मेरी चार आने वाली इन्जील

Gospel I Have Bought For Four Cents

मेरी चार आने वाली इन्जील

By

Kadarnath

कीदारनाथ

Published in Nur-i-Afshan Feb 19, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 19 फरवरी 1891 ई॰

अज़ीज़ो दोस्तो ! ये मेरी चार आने वाली इन्जील वही इन्जील है जिसको मैंने उस हालत में मोल लिया जब कि मैं शरारत और बेईमानी से इन्जील का मुख़ालिफ़ था और बावजूद कि प्यासा था तो भी नहीं चाहता था कि पानी के पास आऊँ, और बे-क़ीमत मोल लूं और आब-ए-हयात मुफ़्त पियूँ। पर साथ ही इस के मैं उनसे मुत्तफ़िक़-उल-राए ना था। जो फ़साना अजाईब और अलिफ़ लैला तो ख़रीद कर के पढ़ें मगर इन्जील को फूटी आँखों से भी देखना कुफ़्र और गुनाह समझें हरचंद को मेरा भी इन्जील को मोल लेना और पढ़ना ना उस ग़र्ज़ से था कि अपनी प्यास इस से बुझाऊं, बल्कि अपनी नालायक़ फ़हमीदा और नाशाइस्ता एतराज़ात से इस चशमे साफ़ी की रद्द को जो अजीब जोश में लहरें मारता मेरी तरफ़ आता था रोक दूं और यूं अपनी आबाई टूटे हौज़ की ओस से तिश्नगी बुझाना चाहता था, पर क्या हुआ? ख़ुदा के इस फ़ज़्ल की बोहतात के जो इन्जील के हर सफ़ा से ज़ाहिर है मेरे दिल को चारों तरफ़ से घेर लिया और मज्बूर किया कि इस चशमें से पीकर सेराब होऊं। तब मैंने पिया और इस तरह वो चार आने जिनकी कुछ अस्ल नहीं थी मेरे लिए इस क़द्र मुफ़ीद ठहरी कि आस्मानी ख़ज़ाना हाथ आ गया, कैसा नादान हैं वो शख़्स जो झूटी दौलत से सच्ची दौलत को नहीं ख़रीद करते और इस झूटी दौलत को यहां तक प्यार करते कि उनको गवारा नहीं होता कि वो पैसा देकर मत्ती या यूहन्ना की इन्जील को मोल लें और पढ़ें-पढ़वाएं ग़फ़लत और नादानी के वो पैसे के लालच में पड़ कर हमेशा की दौलत को खोते हैं, फिर दम-ए-आख़िर रोते हैं। काश कि हमारी कमाई के दो पैसे ही इन्जील के ख़रीद करने में सिर्फ हों, ताकि दौलत लाज़वाल हाथ आए। चूँकि अज़ीज़ो हिंदू-मुसलमानों ! ख्व़ाब-ए-ग़फ़लत से बेदार हो। लो ये दो पैसे कि यूहन्ना की इन्जील। इस में क्या लिखा है, नेक काम करो और नजात पाओ? नहीं। ये हो नहीं सकता। जिस हाल में हम बुरे हैं बस बुरों से बुरे ही काम होंगे। इस में लिखा है कि ख़ुदा ने जहान को ऐसा प्यार किया। वाह क्या उम्दा अल्फ़ाज़ हैं जो बेसाख़्ता तबीअतों को खींचे लेते हैं और फ़ौरन अव़्वल से सवाल पैदा होता है कि कैसा प्यार किया? जवाब मिलता है कि उसने अपना इकलौता बेटा बख़्शा। वाह क्या अच्छी बात है। पर हमको क्या फ़ायदा? जवाब मिलता है कि जो कोई इस पर ईमान लाए हलाक ना हो, बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए। हाँ दोस्तो क्या तुम हलाकत से बच कर हमेशा की ज़िंदगी पाना चाहते हो? अगर चाहते हो तो लो।

रफ़ीक़ मुहाजरत

I will send him to you

रफ़ीक़ मुहाजरत

John 16:7-8

By

Kidarnath

केदार नाथ

Published in Nur-i-Afshan Dec 19, 1889

नूर-अफ़शाँ मत्बुआ यक्म दिसम्बर 19 ,1889

“लेकिन मैं तुम से सच कहता हूँ कि मेरा जाना तुम्हारे लिए फ़ाइदेमंद है क्योंकि अगर मैं ना जाऊं तो वो मददगार तुम्हारे पास ना आएगा लेकिन अगर जाऊंगा तो उसे तुम्हारे पास भेज दूंगा, और वो आकर दुनिया को गुनाह और रास्तबाज़ी और अदालत के बारे में क़सूरवार ठहराएगा। (यूहन्ना 7:16-8) इन दोनों आयतों पर लिहाज़ करने से अगरचे और भी मौज़ू निकलते हैं मगर सबसे उम्दा कलाम इलाही के मुताबिक़ रफ़ीक़ मुहाजरत (رفیق مہاجرت) है, क्योंकि 2 कुरिन्थियों 13:14 इस तसल्ली दहिंदा की सिफ़ते रिफ़ाक़त मर्क़ूम है। अब दर्याफ़्त करना चाहीए कि लफ़्ज़ तसल्ली के मअनी लुग़त में सुकून-ए-क़ल्ब तहरीर हैं जिससे यहा मुराद हो सकती है कि मन जो चंचल है वो क़रार पाए। यही ख़ासीयत पाराह (پارہ) की हो। पस अगर मुम्किन हो कि हरारत पाराह को साकिन करती है तो लाज़िम है कि रूह पाक की हरारत गुनेहगार इन्सान के दिल को तस्कीन बख़्शे। याद रखना चाहीए कि ख़ुदावंद मसीह ख़ुदा हो कर दिलों का ख़ालिक़ है और पाराह भी उसी की मख़्लूक़ है और ज़रूर वो दोनों की उन खासियतों से भी जो कि उन में हैं वाक़िफ़ हो तब ही उस ने रूहुल-क़ुद्दुस से तसल्ली पाई यहां तक कि छल्ले अँगूठी तसावीर वग़ैरह को तसल्ली दहिंदा क़रार दे दिया बारहा देखा जा सकता है कि जब एक दूसरे से अलग होता है और जुदाई के सदमे से रोता है तब मुंदरजा बाला अश्या की हवालगी से तसल्ली पाने का झूटा ढकोसला (धोका) पेश किया जाता है। ये बात ना सिर्फ लोगों ही पर मौक़ूफ़ हो बल्कि मज़्हबी पेशवाओं में भी इस तसल्ली ने रिवाज पाया है।

 

चुनान्चे मुहम्मद साहब ने भी मरते वक़्त सहाबा से फ़रमाया कि, ’’انی تارک فیکم الثقلین ماان تمسکم بہمالن تضلوابعدی‘‘ यानी मैं तुम में छोड़ने वाला हूँ दो चीज़े गिरां कि जब तक तुम उन दोनों पर चंगुल मारते (चिमटे) रहोगे मेरे बाद हरगिज़ गुमराह ना होंगे उन दोनों में बड़ी चीज़ किताब-उल्लाह और छोटी मेरे क़िराबती, (रिश्तेदार, अहले बैत है।) लेकिन अक़्लमंद आदमी अगर ज़रा भी इन चीज़ों और उनकी हाजतों पर फ़िक्र करें तो मालूम हो जाएगा कि हक़ीक़ी नस्ली इनमें कहाँ है और दुनिया के लोगों और ख़ुदावंद मसीह के तसल्ली दहिंदा में ज़मीन व आसमान का फ़र्क़ है चूँकि मुहम्मदी भाई चंद मुतअस्सिब उलमा के बहकाने और उस्मान के फ़रमाने से इस सच्ची तसल्ली दहिंदा को मुहम्मद साहब मानते हैं जैसा कि मुबाहसात-फ़रीक़ैन (दोनों तरफ़ के लोगों की बह्स) से वाज़ेह है पस हमारा फ़र्ज़ है कि हम उन को हक़ीक़ी और असली तसल्ली दहिंदा की तरफ़ मुतवज्जोह कर दें। भाई मुहम्मदियों अगर बक़ौल उस्मान मुहम्मद साहब तसल्ली दहिंदा थे तो ख़ुद मुहम्मद साहब ने क़ुरआन और क़राबतयों (रिश्तेदारों) को तसल्ली दहिंदा क्यों माना? इसलिए आप लोगों का ये फ़हम बमंज़िला वहम (इतनी समझ जिस पर शक होने लगे) है अब क़ुरआन और क़राबतयों (रिश्तेदारों) के हक़ में ख़्याल फ़रमाईए मुहम्मद साहब के ख़ुसर्र जनाब उमर हसबना किताब-उल्लाह में (बस है मुझको अल्लाह की किताब काफी) क़राबतयों (रिश्तेदारों) से मह्ज़ इन्कार फ़रमाते हैं और मुहम्मद साहब के दामाद हज़रत अली कहते हैं, ھَذا قُرآن صامت ये क़ुरआन गूँगा है واناقرآنُ ناطق और मैं क़ुरआन गोया हूँ। देखो उमर के क़ौल से क़िराबती नदारद हुए और अली के इक़रार से क़ुरआन का तसल्ली दहिंदा ना होना साबित हुआ और मुहम्मद साहब के ख़्याल से ख़ुद मुहम्मद साहब तसल्ली दहिंदा नहीं हैं, फिर क्यों नहीं मसीह तसल्ली दहिंदा को क़ुबूल करते हो। अब ख़्याल करो कि ख़ुदावंद मसीह ने क्यों तसल्ली दहिंदा ज़रूरी समझा इसलिए कि बग़ैर उस के गुनाहगार इन्सान पाकीज़गी को हासिल नहीं कर सकता और जब तक पाक ना हो ख़ुदा को नहीं देख सकता। मत्ती की इंजील 8:5 तेरहवीं सदी के इमाम अबू अलनसूर साहब अपनी किताब नवेद जावेद के सफ़ा 496 सतर 14,13,12 में फ़रमाते हैं रूह-क़ुद्दुस तीसरा है दूसरा नहीं हो सकता।

लेकिन उन्होंने बे-सोचे ऐसा दावा किया जो कलाम इलाही के ख़िलाफ़ है देखो 2, कुरिन्थियों 13:14 में बाप दूसरा है और मुकाशफ़ात 1:4-5 में यही रूहुल-क़ुद्दुस दूसरा है फिर इस नज़ाअ-लफ़्ज़ी से क्या फ़ायदा और क्या ये तसल्ली मिल सकती है? फिर ख़ुदावंद मसीह ने फ़रमाया कि तसल्ली दहिंदा के आने के लिए मेरा जाना ज़रूरी है और ये सच है क्योंकि मसीह का इस जहां में आना इसलिए था कि नजात तैयार करे जिसमें उस का पैदा होना, सलीब पर जान देना, ज़िंदा होना और आस्मान पर सऊद फ़रमाना शामिल है क्योंकि अहबार 16:15 के मुताबिक़ ज़रूर था कि सरदार काहिन ख़ून लेकर पाक तरीन मकान में पर्दे के अंदर आए। इस तरह ख़ुदावंद मसीह अपना ख़ून लेकर ख़ुदा बाप के हुज़ूर में आया। अब कि नजात तैयार है ज़रूर हुआ कि दूसरा तसल्ली दहिंदा रूह उल-क़ुद्दुस जहान में आकर तमाम गुनाहगारो को ये नेअमत उज़्मा पहुंचा दे, क्या ये हो सकता था कि जब तक ख़ुदावंद हमारा काहिन लहू लेकर पाक तरीन में दाख़िल ना हो और हनूज़ कफ़्फ़ारा कामिल ना हुआ हो और रूहुल-क़ुद्दुस अपना काम शुरू करने को आ जाता मुम्किन नहीं ये मुहाल-ए-मुत्लक़ है। पस ख़ुदावंद का सऊद हमारा ऐन बहबूद है। फिर ख़ुदावंद ने आप ही फ़रमाया था कि, “और मैं अगर ज़मीन से ऊंचे पर चढ़ाया जाऊँगा तो सबको अपने पास खींचूँगा” यूहन्ना (12:32) और ये कशिश रूहुल-क़ुद्दुस पर मौक़ूफ़ थी “कोई बग़ैर रूहुल-क़ुद्दुस के यसूअ को ख़ुदावंद कह नहीं सकता।” 1 कुरिन्थियों 12:3 लफ़्ज़ ख़ुदावंद इब्रानी में यहोवा है जिसके मअनी हैं “नजातदिहंदा ख़ुदा” और वो मसीह है। दरहक़ीक़त ये दुनिया गुनाह का कुँआं है जिसमें इन्सान गिर गया तब ख़ुदावंद मसीह भी इस कुँए में आया ताकि गुनाहगार इन्सान को फिर ऊपर लाने का इंतिज़ाम करे बाद वो ऊपर आया अब रूहुल-क़ुद्दुस की डोरी से हर एक को खींचता है।

आठवीं आयत में लिखा है कि वो तसल्ली दहिंदा दुनिया को गुनाह और रास्ती और अदालत से मुल्ज़िम ठहराएगा वाक़ई ये भी ज़रूर था क्योंकि जब तक इन्सान भूका नहीं खाने की ज़रूरत नहीं समझता प्यासा नहीं पानी के पाने की परवाह नहीं रखता तक्लीफ़ ना देखे आराम की क़द्र नहीं करता। इसी तरह जब रूह पाक इन्सान को उस के गुनाह से वाक़िफ़ करता तब वो मानता है कि मैं गुनाहगार हूँ फिर रास्ती से जो क़ुव्वत मर्ज़ी है उसे साफ़ बताता है कि तेरी वो असली हालत कि जब सिर्फ रास्ती का तालिब था जाती रही और इस बर्गशतगी की हालत में दिल सरासर बुतलान का तालिब है तब वो गुनाहगार इक़रारी होता है कि फ़िल-वाक़ेअ मेरा यही हाल हो। फिर अदालत से रूह पाक इन्सान को यूं मुल्ज़िम क़रार देता है कि हाँ जब इन्सान गुनाहगार है और सच्चाई को खो बैठा तब ज़रूर है कि गुनाह की मज़दूरी मौत मुंदरजा पैदाइश 2:17 “जिस रोज़ तूने उस में से खाया तू मरा।” उस को बजाय ख़िलाफ़ उस के इन्साफ़ क़ायम नहीं रह सकता। उस वक़्त फोरन गुनाहगार के मुंह से ये कलिमा निकलता है कि, “ऐ साहिबो मैं क्या करूँ कि नजात पाऊं?” (आमाल 16:30) उस वक़्त ख़ुदावंद मसीह गुनाहगार को रूहुल-क़ुद्दुस के वसीले खींचता है। फिर सारे दुख-दर्द सहने भाई-बंद के छूटने बिरादरी की लॉन-तान हत्ता कि जान जाने तक में तसल्ली हासिल होती है जैसा कि ख़ुदावंद के शागिर्दों पतरस, याक़ूब, स्तिफ़नुस और पौलुस वग़ैरह के हालात से हमारे दिल को तसल्ली हासिल होती है। काश कि हमारे भाई मुहम्मदी साहिबान भी इस दूसरे तसल्ली दहिंदा के ज़ेर-ए-साया हमारी तरह ख़ुदावंद की मुहाजरत में उस के आने तक इस ज़िंदगी के सफ़र को बदल-जमुई तमाम तय करें।

मसीह का जी उठना

The Resurrection of Jesus

मसीह का जी उठना

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan May 01, 1884

नूर-अफ़शाँ मत्बुआ यक्म मई 1884 ई॰

पिछले महीने में यानी माह अप्रैल की तेरहवीं (13) तारीख़ में मसीही जमाअत के बहुत लोगों ने ख़ुदावंद यसूअ़-मसीह के जी उठने की यादगारी का त्यौहार मनाया इस त्यौहार का नाम ईस्टर का त्यौहार है मैं इसकी बाबत चंद बातें नूर-अफ़शाँ के पढ़ने वालों की गोश गुज़ार करता हूँ :-

 

1- ये त्यौहार जैसा ऊपर मज़्कूर हुआ मसीह की मुर्दों में से जी उठने की यादगारी में है सारे मसीहीयों का एतिक़ाद ये है कि ख़ुदावंद यसूअ़-मसीह सलीब पर खींचा गया मर गया और दफ़न हुआ और तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठा आख़िरी हिस्सा इस अक़ीदे का ऐसा ही एतबार के लायक़ है जैसा पहला हिस्सा यानी मसीह का मुर्दों में से जी उठना ऐसा ही पुख़्ता दलीलों से साबित किया हुआ है जैसा उसका सलीब पर खींचा जाना चारों इंजील नवीसों ने इस कर-सराहत से बयान किया है और आमाल की किताब और पौलुस रसूल और दीगर रसूलों के ख़ुतूत में सफ़ाई से मज़्कूर हुआ इन सारे बयानों को अगर हम फ़राहम करें तो हमें मालूम होगा कि ख़ुदावंद यसूअ़-मसीह जी उठकर चालीस दिन इस दुनिया में रहा और इस हंगाम (वक़्त, ज़माना) में मुख़्तलिफ़ तौर पर मुख़्तलिफ़ मौक़े में मुख़्तलिफ़ अश्ख़ास के रूबरू ज़ाहिर हुआ कम से कम ग्यारह ज़हूर का तज़्किरा नए अह्दनामें में पाया जाता है। पहले वो एक औरत पर जब कि वो अकेली थी ज़ाहिर हुआ फिर उसको कई औरतों ने मिलकर देखा बाद अज़ां एक मर्द ने और फिर दो मर्दों ने फिर दस रसूलों को शाम के वक़्त एक कमरे में दिखाई दिया उसके पीछे ग्यारह रसूलों पर जबकि वो एक कमरे में इकट्ठे थे और बाद उसके पाँच मुख़्तलिफ़ मवाज़े (गांवकीजमा, जगहों) में जिनमें से एक मौज़ा (गांव) में कम से कम पाँच सौ (500) आदमी हाज़िर थे शागिर्दों ने उसके बदन को छुआ और उसके साथ बात-चीत की और उसको खाते और पीते देखा ये लोग बलीग़-उल-एतिक़ाद (कामिल यक़ीन, पुख़्तायक़ीन) न थे जबतक उसको न देखा था उस पर यक़ीन न लाए कि वो सच-मुच जी उठा मगर जबकि कई बार मुशाहिदा हुआ तो यक़ीन आया मसीही मज़्हब में कोई बात ऐसी पुख़्ता और क़ाबिल-ए-एतिबार नहीं जैसा उसका मुर्दों में से जी उठना उसकी मुख़ालिफ़त में आजतक किसी लामज़्हब ने कोई कामिल दलील पेश नहीं की रसूलों पर इसका जी उठना ऐसा मोअस्सर हुआ कि उनकी अंदरूनी हालत और ज़िंदगी बिल्कुल बदल गई इससे पहले वो निहायत कमज़ोर और डरपोक थे लेकिन मसीह को ज़िंदा हुआ देखकर डर और ख़ौफ़ उन्हें न रहा और उन्होंने बड़ी दिलेरी के साथ इसी शहर के लोगों के सामने जहां मसीह पचास (50) रोज़ पैश्तर मस्लूब हुआ था और उन्हीं लोगों के सामने जिन्होंने उसको सलीब पर खींचा था यानी सरदार काहिन और क़ौम के बुज़ुर्गों के सामने मसीह के जी उठने पर गवाही दी हज़ार-हा आदमी उनकी गवाही को क़ुबूल कर के मसीही जमाअत में शामिल हुए उस वक़्त उसकी और उनकी गवाही के ख़िलाफ़ पर कोई खड़ा न हुआ और न उनके झुठलाने का किसी ने क़सद किया। अगर मसीह क़ब्र में से जी न उठता बेशक उसके दुश्मन जिन्होंने पीलातुस के पास जाकर कहा था कि तीन दिन तक क़ब्र की निगह-बानी हो ताकि उसके शागिर्द रात को आकर उसे चुरा न ले जाएं और कहें कि वो मुर्दों में से जी उठा है ताकि पिछ्ला फ़रेब पहले से बदतर न हो। अगर मसीह सच-मुच मुर्दों में से जी न उठता तो ज़रूर ये लोग उसकी लाश क़ब्र में से लाकर दिखला देते। इलावा बरीं हम अच्छी तरह से जानते हैं कि मसीह के जी उठने का यक़ीन शागिर्दों के दिलों में ऐसे कामिल तौर पर पैदा हो गया था कि उन्होंने उसकी ख़ातिर अपनी जान तक देना दरेग़ न किया और बाज़ों ने दे भी दी ऐसे यक़ीन का सबब उनका पूरा इत्मीनान ख़ातिर था अब चाहीए कि ये हमारे भी इत्मीनान का सबब ठहरे जर्मनी देश के मशहूर मुन्किर पास और एस्ट्रास साहब ने मान लिया है कि, “शहादत इस अम्र में ऐसी क़वी है कि अक़्ल बावर करती है कि ज़रूर कुछ अजीब बात इस माजरे के साथ वक़ूअ में आई होगी।”

2- मसीह का जी उठना जैसा क़ाबिल-ए-एतिबार है वैसा ही मसीह सच्चे दीन के उसूल और बुनियादी मसाइल में से शुमार हुआ। ये उसका कामिल सबूत है कि मसीह वही नजात देने वाला था जिसकी बाबत नबियों की पेशगोई में मज़्कूर हुआ ये वो बड़ा निशान है जिसका तज़्किरा ख़ुद मसीह ने किया जबकि यहूदीयों ने उससे आस्मानी मोअजिज़ा तलब किया यानी यूनाह नबी का निशान और हैकल की दुबारा तामीर करने का निशान उसके ढा देने के बाद अगर वो मुर्दों में से जी न उठता तो उसके शागिर्द उसपर ईमान न लाते। ये माजरा उस नजात के काम का इख्तिताम था जिसके पूरा करने के लिए वो दुनिया में आया इससे साबित हुआ कि ख़ुदा की दरगाह में उसका कफ़्फ़ारा मक़्बूल हुआ और गुनाह और मौत पर वो ग़ालिब आया इसलिए रसूल कहता है कि वो हमारी ख़ता के वास्ते हवाले कर दिया गया और फिर मुर्दों में से जिलाया गया ताकि हम रास्त-बाज़ ठहरें फिर लिखा है कि ख़ुदा ने हमको अपनी बड़ी रहमत से यसूअ़-मसीह के मुर्दों में से जी उठने के बाइस ज़िंदा उम्मीद के लिए अज़सर-ए-नौ पैदा किया। (रोमीयों 4:25, 1 पतरस 1:3)

इससे पाया जाता है कि अगर मसीह ज़िंदा न होता तो हमारी उम्मीद भी अम्र वो और मुनक़तेअ होती *सिवा इसके याद रखना चाहीए कि मसीह का मुर्दों में से जी उठना हमारी रुहानी ज़िंदगी और नेअमतों के साथ ताल्लुक़ रखता है। रसूलों के ख़त में ईमानदारों के हक़ में बयान हुआ है कि वो मसीह के साथ जी उठे और उसकी नई ज़िंदगी में शरीक होकर आस्मानी मकानों में उसके साथ बिठा के गए हैं। मसीह के जी उठने से हमको भी तसल्ली और यक़ीन होता है कि क़ियामत के रोज़ हम भी जी उठेंगे वो पहला फल है और जो उस पर ईमान रखते हैं उसके पीछे जी उठेंगे उनको मौत से मुख़ालिफ़त होना चाहीए और क़ब्र उनके वास्ते डरने का बाइस नहीं, मसीह उनका सर है और वो उनके बदन के आज़ा अगर सर ज़िंदा है तो बदन भी ज़िंदा है। जबकि हम मसीह के जी उठने की यादगारी करें तो हमें ये बातें भी याद रखनी चाहिए मसीह की मौत और कफ़्फ़ारा को याद करना अच्छा है लेकिन उसके जी उठने को याद करना उससे भी अच्छा है क्योंकि ये उसके कफ़्फ़ारे के तकमिला (तक्मील) का सबूत है।

आईना मुस्हफ़

The Mirror

आईना मुस्हफ़

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan May 08, 1884

नूर-अफ़शाँ मत्बुआ 8 मई 1884 ई॰

लूदियाना के विलायतों (बैरून-ए-मुल्क के बाशिंदे) में ब्याह की रात एक रस्म मुक़र्रर है जिसको आईना मुस्हफ़ कहते हैं और वो यूं है कि जब दुल्हा पहली दफ़ाअ ससुराल में बुलाया जाता है तो दुल्हन को इस के हम पहलू बैठाकर दोनों के सामने एक बड़ा सा आईना रखते हैं और दोनों को एक ही वक़्त में इसमें एक दूसरे की शक्ल देखनी पड़ती है इस के बाद दोनों के सामने इसी तरह क़ुरआन खोलकर धर दिया जाता है और दोनों को इसमें एक नज़र देखना पड़ता है बानियान रस्म की मुराद शायद आईना से ये हो कि इसकी सफ़ाई को देखकर दुल्हन-दुल्हा दोनों एक दूसरे से हमेशा अपना दिल साफ़ रखें और ताज़ीस्त (हमेशा) किसी तरह की कुदूरत न आने दें और क़ुरआन बतौर हल्फ़ के है कि इस अह्द पर पुख़्ता रहें अगर यही मुराद है तो ज़रूर है किस मधियों (दुल्हा और दुल्हन के वालदैन) में से कोई बुज़ुर्ग औरत या मर्द रवा-ए-रस्म के पहले दुल्हा-दुल्हन को इसके माअनों से आगाह कर दिया करें ताकि इसका असर उनके दिलों पर जमे वर्ना ब्याह के और खुली तमाशों में से ये भी एक तमाशा समझा जाएगा जैसा अब समझा जाता है।

 

हमें इस वक़्त इस रस्म से कुछ सरोकार नहीं हमारी बह्स सिर्फ आम आईना और मुस्हफ़ से है आईना हक़ीक़त में बड़े काम की चीज़ है क्योंकि ये हमारी अपनी सूरत हमको वैसी ही दिखाता है जैसी और लोगों की नज़र में है गोया हमारा कोई ज़ाहिरी ऐब छिपा नहीं रखता। बाअ्ज़ लोग मह्ज़ अपनी ख़ूबसूरती औरबनाओ-सिंगार मालूम करने को आईना देखते हैं और इस पर इतराते हैं, लेकिन दानाई ये है कि अपने ऐब इसमें देखकर उनकी इस्लाह में कोशिश की जाये वर्ना आईना देखने से कुछ फ़ायदा नहीं। ख़ुदा के पाक कलाम में भी एक आईना है जो ख़ुदा ने हमारी हिदायत के वास्ते बख़्शा है और इसमें अगर हम चाहें तो रोज़-मर्रा अपनी सूरत का सही अक्स पूरा-पूरा देख सकते हैं। ठीक वैसा जैसा हम ख़ुदा की नज़र में दिखलाई दे रहे हैं। इस आईना में तमाम हमारे उयूब हमारे नुक़्स हमारे गुनाह हमारे ख़राब चाल-चलन कामिल सफ़ाई के साथ नज़र आते हैं और इससे बढ़ कर ये कि अगर ग़ौर के साथ देखें तो न सिर्फ हमको हमारी मौजूदा हालत का अक्स बल्कि इस तस्वीर का अक्स भी जैसा ख़ुदा की नज़र में हमको होना चाहीए हू-ब-हू नज़र आएगा। यानी कलाम ईलाही हमको साफ़-साफ़ दिखलाती है कि हम कैसे नापाक, नाख़ुश और निकम्मे हैं और ख़ुदा हमको कैसा पाक साफ़, ख़ुश और काम का आदमी बनाना चाहता है, लेकिन अफ़्सोस कि बहुत लोग इसको आईना मुस्हफ़ (वो किताब जिसमें रिसाले या सहाइफ़ जमा किए जाएं) की रस्म की तरह सिर्फ एक दफ़ाअ रस्मी नज़र से देख छोड़ते हैं और खुली तमाशे से इसकी क़द्र ज़्यादा नहीं करते बहुत लोग इसको अपना मुसल्लेह (इस्लाह करने वाला) मानते हैं लेकिन इसकी इस्लाहों पर ग़ौर नहीं करते बहुत लोग आईना की तरह इसमें कभी-कभी नज़र डालते हैं और अपने आप में दाग़ या धब्बा देखकर उसकी दुरुस्ती की फ़िक्र नहीं करते इस उम्मीद पर कि वो दाग़ अपने आप ही साफ़ हो जाएगा।

आम आईना हमारे ऐब दिखाने के लिहाज़ से निहायत मुफ़ीद है लेकिन ऐब दिखाने के सिवा और कुछ नहीं कर सकता यानी ऐब की इस्लाह नहीं बतला सकता और बर्ख़िलाफ़ उसके कलाम ईलाही हमारे गुनाह दिखाता है और साथ ही साथ उनकी इस्लाह की तदबीर भी बताता है। बशर्ते के पूरे एतिक़ाद के साथ उसकी हिदायतों पर अमल किया जाये।

एक साहब लिखते हैं कि मेरा एक दोस्त सुबह को कचहरी जाते वक़्त अपने बेटे से कह गया कि चार बजे शाम के कचहरी से आकर तुझे गाड़ी में हवा खिलाने ले चलूँगा बशर्ते के तू साफ़ कपड़े पहन कर उस वक़्त तैयार रहे। लड़का चार बजे के इंतिज़ार में बेसब्र हो कर और बरसबरी की हालत में अपनी मम्मा से तक़ाज़ा करके कपड़े बदलवा कर बाग़ में अपने बाप की राह तकने लगा और बाप को दूर से देखकर जल्दी में उसकी तरफ़ भागा रास्ते में कीचड़ था इस में लुथर-बथर गया बाप ने कहा तुम ग़लीज़ हो गए हो इस वास्ते गाड़ी पर सवार होने के क़ाबिल नहीं रहे लड़के ने रोकर जवाब दिया नहीं पापा नहीं बस यूँ ही गर्द सी लग गई है और इससे क्या हर्ज है बाप उस लड़के की उंगली पकड़ कर चौबारा पर ले गया और आईना के रूबरू खड़ा करके उसकी ग़लाज़त उसको दिखा दी आईना ने अपना काम जिस क़द्र इससे हो सकता था कर दिया यानी लड़के को इसकी ग़लाज़त दिखला दी और बस अब सफ़ाई के वास्ते लड़के को पानी की ज़रूरत हुई क्योंकि पानी के बग़ैर सफ़ाई मुहाल है।

पस प्यारे दोस्तो ख़ुदा का पाक कलाम हमारे लिए ये दोनों काम करता है हमारी ग़लाज़त हमें दिखलाता है और अगर हम चाहें तो इस ग़लाज़त को पाक और साफ़ भी कर देता है बशर्ते के हम दिल से उसको प्यार करें।

सिकंदरीया के कुतुबख़ाना की तबाही और इस्लाम

The Destruction of Alexandria Library and Islam

सिकंदरीया के कुतुबख़ाना की तबाही और इस्लाम

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan May 21, 1884

नूर-अफ़शाँ मत्बुआ 21 मई 1884 ई॰

जब सिकंदरीया पर अहले इस्लाम का तसल्लुत हो गया और अमरो सिपहसालार उस जगह का नाज़िम मुक़र्रर हुआ तो उसने फ़ैलफ़ोनस सिकंदरीया के नामी हकीम और फ़ाज़िल अजल से मुलाक़ात की चूँकि अमरो इल्म दोस्त और आलिमाना गुफ़्तगु का अज़बस (बहुत ज़्यादा, निहायत) शावक (शौक़ीन, मुश्ताक़) था इस दाना हकीम की सोहबत और फे़अल और क़ौल से ऐसा महफ़ूज़ हुआ कि दिल से इसकी इज़्ज़त करने लगा। एक दिन मौक़ा पाकर फ़ैलफ़ोनस ने सिपहसालार की ख़िदमत में अर्ज़ किया कि आपने सिकंदरीया के कुल बैत-उल-माल ज़ख़ाइर और सरकारी गोदामों का मुलाहिज़ा फ़र्मा लिया है और हर क़िस्म के अस्बाब पर मुहर छाप लगा दी है सो जो चीज़ें आपके कारोमद हैं मैं उनकी निस्बत कुछ नहीं कह सकता लेकिन जो आपके काम की नहीं हैं और उनमें से बाअ्ज़ शायद मेरे फ़ायदे की हैं अगर मेरी दरख़्वास्त बेजा न हो तो मुझको इनायत की जाएं।

अमरो ने पूछा कि आप कौनसी चीज़ें मांगते हैं हकीम ने जवाब दिया कि ज़र नहीं जवाहरात नहीं और कोई क़ीमती अस्बाब नहीं सिर्फ फ़लसफ़े की किताबें हैं जो सरकारी कुतुबख़ाना में बेकार पड़ी हैं अमरो ने जवाब दिया कि इस दरख़्वास्त की मंज़ूरी मेरे इख़्तियार से बाहर है और मैं इस बारे में सिवा इजाज़त अमीर-ऊल-मोमेंनीन हज़रत उमर फ़ारूक़ के कोई हुक्म नहीं दे सकता। इस पर मंज़ूरी मंगवाने के वास्ते एक मुरासला ख़लीफ़ा वक़्त के हुज़ूर में भेज दिया गया वहां से जवाब आया कि अगर इन किताबों के मज़ामीन मंशा क़ुरआन के मुताबिक़ हैं तो गोया उनके मुतालिब क़ुरआन में आ चुके और वो अब रद्दी हैं और अगर उनमें कोई बात मुख़ालिफ़ क़ुरआन है तो हमको उनके वजूद से नफ़रत है फ़ील-फ़ौर जला दी जाएं।

अमरो ने इस हुक्म की तामील में कुल जिल्दें सिकंदरीया के हमामों में बांट दीं और हुक्म दे दिया कि उनको जलाकर हमाम गर्म किए जाएं कहते हैं कि छः महीने तक बराबर हमाम उन्हीं किताबों की आग से गर्म होते रहे।

ज़रा इस वाक़िये को पढ़ो और ग़ौर से देखो कि इसके पढ़ने से दिलों पर क्या असर होता है। ग़र्ज़ दुनिया के इस मशहूर कुतुबख़ाना का ख़ातिमा ये था और दुनिया में जहालत और वहशत के ज़माने का आग़ाज़ भी वही हुआ।

तास्सुब ! तास्सुब ! ! तास्सुब !!!

The Bigotry

तास्सुब ! तास्सुब ! ! तास्सुब !!!

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Jameel Singh

जमील सिंह

Published in Nur-i-Afshan May 28, 1884

नूर-अफ़शाँ मत्बुआ 28 मई 1884 ई॰

चंद रोज़ हुए कि मैं बाज़ार में मुत्तसिल (मिला हुआ, नज़दीक, क़रीब) मंडी वाज़ कर रहा था इत्तिफ़ाक़न मौलवी महमूद शाह साहब जो हज़ारा वाले के नाम से मशहूर हैं वहां आ निकले और उन्होंने ये सवाल किया कि क्या तौरेत में कहीं लिखा है कि ख़ुदा पाक है? मैंने जवाब दिया कि हाँ मौलवी साहब ये सिफ़त तो ख़ुदा तआला की और सिफ़ात से ज़्यादा मुक़द्दम है और जा-बजा तौरेत में इसका ज़िक्र है चुनान्चे फ़रिश्ते उसकी और किसी सिफ़त का नाम लेकर उनकी तारीफ़ नहीं करते बल्कि ख़ास उसी सिफ़त से उसकी सना-ख़्वानी करते हैं और पुकारते हैं क़ुद्दूस, क़ुद्दूस, क़ुद्दूस रब्बुल-अफ़वाज। इस पर मौलवी साहब ने फ़रमाया कि, तोरेत में लफ़्ज़ पाक लिखा हुआ दिखलाओ, जो ख़ुदा की शान में आया हो। उस वक़्त मेरे पास तोरेत मौजूद न थी मैंने कहा मौलवी साहब आप इर्शाद फ़रमाएं तो आपके मकान पर या जिस जगह आप चाहें हाज़िर होकर तौरेत में बहुत जगह इसका बयान दिखलाऊँगा। मौलवी साहब ने फ़रमाया कि मैं तुम्हारे मकान पर आठ (8) बजे आऊँगा और देखूँगा। मैंने अर्ज़ की कि आप शौक़ से मेरे मकान पर तशरीफ़ लाएं मैं आपके वास्ते मुंतज़िर रहूँगा। ग़रज़ मौलवी साहब बजाय आठ (8) बजे के क़रीब दस (10) बजे तशरीफ़ लाए। और बजाय मेरे मकान पर आने के जैसा कि मौलवी साहब ने बाज़ार में फ़रमाया था, फ़रमाने लगे कि मस्जिद में जो तुम्हारे मकान के मुत्तसिल (मिला हुआ, नज़दीक) है चलो वहीं बैठेंगे। मैंने अर्ज़ की कि मौलवी साहब आप मेरे मकान पर तशरीफ़ लाएं आपको यहां कुछ अंदेशा नहीं। यहीं बैठिए उन्होंने फ़रमाया कि नहीं बेहतर है कि मैदान में बैठो। मैंने कहा बहुत ख़ूब और एक मैदान में मैंने मौलवी साहब के वास्ते कुर्सी बिछा दी और वो बैठ गए और मुहल्ले के बहुत से लोग और और भी जो मौलवी साहब के साथ आए थे बैठ गए मैंने तौरेत में से अव़्वल (अहबार 19:2) आयत पढ़कर सुनाई जो ये थी कि, “ख़ुदा ने मूसा को ख़िताब करके फ़रमाया बनी-इस्राईल की सारी जमाअत को कह और उन्हें फ़र्मा कि तुम मुक़द्दस हो कि मैं ख़ुदावंद तुम्हारा ख़ुदा क़ुद्दूसहूँ।” इस पर मौलवी साहब ने फ़रमाया कि क़ुद्दूस के मअनी क्या हैं? मैंने कहा पाक।मौलवी साहब ने कहा कि ये अरबी लफ़्ज़ है और तुमको अरबी का इल्म नहीं और तुम इसके मअनी नहीं जानते मैंने फ़ौरन ग़ियास-अल-लग़ात लाकर मौलवी साहब को दिखला दी और इसमें यही मअनी निकले। मगर मौलवी साहब ने लफ़्ज़ क़ुद्दुस निकाल कर फ़रमाया कि देखो क़ुद्दूस क़ुद्स से निकला है और इसके मअनी पहाड़ के हैं।

मैंने अर्ज़ की कि मौलवी साहब मेहरबानी से इस इबारत में पहाड़ के मअनी लगाकर दिखलाएँ। और मौलवी साहब ने इस तरह पर तास्सुब से आँखें बंद करके मअनी किए कि खुदा ने मूसा को ख़िताब करके फ़रमाया कि बनी-इस्राईल की सारी जमाअत से कह और उन्हें फ़र्मा कि तुम पहाड़ बनो कि मैं ख़ुदावंद तुम्हारा ख़ुदा पहाड़ हूँ। फिर मैंने कहा कि अच्छा मौलवी साहब आप लफ़्ज़ पाक तो तस्लीम करेंगे और मैंने (ख़ुरूज 15:11) निकाल कर दिखलाया पर तास्सुब को छोड़कर मौलवी साहब किस तरह रास्ती पर आएं। मैंने और बहुत जगह में तौरेत में से निकाल कर दिखलाया कि ख़ुदा की पाकीज़गी का बयान तमाम तौरेत में भरा है और अगर ये सिफ़त उसमें न हो तो वो गुनेहगारों से घिन्न न करे और उनको सज़ा न दे पर ज़ाहिर है कि ख़ुदा तमाम गुनाहों से नफ़रत करता है और गुनाहगार को ज़रूर सज़ा देगा। वाज़ेह हो कि तास्सुब बुरी बला है यही बुतलान मज़ाहिब का बानी और इसीका दुश्मन है। एक शख़्स जा नाहक़ पर है और इसको छोड़ना नहीं चाहता अगर वो इस रास्ती का क़ाइल भी हो जाये लेकिन इस पर दह डालके सच्चाई को छुपा के और झूठ ही का दम भरेगा हर चंद कि इसमें इसका नुक़्सान ही हो और बहुत सी गुफ़्तगु मौलवी साहब मौसूफ़ ने की पर उनका एक-एक लफ़्ज़ तास्सुब से भरा था और हक़ बात को ख़्वाह साबित भी हो हर्गिज़ न मानते थे और बर्ख़िलाफ़ इसके अपने इस्लाम के जोश में आकर क़ुरआन की वाज़ शुरू कर दी और इसी तरह फ़ुज़ूल तक़रीर के बाद बर्ख़ास्त हुए। ख़ुदा करे कि ये तास्सुब का भारी पर्दा हर एक बशर की आँखों से उठ जाये ताकि सच्चाई और रास्ती की पहचान पाकर ख़ुदा के राह-ए-रास्त पर आकर नजात अबदी के मुस्तहिक़ हों।

मसीह के कयामती और जलाल वाले जिस्म

Resurrected body of Jesus

मसीह के कयामती और जलाल वाले जिस्म

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan May 15, 1884

नूर-अफ़शाँ मत्बुआ 15 मई 1884 ई॰

वो बदन जिसके साथ जनाब-ए-मसीह मुर्दों में से जी उठा दर-हक़ीक़त वही बदन था जो सलीब पर खींचा गया। ये बात सलीब की मेख़ों और निशानों से ज़ाहिर होती है जो उसके बदन में जी उठने के बाद नज़र आई तो भी इंजील के बयान पर ग़ौर करने से साफ़ मालूम होता है कि उस बदन की हालत बहुत बदल गई थी किस क़द्र बदल गई थी ये बयान करना मुश्किल है इंजील से मुंदरजा ज़ैल बातें साबित हैं :-

 

1-ये बदन शागिर्दों से देखने में पहले पहचाना नहीं जाता मसअला जब मर्यम मगदलीनी ने उसको देखा उसने समझा कि वो बाग़बान है। (यूहन्ना 20:15) और फिर (लूक़ा 24:31) में यूं बयान हुआ कि वो शागिर्द यरूशलेम से अमाऊस नाम गांव को जाते थे रास्ते में ख़ुदावंद यसूअ़-मसीह उनके साथ शामिल हुआ और उनके साथ बातें करता हुआ और उनको समझाता हुआ कि मसीह का मर जाना और मुर्दों में से जी उठना ज़रूर था साथ चला शागिर्दों ने उसको जबतक कि वो मकान पर न पहुंचा और रोटी खाने बैठा और उसको मु’तबर्रक (बरकत) करके उन पर तक़्सीम किया न पहचाना। (यूहन्ना 21 बाब) में यूं बयान हुआ कि मसीह कई एक शागिर्दों को गलील के दरिया पर नज़र आया लेकिन उनमें से किसी ने पहले उसे न पहचाना जबकि उसने मछली पकड़ने का मोअजिज़ा दिखाया तब उन्होंने जान लिया कि ख़ुदावंद यसूअ़-मसीह है।

2-बयान हुआ है कि ख़ुदावंद यसूअ़-मसीह दो दफ़ाअ शागिर्दों पर ज़ाहिर हुआ जबकि वो एक कमरे में इकट्ठे थे जिसके दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद थीं। (यूहन्ना 20:19, लूक़ा 24:36)

3-इंजील से ये भी मालूम होता है कि मसीह का बदन जिस्मानी था ब-मआ गोश्त और हड्डी के (लूक़ा 24:39) आयत का ज़हूर एजाज़ी था। शागिर्दों ने उसको देखने की उम्मीद नहीं की थी लिखा है कि, “वो डर गए और समझते रहे कि हम किस रूह को देखते हैं। तब ख़ुदावंद ने उनको तसल्ली दी ये कह कर कि तुम घबराहट में पड़े हो मेरे हाथ पांव को देखो कि मैं ही हूँ मुझे छूओ और देखो क्योंकि रूह के गोश्त और हड्डी नहीं होती जैसा मुझमें देखते हो।और यह कह कर उनको अपने हाथ पांव दिखाए।” इस बात से भी मालूम होता है कि वो हक़ीक़ी जिस्म था कि उसने उनके सामने भुनी हुई मछली और शहद का छत्ता भी खाया मसीह के बदन की ये हालत थी जबतक कि वो मुर्दों में से जी उठ कर इस दुनिया में रहा बाद चालीस (40) दिन के मसीह आस्मान पर उठाया गया वहां जाकर उसका बदन किस हालत में है ये हम पूरी तरह नहीं बता सकते। तो भी चंद बातें जो कि बाइबल में इशारतन मज़्कूर हुईं हैं उनका तज़्किरा मैं बयान करता हूँ। इंजील में बयान हुआ है कि, क्या ईमानदारों का कयामती जिस्म मसीह के जलाल वाले जिस्म के मुवाफ़िक़ होगा और हम इंजील में ईमानदारों के कयामती जिस्म की बाबत इशारात पाते हैं। पस ये इशारा मसीह के जिस्म की जानिब से इशारा होगा और उसके जिस्म की हालत समझ में आ जाएगी ईमानदारों का जिस्म इस दुनिया में ऐसा बना हुआ है कि न सिर्फ इन्सानी ग़ैर-फ़ानी और इल्लत-ए-ग़ाई (नतीजा, मुहासिल) को पूरा करता है बल्कि हैवानी मुतालिब हो तो भी अदा करता है। आस्मान में हैवानी हाजतें न होंगी। पस आस्मानी बदन हैवानी ख़ास्सों से मुबर्रा होगा। वो जिस्म रुहानी जिस्म होगा और इसका बयान (1 कुरिन्थियों 15:42-49) में यूं बयान हुआ है कि, “मुर्दों की क़यामत भी ऐसी ही है जिस्म फ़ना की हालत में बोया जाता है और बक़ा की हालत में जी उठता है।बे-हुरमती की हालत में बोया जाता है और जलाल की हालत में जी उठता है कमज़ोरी की हालत में बोया जाता है और क़ुव्वत की हालत में जी उठता है। नफ़्सानी जिस्म बोया जाता है और रुहानी जिस्म जी उठता है जब नफ़्सानी जिस्म है तो रुहानी जिस्म भी है।”

क़यामती बदन जिस्म है यानी माद्दा से बना हुआ और मादा की लाज़िमी सिफ़ात रखने वाला उसका फैलाओ है और जगह रोकता है। यानी इसमें तोल व अर्ज़ व उमुक़ (तह, थाह, गहराई) है इसकी शक्ल है और वो शक्ल इन्सानी है। मसीह की शक्ल को पौलुस ने देखा जबकि वो दमिशक़ की राह पर था और यूहन्ना और स्तिफनुस ने भी देखा तो भी माद्दा (जिस्म, वजूद) कहना चाहीए कि उस जलाल वाले बदन में गोश्त और ख़ून नहीं होता क्योंकि साफ़ लिखा है कि, “गोश्त और ख़ून ख़ुदा की बाद्शाहत का वारिस न होगा” गोश्त और ख़ून फ़ानी है और फ़ानी ग़ैर-फ़ानी का वारिस नहीं होगा ज़रूर है कि फ़ानी बक़ा को पहने, और मरने वाला हमेशा की ज़िंदगी को कयामती बदन में जिस्मानी हाजतें और कमज़ोरियाँ और ख़्वाहिशें न होंगी। ये सिर्फ़ दुनिया में हैं और दुनियावी कारोबार के निज़ाम के अंजाम को पहुंचाने को दी गईं हैं। मसीह ने फ़रमाया है कि “क़ियामत में लोग न ब्याह करते और न ब्याहे जाते हैं बल्कि आस्मान पर ख़ुदा के फ़रिश्तों के मुवाफ़िक़ होंगे।” इससे ये न समझना चाहीए कि फ़रिश्तों की मानिंद बे-बदन और रुहानी होंगे बल्कि ये कि जैसे फ़रिश्ते हमेशा के रहने वाले हैं और जिस्मानी हाजतों और ख़्वाहिशों से पाक हैं वैसे ही वो भी होंगे। हमारे क़ियास में ये आता है कि मसीह का भी आस्मानी बदन वही बदन है जो दुनिया में था अगर्चे बहुत बदला हुआ वो बदन रुहानी है जलाल वाला ग़ैर-फ़ानी और हमेशा रहने वाला उसको बदन कहा गया है इस वास्ते कि वो बदन की सारी लाज़िमी सिफ़तें रखता है इसमें पहला वही जगह रोकता है शक्लदार है। फ़क़त

जिहाद क़ुरआनी और अदालती इन्साफ़

Quranic Jihad and Judicial Justice

जिहाद क़ुरआनी और अदालती इन्साफ़

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Feb 14, 1884

नूर-अफ़शाँ नत्बुआ 14 फरवरी 1884 ई॰

ज़माना तरक़्क़ी करता है और जो लोग इसकी रफ़्तार तरक्क़ी को ब-नज़र-ग़ौर मुआइना करते हैं वो ज़माना के साथ चलते हैं। जिस क़िस्म का ज़माना होता जाता है उस क़िस्म की राय (आरा) ज़ाहिर करते हैं और ऐसी पुख़्तगी से क़दम रखते हैं (बज़अ़म-ख़ुद) कि गुज़श्ता ज़माना के अहले-अलराए को ग़लत राय के ज़ाहिर करने वाले बतलाते हैं।

कुछ अरसा गुज़रा कि अहले इस्लाम के सरबरा-वर्दा लोगों ने इस अम्र पर कोशिश की (और कर रहे हैं) कि मसअला जिहाद क़ुरआनी को दूसरी तर्ज़ पर ज़ाहिर किया और क़ुरआन और अहादीस के ऐसे मअनी बताए कि वो सिर्फ़ दफ़ईया और इंतिज़ाम मुख़ालिफ़त और रफ़ा शर के वास्ते जायज़ है न कि कफ़्फ़ारा को इस्लाम पर लाने के वास्ते वग़ैरह-वग़ैरह। मगर इन आयात क़ुरआनी को नज़र-अंदाज करते हैं जिनमें हिदायत है कि, “मुशरिकों को जहां पाओ मारो जब तक कि वो तौबा करें और नमाज़ पढ़ें और ज़कात दें।” (सूरह तोबा فاذالنسلخ वग़ैरह) उनको मालूम होना चाहिए कि क़ुरआन में चार क़िस्म का जिहाद क़ुरआनी है (1) दफ़ईया (2) इंतिक़ाम (3) इंतिज़ाम तरक़्क़ी सल्तनत (4) जबरन ईमान लाने के लिए।

 

सो मौजूदा अहले इस्लाम ईमान बिल जब्र को नज़र-अंदाज करते हैं इसकी वजह (अगर मैं ग़लती नहीं करता) सिर्फ ये है कि वो इज़्हार वफ़ादारी करते हैं और दिखलाते हैं कि हम इस मसअले को वैसा तस्लीम नहीं करते लेकिन ग़लती इसमें ये है कि वो मअनी जिहाद क़ुरआनी के अपनी तर्ज़ पर करते हैं और वो ऐसे मिलती हैं कि किसी आलिम मुहम्मदी ने आजतक नहीं किए और न सिवाए दो-चार बाशिंदगान अहले हिंद के आजकल कोई ऐसे मअनी लेता है। हम ये अम्र ज़ाहिर करके कि आलमगीर व तैमूर व महमूद ने किस तरह इस मसअले का इन्किशाफ़ और अमल किया एक कसीर गिरोह की दिल-शिकनी करना नहीं चाहते सिर्फ ये सवाल करते हैं कि अरब व अफ़्ग़ानिस्तान व ईरान व रोम के आलिमों की क्या राय है आया वो भी इस क़िस्म की राय का इज़्हार करते हैं या नहीं अगर उन्हीं से हमारे मुल्क के अहले अलराए (सय्यद अहमद ख़ां बहादुर व मोलवी मुहम्मद चिराग़ अली ख़ान बहादूर व दीगर साहिबान) के मुवाफ़िक़ चंद सर बिरादर वो साहिबान की ये राय हो तो हम तस्लीम करेंगे कि मसअला जिहाद अबतक मु’तनाज़े फिया है और इस क़िस्म के मसअले में अहले अलराए की राय मुख़्तलिफ़ है किसी की राय किसी तरह है और किसी की राय किसी आज़र क़िस्म की है लेकिन जबकि तफ़ासीर और आलिमों की राय एक ही क़िस्म की रही है तो अब जो राय उसके बर्ख़िलाफ़ ज़ाहिर करते हैं उनकी कोई और ग़रज़ होगी। जिसको हम ब-लिहाज़ पोलिटिकल मसअले के ज़ाहिर नहीं करते। अगर हिंद के मौजूदाअहले-अलराए को अपनी राय पर भरोसा है तो बेहतर है (अब तक क्यों ऐसा नहीं किया) कि इस राय को फ़ारसी, अरबी और तुर्की में छपवाकर ईरान वग़ैरह ममालिक में भेज दें तो ज़ाहिर हो जाएगा कि वहां के आलिमान मुहम्मदी की राय इस अम्र में क्या है। ज़रा ग़ौर करना चाहिए कि मुहम्मदी सल्तनतों में ग़ैर मज़ाहिब के लोगों के साथ क्या सुलूक किया जाता है अगर वो आज़ादी और मुसावात को इस्तिमाल करते हैं तो हम मान लेंगे कि जिहाद क़ुरआनी का मतलब सिर्फ दफ़ईया और इंतिक़ाम मुख़ालिफ़त और रफ़ा शिर्क वास्ते जिहाद करना है और अगर इसके बर्ख़िलाफ़ है तो इस राय हिन्दुस्तान की वक़अत ज़ाहिर है कि क्या है। थोड़े अर्से के वास्ते आँख बंद करके तस्लीम करलो कि अभी हिंद में मुहम्मदी सल्तनत है तो मालूम करोगे कि आज़ादी और मुसावात और मसअले जिहाद का क्या हाल है। साहिबान अहले-अलराए को किसी सल्तनत और ब-इक़्तिदार शख़्स का नमूना पेश करना चाहिए कि देखो वहां इस मसअले पर ये राय और ये अमल है। सिर्फ चंद साहिबान की राय ब-मुक़ाबला असली अल्फ़ाज़ क़ुरआन अहादीस और नमूना मौजूदा के क्या वक़अत रख सकती है हाँ अगर ये अहले-अलराए इस तरह से बयान करें कि ये मसअला तो इसी तरह से मुंदरज है और इसी तरह से इस पर गुज़श्ता ज़माना में (हिन्द में) अमल रहा और अब भी मुहम्मदी सल्तनतों में इसी की पैरवी होती है। लेकिन हमारी राय ब-लिहाज़ इन्सानी हम्दर्दी और आज़ादी के वैसी नहीं है तो हम ख़ुशी से इसको मान लेंगे लेकिन अगर अपनी राय भी बदल लो और फिर जिस चशमा से वो राय निकालते हो सरीहन (साफ़) इसके भी बर्ख़िलाफ़ चलो तो हम हर्गिज़ तस्लीम न करेंगे।

मौलवी मुहम्मद हुसैन अग़्लब ने अपने रिसाले उसके मुल्की और अदालती इन्साफ़ में वाक़ियात गुज़श्ता (आलमगीर वग़ैरह) तावीलें की हैं और मुहम्मदी सल्तनतों के इन्साफ़ को साबित करना चाहा है मगर हम सिर्फ इस मुख़्तसर सवाल का जवाब चाहते हैं कि मौजूदा सल्तनतें इस्लाम की किस तरह इन्साफ़ करती हैं। अगर इसका जवाब इस बात में हो तो फिर हम तावीलात मौलवी साहब पर ग़ौर करेंगे। ज़माना-ए-सल्फ़ में सिर्फ अकबर ने बेतास्सुबी से काम किया (हिंद में) लेकिन उलमा-ए-मुहम्मदी की राय इसकी निस्बत क्याहै? ये कि वो मुहम्मदी नहीं था। जदीद-अलराए साहिबान ब-जब्र ईमान (ज़बरदस्ती ईमान) लाने के इल्ज़ाम से क़ुरआन को बचाना चाहते हैं और इसके ज़िमन में अदालती इन्साफ़ मुहम्मदी शरा से भी साबित कराना चाहते हैं जो अनहोनी बात है। अगर इन्साफ़ का ज़िक्र हो तो अफ़्ग़ानिस्तान और ईरान अरब को बरकिनार रखकर हम रोम की सल्तनत पर नज़र करेंगे जिसकी तक़्लीद इस मुल्क के रीफ़ार्मर (इस्लाहकार) करते हैं। वहां हिंदू तो हैं मगर बलगीरया सरोया वग़ैरह के नसारी रियाया के साथ कब इन्साफ़ होता है। हम इसकी तशरीह कर के अपने मुहम्मदी अह्बाब को जोश दिलाना नहीं चाहते लेकिन उन्हीं पर (अगर इन्साफ़ करना चाहें) छोड़ते हैं वो ख़ुद ही देख लें कि वहां के मुहम्मदी सल्तनत ग़ैर मज़ाहिब वालों के साथ क्या सुलूक करते हैं जो ले दे मौलवी मुहम्मद हुसैन अग़्लब (यक़ीनी, मुम्किन) नेराजा शीवप्रशाद पर की है इसके साथ हमारा इस क़द्र तो इत्तिफ़ाक़ है कि उन्होंने मुल्क हिंद के वास्ते आइन्दा बेहतरी के ख़यालात ज़ाहिर नहीं किए, लेकिन हम अग़्लब (यक़ीनी, मुम्किन) साहब के साथ इन वाक़ियात माज़िया की तर्दीद (तावीलात) में मुत्तफ़िक़ नहीं हैं जो मो’अ्तबर तारीखी किताबों में भरी हुई हैं। अगर हम राजा शीवप्रशाद के साथ एक अम्र में मुत्तफ़िक़ नहीं हैं तो ये ज़रूर और लाज़िम नहीं कि हक़ीक़ी वाक़ियात से चशम पोशी करके उनको मुल्ज़िम ठहराएँ। पस नतीजा ये है कि जिहाद क़ुरआनी काफ़िरों (ब-लिहाज़ ख़्याल मुहम्मदी) और बेदीनों के बर्ख़िलाफ़ जायज़ और रवा है जबतक वो ईमान न लाएं और नमाज़ न पढ़ें और उनका अदालती इन्साफ़ ग़ैर मज़्हब वालों के साथ तास्सुब के साथ रहा है और मौजूदा सल्तनत हाय मुहम्मदी में इसी तरह जारी है और इस अम्र का हम जवाब देना नहीं चाहते कि बरोए क़ुरआन व हादीस दरख़ास्तें (गवर्नमेंट में) पेश होती हैं और खारुन ऑफ़िस से आमन्ना व सद्दक़ना की सदाएँ आती हैं इसकी निस्बत सिर्फ इस क़द्र कहा जाता है कि :-

رموز مملکت خویش خسرواں وانند

ये सिर्फ़ तम्हीद के तौर पर लिखा गया है इरादा है कि आइन्दा ब-हवाला आयात क़ुरआन व अहादीस इस अम्र को साबित करके दिखलाया जाये कि मुस्लिमा जिहाद पर जो राय ज़ाहिर की जाती है वो क़ुरआन और हदीस के मुवाफ़िक़ नहीं है अगर राय दहिंदगान इसको अपनी राय ज़ाहिर करें तो अमल नहीं पर जो मअनी किए जाते हैं वो बर्ख़िलाफ़ क़ुरआन हैं और इस तरह कभी अमल नहीं हुआ और न होता है।

मुसलमान और उनके बाज़ारी वाअ्ज़

Muslim’s and their Sermons

मुसलमान और उनके बाज़ारी वाअ्ज़

By

Hanif Masih

हनीफ़ मसीह

Published in Nur-i-Afshan June 19, 1884

नूर-अफ़शाँ मत्बुआ 19 जून 1884 ई॰

नाज़रीन को याद होगा कि हम कई एक मर्तबा ये कह चुके हैं कि सदाक़त का एक नेचुरल उसूल है कि ख़ुद को सात पर्दों में से ज़ाहिर कर दिया करती है और ख़्वाह कोई उसकी कितनी ही मुख़ालिफ़त क्यों न करे ये हमेशा ग़ालिब आ जाया करती है। मगर हमारे मुस्लिम भाई इस बात की सच्चाई से या तो अमूमन नावाक़िफ़ हैं या इस पर अमल करने का हल्फ़ उठा चुके हैं। हर किस व नाकिस (हर शख़्स अदना व अअ़ला) इससे आगाह होगा कि ब-ज़ाहिर तो दीन इस्लाम शिकस्त खा चुका है रोशनी उलूम व फ़नून व तरक़्क़ी अक़्ल व ज़का व तहज़ीब व शाइस्तगी अख़्लाक़ व अतवार ने इस बात को बख़ूबी साबित कर दिया है कि वो मज़्हब जो कि आज अरसा चौदह सौ (1400) साल का हुआ है अरब के नबी ने उस मुल्क में जारी किया था इस ज़माने के क़ाबिल नहीं और न ऐसा इस्लाह पज़ीर ही है कि कुछ तराश-ख़राश करके उसे क़ुबूलीयत के लायक़ ही कर सकते हैं। हाँ इसी मज़्हब के पैराया में (या यूं कहें कि नाम में) बिल्कुल नई और इसकी असलीयत के ख़िलाफ़ उसूल मनवा के सिर्फ नाम की ख़ातिर वो मज़्हब जीवे तो जीवे वर्ना दरअस्ल तो मर चुका है। चुनान्चे इस हालत से आगाह होकर ताअलीम-ए-याफ़ता अश्ख़ास में से बाअज़ इसमें साअ़ी (कोशिश करने वाला) भी हो रहे हैं। मगर इस पर भी मुसलमान और उनके वाइज़ अक्सर अपनी हालत-ए-ज़ार से चशमेंपोशी करके अक्सर मसीही दीन की मुख़ालिफ़त पर कमर-बस्ता हो जाया करते हैं। और ऐसा करने से गोया साफ़ इक़रार करते हैं कि हमारा जानी दुश्मन यही मज़्हब है अगर ये ग़ारत हो जाये तो हमारे मज़्हब को इतनी ज़र्ब और चोट न लगेगी। इस बात की सदाक़त अगर किसी को दर्याफ़्त करनी मंज़ूर हो तो मुस्लिम वाइज़ों में से किसी के वाइज़ में जाकर ज़रा सी देर खड़ा हो और वो फ़ौरन देख लेगा कि अगर उनकी वाइज़ में कोई ख़ूबी या कशिश है तो सिर्फ यही है कि मसीही दीन और इसके पैरौओं और खादिमों के हक़ में बेहूदागोई करना और नाशाइस्ता अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करना। इससे सदाक़त और सच्चाई तो जो टपकती है वो अज़हर-मिन-अश्शम्स (रोज़-ए-रौशन की तरह अयाँ) ही है। हाँ अलबत्ता एक बात के तो हम भी क़ाइल हैं कि मुसलमान अक्सर ख़ुश हो जाया करते हैं। सच है कि जब किसी का कुछ और ज़ोर नहीं चलता तो अपनी बुरी तबीयत की सिरी दश्नाम (गाली-ग्लोच) और बद-गोई से ही कर लिया करता है। हम अपने मुस्लिम भाईयों को जताते हैं कि इससे उनको कुछ फ़ायदा नहीं हो सकता और उनके वाइज़ बजाय इस्लामी अख़्लाक़ की दुरुस्ती और तहज़ीब के अगर उनको राम-कहानी के तौर पर ये रोज़-रोज़ सुना दिया करें कि सिकंदर-ए-आज़म कभी हिन्दुस्तान में नहीं आया तो इससे क्या उनकी मज़हबी, मजलिसी और क़ौमी हालत अच्छी हो सकती है या अगर बिल्फ़र्ज़ हम इस को भी तस्लीम कर लें कि मसीही दीन जो कि सदाक़त का चशमा और भलाई का मम्बा है ख़ुदा की तरफ़ से नहीं तो क्या इससे दीन इस्लाम की सदाक़त हो सकती है या मुहम्मदी मजलिसी हालत बदल सकती है? हरगिज़ नहीं।

 

हम ये नहीं कहते कि किसी मज़्हब की सदाक़त माना सदाक़त पर हस्ब मौक़ा गुफ़्तगु करना और तालिबों को इसके नुक़्स व क़ुब्ह (ऐब, बुराई) से आगाह कर देना नाजायज़ या नामुनासिब है मगर हम ज़ोर तो इस बात पर देते हैं कि पहले अपनी अबतर हालत की दुरुस्ती कर लो, पहले अपने ही दादा जान के मज़्हब की इस्लाह कर लो, पहले उसकी सदाक़त को दर्याफ़्त कर लो। पहले अपने ही घर का इंतिज़ाम कर लो, पहले अपने ही लोगों में से बुरी आदात को निकाल दो और उनको ख़ुदा तरस बना दो या मुख़्तसरन यूं कहो कि पहले मुहम्मदियों की अख़्लाक़ी तर्बीयत कर लो। तब तुमको और काम करने का मौक़ा भी हासिल हो जाएगा न कि दस (10) गालियां रामचंद को और पचास (50) मसीह को और यही तुम्हारा रोज़ का वाअ्ज़ हो। वाअ्ज़ करो तो ऐसा जो कि लोगों को गुनाह से क़ाइल करके तौबा की तरफ़ रुजू करा दे। नसीहत करो तो ऐसी कि लोगों में ख़ुदा-तरसी आजाए। गुफ़्तगु करो तो ऐसी कि तुम्हारे अपने मज़्हब की सदाक़त ज़ाहिर हो। कलाम करो तो ऐसा कि जिससे ख़ुदा भी ख़ुश हो और दुनिया के ख़ास व आम को फ़ायदा भी हो न कि ख़ुद अपने ही मज़्हब के बानी की ताअलीम के ख़िलाफ़ जिसने कि एक मौक़ा पर कहा था कि,

ولاتسبو الذین یدعرن من دون اللہ فیسبواللہ عدوا

ये मत ख़्याल करो कि तुम लोगों के वाइज़ीन की बेहूदागोई और दश्नाम (गाली-ग्लोच) देही से हमारी सदाक़त के भरे हुए मज़्हब को कुछ नुक़्सान या ज़रर पहुंच सकता है। दुनिया की सल्तनतें अगर उसके ख़िलाफ़ हो गईं तो इसको सरमद (हमेशा रहने वाला) अपनी जगह से हिला न सकें और आज अगर छत्तीस (36) करोड़ अश्ख़ास इसके ख़िलाफ़ ज़बानदराज़ी करें तो इसका क्या बिगाड़ सकते हैं, मगर हम तो सिर्फ रफीक़ाना (दोस्ताना) सलाह ये देते हैं कि पहले अपने घर के लोगों को ऐसे कलिमा सुनाओ जिनसे कि ख़ुदा से ख़ौफ़ खाकर बदी से बाज़ आएं।

आपस में सुलह और मेल के साथ रहें और तौबा करें और ये तसल्ली रखें कि अगर सदाक़त की जानिब मज़्हब बनी अरब है तो ख़ुद अपने आपको ज़ाहिर कर देगी या अगर मसीही मज़्हब मिंजानिब अल्लाह है तो इसका जड़ से उखड़ना नामुम्किन है हम यक़ीन दिलाते हैं कि ऐसा करने से ज़्यादा फ़ायदा हासिल होगा।

मुहम्मद साहब या जनाब-ए-मसीह

Jesus or Muhammad

मुहम्मद साहब या जनाब-ए-मसीह

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan June 05, 1884

नूर-अफ़शाँ मत्बुआ 5 जून 1884 ई॰

हवाला मतन (इस्तिस्ना 18:15)

“ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा तुम उसकी तरफ़ कान धरो।”

इसके अलावा लिखा है, “और ख़ुदावंद ने मुझे कहा कि मैं उनके लिए उनके भाईयों में से तुझसा एक नबी क़ायम करूँगा और अपना कलाम उसके मुँह में डालूँगा और जो कुछ में उसे फ़रमाउंगा वो उन से कहेगा और ऐसा होगा कि जो कोई मेरी बातों को जिन्हें वो मेरा नाम लेकर कहेगा न सुनेगा तो मैं उससे मुतालिबा करूँगा लेकिन वो नबी जो ऐसी गुस्ताख़ी करे कि कोई बात जो मैंने इससे नहीं कही मेरे नाम से कहे या जो और माबूदों के नाम से कहे तो वो नबी क़त्ल किया जाये।” (इस्तिस्ना 18:17-20)

ये एक मशहूर नबुव्वत तौरेत में से है जिसको बाअज़ मुहम्मदी पढ़ने वाले मुक़द्दस कलाम के अपने नबी यानी मुहम्मद साहब के हक़ में गुमाँ करते हैं उनका ख़्याल है कि हज़रत मूसा इस मुक़ाम में बनी-इस्राईल को फ़रमाते हैं कि ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से यानी बनी इस्माईल से मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा तुम उस की तरफ़ कान धरीयो उनकी तक़रीर ये है कि पहला अल्फ़ाज़ “तेरे भाईयों में से” जो कि इस आयत में है चार शख़्स की निस्बत मंसूब हो सकता है।

अव़्वल बनी इस्माईल की निस्बत क्योंकि हक़ीक़त में बनी इस्माईल बनी-इस्राईल के बिरादर थे और तौरात के दो मुक़ाम में बनी इस्माईल को बनी-इस्राईल का बिरादर कहा गया है। (पैदाइश 16:12, 25:18)

दूसरा बनी-इस्राईल की निस्बत

तीसरा बनी ईसू की निस्बत

चौथा बनी कतूरह

अव़्वल ये अल्फ़ाज़ बनी ईसू और बनी कतूरह की निस्बत इस्तिमाल नहीं हो सकते क्योंकि बनी ईसू और बनी कतूरह बरकत के मालिक नहीं हुए और बनी इस्माईल और बनी-इस्राईल इन दोनों में से अल्फ़ाज़ मज़्कूर इस मुक़ाम में बनी-इस्राईल के हक़ में वारिद नहीं हो सकता क्योंकि यहां हज़रत मूसा बनी-इस्राईल को इकट्ठा करके और उनकी तरफ़ मुख़ातब हो कर उनको फ़रमाते हैं कि, ऐ बनी-इस्राइलियों ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा यहां से साफ़ मालूम हुआ कि तेरे भाई से ग़ैर इस्राईली जो कि वहां मौजूद न थे मुराद है बनी-इस्राईल से मुराद नहीं हो सकता क्योंकि ये ख़ुद वहां मौजूद थे और ग़ैर इस्राईली और कोई नहीं हो सकता। सिवाए बनी इस्माईल के इस वास्ते हम पूरे यक़ीन के साथ मानते हैं कि हज़रत मूसा इस मौज़ू में हमारे नबी मुहम्मद साहब की बशारत दे रहे हैं जो कि बनी इस्माईल से पैदा हुए और जिनके मुंह में ब-ज़रीये वही अपना कलाम डाला और जिसने जो कुछ खुदा ने उसे फ़रमाया वो बनी-इस्राईल से कहा ये तक़रीर मेरी समझ में मह्ज़ ग़लत है मैं मंज़ूर करता हूँ कि अल्फ़ाज़ “तेरे भाईयों में से” चार गिरोह के हक़ में यानी बनी इस्माईल, बनी-इस्राईल, बनी ईसू और कतूरह वारिद हो सकता है और मैं ये भी मंज़ूर करता हूँ कि ये बयान बनी ईसू और बनी कतूरह की निस्बत नहीं हो सकता क्योंकि वो रुहानी बरकत और नबुव्वत के वारिस नहीं हुए लेकिन ये बात सच नहीं है कि इस वास्ते कि हज़रत मूसा कुल बनी-इस्राईल को इकट्ठा करके उनकी तरफ़ मुख़ातब होकर उनको कह रहे हैं कि तेरे भाईयों से ख़ुदावंद ख़ुदा एक नबी क़ायम करेगा अल्फ़ाज़ “तेरे भाईयों में से” बनी-इस्राईल के हक़ में वारिद नहीं हो सकता क्योंकि वो वहां हाज़िर शुदह थे ज़रूर है कि ये किसी ग़ैर इस्राइलियों के हक़ में समझा जाये जो हाज़िरीन में दाख़िल न हों बर्ख़िलाफ़ इसके अगर हम इस्तिस्ना की इबारत ग़ौर से पढ़ें हमेशा बनी-इस्राईल के हक़ में वारिद हुआ तो हमको बख़ूबी मालूम होगा कि अल्फ़ाज़ “तेरे भाईयों में से” या अपने भाईयों में से इस“ इस किताब में ऐन उसी मौक़ा में इसी किताब में सारे बनी-इस्राईल को इकट्ठा करके उनकी तरफ़ मुख़ातब होकर हज़रत मूसा यूं फ़रमाता है, (इस्तिस्ना15:17) “अगर तुम्हारे बीच तुम्हारे भाईयों में से तेरी सरहद में तेरी इस सरज़मीन पर जिसे ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा देता है कोई मुफ़्लिस हो तो इससे सख़्त दिली मत कीजिए और अपने मुफ़्लिस भाई की तरफ़ से अपना हाथ मत खींच लेना” यहां से साफ़ मालूम हुआ कि तुम्हारे भाईयों में से बनी-इस्राईल मुराद हैं न कि ग़ैर इस्राईली। (इस्तिस्ना 17:12, 15)जब तू इस ज़मीन में जो ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा तुझे देता है दाख़िल हो और उस पर क़ाबिज़ हो तो तू उसको अपना बाद्शाह बनाना जिसे ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा पसंद फ़रमाए तू अपने भाईयों में से एक को अपना बाद्शाह बनाना और किसी अजनबी को जो तेरा भाई नहीं अपना बादशाह न कर सकेगा। हमारे मुहम्मदी भाई की तक़रीर के ब-मुजीब लाज़िम आया कि अल्फ़ाज़ “अपने भाईयों में से” इस मुक़ाम में ग़ैर इस्राइलियों से मुराद हो और हज़रत मूसा बनी-इस्राईल को फ़र्मा रहा है कि जब तू कन्आन के मुल्क पर क़ाबिज़ हो तो अपने में से नहीं बल्कि बनी इस्माईल में से किसी को बुलाकर अपने ऊपर बादशाह बनाना। (इस्तिस्ना 24:14)तू अपने ग़रीब और मोह्ताज चाकर पर ज़ुल्म न करना ख़्वाह वो तेरे भाईयों में से हो, ख़्वाह मुसाफ़िर हो, जो तेरी ज़मीन पर तेरे फाटकों के अंदर रहता हो, यहां से साफ़ ज़ाहिर है कि तेरे भाईयों में से ग़ैर इस्राईली मुराद नहीं बल्कि बनी-इस्राईल मुराद हैं। अला-हाज़ल-क़यासुत्-तनिन्-नईन्-नज़ीर (मिस्ल) काफ़ी समझता हूँ बे-तास्सुब पढ़ने वालों को इससे वाज़ेह होगा कि हज़रत मूसा इस आयत में ग़ैर इस्राईली नबी पर इशारा नहीं करता बल्कि ऐसे किसी पर जो बनी-इस्राईल में से हो। इस्तिस्ना के मुहावरे के ब-मुहीद यही नतीजा निकलता है और दूसरा नतीजा नहीं।

 

दुवम मेरा ये क़यास के अल्फ़ाज़ “तेरे भाईयों में से” या उनके भाईयों में से किसी ग़ैर इस्राईली के हक़ में वारिद नहीं है बल्कि ज़रूर किसी ऐसे अश्ख़ास से मुराद है जो बनी-इस्राईल में से हों ज़्यादा सफ़ाई से मालूम होगा अगर नाज़रीन ग़ौर से (अठारह “18” बाब इस्तिस्ना) का तमाम व कमाल मुतालआ करें ख़ुसूसुन नौवीं आयत से आख़ीर तक उनको मालूम हो जाएगा जिस नबुव्वत की निस्बत बह्स हो रही है ये नबुव्वत उस वक़्त में कही गई थी जब कि मूसा को ख़ुदा की तरफ़ से पैग़ाम आया कि तुम यर्दन के पार नहीं जाओगे बल्कि उसकी पूरब की तरफ़ मर जाओगे और बाद तुम्हारी मौत के योशा-बिन-नून (यशुअबिननून) बनी-इस्राईल का सरदार होकर उनको मुल्क मौऊद पर क़ाबिज़ करेगा हज़रत मूसा बनी-इस्राईल की बेहतरी के लिए फ़िक्रमंद होकर उनको इकट्ठा करके उनकी तरफ़ मुख़ातब होकर फ़रमाया है कि जब तू इस सरज़मीन में जो ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा देता है दाख़िल हो तो तू वहां की गिरोहों के कार्यकार मत सिखियों तुम में कोई ऐसा न हो कि अपनी बेटी या अपने बेटे को आग में गुज़ारे या गैब की बात बताए या बुराई भलाई का शगुन या जादूगर बने और अफ़्सों-गर न हो उन देवओं से मुसख़्ख़र होते हैं सवाल करने वाला और साहिर और सयाना न हो क्योंकि वो सब जो ऐसे काम करते हैं ख़ुदावंद उनसे कराहीयत करता है और ऐसी कराहीयतों के बाइस से उनको ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा तेरे आगे से दूर करता है, तू ख़ुदावंद अपने ख़ुदा के आगे कामिल हो क्योंकि वो गरों हैं जिनको तू अपने आगे से हाँकता है ग़ैबगोहों और शगूनियों की तरफ़ कान धरते हैं पर तू जो है ख़ुदावंद तेरे ख़ुदा ने तुझको इजाज़त नहीं दी कि ऐसा करे“ ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा” तुम उसकी तरफ़ कान धरियों आखिरह (आख़िर) इस पूरी आयत के पढ़ने से ज़ाहिर है कि हज़रत मूसा इस मुक़ाम में इस सिलसिले अम्बिया पर जो ख़ुदा बनी-इस्राईल के दर्मियान बाद उसकी मौत के क़ायम करेगा इशारा करता है वो कहता है कि जब तुम कन्आन के मुल्क में जाओ तब उस मुल्क के न उन के देवओं न साहिर और सयाना से सवाल करो, बल्कि ख़ुदा के नबियों से अपनी हिदायत और ताअलीम के लिए पूछो क्योंकि ख़ुदावंद तुम्हारा ख़ुदा तुम्हारे लिए तुम्हारे दर्मियान से तुम्हारे भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा तुम उसकी तरफ़ कान धरों यहां इस सिलसिला अम्बिया से मुराद है जो यशुवा से शुरू कर के ख़ुदावंद यसूअ-मसीह में जो सारे नबियों का नमूना और सर है ख़त्म हुआ। इस वास्ते पतरस रसूल और इस्तिफिंस शहीद ख़ासकर के मसीह पर इशारा करके कहते हैं ये वही नबी है जिसकी बाबत मूसा ने बनी-इस्राईल से कहा कि ख़ुदावंद जो तुम्हारा ख़ुदा है तुम्हारे भाईयों में से तुम्हारे लिए एक नबी ज़ाहिर करेगा तुम उसकी सुनना। बनी-इस्राईल मूसा की मौत की ख़बर सुनकर घबरा गए थे हज़रत मूसा उनकी तसल्ली करता है और कहता है तुम मत घबराना मैं तो मर चला हूँ लेकिन ख़ुदावंद तुम्हारा ख़ुदा तुम्हारे भाईयों में से तुम्हारे लिए एक नबी क़ायम करेगा वो तुमको हिदायत करेगा तुम उसकी सुनना। बनी-इस्राईल पर ख़तरा था कि मुल़्क कन्आन में अगर बुत परस्तों के देव और ग़ैब दानों में जाकर अपनी चाल चलन की बाबत सलाह और हिदायत पूछे हज़रत मूसा उनको इस मुक़ाम में इस ख़तरा से मु’तनब्बाह (आगाह किया) कर रहा है और फ़रमाता है कि तुम कभी ऐसा मत करना तुम बुत परस्तों के देवओं और ग़ैब-गवैयों के पास मत जाना ख़ुदावंद तुम्हारा ख़ुदा तुम्हारे भाईयों में तुम्हारे लिए मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा तुम उसकी सुनना। मैं हैरान हूँ कि किस तरह से इस बाब के पढ़ने वाले इस नबुव्वत को मुहम्मद साहब पर जो कि दो हज़ार बरस पीछे और एक ग़ैर मुल्क में पैदा हुआ वारिद करते हैं। मुझे क़वी उम्मीद है कि अगर इस नबुव्वत के फ़र्मान पर ग़ौर करें और इसके आगे पीछे अच्छी तरह देख-भाल लें तो फ़ौरन मुहम्मद साहब का ख्व़ाब व ख़्याल दिल से दूर हो जाएगा।

सोइम मुझ को ख़ुदा के कलाम से ख़ासकर तोरैत पर ग़ौर करने से साफ़ मालूम देता है कि नबुव्वत या दीनी बरकत बनी इस्माईल पर वाअदा नहीं है इसलिए बनी इस्माईल के दर्मियान किसी नबी की तलाश करना लाहासिल है ये बात यूं साबित होती है (पैदाइश 17:1-8) जब अब्राम निन्यानवें (99) बरस का हुआ तब ख़ुदावंद अब्राम को नज़र आया और उससे कहा कि, “मैं ख़ुदा-ए-क़ादिर हूँ, तू मेरे हुज़ूर में चल और कामिल हो और मैं अपने और तेरे दर्मियान अह्द करता हूँ कि मैं तुझे निहायत बढ़ाऊँगा तब अब्राम मुँह के बल गिरा, और ख़ुदा उससे हम-कलाम हो कर बोला कि देख मैं तुझसे ये अह्द करता हूँ कि तू बहुत क़ौमों का बाप होगा और तेरा नाम फिर अबी-राम (अब्राम) न रहेगा बल्कि तेरा नाम अबी-रहाम (अब्रहाम) हुआ क्योंकि मैंने तुझे बहुत क़ौमों का बाप ठहराया और मैं अपने और तेरे दर्मियान और तेरे बाद तेरी नस्ल के दर्मियान उनकी पुश्त-दर-पुश्त के लिए अपना अह्द जो हमेशा का अह्द हो करता हूँ मैं तुझको और तेरे बाद तेरी नस्ल को कन्आन का तमाम मुल्क जिसमें तू परदेसी है देता हूँ कि हमेशा के लिए मालिक हो और मैं उनका ख़ुदा हूँगा।” फिर देखो (पैदाइश 17:15-20) और खुदा ने अब्रहाम से कहा कि तू अपनी जोरू को सरय (सारी) मत कह बल्कि उसका नाम “सारा” है मैं उसे बरकत दूँगा और इससे भी तुझे एक बेटा बख्शुंगा मैं उसे बरकत दूँगा कि वो क़ौमों की माँ होगी और मुल्कों के बादशाह इससे पैदा होंगे। तब अब्रहाम मुँह के बल गिरा और हंस के दिल में कहा कि क्या सौ (100) बरस के मर्द को बेटा पैदा होगा और क्या सारा जो नब्भे (90) बरस की है जनेगी (पैदा करना) और अब्रहाम ने ख़ुदा से कहा कि काश इस्माईल तेरे हुज़ूर जीता रहे तब खुदा ने कहा कि बेशक तेरी जोरू सारा तेरे लिए एक बेटा जनेगी तू उसका नाम इज़्हाक़ रखना और मैं इससे और बाद उसके उसकी औलाद से अपना अह्द जो हमेशा का अह्द है करूँगा और इस्माईल के हक़ में मैंने तेरी सुनी देख मैं उसे बरकत दूँगा और उसे बरूमंद करूँगा और उसे बहुत बढ़ाऊँगा और इससे बारह सरदार पैदा होंगे और मैं उसे बड़ी कौम बनाऊँगा लेकिन मैं इज़्हाक़ से जिसको सारा दूसरे साल जनेगी अपना अह्द करूँगा फिर (पैदाइश 21:12-13) ख़ुदा ने अब्रहाम से कहा कि वो बात जो सारा ने इस लड़के और तेरी लौंडी की बाबत कही तेरी बड़ी नज़र में बुरी न मालूम हो सब-कुछ जो सारा ने तुझे कहा मान क्योंकि तेरी नस्ल इज़्हाक़ से कहलाएगी और इस लौंडी के बेटे से भी में एक क़ौम पैदा करूँगा क्योंकि वो तेरी नस्ल है। ख़ुदा ने कहा कि ऐ हाजिरा उठ और लड़के को उठाकर अपने हाथ से सँभाल कि मैं इसको एक बड़ी क़ौम बनाऊँगा।”

इन आयतों को बग़ौर पढ़ने से ये उमूर बख़ूबी दर्याफ़्त हो जाएंगे।

अव़्वल ये कि जब अब्रहाम निन्यानवे (99) बरस का था खुदा ने उसके साथ अह्द बाँधा जो हमेशा का अह्द हो और जिसका एक जुज़्व ये था कि मैं तेरा और तेरे बाद तेरी नस्ल का ख़ुदा हूँगा और मैं तुझको और तेरे बाद तेरी नस्ल को कन्आन का मुल्क जिसमें तू परदेसी है देता हूँ कि हमेशा उसके मालिक हो और मैं उनका ख़ुदा हूँगा।

दूसरा कि अब्रहाम के दो बेटे पैदा हुए एक इस्माईल हाजिरा लौंडी से और दूसरा इज़्हाक़ उसकी बीबी सारा से।

तीसरा अह्द खुदा ने जो अब्रहाम के साथ किया था इज़्हाक़ और इसकी नस्ल में क़ायम किया इस वास्ते पोलुस रसूल रोमीयों के ख़त में यूं लिखता है, “वो इस्राईली हैं और लय-पालक होने का हक़ और जलाल और उहूद और शरीअत और इबादत और वाअदे इन्ही के हैं। और क़ौम के बुज़ुर्ग इन्ही के हैं और जिस्म के रू से मसीह भी इन्ही में से हुआ जो सबके ऊपर और अबद तक ख़ुदा-ए-महमूद है, आमीन। (रोमीयों 9:4-5) यानी वो हमेशा का अह्द कि मैं तेरा और बाद तेरे तेरी नस्ल के साथ पुश्त-दर-पुश्त करता हूँ कि मैं उनका ख़ुदा हूँगा और वो मेरे लोग होंगे ये अह्द इब्राहीमी खुदा ने इज़्हाक़ की नस्ल में क़ायम किया और फ़रमाया कि इसमें इस्माईल शरीक नहीं होगा।

चौथा इस्माईल को भी खुदा ने बरकत दी और वाअदा किया कि उसे भी मैं बढ़ाऊँगा और इससे बारह सरदार पैदा होंगे और मैं उसे बड़ी क़ौम बनाऊँगा ख़ुदा ने इस्माईल के हक़ में सिर्फ दुनियावी बरकत का वाअदा किया और फ़रमाया कि दीनी बरकतें ख़ास इज़्हाक़ की नस्ल के लिए हैं इसलिए मेरी नज़र में किसी क़िस्म की दीनी बरकतों की यानी ख़ुदा का कलाम या नबुव्वत की तलाश बनी इस्माईल के दर्मियान करना लाहासिल है ख़ुदा ने अपने कलाम में साफ़ फ़र्मा दिया कि ये नेअमतें उनको न मिलेंगी। मैं उम्मीद करता हूँ कि मेरे मुहम्मदी भाई जिनको सच्चे दीन की तलाश है इन बातों को जो कि मैं उनकी ख़िदमत में गुज़ारिश करता हूँ ग़ौर से मुतालआ करेंगे।