मैं क्योंकर जानूं कि तुम मुझे प्यार करते हो?

मैं क्योंकर जानूं कि तुम मुझे प्यार करते हो?

गो हमारे मज़्मून के पढ़ने वाले हमसे बहुत दूर हैं, तो भी हम क़यास की दूरबीन लगाए घर बैठे एक अजीब तमाशा देख रहे हैं, कि उन्वान के जुमले पढ़ कर कई एक के चेहरे तमतमा रहे हैं, आँखें ख़ून की तरह लाल हुई जाती हैं, पेशानी पर मारे ग़ुस्से के बल पड़ रहे हैं, ज़बान से अगर कोई कलिमा निकलता है तो बस यही,

HOW DO I KNOW THAT YOU LOVE ME?

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Rev. Talib-U-Den

रेव॰ तलिबुद्दीन

Published in Nur-i-Afshan Aug 6, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 6 अगस्त 1891 ई॰
हाय मैं कहता जो हूँ, देखो तुम्हारे लिए मैंने कैसे-कैसे दुख सहे, तुम्हें अभी मालूम नहीं?

गो हमारे मज़्मून के पढ़ने वाले हमसे बहुत दूर हैं, तो भी हम क़यास की दूरबीन लगाए घर बैठे एक अजीब तमाशा देख रहे हैं, कि उन्वान के जुमले पढ़ कर कई एक के चेहरे तमतमा रहे हैं, आँखें ख़ून की तरह लाल हुई जाती हैं, पेशानी पर मारे ग़ुस्से के बल पड़ रहे हैं, ज़बान से अगर कोई कलिमा निकलता है तो बस यही, ऐ नूर-अफ़्शाँ और ये फ़िक़्रे तौबा-तौबा! अगरचे इस ग़ुस्से और ग़ज़ब का स्वधर्म ही हैं। तो भी हम बड़े जोश से अपने ग़ुस्से फ़र्मा दोस्तों की तारीफ़ करते हैं, कि उन के दिलों में नूर-अफ़्शाँ की ग़ैरत तो है। मगर मालूम हो कि इन जुमलों के इक़्तिबास से हमारा ये मतलब नहीं कि हम अल्फ़ाज़ की बंदिश या मासूक जफ़ा-पेशा का नाज़ दादा या आशिक़ दिल-फ़िगार का हाल-ए-ज़ार, नाज़रीन को दिखाएं नहीं हरगिज़ नहीं।

चंद दिन हुए कि हमें इस ज़माने के एक नामी गिरामी मुसन्निफ़ की तस्नीफ़ देखने का इत्तिफ़ाक़ हुआ था, तो वो एक क़िस्सा मगर ऐसा ना था जैसे पिछले ज़माने के क़िस्से कहानियां। जिनके बाअज़-बाअज़ हिस्सों का पढ़ना ना सिर्फ औरतों के लिए नाजायज़ है, बल्कि इस क़द्र मर्दों के लिए भी। लेकिन इस किताब में जिसका हम ज़िक्र करते हैं ऐसे दो शख्सों का हाल मुंदरज है जिन्हों ने अपने-अपने दिल को एक दूसरे के हाथ फ़क़त अदाओं की क़ीमत पर बेच कर उम्र-भर के लिए रंज और राहत का शरीक बने। और वफ़ा में साबित क़दमी दिखाने का वाअदा किया है। ख़ैर इस से हमें क्या। हमारा काम सिर्फ सुर्ख़ी के सवाल और जवाब से है इस सवाल को पढ़ कर “मैं क्योंकर जानूं कि तुम मुझे प्यार करते हो?” उस ज़रूरत का ख़याल दिल में पैदा होता है, जो एक ख़ास हालत में हर एक इन्सान को अपनी सूरत दिखाई जाती है। क़ुदरत ने हमारे दिलों पर एक ऐसा मोटा और ज़ख़ीम पर्दा डाल रखा है कि प्यारे से प्यारा और अज़ीज़ से अज़ीज़ उस को चीरने और हमारे ख़यालात से वाक़िफ़ होने की ताक़त नहीं रखता। बेटा बाप के, बाप बेटे के, दोस्त दोस्त के ख़यालात से हरगिज़ वाक़िफ़ नहीं हो सकता। तावक़्ते के ज़बान को काम में ना लाएं। ये एक ऐसी ज़रूरत है जो हमारी ज़िंदगी के हर एक रिश्ते और इलाक़े में मौजूद है। मुहब्बत और इत्तिहाद का रिश्ता चाहे कैसा ही मज़्बूत हो। लेकिन अपने दिल का हाल जब तक ख़ुद ना बताओ कोई नहीं जान सकता। माँ की मुहब्बत से बढ़कर और कौन सी मुहब्बत होगी? पर वो भी अपने बच्चे की भूक से वाक़िफ़ नहीं हो सकती जब तक कि वो ख़ुद बिलक कर ज़ाहिर ना करे कि मैं भूका हूँ। जोरू और शौहर ज़िंदगी-भर की मुसाफ़त में चाहे रंज हो या ख़ुशी, पस्ती हो या बुलंदी, इफ़्लास (ग़रीबी) हो या दौलतमंदी। गर्दनों में बाहें डाले एक दूसरे को तसल्ली देते। ज़माने के दिए हुए ज़ख़्मों पर मुहब्बत और दिलासे के मरहम लगाते गुज़र जाते हैं लेकिन यहां भी ये ज़रूरत मौजूद है। हज़ारों ऐसे-ऐसे दोस्त हमनिवाला और हमपियाला देखने में आते हैं। जो एक दूसरे से कोई भेद पोशीदा नहीं रखते छोटी से छोटी बात भी जिसके खु़फ़ीया रखने से उन की यगानगत में कुछ फ़र्क़ नहीं आ सकता बे बताए नहीं रहते। और एक दूसरे पर जान फ़िदा करने को तैयार होते हैं पर वहां भी ये ज़रूरत हाज़िर है।

चाहे हम क़िस्से नवीसों को बुरा ही समझें, लेकिन एक बात तो हमको ज़रूर ही माननी पड़ती है जिस तरह सर्जन ये जानता है कि दिल की ये शक्ल है, उस में इतना ख़ून है, इतने वक़्त में इतनी हरकत करता है। उसी तरह ये भी यानी शायर और क़िस्से नवीस किस क़द्र उन इलाक़ों से वाक़िफ़ होते हैं जो वो जिस्म के साथ नहीं पर ख़याल और वहम के साथ रखता है सच है। अदम से हस्ती की तरफ़ आते वक़्त नेचर उन को क़िस्म-क़िस्म की प्यालियां तरह-तरह के रंगों से पुर देती है, और साथ ही ये कह देती है, लो जाओ सफ़ा तजुर्बे पर इन्सान के रंज व ग़म, शादी और ख़ुशी, क़हर और ग़ुस्सा, कमज़ोरी और लाचारी ज़ोर-आवर ताक़त की जैसी तस्वीर खींची हुई देखो। वैसी तुम भी अपने ज़हन ख़ुदादाद और उन रंगों के इस्तिमाल से खींच कर दिखाया करो। मगर अफ़्सोस उनमें से अक्सर इस अतीया बेश-बहा को बहुत बुरे तौर पर बरतते हैं। हाँ तस्वीर तो बहुत खींचते हैं और हम ये भी मानते हैं कि उन की मुसव्विरी अपनी क़िस्म में बढ़कर होती है। लेकिन जिस पैराये में वो उस को दिखाते हैं, या जो आईने उस पर चढ़ाते हैं, वो साफ़ और ऐब से बरी नहीं होता। या तो जगह-जगह बद-अख़्लाकी के पत्थर खाकर टूटा हुआ होता है, या किसी और क़िस्म की गर्द उस पर लगी होती है। काश हमारे आजकल के शायर जैसी अख़्लाक़ की सूरत देखते हैं, वैसी चमकती झलकती उस की फ़ोटो फिर खींच कर दिखाएं। इन लफ़्ज़ों में कि, “मैं क्योंकर जानूं तुम मुझे प्यार करते हो?” क्या ही ठीक और सच्ची तस्वीर हमारी कमज़ोरी की खींची हुई है। और तजुर्बा ये कह कर शहादत दे रहा है, सच है हम किसी के दिल का हाल हरगिज़ नहीं जान सकते। जब तक कि वो ख़ुद ना बताए। हमारे उन्वान के हबीब ने तरह-तरह के हादसे सहे, हज़ारों रंज झेले, घर छोड़-छाड़ कर ख़ाना-ए-वीरान होना मंज़ूर किया। लेकिन तो भी उस के महबूब को उस की मुहब्बत की ख़बर अब तक नहीं हुई, क्यों? कभी बतलाया नहीं। ख़्वाह कोई को हकनी में जान-ए-शीरीं बर्बाद करे। ख़्वाह जंगलों में दीवाने-वार मारा-मारा फिरे और भूक प्यास सहे, यहां तक कि सूख कर कांटा सा रह जाये। ख़्वाह अथाव समुंद्र में गिर कर ज़िंदगी से हाथ धो बैठे। लेकिन जब तक इस शख़्स को जिसके लिए ये सब तकलीफ़ें गवारा कीं, ये मालूम ना हो कि इन सब मुसीबतों का बाइस मैं हूँ, तब तक कभी उस की आँख से ग़म का आँसू दिल से दर्द की आह। लब से अफ़्सोस का कलिमा ना निकलेगा।

अगर इस मज़्मून के पढ़ने वालों में से कोई बाप होने का रुत्बा रखता हो, तो ज़रा सी देर के लिए लौट कर अपनी तय की हुई ज़िंदगी पर नज़र डाल कर देखे, क्या उस में कोई ऐसा मौक़ा उसे नज़र नहीं आता जब कि वो अपने बेटे की चाल व चलन के या उस के इधर-उधर आवारा रहने के या किसी और मुआमले के मुताल्लिक़ कोई बात दर्याफ़्त करना चाहता था, पर बेटा बात को छुपाता था। हाँ अगर कोई ऐसा मौक़ा नज़र में हो तो याद करे कि उस के गुरेज़ करने और बात को सही-सही बता ना देने पर उस के दिलेर क्या कुछ गुज़रता था। क्या बरछीयॉं ना चलती थीं, और बार-बार ये आवाज़ ना निकलती थी, हाय अगर मेरा बस चलता तो इस के दिल का एक-एक कोना देख डालता पर कुछ ना कर सकता था। या अगर उस का कोई दोस्त हो तो उस वक़्त को याद करे जब उस का दोस्त उस से कोई बात छुपाता था। क्या उस वक़्त उस का दिल बे-ताबी के भंवर में ना डूबा जाता था। और क्या इस में से दम-ब-दम ये सदा जलती आग की तरह ना निकलती थी? काश मुझे क़ुदरत होती तो उस के पुर्जे-पुर्जे़ कर डालता, रग व रेशे में से छानबीन कर उस बात को जिसे छुपाता है निकाल लाता। अज़ीज़ो ये हमारा हाल है जिस अक़्ल पर जिस दूरबीन पर हम अक्सर फ़ख़्र किया करते हैं उस की ऐसी रवय्य हालत है कि दोस्त, दोस्त के दिल का हाल नहीं जान सकता। मगर इस पर तुर्रह ये कि हम में से हज़ारों इस बात का दम भरते हैं कि ख़ुदा की बाबत हम ख़ुद ही सब कुछ दर्याफ़्त कर सकते हैं, इल्हाम की कोई ज़रूरत नहीं। लेकिन ये याद रहे जब कि हम उन लोगों के ख़यालात से जो हर वक़्त हमारे सामने रहते हैं। जो शेर व शुक्र से ज़्यादा हमसे वाबस्ता हैं, जो हमारी हड्डी और हमारा ख़ून हैं, वाक़िफ़ नहीं हो सकते। तो कब मुम्किन है कि ख़ुदा की मुहब्बत और उस के औसाफ़ से ख़ुद बख़ुद कमा-हक़्क़ा वाक़िफ़ हो सकें। उसे तो हमने देखा भी नहीं। अगर दूसरे आदमी का इरादा दर्याफ़्त करना मुश्किल है, तो ख़ुदा का इरादा दर्याफ़्त करना हज़ारचंद मुश्किल-तर होना चाहीए। अगर दूसरे आदमी के हालात जानने के लिए ये अम्र लाज़िम ठहरता है कि वही बताए तो हम जानें। तो हज़ार लाज़िम तर ये अम्र ठहरता है कि ख़ुदा ही अपने फ़ज़्ल से अपने इरादात हम पर ज़ाहिर करे तो हम जानें, जो ये दावा करते हैं कि सिर्फ उस की सनअत ही से सब कुछ दर्याफ़्त हो सकता है, उन के जवाब में हम ये कहते हैं कि दावा सरासर ग़लत है। अलबत्ता इस बात के हम भी क़ाइल हैं कि उस की सनअत पर ग़ौर करने से उस की क़ुदरत हिक्मत और दानाई हम पर ज़ाहिर हो जाती हैं। लेकिन क्या ये काफ़ी है? हिन्दुस्तान में ताज-महल एक ऐसी इमारत है कि दूर-दूर मुल्कों में कोई और मकान उस का सानी नहीं पाया जाता। नाज़रीन उसे देखकर बनाने वालों की ख़ूब तारीफ़ करते होंगे। और ज़रूर कहते होंगे आफ़्रीं उस उस्ताद पर जिसने ये इमारत तामीर की। लेकिन हम ये नहीं मान सकते कि इस इमारत की सनअत को देखकर नाज़रीन उन मुअम्मारों की ख़ुद ख़सलत और चाल व चलन से वाक़िफ़ हो सकें, जिन्हों ने अपनी कारीगरी से उन मकान को तामीर किया। अगर कोई तस्वीर देखकर मुसव्विर की निस्बत या इमारत देखकर मुअम्मार की निस्बत या कल देखकर कल बनाने वाले की निस्बत ये जान सकता है कि वो मग़रूर था या ख़ाकसार था, रास्तबाज़ था या दरोग़गो था, और लोगों पर रहम करने वाला था या उन को सताने वाला था। तो ख़ैर हम भी ये मान लेंगे कि फ़क़त चांद सूरज ज़मीन और आस्मान पर नज़र डालने से ख़ुदा की मुहब्बत, पाकीज़गी और और बाक़ी औसाफ़ कमायंबग़ी दर्याफ़्त हो सकते हैं। अगर कोई जो कहे कि मैंने या फ़लाने ने इन बातों को दर्याफ़्त किया। तो हम कहते हैं कि ज़रा इस बात का जवाब भी दे दे, कि कभी “मैं” या “फलाना” ऐसे ज़माने में भी पैदा हुआ जब कि इल्हाम दुनिया में ना था। जिस ज़माने से दुनिया की मोअतबर तारीख़ शुरू होती है, उस से कहीं पहले इल्हाम आ चुका था। अभी आदम अदन ही में था। जब ख़ुदावंद रहीम ने उस को ये मसरदा दिया कि औरत की नस्ल से एक पैदा होगा जो साँप के सर को कुचलेगा। अगर इल्हाम को ना मानने वाला ख़ुदा की मुहब्बत और रहमत वग़ैरह का हाल बयान करे तो कभी ना समझो कि ये उस की सोच व फ़िक्र का नतिजा है, हरगिज़ नहीं। वो एक तरह की चोरी करता है। औरों से सुनी हुई बातें अपनी बनाता है।

इंजील का दावा ये है, “ख़ुदा जो अगले ज़माने में नबियों के वसीले बाप-दादों से बार-बार और तरह-बतरहा हमकलाम हुआ। इन आख़िरी दिनों में हमसे बेटे के वसीले बोला।” यही एक वसीला था जिससे हम पर ख़ुदा की मुहब्बत, उस की मर्ज़ी, उस के अहकाम और उस के औसाफ़ ज़ाहिर हो सकते थे। उस के बेटे ने आकर हमको सिखाया कि ख़ुदा से और इन्सान से कैसी और किस क़द्र मोहब्बत रखनी चाहिए। ये वही था जिसने मुर्दों के जी उठने, हश्र के दिन हिसाब व किताब होने, बहिश्त के अबदी आराम में दख़ल पाने या दोज़ख़ के मुदाम अज़ाब में गिराए जाने की निहायत वज़ाहत से ख़बर दी। ये वही था जिसने रूह और रास्ती से बंदगी करने, रस्मी और फ़ुज़ूल इबादत से किनाराकश होने का हुक्म किया।

ऐ प्यारे नाज़रीन तुम भी मसीह से ये सवाल करो, “मैं क्योंकर जानूं कि तू मुझे प्यार करता है?” अगर ये सवाल करो और इंजील में इस का जवाब ढूंढो तो ये आवाज़ सुनोगे, “अपने दिल का दरवाज़ा खोल मैं अंदर आऊँगा, तेरे साथ रहूँगा, तेरे साथ खाऊंगा और पीयूंगा।”

दूसरी बात ये है कि, गो ज़बान से मुहब्बत का ज़ाहिर करना लाज़िमी तो है लेकिन काफ़ी नहीं, जैसा हमने उन्वान के जवाब में पाया। वहां हम देखते हैं कि पहले ज़बान से इक़रार किया है और फिर अमली सबूत दिया है यानी अपनी तक़्लीफों का ज़िक्र किया है। चाहे ये शख़्स मुद्दतों ज़बान से कहा करता, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। मैं तुम्हें चाहता हूँ। लेकिन कुछ सूद ना होता, जब तक कि वो अपने फअल से भी अपनी मुहब्बत की सदाक़त ज़ाहिर ना करता। और हम दावे से कह सकते हैं कि अगर कोई ज़बानी जमा ख़र्च पर किसी की मुहब्बत का क़ाइल हो बैठे और उस के चाल चलन से मुहब्बत का सबूत ना ढ़ूंढ़े, तो वो बड़ी ग़लती पर है। ख़ुसूसुन इस शख़्स का हाल तो और भी बदतर बल्कि क़ाइल रहम है। जो सरीहन ये देखता है कि फ़लां शख़्स मेरी मुहब्बत का दम सिर्फ अपने ज़ाती फ़ायदे के लिए भरता है, पर फिर भी उस की मुहब्बत का क़ाइल रहता है। ख़ुदावंद मसीह की मुहब्बत ऐसी मुहब्बत ना थी। “ज़रूर है कि इब्न-ए-आदम सलीब पर खींचा जाये।” ये वो अल्फ़ाज़ हैं जो ख़ुदावंद ने अपनी सलीबी मौत से पेशतर अपने शागिर्दों से कहे थे। यूं तो बहुत सी किताबें और बहुत से हादी, गुरु और मुर्शिद इस बात का दावा करते हैं कि हम :-

दुनिया के लोगों के लिए कामिल दर्जे की मुहब्बत रखते हैं। लेकिन ये देखना चाहिए कि उनकी तरफ़ कोई फअल भी ऐसा पाया जाता है जो उन के दावा मुहब्बत को साबित करता हो। शायद ऐसे भी बहुत मिल जाएं जिन्हों ने तकलीफ़ें सही हों। लेकिन ऐसा कोई ना मिलेगा, जिसने हमले पर हमला सदमे पर सदमा उठाया हो। पर फिर भी अपनी ज़बान और अपने हाथ को बंद रखा हो। आपको याद होगा और अगर नहीं तो हम याद दिलाए देते हैं कि जब यहूदीयों के प्यादे मसीह को पकड़ने गए। और जब उस पर हाथ डालने लगे। तो उस के शागिर्दों में से एक ने नियाम से तल्वार सौंप कर मुख़ालिफ़ों पर हमला करने के लिए क़दम बढ़ाया। तो उस मुहब्बत के पुतले ने उस की तरफ़ नज़र फेर कर ये कहा, “अपनी तल्वार बंद कर” फिर जब उसे गिरफ़्तार कर के हाकिम के रूबरू लाए, तो वहां उस के साथ वो सुलूक किया जिसको सोचते कलेजा मुँह को आता है, तम्सख़र से कांटों का ताज उस के सर रखा, तमांचे उस को मारे, ठट्ठों में उसे उड़ाया। ग़रज़ कि उस की तक़्लीफों ने वह तूल खींचा कि आख़िर कार सलीब पर खींचा गया। लेकिन वो ऐसा रहा जैसे “बर्रा” अगर वो चाहता तो फ़रिश्तों के गिरोह उस की मदद को हाज़िर हो जाते। लेकिन नहीं उस के चितवन तक ना बदले, क्यों? इसलिए कि लोगों को मालूम हो जाये कि उस की मुहब्बत बेरिया और बे नुक्स है। ऐ मसीह से नफ़रत करने वालो सुनो वो क्या कह रहा है। “मैंने तुम्हारे लिए ऐसे-ऐसे दु:ख सहे ऐसी-ऐसी तकलीफ़ें झेलीं और तुम्हें अब तक मालूम नहीं कि मैं तुमको प्यार करता हूँ।

क्या ईसाई भी हज करते हैं?

हमने नूर-अफ़्शाँ के किसी पर्चे में ज़िक्र किया था, कि एक शख़्स ने सवाल किया था कि जैसा मुहम्मदियों के हाँ मक्का में जाके काअबे का हज व तवाफ़ करना मूजिब सवाब समझा जाता। और हिन्दुओं में हरिद्वार वग़ैरह का तीर्थ करना बाइस नजात ख़्याल किया जाता है, क्या ईसाई भी किसी मुक़ाम के हज व तीर्थ को जाना मूजिब हुसूल-ए-नजात व सवाब समझते हैं?

Do Christians also do Hajj?

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One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jul 16, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 16 जुलाई 1891 ई॰

हमने नूर-अफ़्शाँ के किसी पर्चे में ज़िक्र किया था, कि एक शख़्स ने सवाल किया था कि जैसा मुहम्मदियों के हाँ मक्का में जाके काअबे का हज व तवाफ़ करना मूजिब सवाब समझा जाता। और हिन्दुओं में हरिद्वार वग़ैरह का तीर्थ करना बाइस नजात ख़्याल किया जाता है, क्या ईसाई भी किसी मुक़ाम के हज व तीर्थ को जाना मूजिब हुसूल-ए-नजात व सवाब समझते हैं? चुनान्चे इस के जवाब में उस सामरी औरत का ज़िक्र उस से किया गया था। जिसका ख़्याल इस मुआमले में साइल (सवाल करने वाला, पूछने वाला) के ख़्याल की मानिंद था। और उस ने ख़ुदावंद मसीह से इस को नबी जान के ये कह के दर्याफ़्त करना चाहा कि हमारे “बाप दादों ने इस पहाड़ पर परस्तिश की और तुम कहते हो (यानी यहूदी लोग) कि वो जगह जहां परस्तिश करनी चाहिए यरूशलेम में है।” ख़ुदावंद ने इस को जवाब दिया कि वो घड़ी आती है बल्कि अभी है कि सच्चे परिस्तार ना इस पहाड़ पर और ना यरूशलेम में बाप की परस्तिश करने के लिए मुक़य्यद व मज्बूर रहेंगे। बल्कि हर कहीं रूह और रास्ती से उस की परस्तिश कर सकेंगे। ख़ुदा रूह है और उस के परिस्तारों (इबादत गुज़ारों) को चाहिए कि रूह और रास्ती से परस्तिश (इबादत) करें।

रियाज़ उद्दीन अहमद साहब अख़्बार मुहज़्ज़ब लखनऊ में लिखते हैं कि ऐडीटर नूर-अफ़्शां साइल को जवाब नहीं दे सके। और अपने साइल की तसल्ली के लिए यूरोप में एक मुक़ाम बतलाया है जहां वो लिखते हैं कि साल में एक दफ़ाअ नहीं बल्कि हर रोज़ ईसाईयों का एक हुजूम रहता है यानी मॉन्टी करलो। ये मुक़ाम उन के ख़्याल में निहायत मुक़द्दस मुक़ाम है। और सैंकड़ों ईसाई वहां अपने गुनाह दूर कराने के लिए जाते हैं। रियाज़ उद्दीन अहमद के इस बयान की नक़्ल “ताज-उल-अख़बार और लायल ख़ालिसा गज़्ट” ने भी की है। लेकिन ये निहायत अफ़्सोस की बात है कि रियाज़ उद्दीन अहमद साहब और उन के ख़्याल के मुअय्यिद (ताईद करने वाला) अख़बारात इतना भी नहीं जानते कि इंजील में कोई ताअलीम इस क़िस्म की नहीं पाई जाती कि गुनाहगार आदमी फ़लां मुक़ाम की ज़ियारत से नजात या सवाब हासिल कर सकता है। जिस मुक़ाम और जिन ईसाईयों का बरा-ए-ज़ियारत वहां जाने का आपने ज़िक्र किया ये सिर्फ उन लोगों की जहालत है वर्ना मसीही लोग हरगिज़ किसी मुक़ाम को हज व ज़ियारत के वास्ते जाना मूजिब सवाब व बख़्शिश गुनाह का ज़रीया मिस्ल हिंदू मुसलमानों के हरगिज़ नहीं ख़्याल करते। आपके इस नाहक़ इल्ज़ाम का क्या जवाब दिया जाये कि, “ईसाईयों ने हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की ताअलीमात को छोड़ दिया है। दुनिया की आलूदगी में फंस गए हैं। क़िमारबाज़ी, शराबख़ारी, ज़िनाकारी को ईसाई ताअलीमात क़रार देते हैं। वो किसी मुतबर्रिक मुक़ाम की क्यों ज़ियारत करने लगे।” बजुज़ इस के, कि जो लोग मज़्कूर बाला गुनाहों को ईसाई ताअलीमात क़रार देते हैं वो हक़ीक़त में ईसाई नहीं हैं। बल्कि ऐसों के हक़ में ख़ुदावंद साफ़ फ़रमाता है कि, वो आस्मान की बादशाहत में हरगिज़ दाख़िल ना होंगे। आप बहुत कोशिश ना करते और चाहते हैं कि किसी सूरत से ईसाई मज़्हब और ईसाईयों को अपने बराबर साबित करके अपने दिल को मुत्मइन करें। लेकिन याद रखिये कि आपके एक बुज़ुर्ग का कौल है, “कोशिश बेफ़ाइदा सुस्त व समा बराबर दीए कौर” ऐसी बे-बुनियाद और इल्ज़ामी बातों से आपका मतलब हरगिज़ हासिल ना होगा।

सर सय्यद अहमद ख़ान बहादुर की गलतीयां चंद क़ाबिल एतराज़

ये कि फ़िक़्रह का हद ममनू मुंदरजा बाब 3 आयत 22 किताब मुसम्मा बह पैदाइश मूसवी में जुम्ला ममनूअ् के दाख़िल कलिमा नू के मअनी उस यानी ज़मीर वाहिद ग़ायब के भी हो सकते,

Some Offensive Objections of Sir Syed Ahamd

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Allama Abdullah Athim Masih

Published in Nur-i-Afshan April 16, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 16 अप्रैल 1891 ई॰

(1) ये कि फ़िक़्रह का हद ममनू मुंदरजा बाब 3 आयत 22 किताब मुसम्मा बह पैदाइश मूसवी में जुम्ला ममनूअ् के दाख़िल कलिमा नू के मअनी उस यानी ज़मीर वाहिद ग़ायब के भी हो सकते, हसब फ़रमाने आँजनाब के हमको तस्लीम हैं अल-बमूजब कुतुब लुगात और सर्फ व नहव इब्रानी के बमाअनी हम यानी जमा मुतकल्लिम जनाब को भी तस्लीम होने चाहें। बाक़ी रहा ये सवाल को मतन कलाम बमूजब अंसब (ज़्यादा मुनासिब) और वाज़ेह मअनी कौन से हैं? वो पूरे फ़िक़्रह को जिसमें कलिमा मुतनाज़ा वाक़ेअ है सो ये है, कि यहोवा इलोहीम ने कहा देखो इन्सान नेक व बद की पहचान में बक़ौल (मसीहयान-ए-तस्लीसी) हम में से एक की मानिंद हो गया (और बक़ौल सर सय्यद साहब) इन से यकता हो गया। यहां पर मर्जूअ (रुजू किया गया) इस्म ज़मीर जमा मुतकल्लिम हम का तो यहोवा इलोहीम मतन में ज़ाहिर है लेकिन इस्म ज़मीर वाहिद ग़ायब उस का मतन कलाम में तो कहीं नहीं ताहम सय्यद साहब फ़रमाते हैं कि इस का मर्जूअ (रुजू किया गया) वो आदम हैं जो आदम मारूफ़ से पहले गुनाह कर के गुज़र गए। अब ये तावील (तशरीह) भी आँजनाब (आलीक़द्र) की ना तो कहीं कलाम बाइबल से फ़रोग़ (रोशनी) पाती है ना जियालिजी (जियालोजी) से और ना कहीं और किसी वाक़ेअ माक़ूली या मनकोली (मंतक़ी और नक़्ल किया गया) से तो किस क़द्र ख़्याली और बेजा है कि जिसका कुछ हद ठिकाना नहीं। यहूदी जो कहते हैं कि यहां जमा मुतकल्लिम में मुक़र्रब फ़रिश्ते भी दाख़िल हैं अगरचे बावजाह उस के कि फ़रिश्ते भी मख़्लूक़ और मुहताज बालगीर हर अम्र में हो कर, ज़ाती इल्म बदी का नहीं रख सकते और कसबी इल्म रखें तो लायक़-ए-सोहबत अक़्दस ख़ालिक़ के नहीं रह सकते लिहाज़ा ग़लत ही हैं ताहम गुस्ताख़ी माफ़ सर सय्यद साहब से कुछ बेहतर हैं।

(2) इलोहीम में कलिमा यम (یم) जमा तादादिया का सय्यद साहब नहीं मानते मगर ताज़ीमा का मानते हैं और हुज्जत (बह्स) अपनी अस्मा-ए (इस्म की जमा) बअलीम व अश्तरा असीम से क़ायम फ़रमाते, हमारी नज़र में अस्मा-ए-ख़ास में जमा ताज़ीमिया ना तो कभी और कहीं वाक़ेअ हुई और ना ऐसा स्भाविक (मुम्किन) है। कलिमा (الہ) कि जिसकी जमा इलोहीम है इस्म-ए-ख़ास ही है, मौक़ा मुतनाज़ा पर तो बाइलाक़ा यहोवे ख़ास ये कलिमा आया है जो बाल-ख़सीस नाम ख़ुदा का है मगर जहान बमाअनी क़ुज़ात मुस्तअमल हुआ है, वहां भी तादाद ये ही है ना ताज़ीमिया और अश्तरास फ़र्ज़ी देवता थे, और ज़माना-ए-सल्फ़ (अगला ज़माने) में सिर्फ उन की मूरतों ही में पूजे जाते थे, लिहाज़ा बलिहाज़ कस्रत मूरतों के उन की जमा बअ़लीम और अश्तर-असीम (اشتراثیم) बनी है वर्ना नबी ख़ुदा के बुतों को तअ़ज़ीम क्योंकर देते या मौक़ा नक़्ल या मज़ाह का कौन सा था।

(3) सर सय्यद साहब इल्हाम को इल्क़ा-ए-फ़ित्रती (ख़ुदा की तरफ़ से बात) इसलिए क़रार देते है कि वो ऐसे मोअजिज़े के क़ाइल नहीं जो बदून दख़ल इल्म या क़ुदरत बेहद के वकूअ़ ना आ सके। इसी लिए क़ुदरत ख़ालिका के भी वो मुन्किर हैं। हाँ अलबत्ता क़ुदरत तर्कीब दहिंदा हकीम मुतलक़ व कामिल के वो क़ाइल हैं, मगर ख़ुदा को ख़ालिक़ अश्या महदूद-उल-वजूद का नहीं मानते। हमारे नज़्दीक कोई शैय क़दीम नहीं हो सकती जब तक कि सिफ़त ज़रूरत मुतल्लक़ा उस की बुनियाद हस्ती की ना हो, जो ज़रूरत मुहताज या मग़्लूब ग़ैर बाक़ी नफ़्सा (ज़ात) तग़य्युर-पज़ीर (तब्दीली होने वाली) नहीं हो सकती और कि ना तो वो ख़ुद इरादा है और ना शख़्स साहिबे इरादा। लिहाज़ा हद-मकानी या ज़मानी उस को कोई नहीं लगा सकता माज़ा जो शैय महदूद फील-मकान बाज़मान है वो लाबदन (बदी से पाक) हादिस भी है, क्योंकि जिसने एक हद उस को लगा दी वो अदम में भी उसे पहुंचा सकता है, और जो अदम में जा सकती वो अदम ही से बिलज़रूर आई भी है। अदम को सामान-ए-वजूद किसी शैय का तो हम भी नहीं मानते मगर ऐसी क़ुदरत का इन्कार भी दुरुस्त नहीं जानते जो बग़ैर सामान कुछ बना सके, गो हमारे इल्म व ताक़त से वो बाहर हो। ये भी सही है कि कसाफ़त, कसाफ़त को जगह नहीं देती और मुसावी लतीफ़ अश्या एक जाजमा हो कर अलेहदा-अलेहदा (अलग-अलग) नहीं रह सकती, लेकिन कोई वजह नहीं कि एक ऐसा लतीफ़ कि जिसकी लताफ़त ब-ज़िद मुतलक़ कसाफ़त के होना बनिस्बत किसी कसीफ़तर शए के जो कि बग़ैर छेद के बंध सके हमा जा क्यों ना हो सके और बेनज़ीर मुतलक़ में कोई शैय क्योंकर एक हो सके ज़रूरत ऐसे ख़ालिक़ की हद वजूदी अश्या में ज़ाहिर है।

(4) सर सय्यद साहब का ये गुमान भी ग़लत है कि इरादे की तहरीक के लिए सबब फाएक़ की ज़रूरत है। हम पूछते हैं कि जहां दो कशिशें मुसावी और ज़िद फ़ीलहाल दरान वाहिद हों थां रूया क़ुबूल अहदे के लिए सबब फाएक़ कौन सा हो सकता है? और चंचल इन हर दो में आराम क्योंकर पा सकता? अगर कह दो कि मुसावी ही होना मुहाल है तो क्या शैय मानेअ ऐसे इम्कान की है या बताओ कि तब आज़ादी और नदामत का मख़रूज कौन सा है?

(5) वो जो सय्यद साहब फ़रमाते हैं कि क़ुरआन में ईमान बिल-जब्र की ताअलीम मुतल्लिक़न नहीं मगर ये कि या मानो या मरो या जज़्या गुज़ार हो कर जीयो। हम पूछते हैं कि शर्त जज़्या बख़बर ख़ास अहले-किताब के आम के लिए कहाँ है? सूरह तौबा के आयत 4 में जहां सिर्फ ये शर्त बयान हुई है, अगर कलिमा मिनजुम्ला      من الذين الذين में फ़ासिल और मुस्तसना अहले-किताब का नहीं तो ज़िक्र अहले-किताब का क्या मअनी रखता है? ला-इकराह फ़ीद्दीन (لا اکراہ فی الدین) के मअनी बरु-ए-क़ुरआन कराहत ईमान बाल-जबर की नहीं, मगर मुमानिअत बाहमी लूट-मचाई की है, जो बह-बहाना नाफ़हमी के मुसलमान, मुसलमान को लूट लेता था और लकुम-दीनकुम-वलीयदीन (لکم وینکم ولیدین) में ज़िक्र अम्र वाक़ई का ही है, ना किसी अम्र दहनी का। इंतिक़ाम और इंतिज़ाम के जिहाद भी क़ुरआन में अलबत्ता हैं, मगर सूरह तौबा के आयत 4 में इसलिए भी क़त्ल का हुक्म है कि जो ख़ुदा और क़ियामत को ना माने और अल्लाह व रसूल की हराम ठहराई शैय को हराम ना जानें। मामिन्हु घिरा सैर का नहीं, मगर वो जगह जहां इस पर कोई ज़ुल्म ना करे और वो फिर दीन से ना फिर जाये।

(6) गु़लामी जब कि ख़रीदार-ए-असीरान जंग की क़ुरआन में जायज़ है, तोरक़ेत मुस्तकबिला का जवाज़ मफ़्हूम दर क़ुरआन रखना पहले जवाज़ ही से नाजायज़ है, तावक़्त के ऐसी रक़बत आइन्दा साफ़-साफ़ मना ना लिखी हो।

फ़ायदा

तौरात में क़त्ल करने बाअज़ गिरोह-ए-कफ़्फ़ार का हुक्म दिया निशान तो लाशक लिखा है, मगर शर्त ईमान पर आमान वहां कुछ नहीं जैसा कि क़ुरआन में हैं। गु़लामी और कस्रत इज़्दवाजी मुजुज़ा तौरात में हक़-तल्फी के बजाय मह्ज़ रहम और रफ़ाहत मुहताजगान की सूरत ही है और वह भी ज़मान व मकान महदूद व ख़ास के अंदर बरख़िलाफ़ क़ुरआन के कि जिसमें हक़-तल्फी का ख़्याल, ख़्याल में भी नहीं और दाअवा अबदियत और हमाजा होने उस की शरीअत का मौजूद है सब से बड़ा फ़र्क़ बाइबल और क़ुरआन में ये है कि बाइबल तो रहम बिला मुबादला जायज़ नहीं रखती, जब कि क़ुरआन जायज़ रखता है।

नजात नेक-आमाल के साथ नामुम्किन

मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन नमीर, अबी आमिश, अबू सालिह हज़रत अबू हुरैरा रज़ीअल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया मियाना

Salvation with Works is Impossible?

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan January 15, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 15 जनवरी 1891 ई॰

बुख़ारी और मुस्लिम में अबू हुरैरा से रिवायत है कि मुहम्मद साहब ने फ़रमाया,
सही मुस्लिम, जिल्द सोम, मुनाफ़क़ीन की सिफ़ात और उनके अहकाम का बयान। हदीस 2616
कोई भी अपने आमाल से जन्नत में दाख़िल ना होगा, बल्कि अल्लाह-तआला की रहमत से जन्नत में दाख़िल होने के बयान में।

रावी : मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन नमीर, अबी आमि अबू सालिह अबू हुरैरा

حَدَّثَنَا مُحَمَّدُ بْنُ عَبْدِ اللَّهِ بْنِ نُمَيْرٍ حَدَّثَنَا أَبِي حَدَّثَنَا الْأَعْمَشُ عَنْ أَبِي صَالِحٍ عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ قَالَ قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَارِبُوا وَسَدِّدُوا وَاعْلَمُوا أَنَّهُ لَنْ يَنْجُوَ أَحَدٌ مِنْکُمْ بِعَمَلِهِ قَالُوا يَا رَسُولَ اللَّهِ وَلَا أَنْتَ قَالَ وَلَا أَنَا إِلَّا أَنْ يَتَغَمَّدَنِيَ اللَّهُ بِرَحْمَةٍ مِنْهُ وَفَضْلٍ

मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन नमीर, अबी आमिश, अबू सालिह हज़रत अबू हुरैरा रज़ीअल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया मियाना रवी इख़्तियार करो और सीधी राह पर गामज़न रहो और जान रखो, कि तुम में कोई भी अपने आमाल से नजात हासिल ना करेगा। सहाबा ने अर्ज़ किया, ऐ अल्लाह के रसूल आप सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम भी नहीं, आप सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया मैं भी नहीं, मगर ये कि अल्लाह मुझे अपनी रहमत और फ़ज़्ल से ढाँप लेगा।

Abu Huraira reported Allah’s Messenger (may peace be upon him) as saying: Observe moderation in deeds (and if it is not possible, try to be near moderation) and understand that none amongst you can attain salvation because of his deeds alone. They said: Allah’s Messenger, not even you? Thereupon he said: Not even I, but that Allah should wrap me in His Mercy and Grace.

हम देखते हैं कि मुहम्मद साहब के हक़-बर-ज़बान (ज़बान पर सच) जारी था, लेकिन अफ़्सोस ये है कि ख़ुदा के फ़ज़्ल व रहमत में ढाँपे जाने का तरीक़ा या तो हज़रत को ख़ुद मालूम ना हुआ या मालूम था तो उम्दन-बदीं (जान-बूझ कर चालाकी से) ख़्याल कि मेरी फ़ज़ीलत में कुछ फ़र्क़ आएगा, तरीक़ा हुसूल-ए-फ़ज़्ल से चश्मपोशी (देखकर टाल जाना) की और ना अपने पैरौ (पीछे चलने वाले) को बतलाया। हालाँकि वो किताब जिसके हक़ में आपने ख़ूद गवाही दी और फ़रमाया :

وَقَفَّيْنَا عَلَىٰ آثَارِهِم بِعِيسَى ابْنِ مَرْيَمَ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ التَّوْرَاةِ وَآتَيْنَاهُ الْإِنجِيلَ فِيهِ هُدًى وَنُورٌ وَمُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ التَّوْرَاةِ وَهُدًى وَمَوْعِظَةً لِّلْمُتَّقِينَ۔

और उन पैग़म्बरों के बाद उन्ही के क़दमों पर हमने ईसा बिन मर्यम को भेजा जो अपने से पहले की किताब तौरात की तस्दीक़ करते थे और उनको इन्जील इनायत की, जिसमें हिदायत और नूर है और तौरात की जो इस से पहली किताब है तस्दीक़ करती है, और परहेज़गारों को राह बताती और नसीहत करती है। (सूरह माइदा आयत 46)

परहेज़गारों के लिए इंज़िल मन-क़ब्ल पहले से उतारी गई मौजूद थी, तो भी उस से बहिश्त में दाख़िल होने के लिए हिदायत और नूर व मवाअज़त (नसीहत) हासिल ना किया और अपने पैरौं (मानने वालों) को भी महरूम रखा। क्या उस वक़्त मुहम्मद साहब के कान तक यहयाह बिन ज़करीयाह की गवाही ना पहुंची थी जो, “यूं कह के पुकारा कि ये (ईसा) वही है जिस के हक़ में मैंने कहा कि मेरे पीछे आने वाला मुझसे मुक़द्दम (बरतर) हुआ क्योंकि वो मुझसे पहले था और उस की भर पूरी से हम सबने फ़ज़्ल पर फ़ज़्ल पाया, क्योंकि शरीअत मूसा की मार्फ़त दी गई पर फ़ज़्ल और रास्ती यसूअ मसीह से पहुंची। (यूहन्ना 1:15-17) काश कि मुहम्मद साहब उस फ़ज़्ल व रहमत से जिससे ढापने जाने की आरज़ू रखते थे, उन नजात बख़्श फ़ज़्ल की बातों को क़ुबूल करते और पैरौं (मानने वालों) को।

وَاعْلَمُوا أَنَّهُ لَنْ يَنْجُوَ أَحَدٌ مِنْکُمْ بِعَمَلِهِ

तुम में कोई भी अपने आमाल से नजात हासिल ना करेगा। कहकर बहालत शक व मायूसी ना छोड़ते।

मौलवी इस्माईल और शिर्क की ताअलीम

Maulvi Ishmael and Blasphemous Teaching

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One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan January 15, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 15 जनवरी 1891 ई॰

मौलवी इस्माईल साहब देहलवी अपनी किताब तक़वियत-उल-ईमान के सफ़ा 14 में सूरह निसा की आयत 116 :-

إنَّ اللَّهَ لَا يَغْفِرُ أَن يُشْرَكَ بِهِ وَيَغْفِرُ مَا دُونَ ذَٰلِكَ لِمَن يَشَاءُ وَمَن يُشْرِكْ بِاللَّهِ فَقَدْ ضَلَّ ضَلَالًا بَعِيدًا

“ख़ुदा उस के गुनाह को नहीं बख़्शेगा कि किसी को उस का शरीक बनाया जाये, और इस के सिवा (और गुनाह) जिसको चाहेगा बख़्श देगा। और जिसने ख़ुदा के साथ शरीक बनाया वो रस्ते से दूर जा पड़ा।”

इस आयत से मालूम हुआ कि मुशरिक ना बख़्शा जाएगा और शिर्क की तफ़्सील हाशिये पर यूं लिखी है, जैसे किसी को ख़ुदा कहना या उस की सिफ़त किसी में बतानी जैसे इल्म-ए-ग़ैब, मारना जिलाना और सिवाए उस के साबित करना जैसे हिंदू और पीर परस्त वग़ैरह करते हैं। बक़ौल मौलवी साहब मौसूफ़ मज़्कूर बातें मूजिब कुफ़्र (वाजिब बेदीनी) हैं। अब देखिए कि मुहम्मद साहब हज्र-ए-अस्वद मक्की में वो सिफ़त साबित करते हैं। जो मख़्सूस बज़ात ईलाही है यानी इल्म-ए-ग़ैब। चुनान्चे,

जामा तिर्मिज़ी, जिल्द अव्वल, हज का बयान, हदीस 995

حَدَّثَنَا قُتَيْبَةُ عَنْ جَرِيرٍ عَنْ ابْنِ خُثَيْمٍ عَنْ سَعِيدِ بْنِ جُبَيْرٍ عَنْ ابْنِ عَبَّاسٍ قَالَ قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فِي الْحَجَرِ وَاللَّهِ لَيَبْعَثَنَّهُ اللَّهُ يَوْمَ الْقِيَامَةِ لَهُ عَيْنَانِ يُبْصِرُ بِهِمَا وَلِسَانٌ يَنْطِقُ بِهِ يَشْهَدُ عَلَی مَنْ اسْتَلَمَهُ بِحَقٍّ قَالَ أَبُو عِيسَی هَذَا حَدِيثٌ حَسَنٌ۔

कतीबा जरीर इब्ने ख़सीम, सईद बिन जुबैर, हज़रत इब्ने अब्बास रज़ी अल्लाह-तआला अन्हुमा से रिवायत है कि रसूल-अल्लाह सल्लल्लाहो-अलैहि व आले-वसल्लम ने हज्र-ए-अस्वद के बारे में फ़रमाया अल्लाह की क़सम अल्लाह क़ियामत के दिन इस को इस हालत में उठाएगा कि इस की दो आँखें होंगी जिनसे देखेगा और ज़बान होगी जिससे बात करेगा, और जिसने उसे हक़ के साथ चूमा उस के मुताल्लिक़ गवाही देगा इमाम ईसा तिर्मिज़ी फ़रमाते हैं कि ये हदीस हसन है।

Sayyidina Ibn Abbas reported that Allah’s Messenger (SAW) said concerning the (Black) stone, “By Allah! Allah will raise it on the Day of Resurrection such that it will have two eyes with which it will see, and a tongue whereby it will speak to give testimony over those who made its istilam with truth, (meaning) touched it or kissed it truly”

अब ग़ौर करना चाहिए कि गुज़श्ता तेराह सौ बरस के अर्से में करोड़ों-करोड़ मुहम्मदियों ने जो मुख़्तलिफ़ मुल्क और अक़्वाम से हज को गए उस को चूमा होगा और उनमें बाज़ों ने सच्चे इरादे और बाज़ों ने मिस्ल ख़लीफ़ा उमर साहब ब-तक़्लीद व शक (दूसरों की नक़्ल) चूमा होगा पस उन सभों की आरिफ़-उल-क़लूबी (ख़ुदा शनासी) क़ियामत के दिन इस पत्थर में क्योंकर मुम्किन होगी और हर एक चूमने वाले के दिली-एतिक़ाद और बदएतिक़ादी जानने और गवाही देने के सिफ़त आलिम-उल-ग़ैबी जो सिर्फ ख़ुदा-ए-अज़ोजल की मख़सूसा सिफ़त है हज्र-उल-अस्वद को क्योंकर हासिल हो जाएगी?

فاعتبر و یااولی الالباب

ख़ुदावंद अपने लोगों को ऐसी ताअलीम से महफ़ूज़ रखे।

ऐ आदमी ! तेरे गुनाह माफ़ हुए

Men Your Sins Are Forgiven

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One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan May 16, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 16 अप्रैल 1891 ई॰

“ऐ आदमी ! तेरे गुनाह तुझे माफ़ हुए।” (लूक़ा 5:20) ये कौन है जिसके इस कलाम पर फ़क़ीह और फ़रीसी ख़्याल करने लगे कि, “ये कौन है जो कुफ़्र (बेदीनी के अल्फ़ाज़) बकता है?” ये वही नासरी है जिसकी शौहरत मोजिज़-नुमाई (मोअजिज़ा दिखाने) को सुनकर गलील और यहूदिया की हर बस्ती और यरूशलेम से ये अश्ख़ास उस की बाइक़तिदार (इख़्तियार रखने वाली) ताअलीम को सुनने के लिए आए थे, और इस वक़्त तक उस की एजाज़ी क़ुदरत (मोअजिज़ा की ताक़त) के इज़्हार के मुतवक़्क़े और मुंतज़िर ना थे कि यका-य़क (अचानक) इस मजमे में छत की तरफ़ से एक दुखी इन्सानियत को लटकाया गया जो फ़ालिज की बीमारी की बनिस्बत गुनाह की बीमारी से शिफ़ायाब होने की ज़्यादातर मुहताज थी। सबकी निगाह इस अजीब माजरे की तरफ़ लगी। “और ख़ुदावंद ने उनका ईमान देखकर उसे कहा कि, ऐ आदमी तेरे गुनाह माफ़ हुए।” ये आवाज़ तो आदमी के लिए जिसके रूह व जिस्म दोनों बीमार हैं किस क़द्र शीरीं और तसल्ली बख़्श मालूम होगी। लेकिन किसी दूसरे आदमी की तरफ़ से इस को सुनकर ज़रूर ये ख़्याल पैदा हो सकता कि ये कौन है जो कुफ़्र बकता है। बेशक उन के इस क़ौल में बड़ी सच्चाई है कि, “कौन गुनाहों को माफ़ कर सकता है मगर सिर्फ़ ख़ुदा।” आदमी के गुनाह माफ़ करना ख़ुदा ही का काम है और इस काम को वो उस इब्न-ए-आदम की मार्फ़त अंजाम देता है। जो मफ़लूज को ये फ़र्माकर कि, तेरे गुनाह माफ़ हुए हुक्म देता “उठ और अपनी चारपाई उठा के अपने घर जा” और वो रुहानी व जिस्मानी अमराज़ से शिफ़ायाब हो के उसे जिस पर पड़ा था उठा कर ख़ुदा की सताइश करता हुआ अपने घर चला गया और उस पर कुफ़्र बकने का इल्ज़ाम लगाने वाले मुतहय्यर व मुतअज्जिब रह गए और ख़ौफ़-ज़दा हो कर बोले कि आज हमने अजीब माजरा देखा कि एक इब्न-ए-आदम ना सिर्फ लोगों के जिस्मानी दुख-दर्दों से उन्हें शिफ़ाऐ बख़्शता, लेकिन रूहों का भी मसीह है और उस का ये फ़रमाना, “ऐ आदमी तेरे गुनाह माफ़ हुए” कुफ़्र बकना नहीं लेकिन उस का हक़ और मन्सब है और उसे ज़मीन पर गुनाह माफ़ करने का इख़्तियार हासिल है।

दुनिया का नूर

Light of the World

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One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan April 23, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 23 अप्रैल 1891 ई॰

यसूअ ने फिर उन से मुख़ातिब हो कर कहा “दुनिया का नूर मैं हूँ। जो मेरी पैरवी करेगा वो अंधेरे में ना चलेगा।” (यूहन्ना 8:12)

“दुनिया का नूर मैं हूँ।” ये दाअ्वा ऐसा भारी है कि जिसको बादियुन्नज़र (पहली नज़र) किसी इन्सान ख़ाकी बनयान (पोशाक) की ज़बान से सुनते ही ये ख़्याल पैदा हो सकता है कि मुद्दई दीवाना या फ़रेबी या फ़रेब ख़ूर्दा है। लेकिन जब हम उस इब्न-ए-आदम को जिसके मुँह में कभी छल-बल (धोका और शरारत) ना पाया गया और मुवाफ़िक़ व मुख़ालिफ़ (क़ुबूल करने और ना करने वाले) बिल-इत्तिफ़ाक़ जिसकी रास्त-गोई व रास्तबाज़ी के क़ाइल हैं, ये कहते हुए पाते कि “दुनिया का नूर मैं हूँ।” तो फ़ौरन ये अम्र दर्याफ़्त करने पर मुतवज्जोह हो जाते हैं कि जहान ने वाक़ई उस नूर से कुछ रोशनी हासिल की है या नहीं। अट्ठारह सौ बरस से ज़्यादा गुज़रे कि, उस नूर ने बैत-लहम मुल्क यहूदिया से तालए हो कर ना सिर्फ मुल्क इस्राईल को मुनव्वर किया, बल्कि यसअयाह की मार्फ़त उस ईलाही पेशीनगोई के मुताबिक़ कि, “वो फ़रमाता है कि ये तो कम है कि तू याक़ूब के फ़िर्क़ों के बरपा करने और इस्राईल के बचे हुओं को फिरा लाने के लिए मेरा बंदा हो, बल्कि मैंने तुझको ग़ैर-क़ौमों के लिए नूर बख़्शा कि तुझसे मेरी नजात ज़मीन के किनारों तक पहुंचे।” (यसअयाह 49:6) ज़मीन के किनारों तक उस की नूरानी शआएं परतवाफ़गन (रोशनी डालने वाला) हुईं, और होती जाती हैं। जो अहले बसीरत तवारीख़ व जुग़राफ़िया ममालिक यूरोप अमरीका और एशिया व अफ़्रीक़ा के हालात व कवाइफ़ से और तारीख़-ए-कलीसाए मसीही से वाक़िफ़ हैं वो जानते हैं कि इस हक़ीक़ी नूर से क्यूँ-कर वो ममालिक जहां-जहां उस की रोशनी पहुंची है मुनव्वर और रोशन हो गए हैं। मगर जब हम आजकल के इस्लामी अख़बारात में ऐसी ख़बरें पढ़तें हैं जिनका ना सर है ना दुम है, तो सिर्फ ये ख़्याल गुज़रता है कि या तो इन बातों के लिखने और शाएअ करने वाले मह्ज़ नावाक़िफ़ हैं या उम्दन जुम्ला अवाम को धोका देना और अपने तक़लीदी अक़ाइद मज़्हब की अज़मत का इन नाजायज़ व फ़ुज़ूल तरीक़ों से उन्हें हत्ता-उल-इम्कान मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) व गरवीदा बनाए रखना मक़्सूद है। चुनान्चे वज़ीर हिंद स्यालकोट मत्बूआ 5 अप्रैल सन रद्दान में बहवाला अख़्बार कारनामा एक आर्टीकल बउनवान “अमरीका में तजल्ली मेहर इस्लाम शाएअ हुआ है जिसमें राक़िम आर्टीकल ने यूं ख़ामाफ़रसाई (लिखा है) की है कि अमरीका जिसको नई दुनिया कहते हैं जिसका सुराग़ तुलूअ आफताब-ए-इस्लाम से आठ सौ बरस बाद मिला है अब तक आफताब-ए-इस्लाम का साया इस मुल्क पर नहीं पड़ा था। ज़ुल्मत ने ऐसा घेरा कि कोई नूर ईमान के जलवे से मुशर्रफ़ (शर्फ़ दिया गया) नहीं हुआ था। अब सुब्ह सादिक़ की रोशनी नुमायां होने लगी है। एक अमीर अमरीका ने (शहर का नाम नदारद) जिनका नाम आरूप है सिर्फ तज़्किरा दीन-ए-इस्लाम सुनकर और बाअज़ रसाइल इस्लामी देख के कलमा-ए-शहादत पढ़ा, इस्लाम क़ुबूल किया। और अहले-इस्लाम बंबई से दरख़्वास्त की है, कि एक इस्लामी-मिशन अमरीका को रवाना करें ताकि वो दावत व तल्क़ीन इस्लाम का सिलसिला जारी करे। नादानों को दीन-ए-हक़ से आगाही मिले। उनका क़ौल है कि अमरीका के दानिशमंद अपने मज़्हब से नफ़रत करने लगे हैं और उस की रोज़-अफ़्ज़ूँ बुराईयां कर रहे हैं जिसकी वजह से ये मज़्हब बिल्कुल कमज़ोर हो रहा है और यक़ीन किया जाता है कि थोड़े अर्से में बिल्कुल नाबूद हो जाएगा। अब अहले-इल्म दर्याफ़्त कर सकते हैं कि इस अरोप का बयान किस क़द्र मुख़ालिफ़ हक़ीक़त है। वो मसीही अमरीका जहां के सरगर्म और दीनदार मसीही बाशिंदों की तरफ़ से हज़ार-हा आलिम व फ़ाज़िल मिशनरी ममालिक मुख़्तलिफ़ा में इंजीली बशारत दे रहे हैं, और जो करोड़ों रुपये उन ग़ैर मुल्की मिशनों और कुतुब-ए-मुक़द्दसा व दीगर किताब हाय दीनी की इशाअत व क़ाइमी पर ख़र्च कर रहे हैं। और वो अमरीका जिसमें लाखों दीनदार मसीही उलमा सर गर्मी व कामयाबी के साथ दीन मतीन ईस्वी का वाअ्ज़ कर रहे हैं। और इल्म व हिक्मत दौलत व हुकूमत ग़र्ज़ दीनी व दुनियवी तमाम ख़ूबीयों में दुनिया की तमाम क़ौमों से बढ़े-चढ़े हुए हैं कौन नासमझ होगा जो ऐसा ख़्याल भी उन लोगों की निस्बत कर सके कि वो अपने मज़्हब से नफ़रत करते और उस की रोज़-अफ़्ज़ूँ बुराईयां कर रहे हैं कि जिसकी वजह से ये मज़्हब कमज़ोर हो रहा है। हाँ दीन-इस्लाम की निस्बत तो ये क़ौल सादिक़ ठहर सकता है कि जिन-जिन ममालिक में लोग उस के मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) हैं उन की हालत ऐसी है और ऐसे ही आसार नुमायां हैं कि वो थोड़े अर्से में बिल्कुल नाबूद होने वाला है। दूर क्यों जाएं हिन्दुस्तान ही को देखें कि इस्लामी हिलाल (इस्लाम पर्चम) ने सदीयों तक इस तारीक व बुत-परस्त मुल्क में मौजूद रह कर क्या रोशनी फैलाई और कहाँ तक अहले-हिंद को रोशन व मुनव्वर और मुहज़्ज़ब व ताअलीम याफ़्ता बनाया। अगर मसीह आफ़्ताब सदाक़त की रोशनी इस तेरह व तारीक (काला स्याह) मुल्क पर ना चमकती तो इस हालत का कौन क़ियास व अंदाज़ा कर सकता है जिस पर आज के दिन वो पहुंचा हुआ होता।

 

“कहीं ख़ाक डाले से छुपता है चांद”

आगे चल के राक़िम मज़्मून मुसलमानों को सलाह देते हैं कि ऐसे वक़्त में ज़रूर है कि वो मुसलमान जो अंग्रेज़ी में मकालमत (गुफ़्तगु) कर सकते हैं। “उनका मिशन अमरीका को रवाना किया जाये क्योंकि यहां के लोग मुंतज़िर बैठे हैं कि दीन-इस्लाम को क़ुबूल कर के नजात हासिल करें।” क्या ख़ूब ! बेल ना कूदा, कूदी कोन, ये तमाशा देखे कौन।” ऐ इस़्माईली भाईयों क्यों दीदा व दानिस्ता (जान-बूझकर) हक़ से चश्मपोशी (देखकर टाल जाना) करते और ऐसी बेसूद बातें लिख के अपनी ख़ामख़याली और कुतुब-ए-इल्हामिया से ना-वाक़िफ़ी या उम्दन (अंजान होना या जान-बूझ कर) मुख़ालिफ़त ज़ाहिर करते हो। सिर्फ उसी पर ईमान लाने से जिसने फ़रमाया, “दुनिया का नूर मैं हूँ।” और जिसके हक़ में लिखा गया कि, “मैंने तुझको ग़ैर-क़ौमों के लिए नूर बख़्शा कि तुझसे मेरी नजात ज़मीन के किनारों तक पहुंचे।” आप लोगों को भी फ़ज़्ल से नजात मुफ़्त (आमाल से नहीं) मिल सकती है क्योंकि “आस्मान के तले कोई दूसरा नाम आदमीयों को नहीं दिया गया जिससे वो नजात पाएं।” पस तौबा करो और मुतवज्जोह हो कि तुम्हारे गुनाह मिटाए जाएं और ख़ुदावंद के हुज़ूर से तुम्हारे लिए भी ताज़गी बख़्श अय्याम आएं।

तौरेत व क़ुरआन के सरीह मुख़ालिफ़ वाक़ियात

Contradictory Incidents of Torah and Quran

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एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan January 8, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 8 जनवरी 1891 ई॰

तफ़्सीर कादरी तर्जुमा तफ़्सीर हुसैनी में लिखा है कि, हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम के क़िस्से में और ऊरियाह की औरत के साथ आप के निकाह करने में बहुत इख़्तिलाफ़ है। बाअज़ मुफ़स्सिरों ने ये क़िस्सा इस तरह बयान किया है कि शराअ और अक़्ल इसे क़ुबूल करने से इन्कार करती है। जो कुछ सेहत के साथ मालूम हुआ है वो ये है, कि ऊरियाह ने एक औरत के साथ अपने निकाह का पयाम दिया और क़रीब था कि, उस का निकाह हो जाये। औरत के वलीयों (वारिसों) को उस के साथ कुछ ख़रख़शता (परेशानी, झगड़ा) पड़ा था, इसलिए निकाह ना होने दिया। हज़रत दाऊद ने अपने साथ निकाह का पयाम भेजा और हज़रत दाऊद की निनान्वें (99) बीवीयां थीं अताब-ईलाही दाऊद पर इसलिए हुआ कि ऊरियाह के पयाम देने के बाद हज़रत दाऊद ने पयाम दिया और उस से निकाह कर लिया। जिब्राईल और मीकाईल दो मुतख़ासिमीन (दो गिरोह) की सूरत पर अपने-अपने साथ फ़रिश्तों का एक-एक गिरोह बशक्ल-इन्सान ले के दाऊद के पास आए और बयान किया कि मेरे इस भाई के पास निनान्वें भेड़ें हैं और मेरी एक ही भेड़ है उसने ग़लबा कर के वो भी ले ली। दाऊद ने कहा कि अगर ये कैफ़ीयत वाक़ई है तो उसने ज़ुल्म किया। जब हज़रत दाऊद ने ये बात कही तो वो खड़े हुए और नज़र से ग़ायब हो गए पस हज़रत दाऊद सोच में पड़ गए और मग़फ़िरत मांगी। देखो तफ़्सीर سورہ صٓ स्वाद।

अब इस बयान का जिसको मुफ़स्सिर सेहत के साथ मालूम किया हुआ बताता है मुक़ाबला 2 समुएल 11,12 बाब से करें, तो मालूम हो जाएगा कि मुसन्निफ़ और मुफ़स्सिर क़ुरआन सही वाक़ियात अम्बिया-ए-साबक़ीन मालूम करने में किस क़द्र क़ासिर हैं।

और उस औरत से कहा

And He Said To Her

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एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan April 30, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 30 अप्रैल 1891 ई॰

और उस औरत से कहा, तेरे गुनाह माफ़ हुए। (लूक़ा 7:48)

नूर-अफ़्शां मतबूआ 16 अप्रैल के ऐडीटोरीयल कालम में नाज़रीन ने पढ़ा होगा कि ख़ुदावंद मसीह ने यही बात एक मफ़लूज आदमी के हक़ में ज़बान मुबारक से फ़रमाई थी, “तेरे गुनाह तुझे माफ़ हुए।” और वो शमाउन फ़रीसी के घर में उस ताइब व शिकस्ता-दिल (गुनाह से पलटने वाला टूटा हुआ दिल) औरत को भी, जो उस की ख़बर सुनकर वहां पहुंची और तौबा के आँसूओं से उस के पांव धोती और इज़्हार-ए-मोहब्बत के निशान में अपने सर के बालों से उन्हें पोंछती और चूमती थी। ख़ुदावंद ने फ़रमाया, “तेरे गुनाह माफ़ हुए।” इस ज़ियाफ़त के घर में एक ग़ैर ताइब (तौबा ना करने वाला) ख़ुश-दिल मर्द और एक ताइब व मग़्मूम (तौबा करने वाली ग़म-ज़दा) औरत का नक़्शा हमारे पेश-ए-नज़र है। और जब इन दोनों की दिली हालत की तस्वीर पर ग़ौर करते हैं कि बावजूद ये कि गुनाहों को माफ़ फ़रमाने वाला :-

इब्न-ए-आदम, रूबरू मौजूद और हर दो गुनाहगारों को बख़्शने के लिए तैयार है। एक बख़्शिश-ए-ईलाही से महरूम और दूसरी मग़फ़ूर व मसरूर (बख़्शिश और ख़ुशी) नज़र आती है। साहब-ए-ख़ाना अपने मुअज़्ज़िज़ मेहमान के नबी और आलिम-उल-ग़ैब (ग़ैब का इल्म रखने) वाला होने के इम्तिहान व आज़माईश की फ़िक्र और इस ग़म-ज़दा गुनाहगार औरत निस्बत हक़ारत व नफ़रत आमेज़ ख़यालात में मुसतग़र्क़ (गुम होना) हो के अपनी ख़तरनाक हालत में मुब्तिला है और ये शिकस्ता-दिल औरत नजातदिहंदा के मुँह से अपने हक़ में ये तसल्ली बख़्श व ख़ूरुमी बख़्श अल्फ़ाज़ सुनकर “तेरे गुनाह माफ़ हुए।” मुत्मइन व शाद-काम नज़र आती है। अक्सर लोगों का ऐसा हाल है कि वो अपनी गुनाह आलूदा हालत व तबीयत से मुतलक़ (बिल्कुल) बे-ख़बर और बेफ़िक्र रहते। और दूसरों को बड़ा गुनाहगार व तक़्सीर-वार (ख़तावार) जान कर बनज़र हक़ारत उन्हें देखते हैं, और नहीं जानते कि इस का अंजाम क्या होगा। दूसरों को गुनाहगार ख़्याल करना बहुत आसान, लेकिन अपने को ख़ताकार व बदकिर्दार समझना बड़ा मुश्किल है। इस क़िस्म के आदमीयों की मिसालें कलाम-उल्लाह में और भी पाई जाती हैं। चुनान्चे ख़ुदावंद मसीह ने एक मर्तबा उन लोगों के हक़ में जो अपने ऊपर भरोसा रखते थे, कि रास्तबाज़ हैं, लेकिन दूसरों को नाचीज़ जानते थे। ये तम्सील कही कि, “दो शख़्स हैकल में दुआ मांगने गए। एक फ़रीसी दूसरा महसूल लेने वाला (टैक्स लेने वाला) फ़रीसी (रस्म परस्त फ़िर्क़ा) अलग खड़ा हो के यूं दुआ मांगता था कि, ऐ ख़ुदा तेरा शुक्र करता हूँ कि, मैं औरों की मानिंद लुटेरा, ज़ालिम, ज़िनाकार, या जैसा ये महसूल लेने वाला है नहीं हूँ। मैं हफ़्ते में दो बार रोज़ा रखता। और मैं सारे माल की दहकी (दसवाँ हिस्सा) देता हूँ। पर उस महसूल लेने वाले ने दूर से खड़ा हो कर इतना भी ना चाहा कि आस्मान की तरफ़ आँख उठाए, बल्कि छाती-पीटता और कहता था कि, “ऐ ख़ुदा मुझ गुनाहगार पर रहम कर।” मैं तुमसे सच कहता हूँ कि ये शख़्स दूसरे से रास्तबाज़ ठहर के अपने घर गया। क्योंकि जो अपने आप को बड़ा ठहराता है छोटा किया जाएगा। और जो अपने तईं छोटा ठहराता है बड़ा किया जाएगा। यक़ीनन वो लोग जो फ़रिसियाना तबीयत रखते हैं बड़ी ख़तरनाक हालत में हैं। पर वो जो अपने को गुनाहगार जान कर माफ़ी के लिए ख़ुदावंद मसीह के क़दमबोस (क़दम चूमना) होते, और ताइब व मग़्मूम हैं नजात के वारिस होंगे।

क्योंकि तेरी नस्ल इज़्हाक़ से कहलाएगी

Your Descendants Will Be Called Isaac

Genesis 21:12

क्योंकि तेरी नस्ल इज़्हाक़ से कहलाएगी

पैदायश 21 बाब 12 आयत

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एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 1, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 1 जनवरी 1891 ई॰

मुस्लिम भाई साहिबान मसीहीयों के सामने दीनी गुफ़्तगु में इब्राहिम के बेटे इस्माईल की बड़ी क़द्रो-मंजिलत बयान किया करते हैं। बल्कि इस बात पर निहायत फ़ख़्र करते हैं कि इस्माईल के ख़ानदान से नबी अरब पैदा हुए और कि ख़ुदा ने उनको वो इज़्ज़त और मर्तबा इनायत फ़रमाया है कि जो किसी दूसरे नबी को हासिल नहीं हुआ। और ये कि मुहर-ए-नबूव्वत उन्हीं पर ख़त्म हुई वग़ैरह।

इस फ़ख़्र की दलील अगर इन से पूछे तो ये बताते हैं कि तौरेत में ख़ुदावंद तआला ने ख़ुद इस्माईल के हक़ में फ़रमाया, कि मैं इस को बरकत दूँगा। और इस को बरूमंद करूँगा। और इस को बहुत बढ़ाऊँगा और इस से बारह सरदार पैदा होंगे।

अगर तौरेत में इस्माईल की क़द्र व मंज़िलत लिखी है, तो मैं भी तौरेत ही से उस की बाबत थोड़ी सी अर्ज़ करता हूँ।

 

मैं मानता हूँ कि ख़ुदा ने इस्माईल को बरकत दी। और उस को कहा, कि तू बरूमंद होगा वग़ैरह। मगर मालूम हो कि ये बरकत कोई ख़ास बरकत ना थी और ना ही इस बरकत और बरूमंदी से किसी नबी के ज़ाहिर होने की ख़बर अयाँ (ज़ाहिर) होती है। और ये कोई कुल्लिया क़ायदा भी नहीं है, कि जिसको ख़ुदा बरकत दे तो इस से ये ही मफ़्हूम हो कि इस बरकत याफ्ताह से ज़रूर कोई नबी ही पैदा होगा। हाँ अलबत्ता बारह (12) सरदार पैदा होने का ज़िक्र तो ज़रूर आया है मगर ये बारह सरदार एक नबी अरब नहीं बन सकते। लिहाज़ा मुस्लिम भाईयों की ग़लती है, जो कहते हैं कि इस्माईल की बरकत का नतिजा मुहम्मद साहब नबी अरब हैं।

और फिर इस बात पर भी ग़ौर करना चाहीए कि इस्माईल वाअदे का फ़र्ज़न्द ना था। जैसा कि मुहम्मदी लोग ख़्याल करते हैं। जब ख़ुदावंद ने इब्राहिम से गुफ़्तगु की तो इब्राहिम ने ख़ुदा से अर्ज़ की, कि ख़ुदावंद ख़ुदा तू मुझको क्या देगा? मैं तो बेऔलाद जाता हूँ और मेरे घर का मुख़्तार दमिश्की-अल-अज़र है। और फिर इब्राहिम ने कहा, कि देख तूने मुझे फ़र्ज़न्द ना दिया। और देख मेरा ख़ानाज़ाद (मालिक के घर में पैदा होने वाला ग़ुलाम) मेरा वारिस होगा। तब ख़ुदावंद का कलाम उस पर उतरा और उसने कहा कि ये तेरा वारिस नहीं होने का, बल्कि जो तेरी सल्ब (नस्ल) से पैदा होगा वही तेरा वारिस होगा। पैदाइश 15:2-4 अब इन आयात मज़्कूर बाला से ये मालूम होता है, कि खुदा ने इब्राहिम से एक ऐसे फ़र्ज़न्द का वाअदा किया जो इस का वारिस हो अगर फ़िल-हक़ीक़त ये वाअदा इस्माईल के लिए किया गया था, तो वाजिब था कि वो इब्राहिम की मीरास से ख़ारिज ना होता, बल्कि मीरास में शरीक और इज़्हाक़ के साथ हिस्सेदार होता। मगर बाइबल में तो ऐसा हरगिज़ नहीं। बल्कि तोरैत में यूं लिखा है कि जब इज़्हाक़ पैदा हुआ, तो इस्माईल उस से ठट्ठे करने लगा। तब सारा ने इब्राहिम से कहा, कि इस लौंडी और इस के बेटे को निकाल दे क्योंकि इस लौंडी का बेटा मेरे बेटे इज़्हाक़ के साथ वारिस ना होगा। पैदाइश 21:10 लेकिन सारा की इस बात से इब्राहिम को रंज हुआ। पर ख़ुदा ने इब्राहिम को कहा, कि वो बात इस लड़के और तेरी लौंडी की बाबत तेरी नज़र में बुरी ना मालूम हो। हर एक बात के हक़ में जो सारा ने तुझे कहा, उस की आवाज़ पर कान रख क्योंकि तेरी नस्ल इज़्हाक़ से कहलाएगी। पैदाइश 21:12 तब इब्राहिम ने अपनी ऐन-ए-हयात में रोटी और पानी की एक मश्क देकर हाजिरा और उस के बेटे इस्माईल साहब को रुख़्सत किया। पैदाइश 21:14 इस तरह से इस्माईल विरासत-ए-इब्राहीम से से ख़ारिज हुआ। अगर किसी मुस्लिम भाई को मालूम हो कि सिवाए उस रोटी और एक मश्क पानी के कुछ और भी इस्माईल को मीरास में दिया गया था, तो मेहरबानी फ़र्मा कर बता दें।

और फिर ये कि अगर ख़ुदा की बरकत और निगाह इस्माईल पर हक़ीक़ी तौर पर होती तो सिलसिला बुज़ुर्गों से क़तअ़ ना किया जाता। बाइबल में कई जगह पर फ़िक़्रह आया है, कि मैं तेरे बाप-दादों इब्राहिम का ख़ुदा इज़्हाक़ का ख़ुदा और याक़ूब का ख़ुदा हूँ। ख़ुरूज 3:6 अगर इस बरकत के बाइस इस्माईल कुछ ख़ुसूसीयत रखता था, तो क्यों ख़ुदा के कलाम में ऐसा ना लिखा, कि मैं इब्राहिम का ख़ुदा, इस्माईल का ख़ुदा, इज़्हाक़ का ख़ुदा और याक़ूब का ख़ुदा हूँ?

और फिर ये कि अगर वो मीरास और वाअदे में शरीक और इब्राहिम की औलाद था तो ज़रूर है कि बनी-इस्राईल के दुखों में भी शरीक होगा। क्योंकि ख़ुदा ने इब्राहिम को फ़रमाया, कि यक़ीन जान कि तेरी औलाद एक मुल्क में जो उनका नहीं, परदेसी होगी और वहां के लोगों की ग़ुलाम बनेगी। और वो चार सौ (400) बरस तक उन्हें दुख देंगे। (पैदाइश 15:13)

पस मुस्लिम भाई मेहरबानी करके फ़रमाएं, कि अगर इस्माईल इब्राहिम की औलाद हक़ीक़ी और मीरास में शामिल था, तो बनी-इस्राईल के मुल्क मिस्र की गु़लामी में कोई बनी इस्माईल भी उनके साथ मौजूद था, अगर था तो कौन?

अल-ग़र्ज़ ऐ मुस्लिम भाईयों ! इस्माईल अज़-रूए-बाइबल ना तो वाअदे और अहद का फ़र्ज़न्द था, और ना वो इब्राहिम का हक़ीक़ी वारिस था। बल्कि उन बरकतों और नेअमतों का मालिक और वारिस हज़रत इज़्हाक़ ही था और इज़्हाक़ ही के घराने से हमारा नजातदिहंदा ख़ुदावंद मसीह जिस्म की रु से कुँवारी मर्यम से मुजस्सम हुआ, ताकि हमको हमारे गुनाह से पाक कर के ख़ुदा के हुज़ूर रास्तबाज़ ठहराए। उस की नजात किसी ख़ास क़ौम या फ़िर्क़े के वास्ते नहीं, बल्कि कुल बनी-आदम के वास्ते है। चुनान्चे लिखा है, और देखो कि ख़ुदावंद का एक फ़रिश्ता उन पर ज़ाहिर हुआ, और ख़ुदावंद का नूर उनके चौगिर्द चमका और वो निहायत डर गए। तब फ़रिश्ते ने उन्हें कहा मत डरो, क्योंकि देखो मैं तुम्हें ख़ुशी की ख़बर देता हूँ, जो सब लोगों के वास्ते होगी, कि दाऊद के शहर में आज तुम्हारे लिए एक नजात देने वाला पैदा हुआ, वो मसीह खुदावंद है। (इन्जील लूक़ा 2:9 से 12)