदाई मसीही अपनी नेक सिफ़ात के ज़रीये अपने ईमान का इज़्हार करते थे। और उनका ये गुमान सही था, कि इलाही मदद से हमारे फ़हम मुनव्वर और दिल पाक हो जाते हैं और कारोबार में बरकत होती है। इस के बाद वो मसीहीयों में पाकीज़गी, रास्ती, ख़ाकसारी जैसी सिफ़ात की तारीफ़ करता है। नुक़्स उसकी तहरीर में है तो यही है कि वो इन सिफ़ात के अस्बाब बजाय उन के असली सर चश्मे के अख़्लाक़ी इंतिज़ाम व मुल्की हालात में तलाश करता है। आख़िर वो लिखता है कि “इन की यानी मसीहीयों की बाहमी मुहब्बत और एतबार के बेदीन भी मुक़िर (इक़रार करना) हैं। इब्तिदाई मसीहीयों के अख़्लाक़ की निस्बत ये बात निहायत इज़्ज़त की निगाह से देखने के क़ाबिल है। कहा उन के क़सूर जिनको सहव (भूल चूक) कहना बजा है नेकी की ग़ायत (ग़र्ज़) ही से होते हैं इस के बाद मोअर्रिख (तारीख़ लिखने वाला) उन की ख़ुद इंकारी की तारीफ़ करता है।

इसी तरह मुल्क फ़्रांस का मशहूर बेदीन रूसो मसीही ख़ुश-अख़्लाक़ी और ज़िंदगी बख़्श ईमान पर ग़ौर करके यूं तहरीर करता है कि, “अगर सब आदम सच्चे मसीही हों तो हर एक शख़्स अपना फ़र्ज़ अदा करेगा रियाया तो क़वानीन के ताबे होगी। हाकिम रास्तबाज़ और मुंसिफ़ बेदाग़ होंगे सिपाही मौत से ना डरेंगे और मुल्क से ग़ुरूर और ऐश व इशरत जाते रहेंगे।”

मोअज़्ज़ज़ मसीही नाज़रीन जो रूह उन इब्तिदाई मुक़द्दसों में काम करती थी वही अब भी मौजूद है। हम सब मुक़द्दसों के हम-वतन और ख़ुदा के घराने के हैं। सो आओ अपनी बुलाहट के लायक़ चलें और मसीह को अपनी ज़िंदगी में ज़ाहिर करें।