सलामती तुम लोगों के लिए छोड़े जाता हूँ

इस लफ़्ज़ सलाम या सलामती का तर्जुमा बाअज़ मुतर्जिमों ने सुलह या इत्मिनान किया है लेकिन इस से मतलब में कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि इन लफ़्ज़ों के मअनी क़रीब-क़रीब यकसाँ और एक ही मतलब इन से हासिल होता है, यानी ये कि जनाब-ए-मसीह ने अपने रुसूलों को उन से जुदा होने से पेश्तर अपनी सलामती बख़्शी

Peace I leave with you

सलामती तुम लोगों के लिए छोड़े जाता हूँ

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Apr 6, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 6 अप्रैल 1894 ई॰

सलाम तुम लोगों पर छोड़कर जाता हूँ अपनी सलामती मैं तुमको देता हूँ तुम्हारा दिल न घबराए और न डरे। (यूहन्ना 14:27)

इस लफ़्ज़ सलाम या सलामती का तर्जुमा बाअज़ मुतर्जिमों ने सुलह या इत्मिनान किया है लेकिन इस से मतलब में कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि इन लफ़्ज़ों के मअनी क़रीब-क़रीब यकसाँ और एक ही मतलब इन से हासिल होता है, यानी ये कि जनाब-ए-मसीह ने अपने रुसूलों को उन से जुदा होने से पेश्तर अपनी सलामती बख़्शी जब कि वो निहायत मुज़्तरिब (बेक़रार) और घबराए हूए थे, क्योंकि उन्होंने ख़ुदावन्द से सुना था कि उन में से एक उसे क़त्ल के लिए हवाले करेगा और एक उस का इन्कार करेगा और वो सब उस को तन्हा छोड़कर भाग जाऐंगे इसलिए ख़ुदावन्द मसीह ने ये तसल्ली आमेज़ बातें उन से कहीं जो यूहन्ना की इन्जील के चौदहवे बाब से ले कर सोलहवे बाब के आख़िर तक मर्क़ूम हैं। उसने अपने आस्मान पर जाने, तसल्ली देने वाले रूह-उल-क़ुद्दुस के भेजने और अपने फिर दुनिया में आने का उन से वाअ्दा किया बाप से उन के लिए निहायत दिल सोज़ी के साथ दुआ मांगी, उसके नाम की ख़ातिर जो मसाइब और तक्लीफ़ात उन पर गुज़रने वाली थीं इन से उन्हें आगाह किया और फ़रमाया कि “ये बातें मैंने तुम्हें कहीं ताकि तुम मुझमें इत्मिनान पाओ तुम दुनिया में मुसीबत उठाओगे लेकिन ख़ातिरजमा रखो कि मैं दुनिया पर ग़ालिब आया हूँ।”

ये वो ख़ास इत्मिनान व तसल्ली थी जो मसीह ने अपने मोमिनों के लिए अपने बेशक़ीमत कफ़्फ़ारे से हासिल की और जिस पर ईमान लाने के सबब रास्तबाज़ ठहर कर उन में और ख़ुदा में मसीह के वसीले सुलह और मेल क़ायम हो गया। मसीह ने न सिर्फ सुलह या सलामती का लफ़्ज़ सुनाया मगर फ़िल-हक़ीक़त सुलह व सलामती उन्हें बख़्श दी क्योंकि ये उस ने अपनी कमाई से पैदा की थी और ऐसी गिरां बहाशे थी कि दुनिया सिर्फ उसी की मुहताज है और ये सिर्फ़ मसीह ही दे सकता है और कोई नहीं दे सकता। दुनिया की किसी फ़ानी चीज़, दौलत, इज़्ज़त, इल्म, हुक्मरानी, इक़बालमंदी वग़ैरह से इंसान के दिल को हर्गिज़ सलामती व इत्मिनान हासिल नहीं हो सकता और न किसी अमल-ए-नेक से ये मिल सकती है। कितना ही इबादत व रियाज़त, ख़ैर व ख़ैरात और तीर्थ व ज़ियारत कुछ ही करे लेकिन कामिल और ख़ुदा-ए-आदिल व क़ुद्दुस के साथ सुलह और मेल हासिल हो जाने और अपने किसी अमल से भी उस के हुज़ूर में मक़्बूल व रास्तबाज़ ठहरने का यक़ीन दिल में पैदा होना बिल्कुल मुहाल है। हमने एक हिंदू बंगाली औरत को जो उम्र रसीदा थी, पुश्कर के मेले में जो हिंदूओं की बड़ी तीर्थ गाह (मुक़द्दस मुक़ाम नहाने की जगह) है देखा, कि वो सउबत-ए-मुसाफ़त (सफ़र की तक्लीफ़) से थकी हुई मिशन स्कूल के चबूतरे पर बैठी थी, दर्याफ़्त करने से मालूम हुआ कि वो हिन्दुस्तान में जितने हिंदूओं के तीर्थ और मुक़द्दस मुक़ाम हैं सब में हो आई थी और पुश्कर में अस्नान (नहाना) करना गोया उस के लिए सब तीर्थों पर तक्मील की मुहर था। जब उस से सवाल किया गया कि क्या अब तुम्हारे दिल में पूरा यक़ीन और इत्मिनान है कि तुम्हारे सब गुनाह माफ़ हो गए और ख़ुदा के और तुम्हारे दर्मियान सुलह हो गई है? तो उस ने मायूसाना (मायूसी के साथ ये) जवाब दिया कि “इश्वर जाने।” अब ये अम्र क़ाबिल-ए-गोर है कि बावजूद इस क़द्र अपने मज़्हबी फ़राइज़ अदा करने और तीर्थ व यात्रा (नहाना व ज़ियारत करना) करने से भी उस के दिल में इत्मिनान और सुलह व सलामती का कुछ असर न था, वर्ना वो ये हर्गिज़ न कहती कि “इश्वर जाने।” क्या कोई मसीही जिसको ख़ुदावन्द मसीह ने ये सुलह व सलामती बख़्श दी हो ऐसे सवाल के जवाब में ये कह सकता है? हर्गिज़ नहीं बल्कि वो बिला पस व पैश ज़ाहिर करेगा की मैं जो आगे दूर था मसीह के लहू के सबब नज़्दीक हो गया हूँ, क्योंकि वही मेरी सुलह है जिसने दो को एक किया और उस दीवार को जो दर्मियान थी ढा दिया है और अगर कोई इस सुलह व सलामती को जो सिर्फ मसीह से ही मिल सकती है लेना मंज़ूर न करे और न उस को अपने दिल में जगह दे तो ये उसी का क़सूर है कि वो बग़ैर सलामती रहेगा और हमेशा मुज़्तरिब व मलूल (बेक़रार दुखी) रह कर कफ-ए-अफ़्सोस (पछताना) मिलेगा। मगर फिर कुछ इस से हासिल न होगा आज मक़्बूलियत का वक़्त और आज ही नजात का दिन है और बस।

ज़ात का बन्धन

हिंदू लोग इस क़द्र ज़ात परस्त हैं कि जिसका कुछ अंदाज़ा नहीं ज़ात का बंधन उन के लिए सबसे बड़ा बंधन है यहां तक कि अगर वो ग़ैर-ज़ात के आदमी के साथ लग जाएं तो फ़ौरन नापाक हो जाते हैं और जब तक कि वो स्नान (नहा) न कर लें नापाक रहते हैं अपने चौके में ग़ैर-ज़ात के आदमी को हर्गिज़ आने नहीं देते कुत्ता,

Bondage of Caste

ज़ात का बन्धन

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Mar 9, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 9 मार्च 1894 ई॰

हिंदूओं में
 

हिंदू लोग इस क़द्र ज़ात परस्त हैं कि जिसका कुछ अंदाज़ा नहीं ज़ात का बंधन उन के लिए सबसे बड़ा बंधन है यहां तक कि अगर वो ग़ैर-ज़ात के आदमी के साथ लग जाएं तो फ़ौरन नापाक हो जाते हैं और जब तक कि वो स्नान (नहा) न कर लें नापाक रहते हैं अपने चौके में ग़ैर-ज़ात के आदमी को हर्गिज़ आने नहीं देते कुत्ता, बिल्ली और कोई दूसरा जानवर आ जाए तो कुछ मज़ाइक़ा (हर्ज) नहीं लेकिन अगर एक ग़ैर-ज़ात वाला आदमी चौके पर चढ़ गया तो वो नापाक हो गया और जब तक वो गौमाता के गोबर से लीपा न जाये उन के मतलब का नहीं रहता, उन की नापाकी गंगा जल (गंगा का पानी) के छिड़कने से भी दूर हो जाती है।

हिंदूओं में ज़ात के कई बड़े दर्जे हैं सबसे बड़ा दर्जा ब्राह्मणों का है, ज़ात के बानी ये ही लोग थे और इसलिए सबसे बड़ा दर्जा पसंद किया और बाक़ी दूसरों को अपना ग़ुलाम समझा क्योंकि सबसे बड़ी ख़राबी ज़ात की ख़ुदग़र्ज़ी है इसलिए इन लोगों ने अपने मतलब और ग़र्ज़ के लिए अपने ख़ानदान के अलावा सबको मद्धम और नख्द ज़ातों (निकम्मी ज़ातों) में मुनक़सिम (तक़्सीम) कर दिया और अपने आपको सबसे बड़ा और अफ़्ज़ल ठहरा कर अपनी पूजा करवाने लगे। हिंदू लोग ख़ुद कहते हैं कि उन की ज़ात कच्चा धागा है जो यूंही टूट जाता है अगर किसी ग़ैर-ज़ात वाले के साथ भूले से भी हुक़्क़ा या पानी पिया गया तो बस ज़ात टूट गई, गंगा जा कर और बड़ी-बड़ी रसूमात बजा लाकर फिर ज़ात में बहाल होना पड़ता है हिंदूओं की इज़्ज़त हुर्मत और बुजु़र्गी उन की ज़ात है।

एक बात जिसको उन की ज़ात रवा रखती है चाहे उनका ज़मीर और अक़्ल उस को ख़िलाफ़ और बुरा समझे लेकिन वो बात ज़रूर पूरी की जाएगी अगर बहुत सी बातों का जो हिंदूओं की ज़ात में मुरव्विज (रिवाज) हैं और वो ख़ुद भी उनके बुरे होने के क़ाइल हैं बयान किया जाये तो ये मज़्मून तवील हो जाएगा। ग़र्ज़ के ज़ात के बंधन में फंस कर हिंदू लोग अपने ज़मीर और अक़्ल के ख़िलाफ़ भी काम करते हैं और सिर्फ इसिलिए कि ज़ात का रिवाज उन को मज्बूर करता है अगर न करें तो ज़ात बिरादरी बुरा कहेगी। आर्य साहिबान ने अक्सर बातों को छोड़ने में बड़ी जवाँमर्दी की है लेकिन वो भी अक्सर ज़ात के बंधन में क़ैद हो कर आप नहीं तो मस्तूरात (औरतें) के सबब से बहुत सी ऐसी बातों में शरीक हो जाते हैं अगर्चे उन्होंने अक़्लमंद हो कर नाक़िस बातों की तर्दीद की मगर ज़ात की ज़ंजीर से निकलना उन के लिए अभी तक ज़रा मुश्किल नज़र आता है, ऐसा मालूम होता है कि वो चाहते हैं कि काबिले-नुक़्स बातों को भी छोड़ दें और साथ ही ज़ात में भी शामिल रहें चुनान्चे ऐसा ही अब तक वो करते हैं लेकिन ज़ात का बंधन उन को भी मज़बूती के साथ जकड़े रखता है।

ज़ात के ग़ुलामों पर इस बात में अफ़्सोस आता है कि वो ख़ुद मानते हैं कि आदमी सरिशत में उत्तम (आला फ़ित्रत) है बावजूद इस के वो आदमी की क़द्र कुत्ते और बिल्ली से भी कम करते हैं।

मुसलमानों में
 

अगर्चे ज़ात की इम्तियाज़ मुसलमानों में ऐसी सख़्ती के साथ नहीं पर तो भी मानी जाती है, उनमें भी ज़ात, ग़ैर-ज़ात वाले के साथ खाने पीने से टूट जाती है और फिर शामिल होने के लिए फिर कलिमा पढ़ना पड़ता है, उन में भी बानी ज़ात सबसे अफ़्ज़ल समझे जाते हैं वो सय्यद ख़ानदान है जिसकी ताज़ीम बाक़ी तमाम फ़िर्क़े बड़ी इज़्ज़त से करते हैं।

मुसलमानों में भी ज़ात के फ़िर्क़ों के इख़्तिलाफ़ के सबब से मुख़्तलिफ़ दस्तुरात व रसूमात मुरव्विज हैं और उन के पाबंद हो कर वो उन को बजा लाते हैं और आपस में छोटी बड़ी ज़ातें मानते हैं और इज़्ज़त और बेइज़्ज़ती ख़याल करते हैं। ये इस क़िस्म का ख़याल सिर्फ इस मुल्क के मुसलमानों का ज़्यादातर है शायद इसका सबब ये हो कि उनका मेल-जोल सदीयों से हिंदूओं के साथ रहा है और उन के देखा-देखी बहुत सी बातें उनमें भी रिवाज पकड़ गई हैं।

सिक्खों में

अगर्चे सिख लोग हक़ीक़त में हिंदू ही हैं लेकिन मज़्हबी अक़ीदे के लिहाज़ से उन में और हिंदूओं में बड़ा इख़्तिलाफ़ हो गया है बहुत बातों में वो हिंदूओं के साथ हिंदू हैं और बहुत बातों में वो उन से बिल्कुल अलग हैं, आम तौर से तो वो हिंदू हैं और दूसरे हिंदूओं में मिले जुले बर्ताव करते हैं लेकिन मज़्हबी एतबार से वो हिंदूओं से बिल्कुल अलैहदा हैं, उनमें आला ज़ात सोढियों की है और वो सिखों के बानीयों की औलाद हैं, इसलिए सिखों में इस की बड़ी ताज़ीम है और उन को पूजा चढ़ती है हिंदूओं में से लोग सिख हो जाते हैं और अमृत छक कर कैश (यानी बाल)

सर पर रख इस फ़िर्क़े में शामिल हो जाते हैं, अगर्चे इस मज़्हब के बानीयों ने ज़ात की इम्तियाज़ को तोड़ना चाहा था जैसा कि इन की किताब से पाया जाता है।

“न जात है न पात होती है, न जात पात होती है, न रंग है न रूप है, न रंग-रूप होता है।”

लेकिन ये इम्तियाज़ टूट न सका बल्कि जैसा हिंदूओं के फ़िर्क़े हैं वैसा सिखों के भी हैं और वो भी ज़ात के बंधन में क़ैद हैं।

यहूदीयों में
 

यहूदी क़ौम में भी जो मुल़्क-ए-कनआन में थी एक क़िस्म की ज़ात की अलैहदगी थी और दीगर अक़्वाम में से वो लोग एक खासतौर से अलग किए गए थे और मुख़्तलिफ़ रीत व रसूम के पाबंद थे और अगर्चे इस क़िस्म के दस्तुरात (दस्तूर की जमा) जैसा कि मुन्दर्जा बाला ज़ातों में मुरव्विज हैं उनमें से न थे, ताहम वो एक ख़ास सबब से दूसरी क़ौमों से अलग किए गए थे इन का बर्ताव दूसरी ग़ैर-अक़्वाम के साथ न था और दूसरी कौमें इन की नज़रों में ज़लील और हक़ीर थीं और ये मह्ज़ इसलिए था कि वो दूसरी बुत-परस्त अक़्वाम में ख़लत-मलत (दरहम-बरहम) हो कर उनकी बुत-परस्ती में शामिल न हो जाएं वर्ना ऊंच और नीच के ख़याल से न था, लिहाज़ा ये एक ज़ाती फ़र्क़ नहीं था बल्कि क़ौम की अलैहदगी के लिए हिक्मत इलाही का काम है।

मसीहीयों में

मसीहीयों में ज़ात की कोई तमीज़ नहीं और ज़ात जैसी कोई इम्तियाज़ का जैसा कि और क़ौमों में है ईसाईयों में शुरू से ज़िक्र नहीं क्योंकि ज़ात हुक़ूक़ को एक महदूद लोगों के लिए हद बांधती है और इस से बाहर जा नहीं सकती, इसलिए ये अज़्-खु़द बड़ी नुक़्स वाली तफ़ावुत (दूरी, फ़र्क़) है और रुहानी हुक़ूक़ के लिए ऐसी इम्तियाज़ बईद-अज़ अक़्ल (समझ में न आने वाला) है क़ुदरती बातों में किसी शख़्स को कोई रुकावट किसी ज़ात के फ़र्क़ से नहीं है और न हो सकती है। मसलन किसी हिंदू को आला ज़ात होने के लिए क़ुदरती नेअमतों मसलन पानी, हवा और आग वग़ैरह के इस्तेमाल की ख़ास इजाज़त नहीं और किसी अदना ज़ात वाले हिंदू को इन क़ुदरती बरकतों की कोई किसी चीज़ के लिए ख़ास मुमानिअत नहीं बल्कि सबको यकसाँ हक़ हासिल है। इस तरह पर रुहानी बरकतों में बिला इम्तियाज़ ज़ात के हर फर्द-ए-बशर को यकसाँ समझ कर बराबर हक़ होना चाहिए, इसलिए ईसाईयों में कोई आला ज़ात या अदना ज़ात नहीं बल्कि सब एक ईमान और एक नजात के मुतक्किद हैं और हक़ीक़तन कोई छोटाई और बड़ाई नहीं।

इसलिए ये मज़्हब आम तौर से सबको बिला रोक-टोक खुल्लम खुल्ला बुलाहट आम्मा से दावत करता और जो अपने गुनाहों से तौबा कर के और ज़ात जैसे फ़ुज़ूल और रद्दी वस्वसों (बुरे ख़यालों) और मुख़म्मसों (झगड़ों) को छोड़ के सच्चे दिल से मसीह पर ईमान लाता है चाहे वो हिंदूओं की आला ज़ात में से हो या अदना ज़ात में से चाहे मुसलमानों या सिखों, चौहड़ों और चमारों में से हो मसीह में पैवंद हो कर मसीही कलीसिया के बड़े शजर की एक डाली बनता और इस को किसी ख़ास ज़ात के लिहाज़ से नहीं देखा जाता बल्कि मसीह का शागिर्द समझ कर मसीही जमाअत में शामिल कर लिया जाता है। इसी ख़ुसूसीयत से मसीही मज़्हब ब-मुक़ाबला दिगर (दूसरे) मज़ाहिब के अपने में मिंजानिब अल्लाह होने का एक सबूत रखता है।

अव़्वल

खाने और पीने के फ़र्क़ से चूँकि नजात का दरवाज़ा तमाम बनी-आदम के वास्ते खुला है और ख़ुदा की बख़्शिश आम है ख़ास नहीं, इसलिए हिंदू, मुसलमान, सिख, चोहड़ और चमार सब नजात के बराबर ख़्वाहिशमंद हैं, सिर्फ मसीही मज़्हब इस ख़्वाहिश को पूरा करता है और इन में से हर ज़माने में बेशुमार लोग मसीही होते हैं, लेकिन बाअ़्ज़ जो ज़ातों की पाबंदी की निस्बत बड़े थे, मसीही हो कर भी अपनी अगली बड़ाई को जताने लगते और उन लोगों के साथ जो अदना ज़ात में से मसीही हुए खाना खाना ऐब तो नहीं समझते पर परहेज़ करते हैं, और ज़ियाफ़तों के मौकों पर उन को पर्हेज़ के साथ अलग समझते और इस तरह से मसीहीयों की दिल-शिकनी करते और ख़ुदावन्द के हुक्म को भूल जाते हैं और हुक़्क़ा पानी में भी अदना ज़ात से ईसाई हुए भाईयों को शरीक नहीं करते, ये बड़ी कमज़ोरी का निशान है और मसीही जमाअत में ये हर्गिज़ नहीं होना चाहीए।

दोम

शादी ब्याह के फ़र्क़ से जो आला ज़ातों से ईसाई हुए कभी कभी उनमें से कोई-कोई अपने लड़के और लड़कीयों की शादी के लिए दिक़्क़त (मुश्किल) देखता है, वो अपने मुवाफ़िक़ किसी आला ज़ात से ईसाई हुए शख़्स की तलाश करता है और अगर नहीं मिलता तो शादी न करना तो मंज़ूर लेकिन किसी अदना ज़ात से ईसाई हुए शख़्स के साथ ऐसा बंदो बस्त नहीं करता, अगर कोई कहे कि नहीं ऐसा नहीं तो मैं कह सकता हूँ कि ऐसा मेरे देखने में आया है और मैं इस को ईसाईयों में बड़ी कमज़ोरी समझता हूँ।

सोम

ग़ैर-क़ौमों के ज़ाती लक़ब अपने नाम साथ लगाने से बाअ़्ज़ ईसाई जो आला ज़ातों में से ईसाई हुए, अक्सर अपने नामों के साथ अल्फ़ाज़ सय्यद, पण्डित, मौलाना, शेख़, बशिष्ट, तहापर वग़ैरह-वग़ैरह लगाए रखते हैं जो मेरी समझ में कुछ ज़रूरी नहीं। इन से सिवा इस के कि ये ज़ाहिर हो कि वो आला ज़ात में से ईसाई हुए और क्या मु’तसव्वर (तसव्वुर करने वाला) है और जिस हाल में कि हम इन ज़ातों को आला नहीं समझते तो हम क्यों उन पर फ़ख़्र करें? अगर हम फ़ख़्र करें तो सिर्फ मसीही होने पर करें क्योंकि मसीही होना एक बड़ी बात है न कि सय्यद, ब्राह्मण, खत्री और मुसलमान होना।

चहारुम

ग़ैर-क़ौमों के साथ गुफ़्तगु करते वक़्त चूँकि ज़ात का इस मुल्क में बहुत रिवाज है और अस्ना (वक़्फ़ा दर्मियान) गुफ़्तगु में सबसे पहले ये ज़िक्र आता है कि आपकी क्या ज़ात है? और जब कहो कि ईसाई तो पूछते हैं कि पहले क्या ज़ात थी? तो अक्सर अपनी ज़ात छुपा के आला ज़ात बताते हैं और गुनाह में गिरफ़्तार होते हैं, क्योंकि अगर नीच ज़ात का ज़िक्र करें तो गुफ़्तगु करने वाले की नज़र में बेइज़्ज़त हों, ये भी बड़ी भारी कमज़ोरी है।

रूह-उल-क़ुद्दुस

ये जवाब इफिसिस शहर के उन शागिर्दों ने पौलुस रसूल को दिया था जब कि वो ऊपर के एतराफे मुल्क में इन्जील सुना कर इफिसिस में पहुंचा और उस ने पूछा, “क्या तुमने जब ईमान लाए रूह-उल-क़ुद्दुस पाई?” अगर्चे ये लोग कमज़ोर और बग़ैर रूह-उल-क़ुद्दुस पाए हुए इसाई थे तो भी शागिर्द कहलाए, क्योंकि वो मसीह ख़ुदावन्द पर ईमान रखते थे

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रूह-उल-क़ुद्दुस

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Feb 9, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 9 फरवरी 1894 ई॰

“उन्होंने उस से कहा हमने तो सुना भी नहीं कि रूह-उल-क़ुद्दुस है।” (आमाल 19:2)

ये जवाब इफिसिस शहर के उन शागिर्दों ने पौलुस रसूल को दिया था जब कि वो ऊपर के एतराफे मुल्क में इन्जील सुना कर इफिसिस में पहुंचा और उस ने पूछा, “क्या तुमने जब ईमान लाए रूह-उल-क़ुद्दुस पाई?” अगर्चे ये लोग कमज़ोर और बग़ैर रूह-उल-क़ुद्दुस पाए हुए इसाई थे तो भी शागिर्द कहलाए, क्योंकि वो मसीह ख़ुदावन्द पर ईमान रखते थे मुम्किन है कि एक गुनेहगार शख़्स इंजीली पैग़ाम सुनकर मसीह पर ईमान लाए लेकिन रूह-उल-क़ुद्दुस हनूज़ (अभी तक) उस को न मिला हो पस मुनासिब नहीं कि ऐसे शख़्स को मसीहीय्यत के दायरा से ख़ारिज और हक़ीर समझा जाये क्योंकि वो ख़ुदावन्द जिसने ईमान के काम को उस के दिल में शुरू किया है अपना रूह-उल-क़ुद्दुस अता कर के उस को कामिल करेगा, वो जो “मसले हुए सेंठे को नहीं तोड़ता और धुआँ उठते हुए सन् (रस्सी) को नहीं बुझाता” अपने कमज़ोर ईमानदारों को ना चीज़ समझ कर उन्हें तर्क नहीं कर देता है जैसा कि हम इन इफिसिस शागिर्दों की हालत में पाते हैं ख़ुदावन्द ने उन लोगों के दिली ईमान और कमज़ोर हालत और रूह-उल-क़ुद्दुस की एहतियाज (ज़रूरत) को मालूम कर के पौलुस रसूल को उन के पास भेजा और जब उस ने उन पर हाथ रखा तो रूह-उल-क़ुद्दुस उन पर नाज़िल हुई और वो तरह-तरह की ज़बानें बोलने और नबुव्वत करने लगे।

इस में शक नहीं कि मसीही कलीसिया में अब भी अक्सर ऐसे शागिर्द मौजूद हैं जो रूह-उल-क़ुद्दुस की तासीर से हनूज़ मोअस्सर नहीं हुए हालाँकि उन्हों ने बाप बेटे और रूह-उल-क़ुद्दुस के नाम से बपतिस्मा पाया है और उन इफ़िसियों की मानिंद नहीं कह सकते कि “हमने तो सुना भी नहीं कि रूह-उल-क़ुद्दुस है।” ताहम मुनासिब नहीं कि हम उन्हें हक़ीर और ना चीज़ समझें या जैसा बाअ़्ज़ों का दस्तूर है उन्हें जमा कर के पूछें कि तुमने रूह-उल-क़ुद्दुस पाया, या नहीं? और उन के दर-पे हो कर और दिक (आजिज़) कर के रूह-उल-क़ुद्दुस का इक़रार कराएं बल्कि ऐसे मसीहीयों को कलाम से नसीहत करें उन के लिए और उन के साथ दुआ मांगें कि वो रूह-उल-क़ुद्दुस की तासीरात और नेअमतों को हासिल करें।

तज़्किरा अल-अबरार (रसूल के आमाल की तफ़्सीर) में लिखा है कि :-

“अगरचे इफ़िसिस में और भी ईसाई थे मगर वो लोग जो रूह-उल-क़ुद्दुस से कम वाक़िफ़ थे सिर्फ बारह एक थे।”

अब भी जमाअतों में ज़ोर-आवर और कमज़ोर लोग रले-मिले रहते हैं मुनासिब है कि ऐसे लोग तलाश किए जाएं और उन्हें जमा कर के सिखलाया जाये और उन के लिए दुआ की जाये मगर अफ़्सोस की बात है कि इस वक़्त जो बाअ़्ज़ मिशनरी बाहर से आते हैं वो अक्सर ज़ोर-आवर और नामदार भाईयों को तलाश कर के उन से बहुत बातें करते हैं पर कमज़ोर और अफ़्सर्दा दिल भाईयों की तरफ़ कम मुतवज्जोह होते हैं और अगर कुछ ज़िक्र भी आता है कि फ़ुलां भाई कमज़ोर है तो ये लोग इस उम्मीद पर कि वहां का पास्टर उन की मदद करेगा उन्हें छोड़ देते हैं। इस बात पर नहीं सोचते कि अगर वहां के पास्टर की ताक़त रूहानी उन के दफ़ाअ-ए-मरज़ के लिए मुफ़ीद होती तो वो अब तक क्यों ऐसे कमज़ोर रहते मुनासिब है कि अब दूसरे भाई की रूहानी ताक़त उन की मदद करे शायद वो बच जाएं इफिसिस में उकला और पर-सकला भी रहते थे जिन्होंने अपोलुस जैसे फ़ाज़िल आदमी को भी सिखलाया तो भी उकला और पर-सकला की ताक़त से ये बारह शख़्स मज़्बूत न हुए मगर पौलुस की मुनादी और ईमान और दस्त-गिरी (हिमायत) से देखो उन्होंने ने कितनी क़ुव्वत पाई। पस हर मुअ़ल्लिम (उस्ताद) हर रूह के लिए मुफ़ीद नहीं है, मदारिज मुख़्तलिफ़ हैं और क़ुव्वतें भी मुख़्तलिफ़ हैं सबको जब कहीं जहां मौक़ा मिले ख़िदमत करना चाहीए।

ज़रा इधर भी

कहते हैं कि किसी पहाड़ पर एक छोटा सा गांव वाक़ेअ़ था जिसमें सैटल नामी एक शख़्स रहता था और उस का एक ही बुढ़ापे का बेटा था एक सबत के दिन वो अपने बेटे को साथ लेकर एक नज़्दीक के क़स्बे में जो उस के गांव से क़रीबन चार-पाँच मील के फासले पर था इबादत के लिए गया, क्योंकि उन के गांव में कोई इबादत-खाना

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ज़रा इधर भी

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Feb 9, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 9 फरवरी 1894 ई॰

कहते हैं कि किसी पहाड़ पर एक छोटा सा गांव वाक़ेअ़ था जिसमें सैटल नामी एक शख़्स रहता था और उस का एक ही बुढ़ापे का बेटा था एक सबत के दिन वो अपने बेटे को साथ लेकर एक नज़्दीक के क़स्बे में जो उस के गांव से क़रीबन चार-पाँच मील के फासले पर था इबादत के लिए गया, क्योंकि उन के गांव में कोई इबादत-खाना न था रास्ते में गर्मी की शिद्दत और थकान के बाइस वो बूढ़ा एक दरख़्त के नीचे आराम करने लगा और लड़का जंगली घास और फूल बटोरने में मश्गूल (मसरूफ़) हो गया इतने में ठंडी ठंडी हवा चलने लगी और बूढ़ा बाप जो सुस्ती के बाइस कुछ आराम-तलब हो गया था वहीं लेट गया और ठंडी हवा में मीठी नींद सो गया और लड़का फूलों को बटोरता-बटोरता एक ग़ार की तरफ़ बढ़ गया, उधर से एक जंगली जानवर निकल आया और लड़के को फाड़ कर खा गया मगर बाप मज़े की नींद सोता रह गया यूं उस बूढ़े बाप ने दरख़्त के नीचे आराम कर के अपने बेटे को खो दिया।

जब ये आराम-तलब नींद से उठा तो क्या देखता है कि लड़का नज़र नहीं आता बेचारा चारों तरफ़ देखता है मगर अब लड़का कहीं नज़र नहीं आता ढूँढता-ढूँढता उस ग़ार तक जा पहुंचा और क्या देखता है कि उस के प्यारे लड़के का सर और कपड़ों के टुकड़े लहू में तीर बितर पड़े हैं और गोश्त का कहीं नामो निशान भी नहीं रहा तब ज़ार-ज़ार रोने लगा, अब उस के रोने से क्या हासिल? आख़िर बेचारा ला-वलद हो कर लड़के का सर और कपड़े गोद में लेकर रोता पीटता घर को वापस आया और सुस्ती और आराम की नींद सो कर मरते दम तक लड़के के ग़म में मुब्तिला रहा।

आपके लड़के कहाँ हैं? और आप किस नींद में सो रहे हैं?

ऐ नाज़रीन अख़्बार नूर-ए-अफ़्शां, क्या आप भी साहिब औलाद कहलाते हैं? क्या आप बाप हैं? अगर आप बाप हैं तो मैं आज आपसे पूछता हूँ कि आपके लड़के कहाँ हैं? और आप किस नींद में सो रहे हैं? क्या वो किसी जंगली जानवर (बुरी आदत) के क़ब्ज़े में तो नहीं आ गए?

ऐ अज़ीज़ वालदैन, सुस्ती और आराम की नींद से जागो और होशियार हो जाओ मबादा (ख़ुदा ना करे) कहीं तुम्हारे लड़के बुरी आदतों में पड़ कर शैतान के शिकार न बन जाएं और तुम उस बूढ़े बाप की तरह आराम की नींद सोते के सोते ही न रह जाओ।

ऐ ख़ादिमान-ए-दीन। आप तो जमाअत के बाप कहलाते हैं बताइए तो आप किस आराम में सो रहे हैं? साहिबो, ये बाप अपने लड़के को इबादत-खाने ला रहा था मगर राह में सो गया और अपने लड़के को ख़ुदा के घर में ला न सका बल्कि रास्ते में उस को खो बैठा।

साहिबो, आप को भी अपनी जमाअत को ख़ुदा के हुज़ूर पहुंचाना है अगर आप सुस्ती में पड़ कर सो गए हैं तो ये जानें कि जिनके आप बाप कहलाते हैं ख़ुदा बाप तक पहुंचाई न जाएँगी बल्कि रास्ते में किसी जंगली जानवर यानी बुरी आदत में पड़ कर हलाक हो जाएँगी मगर याद रहे कि आप ख़ुदा बाप के हुज़ूर इन जानों के जवाब-देह होंगे।

ऐ मुबश्शिरान-ए-इन्जील, जिन लोगों में आप काम कर रहे हैं उन को तुम्हें मसीह मस्लूब के पास लाना है अगर आप सुस्ती और आराम में पड़ कर सोए रहेंगे तो ये रूहें मसीह के पास लाई न जाएँगी बल्कि शैतान की शिकार हो कर हलाक हो जाएंगी। इसलिए ऐ मुबश्शिरान-ए-इन्जील, उठो और अपनी कमरें बाँधो और नजात बख़्श कलाम की ख़ुशख़बरी को तमाम लोगों के दर्मियान जिनमें आप काम करने के लिए मुक़र्रर किए गए हैं फैला दो ताकि आप जवाब-देह ना रहो।

हज़रत दाऊद की ज़िन्दगी

और बैत-लहम के यस्सी नामी एक शख़्स के बेटों में से उस के सबसे छोटे बेटे दाऊद नामी को बादशाह होने के लिए चुन लिया और समुएल क़ाज़ी को भेजा कि उस को ममसूह (मसह) करे कि वो बादशाह हो अगर्चे यस्सी के सात बेटों में इलियाब अबी नदब और सामा वग़ैरह बड़े ख़ूबसूरत और जवान थे, लेकिन इन में से दाऊद चुना गया और

Life of David

हज़रत दाऊद की ज़िन्दगी

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Feb 9, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 9 फरवरी 1894 ई॰

साऊल बनी इस्राईल का बादशाह था लेकिन उस की चाल ख़ुदावन्द को पसंद न हुई क्योंकि वो ख़ुदा की मर्ज़ी पर न चला इसलिए ख़ुदा ने उस को मर्दूद (नालायक़) कर दिया।

दाऊद का बादशाह होने के लिए ममसूह होना

और बैत-लहम के यस्सी नामी एक शख़्स के बेटों में से उस के सबसे छोटे बेटे दाऊद नामी को बादशाह होने के लिए चुन लिया और समुएल क़ाज़ी को भेजा कि उस को ममसूह (मसह) करे कि वो बादशाह हो अगर्चे यस्सी के सात बेटों में इलियाब अबी नदब और सामा वग़ैरह बड़े ख़ूबसूरत और जवान थे, लेकिन इन में से दाऊद चुना गया और वो ख़ुदा की तरफ़ से बनी-इस्राईल का बादशाह ठहरा लेकिन चूँकि साऊल अब तक बनी-इस्राईल का बादशाह था दाऊद को फ़ौरन तख़्त न मिला बल्कि ब-दस्तूर साबिक़ वो अपनी भैड़ बकरीयां चराया करता था मगर दाऊद गाने बजाने के काम में बड़ा होशियार था और साऊल को एक गाने वाले शख़्स की ज़रूरत पड़ी लोगों ने उसे दाऊद की ख़बर दी और उस ने उसे बुला लिया और वो उस के हुज़ूर गाया करत था।

फ़लस्ती बहादुर

उन्ही अय्याम में बनी इस्राईल की लड़ाई फ़लस्ती नामी एक क़ौम से हुई इस क़ौम में एक शख़्स जाती जुलियत कर के बड़ा पहलवान और बहादुर था, उस ने बनी इस्राईल को हक़ारत की और अपने ज़ोर की शेख़ी की और बनी-इस्राईल में से किसी का हौसला न पड़ा कि उस का मुक़ाबला करे लेकिन दाऊद ने सिर्फ एक फ़लाख़न (वो रस्सी का फंदा जिसमें रख कर पत्थर फेंकते हैं) से उसका मुक़ाबला किया और उस को मार दिया, इस पर दाऊद की बड़ी तारीफ़ हुई क्योंकि उस ने एक बड़े बहादुर दुश्मन मग़्लूब (जै़र, शिकस्त ख़ूर्दा) किया था और बनी-इस्राईल की औरतों ने दाऊद की साऊल से भी बढ़कर तारिफ़ की।

साऊल की दाऊद से दुश्मनी

इसलिए साऊल दाऊद की तरफ़ ज़िद और दुश्मनी से देखने लगा और दरपे (पीछा करना) हुआ कि उस को मार डाले। कई दफ़ा उस को जान से मार डालना चाहा लेकिन ख़ुदा ने दाऊद को बचाया और अगर्चे साऊल दाऊद के क़ब्ज़े में कई बार आ गया लेकिन उस ने अपने दुश्मन को न मारा और दाऊद बावजूद उस की तरफ़ से ऐसे सुलूक होने के फिर भी उस की इज़्ज़त वैसे ही करता रहा लेकिन साऊल का ग़ुस्सा और मुख़ालिफ़त मरते दम तक न गया और आख़िरकार वो अपनी बुरी ज़िंदगी से जो हमेशा दौड़ धूप में कटी अपनी तल्वार से आप ही क़त्ल हुआ।

दाऊद की ज़िंदगी के पहले बरस हालाँकि वो ख़ुदा की तरफ़ से इस्राईल का बादशाह मुक़र्रर हो चुका था निहायत तक्लीफ़ और दुख में कटे। अपनी जान बचाने के वास्ते वो पहाड़ों और गारों में भागता फिरा लेकिन उस का भरोसा ख़ुदा पर था और ख़ुदा ने आख़िरकार उस की तमाम मुसीबतें रफ़ा कीं और वो तमाम बनी इस्राईल का बादशाह हो गया वो ख़ुदा की इबादत और बंदगी में भी दिलो-जान से मशग़ूल (मसरूफ़) रहा उस को बहुत शौक़ हुआ कि ख़ुदा की इबादत के वास्ते एक आलीशान हैकल बनाए लेकिन उस को ख़ुदा से इस काम के लिए इजाज़त न हुई और सबब ये बताया गया है कि वो जंगी मर्द था।

दाऊद का गुनाह

बाइबल ख़ुदा का कलाम ऐसा बलार व रिआयत हक़ व सदाक़त का इज़्हार करता है कि किसी की ख़ता (ग़लती) और गुनाह को मुतलक़ नहीं छुपाता। किसी नबी रसूल और बादशाह के गुनाह पर पर्दा नहीं डालता, बल्कि साफ़ तौर से उस का बयान करता है दाऊद की ज़िंदगी का पूरा-पूरा हाल समुएल की किताब में मुन्दर्ज है, इसमें दाऊद का जो उसने ओरियाह की जोरू (बीवी) के ना-जायज़ तौर पर ले लेने से किया था साफ़-साफ़ ज़ाहिर किया गया है और उस की बाबत इंतिक़ाम-ए-इलाही यानी इस गुनाह की सज़ा का भी ज़िक्र है जिससे ख़ुदा आदिल, गुनाह से नफ़रत करने, और उस की सज़ा देने वाला साबित होता है, अफ़्सोस के इंसान का दिल यहां तक गुनाह से आलूदा हुआ कि इन्सानी नस्ल के वो लोग जिनको ख़ुदा ने इलाही ताक़त देकर बनी-आदम में से मख़्सूस किया वो भी गुनाह की आलूदगी से न बचे और मासूम न रहे क्योंकि आदम की नस्ल से थे जिसकी नस्ल में बर्गश्तगी (बग़ावत) के दिन से गुनाह का ज़हर सराइयत (फैल) कर गया और गुनाह, आने वाली तमाम नसलों में यक्साँ और बराबर ज़ाहिर होता गया।

लेकिन ख़ुशी का मुक़ाम है कि औरत की नस्ल से गुनाह पर ग़ालिब होने वाला पैदा होने वाला था और वो दाऊद के ख़ानदान में से बरपा होने वाला था अगर्चे वो एक तौर से दाऊद की औलाद में से हुआ लेकिन दाऊद उसको अपना “ख़ुदावन्द” कहता है कि “ख़ुदावन्द” ने मेरे ख़ुदावन्द से कहा कि तू मेरे दहने बैठ जब तक कि मैं तेरे दुश्मनों को तेरे पांव की चौकी करूँ।” वो ज़मीन से ख़ाकी नहीं था बल्कि आस्मान से रुहानी और जलाली था और वही सिर्फ अकेला गुनाह से पाक साबित हुआ सिर्फ वही दुनिया में मासूम ठहरा और इसी वजह से वही नजात-दहिन्दा ठहर सकता है जो ख़ूद गुनाह से मुबारक (पाक) हो और गुनाहगारों को जो आजिज़ लाचार और बेकस हैं नजात अब्दी बख़्शे, वो आने वाला था और दाऊद को चूँकि वो पैग़म्बर था ख़ुदा की जानिब से ख़बर मिली थी कि वो आएगा और बनी-आदम को वो ज़िंदगी जो उन्हों ने खो दी थी बख़्शेगा।

खराब दुनिया

ख़ुदावन्द का बंदा पौलूस अहले गलतियों को ख़त लिखते वक़्त इस ख़त के दीबाचे (तम्हीद) में हमारे मज़्मून के उन्वान के अल्फ़ाज़ लिखता है, देखो (गलितियों 1:5) अगर नाज़रीन ज़रा सा भी इस पर ग़ौरो-फ़िक्र करें तो ये बात निहायत ही सच और दुरुस्त मालूम होगी और किसी को भी इस में कलाम न होगा।

Bad World

खराब दुनिया

By

Jameel Singh
जमील सिंह

Published in Nur-i-Afshan Apr 6, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 6 अप्रैल 1894 ई॰

ख़ुदावन्द का बंदा पौलूस अहले गलतियों को ख़त लिखते वक़्त इस ख़त के दीबाचे (तम्हीद) में हमारे मज़्मून के उन्वान के अल्फ़ाज़ लिखता है, देखो (गलितियों 1:5) अगर नाज़रीन ज़रा सा भी इस पर ग़ौरो-फ़िक्र करें तो ये बात निहायत ही सच और दुरुस्त मालूम होगी और किसी को भी इस में कलाम न होगा।

ये बात सरीह (साफ़) ज़ाहिर है कि जिस क़द्र कारीगर ज़्यादा दाना और अक़्लमंद होता है इसी क़द्र उस की कारीगरी भी उम्दा और मज़्बूत होती है और सन्अत अपने सानेअ (बनाने वाले) की क़द्र और अज़मत ज़ाहिर व आश्कार करती है जितनी सन्अतें हमारे देखने में आती हैं दो तरह की हैं। अव़्वल क़ुदरती, दोम मसनुई (खुदसाख्ता)

ये दुनिया कि जिस पर हम आबाद हैं इन दो क़िस्म की कारीगरियों से आरास्ता और पैरास्ता (सजी और सँवरी) है क़ुदरती यानी आस्मान व ज़मीन सूरज और चांद दरिया, समुंद्र, हैवानात और इन्सान ये सब क़ुदरती हैं और सन्अती जैसा कि मकानात, कुवें, सड़कें, पुल और तमाम सामान जो इन्सानों के लिए कार-आमद है और फिर इन की तक़्सीम यूं भी है, अव़्वल वो चीज़ें जो आस्मानी हैं और दोम वो चीज़ें जो ज़मीनी हैं क़ुदरती चीज़ों का ख़ालिक़ ख़ुदा है और मसनुई (खुदसाख्ता) चीज़ों का बनाने वाला ख़ाकी कोताह अंदेश और पुराज़ सहु व ख़ता (ग़लती व ख़ता) आदमी है, ख़ालिक़-ए-आलम ने अपनी बेहद हिक्मत और दानाई से कोई शैय ख़राब नहीं बनाई क्योंकि उस के किसी काम में नुक़्स पाया नहीं जा सकता। और जो ख़राब और नाक़िस शैय है उस को ख़ालिक़ का बनाया हुआ तसव्वुर करना आदमी जैसे ज़ी अक़्ल (अक़्लमंद) मख़्लूक़ के लिए बइद-अज़-अक़्ल (समझ से बाहर) है। ख़ालिक़-ए-मुतलक़ ने पैदाइश के वक़्त जब सब कुछ नेस्त से हस्त (मौत से ज़िंदगी) किया, आप कहा कि “सब बहुत अच्छा है” तो क्योंकर हुआ कि ये दुनिया जो ख़ालिक़ ने अच्छी बनाई थी अब ख़राब हो गई? इस का जानना आदमी के लिए ज़रूर है।

अगर कोई आम इंसान दुनिया को ख़राब कहे, तो उस की बात दफ़्अतन यक़ीन के लायक़ नहीं

अगर कोई आम इंसान दुनिया को ख़राब कहे, तो उस की बात दफ़्अतन यक़ीन के लायक़ नहीं हो सकती लेकिन जबकि कलाम-ए-मुक़द्दस बाइबल में ख़ालिक़ अपने बंदे की मार्फ़त इस अम्र का इज़्हार करे तो ये बात ज़रूर क़ाबिल-ए-तस्लीम है न रसूल दुनिया को ख़राब कहता है तो आस्मानी चीज़ें इस से मुराद नहीं न अगर कोई कहे कि एज़्राएल फ़रिश्ता भी तो आस्मानी मकानों का साकिन था और वहां भी ख़राबी हुई, तो इस का जवाब ये है कि शैतान ने जूंही मग़रूरी और सर्कशी की वो वहीं आस्मान से गिराया गया क्योंकि कोई नापाक चीज़ वहां ठहर नहीं सकती इसलिए वो वहां न रह सका पर ज़मीन पर गिराया गया। जब कि दुनिया एक ऐसे बड़े दाना और अज़ीमुश्शान ख़ुदा से बनाई गई फिर वो क्योंकर ख़राब हो गई? इस का ज़िक्र तौरेत में साफ़-साफ़ बयान हुआ है इस की पहली ख़राबी का सबब इन्सान की पहली हुक्म उदूली हुई थी, जो पहले इन्सान यानी बाबा आदम ने बाग-ए-अदन में की। जिस सबब से वो वहां से निकाला गया और क़िस्म-क़िस्म की ख़राबी अपने और अपनी औलाद पर लाया जिसके सबब से फरमान-ए-इलाही जारी हुआ। “ज़मीन तेरे सबब से लानती हुई” (पैदाइश 3:17) अब इस से साफ़ मुतशर्रेह होता है कि दुनिया की ख़राबी का सबब आदम का गुनाह है और फिर तमाम दुनिया के आदमजा़द के बेशुमार गुनाह हैं जो उस वक़्त से अब तक हुए और होते जाते हैं।

गुनाह का असर मिस्ल ज़हर-ए-क़ातिल के इन्सान के दिल पर हुआ है और दिल के नापाक और नजिस (गंदा) होने से इन्सान के तमाम काम ख़ालिक़ की नज़र में बतालत (निकम्मापन) के हैं और निहायत नफ़रती और नाकारा हैं। अगर कोई साहिबे अक़्ल व फ़हम सच्चाई से अपने दिल का हाल लिखे तो वो ज़रूर इस मज़्मून का उन्वान “मेरा बुरा दिल” रखेगा। वाइज़ ने सच लिखा है “बनी-आदम का दिल भी शरारत से भरा है और जब तक वो जीते हैं हिमाक़त (बेवक़ूफ़ी) उनके दिल में रहती है और बाद इस के मुर्दों में शामिल होते हैं।” (वाइज़ 9:3) ये दुनिया उमूरात ज़ेल के सबब से ख़राब है :-

पहला अम्र, कि शैतान की जाये सुकूनत हो गई है जिसने आदम और हव्वा को नेकी और मुबारक हालत से गिराकर क़हरे इलाही (ख़ुदा का ग़सब) और सज़ा व अ़ताब (ग़ुस्सा) का मुस्तहिक़ बनाया और न सिर्फ उन की बर्बादी का सबब ठहरा बल्कि तमाम आदमजा़द की और इस पर इक्तिफ़ा (गुज़ारा) न कर के ढूंढता फिरता है कि किसी को ग़ाफ़िल (लापरवाह) पाए और फाड़े और ख़ुदा की फ़रमांबर्दारी से मुनहरिफ़ (इन्कार) कर के अपने मुवाफ़िक़ मलऊन (लानती) बनाए।

दूसरा अम्र, बुरे आदमीयों से भर गई है। जो भलों को हर तरह से तक्लीफ़ देते और हर क़िस्म का गुनाह करते और दूसरों को बुराई की तर्ग़ीब देते और शैतान के मदद-गार बन कर ख़ुदा के दुश्मन हैं, इस से ईमानदारों को आज़माईश का बड़ा ख़तरा है।

तीसरा अम्र, कि गुनाह की शिद्दत और उस की बुराईयों के सबब से ये दुनिया ख़राब हो गई है गुनाह इन्सान की तबियत और ख़सलत (फ़ित्रत) में आ गया है और इस सबब से कोई बशर दुनिया में पैदा हो कर गुनाह से ख़ाली नहीं रह सकता।

चौथा अम्र, गुनाह के नतीजे जो गुनाह या ना-फ़र्मानी के सबब निकले हैं मसलन दुख, बीमारी, रंज व फ़िक़्र और मेहनत और मशक़्क़त और मौत वग़ैरह।

लेकिन शुक्र का मुक़ाम है कि इस ख़राब दुनिया से छुड़ाने वाला जिसका नाम इस्म-ए-बा-मुसम्मा (वो शख़्स जिसका नाम उस की ख़ुबियां बयान करे) है, यानी नजात देने वाला रब्बना यसूअ़-मसीह इस दुनिया में आया और अब उस की बशारत आम दी जाती और जो चाहे मुफ़्त में नजात हासिल करे।

जिस तरह आस्मान से बारिश होती है

“जिस तरह आस्मान से बारिश होती और बर्फ़ पड़ती है और फिर वो वहां नहीं जाती बल्कि ज़मीन को भिगोतीं हैं और इस की शादाबी और रोईदगी (उगना) का बाइस होते हैं ताकि बोने वाले को बीज और खाने वाले को रोटी दे, इसी तरह मेरा कलाम जो मेरे मुँह से निकलता है होगा। वो मेरे पास बे अंजाम न फिरेगा बल्कि जो कुछ मेरी ख़्वाहिश होगी उसे

As Rain Come Down From Heaven And Don’t Return

जिस तरह आस्मान से बारिश होती है

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 23, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 23 जनवरी 1894 ई॰

“जिस तरह आस्मान से बारिश होती और बर्फ़ पड़ती है और फिर वो वहां नहीं जाती बल्कि ज़मीन को भिगोतीं हैं और इस की शादाबी और रोईदगी (उगना) का बाइस होते हैं ताकि बोने वाले को बीज और खाने वाले को रोटी दे, इसी तरह मेरा कलाम जो मेरे मुँह से निकलता है होगा। वो मेरे पास बे अंजाम न फिरेगा बल्कि जो कुछ मेरी ख़्वाहिश होगी उसे पूरा करेगा और उस काम में जिसके लिए मैंने उसे भेजा मुअस्सिर होगा।” (यसायाह 55:10, 11)

जब इस बात पर ख़याल किया जाता है कि क़रीब एक सौ बरस से इस मुल्क में मसीही मज़्हब की इशाअत हो रही है और सैंकड़ों विलायती मिशनरी और उन के हज़ारों देसी मसीही मददगार सद-हा (सैंकड़ों, बहुत से) मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से इन्जीली ताअ़्लीम लोगों में फैलाने के लिए कोशिश कर रहे हैं और करोड़ों रुपया इस काम के लिए ख़र्च हो चुका है, ताहम इस के बिल्मुक़ाबिल इस मुल्क के बहुत थोड़े लोगों ने मसीहीयत को क़ुबूल किया है तो एक इंसानी मामूली दिलेयास (ना-उम्मीद) से भर जाता और पस्त हिम्मती से मग़्लूब (हारना) हो जाता और समझता है कि न मालूम किस क़द्र अर्सा दराज़ और दौलत कसीर हिन्दुस्तान को मसीही मुल्क बनाने और क़ौमों को मसीह के ज़ेर-ए-साये लाने में दरकार है। ऐसे ख़याल वाले शख्सों को यसायाह की उस नबुव्वत के जो उसने मसीह के मुबारक ज़माने की निस्बत की थी कि “जिस तरह पानी से समुंद्र भरा हुआ है, इसी तरह ज़मीन ख़ुदावन्द के इर्फ़ान (पहचान) से मामूर होगी।” तक्मील को पहुंचने में बे-क़यास तवक़्क़ुफ़ (बहुत देर) और ला-मह्दूद अर्सा मालूम होता लेकिन वो मसीही जो कलाम-उल्लाह के उन ब-कसरत वादों पर जो मसीही सल्तनत के तमाम दुनिया में क़ायम हो जाए और सुलह व सलामती ज़मीन पर फैल जाने की निस्बत मर्क़ूम हैं एतिक़ाद कामिल रखता है उन की बर-वक़्त तक्मील के बारे में अर्सा की दराज़ी और कामयाबी की कमी के बाइस कभी मायूस व मु-तशक़्क़ी (शक करना) नहीं होता और बे-यक़ीन तमाम जानता है कि बलारैब (बेशक) वो दिन भी आएगा जब कि “हर एक घुटना उस के सामने झुकेगा और हर एक ज़बान इक़रार करेगी कि यसूअ़-मसीह ख़ुदावन्द है।”

जिस तरह आस्मान से बारिश होती और बर्फ़ पड़ती है

ग़ैर-अक़्वाम के लोग जब देखते हैं कि मसीही मिशनरियों की हद दर्जा की कोशिशों और कमाल जाँ-फ़िशानियों के मुक़ाबले में उनका फल बहुत थोड़ा नज़र आता है तो ख़याल करते हैं कि शायद ये लोग बिल-आख़िर थक कर इस काम से किनारा-कश हो जाऐंगे और मसीहीय्यत को हिन्दुस्तान में कभी तरक़्क़ी व ग़ल्बा हासिल न होगा और यूं वो अपने दिलों को मुत्मईन व मसरूर करते हैं मगर नहीं जानते कि ये सलीब के सिपाही फ़तह का कामिल यक़ीन रखते हुए मैदाने कार-ज़ार (मैदान-ए-जंग) से कभी न टलेंगे और मुख़ालिफ़तों और मुश्किलात के बाइस पस्पा होने के बजाय वो आगे बढ़ेंगे ता-वाक़तिया कि ये ज़हूर में न आ जाएँ कि तमाम हिन्दुस्तान मसीह के ज़ेरे फ़र्मान हो गया है।

इस में ज़रा भी शक नहीं कि इस मुल्क में मसीह की बाद्शाहत फैलाने के लिए जिस क़द्र मेहनत व ज़र सर्फ हो रहा है कुछ भी ज़ाया न होने पाएगा जैसा कि हमको न्यूयार्क (अमरीका) के एक कारख़ाने की कैफ़ीयत ताअ़्लीम दे रही है कि उस अज़ीमुश्शान शहर में वाल्हत्म वॉच का एक कारख़ाना था जिसमें घड़ीयों के ढकने बनाए जाते थे। इस कारख़ाना की इमारत तीन मंज़िला थी और ज़मीन पर तख़्ते बतौर फ़र्श जुड़े हुए थे बर्सों तक कारख़ाना मज़्कूर में डेढ़ हज़ार डॉलर लेकर तीन हज़ार डालर का सोना रोज़ाना गलाया जाता और काम में लाया जाता था चंद महीने गुज़रे कारख़ाना दूसरी इमारत में मुंतक़िल किया गया और पहली इमारत के वो तख़्ते जो फ़र्श में जड़े हुए थे बड़ी हिफ़ाज़त से निकाले गए इन तख़्तों को जला कर ख़ाक्सतर (राख) करने और अज़रूए हिक्मत ख़ाक को साफ़ करने से कंपनी मज़्कूर को ख़ाक से (67000) डॉलर का सोना दस्तयाब हुआ सोने के ज़र्रे जो वक़्तन-फ़-वक़्तन तख़्तों पर गिरे, ज़ाया न हुए बल्कि सब मुज्तमाअ़ (जमा) हो कर एक रक़्म कसीर बन गई इसी तरह जो ज़ोर व ज़र इस मुल्क में ख़ुदा का काम व कलाम फैलाने के लिए सर्फ हो रहा है अगर्चे वो ज़रा-ज़रा मुंतशिर (बिखरना) रहे लेकिन बिल्-आख़िर मजमूई तौर पर साफ़ ज़ाहिर हो जाएगा। हम उम्मीद रखते और यक़ीन करते हैं कि वो दिन जल्द आएगा जबकि हिन्दुस्तान में किसी ग़ैर मुल्की मिशन की ज़रूरत न रहेगी लेकिन अगर ज़रूरत होगी तो हिन्दुस्तान के मसीही दीगर बुत-परस्त मुल्कों में अपने मिशनरियों को भेजेंगे।

तुम्हारा दिल न घबराए

ख़ुदावन्द मसीह ने ये तसल्ली बख़्श बातें ईद-ए-फ़सह के मौक़े पर शाम का खाना खाने के बाद अपने शागिर्दों से कहीं। क्योंकि वो उस पेश-ख़बरी को सुन कर कि “एक तुम में से मुझे पकड़वाएगा” और ये कि “मैं थोड़ी देर तक तुम्हारे साथ हूँ तुम मुझे ढूँढोगे और जहां मैं जाता हूँ तुम नहीं आ सकते।”

Don’t Let Your Hearts Be Troubled

तुम्हारा दिल न घबराए

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Feb 16,1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 16 फरवरी 1894 ई॰

“तुम्हारा दिल न घबराए तुम ख़ुदा पर ईमान लाते हो मुझ पर भी ईमान लाओ।” (यूहन्ना 14:1)

ख़ुदावन्द मसीह ने ये तसल्ली बख़्श बातें ईद-ए-फ़सह के मौक़े पर शाम का खाना खाने के बाद अपने शागिर्दों से कहीं। क्योंकि वो उस पेश-ख़बरी को सुन कर कि “एक तुम में से मुझे पकड़वाएगा” और ये कि “मैं थोड़ी देर तक तुम्हारे साथ हूँ तुम मुझे ढूँढोगे और जहां मैं जाता हूँ तुम नहीं आ सकते।”

निहायत मुज़्तरिब व हैरान (बेचैन व परेशान) थे इसलिए ख़ुदावन्द ने उन्हें तसल्ली देकर फ़रमाया “तुम ख़ुदा पर ईमान लाते हो मुझ पर भी ईमान लाओ।”

ख़ुदा पर और उस के बेटे हमारे ख़ुदावन्द यसूअ़-मसीह पर ईमान लाना बेशक मुजिब तसल्ली व इत्मिनान कामिल है और दिली इज़्तिराब और घबराहट के दफ़ईया (दफ़ाअ करना) का यही एक मुजर्रब ईलाज (आज़माया हुआ ईलाज) है। सिर्फ ख़ुदा पर ईमान लाना और उस के बेटे ख़ुदावन्द यसूअ़-मसीह का इन्कार करना हर्गिज़ कामिल और नजात बख़्श ईमान नहीं हो सकता।

तुम्हारा दिल न घबराए तुम ख़ुदा पर ईमान लाते हो मुझ पर भी ईमान लाओ।

ख़ुदावन्द मसीह के शागिर्द जो यहूदीयों में से थे कुतुब अह्द-ए-अतीक़ के मुताबिक़ ख़ुदा पर ईमान रखते थे वो उस से ना-वाक़िफ़ न थे और ग़ैर-अक़्वाम के लोगों की मानिंद उन्हें क़ाइल ख़ुदा करने की ज़रूरत न थी। पर सिर्फ यही ज़रूरत थी कि वो जैसा ख़ुदा पर ईमान रखते हैं वैसा ही ख़ुदावन्द मसीह पर भी ईमान रखें।

ये बातें निहायत गौरतलब हैं, अगर मसीह ख़ुदा ना होता और मह्ज़ इन्सान ही होता तो ऐसा कहना हर्गिज़ जायज़ न होता क्योंकि किसी मह्ज़ इन्सान का लोगों से अपने ऊपर ऐसा ईमान लाना तलब करना जैसा वो ख़ुदा पर ईमान लाते हैं दाख़िले कुफ़्र है। यूहन्ना रसूल ने इसी बारे में यूं लिखा है “कौन झूटा है? मगर वो जो इन्कार करता है कि यसूअ़ वो मसीह नहीं। जो बाप और बेटे का इन्कार करता है वही मुख़ालिफ़-ए-मसीह है। जो कोई बेटे का इन्कार करता है सो बाप से भी उस को वास्ता नहीं है पर वो जो बेटे का इक़रार करता है वो बाप से भी वास्ता रखता है।” (1 यूहन्ना 2:22, 23)

बाअ्ज़ आदमी जो इन्जीली बशारत बख़ूबी सुन चुके हैं और अपनी गुनाह आलूदा हालत और नजात हासिल करने की ज़रूरत से भी किसी क़द्र वाक़िफ़ हो गए हैं, मगर खुला-खुली मसीही मज़्हब को क़ुबूल कर के बपतिस्मा लेने और मसीह के मुबारक नाम का अलानिया इक़रार करने की हिम्मत व ज़रा नहीं रखते क्योंकि ऐसा करने के लिए उन्हें ज़ात बिरादरी और ख़ानगी (ज़ाती ताल्लुक़ात) वग़ैरह के ख़यालात रोकते हैं अपने दिलों को यूं तसल्ली दिए हुए हैं कि अगर हम ख़ुदा पर अलानिया ईमान रखें और मसीह को अगर वो भी ख़ुदा है अपने दिल में सच्चा नजात-दिहंदा जान कर मख़्फ़ी (छिपा हुआ) ईमान रखें तो यही बस है हम ज़रूर नजात पाएँगे।

चुनान्चे राजपूताना के एक मुअल्लिम मिशन स्कूल ने जो मुहम्मदी फ़िर्क़ा ग़ैर-मुक़ल्लिद (पैरवी न करने वाला) से था और बाइबल से भी वाक़िफ़ था एक रोज़ असना-ए-गुफ़्तगु (बातचीत के दौरान) में बयान कि “मैं मसीह को कुल अम्बिया से आला तर और अफ़्ज़ल समझता हूँ मगर उस की उलूहियत में कुछ शक है और अगर वो फ़िल-हक़ीक़त ख़ुदा भी है तो ख़ैर मैं’ ख़ुदा पर ईमान रखता हूँ और यही काफ़ी है।”

मसीह के शागिर्द भी ऐसा कह सकते थे लेकिन उन्होंने मसीह के जवाब में ऐसा कहने का ख़याल न किया और जैसा वो ख़ुदा पर ईमान लाए वैसा ही ख़ुदा के बेटे यसूअ़-मसीह पर ईमान लाए और हक़ीक़ी तसल्ली व इत्मिनान इस कामिल ईमान के ज़रीये उन्हें हासिल हुआ।”

बाप किसी शख़्स की अदालत नहीं करता

मालूम नहीं कि उलूहियत व इब्नियत (शान-ए-ख़ुदावंदी और ख़ुदा का बेटा) मसीह के मुन्किरों (इन्कार करने वाले) ने इन्जील यूहन्ना की आयात मुन्दर्जा बाला के मअनी व मतलब पर कभी ग़ौर व फ़िक्र किया है या नहीं? जो लोग मसीह को एक उलुल-अज़्म (बुलंद इरादे वाले, साहिब-ए-अज़्म) नबी समझते हैं और बस या वो जो उस की इब्नियत (ख़ुदा का बेटा)

Father don’t Judge Anyone

बाप किसी शख़्स की अदालत नहीं करता

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Apr 13, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 13 अप्रैल 1894 ई॰

“बाप किसी शख़्स की अदालत नहीं करता बल्कि उस ने सारी अदालत बेटे को सौंप दी है ताकि सब बेटे की इज़्ज़त करें जिस तरह से कि बाप की इज़्ज़त करते हैं।” (यूहन्ना 22:23)

मालूम नहीं कि उलूहियत व इब्नियत (शान-ए-ख़ुदावंदी और ख़ुदा का बेटा) मसीह के मुन्किरों (इन्कार करने वाले) ने इन्जील यूहन्ना की आयात मुन्दर्जा बाला के मअनी व मतलब पर कभी ग़ौर व फ़िक्र किया है या नहीं? जो लोग मसीह को एक उलुल-अज़्म (बुलंद इरादे वाले, साहिब-ए-अज़्म) नबी समझते हैं और बस या वो जो उस की इब्नियत (ख़ुदा का बेटा) के तो एक मअनी से क़ाइल हैं और उस को अफ़्ज़ल-उल-अम्बीया (नबियों में बर्तर) और शफ़ी-उल-मुज़्नबीन (गुनाहगारों की शफ़ाअत करने वाला) वग़ैरह सब कुछ जानते और मानते हैं मगर उस की उलूहियत के क़ाइल व मुतअक़्क़िद (बोलने व एअ़्तकाद रखने वाला) नहीं उन के लिए आयात मज़्कूर अस्सदर का मज़्मून बड़ी हैरानी व परेशानी का बाइस होगा ख़्वाह वो इन आयतों की कुछ ही तफ़्सीरो तावील (बयान व तब्दीली करना) करें मगर जब तक कि ये अक़्दह (मुश्किल बात) हल न हो कि मह्ज़ इंसान क्यों-कर तमाम दुनिया की अदालत कर सकता है? और क्यों ख़ुदा के बराबर सभो से इज़्ज़त तलब करता है? कोई तफ़्सीर व तावील तालिब-ए-हक़ (सच्चाई का तालिब) के दिल में हर्गिज़ तस्कीन व तश्फ़ी (तसल्ली व इत्मिनान) पैदा नहीं कर सकेगी दुनिया की अदालत करना एक इलाही मन्सब (ख़ुदाई इख़्तियार) है जिसके लिए आलिमुल्गै़ब (ग़ैब का इल्म जानने वाला) और आरिफ़-उल-क़ुलूब (दिल की बात जानने वाला) होना निहायत ज़रूरी है, क्योंकि इन्सानों के दिलों और गुर्दों का जांचने वाला और उन के पोशीदा अम्लों से वाक़िफ़ व अ़लीम (इल्म रखने वाला) सिर्फ ख़ुदा है जैसा कि वो फ़रमाता है कि “मैं ख़ुदावन्द दिल को जानता हूँ, और गुर्दों को आज़माता कि मैं हर एक आदमी को उस की चाल के मुवाफ़िक़ और उस के कामों के फल के मुताबिक़ बदला दूं।” (यर्मियाह 17:10)

पस इस सूरत में क्यों-कर मुम्किन है कि कोई इंसान मह्ज़ दुनिया की अदालत कर सके? और हर एक फ़र्द-ए-बशर को उस के आमाल के मुताबिक़ जज़ा व सज़ा के लायक़ ठहराए? अगर ये कहा जाए कि ख़ुदा तआला अपनी तरफ से किसी को अगर चाहे तो ऐसी अदालत करने का मन्सब व इख़्तियार बख़्श सकता है लेकिन फिर भी अक़्ल-ए-सलीम (पूरी अक़्ल) ये हर्गिज़ क़ुबूल नहीं कर सकती कि वो अपनी सिफ़त आलिमुल्गै़बी व आरिफ़ुल़्कल्बी जो इन्सानों की आख़िरी अदालत के लिए अम्र लाज़िमी है किसी मख़्लूक़ को अता कर सकता है। मसीह ख़ुदावन्द इसी लिए दुनिया का आदिल व मुंसिफ़ होगा कि वो गॉड-मेन (ख़ुदा इन्सान) हो कर इन्सानी माहीयत (असलियत) का तजुर्बा और वाक़्फ़ियत रखना और आरिफ़-उल-क़ुलूब व हमा दान (हर-फ़न मौला) है। चुनान्चे लिखा है कि “वो सबको जानता था और मुह्ताज न था कि कोई इन्सान के हक़ में गवाही दे क्योंकि वो आप जो कुछ इन्सान में था जानता था।” (यूहन्ना 2:25)

फिर उस ने ख़ुद भी फ़रमाया है कि “मैं वही हूँ जो दिलों और गुर्दों का जांचने वाला हूँ और मैं तुम में से हर एक को उस के कामों के मुवाफ़िक़ बदला दूँगा।” (मुकाशफ़ा 2:23)

अहले फ़िक्र पर बाइबिल का इस्तक़ाक़

बाइबल एक यूनानी लफ़्ज़ है जिसके मअनी हैं (दी बुक) अल-किताब। स्कॉटलैंड के मशहूर नावेलिस्ट और शायर सर वाल्टर स्कॉट साहब ने जब हालत-ए-नज़ा (मरने की हालत) में थे अपने रिश्तेदार लॉकहर्ट से कहा कि मेरे पास (दी बिक) अल-किताब ले आओ, लाकहर्ट हैरान था कि मैं कौनसी किताब ले जाऊं और इधर-उधर झांक रहा था कि

Privileges of the Bible for Intellectuals

अहले फ़िक्र पर बाइबिल का इस्तहक़ाक़

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Mar 16, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 16 मार्च 1894 ई॰

बाइबल एक यूनानी लफ़्ज़ है जिसके मअनी हैं (दी बुक) अल-किताब। स्कॉटलैंड के मशहूर नावेलिस्ट और शायर सर वाल्टर स्कॉट साहब ने जब हालत-ए-नज़ा (मरने की हालत) में थे अपने रिश्तेदार लॉकहर्ट से कहा कि मेरे पास (दी बिक) अल-किताब ले आओ, लाकहर्ट हैरान था कि मैं कौनसी किताब ले जाऊं और इधर-उधर झांक रहा था कि क्या करूँ कि सर वाल्टर स्कॉट ने फिर कहा, क्या दुनिया भर में कोई और किताब भी है। लॉकहर्ट अब समझ गया कि किस किताब से उस की मुराद है और झट बाइबल (दी बुक) उनके पास ले गया।

वाक़ई ये किताब (दी बिक) अल-किताब है दुनिया भर में सबसे क़दीमी मुख़्तलिफ़ ज़मानों में मुख़्त्तलिफ़ मिज़ाज, हैसियत, आदात, मालूमात के आदमीयों के ज़रीये लिखी गई मगर तो भी एक ऐसी नादिर किताब (उम्दा किताब) है कि बावजूद उन तमाम तफ़ावुतों (फ़र्क़ होना) के रूह-ए-इलाही की हिदायत से इस में अव़्वल से आख़िर तक एक अजीब सिलसिला ग़रीब रिश्ता पाया जाता है। कि जो कुछ अव्वल में पहले ही पहल इब्तिदाई सूरत में लिखा गया आख़िर तक वही कुछ इस अंदाज़ से इंतिहा तक पहुंचाया गया कि सुबह की इब्तिदाई चमक और आफ़्ताब-निस्फू-न्नहार (दोपहर के सूरज की तरह रोशन) की दमक (चमक) का समा बांध दिखलाया।

हर ज़माने में इस किताब पर बड़ी छानबीन की गई है और आजकल इस मुल्क में भी अहलेफ़िक्र (फ़िक्र करने वाले) इस को पढ़ते हैं इस पर गुफ़्तगु करते, ग़ौर करते, खोजते (तलाश करना) हैं।

माहिरीन-ए-इल्में-अदब इस किताब की अंग्रेज़ी लिट्रेचर के मद्दाह हैं और तालिबे इल्म ज़बान अंग्रेज़ी ज़बान दानी के हुसूल के लिहाज़ से इस किताब को अज़ीज़ रखते हैं। मगर हमारी मंशा (मक़्सद) इस वक़्त ये नहीं है कि हम इस किताब की इस क़िस्म की ख़ूबीयों का इज़्हार करें, हम उनसे क़त-ए-नज़र (सिवा कर के) एक और तरफ़ आपकी फ़िक्र को मुतवज्जोह करते हैं और वो ये है:-

मिनजुम्ला दीगर मसाइल के दो निहायत ही ज़रूरी मसले इस किताब में अव़्वल से आख़िर तक पैदाइश की किताब से लेकर मुकाशफ़ा की किताब तक बड़ी सफ़ाई के साथ पाए जाते हैं और ये दोनों ऐसे मसाइल हैं जो किसी दूसरी किताब में जो इल्हामी होने का दावा करती हैं इस तौर पर और इस सफ़ाई के साथ पाए नहीं जाते बल्कि यूं कहें कि बिल्मुक़ाबिल हैं ही नहीं। और वो ये हैं:-

अव़्वल- मसअला गुनाह

दोम- नजात का तरीक़ इलाही

ये किताब मिस्ल दीगर किताबों के गुनाह की अस्लियत और कराहीयत (नफ़रत) को कम कर के नहीं दिखलाती है बल्कि साफ़-साफ़ बतलाती है कि गुनाह दीदो-दानिस्ता (जान-बूझ कर किया गया) फ़अल है। ये अल्लाह तआला की सरीह (साफ़) ना-फ़र्मानी है और उस के अहकाम का तोड़ना बाइबल में आदम-ज़ाद के गुनाह का नक़्शा इस सफ़ाई से खींचा गया है (देखो ख़ुसूसुन इन्जील मत्ती पहाड़ी वाअ़्ज़) कि जो उस को सिद्क़ दिल (सच्चे दिल) से पढ़ता है अपने गुनाहगार दिल का अक्स इस में पाता है।

बाइबिल एक यूनानी लफ्ज़ है जिसके मअनी है “दी बुक” अल-किताब

कहते हैं कि एक मर्तबा एक पादरी साहब बाइबल से पढ़ कर गुनाह का ज़िक्र एक अफ़्रीक़ा के सरदार के रूबरू कर रहे थे सुनते-सुनते तैश में आकर वो सरदार बोल उठा, तुझको मेरी निस्बत किस ने ख़बर दी है? तुझको मेरे हाल से कब वाकफ़ी हुई? जब डाक्टर डफ़ साहब कलकत्ता में नौजवानों की एक जमाअत को बाइबल पढ़ा रहे थे और गुनाह का हाल बाइबल से बता रहे थे, एक ज़ी-अक़्ल संस्कृत-दान (संस्कृत ज़बान का माहिर) ताअ़्लीम याफ्ताह ब्राह्मण नौजवान हैरान हो कर कहने लगा, ऐ साहब मेरे दिल के हाल की निस्बत आपको कहाँ से ख़बर लगी? ये तो ठीक मेरे दिल का हाल है जो आप बता रहे हैं। ग़ौर का मुक़ाम है कि कुंदाना तराश (बेवक़ूफ़) वहशी सरदार का रिमार्क (कहना, राय) और इस मेहज़ब ताअ़्लीम-याफ़्ता ब्राह्मण का क़ौल इस किताब की निस्बत क्या सच्चा है सच पूछिए तो ये किताब इंसान के दिल का शीशा है ये हर फ़र्दे बशर को उस की असली हालत बतलाकर उसे गोया जा पकड़ती है और ये अम्र यानी अपने आप में ऐसा पुर-ज़ोर अंदरूनी सबूत रखना इस अम्र पर दाल (दलालत) है कि ये किताब मिनजानिब-अल्लाह है और हर साहिब-ए-फ़िक्र (ख़्वाह अफ्रीकाई सरदार सा वहशी हो या ताअ़्लीम-याफ़्ता ब्राह्मण का साइन्लाइन्टेड हो) के ग़ौर और फ़िक्र के लायक़ है।

दूसरा अम्र क़ाबिल-ए-ग़ौर जो हर फ़र्द-ए-बशर के लिए अज़्हद ज़रूरी है वो आदम-जा़द की नजात का इलाही इंतज़ाम है ये मसाइल भी मिस्ल मसाइल गुनाह के बड़ी सफ़ाई से इस किताब में बयान किया गया है और सादा-सादा और आम फहम अल्फ़ाज़ में नजात का इलाही तरीक़ा बतलाया गया है। (इन्जील यूहन्ना 3:16) और इन्जील मत्ती 1:21, आमाल 4:12) में यूं मर्क़ूम है, “क्योंकि ख़ुदा ने जहान को ऐसा प्यार किया है कि उस ने अपना इकलौता बेटा बख़्शा ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए और वो बेटा जनेगी और तू उसका नाम यसूअ़ रखेगा क्योंकि वो अपने लोगों को उन के गुनाहों से बचाएगा और किसी दूसरे से नजात नहीं क्योंकि आस्मान के तले आदमीयों को कोई दूसरा नाम नहीं बख़्शा गया जिस से हम नजात पा सकें।”

इन आयात के पढ़ने से हमको अव़्वल ये मालूम होता है कि नजात का इलाही तरीक़ा कैसा सादा और आम फहम है। दोम ये कि कोई शख़्स ख़ुद-ब-ख़ुद अपने लिए नजात हासिल नहीं कर सकता। सौम कि हमारी नजात सिर्फ़ ख़ुदा से है और चहारुम ये कि नजात का इलाही तरीक़ा ये है कि हम ईमान लाएं ख़ुदा तआला कहता है आज़माओ, परखो, जिस तरह कोई बीमार चंगा नहीं हो सकता है जब तक वो दवा को खा कर ना आज़मा ले। इसी तरह अगर हम ईमान ना लाएं हम यक़ीन के साथ उस को आज़मा ना लें हम नजात नहीं पा सकते हैं अगर कोई बीमार किसी दवा को देखकर ना-हक़ की हुज्जत (बह्स) करे कि ये दवा कड़वी है इस की रंगत ख़राब है तो क्या उस को हकीम ना कहेगा कि इस को खा कर देख इस का फ़ायदा खाए बग़ैर हासिल ना होगा। इसी तरह ख़ुदा तआला कहता है परखो, आज़माओ और मुस्तफ़ीद (फ़ायदा हासिल करना) हो।

(3) अब हम ज़रा बाइबल की अजीब फ़ुतूहात पर ग़ौर करें, तक़रीबन दस बरस गुज़रे हैं कि हिन्दुस्तान के दार-उल-ख़िलाफ़ा में एक बड़ी अज़ीमुश्शान नुमाइश-गाह होती थी हज़ार-हा विज़िटर (सैर करने वाले) तमाम दुनिया, एशिया, यूरोप, अफ़्रीक़ा और अमरीका से इस की सैर करने को आए मुख़्तलिफ़ मुल्कों की अजीब व ग़रीब चीज़ें इस नुमाइश-गाह में दूर-दूर से भेजी गईं लेकिन एक चीज़ एक कमरे के एक कोने में थी जिसको लोग बड़ी हैरानी से देखते थे ये एक गोल मेज़ थी जिसका डाएमीटर 7 फुट का था। ये मेज़ एक ही तख़्ते से बनाई गई थी कहीं उस के जोड़ ना था कारीगर ख़ुर्दबीन लगा-लगा कर उस को बड़े ग़ौर से देखते थे मगर कहीं कोई जोड़ ना पाते और हैरान होते थे। मगर तर-फ-तर माजरा ये था कि उस पर उस वक़्त की तमाम मालूमा ज़बानों की एक एक जिल्द बाइबल की धरी थी ये एक निहायत ही अजीब बात है कि जहां-जहां बाइबल गई ना सिर्फ वहां की लुग़त (डिक्शनरी) और ज़बान को उसने बड़ी तरक़्क़ी दी बल्कि लुग़तें वजूद में आईं। जहां लोग इस क़द्र वहशी थे कि ना उनकी कोई लुग़त थी ना हुरूफ़-ए-तहज़ी वहां पादरी साहिबान ने जाकर उन वहशियों को उनकी ज़बानों में बाइबल देने की ख़ातिर लुग़त की बुनियाद डाली हुरूफ़-ए-तहज़ी बनाइ, उस ज़बान को तहरीर में लाए और उस को रौनक देकर बाइबल का तर्जुमा उस ज़बान में किया। अब बताईए कि दुनिया के सफे पर क्या कोई और किताब है कि जिससे इस क़द्र फ़ायदे पहुंचे हैं? क्या ये बाइबल की फ़ुतूहात का एक करिश्मा नहीं?

दुनिया में आजकल जिस क़द्र तहज़ीब ने तरक़्क़ी है जिस क़द्र नई मालूमात हुई हैं और हर तरह की आसाइश व तरक़्क़ी हो रही है क्या ये बाइबल की फ़ुतूहात की एक नज़िर नहीं?

और आख़िरकार वो असर जो ये किताब इंसान के दिलों पर करती है शरीरों को ख़ुदा-परस्त वहशियों को तहज़ीब याफ्ताह गुनाहगारों को नजात याफ्ताह। क्या ये सब इस की आला फ़ुतूहात की नज़ीर (मिसाल) नहीं हैं।

(4) पस जिस हाल कि इस किताब की फ़ुतूहात का ये हाल है तो क्या मुनासिब नहीं कि अहले-फ़िक्र इस किताब पर ग़ौर करें।