मसीही होना क्या है?

What is the meaning of Christian?

मसीही होना क्या है?
By

Mohan Lal
मोहन लाल
Published in Nur-i-Afshan Dec 19, 1889

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 11 दिसंबर, 1890 ई॰
4-5 माह अर्सा गुज़रता है शहर बोस्टन (वाक़ेअ अमरीका) अख़्बार ज़ाइन हरलिड ने एक सर्कुलर छठी यूरोप और अमरीका के मशहूर आलिम फ़ाज़िल मसीहियों की ख़िदमत में भेज कर और उन से दरख़्वास्त की थी कि हम आपके निहायत ममनून व मशकूर होंगे अगर आप हमारे अख़्बार के लिए इस अम्र का कि मसीही होना क्या है? एक मुख़्तसर और मुदल्लिल जवाब तहरीर फ़रमाएं। हम यह दरख्वास्त इसलिए करते हैं ताकि अगर मुम्किन हो तो इस अहम सवाल के साफ़ और सादा जवाब तक पहुंच सकें।

बहुतों ने इस सवाल का जवाब तहरीर फ़रमाया सो कई एक साहिबान जवाबात का तर्जुमा हदिया नाज़िरीन करता है उम्मीद कि ख़ाली अज़ मुनफ़अत (फ़ाइदेमंद) ना होगा।

पादरी लेमैन एबिट (डी॰ डी॰), अह्दे-जदीद के बयान के बमूजब “मसीही होना” मसीह का पैरौ होना। उस से मुहब्बत रखनी। उस की मानिंद होने की कोशिश करना और ये उम्मीद रखना है कि जो काम उस ने अपने पेरौ (मानने वालों) को पूरा करने के लिए दिया है उस में मदद करेगा।

पादरी ए॰ पी॰ पियोबोडी (डी॰ डी॰ ऐल॰ ऐल॰ डी॰), मसीही वो है जिसकी इल्लत ग़ाई मसीह की मानिंद होना हो।

जोज़फ़ कुक, “मसीही” वो है जिसने नई पैदाइश और कफ़्फ़ारे के वसीले गुनाह और गुनाह की मुहब्बत से रिहाई पाई हो जो ख़ुदा को प्यार करता है और जिस चीज़ से ख़ुदा को नफ़रत हो उस चीज़ से मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) रहता हो। जिसने ख़ुशी, मुहब्बत और बेरियाई से ख़ुदा को मसीह में अपना नजातदिहंदा और मालिक क़ुबूल किया हो और नीज़ मानता हो कि मसीह का सलीब-बर्दार होना ऐन सआदत मंदी है।

पादरी थीव रिदड, ऐल कलिर (डी॰ डी॰), इस सवाल का जवाब मसीह ने आप ही दिया है जबकि उन्हों ने अपने शागिर्दों से फ़रमाया कि जो कोई मेरी पैरवी करे, उसे चाहिए कि पहले अपने आपका इन्कार करे इसलिए जो शख़्स गुनाहों को तर्क करता और रूहुल-क़ुद्दूस की मदद से अपने मुनज्जी के हुक्मों पर अमल करने की कोशिश करता है “मसीही” है।

पादरी डी॰ डी॰ ए॰ वीडन (डी॰ डी॰), मसीही वो है जो मसीह को अपना नजातदिहंदा और आक़ा जानता है और ख़ुदा को ज़्यादा प्यार करता है और हमसाया को अपने जैसे ख़्याल करता है और गुनाह पर ग़ालिब आता, ख़ुदा के हुक्मों पर अमल करता। बद्यानिती, ख़ुदग़र्ज़ी, हसद बुग़्ज़ बेरहमी, हठ-धर्मी लालच वग़ैरह को अपने मिज़ाज में दख़ल नहीं देता है।

मिसनर मारगिर्ट बूटिम, मसीह की बातों पर ईमान रखना और उस के हुक्मों पर अमल करना “मसीही होना है।”

पादरी ऐडवर्ड एअर टेहील (डी॰ डी॰), मेरे ख़्याल में मसीह ने इस सवाल का जवाब आप ही दिया है कि, जो कोई मेरे बाप की जो आस्मान पर है मर्ज़ी बजा लाता है मेरा भाई, मेरी बहन, और माँ है।

पादरी होवर्ड करोसबी (डी॰ डी॰ एल॰ एल॰ डी॰), मसीही होने के लिए गुनाहों और हमेशा की मौत से रिहाई पाना, ख़ुदा को अपना नजातदहिंदा जानना। इब्ने अल्लाह पर ईमान लाना बहुत ज़रूरी है। जो इस पर तवक्कुल करते हैं इनमे से कोई मुजरिम ना ठहरेगा। (ज़बूर 34:22)

प्रोफ़ैसर डेविड सोंग (डी॰ डी॰), जिन अल्फ़ाज़ के बाद याए निस्बती आए इस से यही पाया जाता है कि ये चीज़ किसी से ताल्लुक़ रखती है। जैसे हिंदूस्तानी, लूदियानवी, अमृतसरी, यानी ऐसी अश्या जो हिन्दुस्तान लूदयाना और अमृतसर से ताल्लुक़ रखती हैं। उसी तरह मसीही यानी जो मसीह से ताल्लुक़ रखता हो, मसीही वो है जिस के खयालात और काम मसीह की मानिंद हों और जिसकी सबसे बड़ी ख़्वाहिश यही हो कि वो मसीह की मानिंद हो जाये।

पादरी ओ॰ पी॰ गफरड (डी॰ डी॰ बप्टिस्ट), जो उन सच्चाईयों को जो मसीह ने उन को सिखाई हैं क़ुबूल कर के उन पर अमल करे, वो ही मसीही है।

पादरी चार्ल्स ऐच॰ पर्टहर्स्ट (डी॰ डी॰ प्रेसब्रिटेरियन), हेइय्यत इन्सानी में ख़ुदा की ज़िंदगी को उतार लेना, या दूसरे लफ़्ज़ों में अपने ज़माने का छोटा मसीह होना है।

चार्ल्स डब्लयू॰ एलेट (एल॰ एल॰ डी॰), मेरे ख़्याल में मसीही वो है जो मसीह को रुहानी और बड़ा ख़लीक़ रहनुमा जाने और ख़ुदा और आदमियों से मुहब्बत रखने की कोशिश करे।

बरडन पी॰ बोन॰ (एल॰ एल॰ डी॰), ख़ुदा का फ़र्माबर्दार और ताअ्बेदार होना और मसीह में हो कर उस की रहमत पर भरोसा रखना। “मसीही” होना है।

पादरी सायरस ए॰ बरटल (डी॰ डी॰), यूनीटेरियन, औरों के फ़ायदे के लिए अपनी ज़िंदगी सर्फ़ करना “मसीही” होना है।

पादरी डेविड ऐच॰ मोर (डी॰ डी॰), मसीह की लाईफ़ के नमुने पर अपनी ज़िंदगी की बुनियाद ड़ालना या दूसरे लफ़्ज़ों में मसीह के नक़्श-ए-क़दम पर चलना।

पादरी आर्थर टी॰ पैरसन (डी॰ डी॰) मसीह को अपना नजातदहिंदा और आक़ा मानना, नजातदहिंदा ताकि गुनाहों की मग्लुबियत और उस की सज़ा से रिहाई दे और आक़ा ताकि दिल और लाईफ़ पर हुकूमत करे। इसलिए मसीही वो है जो दिल से मसीह पर ईमान लाता और उस की पैरवी करता है।

मिसनर जी॰ आर॰ एल्डन, मसीह को इस क़द्र प्यार करना कि वो दिल पर हुकूमत करे।

मिसनर सेरा के॰ बोल्टन, पस जो कुछ कि तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ करें तुम भी मसीह की ख़ातिर उन के साथ वैसा ही किया करो।

मिसनर मेरी ए॰ लूरमोर, जो शख़्स अपने हम जिंसों से हम्दर्दी नहीं करता वो मसीही नहीं हो सकता इसलिए के मसीह की ज़िंदगानी का आला मक़्सद दुनिया की ख़िदमत करना था इसलिए उस के पैरों (मानने वालों) को भी वैसा ही करना चाहीए।

मेरन हार्लेंड, मसीही होना, मसीह के मस्लूब होने, मुर्दों में से जी उठने और आलम बाला को सऊद कर जाने पर ईमान लाना है और बचाने वाले ईमान SAVING FAITH का यही फल है कि दिन-ब-दिन उस की क़राबत बढ़ते जाएं और सुलाह-तसल्ली और क़ुव्वत की उसी से उम्मीद रखें। अगर हम उस से मुहब्बत रखें तो उस के हुक्मों पर भी चलेंगे। उस की उस के सच्चे फ़रज़न्दों की ख़्वाहिश को ज़ाहिर करती और उन के फ़अलों का नक़्शा खींच कर दिखाती है, जिस तरह उस ने हमसे मुहब्बत की हमारा भी फ़र्ज़ है कि हम दूसरों से मुहब्बत रखें।

ऑनरेबल राबर्ट सी॰ पट्मलियन (एल॰ एल॰ डी॰), मसीह होना मसीह का शागिर्द होना है या जैसा कि डॉ॰ थॉमस ओर्नलेड साहब अपनी एक चिट्ठी में तहरीर फर्मातें हैं कि जिस के इरादे और मंसूबे मसीह ही में हैं वह मसीही है।

तस्लीस फ़ील-तौहीद व तौहीद व तस्लीस

The Trinity

तस्लीस फ़ील-तौहीद व तौहीद व तस्लीस
By

One Disciple
एक शागिर्द
Published in Nur-i-Afshan Nov 06, 1890

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 6 नवम्बर, 1890 ई॰
नूर के शआअ़ का एक हिस्सा लैम्प के चिमनी (शीशे का कौर) के जोफ़ (चिमनी के अंदर का हिस्सा) में होता है। दूसरा हिस्सा चिमनी के अंदर और तीसरा हिस्सा चिमनी के बाहर। और फिर भी शआअ़ एक है ना तीन क्योंकि वो हिस्से एक दूसरे से जुदा नहीं हो सकते। गो इन तीन हिस्सों के नाम, मुक़ाम और काम अलग-अलग हैं नूर की सिफ़तों में वो तीनों बाहम बराबर और एक हैं।

चिमनी का टूट जाना शआअ़ को नहीं तोड़ सकता। मसीह के जिस्म के टूटने से उस की उलूहियत नहीं टूटी। चिमनी अगर शफ़्फ़ाफ़ ना हो तो ख़ुद मुनव्वर होने वाले और दूसरों को रोशन करने से महरूम रह सकती है।

मसीह का जिस्म गुनाह से बिल्कुल पाक व साफ़ था और यूं शफ़्फ़ाफ़ था। ख़ुदा जो मुहब्बत और सदाक़त का नूर है इस में से हो के निकला और जहान को रोशन किया। “ऐ ख़ुदा नूर-ए-मुहब्बत मज़हर उस का है मसीह।” हमको हक़ ने अपनी सूरत और दिखलाई नहीं।”

ख़ुदा के मुन्किर और गुनाहगार आदमी का दिल मिस्ल मिट्टी की चिमनी के है। जिसमें नूर की जगह नहीं। लेकिन मसीही और उस के ख़ून में धोए हुओं का दिल मिस्ल गिलास की शफ़्फ़ाफ़ चिमनी के है जिसमें कि मुहब्बत का नूर दाख़िल होता है। और जहान को रोशन करता है।

“ख़ुदा नूर है और उस में तारीकी ज़र्रा भी नहीं” यूहन्ना 1:1-5 “इब्तिदा में कलाम था और कलाम ख़ुदा के साथ था और कलाम ख़ुदा था, यही इब्तिदा में ख़ुदा के साथ था। सब चीज़ें उस से मौजूद हुईं और कोई चीज़ मौजूद ना थी जो बग़ैर उस के हुई। ज़िंदगी उस में थी और वो ज़िंदगी इन्सान का नूर थी… हक़ीक़ी नूर वो था जो दुनिया में आके हर एक आदमी को रोशन करता है। वो जहां में था और जहां उस से मौजूद हुआ और जहां ने उसे ना जाना… और कलाम मुजस्सम हुआ और वो फ़ज़्ल और रास्ती से भरपूर होके हमारे दर्मियान रहा और हमने उस का ऐसा जलाल देखा जैसा बाप के इकलौते बेटे का।” (यूहन्ना 1:1 से 14)

“और जब पन्तिकोस्त का दिन आया था वो सब एक दिल हो के इकट्ठे हुए और एक बार की आस्मान से एक आवाज़ आई जैसी बड़ी आंधी चली। और उस से सारा घर जहां वो बेठे थे भर गया और उन्हें जुदा-जुदा आग की सी ज़बानें दिखाई दीं और उन में से हर एक बैठें पर तब वो सब रूहुल-क़ुद्दुस से भर गए और ग़ैर-ज़बानें जैसे रूहुल-क़ुद्दुस ने उन्हें बोलने की क़ुदरत बख़्शी बोलने लगे।” (आमाल 2:1-4)

बेटा बाप से निकला। यूहन्ना 16:28, रूहुल-क़ुद्दुस बाप से निकलता है। यूहन्ना 15:26 बाप रूहुल-क़ुद्दुस बेटे के नाम से भेजता है। यूहन्ना 14:26, जो ख़ुदा बाप की रूह है वही बेटे की भी हो। (रोमीयों 8:9, ग़लतीयों 4:6)

मसीह ने फ़रमाया “मैं और बाप एक हैं।” (यूहन्ना 10:30)

“तीन हैं जो आस्मान पर गवाही देते हैं बाप और कलाम (मसीह) और रूहुल-क़ुद्दुस और ये तीनों एक हैं।” (1 यूहन्ना 5:7) मैंने तुझको ग़ैर-क़ौमों के लिए नूर बख़्शा कि तुझसे मेरी नजात ज़मीन के किनारों तक भी पहुंचे।” (यसअयाह 49:6)

“तब यसूअ ने फिर उन्हें कहा जहान का नूर मैं हूँ जो मेरी पैरवी करता है अंधेरे में ना चलेगा बल्कि ज़िंदगी का नूर पाएगा।” (यूहन्ना 8:12)

“अरे आ तू जो सोता है जाग और मुर्दों में से उठ कि मसीह तुझे रोशन करेगा।” (इफ़िसियों 5:14)

तबीयत

The Temperament in Christianity and Islam

तबीयत
By

Alfred
अल-फ्रेड
Published in Nur-i-Afshan Dec 04, 1890

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 4 दिसंबर, 1890 ई॰
मसीही तबीयत और मुहम्मदी तबीयत में बड़ा फ़र्क़ है बल्कि मसीही तबीयत और दीगर कुल मज़ाहिब की तबीयत में आस्मान व ज़मीन का फ़र्क़ पाया जाता है जो हर एक ग़ैर-मुतअस्सिब आदमी बाआसानी देख सकता है और ये एक क़वी-तरीन सबूत है कि मसीही मज़्हब ख़ुदा की तरफ़ से है क्योंकि उसी की ताअलीम ने इन्सान को हलीम व फ़रोतन बनाया है और मुलायम मिज़ाज और माफ़ करने वाला दिल बनाया है। पर दीगर मज़ाहिब इन्सान को तबीयत की सलीमी हलीमी व फ़रोतनी हरगिज़ नहीं दे सकते हैं और ना इन्सान की बुरी तबीयत को सुधार सकते हैं। पस ऐसा मज़्हब जो इन्सान की तबीयत को सुधार ना सके फ़ुज़ूल व लाहासिल व बातिल व इन्सानी इख़्तराअ (ईजाद) है। मसीही मज़्हब इन्सान को पाक व रास्त हलीम व फ़रोतन रहीम व ख़ाकसार व हक़जो बनाता है देखो (मत्ती 5:1-13, रोमीयों 8:5-9) “क्योंकि वो जो जिस्म के तौर पर चलते हैं उनका मिज़ाज जिस्मानी है पर्दे जो रूह के तौर पर हैं उनका मिज़ाज रुहानी है। जिस्मानी मिज़ाज मौत है पर रुहानी मिज़ाज ज़िंदगानी और सलामती है। जिस्मानी मिज़ाज ख़ुदा का दुश्मन है, जो जिस्मानी हैं ख़ुदा को पसंद नहीं आ सकते।” फिर देखो रोमीयों 12 बाब कुल ख़ुसूसुन 9-21 आयतें और 13:7-9, इफ़िसियों 4:17-32 आयत तक वग़ैरह। मज़्कूर-बाला आयतों में तबीयत की सुधराई के लिए ऐसी उम्दा ताअलीम है कि बदकार आदमी रास्तकार (अच्छा काम करने वाला) हो जाये और ऐसी उम्दा ताअलीम दुनिया के किसी मज़्हब में नहीं पाई जाती है। देखो जिन मुल्कों में इन्जील पहुंची हो, वहां के लोग कैसे मुहज़्ज़ब व ग़ैर मुतअस्सिब, बुराई व फरेब से नफरत करने वाले, ख़ैर ख्वाह-ए-ख़लाइक़ (अच्छी मख़्लूक़) ग़रीब परवर व जान-निसार और सलीम-उल-तबाअ़ (नर्म-दिल) वग़ैरह होते हैं कि जिनका मुफ़स्सिल बयान अगर लिखूँ तो एक बड़ी किताब हो जाये बरख़िलाफ़ इस के जिन मुल्कों में इंजील नहीं पहुंची या जिन मुल्कों के लोगों ने इंजील को क़ुबूल नहीं किया और ख़ुसूसुन तुर्किस्तान, फ़ारस व अफ़गानिस्तान जहां मुहम्मदी तबीयत सरताज हो वहां के बाशिंदगान की तबीयत का अंदाज़ा कर लो दूर क्यों जाते हो हिन्दुस्तान के दियानतदारों और ख़सूसुन मुहम्मदियों की तबीयत से मुक़ाबला कर के देख लो अगरचे मसीही लोग उन से मुलाइमी व मुहब्बत से पेश आते हैं उन की ख़ैर-ख़्वाही करते व चाहते हैं अपनी इबादतों में उन के लिए हमेशा दुआएं करते हैं। मिशन शिफ़ा ख़ानों में उन के बीमारों की परवरिश व ईलाज करते हैं उन के घरों में बीमारपुरसी को जाते हैं। उन के ग़रीबों को ख़ैरात देते हैं। पादरी साहिबान उन के कितनों को नौकरी देते और दिलवाते हैं। उन की सिफ़ारिशें साहिबान आली व कारोज़ी-इक़तिदार (इख़्तियार रखने वाला) से करते हैं उन के ग़रीब लड़कों को मिशन स्कूलों में बग़ैर फ़ीस के आला दर्जे की ताअलीम देते हैं ग़र्ज़ हर तरह उन की भलाई व ख़ैर-ख़्वाही के ख़्वाहां रहते हैं तो भी दियानंदियों और मुहम्मदियों की मुख़ालिफ़त और ज़िद हिंद के मसीहीयों के साथ अज़हर-मिन-अश्शम्स (बिल्कुल वाज़ेह) है। इस में जहां तक लिखूँ सब थोड़ा ही है। अगर पूछा जाये कि क्या किसी दियानंदी या मुहम्मदी ने किसी मसीही के साथ ऐसे नेक सुलूक किए हैं तो इस के जवाब में हरगिज़ कोई हाँ ना कह सकेगा। जब पादरी साहिबान और दीगर मसीही लोग बाज़ार में इबादत व मुनादी करते हैं तो उस वक़्त देखो कि कितने दियानंदी और ख़ुसूसुन मुहम्मदी हट धरी व मुख़ालिफ़त व ज़िद पर जमा होते हैं ठट्ठा करते हैं गालियां देते हैं लान-तअन करते हैं। कभी उन पर ख़ाक उड़ाते कभी उन को मारते भी हैं कभी उन की किताबें फाड़ते हैं कहाँ तक लिखूँ ग़र्ज़ कि मसीहीयों की इबादत और कलाम-ए-ख़ुदा की ख़िदमत में ख़लल अंदाज़ होते हैं और अपना बुग़्ज़ व अनाद व तास्सुब हद से ज़्यादा ज़ाहिर करते हैं ये ना सिर्फ जहला का तरीक़ा है बल्कि ख़वांदा और अख़्बार नवीस भी ऐसा ही बर्ताव करते हैं जिनका ये फ़र्ज़ था कि ऐसे लोगों को रोकते। ऐसी तबीयत की मिसाल यहां काफ़ी है कि एक मुहम्मदी शख़्स जिसने अपने को मौलवी फ़र्हत-उल्लाह के नाम से मशहूर किया है। क़रीब पाँच बरस गुज़र गए कि कराची चर्च मिशन में मुतलाशी-दीन बन कर पाँच महीने तक ताअलीम पाते रहे पर बसबब किसी इल्लत के बपतिस्मा से महरूम व ख़ारिज किए गए तब मुहम्मदियों के वाइज़ बने और वस्त हिंद तक सफ़र किया और ख़ूब रूपये पैसे जमा किए अब पाँच बरस बाद फिर यहां आए और एक जिल्द-बंद की दूकान में एक ईसाई नौकर था मौलवी साहब ने कहा कि ये काफ़िर है इस को मौक़ूफ़ करो काफ़िर नौकर रखना ना चाहीए या वो मुसलमान हो जाये तो बेहतर है ग़र्ज़ जिल्द-बंद ने उस को मौक़ूफ़ कर दिया वाह बे तबीयत, पर मसीहीयों की तबीयत देखो अगरचे मुख़ालिफ़ों से सताए जाते मारे जाते तो भी सब्र व बर्दाश्त को काम में लाते हैं और अपनी ज़बान से बद्दुआ भी नहीं करते जो कुल अहले हिंद के लिए निहायत आसान बल्कि उनका खास्सा है जब कोई शख़्स मसीही होता तब हिंदू व मुहम्मदी कैसा शोर व गुल मचाते और उस को सताते और उसे मार डालने पर आमादा होते हैं पर जब कोई ज़ाहिर परस्त मसीही शख़्स मुहम्मदी हो जाता तो मसीही उस की परवाह भी नहीं करते बरअक्स इस के उस आदमी को समझाते और मुहिबताना (मुहब्बत के साथ) पेश आते हैं। ये कैसी तबीयत है।

फिर मुहम्मदी ताअलीम दुश्मनों को मारने और बदला लेने को सिखाती है देखो सूरह तौबा कुल और बक़रा रुकूअ 24 आयत 190-197 तक मसीही ताअलीम दुश्मनों को प्यार करने को सिखाती है देखो मत्ती 5:44-48 और रोमीयों 20:12-21 आयत। फिर मुहम्मदी तबीयत बहुत सी जोरवां (बीबियाँ) रखने और उन को निकाल देने की तरफ़ माइल रहती है पर मसीही तबीयत बहुत जौरवों से नफ़रत करती है। हर साल देखा जाता है कि हिंदू और मुहम्मदियों में फ़लां ईद व त्यौहार पर फ़साद हुआ पर कभी सुनने में आया है कि मसीहीयों ने कभी ऐसे मौक़े पर फ़साद किया है! इस से देखा जाता है कि किन की तबीयत फ़ासिद है। ऐसों की बाबत इंजील मुक़द्दस में लिखा है, कोई नेकोकार नहीं एक भी नहीं उनका गला खुली हुई क़ब्र है। उन के होंटों में साँपों का ज़हर है उन के मुँह में लानत व कड़वाहट भरी है उन के क़दम ख़ून करने में तेज़ हैं उन की आँखों के सामने ख़ुदा का ख़ौफ़ नहीं। देखो (रोमीयों 3:10-20)

ग़र्ज़ जो मज़्हब इन्सान को ख़्याल व क़ौल व फ़अल में रास्त पाक व ग़ैर-मुतअस्सिब नहीं बना सकता वो फ़िल-हक़ीक़त बातिल मज़्हब है पस मसीही मज़्हब के सिवा जितने मज़ाहिब दुनिया में मुरव्वज हैं सब बातिल मज़्हब हैं क्योंकि उन की ताअलीम से इन्सान की तबीयत नहीं सुधरती है पस ऐसे मज़्हब से हरगिज़ इन्सान का फ़ायदा नहीं। वो सब इन्सानी ईजाद हैं ख़ुदावंद यसूअ फ़रमाता है कि, “दरख़्त फल ही से पहचाना जाता है। ऐ साँप के बच्चो तुम बुरे हो कर क्योंकर अच्छी बातें कह सकते हो क्योंकि जो दिल में भरा है वो ही मुंह पर आता है अच्छे आदमी अच्छे ख़ज़ाने से अच्छी चीज़ें निकालता है और बुरा आदमी बुरे ख़ज़ाने से बुरी चीज़ें निकालता है और मैं तुम से कहता हूँ कि जो निकम्मी बात लोग कहेंगे अदालत के दिन उस का हिसाब देंगे क्योंकि तू अपनी बातों के सबब से रास्तबाज़ ठहराया जाएगा और अपनी बातों के सबब से कुसूरवार ठहराया जाएगा।” (मत्ती 12:33-37)

ये याद रखो कि सिर्फ मसीही मज़्हब इन्सान को पाक व रास्त व मुहज़्ज़ब व ग़ैर-मुतअस्सिब बनाता है।

रुहानी ऑक्सीजन

Spiritual Oxygen

रुहानी ऑक्सीजन
By

Nasir
नासिर
Published in Nur-i-Afshan Oct 09, 1890

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 9 अक्टूबर, 1890
ज़माना-ए-हाल में साईंस का चिराग़ घर-घर रोशन है। इल्म तबीअयात के रिसाले मकतबों में पढ़ाए जाते हैं। इसलिए ज़रूर नहीं कि हम अपने नाज़रीन को ऑक्सीजन की निस्बत इब्तिदाई सबक़ सिखाना शुरू करें। हर-चंद इस गैस से हर एक ख़वांदा शख़्स कम व बेश वाक़िफ़ होगा। लेकिन मज़ुकूर-उल-सदर-उन्वान (यहां पर दिया गया उन्वान) बहुतों को हैरत में डालेगा कि रुहानी ऑक्सीजन से हमारी क्या मुराद है?

जिन लोगों से नेचर (कुदरत) के नज़ारों को नज़र ताम्मुक़ (ग़ौर करने) से देखना सीखा है उन पर इस क़द्र रोशन हुआ होगा कि इन नज़ारों की आड़ में कोई आला हक़ायक पोशीदा हैं और जो लोग इल्म-ए-मारिफ़त में परवाज़ करते हैं उन को हर एक बर्ग व गुल में रुहानी आलम की खूबियां नज़र आती हैं।

क्या आलम के उस्ताद-ए-अज़ीम ने जिसने फ़रमाया कि मुझसे सीखो मौजूदा ज़िंदगी की ज़रूरीयात और अश्या को सामने रखकर रुहानी आलम की रास्तीयाँ दुनिया के सामने पेश नहीं कीं? वर्ना नव-ज़ादगी और ज़िंदा रोटी और ज़िंदा पानी जहां का नूर वग़ैरह अल्फ़ाज़ के मअनी हैं? ग़र्ज़ दीदनी अश्या नादीदनी हक़ायक़ का गोया अक्स हैं।

रुहानी ऑक्सीजन से हमारी मुराद है कि आलम माद्दी में ऑक्सीजन गैस अपने बाअज़ सिफ़ात व ख़वास में रूहुल-क़ुद्दुस से मुशाबेह है। अलबत्ता हम अपने नाक़िस इल्म व अक़्ल के मुताबिक़ जो तशबीहात क़ायम करें वो सिवाए मजमूआ चंद ख़यालात होने के क़ाबिल सनद नहीं। जिन मुशाहदात व मालूमात से इस तश्बीह का सलसा राक़िम के दिल में क़ायम हुआ नाज़रीन के पेश किया जाता है।

अव्वलन क़ाबिल-ए-लिहाज़ है कि ज़बान इब्रानी में जो लफ़्ज़ हवा के लिए मुक़र्रर है वही रूह की मअनी में मुस्तअमल होता है। चुनान्चे किताब पैदाईश के पहले बाब की दूसरी आयत में बाअज़ मुफ़स्सिरीन ने “ख़ुदा की रूह” की जगह “ख़ुदा की हवा” बेहतर तर्जुमा समझा है। बाअज़ दीगर मुक़ामात में भी ये लफ़्ज़ इसी तरह इस्तिमाल किया गया है। हमारे ख़ुदावंद ने जब रूहुल-क़ुद्दुस की तासीर का ज़िक्र किया तो हवा की मिसाल पेश की (देखो इंजील यूहन्ना 3:8) जिस जर्मन लफ़्ज़ से गैस मुसतख़रज है उस के असली मअनी भी रूह के हैं।

सानियन ऑक्सीजन के सिफ़ात व ख़वास की किस क़द्र मुताबिक़त।
(1) ऑक्सीजन बेरंग नादीदनी बे-ज़ाइक़ा बेबू है ग़र्ज़ ज़ाहिरी तौर पर नमूदार नहीं तो भी हर जगह मौजूद है वैसा ही रूहुल-क़ुद्दुस भी ज़ाहिरी हवास के ज़रीये तमीज़ नहीं की जा सकती इन्ही सिफ़ात से मालूम होती हैं। (चुनान्चे देखो अय्यूब 23:8, 9 और यर्मियाह 23:24 और रोमीयों 11:33)

(2) ऑक्सीजन गैस हवा में बग़ैर किसी कीमीयाई आमेज़िश के मौजूद है रूहुल-क़ुद्दुस भी आज़ाद है। (देखो ज़बूर 51:12 में आज़ाद रूह का ज़िक्र)

हवा में नाईट्रोजन का होना फ़क़त ऑक्सीजन को पतला करने की ख़ातिर है। अगरचे नाईट्रोजन कई एक अश्या और ख़ुसूसुन इन्सानी जिस्म की तर्कीब के लिए ज़रूर है तो भी हवा में ऑक्सीजन के साथ कीमीयाई तौर से मिली हुई नहीं। चुनान्चे तनफ़्फ़ुस वग़ैरह में इस के नफ़ी सिफ़ात ज़ाहिर हैं क्या यहां गुनाह की हस्ती का इशारा नहीं पाया जाता जो रूहुल-क़ुद्दुस के काम के मुख़ालिफ़ है?

(3) ऑक्सीजन शोला को क़ायम रखने वाली गैस है। रूहुल-क़ुद्दुस भी रुहानी आग को क़ायम रखती है। चुनान्चे 1 थिस्सलुनीकियों 5:19 में है रूह को मत बुझाओ (नीज़ आमाल 2:3 में “आग की सी ज़बानें” और इब्रानियों 1:7 में “ख़ुदा के ख़ादिम आग का शोला।” गौरतलब हैं।)

(4) ऑक्सीजन ज़िंदगी बख़्श गैस है और बज़रीये दौरान-ए-ख़ून के जिस्म के हर हिस्से में बक़द्र ज़रूरत तक़्सीम की जाती है। ख़ुर्द-बीनों के ज़रीये दर्याफ़्त किया गया है कि अक्सर बुख़ारात और मुतअद्दी अमराज़ ख़ून में कई क़िस्म के ख़ुदर व हैवानात के दाख़िल होने से पैदा होते हैं और बाअज़ आलिमों की राय है कि ये हैवानात जिस्म में से ऑक्सीजन खींच लेने से अमराज़ पैदा करते हैं। गोया जिस्म की ज़िंदगी इस में है कि इन ईज़ा रसां हैवानात का मुक़ाबला करे। रूहुल-क़ुद्दुस भी हज़क़ीएल 37:14 में ज़िंदा करने वाली रूह कहलाती है। (किसान की तम्सील में “चिड़ियां” मत्ती 13:14,19 और तारीकी के इक़तिदार वालों से जंग इफ़िसियों 6:12 क़ाबिल-ए-ग़ौर हैं)

(5) ऑक्सीजन ख़ून को साफ़ करके ज़िंदगी को बहाल और क़ायम रखती है जिस वक़्त यसअयाह नबी ने क़ौम बनी-इस्राईल की ख़स्ता-हाली का ज़िक्र किया और मसीह की सल्तनत को पनाह-गाह क़रार दिया वो फ़रमाता है कि “ख़ुदावंद यरूशलीम का लहू उस के दर्मियान रूह अदल और रूह सोज़ां से साफ़ करेगा।” (यसअयाह 4:4)

(6) ऑक्सीजन गैस में ख़फ़ीफ़ शोले की रोशनी भी इस क़द्र तेज़ हो जाती है कि आँखें चिन्ध्याने लगती हैं यानी ऑक्सीजन रोशन करने वाली गैस है। मत्ती 25:3,4 और यूहन्ना 2:20,27 से ज़ाहिर है रूहुल-क़ुद्दुस भी रोशन कनुंदा है। ख़ुरूज 13:21 में “आग का सुतून।” और मुकाशफ़ा 4:5 में “आग का चिराग़” ग़ौर के लायक़ हैं।)

(7) ऑक्सीजन सतह ज़मीन पर हर जगह कस्रत से मौजूद है। उस के हासिल करने में फ़क़त दम को अंदर खींचना काफ़ी है।

इस तरह रूहुल-क़ुद्दुस भी ख़ुदा की बख़्श है और ख़ुदा हर वक़्त उस को देने के लिए तैयार है और वो कस्रत से देता है बशर्ते के कोई उसे ख़ुशी से क़ुबूल करना चाहे। (यसअयाह 55:1, यूहन्ना 3:34)

जब हमारा दम हवा में जा मिलेगा और जिस्म ख़ाक के नीचे पड़ा रहेगा। उस वक़्त हमको ऑक्सीजन दरकार नहीं होगी। लेकिन रूहुल-क़ुद्दुस जो हमारी रुहानी ज़िंदगी को क़ायम रखती हो एक ऐसे आलम में भी अबद-उल-आबाद रोशनी और ख़ुशी बख़्श होगी जहां गुनाह और ज़वाल का साया भी नहीं। क्या ही ख़तरनाक हालत है उन लोगों की जो रूहुल-क़ुद्दुस का सामना करते हैं।

ऐ नाज़रीन क्या आप ख़ुदा के इस मुफ़्त इनाम को क़ुबूल करने के लिए तैयार हैं?

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ख़ुद इन्कारी

Self-Denying

ख़ुद इन्कारी
By

Kidarnath
केदारनाथ
Published in Nur-i-Afshan Dec 18, 1890

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 18 दिसंबर, 1890 ई॰
पस जब हम ईमान से रास्तबाज़ ठहरे तो ख़ुदा के साथ अपने ख़ुदावंद यसूअ मसीह के वसीले से सुलह रखें। (रोमीयों 5:1)

रोमीयों के ख़त की तफ़्सीर देखने से मालूम होता है कि पौलुस रसूल ने ये ख़त कलीसिया-ए-रोम को लिखा, उस ज़माने में शहर तमाम दीगर शहरों से आला और अफ़्ज़ल है गोया कि मुख़्तलिफ़ अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) की ग़ैर-अक़्वाम का मर्कज़ बन रहा था रसूल की ग़र्ज़ ये थी कि ऐसे शहर को मसीह की तरफ़ खींचे जाएं। इसी तरह आज ये ख़त बल्कि ये आयत हमारे सब के वास्ते ख़ास हिदायत है जबकि मुख़्तलिफ़ मुक़ामात के मसीहीयों की ताअलीम इल्म इलाही के वास्ते ये मदरिसा मर्कज़ है और यहां से तैयार हो कर हम लोग चारों तरफ़ ख़ुदा के कलाम की ख़िदमत के वास्ते भेजे जाते थे। लिहाज़ा ज़रूर है कि थोड़ी देर के वास्ते इस आयत पर ग़ौर कर के एक दूसरे के लिए कोई ख़ास और मुफ़ीद नसीहत हासिल करें। इस आयत के दो हिस्से हैं। पहला हिस्सा शर्त है और वो सिरा जज़ा यानी जबकि ईमान हाँ सिर्फ़ ईमान ही से रास्तबाज़ी पाई तो नतीजा ये हुआ कि मसीह के वसीले हम में और ख़ुदा में मेल हुआ। पस न हमारी कोशिश से रास्तबाज़ी हमको मिली और ना बग़ैर मसीह के वसीले हम ख़ुदा से मेल (जुड़ना, सुलह होना) पा सकते हैं तो आपका मौज़ूद ख़ुद इन्कारी लेने अपने आप कुछ ना जानना निकलता है। अब सवाल पैदा होता है कि हम क्या करें ताकि ख़ुद इन्कारी के मर्तबे तक पहुंचें। तो जवाब ये होगा कि ना सिर्फ अपने दिलों से बल्कि अपनी रफ़्तार व गुफ़तार से यहां तक कि हर एक काम से ये सीख लें कि फ़क़त ईमान के सबब रास्तबाज़ ठहर कर मसीह के वसीले हम में और ख़ुदा में मेल हुआ। इस वक़्त हम ग़ैर-अक़्वाम के लिए नमूना बन सकते हैं और हम आप ईमान और मसीह से फ़ायदा पा सकते हैं।

मुंदरजा ज़ैल दलाईल से हम अपने ख़ुद इन्कारी के दावे को साबित कर सकते हैं।
अव्वल, कि हम अपनी बुलाहट पर बग़ैर किसी शक व शुब्हा के इस तरह क़ायम और मज़्बूत हों कि उस में किसी सूरत से दो दिलापन ना पाया जाये और ये हमारी दिली हालत पर मौक़ूफ़ है कि जब हम यसूअ मसीह से वाक़िफ़ ना थे और ख़ुदा के कलाम को रद्द करते थे और नफ़्सानी हाँ शैतानी ख़यालात में फंस कर अपने झूटे गंदी धज्जी जैसे नेक-आमाल पर रास्तबाज़ बनना चाहते थे और नापाक वसीलों से ख़ुदा में मेल करना चाहते थे। उस वक़्त रूह पाक के ज़रीये से हमको ईमान इनायत हुआ क्योंकि ईमान भी ख़ुदा ही की बख़्शिश है और यूं रूहुल-क़ुद्दुस की बुलाहट पर हम इन बेहूदा ख़यालात से निकाल कर यसूअ मसीह बुलाए गए और ख़ुदा से मेल हुआ। पस अब हमारे दिल का क्या हाल है क्या हम इस में कोई फ़ख़्र करने का मौक़ा पाते हैं क्या अब भी हम में कोई वो ख़ूबी पाई जाती है जो अपनी कोशिश से हासिल की हो या कोई ऐसी सूरत भी है कि हमारे हज़ार बुरे कामों और ख़यालों को ख़ुदा हमारे किसी नेक काम या अच्छे ख़्याल से बदल डालेगा अगर इन वहमों से निकल गए हैं तो सच-मुच अब्रहाम की मानिंद हम उन में से बुलाए गए और हक़ीक़ी कनआन लेने ईमान के सबब रास्तबाज़ी में पहुंचाए गए।

दोम, जिस तरह हमको यक़ीन है कि रात के बाद सुबह और दिन के बाद शाम ज़रूर होती है या दिन को सूरज और रात को चांद सितारे आस्मान में ज़ाहिर होते हैं या आदमी को मरना ज़रूर है और इस बाबत हमको कभी शक नहीं होता। क्या इसी सूरत हमको ना सिर्फ दिल से बल्कि अपनी रफ़्तार व गुफ़तार और हर एक काम से यक़ीन है कि ख़ुदा ने मह्ज़ अपनी ख़ुशी व मर्ज़ी से बर्गुज़ीदों के वास्ते मसीह के साथ फ़ज़्ल का अहद बाँधा और यसूअ मसीह ने कफ़्फ़ारा देकर अपने बेशक़ीमत लहू से बहिश्त की सारी खोई हुई नेअमतों को हमारे ही वास्ते ख़रीद लिया और वो हमको ज़रूर मिलेंगी और ख़ुदा-ए-सादिक़ जो क़ादिर-ए-मुतलक़ है और अपने वाअदे में सच्चा है और वो जो चाहे सो कर सकता है। अगर यही यक़ीन और इसी के मुताबिक़ हमारा रवय्या है तो सच-मुच हम ईमान के सबब रास्तबाज़ी है।

सोम, जैसे बीमार दवा खा कर बीमारी से चंगा हो जाता है और फिर अपने में मर्ज़ का कुछ आसार नहीं पाता है। क्या वैसे ही हम भी गुनाह की बीमारी में थे और मसीह ने हमको चंगा किया, अब अपने में गुनाह की तासीर नहीं पाते हैं बल्कि गुनाह का नाम सुन कर घबरा जाते हैं और अगर कमज़ोरी से कभी ठोकर खाते हैं तो उसी वक़्त सँभाले जाते हैं और वो सारी पिछली ख़राब आदतें हम में नहीं हैं तो फ़िल-हक़ीक़त मसीह हम में और हम मसीह में हैं और वो हमारा वसीला है।

चहारुम, जिस तरह ख़ुदा अपने सूरज को, नेक व बद दोनों पर उगाता है और अपना मीना (पानी) रास्त व नारास्त पर बरसाता है। क्या इसी तरह हम भी अपने दोस्त व दुश्मन दोनों को प्यार करते हैं उन को अपनी दुआओं में भूल नहीं जाते लानत के बदले बरकत चाहते हैं और ना सिर्फ ज़बानी बल्कि अमली तौर पर भी मुहब्बत बताते हैं अपना आराम छोड़कर उन के दुखों में तक्लीफ़ उठाते हैं हर एक के रंज व राहत में शरीक होते हैं या जहान से कुछ बदला पाने की उम्मीद नहीं वहां भी कुछ कर के दिखाते हैं अगर ये हो तो बेशक ख़ुदा हमारा मेल हो।

हासिल कलाम

इस ज़माने में जबकि अक्सरों के ख़्याल में हिन्दुस्तानी कलीसियाओं में इस्लाह की सख़्त ज़रूरत है और ये हमारे ऊपर मौक़ूफ़ है तो अब क्या देर है कि हम ख़ुद इन्कारी का सबक़ ना सीखें। दरहालिका हम इसी ग़र्ज़ से ताअलीम पाते हैं मिशन हमारी सारी ज़रूरीयात को रफ़ा करती है लाज़िम है कि हम आज ही से बल्कि इसी वक़्त से अपने आपको उम्दा नमूना बना दें। अगर हम में से कोई किसी कलीसिया का पासबान मुक़र्रर हो तो उसे सँभाले या मुनाद हो तो बहुत सी रूहों को बचाने का ज़रीया बने और जिस तरह हम सिर्फ ईमान से रास्तबाज़ ठहरे ना अपने आमाल से और मसीह के वसीले ख़ुदा में मेल पाया, ना अपनी कोशिश से इसी तरह औरों को भी अपने नमूने से ये बेश-बहा नेअमतें जो ख़ुदावंद हम में से हर एक को ऐसा बना दे मसीह की ख़ातिर से। आमीन

मज़्हबी पेशावर

Religious Worker

मज़्हबी पेशावर
By

One Disciple
एक शागिर्द
Published in Nur-i-Afshan Dec 06, 1890

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 6 नवम्बर, 1890 ई॰
हमारे उन्वान से नाज़रीन मुतअज्जिब होंगे और ख़्याल करेंगे कि मज़्हबी पेशावर कौन होते हैं और उन से क्या मुराद है? बेहतर होगा कि हम इस मतलब को एक हंगामें की कैफ़ीयत का मुख़्तसर बयान करने से जो एशिया के एक मशहूर क़दीम शहर इफ़िसुस में वाक़ेअ हुआ ज़ाहिर व आश्कारा करें। पौलुस रसूल ने जबकि दो बरस तक इस शहर में जो बुत-परस्ती व जादूगरी एक महसूर क़िला था इंजील की मुनादी कर के बहुत लोगों को मसीही दीन का मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) बनाया और जादूगरों ने अपनी क़ीमती किताबें जो पचास हज़ार रुपये की थीं लोगों के आगे जला दीं और इस तरह वहां ख़ुदावंद का कलाम निहायत बढ़ गया और ग़ालिब हुआ, तो उस वक़्त वहां इस राह की बाबत बड़ा फ़साद उठा क्योंकि दीमतेरेस नामी एक सुनार जो अर्तमस देवी के पहले मंदिर बनाता था और इस पेशे वालों को बहुत कमवा (फ़ायदा दिलवाना) देता था उस ने उन को और ग़ैरों को जो वैसा (मज़्हबी पेशा) काम करते थे जमा कर के कहा कि ऐ मर्दो तुम जानते हो कि हमारी फ़राग़त इसी काम की बदौलत है और तुम देखते और सुनते हो कि सिर्फ इफ़िसुस में नहीं बल्कि तमाम एशिया के क़रीब में इस पौलुस ने बहुत से लोगों को तर्ग़ीब देकर गुमराह कर दिया है कि कहता है ये जो हाथ के बनाए हैं ख़ुदा नहीं हैं। सो सिर्फ यही ख़तरा नहीं कि हमारा पेशा बेक़दर हो जाये बल्कि बड़ी देवी अर्तमस का मंदिर भी नाचीज़ हो जाएगा और इस की बुजु़र्गी जिसे तमाम एशिया और सारी दुनिया पूजती है जाती रहेगी। जब उन्होंने ये सुना तो ग़ुस्से से भर गए और चिल्ला के कहा कि इफ़िसियों की अर्तमस बड़ी हो। दीमतेरेस सुनार जो इस मुफ़सिदा (झगड़े) का सरग़ना था एक मज़्हबी पेशा-आवर आदमी था। इस क़िस्म के लोग मज़्हब के पर्दे में हमेशा अपनी ज़ाती व जिस्मानी अग़राज़ व फ़वाइद के हुसूल में सरगर्म व मसतग़र्क (मसरूफ़) रहते हैं और हस्बे-ख़वाह (मर्ज़ी के मुताबिक़) मतलब निकालते हैं। वो ख़ूब जानते हैं कि हमारी फ़राग़त इसी काम की बदौलत है और इस के बरख़िलाफ़ ताअलीम देने वाले को अपना क़तई दुश्मन जान कर मक़्दूर (ताक़त) भर उस को ईज़ा पहुंचाने और अपने हम-पेशों को इस की मुख़ालिफ़त पर आमादा करने में बदल व जान सई करते हैं। क्या इस ज़माने में मुल्क हिंद में भी इस क़िस्म के मज़्हबी पेशा-वर पाए जाते हैं? हम यक़ीनन कह सकते हैं कि इंजील की मुख़ालिफ़त करने वाले ज़्यादातर यही लोग इस मुल्क के तमाम बड़े शहरों ख़ुसूसुन तीर्थों ज़्यादा निगाहों और दरगाहों में आजकल बकस्रत मौजूद हैं।

मसीही वाइज़ों ने अक्सर इस बात का तजुर्बा किया होगा, हमको अजमेर दारुल-सल्तनत राजपूताना में बतक़रीब उस सालाना मेला के जो यक्म रज्जब से उस की सात तारीख़ तक ख़्वाजा मुईन-उद्दीन-चिश्ती साहब मशहूर दरगाह की ज़ियारत के लिए फ़राहम होता है जाने और इंजील की मुनादी करने का इत्तिफ़ाक़ पड़ा और अक्सर ये ही देखा कि वहां की दरगाह के ख़ुद्दाम व मुताल्लिक़ीन ज़्यादातर मुख़ालिफ़ थे क्योंकि उन की फ़राग़त इसी कमाई से थी कि लोग बकस्रत हर अतराफ़ व जवानिब हिंद से आकर मिन्नतें गुज़रानते और नज़राने चढ़ाते हैं और मुर्दा के आगे सरबसजूद होते हैं। हमें याद है कि एक मुहम्मदी क़ारी साहब जो अक्सर मसीही वाइज़ों के साथ भी बह्स किया करते ख़्वाजा साहब के ख़ुद्दाम को अक्सर ब-तन्ज़ कहा करते थे कि “तुम्हारा ख़ुदा तो मर गया ख़्वाजा साहब तुम्हारा ख़ुदा है” हमने नाज़रीन से इस दरगाह की सैर कराने का वाअदा किया था देखो नूर-अफ़्शाँ 17 अक्टूबर सफ़ा 5 कालम 3 का फुट नोट। अब नाज़रीन ख़्याल में एक ख़ादिम दरगाह…. के हमराह चलें और बुलंद दरवाज़े से जिसकी सीढ़ीयों और गोखों पर बहुत से हर दर्जे के हम-रकाब चलने को मुस्तइद खड़े हैं दाख़िल हों और बकस्रत सक़ा (मोअतबर) सूरतें नज़र आयेंगी। दरगाह में मक़बरे के निहायत उम्दा व आलीशान दरवाज़े में दाख़िल हो कर इस मज़ार के सामने एक गिरोह जुब्बा और अमामे पहने, तस्बीहें गलों में डाले और हाथों में लिए हुए मोद्दब सफ़ बस्ता खड़े हुए देखेंगे। ये सब मुक़र्रब खुद्दाम हैं और बारी-बारी से ये यहां हाज़िर रहते हैं। जो ख़ादिम शुरू से तुम्हें यहां तक लाया उस के साथ दो-चार उनमें से भी शरीक हो कर मज़ार की ज़ियारत कराने में मदद देते हैं। मज़ार की पायंतीयों (पांव की तरफ़) एक हाथ भर गहरा और गोल छोटा पुख़्ता गढ़ा है जिसमें ज़ाएर (ज़ियारत करने वाले) को कहते हैं कि इस में हाथ डाल के जो कुछ ख़्वाजा साहब की तरफ़ से बख़्शिश हो निकालो। हमने इस में हाथ डाला और निकाल के देखा तो चंद मुरझाए हुए चमेली के फूल थे। सभों ने कहा ये बड़ी बख़्शिश आप को अता हुई है! मज़ार पर कुछ नक़दी व मिठाई वग़ैरह चढ़ाना ज़रूर पड़ता है। अवाम में मशहूर है कि अगर किसी के हाथ में सोने या चांदी का छल्ला अँगूठी हो और इस घड़े में हाथ डाले जो पाइं मज़ार है तो कोई ग़ैबी हाथ उस को पकड़ लेता और जब तक वो छल्ला अँगूठी नज़र ना किया जाये नहीं छोड़ता मगर हमारा हाथ किसी ने ना पकड़ा शायद ये वजह है कि हाथ में कोई अँगूठी छल्ला ना था। मज़ार की ज़ियारत व तवाफ़ के बाद वही ख़ादिम ख़्वाजा साहब के वुज़ू करने नमाज़ पढ़ने चुल्हा खींचने की जगहें दिखाता जहां एक-एक दो-दो हाज़िरबाश मुक़ामी मुजाविर (इबादत-गाह का मुहाफ़िज़) मौजूद हैं और हर जगह कुछ बाक़ी हो किसी ना किसी बहाने से उन लोगों को भेंट चढ़ा दिया जाता है। रोज़मर्रा सदहा वारिद सादिर इस मशहूद दरगाह की ज़ियारत को आते हैं और मेले के अय्याम में हफ़्ते भर तमाम अतराफ़ हिंद के लोगों का यहां बड़ा हुजूम रहता है।

अह्दे-जदीद क्योंकर फ़राहम किया गया?

How did we get the Gospel?

अह्दे-जदीद क्योंकर फ़राहम किया गया?
By

One Disciple
एक शागिर्द
Published in Nur-i-Afshan Dec 18, 1890

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 18 दिसंबर, 1890 ई॰
वो कौन सी बात है जो इस किताब में और दूसरी किताबों में फ़र्क़ व इम्तियाज़ करती है? ये किस की किताब है? किस ने इस को बनाया? इस अम्र में बेदीन लोगों के अजीब ख़यालात हैं। एक अख़्बार में एक बेदीन शख़्स का लिखा हुआ एक आर्टीकल हमारी नज़र से गुज़रा जिसमें लिखा था कि “325 ई॰ में नाईस (निक़ाया) की कौंसल ने अह्दे जदीद को मुरत्तिब किया। उन लोगों के पास बहुत अनाजील और नामजात (ख़ुतूत) असली और जाली मौजूद थे। जिनमें कोई तफ़रीक़ व तमीज़ ना कर सकता था। पस उन्होंने उन सभों को फ़र्श पर रख दिया और दुआ मांगी कि असली हिस्से की कमियो-नैन-टेबल (जिस मेज़ पर पाक शराकत का सामान रखा जाता है) पर चले जाएं और जाली फ़र्श पर पड़े रहें। ये वो तरीक़ा था जिससे मौजूदा अहदे-जदीद मुरत्तिब किया गया।” ये वो क़िस्म ख़ुराक है जिसको बेदीन लोग निगलते और हज़म करते हैं क्योंकि आजकल अक्सर बेदीन लोगों की तस्नीफ़ात में जिन्हें वो लोग शाएअ करते हैं ये बयान पाया जाता है। राक़िम आर्टीकल कहता है कि ये बयान पापियास की सनद पर क़ायम है जो कि एक क़दीम मसीही बिशप था। लेकिन अगर इस रिवायत को तस्लीम किया जाये तो ये मुश्किल वाक़ेअ होगी कि पापियास ने नाईस (निक़ाया) की कौंसल के इनइक़ाद से एक सौ पचास बरस क़ब्ल वफ़ात पाई और मदफ़ून हुआ। पस बे दीनों ने ये ख़बर बदरूहों से पाई हो तो ताज्जुब नहीं। एच॰ एल॰ हेस्टिंग्स साहब फ़रमाते हैं कि “मेरे पास एक मुख़्तसर लाइब्रेरी है” (ये पच्चीस जिल्दें हैं) जिनमें क़रीब बारह हज़ार सफ़े इन मुख़्तलिफ़ मुसन्निफ़ों की तहरीर हैं जिन्हों ने उनको 325 ई॰ से पेशतर रखा था जबकि नाईस (निक़ाया) की कौंसल फ़राहम हुई। इन किताबों में अक्सर मुक़द्दस नविश्तों के इक़तिबासात भरे हुए हैं। इस से मालूम होता है कि उन मुसन्निफ़ों के पास वो ही किताबें थीं जो अब हमारे पास हैं। उन्होंने वो ही आयात इक़्तिबास कीं जो अब हम किया करते हैं। उन्होंने उन्हीं अनाजील व नामजात (ख़ुतूत) से इक़्तिबास किए जिसने हम इक़्तिबास करते हैं और जिन जिसने नाईस की कौंसल से सौ बरस पेशतर अपनी किताब लिखी उस में अहदे-जदीद की सब किताबों से 7545 हवाले इक़्तिबास किए हैं। टरटोलेन ने 200 ई॰ में अहदे-जदीद की किताबों से 3000 से ज़्यादा इक़्तिबास किए हैं। कलीमनट ने 194 ई॰ में 380 आयतें इक़्तिबास कीं और अरेनीस ने 178 ई॰ में 767 आयात इक़्तिबास कीं। पोलीकॉर्प जो 165 ई॰ में शहीद हुआ और जिसने छयालीस (46) बरस मसीह की ख़िदमत की उस ने एक ख़त में 36 आयात इक़्तिबास कीं। जस्टिन मार्टर ने 140 ई॰ अह्दे-जदीद से इक़्तिबास किए और उन बुत-परस्त बेदीन मुसन्निफ़ों का तो जैसा कि सिल्बीस जो 150 ई॰ में हुआ और पोरफ़्री जो 304 ई॰ में था ज़िक्र किया है जिन्हों ने महीनों वो आयात इक़्तिबास कीं जो हमारे पास के मौजूदा पाक नविश्तों में पाई जाती हैं और उन के हवाले दीए जाते हैं। स्कॉटलैंड के लार्ड-हील्स ने फ़िल-हक़ीक़त उन मसीही फ़ादरों की तस्नीफ़ात को जो आख़िर सदी सियुम तक गुज़रे थे तलाश कर के उन में बजुज़ ग्यारह आयात के कुल अह्दे-जदीद को इक़तिबासात में भरा हुआ पाया जो अब तक जाबजा मुश्तहिर हैं। पस अगर नाईस (निक़ाया) की कौंसल के वक़्त अह्दे-जदीद की तमाम जिल्दें मफ़्क़ूद हो जातीं तो उन क़दीम मसीही फ़ादरों की तस्नीफ़ात में से अह्दे जदीद की किताब अज़सर-ए-नौ तैयार हो सकती थी जिन्हों ने इस से इक़्तिबास किया जैसा कि फ़ी-ज़माना हम इस किताब से आयात इक़्तिबास करते हैं और जो इस पर ऐसा ही ईमान रखते थे जैसा कि हम ईमान रखते हैं। नाईस (निक़ाया) की कौंसल ने अहदे-जदीद में एक नुक़्ता या शोशा की कमी बेशी मुतलक़ नहीं की। ये किताब मसीह के रसूलों से जो उस के लिखने वाले थे तवातिर के साथ मोमिनीन को पहुंची और निहायत हिफ़ाज़त व होशियारी के साथ महफ़ूज़ रखी गई और नाईस (निक़ाया) की कौंसल के इनइक़ाद से पहले अला-उल-उमूम मसीही कलीसियाओं में पढ़ी जाती थी। पस बे दीनों के तोहमात व शकूक उस की असलीयत की सदाक़त के हक़ में ज़र्रा भर वक़अत नहीं रखते और मुतलक़ क़ाबिल-ए-तवज्जोह नहीं हैं।

हाल में एक किताब मौसूम-बह “मसीही शहादतों के मुशाहदात” जनाब पादरी अलेक्ज़ेन्डर मीर डी डी मुक़ीम ऐड नेबर ने ज़बान अंग्रेज़ी में शाएअ की है जिसमें मुसन्निफ़ आली व दिमाग़ ने निहायत दर्जे की तहक़ीक़ व तफ़्तीश के साथ मसीही दीन की सदाक़तों को इल्मी व तवारीख़ी तौर पर साबित किया है और साहब मौसूफ़ की इजाज़त से हमने उस के पाँच बाबों का उर्दू में तर्जुमा और पहला बाब बउनवान “मसीहीय्यत और इल्म तबई” साल-ए-रवां के शुरू में बाद तसीह व नज़रसानी अजमेर मिशन प्रैस से शाएअ हुआ लेकिन बावजाह अरबी टेप में छापे जाने की ज़्यादातर मतबू ख़ास व आम ना हुआ। अब मिशनरी साहिबान राजपूताना ने हमारी दरख़्वास्त पर बाक़ी चार बाबों का तर्जुमा हमारे पास भेज दिया है जिनको हम चाहते हैं कि बज़रीया नूर-अफ़्शां थोड़ा-थोड़ा कर के नंबरवार हद्या नाज़रीन करें और यक़ीन करते हैं कि इस से उर्दू ख़वाँ मसीहीयों को ख़ुसूसुन और ग़ैर-अक़्वाम को उमूमन फ़ायदा कसीर हासिल होगा।

अह्दे-जदीद की सेहत की क़दीम तवारीख़ी गवाही का बयान

मज़्मून ज़ेल का मक़्सद अह्दे-जदीद की सेहत के लिए क़दीम तवारीख़ी गवाही का एक मुख़्तसर और साफ़ बयान करना है कि अह्दे-जदीद की ख़ास किताबों को अस्ल और सही क़ुबूल करने के लिए हम क्या तवारीख़ी शहादत रखते हैं? लिहाज़ा ये मज़्मून अंदरूनी से नहीं लेकिन सिर्फ बैरूनी शहादत से मुताल्लिक़ है। ये मैदान जो हमारे सामने है बड़ा वसीअ है। और सिर्फ एक आम तरीक़े में हमारी मौजूदा हदूद के अंदर इस पर बह्स की जा सकती है। पस ज़रूरी है कि बग़ैर दकी़क़ बातों के मुफ़स्सिल बयान करने के हम ज़ेल के ख़ास दलीलों को मुख़्तसर तौर पर बयान करने पर इक्तिफ़ा करें। दीन ईस्वी मह्ज़ एक अक़्ली मज़्हब नहीं जिसको इन्सानी अक़्ल इन सामानों के जो ख़ल्क़त में इस के सामने पड़े हैं ईजाद कर सके लेकिन बख़िलाफ़ इस के वो एक ऐसा मज़्हब है जो बुलंदतर तब्क़े से ख़ल्क़त के ऊपर उतरता है कि गिरी हुई अबतर ख़ल्क़त की इस्तिलाह करे यानी वो एक फ़ौक़-उल-ख़लक़त इल्हाम है वो इल्हाम जो आस्मानी तब्क़े से उतरता है और इसलिए इस के मज़ामीन सिर्फ किताबों या ज़बानी रिवायत से मालूम हो सकते हैं। अला-उल-ख़ुसूस वो एक ऐसा मज़्हब है जो अपनी बुनियाद बाअज़ बड़ी फ़ौक़-उल-ख़ल्क़त हक़ीक़तों में रखता है जैसे कि मसीह का तजस्सुम ज़िंदगी, अमल, मौत, क़ियामत और सऊद लेकिन ये हक़ीक़तें अगरचे फ़ौक़-उल-ख़लक़त हैं लेकिन इस वजह से कि वो गुज़श्ता माजरे हैं हमको सिर्फ़ किताब या ज़बानी रिवायत से तवारीख़ी शहादत से मालूम हो सकते हैं। हम लोगों को जो इस उन्नीसवीं सदी में हैं वाजिब है कि ज़बानी रिवायत को नजर-अंदाज़ करें और अपनी तवज्जोह किताबों की शहादत पर महदूद करें। लेकिन चूँकि दीन ईस्वी के तवारीख़ी माजरे और ज़ाहिर की हुई सदाक़तें अह्दे-जदीद में मुन्दरज हैं। पस सवाल ये है कि अह्दे-जदीद को हवारियों के ज़माने की अस्ल और सही तस्नीफ़ क़ुबूल करने के लिए हम कौनसी तवारीख़ी शहादत रखते हैं।

ये अम्र ग़ालिब है कि अक्सर मसीही अपने ज़माने की कलीसियाई आम शहादत पर अह्दे-जदीद को सही और मोअतबर क़ुबूल करते हैं वो इधर-उधर देखते और दुनिया में एक जमाअत मौजूद पाते हैं जो ईसाई कलीसिया कहलाती है। वो बहुत से मुल्कों में फैल गई है और वो बहुत मुख़्तलिफ़ यानी प्रोटैस्टैंट, रोमन कैथोलिक, ग्रेग या यूनानी, अरमीनेन्, सीरियन और कोपटक वग़ैरह फ़िर्क़ों में मौजूद है। मगर ये फ़िर्क़े बाहम कैसे ही मुख़्तलिफ़ हों और बाज़-औक़ात उनकी बाहमी मुख़ालिफ़त कैसी ही सख़्त हो लेकिन एक बात में सब मुत्तफ़िक़ हैं यानी वो अह्दे-जदीद को हवारियों और उनके रफ़ीक़ों की अस्ल तस्नीफ़ क़ुबूल करते और अपनी बुनियाद अज़ीम और मुस्तनद अहद जान कर इस पर भरोसा रखते हैं और ये मुत्तहदा शहादत इन तक़सीमों की वजह से जो कलीसिया में मौजूद हैं किसी तौर से कमज़ोर नहीं लेकिन बावजह ग़ैर-तमंदि हरीफ़ों की गवाही होने के वो बहुत ज़्यादा मज़्बूत ठहरती है।

मुतफ़र्रिक़ कलीसियाओं की मुत्तहिद गवाही की आम बुनियाद पर मसीही लोग अक्सर करके अह्दे-जदीद की किताबों को अस्ल और सही क़ुबूल करते हैं। इस सूरत में कोई बात ख़िलाफ़ अक़्ल नहीं है लेकिन निहायत माक़ूल है। ये ठीक वैसी ही बुनियाद है कि जिस बुनियाद पर लोग अक्सर गुज़श्ता तवारीख़ी माजरों और किताबों को जो ज़माना हाय बईद से हम तक पहुंचे हैं क़ुबूल करते हैं अगर हम किसी औसत दर्जे के आदमी से सवाल करें कि तुम ऐसे तवारीख़ी माजरों को जैसा कि मुहारिबा काबुल या जंग प्लासी या सिकंदर-ए-आज़म या लुथर की ज़िंदगी के मुक़द्दम माजरों को किस वास्ते क़ुबूल करते हो? तो ग़ालिबन ये जवाब देगा कि मैं इन बातों को आम मोअर्रिखों की तहरीक की बुनियाद पर क़ुबूल करता हूँ। अगर हम सवाल करें कि तुम किस बिना पर सिकन्दर नामा को निज़ामी की और गुलिस्तान को सअ़दी की और दफ़्तर को अबू-अल-फ़ज़ल की तस्नीफ़ क़ुबूल करते हो तो वो ग़ालिबन ये ही जवाब देगा कि मैं इसलिए क़ुबूल करता हूँ कि उनको अला-उल-उमूम अहले इल्म ने ऐसा क़ुबूल किया है। ये एक माक़ूल जवाब है और सिर्फ ये ही जवाब है जो लोग बकस्रत बल्कि ताअलीम- याफ्ता लोग भी दे सकते हैं पस बतरीक़ ऊला मसीही भी अह्दे-जदीद की किताबों को कलीसिया की मुत्तफ़िक़ गवाही की अला-उल-उमूम बुनियाद पर क़ुबूल करते हैं और ये बुनियाद जहाँ तक कि इस की हद ही बिल्कुल एक माक़ूल बुनियाद है।

जब हम दर्याफ़्त करते हैं कि गवाही की क्या ख़ासीयत है और इस का क्या माक़ूल बयान हो सकता है तो ज़रूर ये जवाब होगा कि वो ख़ुसूसुन तवारीख़ी शहादत का मुक़द्दमा है यानी वो ऐसी क़िस्म की गवाही है जैसी वो कि जिसकी बिना पर हम किसी दूसरी किताब या तवारीख़ी माजरे को जो गुज़श्ता ज़माने से हम तक पहुंचे हैं क़ुबूल करते हैं। इसलिए ये वो मसअला नहीं है जिसके साथ हम तबई कुछ सरोकार रखता हो क्योंकि वो बिल्कुल उसके जायज़ अहाता से बाहर है। मुताबिक़ इन क़ाईदों के जो पहले मुतालआ में बयान किए गए इल्म तबई तवारीख़ी नुक्ता दानी की क़लमरू से ठीक इस क़द्र कम सरोकार रखता है जिस क़द्र कि तवारीख़ी नुक्ता दानी इल्म तबई की क़लमरू से रखती है। इल्म तबई मसलन इल्म तर्कीब ज़मीन ऐसे तवारीख़ी माजरों की निस्बत जैसा कि मुहारिबा काबुल या जंग प्लासी ही कुछ भी नहीं कहता है फिर इल्म तबई मसलन इल्म हईय्यत कुछ मुक़र्रर नहीं करता है कि आया फ़िल-हक़ीक़त सिकन्दर नामा निज़ामी की या गुलिस्तान सअ़दी की और दफ़्तर अबू-अल-फ़ज़ल की तस्नीफ़ात हैं। ऐसे सवालों की निस्बत वो कुछ नहीं ठहराता है क्योंकि वह है बिल्कुल उस के अहाते से बाहर हैं और तवारीख़ी नुक्ता दानी के बाकोल मुख़्तलिफ़ अहाता में हैं। इसी तरीक़े पर इल्म तबई अह्दे-जदीद की किताबों की सेहत व ग़ैर-सेहत के हक़ में कुछ नहीं कहता है। वो एक ऐसी तहक़ीक़ है जो तवारीख़ी नुक्ता दानी और शहादत के सीग़ा से जो बिल्कुल एक मुख़्तलिफ़ सीग़ा है इलाक़ा रखती है।

अह्दे-जदीद की सेहत का बयान

ये एक आसान अम्र तो है कि हम मौजूदा सदी से शुरू करके अपने अह्दे-जदीद का सुराग़ पिछली सदी से सदी तक लगा दें तावक़्ते कि हम क़दीम कलीसिया तक पहुंच जाएं। लेकिन ये एक तक्लीफ़देह और बिल्कुल बिला ज़रूरत काम होगा। पस हम अहदे-जदीद के तीन बहुत पुराने क़लमी नुस्ख़ों की मदद से जो लतीफ़ परवरदिगारी से हमारे ज़माने तक पहुंचे हैं चौदह या पंद्रह सदी के ऊपर एक चौकड़ी भरते हैं। अपनी तहक़ीक़ात की इस मंज़िल पर हम इस से बेहतर नहीं कर सकते कि इन मुअज़्ज़िज़ और लायक़ गवाहों को अदा-ए-शहादत के लिए तलब करें।

इन गवाहों को महकमे में बुलाने से पेशतर ये मुनासिब होगा कि बतौर तुम्हें कुछ बयान करें। फ़िल-हक़ीक़त छापे के फ़न के ईजाद होने से पेशतर और किताबों की मानिंद अह्दे-जदीद सिर्फ़ क़लमी किताबत से नक़्ल किया जाता था। किताबों को क़लम से लिखने का ये काम अगले ज़मानों की तारीकी के अंदर मसीही ज़ाहिदों का एक ख़ास पेशा बन गया था और उनकी सनअत के ख़ूबसूरत और मुज़य्यन नमूने बहिफ़ाज़त हमारे ज़माने तक पहुंचे हैं। वो किताबें जो यूं लिखी जाती थीं क़लमी नुस्खे़ कहलाती हैं। बिल-फ़अल अह्दे-जदीद के क़लमी नुस्ख़ों की बहुत जिल्दें हैं जो बहुत क़दीम ज़मानों से हमारे वक़्त तक पहुंची हैं। ये एक मुसल्लिमा हक़ीक़त है कि क़दीम यूनान की मोअतबर तस्नीफ़ात की बहुत किताबें हमारे ज़माने तक महफ़ूज़ रखी गई हैं जो एक मुख़्तसर कुतुब ख़ाना बनाने के लिए काफ़ी हैं। लेकिन टशनडराफ़ एक जर्मनी आलिम जिसकी वफ़ात के थोड़े दिन गुज़रे और जो बनिस्बत हमारे ज़माने के किसी आदमी के अह्दे-जदीद के पुराने क़लमी नुस्ख़ों का ज़्यादा इल्म रखता था यूं बयान करता है कि मशीयत इलाही ने अह्दे-जदीद के लिए बनिस्बत तमाम यूनानी क़दीम किताबों के बड़ी क़दामत के सबूत ज़्यादा पहुंचाए हैं। फ़िल-वाक़ेअ वो इस मुक़ाम पर क़लमी नुस्ख़ों के इलावा कलीसिया के क़दीम मुसन्निफ़ों के इक़तिबासों और तर्जुमों का इशारा करता है। ये हक़ीक़त जिसका ऐसा पुर-ज़ोर बयान हुआ है एक निहायत आला क़द्र की है और हमारे ईमान को मज़्बूत करने के लिए एक वसीला जान के चाहे कि इस को अपने दिलों पर गहरी नक़्श करें। इस से ज़ाहिर है कि बाइबल के आलिमों के पास ब-इफ़रात सामान है जिससे एक मोअतबर यूनानी अह्दे-जदीद जमा कर सकें।

तीन क़दीम नुस्ख़ों में से पहला जिसको हम गवाह तलब करते हैं वो है जो अलैगज़ेंडरीन कहलाता है उसने ये नाम इस वजह से पाया है कि वो सत्रहवीं सदी में मिस्र के शहर सिकंदरीया से जहां ग़ालिबन वो लिखा गया लाया गया था। वो शहर लंदन के अजाइब ख़ाना में महफ़ूज़ है। वो उम्दा बड़े हुरूफ़ में क़लम से लिखा गया है। आलिमों में से इस पर इत्तिफ़ाक़ है कि वो चौदह सौ बरस का लिखा हुआ है। पस वो एक ही चौकड़ी में हमें क़रीब 450 ई॰ तक वापिस ले जाता है वो बिल्कुल पूरा नहीं है क्योंकि दनी और पुराना होने के बाइस किस क़द्र बिगड़ गया है। लेकिन इस में अह्दे-जदीद की सब किताबो के हिस्से हैं और निहायत साफ़-साफ़ हम पर ज़ाहिर करता है कि 450 ई॰ के क़रीब कलीसिया के साथ में ये ही अह्दे-जदीद था जो अब हमारे हाथ में है।

दूसरा क़दीम क़लमी नुस्ख़ा जिसकी गवाही हम पेश करते हैं वीटीकन नुस्ख़ा है। इस को ये नाम इसलिए दिया गया कि वो शहर रोम में बमुक़ाम विटीकन पोप की लाइब्रेरी में महफ़ूज़ है। अलैगज़ेंडरीन नुस्ख़ा की मानिंद वो बड़े हुरूफ़ में लिखा गया है अगरचे वो हुरूफ़ इस क़द्र ख़ुशख़त नहीं हैं ताहम वो किस क़द्र ज़्यादा पुराना है और पंद्रह सौ बरस से ज़्यादा का है। पस वो फ़ौरन क़रीब 350 ई॰ तक वापिस ले जाता है। लेकिन अफ़्सोस कि वो पूरा नहीं है। मुकाशफ़ात और बाअज़ छोटे ख़ुतूत इस में नहीं हैं लेकिन वो साफ़ इस हक़ीक़त पर गवाही देता है कि उमूमन क़दीम ज़माने का अह्दे-जदीद ऐसा ही था जैसा कि अब हमारे हाथ में मौजूद है।

तीसरा क़लमी नुस्ख़ा जिसको हम गवाह लाते हैं मज़्कूर हर दो नुस्ख़ों से ज़्यादातर मुफ़ीद है। ये वो है जो आलिमों में सीनेटक नुस्खे के नाम से मशहूर है। इस का ये नाम इसलिए दिया गया है कि वो सिना पहाड़ पर सैंट कथरीन की पुरानी ख़ानक़ाह में 1859 ई॰ में दर्याफ़्त हुआ। टशनडराफ़ जर्मनी आलिम जिसका आगे इशारा हो क़लमी नुस्ख़ों की तलाश में मशरिक़ को एक सिफ़ारत पर भेजा गया था जहां उस को परवरदिगारी से इस क़दीम ख़ानक़ाह में इस अनमोल ख़ज़ाने को पाने की नामवरी हासिल हुई। इस के दर्याफ़्त होने के मुताल्लिक़ अजीब बयानात हैं। लेकिन हम उनको फ़िलहाल कलमबंद ना करेंगे। वो इस को हासिल करने में कामयाब हुआ। और अब वो नुस्ख़ा सैंट पटरस बर्ग की शाही लाइब्रेरी में महफ़ूज़ रखा हुआ है। वो तीनों नुस्ख़ों में निहायत ख़ुशख़त है और क़रीब पंद्रह सौ बरस का है और ग़ालिबन 350 ई॰ के क़रीब लिखा गया है। इस में अह्दे-जदीद पूरा है और क्यों हमें निहायत साफ़ गवाही देता है कि इस क़दीम ज़माने का अह्दे-जदीद ठीक ऐसा ही था जैसा कि अब हमारे पास मौजूद है।

हमने इन तीन मुअज़्ज़िज़ गवाहों को ईस्वी ममालिक के तीन दारुल-सल्तनतों से तलब किया है। पहला लंदन से जो प्रोटैस्टैंट ताअलीम का दारुल-सल्तनत है। दूसरा रोम से जो रोमन कैथोलिक ताअलीम का दारुल-सल्तनत है और तीसरा सेंट पीटर्सबर्ग से जो यूनानी कलीसिया का दारुल-सल्तनत है। और हम देखते हैं कि इनकी गवाही निहायत साफ़ है। वो ना सिर्फ साफ़ है बल्कि कामिल इत्तिफ़ाक़ रखती है और दलालत करती है कि 350 ई॰ के क़रीब यानी वफ़ात यूहन्ना के 250 बरस बाद क़दीम कलीसिया के हाथ में ये ही अह्दे-जदीद था जो हमारे हाथ में है।

इख्तिलाफ़ात क़ुरआनी

Contradictions in the Quran

इख्तिलाफ़ात क़ुरआनी
By

Alfred
अल-फ्रेड
Published in Nur-i-Afshan Dec 11, 1890

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 11 दिसंबर, 1890 ई
नूर-अफ़्शाँ नंबर 39 मत्बूआ 25, सितंबर 1890 ई॰ के सफ़ा 4 में भाई खैरुल्लाह साहब ने इख्तिलाफ़ क़ुरआनी पर हमला किया मुहम्मदी पसपा हुए पर अफ़्सोस कि आपने फ़क़त तीन ही इख्तिलाफ़ दिखाए चाहीए था कि 5 या 6 इख्तिलाफ़ पेश करते ताकि वो फिर सर ना उठा सकते। 2 सलातीन 13 बाब 18, 19 आयत। लिहाज़ा मौक़ा पाकर मैं भी कुछ नज़राना पेश-ए-ख़िदमत नाज़रीन करता हूँ।

1- इख्तिलाफ़। सूरह माइदा रुकूअ 10 आयत 75 “और कुछ नहीं मसीह मर्यम का बेटा मगर रसूल है।” ये आयत मुख़ालिफ़ है बक़रा 33 रुकूअ 253 आयत से कि, “सब रसूल बड़ाई दी हमने उन में एक को एक से कोई है कि कलाम किया उस से अल्लाह ने और बुलंद किए बाज़ों के दर्जे और दीं हमने ईसा मर्यम के बेटे को निशानीयां सरीह (वाज़ेह) और ज़ोर दिया उस को रूह पाक से।” और निसा 23 रुकूअ 171 आयत “मसीह जो है ईसा मर्यम का बेटा रसूल है अल्लाह का और उस का कलाम जो डाल दिया मर्यम की तरफ़ और रूह है उस के यहां की।” और आले-इमरान रुकूअ 5 आयत 45 “जब कहा फ़रिश्तों ने ऐ मरियम अल्लाह तुझको बशारत देता है एक अपने कलिमा की जिसका नाम मसीह ईसा मर्यम का बेटा मर्तबे वाला दुनिया में और आख़िरत में और नज़्दीक वालों में।” पस पहली आयत में लिखा है कि मसीह फ़क़त रसूल है बाक़ी तीन आयतों में है कि ईसा को रूह पाक से ज़ोर मिला और आख़िरत और ख़ुदा की नज़दीकियों में है।”

2- इख्तिलाफ़। सूरह बक़रा 34 रुकूअ 256 आयत “और ज़ोर नहीं दीन की बात में खुल चुकी है ज़लालत और बे राही।” ये आयत मुख़ालिफ़ है सूरह तौबा 10 रुकूअ 73 “ऐ नबी लड़ाई कर काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों से और तुंद-ख़ूनी कर उन पर।” और तौबा 16 रुकूअ 123 आयत। “ऐ ईमान वालो लड़ते जाओ अपने नज़्दीक के काफ़िरों से और चाहीए उन पर मालूम हो तुम्हारे बीच में सख़्ती।” और सूरह तहरीम 2 रुकूअ 9 आयत। “ऐ नबी लड़ काफिरों से और दग़ाबाज़ों से सख़्ती कर उन पर।” पहली आयत में दीन की बाबत ज़ोर नहीं चाहीए बाक़ी तीन आयतों में दीन की बाबत काफ़िरों से ज़ोर करना और लड़ना और उन पर सख़्ती करना लिखा है।

3- इख्तिलाफ़। सूरह बक़रह 14 रुकूअ 115 आयत, और अल्लाह की है मशरिक़ व मग़रिब सो जिस तरफ़ तुम मुँह करो वहां ही मुतवज्जोह है अल्लाह “बरअक्स इस के देखो बक़रा रुकूअ 15, 17 आयत 142-151 तक जिसका ख़ुलासा ये कि जिस जगह तुम हो अपना मुँह मस्जिद-उल-हराम की तरफ़ किया करो।” इस में मुख़ालिफ़त साफ़ ज़ाहिर है।

4- इख्तिलाफ़। सूरह बक़रह 27 रुकूअ 217 आयत, “तुझसे पूछते हैं हराम के महीने को उस में लड़ाई करनी तू कह लड़ाई उस में बड़ा गुनाह है।” इस के ख़िलाफ़ देखो सूरह तौबा रुकूअ 5 आयत 36। “बारह महीने में उन में चार हैं अदब के यही है सीधा दीन सो उन में ज़ुल्म ना करो अपने ऊपर और लड़ो मुशरिकों से हर हाल जैसे वो लड़ते हैं तुमसे हाल।” इस में मुख़ालिफ़त साफ़ ज़ाहिर है पहली आयत में हराम के महीने में लड़ाई ममनू हुई और दूसरी आयत में वो रवा ठहरी। वाज़ेह है कि रमज़ान और रज्जब दोनों हराम के महीने हैं पर जंग-बद्र माह रमज़ान की 12-17 तारीख़ तक हुई। और अब्दुल्लाह-बिन बख़्श की लड़ाई दूसरी हिज्री माह-ए-रज्जब में हुई थी। फिर फ़ातेह मक्का भी माह-ए-रमज़ान में हुआ था और बहुतेरे मर्द व औरत क़त्ल हुए थे। 10 रमज़ान को मदीना से चले थे।

5- इख्तिलाफ़। सूरह बक़रह रुकूअ 31 आयत 240 “और जो लोग तुम में मर जाएं और छोड़ जाएं औरतें, वसीयत कर दें अपनी औरतों के वास्ते ख़र्च देना एक बरस तक ना निकाल देना।” इस के मुख़ालिफ़ वही सूरह बक़रह रूकू 30 आयत 234। “और जो लोग मर जाएं तुम में और छोड़ जाएं औरतें, इंतज़ार करवाएं अपने तईं चार महीने और दस दिन” पहली आयत में मुहम्मद साहब ने मुद्दत बेवगी की एक बरस रखी जब देखा कि ये तो मुहम्मदियों पर बड़ा बोझ हुआ तो दूसरी आयत सुनाई कि औरत चार महीने दस दिन तक इंतिज़ार कर ले बाद में फिर निकाह कर सकती है। वाज़ेह हो कि 240 वीं आयत पहले नाज़िल हुई और 234 उस के बाद नाज़िल हुई आयतों की तर्तीब में भी क़ुरआन में बड़ा गढ़-बड़ है।

6- इख्तिलाफ़। सूरह अह्ज़ाब रुकूअ 7 आयत 52 “हलाल नहीं औरतें उस पीछे और ना ये कि इन के बदले और करे औरतें उस पीछे और ना ये कि इन के बदले और करे औरतें अगर ख़ुश लगे तुझको उन की सूरत मगर माल हो तेरे हाथ का।” इस के मुख़ालिफ़ अह्ज़ाब रुकूअ 6 आयत 49 “ऐ नबी हमने हलाल रखी तुझको तेरी औरतें जिनके महर तू दे चुका और माल हो तेरे हाथ का जो पाथ लगा दे तुझको अल्लाह और तेरे चचा की बेटियां और तेरी ख़ालाओं की बेटियां जिन्हों ने वतन छोड़ा तेरे साथ और कोई औरत अगर बख़्शे अपनी जान नबी को चाहे नबी कि उस को निकाह में ले ये नर्मी है तुझ ही को सिवाए मुसलमानों के।” वाज़ेह है कि बैज़ावी और दीगर उलमा इस्लाम कहते हैं कि 49वीं 52वीं आयत के बाद नाज़िल हुई है अगरचे तर्तीब में पहले लिखी है। पस पहले आयत में मौजूदा औरतों और लौंडियों के सिवा और औरतें अगरचे उन की सूरतें मुहम्मद साहब को पसंद भी आएं तो भी निकाह में लाने की मुमानिअत हो। और दूसरी आयत में मौजूदा औरतें और लौंडियों के सिवा मामूं और चचा और फूफियों और ख़ालाओं की बेटियां भी बल्कि वो औरत भी अपना नफ़्स नबी को बख़्श दे निकाह के लिए जायज़ ठहरी। इस में इख्तिलाफ़ साफ़ ज़ाहिर है।

7- इख्तिलाफ़। सूरह अम्बिया रुकूअ 7 आयत 107 “और तुझको जो हमने भेजा सौ महर कर जहां के लोगों पर।” और सूरह फुर्क़ान रुकूअ 5 आयत 58 “और तुझको हमने भेजा यही ख़ुशी और डर सुनाने को।” इन के ख़िलाफ़ देखो सूरह तौबा रुकूअ 10 आयत 74 “ऐ नबी लड़ाई कर काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों से तुंद-खोई कर उन पर और ठिकाना दोज़ख़ और बुरी जगह पहुंचने की।” और सूरह तहरीम 9 आयत “ऐ नबी लड़ काफ़िरों और दग़ा-बाज़ों से और सख़्ती कर उन पर और उनका घर दोज़ख़ है।” पहली आयत में महरो ख़ुशी सुनाने को भेजा दूसरी आयात में ज़ुल्म व तअ़दी का हुक्म है (जब तक हज़रत मक्का में थे मेंहर की आयत सुनाते रहे जब मदीना में आए तल्वार की आयत सुनाई) मज़्कूर बाला आयात में इख्तिलाफ़ात ऐसे साफ़ व ज़ाहिर हैं कि तफ़्सीर की हाजत नहीं और ज़िद्दी आदमी भी इन का मुन्किर होगा मैंने थोड़े इख़्तिलाफ़ यहां दिखलाए हैं जो कोई ज़्यादा का ख़्वास्तगार है तो क़ुरआन को और जनाब पादरी इमाद-उद्दीन साहब फ़ाज़िल की किताबें ख़सूसुन तवारीख़ मुहम्मदी और हिदायत-उल-मुस्लिमीन को पढ़े तो सैंकड़ों इख़्तिलाफ़ पाएगा।

ग़र्ज़ कि इख़्तिलाफ़ात कसीरा अस्बाब पर मबनी हैं कि क़ुरआन ख़ुदा का कलाम नहीं है और बमूजब गवाही क़ुरआन के भी क़ुरआन कलाम-ए-इलाही नहीं है (काम वो कीजिए कि दुश्मन भी रज़ामंद रहे) इस सबूत में देखो अव्वल सूरह निसा रुकूअ 11 आयत 82 “क्या ग़ौर नहीं करते क़ुरआन में और ये हो किसी और का सिवाए अल्लाह के तो पाते उस में बहुत इख़्तिलाफ़।”

दोम। इन इख़्तिलाफ़ात कसीरा से बानी क़ुरआन हमा-दान नहीं साबित होता उस की लाइल्मी ज़ाहिर है उस को तगैयुर व तबद्दुल लाज़िम आता है आज का हुक्म और, और कल कुछ और हुक्म सुनाता है। पर ख़ुदा हमा-दान है।

बाक़ी क़ुरआन हमा-दान नहीं।

पस क़ुरआन ख़ुदा से नहीं। यानी क़ुरआन कलाम-ए-ख़ुदा नहीं। कलाम-ए-मुक़द्दस बाइबल के इख्तिलाफ़ निकालने में तो मौलवी रहमतुल्लाह ने बड़े-बड़े ज़ोर मारे पर बावजूद सख़्त मेहनत व तजस्सुस के एक इख़्तिलाफ़ भी दिखा ना सके सिवा और चार ऐसों के जैसे ये है कि एक हवारी लिखता है कि एक अंधा चंगा हुआ और दूसरा लिखता है कि दो अंधे चंगे हुए। पर जब मीज़ान-उल-हक़ और हिदायत-उल-मुस्लिमीन वग़ैरह कुतुब में फाज़िलान-ए-नामदार की तरफ़ से जवाब काफ़ी दीए गए और उन के मअनी समझाए गए तो उन से कुछ ना बन पड़ा बल्कि अपनी ग़लती के क़ाइल हो कर आलम-ए-सुकूत में पनाह ली। ख़ुदावंद यसूअ मसीह फ़रमाता है कि “ऐ रियाकार पहले कांटरी को अपनी आँख से निकाल तब उस तिनके को अपने भाई की आँख से अच्छी तरह देख के निकाल सकेगा।

ऐ मुहम्मदी भाईयो मैं तुम्हारा ख़ैर-ख़्वाह हो कर बमिन्नत कहता हूँ कि ख्व़ाब-ए-ग़फ़लत से बेदार हो कब तक ऐसी बेफ़िक्री में बैठे रहोगे कब तक ऐसी किताब पर तकिया करोगे ज़रा तो अपनी जान पर रहम करो और हक़ की तलाश करो तौबा करो और कलाम-ए-मुक़द्दस इंजील पर ईमान लाओ तब तुम हयात-ए-अबदी के वारिस होगे।

एक मुहम्मदी और ईसाई के सवाल व जवाब

Christian and Muslim Dialog

एक मुहम्मदी और ईसाई के सवाल व जवाब
By

M.D
एम॰ डी॰
Published in Nur-i-Afshan Dec 16, 1890

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 16 अक्तूबर, 1890 ई॰
मुसलमान : क्यों साहब “आपकी इंजील में लिखा है कि मुबारक वो हैं जो सुलह कराने वाले हैं।” बात तो अच्छी मालूम होती है लेकिन क्या सब जो ईसाई कहलाते हैं ज़रूर सुलह कराने वाले हैं।

ईसाई : नहीं साहब ! मैं अफ़्सोस से कहता हूँ कि बहुत ऐसे हैं जो सिर्फ नाम के ईसाई हैं और उनमें कोई ख़ूबी नहीं पाई जाती जिसके वास्ते हमारे ख़ुदावंद ने मुबारक कहा है।

मुसलमान : तो भला ये बतलाओ फिर फ़र्क़ क्या हुआ इस तरह तो हमारे मुसलमानों में बहुत आदमी बराए-नाम मुसलमान हैं तो फिर वह फ़ज़ीलत दीने-ईस्वी की कहाँ रही जिस पर आप ज़ोर मारते हो?

ईसाई : सुन लीजिए ! दीन की फ़ज़ीलत दीन के मानने वालों पर मुन्हसिर नहीं है बल्कि उस उसूल पर कि जिस पर वो दीन मबनी हो। इन्सान माने या ना माने ये उस की ज़िम्मेदारी है लेकिन उसूल पाक और साफ़ फ़ज़ीलत बख़्श चाहीए। मसलन में अदब और आजिज़ी से और माफ़ी मांग कर अर्ज़ करता हूँ कि अहले-इस्लाम में ये उसूल सुलह कराने वाला जिसको आप भी अच्छा जानते हो पाया नहीं जाता।

मुसलमान : वाह साहब ! आप अजीब क़िस्म के आदमी हो कि “हम-चू मन दीगरे नेस्त” के मसअले पर चलते हो। ये किस तरह साबित कर सकते हो कि इस्लाम में सुलह कराने वाला कोई उसूल नहीं है।

ईसाई : साहब मन ! भला ये बतलाईए कि अगर एक फ़ौज का सिपहसालार एक कमज़ोरी में ख़ुद मुब्तिला हो तो उस की फ़ौज या गिरोह जो उस की पैरवी करता है कब उस की कमज़ोरी पर ग़ालिब हो कर कामयाब होगी।

मुसलमान : बेशक ये तो सच है कि रहबर या सिपहसालार में वो ख़ूबी ज़रूर होनी चाहीए कि जो उस के पैरौं में होना ज़रूरी और मतलूब है।

ईसाई : मर्हबा ! आपके इन्साफ़ पर, लेकिन मैं तो ख़ुद अदब से अर्ज़ करता हूँ। ख़फ़ा ना होना जबकि ख़ुद मुहम्मद साहब में सुलह कराने की रूह ना थी। तो अहले इस्लाम में किस तरह हो सकती है।

मुसलमान : सुनो साहब ! आप फिर ग़ुस्सा दिलाने वाली बात करते हो या तो ये साबित करो वर्ना फिर ऐसी बात अगर मुँह से निकालोगे तो कुछ और सुन लोगे।

ईसाई : भाई साहब ! सुनिए पहले अर्ज़ किया कि दिल दुखाने के वास्ते ये बात नहीं कहता। लो अब साफ़ सुन लो और साबित भी कर लो (ईसाई) क्या ये बात सच नहीं कि जिस आदमी की दो औरतें होती हैं उन हर दो औरतों में सुलह और मेल ग़ैर-मुमकिन हो।

मुसलमान : इस से तो इन्कार नहीं हो सकता क्योंकि हम इस की ख़राबी रोज़ देखते हैं। यहां तक कि रश्क (हसद) के सबब ज़हर खिलाने तक नौबत पहुंची है।

ईसाई : आफ़रीं ! जब दो औरतों की सुलह का ये हाल है तो जहां चार या ग्यारह औरतें हों और वो हिस्सा अपने ख़ावंद की मुहब्बत और इत्तिहाद का जो एक औरत ख़ास अपने वास्ते चाहती है। (और है भी सही क्योंकि ये उस का हक़ है) तो जब वो मुहब्बत या इत्तिहाद या जो कुछ हो चार जगह या ग्यारह जगह तक़्सीम किया जाये तो उन औरतों के गिरोह में सुलह मुम्किन हो? साहब सुनो क्या आँहज़रत के ग्यारह क़बीले नहीं थे और मज़्कूर-बाला बयान के मुताबिक़ उन ग्यारह औरतों में वो सुलह जिसके मअनी आप बख़ूबी समझ सकते हैं क़ायम रह सकती है।

मुसलमान : ख़ामोश।

ईसाई : बस मेरे अज़ीज़ मुसलमान भाई अगर सिपहसालार और रहबर आपका सुलह के उसूल से वाक़िफ़ नहीं बल्कि बरअक्स इस के अपनी ख़ुशी को पूरी करने के वास्ते एक तादाद औरतों में जो ज़ी-रूह थीं निफ़ाक़ और नाराज़गी का बाइस हुए तो ख़ुदा से सुलह इन्सान की किस तरह करा देंगे। तस्लीम। ख़ुदावंद आप पर फ़ज़्ल करे और सुलह का असली मसअला जो यसूअ मसीह के वसीले से दुनिया पर ज़ाहिर हुआ आप पर भी पूरे तौर से ज़ाहिर हो और आपकी सुलह ख़ुदा के साथ इस सच्चे सुलह करने वाले के वसीले से हो। आमीन

अबू सहल मसीही

Abu Sehal

अबू सहल मसीही
3rd Century Christian Scholar

By

Ihsam-U-Din
इह्शाम-उद-दीन
Published in Nur-i-Afshan Dec 04, 1890

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 4 दिसंबर, 1890 ई
अबू सहल एक निहायत मशहूर मसीही तबीब का लड़का था। हिज्री तीसरी सदी के वस्त में पैदा हुआ। साहब नामा दनशूरान नासरी लिखते हैं कि इस का इल्म व अमल दोनों बराबर और मोअस्सर थे और इन दोनों के लिहाज़ से वो बहुत मशहूर और मारूफ़ था। ग़ालिबन उस के वालदैन की उम्दा ताअलीम और दिलचस्प नमूने का नतीजा होगा। वो सच बात को हाथ से जाने ना देता था वो अख़्लाक़ी और दीनी जज़्बे में आकर सच्ची बहादुरी के मैंबर (पुलपिट) पर खड़ा रहता था और ऐलानीया सच बात का वाअज़ करता था। वो हिक्मत नज़री में युद्द-तोला (یدّ طولی) रखता था। छोटी सी उम्र में इस का नाम मुसल्लम फ़ीलसूफ़ोन की फ़हरिस्त में लिखा गया था। ज़माना मौजूदा में ये बात मशहूर है कि ख़ोशनवीसी से फिलासफर की ज़िद है। हमारे फिलासफर अबू सहल मसीही के दिमाग़ में फ़िलोसफ़ी और खूशनवीसी के दोनों माद्दे मिस्ल-माजून-मुरक्कब (चीज़ों को मिला कर बनाई गई दवाई की तरह) के मिले हुए थे। गो अबू सहल की तालीफ़ात और तस्नीफ़ात से बहुत सी किताबें हैं मगर मशहूर किताबें वो हैं जिनके नाम ज़ेल में दर्ज हैं :-

(1) किताब माया[1]

(2) किताब मुंतख़ब-उल-ईलाज

(3) किताब ख़ुदा की हिक्मत इन्सान के पैदा करने में

(4) इल्म तब्ई में

(5) कुल्लियात तिब्ब

(6) रिसाला दरोबा

(7) ख़ुलासा किताब मुहसबती

(8) किताब [2]दर-रोया

अबू सहल जिस मज़्मून पर किताब लिखना चाहता था उस मज़्मून की बहुत शौक़ और मेहनत, सब्र और इत्मीनान से तलाश और खोज करता था। और सच बात की तहक़ीक़ात करने में कभी तसाहल (सुस्ती) और कमी ना करता था और अपने मज़्मून को आसान बनाता था और उस को दिलकश लफ़्ज़ों और आसान मिसालों में अदा करता था। उस के फ़िक्रात गोया अक़्लीदस के मुसल्लस मसादी अला-ज़िलाअ (مثلث مسادی الاضلاع एक जैसी पैमाइश के) होते थे। और मिस्ल अबू अल-फ़ज़ल के मुबतदा (आग़ाज़) और ख़बर में फ़ासिला ना रखता था और बीच में जुम्ला मोअ़तरज़ात (एतराज़ करने वाला जुम्ला) ना लाता था। उस ने जालीनूस वग़ैरह की किताबों पर बहुत सी नुक्ता-चीनीयां की हैं जिनको मुस्लिम फ़ीलसूफ़ोन (مسلم فیلسوفون) ने शौक़ से तस्लीम कर लिया है, और तज़किरों में उनका बयान किया है। जो किताबें अफ़लातून और जालीनूस (جالینوس) ने लिखी थीं वो अपनी तबीयत के ज़ोर से और तेज़इए फ़हम के सबब उन के मज़्मून की तह तक निहायत सुरअत के साथ पहुंच जाता था और फ़िलासफ़ाना एतराज़ात उन की किताबों पर करता था।

तीसरे नम्बर की किताब पर बहुत से मुस्लिम फिलासफरों की राय तज़किरों और रिजाल की किताबों में दिखाई देती हैं मुअर्रिख़ ख़रज़जी लिखता है कि हमने उस हकीम की किताब को देखा है जो उस के हाथ से लिखी हुई थी। मसीहीयों के नामदार (नामवर) हकीम ने अपनी किताब में परवरदिगार की उस हिक्मत का जो उस ने इन्सान को पैदा करने में ज़ाहिर की है बयान किया है। अल-हक़ उस के फ़सीह लफ़्ज़ और मोअस्सर मअनी इस किताब से अयाँ हो रहे हैं। इस किताब का रुत्बा फ़साहत और अछूते ख़यालात के सबब ज़माना मौजूदा (ख़रज़जी का ज़माना) की तमाम किताबों से बहुत बुलंद और ऊंचा है। बल्कि उस को चंद बातों के सिवा हकीम जालीनूस की किताबों पर फ़ौक़ियत हो।

मुहज़्ज़ब-उद्दीन-अबदुर्रहीम बिन अली जो बड़ा मशहूर मुस्लिम हकीम था उस के इंदीया (राय) में भी अबू सहल मसीही फ़साहत कलाम और जोदत बयान में बेनज़ीर था।

मुअर्रिख़ ख़ज़रजी लिखता है कि, ख़ुद आली दिमाग़ मुसन्निफ़ को अपनी किताब पर फ़ख़्र था। अबू सहल अपनी किताब की निस्बत लिखता है कि गो इस उन्वान पर बहुत से लोगों ने किताबें लिखी हैं। मगर मैंने अपनी किताब में निराला और अछूता ढंग इख़्तियार किया है। हर मुतनफ़्फ़िस को इख़्तियार है कि इस किताब को परखे और अपनी राय लिखे। हमने इस किताब की बुनियाद निहायत तहज़ीब के साथ डाली है। हमने इस किताब की बोल-चाल और इबारत को आम-फहम और आसान बनाया है और तर्तीब ख़यालात और मअनी में बड़ी कोशिश की है। हमने मुख़्तसर अल्फ़ाज़ में मुफ़स्सिला दक़ीक़ नुक्तों को बयान किया है। जो बातें दकी़क़ थीं और फिलासफरों को दिखाई ना दी थीं हमने निहायत जफ़ाकशी से उन को बाहर निकाला है और अपनी किताब के सफ़हात पर चमकाया है।

हमारा दिल चाहता है कि इस जगह पर हमारे ज़माने के मुसल्लिमा अख़्बार और मुसल्लिमा ताअलीम याफ़्तों की रायों को भी याद करें जो मसीहीयों की निस्बत हैं। वो कहते हैं कि मसीही ख़ुश्क-दिमाग़ और भद्दे ख़यालात के थे सिर्फ अहले-इस्लाम की इल्मी शवाओं ने उन के दिमाग़ों को रोशन किया और उलमा और फुज़ला की सफ़ में उन को बिठाया। गो उन्हों ने किसी और इरादे और किसी पहलू से लिखा है मगर साहब नामा दानिश्वरान नासरी लिखता है कि शेख़-उल-रईस अबू अली सीना अबू सहल मसीही का शागिर्द था। गो शेख़ ने बहुत सी किताबें लिखी हैं और उमरा और अपने अहबाब के नाम ख़त्म की हैं मगर इस बावफ़ा शागिर्द ने अपने उस्ताद अबू सहल के नाम लिखे हैं और बतौर तोहफ़े के इस को नज़र किए हैं।

1- रिसाला मसबूती दरअल-हान मौसीक़ी बनाम अबू सहल

2- रिसाला और इल्म दरआये जहत अबू सहल

अबू रिहान बेरूती बड़ा फ़ीलसूफ़ और सीयाख़ मुसन्निफ़ और मूजिद (इजाद करने वाला, बानी) इल्म था। उस ने महमूद ग़ज़नवी के ज़माने में हिन्दुस्तान का सफ़र किया और एक किताब लिखी जिसका नाम किताब-उल-हिंद है। प्रोफ़ैसर शैशव जो जर्मन का एक मशहूर आलिम है जिसकी मसाई से ये किताब लंदन में छपी है और हाल ही में मुंबई में फ़रोख़्त को आई है। अबू रिहान इन पांचों फिलासफरों की सोहबत में रहता था और उन की सोहबत से लुत्फ़ और फ़ायदा उठाता था। नामा दानिश्वरान नासरी मत्बूआ ईरान में लिखा है कि, “अबू रिहान कामिल हफ़्त साल बाअज़ा जाह बाशेख़ अल-रईस अबू अली सीना, अबू अली मशकोयह, अबू सहल मसीही, अबू नस्र इराक़ी, अबू अलख़ैर बिन अलख़मार।

इस हकीम ने एक किताब लिखी और उस का नाम किताब तहारत रखा। हकीम नसीर उद्दीन तूसी ने अरबी से तर्जुमा किया और चंद अबवाब इस में पढ़ा दीए और इस का नाम अख़्लाक़ नासरी रखा। मिन्हु

در سِلک ند مادخاصان خوار زم شاہ منظوم بود

अब्बू-अल-अब्बास मामून बादशाह ख़्वारिज़्म इन पांचों फ़ीलसूफ़ों को फ़िलोसफ़ी के स्टेज पर खड़ा रखता था और इल्मी तमाशा देखता था। गो महमूद ग़ज़नवी बुतों को तोड़ने और काफ़िरों को मुसलमान बनाने में मसरूफ़ रहता था मगर फ़ीलसूफ़ों और आलिमों और शाइरों को भी इल्मी झंडी के नीचे खड़ा रखने को जमा करता था। एलफ़िंस्टन साहब साबिक़ गोहरी लिखते हैं कि गो महमूद की तल्वार इस्लाम बरसता था मगर महमूद का दिल इस्लामी शोर से ख़ाली था उस के तमाम जिहाद सिर्फ पोलीटिकल हिक्मत का नतीजा थे। गो महमूद और अबू-अल-अब्बास इल्म में बहुत नीचे थे मगर दोनों में हर इल्म के माहिर और उस्ताद को इंतिख़ाब करने का मलका उम्दा था।

महमूद ख़्वारिज़्म के फिलासफरों की नुमाइश-गाह को गज़नी में लाना चाहता था मगर तीन फ़ीलसूफ़ों को ख़्वारिज़्म की क़दरो मंजिलत और ख़ूबी ने रोक रखा। अबू सहल और इस के शागिर्द बू-अली-सीना ने ख़्वारिज़्म को ख़ैर बाद कहा और गज़नी को रवाना हुए वो हर मुल्क में अपनी चतुराई (चालाकी) का तमाशा दिखाना चाहते थे इसलिए ख़ाना-बदोश मुसाफ़िरों की मानिंद सफ़र करते थे।

अबू सहल के ज़माने में इस्लामी आफ़्ताब निस्फ़-उन्नहार (दोपहर का वक़्त) पर था। फ़िलोसफ़ी की दिल-कशी बहसों चो तरफ़ इस्लामी उलमा की आवाज़ गूंज रही थी। बू अली सीना की फ़ीलसूफ़ी सर के लिए उलमा के कुफ़्र के फ़तवों का ताज बनाया गया था। अगर हम याद में ग़लती नहीं करते तो अबू सहल के लिए कुफ़्र के फ़तवों का वार एक दो दफ़ाअ चल गया था।

दोनों ख़्वारिज़्म से रवाना हो गए और पंद्रह मील जाकर रास्ता भूल गए और एक ऐसे ब्याबान में जा पड़े जिसमें पानी ना था। अबू सहल तिश्नगी के सबब चालीस बरस की उम्र में जांबहक़ तस्लीम हुआ। मसीही फ़ीलसूफ़ को इस के नामदार (नामवर) शागिर्द ने तिश्ना-लब ब्याबान में मदफ़ून और निहायत रंज और मलाल के साथ याबेअर से होता नीशा पूर चला गया।

[1] इस नादिर किताब पर अमिनुल-दौला ने एक मतूल हाशिया लिखा है। मिन्ह

[2] अब्बू अल-अब्बास मामून ख्वारिज्म शाह के नाम तमाम किया और उस को बतौर तोहफ़ा के नज्र किया। मिन्हु