वो जो मिस्कीन पर ज़ुल्म करता है

ख़ुदा पर ईमान लाना आपस के फ़राइज़ की अदायगी का सर-चशमा है। सुलेमान की निस्बत एक बुज़ुर्ग तर शख़्स ने यही हिदायत अपने उस शागिर्द को दी जो उस की छाती पर तकिया करता था। चुनान्चे वही यूहन्ना अपने मकतूब (ख़त) में लिखता है। और हमने उस से ये हुक्म पाया कि जो कोई ख़ुदा से मुहब्बत रखता है सो अपने भाई से मुहब्बत रखता है। (1 यूहन्ना 4:21)

He who oppresses the Poor

वो जो मिस्कीन पर ज़ुल्म करता है

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan October 4, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 4 अक्तूबर 1895 ई॰

वो जो मिस्कीन पर ज़ुल्म करता है उस के बनाने वाले की अहानत करता है पर वो जो उसे ताज़ीम करता है मिस्कीनों पर रहम करता है।

अम्साल 14:31 आयत

ख़ुदा पर ईमान लाना आपस के फ़राइज़ की अदायगी का सर-चशमा है। सुलेमान की निस्बत एक बुज़ुर्ग तर शख़्स ने यही हिदायत अपने उस शागिर्द को दी जो उस की छाती पर तकिया करता था। चुनान्चे वही यूहन्ना अपने मकतूब (ख़त) में लिखता है। और हमने उस से ये हुक्म पाया कि जो कोई ख़ुदा से मुहब्बत रखता है सो अपने भाई से मुहब्बत रखता है। (1 यूहन्ना 4:21)

क़ादिर-ए-मुतलक़ खुदा उन की सिपर (ढाल) है जिनका कोई मददगार नहीं और जो मदद के मुहताज हैं। वो ग़रीबों का निगहबान और उनका साथ देता है। उन पर ज़ुल्म करना उनके ख़ुदा को मलामत करता है उसने अपनी परवरदिगारी में ऐसा इंतिज़ाम किया है कि ग़रीब और मिस्कीन हमेशा हमारे साथ रहते हैं ताकि हमारी मुहब्बत परखी जाये और ताकि हमको मुहब्बत के इज़्हार और अमल का मौक़ा हाथ आए। ख़ुदा की मुहब्बत उस तमाम मुहब्बत की जड़ है जो इन्सान के दिल में होती है। अगरचे जड़ जो एक दरख़्त की आला जुज़्व बल्कि हस्ती की बुनियाद और तरो ताज़गी और तरक़्क़ी का आला है फ़ीनफ्सिही छिपी रहती है। हर एक दरख़्त अपने फलों से पहचाना जाता है ख़ुदा की मुहब्बत गो दिल में छिपी हुई है मगर ताहम अपने फलों से पहचानी जाती है। ख़ुदा की मुहब्बत का फल ख़लाइक़ (मख़्लूक़ात, लोग) दोस्ती है। इन्सानी फ़राइज़ का इन्हिसार इलाही ईमान पर मबनी है। देखिए सुलेमान किस क़द्र सफ़ाई से कहता है “जो उस की ताज़ीम करता है मिस्कीनों पर रहम करता है” अगर इन्सान का दिल अपने ख़ुदा के हुज़ूर रास्त और सीधा है तो ऐसे शख़्स का बाज़ू अपने भाई की मदद को तैयार है। तमाम सच्ची हम्दर्दी का सरचश्मा जो इन्सान इन्सान के साथ करता है ऊपर ही से है। हमारे ख़ुदावन्द येसू मसीह ने इस मज़्मून पर ताअलीम देते हुए कहा “मैंने ये बातें तुम्हें कहीं ताकि मेरी ख़ुशी तुम में बनी रहे और तुम्हारी ख़ुशी कामिल हो” और इस के बाद ही फ़रमाया कि “मेरा ये हुक्म है कि जैसे मैंने तुम्हें प्यार किया है तुम भी एक दूसरे को प्यार करो” जब तक ये मेल ना हो कोई भी अपने भाई को सच्ची मुहब्बत से प्यार नहीं कर सकता है। ये ही सर चशमा है जो हक़ीक़ी मुहब्बत और ख़ैर ख़्वाही का मंबा है और जिससे मुहब्बत का दरिया बह कर तमाम के दिलों को सैराब कर सकता है। आओ हम ऐसे सर चशमे से ईमान के ज़रीये मेल हासिल करें और उस की मुहब्बत से फ़ैज़याब (फ़ायदा हासिल करना) हो कर औरों पर मुहब्बत और ख़ैर ख़्वाही का इज़्हार करें।

बाअज़ आयात क़ुरआन पर सरसरी रिमार्क्स

साल गुज़श्ता यानी 94 ई॰ के दर्मियानी चंद हफ़्तों के पर्चे अख़्बार नूर-अफ़्शां में एक मज़्मून ब उन्वान “बाअज़ ख़यालात-ए-मुहम्मदी” पर सरसरी रिमार्क्स (राय, क़ौल) दर्ज हुआ। जिसमें मुहम्मदी साहिबान के बाअज़ ख़यालात दीनिया व रूहानिया का ख़ुलासा, जिनको वो अपने तईं अहले-किताब समझ कर क़ुरआन व हदीस के मुवाफ़िक़

Minor Remarks on some verses of Quran

बाअज़ आयात क़ुरआन पर सरसरी रिमार्क्स

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Sep 27, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 27 सितंबर 1895 ई॰

साल गुज़श्ता यानी 94 ई॰ के दर्मियानी चंद हफ़्तों के पर्चे अख़्बार नूर-अफ़्शां में एक मज़्मून ब उन्वान “बाअज़ ख़यालात-ए-मुहम्मदी” पर सरसरी रिमार्क्स (राय, क़ौल) दर्ज हुआ। जिसमें मुहम्मदी साहिबान के बाअज़ ख़यालात दीनिया व रूहानिया का ख़ुलासा, जिनको वो अपने तईं अहले-किताब समझ कर क़ुरआन व हदीस के मुवाफ़िक़ अपने मज़्हबी फ़राइज़ अमल में लाने के लिए ज़रूरी और मूजिब-ए-सवाब ख़याल करते हैं मुक़ाबले के तौर पर तहरीर किया गया। और जिसका नतीजा सिर्फ यही हासिल हुआ, कि उनके वो मज़्कूर कुल ख़यालात अहले किताब मसीहियों की ताअलीम के मह्ज़ ख़िलाफ़ है। मगर हाँ बहुत कुछ ताअलीम हनूद (हिंदू की जमा) के मुवाफ़िक़ साबित व ज़ाहिर हुए। जो अज़रूए क़ुरआन मुश्रिक क़रार दीए जाते हैं। और जो अम्र निहायत गौर-तलब है और जिसके लिए अदबन मुकर्रर (दुबारा अदब से) इल्तिमास भी किया गया था। कि अगर उनकी कोई दूसरी हक़ीक़त हो तो कोई साहब बराए मेहरबानी उस को ज़ाहिर कर के राक़िम मज़्मून को ममनून व मशकूर (एहसानमंद व शुक्रगुज़ार) फ़रमाएं। मगर हनूज़ (अभी तक) जिसको क़रीब एक साल का अर्सा गुज़रता है किसी साहब ने ख़ाकसार को ममनून ना[1] किया।

पस अब दूसरा मज़्मून उन्वान बाला से दर्ज अखबार-ए-हाज़ा किया जाता है। जिसमें क़ुरआन साहब के उन अल्फ़ाज़ पर ग़ौर करना कमाल (निहायत) ज़रूरी है। जिनके ज़रीये बाअज़ मुहम्मदी साहिबान हम मसीहियों पर बाअज़ दफ़ाअ हट धर्मी (ज़िद, ढीट पन) या बे-मुंसफ़ी (ना इंसाफ़ी) का इल्ज़ाम लगाया करते हैं, कि “क़ुरआन तो़ इन्जील और दीगर अम्बिया की तस्दीक़ करता है। मगर मसीही क़ुरआन और मुहम्मद साहब को क़ुबूल व तस्लीम नहीं करते वग़ैरह, वग़ैरह।” चुनान्चे इन आयात-ए-क़ुरआनी में से जिनमें वो कुतब-ए-साबिक़ा यानी तौरेत व इन्जील वगैरह के मुसद्दिक़ (तस्दीक़ गया) होने का इक़रार करता एक ये है, यानी “क़ुरआन बनावट की बात नहीं है। मगर वो तस्दीक़ है अगली किताब की और तफ़्सील है हर चीज़ की और हिदायात व रहमत है इस क़ौम के लिए जो ईमान लाते हैं।” (सूरह यूसुफ़ आयत 111)

अलबत्ता इन अल्फ़ाज़-ए-क़ुरआनी के ज़रीये मसीहियों को मुनासिब ही नहीं। बल्कि निहायत ज़रूरी होता, कि वो अगरचे क़ुरआन को मिन्जानिब अल्लाह और मुहम्मद साहब को नबी बरहक़ तो हरगिज़ ना मान सकते थे। क्योंकि नबी और नबुव्वत की ज़रूरत, ज़रूरत पर मौक़ूफ़ (ठहराया गया) है। जिनका ख़ातिमा किताब-ए-मुकाशफ़ा पर हो चुका। और अब ना कोई और किताब की ज़रूरत और ना किसी दीगर नबी के ज़हूर की कुछ हाजत (ज़रूरत) बाक़ी रही। जिसकी बह्स बदलाईल किताब अदम ज़रूरत क़ुरआन के सफ़ा 3 से 15 तक बग़ौर मुतालआ करना चाहिए। ताहम वो उनकी इज़्ज़त व ताज़ीम दीगर बुज़ुर्गों के मानिंद ज़रूर ही करते। जिसके लिए उन्हें आम तौर पर हुक्म दिया गया है कि “अगर तुम फ़क़त अपने भाईयों को सलाम करो तो क्या ज़्यादा किया? क्या महसूल लेने वाले भी ऐसा नहीं करते? (मत्ती 5:47) और जिनकी ख़ासियत का क़ुरआन में भी यूं मज़्कूर (ज़िक्र करना) है, “और दोस्ती के बारे में मुसलमानों के तू उन को ज़्यादा क़रीब पाएगा, जो कहते हैं कि हम नसारा हैं। इसलिए कि इनमें क़िस्सीस (दीन-ए-नसारा का आलिम) और रहबान (राहिब की जमा) हैं। और ये लोग तकब्बुर (ग़ुरूर) नहीं करते। (सूरह अल-मायदा आयत 85)

मगर ताज्जुब (हैरत) का मुक़ाम है कि वही क़ुरआन अपने इन अल्फ़ाज़ की आड़ में दीगर कुतब-ए-साबिक़ा और ख़ुसूसुन इन्जील-ए-मुक़द्दस को रद्द करने का इरादा कर के सिर्फ अपनी ही ज़रूरत को पेश करना चाहता है।

जो कलाम-अल्लाह बाइबल मुक़द्दस के मह्ज़ ख़िलाफ़ और नामुम्किन अम्र है। तो भला अब क्योंकर हो सके। मगर हाँ कोई बेजा या नामुनासिब लफ़्ज़ उन के या किसी के ख़िलाफ़ अपनी ज़बान या क़लम से मसीहियों का निकालना उन के उसूल-ए-ईमानिया के बिल्कुल ख़िलाफ़ है। लेकिन रास्ती और हक़ को ज़ाहिर करना भी उनका ख़ास व ज़रूरी फ़र्ज़ है। जो बेशक अक्सरों को बुरा मालूम हो सकता अम्र मज्बूरी है। चुनान्चे क़ुरआन की उन बाअज़ आयतों में से जो ताअलीम बाइबल के ख़िलाफ़ हैं। बाअज़ का मुख़्तसरन यहां ज़िक्र किया जाता है, कि जिनके ज़रीये क़ुरआन ख़ुसूसुन इन्जील-ए-मुक़द्दस पर अपना हमला ज़ाहिर कर के उस की ख़ास ताअलीम को रद्द करने की बदर्जहा कोशिश करता है। जिनमें से अव़्वल उन आयतों[2] पर ग़ौर करे जिनका ज़िक्र इन्जील-ए-मुक़द्दस में मुतलक़ (बिल्कुल) पाया नहीं जाता और ना हो सकता है। मगर क़ुरआन उनके ज़रीये अपना दावा उस पर साबित करता है।

अव़्वल : वो आयातए-क़ुरआनी जिनका ज़िक्र इन्जील में मुतलक़ पाया नहीं जाता

1. सूरह अल-मायदा आयत 116, 117, (116) ‘‘और जब ख़ुदा ने कहा ऐ ईसा मर्यम के बेटे क्या तू ने लोगों से कहा था कि मुझे और मेरी माँ को अल्लाह से अलग दो ख़ुदा मानो। ईसा बोला तू पाक है मुझसे क्योंकर हो कि वो बात कहूं जो मेरा हक़ नहीं। अगर मैं कहता तो मुझे मालूम होता तू मेरे दिल की जानता है और मैं तेरे दिल की नहीं जानता तू तो छिपी बातें जानता है। (117) मैंने उन्हें वही बात कही है जिसका तू ने मुझे हुक्म दिया था कि तुम अल्लाह की इबादत करो। जो मेरा और तुम्हारा रब है। और जब तक मैं इन में रहा उनका निगहबान रहा और जब तू ने मुझे वफ़ात दी तू इनका निगहबान हो गया और तू हर शैय पर गवाह है।

आयाते क़ुरआनी मज़्कूर बाला से दो बातें मुतशरह हैं :-

अव़्वल, ये कि ख़ुदावन्द येसू मसीह के इक़रार की आड़ में बुज़ुर्गान-दीन यानी रसूलों, हवारियों (शागिर्दों) और दीगर बुज़ुर्गों ने मर्यम को एक माबूद (ख़ुदा) समझा, सिवाए अल्लाह के।

दोम, ये कि ख़ुदावन्द येसू मसीह की उलूहियत (ख़ुदाई) का इक़रार किया बरख़िलाफ़ उस के इन्कार के। जिसने मिस्ल मुहम्मद साहब की, कि बंदगी करो अल्लाह की वग़ैरह वग़ैरह मगर इन बातों का ज़िक्र इन्जील-ए-मुक़द्दस में मुतलक़ (बिल्कुल) पाया नहीं जाता है। और ना किसी दीनदार मसीही की रिवायत से आज तक इनकी कोई तस्दीक़ हुई लेकिन ताज्जुब (हैरानगी) है कि छः सौ बरस बाद मुहम्मद साहब को बज़रीये वही ये हिदायत पहुंची। अब इन बातों पर ग़ौर करीए।

अव़्वल, मर्यम इन्सान थी। जिसको कभी किसी ईसाई ने आज तक माबूद (ख़ुदा) इक़रार नहीं दिया। जिस हाल कि कलामे ख़ुदा इंसान को इन्सान पर सिर्फ भरोसा रखने पर लानत का फ़त्वा ज़ाहिर करता है। (यर्मियाह 17:5) तो उस को ख़ुदा समझने का किस क़द्र होलनाक नतीजा। जिसकी वजह सिर्फ ये है, कि मुहम्मद साहब ने रोमन कैथोलिक ईसाईयों को ग़लती से मर्यम की ज़्यादा ताज़ीम करते हुए देखकर उस को पाक तस्लीस का उक़नूमे सालिस ख़याल कर लिया। और ईसाईयों के सर पर ये इल्ज़ाम थोप दिया जिसको वो ख़ुद कुफ़्र समझते हैं।

दोम, ख़ुदावन्द येसू मसीह की उलूहियत के सबूत पर इन्जील-ए-मुक़द्दस में बकस्रत शहादतें व सदाक़तें (गवाहियाँ व सच्चाईयां) मौजूद हैं। जिनको आँखें खोल कर देखना चाहिए। मगर इनका ज़िक्र बसबब तवालत (लंबा होने की वजह से) क़त-ए-नज़र (नज़र-अंदाज करना) कर के यहां पर सिर्फ ख़ुदावन्द येसू मसीह के चंद अक़्वाल जो इस अम्र के सबूत पर इस में बरमला दावा के साथ मज़्कूर हुए मुन्दरज किए जाते हैं।

चुनान्चे उसने फ़रमाया मैं बाप की गोद से आया हूँ कि मैंने ख़ुदा को देखा और मैं ही उस को ज़ाहिर करता हूँ। (यूहन्ना 1:18) कि “मैं और बाप एक हैं।” (यूहन्ना 10:30) कि मैं अदालत व क़ियामत के दिन मुर्दों का इन्साफ़ करूँगा। (यूहन्ना 5:22) कि “जिसने मुझे देखा उसने बाप को देखा।” (यूहन्ना 14:9) कि “आस्मान व ज़मीन का सारा इख़्तियार मुझे दिया गया है।” (मत्ती 28:18) कि “मैं ज़माने के आख़िर तक हर रोज़ तुम्हारे साथ हूँ।” (28:20) वग़ैरह-वग़ैरह। पस इस क़द्र इक़रारों और दाअवों के सामने क़ुरआन के इस मस्नूई (खुद-साख्ता) इन्कार की जो मह्ज़ ग़र्ज़ से किया गया। जिसका ज़िक्र आइन्दा भी किया जाएगा। वक़अत (इज़्ज़त) हो सकती है?

2. सूरह अल-निसा आयत 169 “और ऐ अहले-किताब अपने दीन में मुबालग़ा (किसी बात को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर बयान करना) ना करो और ख़ुदा की निस्बत सिर्फ हक़ बात बोलो। मसीह ईसा इब्ने मर्यम अल्लाह का रसूल और स का कलिमा है जिसे उसने मर्यम की तरफ़ डाला था और रूह[3] है। इस में से (यानी ख़ुदा में से) पस तुम अल्लाह पर और स के रसूलों पर ईमान लाओ और तीन ना कहो बाज़ आओ तुम्हारा भला होगा।” अलीख

अलबत्ता इस आयते क़ुरआनी के दर्मियानी अल्फ़ाज़ जिन पर ख़त खींचा गया अजीब और निहायत रास्त और इन्जील के मुवाफ़िक़ अल्फ़ाज़ में (देखो यूहन्ना 1:1, 5, लूक़ा 1:35) जो इस में इत्तिफ़ाक़ीया दर्ज हो गए। मगर ताज्जुब (हैरत) का मुक़ाम है कि बहुत से मुहम्मदी साहिबान इन पर बहुत कम ख़याल करते हैं। क्या ये अजीब ख़िताब किसी दीगर नबी की तरफ़ भी क़ुरआन में मन्सूब (क़ायम) हुए? हरगिज़ नहीं। मगर इस के आख़िरी अल्फ़ाज़ यानी “तीन ना कहो बाज़ आओ तुम्हारा भला होगा।” बेशक गौर तलब हैं क्योंकि ईसाईयों के अक़ीदे में तीन ख़ुदा कहना या मानना मह्ज़ कुफ़्र है। बल्कि वो सिर्फ एक वाहिद ख़ुदा के क़ाइल हैं। (इस्तिस्ना 6:4, रोमीयों 16:27, 1 तीमुथियुस 1:17, यहूदाह 1:25) मगर एक वाहिद ख़ुदा में अक़ानीम सलासा यानी बाप, इब्न (बेटा) और रूहउल-क़ुद्स के अलबत्ता क़ाइल हैं। जिनसे तीन ख़ुदा हरगिज़ लाज़िम नहीं आते। बल्कि तीन उसूल जो फ़िल-हक़ीक़त शख़्सियत में अलग अलग, मगर ज़ात व सिफ़ात और जलाल में वाहिद। (मत्ती 28:19, 2 कुरिन्थियों 13:14) उस इलाही अज़ली व हक़ीक़ी वहदानियत में जो इलाही है कलाम अल्लाह के मुवाफ़िक़ क़ुबूल करना मुनाफ़ी (खिलाफ) इस वहदत के नहीं जो अल्लाह की वहदत है। मगर वहदत-ए-मुजर्रिद (अकेला, तन्हा) या उस वहदत के ज़रूर ख़िलाफ़ है, जो अक़्ली वहदत है क्योंकि अल्लाह की वहदत में अक़्ली वहदत का क़ाइल होना कुफ़्र है जिसके सिर्फ़ ईमान और इक़रार से मुतलक़ कोई फ़ायदा नहीं है। (याक़ूब 2:19) क्योंकि ख़ुदा की वहदत वो वहदत है जो क़ियास (ख़याल) व गुमान इन्सानी से बालातर है। उस में ना वहदत वजूदी ना वहदत अक़्ली और ना वहदत अददी है। बल्कि वो ग़ैर-मुद्रिक (समझ में ना आने वाली) है जो मुतशाबहात (जिनके मअनी ख़ुदा के सिवा कोई नहीं जानता इनके एक से ज़ाइद मअनी हो सकते हैं) जिसका मतलब आज तक ना कोई समझ सका। और ना इन्सान की ताक़त है कि इस को समझ सके।

3. सूरह अल-तौबा आयत 112 मुसलमानों की जानें और माल अल्लाह ने बओज़ बहिश्त ख़रीद की हैं, कि वो अल्लाह की राह में लड़ें क़त्ल करें और क़त्ल हों ये लाज़िमी वाअदा है अल्लाह पर। तौरेत में और इन्जील व क़ुरआन और अल्लाह से ज़्यादा वादा-वफ़ा कौन है सो इस बैअ (फ़रोख़्त) पर जो तुमने उस से की ख़ुशी करो और ये बड़ी मुराद याबी है।

ख़ुदा के पाक कलाम तौरेत व इन्जील में ना कहें कि राह में लड़ने मरने का हुक्म हुआ और ना इस के लिए कोई अज्र ठहराया गया। और ना ऐसे फ़ेअल पर किसी तरह की बैअ क़रार पाई। बल्कि बरअक्स इस के क़सदन ऐसा करने वाले पर अल्लाह का इताब (क़हर) है। अलबत्ता बाअज़ मुख़ालिफ़ीन बनी-इस्राईल की उन लड़ाईयों को जो कनआनियों के साथ हुईं। अल्लाह की राह पर लड़ना। मरना ख़याल करते हैं। मगर ये उनकी ग़लत-फ़हमी है। उन लड़ाईयों की निस्बत बनी-इस्राईल को कहीं ख़ुदा की तरफ़ से ये वाअदा नहीं हुआ कि जो इन लड़ाईयों में क़त्ल करेंगे, या क़त्ल किए जाऐंगे। वो बहिश्त में दाख़िल होंगे। जिनमें से बहुतों को ख़ुद ख़ुदा ने उनकी सरकशी व ना-फ़र्मानी के सबब बाअज़ दफ़ाअ हलाक कर दिया। देखो ख़ुरूज 32:28 गिनती 11:33, 21:6 वग़ैरह वग़ैरह। यहां तक कि सिवाए बच्चों वग़ैरह के उन छः लाख जंगी मर्द बनी-इस्राईल में से जो मिस्र से निकले (ख़ुरूज 12:37) सिर्फ दो यानी कालिब और यशूअ है इस वाअदे के मुल्क कनआन में भी दाख़िल हो सके। और बाक़ी सब उस जंगल ब्याबान में मर गए। (गिनती 26:65) और ना कहीं ये हुक्म सादिर हुआ कि जो कनआनी अल्लाह की राह पर ईमान लाएं और इस को क़ुबूल करें, उन्हें छोड़ दो। क्योंकि वो उस ख़ुदा-ए-आदिल व मुंसिफ़ की आलिमुल गैबी के मुवाफ़िक़ उनकी सख़्त बुराईयों के सबब उन पर एक क़हर था। जैसा ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस का बर्ताव उस के ऐन अदल (इन्साफ़) के मुवाफ़िक़ बाइबल मुक़द्दस के दूसरे मुक़ामों से भी बख़ूबी ज़ाहिर है। चुनान्चे दुनिया की बुराई के सबब उस को तूफ़ान से ग़ारत (तबाह व बर्बाद) कर देना। सदोम व अमोरह की शरारत और नापाकी के बाइस उनको गंधक और आग से भस्म कर डालना। फ़िरऔन को उस की सख़्त दिली के सबब मए उस की फ़ौज बहर-ए-क़ुलज़ुम में डूबा मारना। वग़ैरह वग़ैरह मगर दीनदार और अपने परस्तारों को महफ़ूज़ रखना।

इन्जील मुक़द्दस में भी ख़ुदा की राह में लड़ने व मरने का कहीं मुतलक़ (बिल्कुल) ज़िक्र नहीं है। बल्कि अल्लाह की राह ज़ाहिर करने की बाबत इस में यूं लिखा है, क़ौल ख़ुदावन्द येसू मसीह देखो मैं तुम्हें भेड़ों की मानिंद भेड़ीयों के बीच में भेजता हूँ। पस तुम साँपों की तरह होशियार और कबूतरों की मानिंद बे आज़ाद बनो। (मत्ती 10:16) और उनसे बर्ताव की बाबत जो ख़ुदा के कलाम से बर्गश्ता (गुमराह) हो जाते हैं, यूं मर्क़ूम है, “मुनासिब नहीं कि ख़ुदावन्द का बंदा झगड़ा करे बल्कि सबसे नर्मी करे। और सिखलाने पर मुतअद और दुखों का सहने वाला होए। और मुख़ालिफ़ों की फ़िरोतनी से तादीब (तंबीया) करे, कि शायद ख़ुदा उन्हें तौबा बख़्शे ताकि वो सच्चाई को पहचानें। और वो जिन्हें शैतान ने जीता (शिकार किया) है बेदार (जागना) हो कर उस के फंदे से छूटें। ताकि ख़ुदा की मर्ज़ी को बजा लाएं। (2 तीमुथियुस 2:22, 26)

पस कलाम-ए-ख़ुदा बाइबल मुक़द्दस के मुवाफ़िक़ अल्लाह की राह में लड़ने मरने या उस के लिए किसी तरह की सख़्ती करने की क़तई मुमानिअत (मना) है। और ना अक़्ल गवारा कर सकती है, कि इस तरह किसी इंसान की दिली तब्दीली हो सके। मगर हाँ नर्मी मुलाइमियत और बुर्दबारी (सब्र तहम्मुल) से मुम्किन है जो मसीहियों की इन्जील-ए-मुक़द्दस के ज़रीये दिली ख़ासियत है और जिसकी ताईद (हिमायत) क़ुरआन भी यूं ज़ाहिर करता है, “जो लोग ईसा के ताबे हुए हमने उनके दिलों में शफ़क़त और मेहरबानी डाली” अलीख। सूरह अल-हदीद आयत 27

4. सूरह सफ़, आयत 6, “और जब ईसा इब्ने मर्यम ने कहा ऐ बनी-इस्राईल मैं तुम्हारी तरफ़ अल्लाह का रसूल हूँ मुझ आगे जो तौरेत है मैं उस का मुसद्दिक़ (तस्दीक़ करने वाला) हूँ और एक रसूल की बशारत (ख़ुशख़बरी) देता हूँ जो मेरे बाद आएगा। उस का नाम अहमद होगा। अलीख।

मगर इन्जील-ए-मुक़द्दस में ना किसी नबी के ज़हूर की अब कुछ ज़रूरत और ना किसी की आमद का कुछ इशारा है। बल्कि ख़िलाफ़ इस के ख़ुदावन्द येसू मसीह ने ऐसे लोगों से जो उस के बाद नबुव्वत का दावा करें होशियार रहने की बाबत ताकीदन यूं फ़रमाया है, “तब अगर कोई तुमसे कहे कि देखो मसीह यहां या वहां है तो उसे ना मानना। क्योंकि झूठे मसीह और झूटे नबी उठेंगे। और ऐसे बड़े निशान और करामातें (मोअजिज़े) दिखाएँगे, कि अगर हो सकता तो वो बर्गज़ीदों (चुने हुए) को भी गुमराह करते। देखो मैं तुम्हें आगे ही कह चुका। पस अगर वो तुम्हें कहें कि देखो वो ब्याबान में है तो बाहर ना जाऐ कि देखो वो कोठरी में है, तो ना मानो। मत्ती 24:23 से 26 क्योंकि अहकामात तौरेत मुक़द्दस में जो कुछ तक्मील तलब थे। और जिनकी तक्मील के लिए एक तक्मील कनिंदा “मसीह” की बाबत सब नबियों ने हम-ज़बाँ हो कर गवाही दी। (यूहन्ना 5:39) वो आ चुका और सब कुछ पूरा कर चुका। (मत्ती 5:17, 18) जिसके सबूत के लिए कुल इन्जील को जो तक्मील का ज़ख़ीरा है बग़ौर मुतालआ करें और देखें। तो अब किसी दूसरे की क्या ज़रूरत बाक़ी रही।

ताहम बाअज़ मुहम्मदी साहिबान ने इस आयत क़ुरआनी के मुवाफ़िक़ इन्जील में निहायत जद्दो-जहद (कोशिश) से छानबीन की। मगर जब कहीं इस का पता ना पाया। तो लाचार (मज्बूर) बाअज़ ने लफ़्ज़ “वो नबी” को मुहम्मद साहब की तरफ़ मन्सूब (क़ायम) करने की कोशिश की। मगर इस का इशारा सिर्फ़ ख़ुदावन्द येसू मसीह की तरफ़ है। (यूहन्ना 7:40, 41) जिसकी बह्स किताब अदमे ज़रूरत क़ुरआन मुसन्निफ़ा पादरी ठाकुर दास साहब सफ़ा 115 से 122 में ये दलाईल मुन्दरज है मुतालआ करें। फिर बाअज़ ने लफ़्ज़ “तसल्ली देने वाला” को उनकी तरफ़ ख़याल कर लिया।

जिससे सिर्फ़ रूह-उल-क़ूदस मुराद है। (यूहन्ना 14:16, 17) और जिसको ख़ुदावन्द ने अपने शागिर्दों पर नाज़िल करने का वाअदा फ़रमाया कि जो उस के लिए गवाही देगा। उस की बुजु़र्गी करेगा। और उस की बातें (ताअलीम) उनको याद दिलाएगा। वग़ैरह-वग़ैरह (यूहन्ना 14:26 15:26 16:14) और जिसका नुज़ूल भी उस के वाअदे के मुवाफ़िक़। उस के सऊदे आस्मान (आस्मान पर जाने) के दस दिन बाद उस के शागिर्दों पर बरमला ज़ाहिर हो गया। (आमाल 2:2, 3) मगर मुहम्मद साहब की ताअलीम गौर-तलब है। पस जब उन्होंने इस में भी कामयाबी ना देखी तो आख़िरकार बाअज़ ने लफ़्ज़ “सरदार जहान” का हज़रत पर क़ायम करने की कोशिश की, कि जिसको हम मसीही भी उनकी या किसी की तरफ़ हरगिज़ मन्सूब नहीं कर सकते। क्योंकि उस की मुराद सिर्फ शैतान से है। और जिसकी निस्बत ये भी लिखा है कि इस जहान के सरदार पर हुक्म किया गया, कि अब इस दुनिया का सरदार निकाल दिया जाएगा। वग़ैरह-वग़ैरह (यूहन्ना 12:31 16:11) पस इन आख़िरी दो आयतों की हक़ीक़त मालूम करने के लिए रिसाला “सक़ाल” मुसन्निफ़ पादरी इमाम मसीह साहब, सफ़ा 12 से 34 तक बग़ौर मुतालआ करें और तसल्ली पाएं।

बाक़ी आइन्दा

 राक़िम

 एक वाइज़ इन्जील जलील

दुवम : बाअज़ आयात तालीमी क़ुरआन व इन्जील मुक़ाबला

1. इन्कार उलूहियत (ख़ुदाई) ख़ुदावन्द येसू मसीह। सूरह अल-मायदा 19, “वो काफ़िर हैं जो मसीह इब्ने मर्यम को अल्लाह कहते हैं। तू कह अगर अल्लाह मसीह बिन मर्यम को उस की माँ को और सबको जो ज़मीन में हैं हलाक करना चाहे तो कौन उस के इरादे को रोक सकेगा।”

2. सूरह ईज़न (अल-मायदा) आयत 79, मसीह और कुछ नहीं मगर एक रसूल इस से पहले बहुत रसूल गुज़र चुके। और उस की माँ और कुछ नहीं मगर सिद्दीक़ा। दोनों खाना खाया करते थे। देखो हम इनके लिए कैसी निशानीयां बयान करते हैं फिर देख वो कहाँ उलटे जाते हैं। तू कह क्या तुम ख़ुदा के सिवाए पूजते हो कि तुम्हें नफ़ा नुक़्सान नहीं पहुंचा सकता।”

3. सूरह अल-तौबा आयत 30 “यहूद ने कहा उज़ैर (यानी एज्रा काहिन) ख़ुदा का बेटा है और नसारा ने कहा कि मसीह ख़ुदा का बेटा है। ये उन के मुँह की बातें हैं अगले काफ़िरों की बात के मुशाबेह इन्हें ख़ुदा की मार कहाँ उलटे जाते हैं।”

4. सूरह अल-निसा आयत 169 का आख़िर हिस्सा। अल्लाह एक है इस बात से पाक है कि उस के कोई बेटा हो। अलीख और देखो सूरह मर्यम भी।

पस क़ुरआन में यही चार ख़ास आयतें हैं। जो उलूहियत ख़ुदावन्द मसीह के ख़िलाफ़ ज़ोर शोर से बयान हुईं। जिनमें से अव़्वल, में ये बतलाया गया है कि वो सिर्फ़ मख़्लूक़ है और दूसरे की मानिंद हलाक हो सकता है। दोम, में उस की इन्सानियत का सबूत और कि वो इन्सान को ना कुछ नफ़ा या नुक़्सान पहुंचा सकता है। सोम, में ये कि ख़ुदा पाक है उस से जो मसीही उस की तरफ़ निस्बत करते हैं। चहारुम, में बड़ी सफ़ाई से ये कहा गया है कि वो ख़ुदा का बेटा नहीं हो सकता।

पस इस से ज़्यादा उलूहियत-ए-मसीह का और क्या इन्कार हो सकता था। जो क़ुरआन का ख़ास मुद्दआ (मक़्सद) है। और बेशक अगर मसीही ख़्वाह-मख़्वाह बिला दलाईल सुबूती उस को (मसीह को) अल्लाह कह कर उस की उलूहियत के क़ाइल हैं तो उनसे बढ़कर कौन काफ़िर हो सकता है। मगर यहां मुआमला दिगर-गूँ (उलट पुलट) नज़र आता है। क्योंकि जैसे मसीहियों के पास उस की इन्सानियत के दलाईल हैं कि वो इन्सान बन कर इब्ने आदम और मसीह कहलाया। और स लिए ख़साइस-ए-इन्सानी यानी खाना, पीना, थकना और सोना वग़ैरह भी उस को लाज़िमी हुए और जिन बातों पर मुहम्मद साहब ने ज़्यादा बल्कि बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया। ताकि उस की उलूहियत व ख़ुसूसीयत को ज़ाइल (ख़त्म) कर के सिर्फ क़ुरआन की ज़रूरत को पेश करें। मगर चूँकि वो कामिल (मुकम्मल) इन्सान था। इसलिए वो गुनाह की ख़ासियत से भी मुतल्लिक़ (बिल्कुल) पाक व मुबर्रा रहा। और जिस अम्र की क़ुरआन भी पूरी शहादत (गवाही) ज़ाहिर करता। पस ये ही ख़ुसूसीयत उस की हम गुनाह आलूदा इन्सानों का शफ़ी (शफ़ाअत करने वाला) होने की है। मगर उस की इन्सानियत से कहीं बढ़कर क़वी (ताक़तवर) दलाईल उस की उलूहियत के भी उनके पास मौजूद हैं। जो इलाही है कि वो मसीह ख़ुदा बसूरत इन्सान दुनिया में ज़ाहिर हुआ। (फिलिप्पियों 2:5-11) कि जिसकी क़वी शहादतें व सदाक़तें कलाम-ए-रब्बानी में मौजूद हैं। और जिनका मुफ़स्सिल बयान इस जगह बख़ोफ़ तवालत दुशवार (मुश्किल) है। मगर ख़ुलासे के तौर पर बाअज़ ये हैं :-

अव़्वल : दलाईल उलूहियते मसीह

(1) नबियों की गवाही। यसअयाह 9:6, यर्मियाह 23:6, मीकाह 5:2

(2) रूह-उल-क़ुद्स की गवाही बमवाजिब कौल-ए-मसीह। यूहन्ना 16:13, 14 व क़ौल रसूल, 1 कुरिन्थियों 12:3

(3) यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की गवाही। यूहन्ना 1:15 से 27

(4) रसूलों की गवाही। यूहन्ना 1:15 और रोमीयों 1:3 से 4

(5) ख़ुद मसीह के अक़्वाल जिनका ज़िक्र पीछे हो चुका।

(6) और उस के ज़िंदा होने का सबूत। मत्ती 28:5-8

दुवम : लफ़्ज़ बेटे का सबूत

(1) नबी का कलाम। ज़बूर 2:12

(2) जिब्राईल फ़रिश्ते की गवाही, कि “वो ख़ुदा तआला का बेटा कहलाएगा।” लूक़ा 1:35

(3) ख़ुदा बाप की गवाही, कि “ये मेरा प्यारा बेटा है, कि तुम उस की सुनो।” मत्ती 3:17, 17:5

(4) ख़ुद मसीह का इक़रार कि “मैं वही हूँ।” मर्क़ुस 16, 14, इलावा बरीं और यही चंद बातें ख़ुलासे के तौर पर किताब हिदायत-तुल-मुस्लिमीन, मुसन्निफ़ पादरी इमाद-उद्दीन साहब, डी॰ डी॰ के सफ़ा 383, 384 से नक़्ल करना ज़रूरी मालूम होती हैं। यानी

पस उस की (मसीह की) उलूहियत के ये दलाईल हैं, कि अव़्वल बाअज़ फ़िक्रात अह्दे-अतीक़ (पुराना अहदनामा) बयान करते हैं, कि ख़ुदा आप मुजस्सम हो के दुनिया में आएगा और ऐसे ऐसे काम करेगा। और ये बातें मसीह में साफ़ पूरी हुई नज़र हैं।

दुवम, आंका (यह कि) ज़रूर मसीह ने ख़ुद उलूहियत का दावा किया और इस का सबूत भी दिया और यहूदी उस के इसलिए भी दुश्मन हुए कि उसने अपने आपको ख़ुदा बतलाया।

सोइम, उस से जो क़ुद्रत ज़ाहिर हुई वो साफ़ अल्लाह की क़ुद्रत थी और उसने उसे अपनी क़ुद्रत बतलाया।

चहारुम, उसने जो पाकीज़गी और खूबियां दिखलाईं वो सब अल्लाह की ज़ात के ख़ास्से थे और कोई बशर कभी ऐसा पाक ज़ाहिर नहीं हुआ है।

पंजुम, उस की सारी ताअलीम का इन्हिसार (मुन्हसिर होना) इसी बात पर है कि वो अल्लाह है।

शश्म, वो अपनी ख़ुदाई का सबूत अपने तसर्रुफ़ात (इख़्तियार) से हमारे ज़हनों में अब तक करता है ऐसा कि ना-मुम्किन है कि उस की उलूहियत का हम इन्कार करें।

पस अब नाज़रीन ख़ुद इंसाफ़न फ़ैसला कर लें। कि उलूहियत ख़ुदावन्द पर मसीह के इन कस्रत दलाईल के नज़्दीक जो कलामे रब्बानी में मुन्दरज हैं।

क़ुरआन साहब की वो चार आयतें जो उस की मह्ज़ इन्सानियत पर दलालत (निशान, अलामत) करती। किस तरह कामयाब हो सकती हैं।

(2) क़त्ल-ए-मसीह के यहूदी क़रारी। मगर मुहम्मद साहब इंकारी सूरह अल-निसा आयत 156, “और इस क़ौल के सबब कि हमने ईसा इब्ने मर्यम रसूल अल्लाह को क़त्ल किया है। हालाँकि ना उसे क़त्ल किया ना उसे सलीब दी लेकिन वो उनके लिए शुब्हा में डाला गया। और वो जो उस के बारे में इख़्तिलाफ़ रखते हैं। उस की निस्बत मुतशक्की (शक करने वाले) हैं। उन्हें इल्म हासिल नहीं लेकिन वो गुमान की पैरवी करते हैं। और ब यक़ीन उस को क़त्ल नहीं किया बल्कि उसे ख़ुदा ने अपनी तरफ़ उठा लिया और अल्लाह ग़ालिब पुख़्ताकार है।

जब कि क़ुरआन ख़ुदावन्द येसू मसीह की उलूहियत का इंकारी है। जिसके खुले सबूत ऊपर मज़्कूर हो चुके तो ज़रूर है, कि वो उस के फ़िद्या (ख़ून बहा) का भी इंकारी हो। जो उस की कामिल (मुकम्मल) क़ुर्बानी में उस के मारे जाने के ज़रीये कामिल हुआ। और जिसका ज़िक्र उस के वाक़ेअ होने से पहले ख़ुदावन्द मसीह ने अपने शागिर्दों पर बरमला ज़ाहिर कर दिया था, कि सब जो नबियों की मार्फ़त इब्ने-आदम के हक़ में लिखा है पूरा होगा। क्योंकि वो ग़ैर क़ौम वालों के हवाले किया जाएगा और वो उस को ठट्ठे में उड़ा देंगे और बेइज़्ज़त करेंगे और उस पर थूकेंगे और उस को कोड़े मार के क़त्ल करेंगे। और वो तीसरे दिन जी उठेगा। लूक़ा 18:32, 33

चुनान्चे उस के दुख व तक्लीफ़ सहने और मारे जाने की बाबत पैशन गोईयाँ बाअज़ नबियों की किताबों में पाई जाती हैं। ख़ुसूसुन यसअयाह नबी की किताब 53 बाब में जो क़रीबन सात सौ बरस पहले इस वाक़िये से कमाल सफ़ाई के साथ बयान हुईं। कि वो यानी मसीह हमारे गुनाहों और बदकारियों के लिए घायल (ज़ख़्मी) किया और मारा जाएगा। और कि उस के मार खाने से हम चंगे हुए। वग़ैरह-वग़ैरह। कि जिनके वक़ूअ की वाक़ई तक्मील ख़ुद चश्मदीद गवाहों ख़ुसूसुन ख़ुदावन्द के हवारियों (शागिर्दों) से इन्जील-ए-मुक़द्दस में कलमबंद की गई। जिनका ख़ुलासा दर्ज ज़ैल है :-

पैशन गोईयाँ म तक्मीलए-इन्जील

1. वो बेचा और पकड़वाया जाएगा। ज़बूर 41:9 ज़करीयाह 11:13

तक्मील मत्ती, 26:14 ता 16 और 23 ता 5 आयत

2. वो तन्हा अकेला छोड़ा जाएगा। ज़करीयाह 13:7

तक्मील मत्ती, 26:56, मर्क़ुस 14:5, 52

3. वो हक़ीर और ज़लील किया जाएगा। यसअयाह 53:3 ज़बूर 7:22 ता 9

तक्मील लूक़ा 9:58, यूहन्ना 19:15, मत्ती 27:39 ता 42

4. उस के दुख और तक्लीफ़ सहने की बाबत। ज़बूर 22:14 ता 17, ज़करीयाह 12:10, यसअयाह 53:4, 5, 6

तक्मील यूहन्ना 19:1-3, मत्ती 27:30, 31

5. उस के कपड़ों की तक़्सीम की बाबत। ज़बूर 22:18

तक्मील मत्ती 27:35

6. उस की मौत की जांकनी की बाबत। ज़बूर 22:1, यसअयाह 53:4, 5

तक्मील मत्ती 27:46, लूक़ा 22:44

7. उस की क़ब्र या दफ़न होने की बाबत। यसअयाह 53:9

8. उस के तीन दिन क़ब्र में रहने की बाबत। (कौल-ए-मसीह)

मत्ती 12:40, तक्मील मत्ती 28:1, 6, 1 कुरिन्थियों 15:4

पस अब मुक़ाम-ए-ग़ौर है, कि नबियों की इस क़द्र शहादतें उस के दुख तक्लीफ़ उठाने और मारे जाने पर कलाम-ए-रब्बानी में मौजूद और जिनकी पूरी तक्मील चश्मदीद गवाहों से इन्जील में साबित। यहूदी अपने जुर्म के ख़ुद इक़रारी। नीज़ रूमी हाकिम और उस वक़्त के बुत-परस्त मुअर्रिख़ इस वाक़िये के गवाह। मगर निहायत ताज्जुब है कि मुहम्मद साहब जो इस वाक़िये के छः सौ बरस बाद पैदा हुए। इन सब शहादतों और सदाक़तों को रद्द करने पर मुस्तइद (आमादा) भला इस अनोखे ख़याल का भी कोई ठिकाना है। जो सिर्फ इस तरह का ख़याल है, कि अगर कोई इस वक़्त अपनी तस्नीफ़ में सिकंदर-ए-आज़म मक़िदूनिया के बादशाह को हिन्दुस्तान में आने का इन्कार कर के ये कहे, कि वो सब झूठे हैं। जो उस का पंजाब तक आना तस्लीम करते हैं। वग़ैरह,वग़ैरह। तो भला ऐसे शख़्स को तवारीख़ दान क्या कहेंगे।

बाअज़ आयात क़ुरआन पर सरसरी रिमार्क्स

सोम : बाअज़ आयात क़ुरआन गौरतलब

सूरह अल-मायदा आयत 50, 51 यानी और पीछे हमने इन रसूलों के क़दमों पर मर्यम के बेटे ईसा को भेजा जो अगली (किताब) तौरात की तस्दीक़ करता। और उस को हमने इन्जील दी जिसमें नूर और हिदायत है और अगली (किताब) तौरात की तस्दीक़ करती है और जो हिदायत और नसीहत है परहेज़गारों के लिए। और चाहिए कि जिन्हों ने इन्जील पाई है, हुक्म करें और उस का जो अल्लाह ने इस में नाज़िल किया है और जो कोई हुक्म ना करे उस का जो ख़ुदा ने नाज़िल किया है तो वही लोग बदकार हैं।

आयात मज़्कूर बाला से चार आयतें साबित हैं जिनका क़ुरआन इक़रारी है।

अव़्वल, ये कि इन्जील तौरात की तस्दीक़ के वास्ते नाज़िल हुई जो मूसा पर उतरी थी।

दुवम, ये कि इन्जील ख़ुदा की तरफ़ से हिदायत नूर और नसीहत है।

सोइम, ये कि ख़ुदा ने इस में जो कुछ इर्शाद किया है चाहिए कि लोग इस पर अमल करें।

चहारुम, ये कि जो लोग अमल ना करेंगे इस पर जो कुछ ख़ुदा ने इस में इर्शाद किया है तो वो लोग गुनेहगार हैं।

मगर अब निहायत ताज्जुब का मुक़ाम है कि वही क़ुरआन अपने इन इक़रारों के ख़िलाफ़ इन्जील की ख़ास ताअलीम लेने उलूहियत ख़ुदावन्द येसू मसीह और उस की मौत के ज़रीये कफ़्फ़ारा आमेज़ काम से जिसकी शहादत व सदाक़त नबियों के कलाम के मुवाफ़िक़ इन्जील-ए-मुक़द्दस से बख़ूबी साबित व ज़ाहिर हुई। और जो इन्सान की हुसूल-ए-नजात के लिए अज़ल से ठहराया गया था। इफ़िसियों 3:11 जिसका ज़िक्र पीछे मज़्कूर हो चुका। बिल्कुल इंकारी, बल्कि और भी चंद बातें निहायत ग़ौर तलब हैं, कि जिनका मतलब व मंशा (मर्ज़ी) ताअलीम इन्जील के मह्ज़ ख़िलाफ़ ज़ाहिर है। जो ज़ेल में दर्ज की जाती हैं। तो अब अम्र मज्बूरी है कि क़ुरआन के कलाम को कुतब-ए-साबक़ा यानी तौरेत व इन्जील का मुसद्दिक़ (तस्दीक़ किया गया) क्योंकर समझा जाये। चुनान्चे

(5) ये क़ुरआन जहान के परवरदिगार का कलाम और उस का नाज़िल किया हुआ है। सूरह अल-हाक्क़ा की आयत 30 से 42 तक, मैं क़सम खाता हूँ। उन चीज़ों की जो देखते हो और उनकी जो नहीं देखते कि तहक़ीक़ ये (क़ुरआन) इज़्ज़त वाले रसूल का क़ौल है। वो किसी शायर का कहा हुआ नहीं तुम थोड़ा यक़ीन करते हो। और ना किसी काहिन का क़ौल है तुम थोड़ा ध्यान करते। ये जहान के परवरदिगार का नाज़िल किया हुआ है।

पीछे मज़्कूर हो चुका है कि नबी और नबुव्वत की ज़रूरत। ज़रूरत पर मौक़ूफ़ (ठहराया) गया है। जिसका ख़ातिमा किताब मुकाशफ़ा पर हो चुका। और जिसके आख़िर उस शख़्स पर जो कलाम रब्बानी में कुछ ज़्यादा करे। या इस में से कुछ कम करे ख़ुदा तआला की तरफ़ से निहायत ख़ौफ़नाक फ़तवे दर्ज हुए। यानी मैं हर एक शख़्स के लिए जो इस किताब की नबुव्वत की बातें सुनता है ये गवाही देता हूँ, कि अगर कोई इन बातों में कुछ बढ़ाए तो ख़ुदा उन आफ़तों का जो इस किताब में लिखी हैं इस पर बढ़हाएगा। और अगर कोई इस नबुव्वत की किताब की बातों में से कुछ निकाल डाले तो ख़ुदा उस का हिस्सा किताबे हयात से और शहर-ए-मुक़द्दस से और उन बातों से जो इस किताब में लिखी हैं निकाल डालेगा। मुकाशिफ़ा 22:18, 19 पस इस इलाही मुहर के सामने किसी दूसरी किताब को किताब-ए-इलाही ख़याल करना किस तरह मुम्किन हो। इलावा बरीं क़ुरआन की अदम ज़रूरत मालूम करने के लिए किताब अदमे ज़रूरते क़ुरआन मुसन्निफ़ पादरी ठाकुरदास साहब बग़ौर मुतालआ करना चाहिए तसल्ली हो जाएगी।

(6) क़ुरआन के मुवाफ़िक़ राहए-नजात सूरह अल-इमरान आयत 29, ऐ मुहम्मद तू कह दे कि अगर तुम ख़ुदा की मुहब्बत रखते हो तो मेरी पैरवी (पीछे चलना) करो कि ख़ुदा तुमसे मुहब्बत करे और तुम्हारे गुनाह बख़्श दे और ख़ुदा बख़्शने वाला और मेहरबान है। तू कह दे कि तुम अल्लाह और उस के रसूल की ताबेदारी करो फिर अगर वो बर्गश्ता हों तो बेशक ख़ुदा काफ़िरों को दोस्त नहीं रखेगा।

इन्जील-ए-मुक़द्दस में लिखा है कि गुनेहगारों के रास्त बाज़ ठहराए जाने और पाक किए जाने के लिए सिर्फ एक ही वसीला है। यानी ख़ुदावन्द येसू मसीह का कामिल कफ़्फ़ारा ठहराया गया है। जो सिदक़ दिल (सच्चे दिल) से उस पर ईमान लाते हैं वही अपने गुनाहों की माफ़ी हासिल करेंगे। चुनान्चे यूहन्ना 3:36 में लिखा है, कि वो जो बेटे पर ईमान लाता है सो हमेशा की ज़िंदगी उस की है और वो जो बेटे पर ईमान नहीं लाता सो ज़िंदगी को ना देखेगा। बल्कि ख़ुदा का ग़ज़ब उस पर रहता है। और मर्क़ुस 16:15 में लिखा है कि उसने (मसीह ने) उन्हें (हवारियों को) कहा तुम तमाम दुनिया में जा के हर मख़्लूक़ को इन्जील की मुनादी करो। जो कोई ईमान लाता और बपतिस्मा पाता है नजात पाए पर जो ईमान नहीं लाता उस पर सज़ा का फ़त्वा होगा। और किताब आमाल 4:12 में लिखा है कि किसी दूसरे से नजात नहीं क्योंकि आस्मान के तले आदमीयों को कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया जिससे हम नजात पाए।

(7) क़ुरआन में पैरवान-ए-मसीह पर कुफ़्र का फ़त्वा सूरह अल-मायदा आयत 19, यानी वो लोग बेशक काफ़िर हैं। जो कहते हैं कि ख़ुदा वही मर्यम का बेटा मसीह है। तू कह दे कि फिर किसी का कुछ चलता है अल्लाह से अगर वो चाहे कि मसीह मर्यम के बेटे को और उस की माँ (मर्यम) को और जितने लोग ज़मीन पर हैं हलाक करे।

मगर इन्जील-ए-मुक़द्दस उन लोगों को जो मसीह की उलूहियत (ख़ुदाई) को क़ुबूल करके उस के कफ़्फ़ारे के ज़रीये रास्तबाज़ ठहरते ख़ुदा के ले-पालक (लेकर पाले हुए) फ़रज़न्दों का ख़िताब देती है। और कि वही जहां जा दवां में उस के हुज़ूर बादशाहों और इमामों के रुतबे से अबद-उल-आबाद सरदार होते हैं। चुनान्चे यूहन्ना 16:27 में लिखा है, क्योंकि बाप तो आप ही तुम्हें प्यार करता है इसलिए कि तुम ने मुझे प्यार किया और यक़ीन लाए हो कि मैं ख़ुदा से निकला हूँ मैं बाप से निकला और दुनिया में आया हूँ। पर दुनिया से रुख़्सत होता और बाप के पास जाता हूँ। और ग़लतीयों 3:26 में लिखा है। तुम सब मसीह येसू पर ईमान लाने से ख़ुदा के फ़र्ज़न्द हो। फिर किताब मुकाशफ़ा 1:4 में लिखा है, कि यूहन्ना उन सात कलसियाओं को जो एशिया में हैं। फ़ज़्ल और सलामती तुम पर हो उस की तरफ़ से जो है और जो था और जो आने वाला है। और उन सात रूहों से जो उस के तख़्त के हुज़ूर में। और येसू मसीह से जो सच्चा गवाह और मुर्दों में से पहलौठा और दुनिया के बादशाहों का सुल्तान है। उसी को जिस ने हम को प्यार किया और अपने लहू से हमें हमारे गुनाहों से धोया और हमको बादशाह और काहिन (इमाम) अपने बाप ख़ुदा के लिए बनाया उसी का जलाल और क़ुद्रत अबद-उल-आबाद है। आमीन

(8) क़ुरआन में इंतिक़ाम लेना जायज़ है सूरह हज आयत 40, 59, उन लोगों को जो मुक़ाबला करते हैं। हुक्म दिया गया है इस वास्ते कि उन पर ज़ुल्म हुआ है। और ख़ुदा उनकी मदद करने पर क़ादिर (क़ुदरत वाला) है। वो जिनको निकाला उनके घरों से नाहक़। हो उस के कि वो कहते हैं कि हमारा रब अल्लाह है फिर जो कोई तक्लीफ़ पहुंचाए जैसे उस को तक्लीफ़ पहुंचाई गई थी फिर दुश्मन ज़्यादती करे उस पर तो ज़रूर ख़ुदा उस की मदद करेगा। क्योंकि ख़ुदा गुज़र करने वाला और बख़्शने वाला है।

मगर इन्जील-ए-मुक़द्दस इंतिक़ाम लेने की बाबत क़तई मना कर के मसीही ईमानदारों को हुक्म देती है, कि वो नुक़्सान और तक्लीफ़ उठा कर सिर्फ सब्र ही ना करें, बल्कि सताने वालों के लिए नेक दुआ करें। चुनान्चे मत्ती 5:42, 45 में यूं लिखा है कि तुम सुन चुके हो कि कहा गया अपने पड़ोसी से दोस्ती रख और अपने दुश्मन से अदावत। पर मैं तुम्हें कहता हूँ, कि अपने दुश्मनों को प्यार करो जो तुम पर लानत करें उनके लिए बरकत चाहो। जो तुमसे कीना (दुश्मनी) रखें उनका भला करो और जो तुम्हें दुख दें और सताएं उनके लिए दुआ माँगो, ताकि अपने बाप के जो आस्मान पर है फ़र्ज़न्द हो।

क्योंकि वो अपने सूरज को बदों और नेकों पर तुलूअ करता और रास्तों व नारास्तों पर मेह बरसाता है। फिर रोमीयों 12:19, 21 में लिखा है, ऐ अज़ीज़ो अपना इंतिक़ाम मत लो बल्कि ग़ुस्से की राह छोड़ो क्योंकि लिखा है कि इंतिक़ाम लेना मेरा काम है। मैं ही बदला लूँगा। ख़ुदावन्द फ़रमाता है, पस अगर तेरा दुश्मन भूका हो उस को खिला अगर पियासा हो उसे पानी पिला क्योंकि ये कर के उस के सर पर आग के अंगारों का ढेर लगाएगा। बदी का मग़्लूब (हारा हुआ) ना हो बल्कि बदी पर नेकी से ग़ालिब (जीतने वाला) हो।

(9) क़ुरआन में लौंडियां हलाल हैं सूरह मोमिन आयत 1 ता 6, ईमानदार कामयाब हुए जो अपनी नमाज़ में आजिज़ी करते। और बेहूदा बात से मुँह मोड़ते और ज़कात अदा किया करते। और अपनी शर्म गाहों की हिफ़ाज़त करते हैं। मगर अपनी औरतों और बांदियों पर नहीं वो बे मलामत हैं।

मगर इन्जील मुक़द्दस एक निकाही बीवी के सिवा किसी हालत में किसी दूसरी औरत से ताल्लुक़ रखना हरामकारी ठहराती है। चुनान्चे ख़ुदावन्द येसू मसीह ने फ़रमाया क्या तुमने नहीं पढ़ा कि ख़ालिक़ ने शुरू में उन्हें एक ही मर्द और एक ही औरत बनाया और फ़रमाया कि इसलिए मर्द अपने माँ बाप को छोड़ेगा। और अपनी जोरू से मिला रहेगा और वो दोनों एक तन होंगे। इसलिए अब वो दो नहीं बल्कि एक तन हैं। (मत्ती 19:4, 9) और फिर फ़रमाया, कि मैं तुम्हें कहता हूँ कि जो कोई शहवत से किसी दूसरी औरत पर निगाह करे वो अपने दिल में उस के साथ ज़िना कर चुका। 5:2-3 पस ऐसे कामों से जो इन्जील के मुवाफ़िक़ हरामकारी व ज़िनाकारी में दाख़िल हैं बचने और एहतियात रखने के लिए यूं मज़्कूर है कि हरामकारी और हर तरह की नापाकी और लालच का तुम में ज़िक्र तक ना हो जैसा मुक़द्दसों को मुनासिब है। (इफ़िसियों 5:3) फिर हरामकारी से भागो। जो जो गुनाह आदमी करता है सो बदन के बाहर है जो हरामकारी करता है अपने बदन का गुनेहगार है। (1 कुरिन्थियों 6:18)

(10) क़ुरआन में तलाक़ दी हुई औरत भी हलाल है सूरह अह्ज़ाब आयत 37, 38, और जब तू ऐ मुहम्मद (ज़ैद) से जिस पर तू ने और ख़ुदा ने फ़ज़्ल किया कहता था कि तू अपनी औरत को थाम रख और ख़ुदा से डर और तू अपने दिल में इस बात को छुपाता था (यानी ज़ैनब के इश्क़ को) और अल्लाह उसे ज़ाहिर किया चाहता था और तू आदमीयों से डरता था। हालाँकि तुझे अल्लाह से ज़्यादा डरना चाहिए था। पस जब ज़ैद ने अपना मतलब उस (जैनब) से पूरा कर लिया। हमने ऐ मुहम्मद तेरा निकाह उस औरत से कर दिया। ताकि ईमानदारों पर अपने मुँह बोले बेटों की औरतों में तंगी न रहे और अल्लाह का काम पहले से किया हुआ था जो अल्लाह ने नबी के लिए हलाल कर दिया इस में नबी पर कुछ तंगी नहीं। अलीख।

मगर इन्जील-ए-मुक़द्दस अव़्वल, तो औरतों को तलाक़ देने की बाबत सिवाए हरामकारी की हालत के और किसी हालत में रवा नहीं रखती।

दोम, तलाक़ दी हुई औरत से निकाह करना मुतलक़ (बिल्कुल) नाजायज़ ठहराती है

चुनान्चे मत्ती 5:31, 32 में लिखा है ये भी कहा गया कि जो कोई अपनी जोरु को छोड़े वह उसे तलाक़ नामा लिख दे पर मैं (मसीह) तुम्हें कहता हूँ, कि जो कोई अपनी जोरू को हरामकारी के सिवा किसी और सबब से छोड़ दे। उस से ज़िना करवाता है। और जो कोई इस छोड़ी हुई से ब्याह करे ज़िना करता है। फिर 19:7-9 में लिखा है, उन्होंने (फ़रीसियों ने) उस से कहा फिर मूसा ने क्यों तलाक़ नामा देने और उसे छोड़ने का हुक्म दिया। उसने (मसीह ने) उन्हें कहा मूसा ने तुम्हारी सख़्त दिली के सबब तुम्हें अपनी जौरओं को छोड़ देने की इजाज़त दी है। पर शुरू से ऐसा ना था और मैं तुम्हें कहता हूँ, कि जो कोई अपनी जोरू को सिवा हरामकारी के सबब के छोड़ दे। और दूसरी से ब्याह करे ज़िना करता है। और जो कोई छोड़ी हुई औरत को ब्याहे ज़िना करता है।

बाअज़ आयात क़ुरआन पर सरसरी रिमार्क्स

(3) मसीह का जी उठना सूरह मर्यम आयत 15, और सलाम है उस पर जिस दिन वो पैदा हुआ। और जिस दिन वो मरेगा और जिस दिन जी के उठ खड़ा होगा। अगर आयत मज़्कूर अल-सदर के साथ सूरह अल-मायदा की आयत 117 के अल्फ़ाज़ पर भी ग़ौर यानी करें (क़ौल मसीह बमूजब क़ुरआन) मैंने उन्हें वही बात कही है जिसका तू ने मुझे हुक्म दिया था कि तुम अल्लाह की इबादत करो जो मेरा और तुम्हारा रब है और जब तक मैं इन में रहा। उनका निगहबान रहा और जब तू ने मुझे वफ़ात दी (या जब क़ब्ज़ किया) तू ने मुझको अलीख।

तो उस के मरने और जी उठने का किसी क़द्र सबूत ज़ाहिर होता है। अगर मुफ़स्सिर क़ुरआन ने इन की और ही तरह तावील (बयान, तश्रीह) की है। जो कलाम-ए-रब्बानी के बिल्कुल ख़िलाफ़ है। क्योंकि जब वो उस की कफ़्फ़ारा आमेज़ मौत के ही क़ाइल नहीं। तो उस के जी उठने की जलील सदाक़त (सच्चाई) के क्योंकर क़ाइल (तस्लीम करने वाले) हो सकते हैं। जिसकी शहादत (गवाही) और सदाक़त (सच्चाई) इन्जील से बरमला ज़ाहिर है। चुनान्चे इस के वक़ूअ से कई सौ बरस पहले ख़ुदा तआला के नबी ने यूं फ़रमाया था, कि तू अपने क़ुद्दूस को क़ब्र में सड़ने ना देगा। (ज़बूर 16:10) और जिसकी तक्मील की पूरी शहादत ख़ुद ख़ुदावन्द ने बारहा अपने शागिर्दों पर साफ़-साफ़ ज़ाहिर कर दी थी। कि मैं फिर जी उठूँगा कि जैसा यूनाह तीन रात-दिन मछली के पेट में रहा। वैसा ही इब्ने-आदम तीन रात-दिन ज़मीन के अंदर रहेगा। (मत्ती 12:40) जो नबुव्वत के ख़ास और लायक़ तरीक़े पर ज़्यादा क़ाबिल-ए-ग़ौर है। फिर पतरस को सख़्त मलामत (लान तान) करने से बख़ूबी अपनी मौत और जी उठने का इज़्हार किया। (मत्ती 16:21) फिर अपनी तब्दील सूरत के बाद उसने अपने शागिर्दों को ये हुक्म दिया कि इस रोया का किसी से ज़िक्र ना करो जब तक इब्ने आदम मुर्दों में से जी ना उठे। मत्ती 17:9 वग़ैरह-वग़ैरह।

पस ख़ुद ख़ुदावन्द की इन पैशन गोइयों और हिदायतों के मुवाफ़िक़ इन्जील-ए-मुक़द्दस से बख़ूबी ज़ाहिर है, कि वो सच-मुच जी उठा जिसकी सदाक़तों और शहादतों का मुख़्तसरन ज़िक्र आगे किया जाएगा। और ख़ुदावन्द के हवारियों (शागिर्दों) ने उस के जी उठने को एक निहायत क़ाबिल-ए-क़द्र और बड़ी ज़रूरत की बात ठहराया। जिनकी राय में उस की इलाही रिसालत और कफ़्फ़ारा आमेज़ काम की निस्बत ये एक सबसे बढ़कर दलील (सबूत) थी। अगर वो जी ना उठता तो उस की रिसालत एक धोका और उस की ताअलीम भी कुछ मुग़ालते (फ़रेब) से कम ना होती। उस की मौत अगर एक फ़रेबी की मौत ना होती। ताहम एक सादा-लौह फ़रेब ख़ूर्दा शख़्स की मौत ज़रूर समझी जाती। लेकिन क्या मुम्किन था कि वो ज़िंदगी का मालिक (मुकाशफ़ा 1:18) जिसने अपने हुक्म के मुवाफ़िक़ चार रोज़ के मुर्दे को क़ब्र से ज़िंदा कर उठाया (यूहन्ना 11:43, 44) ख़ुद क़ब्र का शिकार हो सकता? हरगिज़ नहीं। पस जब वो जी उठा तो वो ख़ुदा से ठहरा हुआ मसीहा और उस की ताअलीम ख़ुदा की अबदी सदाक़त और उस की मौत जहां के गुनाहों के लिए एक कामिल कफ़्फ़ारा थी।

पस इसलिए रसूलों को वाजिब हो कि क़ियामत मसीह को अपनी ख़िदमत का एक ज़रूरी हिस्सा जान कर उस के लिए ज़ाती शहादत दें। और इसलिए उन्होंने अपनी इब्तिदाई वाज़ में इसी आला मर्तबा सदाक़त को उसी जगह, उसी सदर-ए-मज्लिस के सामने जिसने चंद हफ़्ते पेश्तर उस पर क़त्ल का फ़त्वा दिया था। पेश करना ज़रूरी समझा। (आमाल[4] 2:23,27) और ना सिर्फ जी उठने की मुनादी का इज़्हार ही किया, बल्कि ये भी इक़रार किया कि हम सब उस के गवाह हैं। (3:15)

 


[1] लेकिन अगर किसी दूसरे अख़्बार में किसी साहब ने कुछ तहरीर किया हो तो वो राक़िम तक पहुंचा नहीं।

 

[2] जिनका जवाब मुहम्मदी साहिबान के पास सिवा इस के और कुछ नहीं कि “क़ुरआन में ऐसा ही लिखा है” सच्च है। मगर इन्जील के सामने इस का मिंजानिब अल्लाह होना ना आज तक साबित हुआ और ना आइन्दा हो सकता है। अलबत्ता क़ुरआन के ऐसे दावे साबित करने के लिए वो ये ज़रूर कहा करते हैं, कि “ये इन्जील तहरीफ़ व तब्दील हो गई। और वो असली इन्जील है ही नहीं।” वग़ैरह वग़ैरह। मगर इनके ऐसे बे-बुनियाद व बे-दलील ख़याल की क़ातेअ तर्दीद कामिल सबूतों के अक्सर मसीही उलमा की तसानीफ़ में भरी पड़ी है। जिसको कमाल ग़ौर व फ़िक्र से मुतालआ करना निहायत ज़रूरी है। और जिसका ख़ुलासा ये है कि बिलाशक व शुब्हा ये वही अस्ल कलाम-उल्लाह इन्जील मुक़द्दस है, जो ब-ज़माना हवारियान से आज तक ब-हिफ़ाज़त तमाम मसीहियों के हाथ में सही सलामत मौजूद है। कि जिसमें कुछ बदल कर बढ़ाना या घटाना किसी इन्सान का मक़्दूर (ताक़त) नहीं है। चुनान्चे क़ुरआन भी इस अम्र की पूरी, पूरी ताईद करता है, कि “अल्लाह की बातों (कलाम) को कोई बदलने वाला नहीं है।” देखो सूरह अनआम आयत 34, 115, सूरह यूनुस आयत 65 को। कि जिस निहायत ख़तरनाक मकरूह फ़ेअल से बचने के लिए ख़ुदा-ए-तआला की तरफ़ से निहायत ख़ौफ़नाक फ़तवा उस के पाक कलाम में भी दर्ज हुए। देखो।

बक़ीया, फुट नोट किताब मुकाशफ़ात 22:10, 19 को कि जिस कामिलियत का कामिल सबूत सिर्फ यही काफ़ी हो सकता है, कि इस की ताअलीम दीगर कुल मज़ाहिब की तालीमों पर ग़ालिब है। जिसकी बहुत कुछ हक़ीक़त मज़्मून बाअज़ ख़यालात।

बक़ीया फ़ुट नोट, “मुहम्मदी पर सरसरी रिमार्क्स” मैं ज़ाहिर हो चुकी या आइन्दा ज़ाहिर हो जाएगी। जो अम्र निहायत क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि बेतास्सुब आज़माया जाये।

मौलवी रहमत अल्लाह के तर्जुमा में लिखा है। पस जब क़ब्ज़ किया तू ने। ” माने दोनों के एक ही हैं। मगर यही क़ुरआन दूसरे मुक़ाम मैं ख़ुदावन्द येसू मसीह की वफ़ात का इन्कार य है। देखो सूरह अल-निसा आयत 156, 157। जिसका ज़िक्र आइन्दा किया जाएगा।

 

[3] नोट, बैज़ावी में भी लिखा कि روح منہ ذوروح صدر منہ यानी साहब रूह है निकली है अल्लाह से।

 

[4] नोट, ये शहादत उन्ही हवारियों की है, जिनका ज़िक्र क़ुरआन की सूरह यसीन आयत 12 और सूरह ** आयत में बलक़ब रसूल और मोमिनों (ईमानदारों) के मज़्कूर है। क़ुरआन उनका मद्दाह है। और मुहम्मदी साहिबान ताज़माना हाल इन्हीं हवारियों की मदह व सना अपनी बाअज़ नमाज़ में पढ़ रहे हैं।

ईसा मिला मसीह नासरी मिला मूसा ने जिसकी दी थी ख़बर वो नबी मिला

कलाम-उल्लाह के मुख़्तलिफ़ 66 किताबों का मुतफ़र्रिक़ मुसन्निफ़ों की मार्फ़त तस्नीफ़ होने और उन में क़िस्म क़िस्म के मज़ामीन मुन्दरज होने से हम दर्याफ़्त कर सकते हैं कि बाअज़ नादान कोताह अंदेशों (कम-इल्म, कम-फ़ह्म) का मह्ज़ किसी एक ही किताब या उस के किसी एक ही मज़्मून से कोई बड़ी और अहम ताअलीम पैदा कर लेना ऐसा है,

Essa found Masih Nazareth found Moses informed us about whichProphet we found

ईसा मिला मसीह नासरी मिला मूसा ने जिसकी दी थी ख़बर वो नबी मिला

By

Kadarnath Manat
क़ेदारनाथ मिन्नत

Published in Nur-i-Afshan Sep 20, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 20 सितम्बर 1895 ई॰

कलाम-उल्लाह के मुख़्तलिफ़ 66 किताबों का मुतफ़र्रिक़ मुसन्निफ़ों की मार्फ़त तस्नीफ़ होने और उन में क़िस्म क़िस्म के मज़ामीन मुन्दरज होने से हम दर्याफ़्त कर सकते हैं कि बाअज़ नादान कोताह अंदेशों (कम-इल्म, कम-फ़ह्म) का मह्ज़ किसी एक ही किताब या उस के किसी एक ही मज़्मून से कोई बड़ी और अहम ताअलीम पैदा कर लेना ऐसा है, जैसे कोई बेवक़ूफ़ अक़्ल का अंधा अल्लाह के मुख़्तलिफ़ कामों में से सिर्फ एक ही को अपने तजुर्बे की बुनियाद समझे नज़र बरां हमारे मुहम्मदी भाई भी इस पहलू पर गए कि अल्लाह जल्ले शाना (जल्लाजलालुहू) की कुतबे मुख्तलिफा तौरेत व ज़बूर व सहाइफ़ अम्बिया व अनाजील को छोड़कर मह्ज़ एक ऐसी किताब को जिसका इल्हामी होना किसी ज़माने भी ख़ुदा के लोगों से तस्लीम नहीं हुआ अपने ईमान की ब्याज़ समझ लिया और ख़ुदा के कल सच्चे पैग़म्बरों से रू गर्दां हो कर सिर्फ एक ऐसे शख़्स पर फ़रेफ़्ता (आशिक़, फ़िदा) हो गए जिसका नबी होना आज तक पाया सबूत से ख़ारिज है। इस सब के इलावा नजातदिहंदा की तलाश में ख़ुदा के कलाम से सिर्फ एक ही आयत को सनद मान कर अकेले मर्द-ए-ख़ुदा मूसा से चंद ख़्याली बातों में जिनको वो आप ही ताक़तवर जानते हक़ीक़ी नजातदिहंदा को मशाबहा गरदान्ते हैं हालाँकि इस मुआमले में ख़ुदा का कलाम अपने उस काम से जो उसने हमारी नज़रों के सामने फैला रखा है यानी ख़ल्क़त के काम से मुबानियत और मुग़ाइरत (अजनबीयत, ना मुवाफ़िक़त) नहीं रखता देखो मलाकी नबी की किताब जो पुराने अहदनामे को ख़त्म करती उस के चौथे बाब की दूसरी आयत में अल्लाह जल्ले शाना (जल्लाजलालुहू) यूं फ़रमाता है, लेकिन तुम पर जो मेरे नाम से डरते हो आफ़्ताब सदाक़त तुलु होगा और उस के पंखों में शिफ़ा होगी। 4:2

ऐ नाज़रीन अपनी आँखों को ज़रा ऊपर उठाईये और फ़िज़ा में नय्यर आज़म (सूरज) को मुलाहिज़ा फ़रमाईए कि किसी तरह से ख़ुदा ने इन हज़ारहा हज़ार बल्कि बेशुमार सय्यारों के वास्ते उसे मर्कज़ क़रार दिया है कि सब के सब जिनमें ये हमारी ज़मीन भी शामिल है शब व रोज़ आफ़्ताब के गिर्द घूमते और रात व दिन महीना साल तब्दीली-ए-मौसम रात-दिन का घटाओ बढ़ाओ और फिर क़ुव्वत-ए-कशिश और सारे चांद सितारों का सूरज से रोशनी पाना ये सब कुछ ख़ुदा ने आप ही ठहरा दिया इसी तरह ये आफ़्ताबे सदाक़त भी जिसकी तलाश में हम तुम सब सरगर्दां हैं कलाम-ए-इलाही के कुल वाक़ियात और हालात और मोअजज़ात और अलामात और अम्बिया वग़ैरह कुल का मर्कज़ सब पैग़म्बर और बुज़ुर्ग और आबा और सारे दीनदार इस से नूर पा कर मुनव्वर हैं।

जब ये हाल है तो याद रखना चाहिए कि ख़ल्क़त में कोई चीज़ या कोई शख़्स ऐसा नहीं जो इस कामिल नूर की कामिल अलामत या मुशाबहत हो। हाँ ज़र्रे की मानिंद आफ़्ताब चमकता है लेकिन ज़र्रे की रोशनी जो ज़र्रा भर है सूरज की रोशनी से जो रोशनी का मादिन (निकलने की जगह, मंबा) है मुक़ाबिल नहीं हो सकती अला-हज़ा-उल-क़यास (इसी तरह) अगरचे मर्द-ए-ख़ुदा मूसा की नबुव्वत में मेरी मानिंद वारिद (नाज़िल होना) है इस से ये ना समझ बैठो कि उस में जो मूसा की नबुव्वत में मेरी मानिंद है यही है जो मूसा में है बल्कि उस में बहुत कुछ है जो मूसा में नहीं है इस वास्ते वाअदे से बढ़कर जो उन्वान में किया गया हम ये दिखा देंगे कि बाइबल के मुख़्तलिफ़ पैग़म्बर और बुज़ुर्ग कहीं बज़ाता (ज़ात के लिहाज़ से) और कहीं बअक़वाला (क़ौल के लिहाज़) से और कहीं बअफ़आला (अमल के लिहाज़) साफ़ साफ़ कह रहे हैं कि वो नबी या बादशाह या काहिन हमारी मानिंद है और ये अम्र अगरचे लोगों की नज़रों में अजीब हो पर ख़ुदा तो सब कुछ कर सकता है ख़ुदा के बेटे में ये ताक़त है कि वो अपने में से बहुतेरों को दे और जो कुछ कि औरों को दे अपने में कामिल तौर से रखे।

जब ये सब कुछ हम बयान कर चुके तो अब हमारा हक़ है कि बयान करें कि किस तरह से हमारा नजातदिहंदा ख़ुदावंद ईसा वही नबी है जिसकी बाबत मूसा ने कहा कि वो मेरी मानिंद नबी होगा।

अव़्वल : इस सबब से कि बहुतेरे से दुख उठा कर और हलाकत के ख़तरों में पड़ कर मूसा ने मर्द-ए-ख़ुदा बइज़ाफ़त हर्फ़ वाल ख़िताब पाया लेकिन ख़ुदावंद ईसा सलीब पर जान देकर मर्द-ए-ख़ुदा बग़ैर इज़ाफ़त हर्फ़ वाल साबित हुआ ज़्यादा आसानी से समझने के वास्ते हम इन हर दो अल्फ़ाज़ को मक़लूब (उल्टा करना, पलटना) कर के देखें यानी ख़ुदा, मर्द इस में मूसा अपने लक़ब से ख़ुदावंद ईसा में दो ज़ातों उलूहियत (ख़ुदा) और इन्सानियत का (मर्द) ब-लिहाज़ तज़कीर बरफा तानीस इशारा देता है। और ऐसा अजीब शख़्स चूँकि दुनिया में और कोई नहीं हुआ पस साबित हुआ कि ईसा मूसा की मानिंद है।

दुवम : इस सबब से कि मूसा ने जिस वक़्त चट्टान को दो बार लाठी से मारा तो यूं कहा कि सुनो ऐ बाग़ीयो क्या हम तुम्हारे लिए चट्टान ही से पानी निकाल लाएं। गिनती 10:20 और इसलिए ख़ुदावंद तआला ने जो अपनी इज़्ज़त किसी दूसरे को नहीं देता फ़रमाया कि तुम मुझ पर एतिक़ाद ना लाए ताकि बनी-इस्राईल के हुज़ूर मेरी तक़्दीस करते सो तुम इस जमाअत को उस ज़मीन में जो मैंने उन्हें दी है ना लाओगे। गिनती 20:12 और फ़रमाया कि अबारीम के कोहिस्तान बनू के पहाड़ जो मूआब की सर-ज़मीन में यरीहू के मुक़ाबिल है। चढ़ जा और कनआन की सर-ज़मीन को कि जिसे मैं इस्राईल का मुल्क कर दूंगा। देख और उस पहाड़ पर जिस पर तू जाता है मर जा। इस्तिस्ना 32:49, 50 इस माजरे से बज़बान हाल मूसा ने हमको ख़बर दी कि वो नबी जो मेरी मानिंद आएगा ये इज़्ज़त और जलाल और क़ुद्रत ख़ुद इख्तियारी उसी का हिस्सा है। चुनान्चे ईसा नासरी ने एक कोढ़ी से कहा कि मैं चाहता हूँ तू पाक हो। मर्क़ुस 1:41 और मफ़लूज को हुक्म दिया कि मैं तुझे कहता हूँ उठ। मर्क़ुस 2:11 फिर एक मुर्दा लड़की से फ़रमाया ऐ लड़की मैं तुझे कहता हूँ उठ। मर्क़ुस 5:41 वग़ैरह लेकिन अगर मर्द-ए-ख़ुदा मूसा अपनी तरफ़ से पानी चट्टान का निकालते हुए मुजरिम क़रार पाया तो और कौन शख़्स है जो ऐसा कलमा-ए-कुफ़्र ज़बान से निकाले और ख़ुदा उस से कुछ ना कहे। क्या ख़ुदा के यहां अंद मेर है। पस इस दलील से साबित हुआ कि वो जो अपने ही हुक्म से मुर्दा जिलाता कौड़ी पाक करता मफ़लूज को चंगा करता ज़रूर मूसा की मानिंद है। ना मूजिबन बल्कि साइबन पस ईसा मूसा की मानिंद है।

सोम : इस सबब से कि जिस वक़्त मूसा पहाड़ से उतर गया और शहादत के दोनों तख़्ते उस के हाथ में थे वो तख़्ते लिखे हुए थे दोनों तरफ़ इधर-उधर लिखे हुए थे। और वो तख़्ते ख़ुदा के काम से थे जो लिखा हुआ सो ख़ुदा का लिखा हुआ और उन पर कुंदा किया हुआ था। ख़ुरूज 32:10, 15 और यूं हुआ कि जब वो लश्कर गाह के पास आया और बछड़ा और नाच राग देखा तब मूसा का ग़ज़ब भड़का और उसने तख्ती अपने हाथ से फेंक दीं और पहाड़ के नीचे तोड़ डालीं। ख़ुरूज 32:19 फिर ख़ुदावंद ने मूसा से कहा कि अपने लिए पहले लोहों के मुताबिक़ दो लोहें पत्थर की तराश और इन लौहों पर वो बातें जो पहली लौहों पर थीं। जिन्हें तू ने तोड़ डाला लिखूँगा। ख़ुरूज 34:1 इस नारवा फ़ेअल (नामुनासिब काम) यानी लौहों के तोड़ डालने से मूसा ने साफ़ इशारा दिया कि अगरचे मैंने ख़ुदा की तराशी हुई और लिखी हुई लौहें तोड़ दीं और फिर हुक्म के मुताबिक़ दूसरी लौहें तैयार कीं लेकिन एक मेरी मानिंद आएगा। जो इस तोड़ी हुई शरीअत को फिर जोड़ देगा और शरीअते इलाही अज़ सर-ए-नौ (नए सिरे से) बग़ैर उस के कि टूटे क़ायम होगी। इसलिए वो दुनिया में आते हुए कहता है कि ज़बीहा और हद्या तू ने ना चाहा पर मेरे लिए एक बदन तैयार किया सोख़्तनी क़ुर्बानी और ख़ता की क़ुर्बानीयों से तू राज़ी ना हुआ तब मैंने कहा कि देख मैं आता हूँ मेरी बाबत किताब के दफ़्तर में लिखा है ताकि ऐ ख़ुदा तेरी मर्ज़ी बजा लाऊँ। इब्रानियों 10:5, 6, 7 और ये कोई और शख़्स नहीं मगर ख़ुदावंद ईसा पस ईसा मूसा की मानिंद है।

चहारुम : इस सबब से कि मूसा बज़ाता बयान में बनी-इस्राईल के साथ मौजूद था वो कोई वहमी या ख़्याली ना था बनी-इस्राईल अपनी आँखों से मूसा को देखते थे उनके हाथों ने उसे छोआ उन के कानों में उस की आवाज़ आती थी तो भी वो जिसकी बाबत मूसा ने अपनी नबुव्वत में अपनी मानिंद कहा कोई ऐसा शख़्स है जो हक़ीक़त में मौजूद हस्ती और क़ायम बज़ात हो और उस वक़्त उनके दर्मियान वही काम करता हो और ख़ुदा के कलाम से साबित होता है कि एक ऐसी हस्ती ब्याबान में बनी-इस्राईल के साथ बराबर थी और अगरचे मूसा मर गया तो भी वो ना मरी बल्कि जब यशूअ मूसा का जांनशीन यरीहू के मुक़ाबिल जाता था तब वही हस्ती ख़ुदावंद के लश्कर का सरदार बन कर उसे नज़र आई और उसे हुक्म दिया कि अपने पांव से अपनी जूती उतार क्योंकि ये मकान जहां तू खड़ा है मुक़द्दस है। यशूअ 5:15 और मुक़ाबले के लिए। ख़ुरूज 3:5 और ये शख़्स कोई इन्सान नहीं हो सकता क्योंकि हर ज़माने में मिस्ल मूसा के जो एक महदूद ज़माने में 40 बरस तक बनी-इस्राईल के साथ था उनके साथ रहा और अब भी है ये सिर्फ़ ख़ुदावंद मसीह पर सादिक़ आता है जिसने फ़रमाया कि पेश्तर इस से कि इब्राहिम हो मैं हूँ पस ईसा मूसा की मानिंद है।

पंजुम : इस सबब से कि जब मूसा ख़ुदावंद के आगे जाता था कि उस से कलाम करे तो जब तक बाहर ना आता निक़ाब को उतार देता था। ख़ुरूज 34:34 जैसा कि पौलुस रसूल फ़रमाता है कि आज तक पुराने अहदनामे के पढ़ने में वही पर्दा रहता है और उठ नहीं जाता कि वो परदा मसीह से जाता रहता है। 2 कुरिन्थियों 3:14 और हम मूसा की तरह अमल नहीं करते जिसने अपने चेहरे पर पर्दा डाला। 2 कुरिन्थियों 3:14 पर मूसा इस निक़ाब के डालने से ज़ाहिर करता था कि ख़ुदा को किसी ने कभी ना देखा इकलौता बेटा जो बाप की गोद में है उसने बतला दिया। यूहन्ना 1:18 पस अगर मूसा ने ऐसा किया ताकि बनी-इस्राईल इस उठ जाने वाले की ग़ायत (आख़िर, अंजाम) तक बख़ूबी देखें तो क्यों ना हम उस के वसीले जो ख़ुदा का चेहरा कहलाता है यानी ख़ुदा के जलाल की पहचान का नूर येसू मसीह के चेहरे से हम में जलवागर हो इस ग़ायत (अंजाम) तक बख़ूबी देखें। और चूँकि ऐसा और कोई शख़्स दुनिया में अब तक ज़ाहिर ना हुआ लिहाज़ा साबित हुआ कि ईसा मूसा की मानिंद है।

शश्म : इस सबब से कि जब मूसा बड़ा हुआ तो अपने भाईयों के पास बाहर गया और उनकी मशक़्क़तों को देखा और देखा कि एक मिस्री एक इब्रानी को जो उस के भाईयों में से एक था मार रहा है। (ख़ुरुज 2:11) फिर उस ने इधर-उधर नज़र की और देखा कि कोई नहीं तब इस मिस्री को मार डाला और रेत में छिपा दिया। 2:12 जब फ़िरऔन ने ये सुना तो चाहा कि मूसा को क़त्ल करे पर मूसा फ़िरऔन के हुज़ूर से भागा। ख़ुरूज 2:15 ईमान से मूसा ने सियाना हो के फ़िरऔन की बेटी का बेटा कहलाने से इन्कार किया कि उसने ख़ुदा के लोगों के साथ दुख उठा ना इस से ज़्यादा पसंद किया कि गुनाह के सुख को जो चंद रोज़ा है हासिल करे कि उसने मसीह की लान तान को मिस्र के ख़ज़ानों से बड़ी दौलत जाना क्योंकि उस की निगाह बदला पाने पर थी। इब्रानियों 11:24, 25, 26 पस तुम्हारा मिज़ाज वही हो जो मसीह येसू का भी था कि उसने ख़ुदा की सूरत में हो के ख़ुदा के बराबर होना ग़नीमत ना जाना लेकिन उसने अपने आपको नीच किया कि ख़ादिम की सूरत पकड़ी और इन्सान की शक्ल बना और आदमी की सूरत में ज़ाहिर हो के अपने आप को पस्त किया और मरने तक बल्कि सलीबी मौत तक फ़रमांबर्दार रहा। इफ़िसियों 2:5-8 येसू को जो ईमान का शुरू और कामिल करने वाला है तकते रहें जिसने उस ख़ुशी के लिए जो उस के सामने थी शर्मिंदगी को नाचीज़ जान के सलीब को सहा। इब्रानियों 12:2 यहां पर हमको मुहम्मदियों के एक सूफ़ी यानी सादी का शेअर याद आता है जो उसने भूल कर ख़ुदा की सिफ़त में यूं कहा :-

کرم میں و لطف خداوند گار ۔ گند بند ہ کرداست اوشرمسار

इस से साबित होता है कि ईसा मूसा की मानिंद है।

हफ़्तुम : इस सबब से कि पौलुस रसूल ने अपने रिसाले बनाम इब्रानियों में यूं फ़रमाया कि पस ऐ पाक भाइयो जो आस्मानी दावत में शरीक हुए इस रसूल और सरदार काहिन मसीह येसू पर जिसका हम इक़रार करते हैं ग़ौर करो कि वो उस के आगे जिसने उसे मुक़र्रर किया अमानतदार था जिस तरह मूसा भी अपने सारे घर में था बल्कि वो मूसा से इस क़द्र ज़्यादा इज़्ज़त के लायक़ समझा गया जिस क़द्र घर से घर का मालिक ज़्यादा इज़्ज़तदार होता है कि हर एक घर का कोई बनाने वाला है पर जिसने सब कुछ बनाया सो ख़ुदा है। और मूसा तो अपने सारे घर में ख़ादिम की तरह दयानतदार रहा कि उन बातों पर जो ज़ाहिर होने को थीं गवाही दे। पर मसीह बेटे की मानिंद अपने घर का मुख़्तार रहा। इब्रानियों 3:1-6 पस ईसा मूसा की मानिंद है।

अगरचे दलीलों और मुशाबहतों का शुमार बहुत बढ़ सकता है पर अभी सच्चाई का मुतलाशी जो ख़ुदा से डर कर नजात का उम्मीद वार है इन्हीं सात मुशाबहतों से यक़ीन कर सकता है कि आने वाला नजातदिहंदा येसू नासरी है जैसा कि फिलिप्पुस ने नतनीएल से कहा कि जिसका ज़िक्र मूसा ने तौरेत में और नबियों ने किया है हमने उसे पाया वो यूसुफ़ का बेटा येसू नासरी है। यूहन्ना 1:45 और वो 12 दलाईल जो पहले सिलसिले में दर्ज हैं मिला लो। अब हम हसबे वाअदा ज़ेल के दायरे में आप सब साहिबों को ये दिखलाना चाहते हैं कि जिस तरह ख़ल्क़त के काम में ख़ुदा ने सिर्फ सूरज को मर्कज़ क़रार दिया है। । इसी तरह उसने अपने कलाम में कुल उमूर का मर्कज़ ख़ुदावंद येसू मसीह को ठहराया है।

ये नक़्शा अगरचे कामिल और तमाम वाक़यात-ए-बाइबल को हावी नहीं तो भी मुश्ते नमूना अज़ ख़िरव एरिए व अंदक अज़ बसियारे उस के देखने से इतना तो ज़रूर मालूम होगा कि जब अहम मुआमलात में कुल का मुरज्जा ख़ुदावंद ईसा है ख़्वाह पैशन गोई हो ख़्वाह अलामती फ़ेअल हो तब छोटा वाक़ियात क्यों होगा अगर इतने पर भी कोई हुज्जती ना माने तो वो जाने मगर ख़ासकर हम मुहम्मदी मौलवियों को नसीहत के तौर पर दोस्ताना सलाह देते हैं, कि अगर हो सके तो अपने मुहम्मद साहब को इसी तरह बग़ैर मुग़ालते मन्तिक़ी तास्सुब को अलैहदा कर के और ख़ुदा से डर के एक साफ़ नक़्शे में तसव्वुर की मानिंद दिखाएं वर्ना उस कहानी के मिस्दाक़ (सबूत) ना हों जो हमने एक किताब में पढ़ी कि कोई बेल भूसे के ढेर की तरफ़ इस ग़र्ज़ से गया कि कुछ उस में से खाए मगर एक कुत्ता जो इस ढेर के ऊपर बैठा था ज़ोर से भोंका तब बेल ने कहा कि जिस हाल कि तुम भूसा नहीं खा सकते तो उनको जिनकी ये ख़ुराक है क्यों रोकते हो। भाई तुम्हारा तो यही रिज़्क़ का हीला है कि मुहम्मदी लोग तुम्हारी किताबों को ख़रीद लें और तुमको फ़ायदा हो तुम्हारा पेट चले लेकिन वो बेचारे जहन्नम में जाएं इसलिए तौबा करो और उस पर जो आदम से अब तक और आइंदा क़ियामत तक कुल आदम ज़ाद का नजातदिहंदा है। ईमान लाओ और उस की सुनो जो कुछ वो तुम्हें कहे। ऐसा ना हो कि यहूदीयों की तरह तुम भी मुवाख़िज़ा (जवाबतलबी) में आओ और अगर बअक़ीदा शमा तुम हाजिरा के फ़र्ज़न्द हो तो याद करो कि तुम्हारा ज़्यादा हक़ है कि मसीह ख़ुदावंद से बरकत लो। काश कि ख़ुदा ऐसा ही करे आमीन। तुफ़ैल सय्यद-उल-मुर्सलिन फ़र्ज़न्द रब अलालमीन ख़ुदावंद येसू-उल-मुज़नबीन।

ईसा को ख़ुदा का बेटा कहते हैं

ये सच्च है कि ईसाई ख़ुदावंद ईसा मसीह को ख़ुदा का बेटा कहते और इस कहने पर मुहम्मदी बहुत तकरार (बह्स) करते और लड़ते हैं, कि जो कहे कि मसीह ख़ुदा का बेटा है सो काफ़िर है। बल्कि अगर उनको कुछ क़ुद्रत (इख़्तियार) होतो जान से भी मार डालने पर आमादा (राज़ी) हैं जैसे कि ख़ुद मुहम्मद साहब और उनके ख़लीफों

Essa is called the son of God

ईसा को ख़ुदा का बेटा कहते हैं

By

G. H. Daniel
जी॰ ऐच॰ डैनियल

Published in Nur-i-Afshan Sep 13, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 13 सितंबर 1895 ई॰

ये सच्च है कि ईसाई ख़ुदावंद ईसा मसीह को ख़ुदा का बेटा कहते और इस कहने पर मुहम्मदी बहुत तकरार (बह्स) करते और लड़ते हैं, कि जो कहे कि मसीह ख़ुदा का बेटा है सो काफ़िर है। बल्कि अगर उनको कुछ क़ुद्रत (इख़्तियार) होतो जान से भी मार डालने पर आमादा (राज़ी) हैं जैसे कि ख़ुद मुहम्मद साहब और उनके ख़लीफों (ख़लीफ़ा की जमा) के ज़माने में हुआ। पर जो शख़्स जिस किताब को इल्हामी और ख़ुदा की जानता है उसे मुनासिब है कि इस किताब के मुवाफ़िक़ कहे। चुनान्चे मुहम्मदी क़ुरआन के मुताबिक़ दीन की बाबत कलाम करते हैं और जो कोई उस के मुवाफ़िक़ नहीं कहता तो वो सच्चा मुहम्मदी नहीं है। मगर हम सब इन्जील-ए-मुक़द्दस पर ईमान लाए हैं कि वो अल्लाह का कलाम है। इसलिए जैसा इस में पाते हैं वैसी ही गवाही देते हैं। किताब की बाबत हर एक को तहक़ीक़ और दर्याफ़्त करना वाजिब (ज़रूरी) है, कि वो किताब ख़ुदा का कलाम है कि नहीं। अगर दलीलों से साबित हो कि वो ख़ुदाई किताब है तो ये दुरुस्त है, कि जो बात उस में पाए उस पर यक़ीन लाए। और उस के मुवाफ़िक़ कहे। पस इन्जील शरीफ़ के हक़ में, जो हमने दर्याफ़्त और तहक़ीक़ किया यक़ीन जानते हैं कि वो बेशक आस्मानी किताब और ख़ुदा का कलाम है। और इस में साफ़ लिखा है कि मसीह ख़ुदा का बेटा कहलाता है क्योंकी फ़रिश्ते ने उस की वालिदा बीबी मर्यम साहिबा से कहा कि वो बुज़ुर्ग होगा। और ख़ुदा तआला का बेटा कहलाएगा। और फिर कहा कि वो पाक लड़का जो तुझसे पैदा होगा। ख़ुदा का बेटा कहलाएगा। देखो लूक़ा की इन्जील 1:32, 35 और ख़ुदा ने ख़ुद उसे बेटा कहा चुनान्चे मत्ती के 2:16, 17 और देखो आस्मान से एक आवाज़ आई कि ये मेरा प्यारा बेटा है जिससे मैं ख़ुश हूँ। दूसरे मुक़ाम पर कि ये मेरा प्यारा बेटा है इस की सुनो। लूक़ा 9:35 और 2 पतरस 1:16, 17 येसू ने भी ख़ुदा को अक्सर अपना बाप कहा है। सरदार काहिन ने उस से पूछा क्या तू मसीह उस मुबारक का बेटा है उसने जवाब दिया मैं वही हूँ। मर्क़ुस 14:61, 62 पस ज़ाहिर है कि इन्जील में इब्तिदा से इंतिहा तक मसीह को ख़ुदा का बेटा लिखा है। फिर हम कौन हैं जो कहें कि ये ग़लत है क्या इन्जील के लिखने वालों और ख़ुदा से जिसने उस की मार्फ़त अपनी मर्ज़ी ज़ाहिर की। इस राज़ से हम ज़्यादा वाक़िफ़ हैं? अब हम दर्याफ़्त करें कि सय्यद साहब का दूसरा दावा कहाँ तक सच्च ठहर सकता है या नहीं। इस दावे की तर्दीद में हम क़ुरआन ही से दलीलें पेश करते हैं क़ुरआन से साफ़ ज़ाहिर है कि मुहम्मद साहब के वक़्त तौरेत और इन्जील के सही नुस्ख़े मौजूद थे। ये बात ज़ेल की दलील से साबित होती है :-

1. मुहम्मद साहब के दिनों में यहूदी तौरेत सहीफोँ को सुना करते थे चुनान्चे सूरह बक़रह रुकूअ 9 में लिखा है कि यानी अब क्या तुम मुसलमान तवक़्क़ो रखते हो कि वो माने तुम्हारी बात कि ….. अलीख फिर सूरह बक़रह रुकूअ 14 में ये मर्क़ूम (रक़म करना, लिखना) है, यानी यहूद ने कहा नहीं नसारा कुछ राह पर और कहा नसारा ने नहीं यहूद कुछ राह पर और वो सब पढ़ते हैं किताब वग़ैरह। इन आयतों से ज़ाहिर है कि वो किताब जो क़ुरआन में कलामे खुदा कहलाती है पढ़ी और सुनी जाती थी। अगर कोई कोई कहे कि मुहम्मद साहब के बाद ये नविश्ते बिगड़ गए। तो मुहम्मदी लोग ख़ुद इस बात के ज़िम्मेदार होंगे। क्योंकि सही नुस्ख़े कस्रत से उनके हाथ में आ गए थे। लेकिन ऐसा ना हुआ। क्योंकि :-

1. बाइबल के नुस्ख़े इस वक़्त मौजूद हैं जो मुहम्मद साहब के मुद्दत पेश्तर (पहले) लिखे गए। मसलन कोडेक्स से नाईटिक्स तीसरी सदी का और कोडेक्स चरा चौथी सदी का मौजूद हैं वग़ैरह।

2. बाइबल के तर्जुमे भी मौजूद हैं जो मुहम्मद साहब से पेश्तर (पहले) राइज थे। जैसा कि पुश्तो सुर्यानी ज़बान का जो पहली सदी ईस्वी में किया गया मौजूद है। वग़ैरह। फिर,

3. बाइबल के इक़्तिबास की हुई आयतें कस्रत के साथ क़दीम तस्नीफ़ात में पाई जाती हैं। पस इन किताबों के वसीले से ये बात अच्छी तरह से साबित हो सकती है कि हाल के नुस्ख़े इन्जील शरीफ़ के क़दीम नुस्ख़ों के साथ मिलते हैं और कि वो तहरीफ़ शूदा (तब्दील शूदा) नहीं हैं। इस बात के बारे में हमको याद करना चाहिए कि कलाम की हर क़िस्म की इबारत मन्सूख़ नहीं हो सकती मसलन वो आयतें जो ख़ुदा की पाक ज़ात व सिफ़ात को बयान करती हैं या वो जो तवारीख़ी वारदातों की ख़बर देती हैं या वो जो पैशन गोइयों का ज़िक्र करती हैं वो जो इन्सान की बद हालत और उस से नजात पाने की तज्वीज़ को पेश करती हैं ये सब आयतें मन्सूख़ होने वाली नहीं हैं। और बाइबल की अक्सर इबारत इस ही क़िस्म की है। पस साफ़ ज़ाहिर है कि बाइबल के नविश्ते सही हैं। और कि वो मुहम्मदीयों के ख़याल के मुवाफ़िक़ मन्सूख़ ना हुए। हाँ हम इतना मानते हैं कि क़ुरआन में सदहा आयतें नासिख़ (मन्सूख़ करने वाला) मन्सूख़ की पाई जाती हैं। क्योंकि वो इन्सानी कलाम है।

मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब का नतीजा

दुनिया में बेशुमार मुख़्तलिफ़ अदयान (दीन की जमा) के राइज होने से है। फ़र्द बशर बख़ूबी वाक़िफ़ है ना सिर्फ वाक़िफ़ बल्कि हर अहले मज़्हब के दिली तास्सुब आपस की अदावत (दुश्मनी), ज़िद, बुग़्ज़ (नफ़रत), हसद, एक दूसरे की ऐब-जोई और नुक़्स गेरी और अपने अपने फ़ख़्र और बड़ाई जताने का क़ाइल (तस्लीम करने वाला, ला-जवाब)

Result of Different Religions

मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब का नतीजा

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan June 3, 1875

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 3 जून 1875 ई॰

दुनिया में बेशुमार मुख़्तलिफ़ अदयान (दीन की जमा) के राइज होने से है। फ़र्द बशर बख़ूबी वाक़िफ़ है ना सिर्फ वाक़िफ़ बल्कि हर अहले मज़्हब के दिली तास्सुब आपस की अदावत (दुश्मनी), ज़िद, बुग़्ज़ (नफ़रत), हसद, एक दूसरे की ऐब-जोई और नुक़्स गेरी और अपने अपने फ़ख़्र और बड़ाई जताने का क़ाइल (तस्लीम करने वाला, ला-जवाब) और ये अम्र भी कुछ मुहताज (ज़रूरतमंद) बयान नहीं है कि हर मज़्हब मह्ज़ अपने आपको ही अस्ल और नाजिया और बाक़ी सबको मस्नूई (खुदसाख्ता) और मुर्तद (इस्लाम से फिरा हुआ) बता रहा है। کس نگوید کو کو درغ من ترش ست ये साबित करना कि उनका ये दाअवा अज़ रुए मुक़ाबला उन के फ़ुरू (मज़्हबी इस्तिलाह में वो मसाइल जो अमल से मुताल्लिक़ हों) व उसूल के ग़लत है या सही, कुछ आसान अम्र नहीं है। क्योंकि इनमें से कोई भी ऐसा नज़र नहीं आता जिसने मोअजिज़ा या करामत को अपनी बुनियाद ना ठहराई हो। और इस अम्र को गो अक़्ल इंसानी बा सबब ख़रक़-ए-आदत (आदत और क़ानून के ख़िलाफ़, अनोखी बात) के सरासरी (जल्दी से) क़ुबूल नहीं कर सकती।

ताहम उनके क़ाइलों के साथ मुत्तफ़िक़ हो कर हम भी क़ाइल (मानते) हैं और तस्लीम (क़ुबूल करना) करते हैं, कि क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा के आगे अपने बंदों की मार्फ़त () मोअजिज़ा करामात का दिखलाना कुछ बड़ी बात नहीं है। मगर ख़वारिक़ (मोअजिज़े, करामातें) को हमें ईमान का मुन्हसिर (मुताल्लिक़, वाबस्ता) दिखाया जाता था बहुत लोग मह्ज़ इसी सबब से क़ाइल होते और ईमान लाते थे। मगर फ़ी ज़माना ना जब कि ये चीज़ अन्क़ा (नायाब शैय) का हुक्म रखती है, तो फिर चाहीए कि कोई क़ाइल ना हो और ईमान ना लाए हालाँकि ऐसा नहीं है। बेशुमार ईमानदार लोग जो अब मौजूद हैं उनकी ईमानदारी का मूजिब (सबब, बाइस) सिर्फ मज़्हब की अंदरूनी शहादत (गवाही, सबूत) है ना कि बैरूनी जो मोअजिज़ा वग़ैरह से मतलब है। मगर बांदक ताम्मुल ये अंदरूनी शहादत भी सिर्फ उनके लिए ही काफ़ी दिखाई देती है जो इस मज़्हब के अव़्वल से ही मुअतक़िद (एतिक़ाद रखने वाला) हैं। और ना कि ग़ैरों के लिए। एक शख़्स की ऐनक से दूसरा शायद नहीं देख सकेगा।

ہر کس نجیال خویش ربطی وارد अलबत्ता ये बात एक क़ाबिले तस्लीम नज़र आती हैं कि अगर कुल मज़ाहिब के नताइज को आपस में मुक़ाबला कर के देखा जाये कि किस मज़्हब ने अपनी भारी-भारी बरकतें अता कर के इन्सान को चाह ज़लालत से औज हिदायत पर पहुंचाया और उस के तंग व तारीक दिल को अपने नूर की रोशनी और फ़ैज़ (फ़य्याज़ी) की बरकत से मुनव्वर (रोशन) और कुशादा (फैला हुआ) कर दिया। सच्ची अदालत नेक अख़्लाक़ और रास्त बाज़ी को अपने मुअताक़दों (एतिक़ाद करने वाले) में फैलाया और उनको इस दुनिया में ख़ुश और अबदी बरकत की उम्मीद से माला-माल बना दिया। तो अलबत्ता जब कि दुनिया नमूना आख़िरत मशहूर है तो अग़्लब (मुम्किन) है कि ऐसा मज़्हब अपने दाअवा नाजिया और सच्चे होने में सच्चा हो। पस मंज़र इम्तिहान जब हम हिंदू धरम को बैदिक (हिक्मत) से पुराणिक तक गो इस के अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) बेशुमार हो गए हैं। और बद्दू ला सह वग़ैरह के मिल्लत को जो बहुत ममालिक मशरिक़ी में राइज है और मज़्हब इस्लाम को जो अहद मुहम्मद साहब से ताआज तक मुश्तहिर (मशहूर करने वाला) है और जिसके सत्तर और दो बेहतर फ़रीक़ मशहूर हैं और कसदी ज़रदुश्त वग़ैरह पुराने मज़्हबों को जो अब एक तरह से मज़्हब इस्लाम में ही मख़लूत (मिले जुले) मालूम देते हैं देखते हैं तो साफ़ नज़र आता है कि किसी ने भी इनमें से बहबूदी व बेहतरी ख़लाइक़ (मख़्लूक़ात, लोग) दीनदारी व परहेज़गारी रास्तबाज़ी और दिल की पाकीज़गी औरत की आज़ादगी बच्चों की हिफ़ाज़त बरदाफ़रोशी (इन्सानों की तिजारत) की मुमानिअत बंज बियो पार लेन-देन वग़ैरह दुनियावी मुआमलात में सफ़ाई मुआमला और रिफ़ाह-ए-आम (आम लोगों की भलाई का काम) और शाइतगी के फैलाने में कुछ तरक़्क़ी नहीं की है हालाँकि ये सब मज़्हब अपने अपने तौर पर दुनिया के बहुत से हिस्सों को अपना मतकद (एतिक़ाद रखने वाले) बना चुके हैं और बाअज़ अब भी अपने ज़ोर में हैं। अगर तास्सुब (मज़्हब की बेजा हिमायत) को छोड़कर बिला तरफ़दारी मुंसिफ़ाना ग़ौर किया जाये तो ये औसाफ़ कामिल और मुकम्मल मज़्हब मसीह की ताअलीम में मौजूद पाए जाते हैं और सिर्फ उन मुक़ामात में जहां इस मज़्हब का सच्चा इजरा असली और साफ़ तौर पर बिला इफ़रात व तफ़रीत (कमी व बेशी) हो रहा है ना कि और मुल्कों में जहां ये दीन अपनी असली सूरत से मुतग़य्यर (बदला हुआ) हो कर बिदआत (मज़्हब में नई बातें निकालना) और मुख़तरआत (ईजाद की हुई चीज़ें) से आलूदा हो गया है इस का अमलदर आमद बरा-ए-नाम है क्योंकि वहां की हालत को भी हम दूसरे मज़ाहिब की हालत पर किसी नूअ (क़िस्म) तरजीही नहीं दे सकते। शायद मुख़ालिफ़ीन तख़ालुफ़ (मुख़ालिफ़त) या अदावत (दुश्मनी) के रू से इस मेरे क़ौल की निस्बत बहुत से एतराज़ात पेश कर सकते हैं और करेंगे भी मगर वो सिर्फ़ तास्सुब के भरे हुए दिल का जोश समझा जायेगा क्योंकि अगर इन्साफ़ को हाथ से ना छोड़ा जाये तो कुल औसाफ़ जो अक़्ल के नज़्दीक रिफ़ाह-ए-आम व इन्सान की बेहतरी के मूजिब (वजह, सबब) हैं और मज़ाहिब में ढूंढे भी ना मिलेंगे। अब में इस आर्टीकल को तूल (लंबा) देना नहीं देना चाहता और किसी और मौक़े पर इस की निस्बत क़ील व क़ाल (बह्स व मुबाहसा) करने का वाअदा कर के ख़त्म करता हूँ।

मुहम्मद साहब की बशारत का होना तौरेत व इन्जील में?

दूसरी बशारत (ख़ुशी) फ़ारक़लीत (فارقلیط) (हज़रत मुहम्मद का वो नाम जो इन्जील में आया है) की कि ये भी उन्हीं के हक़ में है। और इस की ताईद (हिमायत) में क़ौल डाक्टर गाद फ़्री हेगनस साहब का नक़्ल किया इस मसअले के तहक़ीक़ में लंबे चौड़े मज़्मून की तहरीर इसी अख़्बार में साल गुज़श्ता में दर्ज हो चुकी है। अब मैं इस तमाम को दुबारा पेश करना नहीं चाहता

The Prophecy of Muhammad is in the Torah and the Gospel?

मुहम्मद साहब की बशारत का होना तौरेत व इन्जील में?

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan June 3, 1875

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 3जून 1875 ई॰

मौलवी सय्यद अहमद अली वाइज़ साहब 25 मार्च और 25, अप्रैल की वाअज़ में फ़र्माते हैं, कि मुहम्मद साहब की निस्बत बशारत (ख़ुशी) नबियों की किताब और इन्जील में मौजूद है। और इस दाअवे के सबूत में दो मुक़ाम पेश किए पहला दानयाल नबी की किताब के 9 बाब की 24 आयत से 27 तक और ये फ़रमाया कि ये नबुव्वत मुहम्मद साहब पर इशारत (इशारा) करती है। ख़बर नहीं उन को ये कहाँ से सूझ गई। मह्ज़ उनकी मुँह ज़ोरी है क्योंकि अगर इन आयात पर ग़ौर करें तो फ़ौरन मालूम होता है कि उनका दाअवा बातिल (झूटा) और लाताइल (बेफ़ाइदा) है।

अव्वल इस वास्ते कि यहां लिखा है कि नबुव्वत मज़्कूर 490 बरस के बाद वक़ूअ में आएगी। और हमको मालूम है कि दानयाल नबी का ज़माना मसीह से 500 बरस पेश्तर हुआ। इस वास्ते मुहम्मद साहब से मुराद नहीं हो सकती। क्योंकि दानयाल नबी उनके ग्यारह सौ बरस पेश्तर गुज़रे।

दोम, उस के हक़ में मर्क़ूम (लिखा हुआ) हुआ कि वो बदकारियों (ज़िना कारी, हरामकारी, बदचलनी, बदफ़ेअली) के लिए कफ़्फ़ारा (गुनाह धोने वाला) करेगा और ज़बीहा (क़ुर्बानी का जानवर, शरई तौर पर ज़ब्ह किया हुआ जानवर) और हदाया (नज़राने, नज़रें) मौक़ूफ़ (मन्सूख़, बर्ख़ास्त) करेगा और वो क़त्ल किया जाएगा। पर अपने लिए नहीं।

भला मैं पूछता हूँ कि मौलवी साहब तवारीख़-ए-मुहम्मदी से नावाक़िफ़ हैं कि उमूर मज़्कूर को मुहम्मद साहब पर जमाते हैं। उनके अहद में ज़बीहा हद्या कब मौक़ूफ़ हुआ और वो ख़ुद कब मारे गए। जब कि दस्तावेज़ कामिल ना मिले और बे इस्तिदलाल (सबूत के बग़ैर) मतलब ना बने तो ख़ामोशी बेहतर है। झूटी शहादत (गवाही) लाने से।

दूसरी बशारत (ख़ुशी) फ़ारक़लीत (فارقلیط) (हज़रत मुहम्मद का वो नाम जो इन्जील में आया है) की कि ये भी उन्हीं के हक़ में है। और इस की ताईद (हिमायत) में क़ौल डाक्टर गाद फ़्री हेगनस साहब का नक़्ल किया इस मसअले के तहक़ीक़ में लंबे चौड़े मज़्मून की तहरीर इसी अख़्बार में साल गुज़श्ता में दर्ज हो चुकी है। अब मैं इस तमाम को दुबारा पेश करना नहीं चाहता हूँ सिर्फ इतनी बात दिखलाऊँगा कि मौलवी साहब मुंसिफ़ मिज़ाज हो कर उन आयात को मुलाहिज़ा करें। जिनमें फ़ारक़लीत (فارقلیط) का बयान हुआ। उम्मीद क़वी (मज़बूत, मुस्तहकम) ये है कि अगर बग़ौर मुलाहिज़ा करेंगे तो ख़ुद ही मोतरिफ़ (एतराफ़ करने वाला, इक़रार करने वाला) हो जाऐंगे। कि ये औसाफ़ (खूबियां) मज़्कूर किसी सूरत से मुहम्मद साहब पर मुंतबिक़ (मुवाफ़िक़, ठीक) नहीं हो सकते। डाक्टर गाद फ़्री हेगनस साहब की शहादत (सबूत, गवाही) इस मुआमला में लगू (बकवास, बेफ़ाइदा) और बेकार है। क्योंकि ये शख़्स मसीही नहीं था। बल्कि युनीटेरियन अक़ीदे में बिल्कुल मुसलमान।

 

मौलवी साहब का ये कहना कि मसीहियों ने इन्जील में मोटानस के वक़्त में पैराकलीतोस को पैराकलीतस बना लिया है। और इस लफ़्ज़ अव्वल को छिपाने के लिए तमाम तहरीरें क़लमी ग़ारत (तबाह) कर दी गईं एक ख़िलाफ़ बात और झूटी तोहमत (इल्ज़ाम) है। इस का सबूत सिर्फ़ मौलवी साहब की ज़बान का बयान है और किसी तवारीख़ कलीसिया में पाया नहीं गया शायद मौलवी साहब ने अपनी पुरानी हरकात को याद फ़रमाया होगा कि उस्माने ग़नी ने क़ुरआन जमा करदह अपना बाक़ी रखकर और सबको आग दिखलाई इलावा बरीं ये भी याद रहे कि ये मुबाहिसा लफ़्ज़ी नहीं है, कि इस लफ़्ज़ को बदल डालें तो मतलब पूरा हो। बल्कि फ़ारक़लीत (فارقلیط) जिसकी निस्बत ख़ुदावन्द येसू मसीह ने वाअदा किया उस की ख़ुसूसियात और अफ़आल का मुफ़स्सिल बयान है। जो कि मुहम्मद साहब पर हरगिज़ मुंतबिक़ नहीं हो सकता। मैं उन आयात को मुंतख़ब कर के दिखलाता हूँ जिनमें फ़ारक़लीत (فارقلیط) का बयान है पढ़ने वाले ख़ुद ही दर्याफ़्त कर हैं। (यूहन्ना के 14 बाब की 16, 17 आयत) और मैं अपने बाप से दरख़्वास्त करूँगा और वो तुम्हें दूसरा तसल्ली देने वाला बख़्शेगा कि हमेशा तुम्हारे साथ रहे यानी रूहे हक़ दुनिया हासिल नहीं कर सकती क्योंकि उसे ना देखती है और ना उसे जानती है। लेकिन तुम उसे जानते हो क्योंकि वो तुम्हारे साथ रहती है और तुम में होएगी। 26 आयत लेकिन वो तसल्ली देने वाला जो रूह-उल-क़ुद्दुस है जिसे बाप मेरे नाम से भेजेगा वही तुम्हें सब चीज़ें सिखलाएगा। और सब बातें जो कि मैंने तुम्हें कही हैं तुम्हें याद दिलाएगा। 15 बाब की 26 आयत पर जब कि वो तसल्ली देने वाला जिसे मैं तुम्हारे लिए बाप की तरफ़ से भेजूँगा यानी रूह-ए-हक़ जो बाप से निकलता है आए तो वो मेरे लिए गवाही देगा। (16 बाब की 7 से 15, आयत तक) लेकिन मैं तुम्हें सच्च कहता हूँ कि तुम्हारे लिए मेरा जाना ही फ़ायदा है। क्योंकि अगर मैं ना जाऊं तो तसल्ली देने वाला तुम्हारे पास ना आएगा। पर अगर मैं जाऊं तो मैं उसे तुम्हारे पास भेज दूंगा। और वो आकर दुनिया को गुनाह से रास्ती से अदालत से तक़सीरदार (क़सूरवार, मुजरिम) ठहराएगा। मेरी और बहुत सी बातें हैं कि मैं तुम्हें कहूं। पर अब तुम उनकी बर्दाश्त नहीं कर सकते। लेकिन जब वो यानी रूहे हक़ आए तो वो तुमको सारी सच्चाई की राह बताएगा। इसलिए कि वो अपनी ना कहेगा लेकिन जो कुछ वो सुनेगा वही कहेगा और तुम्हें आइंदा की ख़बरें देगा। वो मेरी बुजु़र्गी करेगा इस लिए कि वो मेरी चीज़ों में से पाएगा और तुम्हें दिखलाएगा।

सब चीज़ें जो बाप की हैं मेरी हैं इसलिए मैंने कहा कि वो मेरी चीज़ों में से ले कर वह तुम्हें दिखाएगा। (आमाल का पहला बाब 4, 5, 8 आयत) उन के साथ एक जा हो के मसीह ने हुक्म दिया कि यरूशलेम से बाहर ना जाओ बल्कि बाप के उस वाअदे के जिसका ज़िक्र मुझसे सुन चुके हो राह देखो क्योंकि यूहन्ना ने तो पानी से बपतिस्मा दिया पर तुम थोड़े दिनों के बाद रूह-उल-क़ूदस से बपतिस्मा पाओगे। और यरूशलेम और सारे यहूदिया व सामरिया बल्कि ज़मीन की हद तक मेरे गवाह होगे। आयात मज़्कूर में तसल्ली देने वाले की दो क़िस्म की सिफ़तों का मज़कूर हुआ।

अव्वल आम जो हर किसी मुर्शिद (हिदायत करने वाला, उस्ताद) या दीनी ताअलीम दहिंदा पर मुंतबिक़ (मुवाफ़िक़) हो सकते हैं। इसी सबब से ना सिर्फ मुहम्मद साहब ने दाअवा किया कि मसीह की नबुव्वत फ़ारक़लीत (فارقلیط) की बाबत मुझमें पूरी हुई। बल्कि ईसाई जमाअत में मुख़्तलिफ़ औक़ात में और चंद अश्ख़ास ने ऐसे दाअवा किया इस में से दो आदमी निहायत मशहूर हैं एक मोंटेनेस और दूसरा सीनतेर वो आम सिफ़ात में वो तुम्हें सब चीज़ें सिखलाऊँगा। और सब बातें जो कि मैंने तुम्हें कहीं याद दिलाएगा। वो आकर दुनिया को गुनाह से और रास्ती से और अदालत से तक़्सीर-वार (मुजरिम, क़सूरदार) ठहराएगा वग़ैरह।

दूसरी ख़ास ये सिफ़तें इस क़िस्म की हैं, कि किसी ख़ास शख़्स पर सादिक़ (सच्ची) आ सकती हैं और जब तक ये ख़ुसूसीयत किसी शख़्स में ना पाई जाये तब तक उस के लिए फ़ारक़लीत (فارقلیط) होने का दावा करना ला-हासिल है। और किस का कहना कि उस में ये बातें पूरी हुईं हज़यान (बेहूदा गोई) है। और इस की जहालत का उन्वान वो ख़ुसूसियात ये हैं वो हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा उसे दुनिया नहीं देखती है वो तुम्हारे साथ रहता है।

 

अब मैं ये पूछता हूँ कि ये सिफ़तें मुहम्मद साहब पर क्योंकर लग सकती हैं मसीह ने फ़रमाया कि वो हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा। मुक़ाबिल अपने रहने के लिए जैसे मैं थोड़ी मुद्दत रहा और फिर चला जाता हूँ वो ऐसा ना करेगा। मुहम्मद साहब तो दुनिया में आए और तिरेसठ बरस के बाद वफ़ात पाई और बशर की मानिंद दुनिया से गुज़र गए। फिर लिखा है कि वो तुम्हारे बीच में रहता है यानी उसी वक़्त जब मसीह उनके साथ गुफ़्तगु कर रहा था।

मुहम्मद साहब तो इस गुफ़्तगु के बाद छः सौ बरस के क़रीब पैदा हुए सिवा उस के वो ऐसा शख़्स होगा जिसको दुनिया ना देखेगी यानी वो जिस्मानी ना होगा, बल्कि रुहानी। इलावा बरीं उस को बाप मेरे नाम से भेजेगा वो अपनी ना कहेगा। लेकिन जो कुछ वो सुनेगा और कहेगा वो मेरी बुजु़र्गी करेगा। इसलिए कि वो मेरी चीज़ों में से पाएग़ा सब चीज़ें जो बाप की हैं मेरी हैं इसलिए मैंने कहा कि वो मेरी चीज़ों में से लेगा और तुम्हें दिखाएगा।

इन आयात से वाज़ेह है कि फ़ारक़लीत (فارقلیط) जो होगा कोई क्यों ना हो वो मसीह के नाम से और उस का भेजा हुआ होगा क्या सोलूय साहब तैयार हैं कि मुहम्मद साहब को मसीह के नाम से आया हो और उस का रसूल कहें अगर ऐसा हो तो मुझे कुछ इन्कार नहीं फ़ारक़लीत (فارقلیط) का दर्जा मुहम्मद साहब पर लगाने से तावील (बयान, बात को फेर देना) तो यहां किसी तरह की बन नहीं सकती। क्योंकि इबारत निहायत साफ़ है लेकिन मौलवी साहब को ये भी इक़रार करना पड़ेगा, कि सब जो कुछ मुहम्मद साहब ने पाया मसीह से पाया सो उस के आमाल की आयात और उनके बयानात से ये भी ज़ाहिर है। कि रूह-ए-हक़ थोड़े अर्से में शागिर्दों पर नाज़िल होने वाला था क्योंकि मसीह ने उन्हें फ़रमाया था तुम यरूशलेम में उस की इंतिज़ारी करो और जब वो तुम पर आए क़ुव्वत पाओगे। और यरूशलेम और सारे यहूदीया और सामरिया बल्कि ज़मीन की हद तक मेरे गवाह होंगे। भला क्योंकि ये बात मुहम्मद साहब की निस्बत मुताल्लिक़ हो सकती है और कौन मुंसिफ़ मिज़ाज इस को क़ुबूल कर सकता है मालूम नहीं बाअज़ मुहम्मदी अश्ख़ास फ़ारक़लीत (فارقلیط) की नबुव्वत पर क्यों इतना ज़ोर लगाते हैं। मुहम्मदी मज़्हब की सच्चाई तो कुछ इस पर मौक़ूफ़ नहीं इस बेफ़ाइदा कोशिश से सिर्फ अपनी बेइल्मी और बेइंसाफ़ी और तास्सुब (हिमायत, तरफ़दारी) ज़ाहिर करते हैं। बेहतर है कि और किसी क़िस्म की दलील (गवाही) पेश करें। जिससे सच्चाई उन के मज़्हब की साबित हो। और उलमा को उस की पज़ीराई में ताम्मुल (बर्दाश्त) ना हो। झूटा फ़ख़्र बहर -हाल नामुनासिब है कि नदामत और शर्मिंदगी के सिवा और कुछ इस से हासिल नहीं।

मुहम्मद साहब या ख़ुदावन्द मसीह

दुवम, ये अल्फ़ाज़ ऐसो और बनी कतूरह की निस्बत इस्तिमाल नहीं हो सकते। क्योंकि बनी ऐसो और बनी कतूरह बरकत के मालिक नहीं हुए हैं। बनी इस्माईल और बनी-इस्राईल इन दोनों में से अल्फ़ाज़ मज़कूर इस मुक़ाम में बनी-इस्राईल के हक़ में वारिद नहीं हो सकता। क्योंकि यहां हज़रत मूसा बनी-इस्राईल को इकट्ठा कर के और उनकी तरफ़ मुख़ातिब हो कर उनको फ़र्माते हैं कि

Muhammad or Jesus Christ

मुहम्मद साहब या ख़ुदावन्द मसीह

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan June 29, 1884

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 12 जून 1884 ई॰

इस्तिस्ना के 18 बाब की 15 आयत “ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा तुम उस की तरफ़ कान धर लो।” फिर इस्तिस्ना के 18 बाब की 17, 18, 19, 20, “और ख़ुदावन्द ने मुझे कहा कि मैं उन के लिए उन के भाईयों में से तुझ सा एक नबी क़ायम करूँगा। और अपना कलाम उस के मुँह में डालूँगा। और जो कुछ मैं उसे फ़र्माउंगा वो उन से कहेगा और ऐसा होगा। कि जो कोई मेरी बातों को जिन्हें वो मेरा नाम लेकर कहेगा। ना सुनेगा तो मैं उस से मुतालिबा करूँगा। लेकिन वो नबी जो ऐसी गुस्ताख़ी करे कि कोई बात जो मैंने उस से नहीं कही मेरे नाम से कहे या जो और माबूदों (जिसकी इबादत की जाये) के नाम से कहे तो वो नबी क़त्ल किया जाये।”

ये एक मशहूर नबुव्वत तौरेत में से है जिस को बाअज़ मुहम्मदी पढ़ने वाले कलाम के अपने नबी यानी मुहम्मद साहब के हक़ में गुमान (अंदाज़ा) करते हैं उनका ख़याल ये है कि हज़रत मूसा इस मुक़ाम में बनी-इस्राईल को फ़र्माते हैं, “कि ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से यानी बनी इस्माईल से मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा। तुम उस की तरफ़ कान धरो।” और उनकी तक़रीर ये है पहला अल्फ़ाज़ तेरे भाईयों में से जो कि इस आयत में है चार शख़्स की निस्बत मन्सूब (निस्बत किया गया) हो सकता है अव़्वल नबी इस्माईल की निस्बत क्योंकि हक़ीक़त में बनी इस्माईल बनी-इस्राईल का बिरादर कहा गया। पैदाइश के 16 बाब की 12, और पच्चीस की 18।

दूसरा बनी-इस्राईल की निस्बत

तीसरा बनी ऐसो की निस्बत

चौथा बनी कत्तूरह

 

दुवम, ये अल्फ़ाज़ ऐसो और बनी कतूरह की निस्बत इस्तिमाल नहीं हो सकते। क्योंकि बनी ऐसो और बनी कतूरह बरकत के मालिक नहीं हुए हैं। बनी इस्माईल और बनी-इस्राईल इन दोनों में से अल्फ़ाज़ मज़कूर इस मुक़ाम में बनी-इस्राईल के हक़ में वारिद नहीं हो सकता। क्योंकि यहां हज़रत मूसा बनी-इस्राईल को इकट्ठा कर के और उनकी तरफ़ मुख़ातिब हो कर उनको फ़र्माते हैं कि, “ऐ बनी इस्राईलियों ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा।” यहां से साफ़ मालूम हुआ कि मेरे भाई से ग़ैर-इस्राईली जो कि वहां मौजूद ना थे। मुराद है और ग़ैर-इस्राईली और कोई नहीं हो सकता सिवाए बनी-इस्माईल के इस वास्ते हम पूरे यक़ीन के साथ मानते हैं कि हज़रत मूसा इस मौज़अ (मुक़ाम) में हमारे नबी मुहम्मद साहब की बशारत (ख़ुशी) दे रहे हैं जो कि बनी-इस्माईल से पैदा हुए और जिनके मुँह में बज़रीये वही अपना कलाम डाला। और जिसने जो कुछ ख़ुदा ने उसे फ़रमाया वो बनी-इस्राईल से कहा ये तक़रीर मेरी समझ में मह्ज़ ग़लत है। मैं मंज़ूर करता हूँ कि अल्फ़ाज़ तेरे भाईयों में से चार गिरोह के हक़ में यानी बनी इस्माईल बनी-इस्राईल बनी ऐसो बनी कतूरह वारिद हो सकता है। और मैं ये भी मंज़ूर करता हूँ कि ये बयान बनी ऐसो और बनी कतूरह की निस्बत नहीं हो सकता। क्योंकि वो रूहानी बरकत और नबुव्वत के वारिस नहीं हुए। लेकिन ये बात सच्च नहीं है कि इस वास्ते कि हज़रत मूसा कुल बनी-इस्राईल को इकट्ठा कर के उनकी तरफ़ मुख़ातिब हो कर उनको कह रहे हैं, कि “तेरे भाईयों से ख़ुदावन्द ख़ुदा एक नबी क़ायम करेगा।” अल्फ़ाज़ तेरे भाईयों में से बनी-इस्राईल के हक़ में वारिद नहीं हो सकता। क्योंकि वो वहां हाज़िर शूदा थे ज़रूर है। कि ये किसी ग़ैर-इस्राईलियों के हक़ में समझा जाये जो हाज़िरीन में दाख़िल ना हों बरख़िलाफ़ इस के अगर हम इस्तिस्ना की इबारत ग़ौर से पढ़ें हमेशा बनी-इस्राईल के हक़ में वारिद हुआ तो हमको बख़ूबी मालूम होगा कि अल्फ़ाज़ “तेरे भाईयों में से” या “अपने भाईयों में से” इस किताब में सारे बनी-इस्राईल को इकट्ठा कर के उनकी तरफ़ मुख़ातिब हो कर हज़रत मूसा यूं फ़रमाया है, इस्तिस्ना के 15 बाब की 17, “अगर तुम्हारे बीच तुम्हारे भाईयों में से तेरी सरहद में तेरी इस सर-ज़मीन पर जिसे ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा देता है। कोई मुफ़्लिस (ग़रीब, हाजतमंद) हों तो उस से सख़्त दिली मत कीजीए। और अपने मुफ़्लिस भाई की तरफ़ से अपना हाथ मत खींचो।” यहां से साफ़ मालूम हुआ, कि तुम्हारे भाईयों में से बनी-इस्राईल मुराद हैं ना ग़ैर-इस्राईली। इस्तिस्ना के 17 बाब की 14, 15 जब तू इस ज़मीन में जो ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तुझे देता है दाख़िल हो और उस पर क़ाबिज़ हो तू इस को अपना बादशाह कीजीए जिसे ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा पसंद फ़रमाए तू अपने भाईयों में से एक को अपना बादशाह ना कर सकेगा। हमारे मुहम्मदी भाई की तक़रीर के बमूजब लाज़िम आया, कि अल्फ़ाज़ अपने भाईयों में से इस मुक़ाम में ग़ैर-इस्राईलियों से मुराद है और हज़रत मूसा बनी-इस्राईल को फ़र्मा रहा है कि जब तू कनआन के मुल्क पर क़ाबिज़ हो तो अपने में से नहीं, बल्कि बनी-इस्माईल में से किस को बुला कर अपने ऊपर बादशाह बनाईयो। इस्तिस्ना के 24 बाब की 14 तू अपने ग़रीब और मुहताज चाकर पर ज़ुल्म ना करना ख़्वाह वो तेरे भाईयों में से हो ख़्वाह मुसाफ़िर हो जो तेरी ज़मीन पर तेरे फाटकों के अंदर रहता हो। यहां से साफ़ ज़ाहिर है कि तेरे भाईयों में से ग़ैर इस्राईली मुराद नहीं बल्कि बनी-इस्राईल मुराद हैं। अला हज़ा-उल-कियास (इसी तरह) इतनी नज़ीर (मिसाल, मानिंद) काफ़ी समझता हूँ। बेतास्सुब पढ़ने वालों को इस से वाज़ेह होगा कि हज़रत मूसा इस आयत में ग़ैर-इस्राईली नबी पर इशारा नहीं करता बल्कि इस किसी पर जो बनी-इस्राईल में से हुआ इस्तसना के मुहावरे के बमूजब यही नतीजा निकलता है और दूसरा नतीजा नहीं। आइंदा

बक़ीया मुहम्मद साहब या ख़ुदावन्द मसीह

दुवम, मेरा ये क़ियास (ख़याल) कि अल्फ़ाज़ “तेरे भाईयों में से उनके भाईयों में से” किसी ग़ैर-इस्राईली के हक़ में वारिद (आने वाला, मौजूद) नहीं है बल्कि ज़रूर किसी ऐसे अश्ख़ास से मुराद है जो बनी-इस्राईल में से हूँ ज़्यादा सफ़ाई से मालूम देगा।

अगर नाज़रीन ग़ौर से अठारवां बाब इस्तिस्ना का तमाम व कमाल मुतालआ करें ख़ुसूसुन नौवीं आयत से आख़िर तक उनको मालूम हो जाएगा। जिस नबुव्वत की निस्बत बह्स हो रही है। ये नबुव्वत उस वक़्त में कही गई थी जब कि मूसा को ख़ुदा की तरफ़ से पैग़ाम आया, कि तुम यर्दन के पार नहीं जाओगे बल्कि उस की पूरब की तरफ़ मर जाओगे और बाद तुम्हारी मौत के यशूअ बिन नून बनी-इस्राईल का सरदार हो कर उनको मुल्क मौऊद पर क़ाबिज़ करेगा।

हज़रत मूसा बनी-इस्राईल के लिए फ़िक्रमंद हो कर उनको इकट्ठा कर के उनकी तरफ़ मुख़ातिब हो कर फ़रमाता है कि जब तू इस सर-ज़मीन में जो ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा देता है दाख़िल हो तो तू वहां की क़ौमों के काम मत सीखना। तुम में कोई ऐसा ना हो कि अपनी बेटी या अपने बेटे को आग में गुज़ारे या ग़ैब (पोशीदा) की बात बताए। या बुराई भलाई का शागुनिया (फ़ाल निकालना) या जादूगर बने। और अफ़्सूँगर (साहिर, जादूगर) ना हो उन देवओं से जो मुसख़्ख़र (तसख़ीर किया गया, क़ब्ज़ किया गया) होते हैं। सवाल करने वाला और साहिर (जादूगर) और सयाना ना हो। क्योंकि वो सब जो ऐसे काम करते हैं ख़ुदावन्द उन से कराहीयत (नफ़रत करता) है। और ऐसी कराहयतियों (नफ़रतों) के बाइस से उनको ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तेरे आगे से दूर करता है। तू ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा के आगे कामिल (मज़्बूत) हो क्योंकि वो गर्दाएं (कौमें) जिनको तू अपने आगे से हाँकता (चलाना, दौड़ाना) है। ग़ैब गहूँ और शगुनियों की तरफ़ धरते हैं। पर तू जो है ख़ुदावन्द तेरे ख़ुदा ने तुझको इजाज़त नहीं दी कि ऐसा करे। ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा। तुम उस की तरफ़ कान धरो। इस पूरी आयत के पढ़ने से ज़ाहिर है कि हज़रत मूसा इस मुक़ाम में इस सिलसिले अम्बिया पर जो ख़ुदा बनी-इस्राईल के दर्मियान बाद उस की मौत के क़ायम करेगा इशारा करता है वो कहता है, कि जब तुम कनआन के मुल्क में जाओ तब उस मुल्क के ना उनके देवओं, ना साहिर, और सयाना से सवाल करो। बल्कि ख़ुदा के नबियों से अपनी हिदायत और ताअलीम के लिए पूछो। क्योंकि ख़ुदावंद तुम्हारा ख़ुदा तुम्हारे लिए तुम्हारे दर्मियान से तुम्हारे भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा। तुम उस की तरफ़ कान धरो यहां इस सिलसिले अम्बिया से मुराद है जो यशूअ से शुरू कर के ख़ुदावन्द येसू मसीह में जो सारी नबियों का नमूना और सर है ख़त्म हुआ। इस वास्ते पत्रस रसूल और इस्तीफ़ान शहीद ख़ासकर के मसीह पर इशारा कर के कहते हैं ये वही नबी है जिसकी बाबत मूसा ने बनी-इस्राईल से कहा, कि ख़ुदावन्द जो तुम्हारा ख़ुदा है तुम्हारे भाईयों में से तुम्हारे लिए एक नबी ज़ाहिर करेगा। तुम उस की सुनो।

बनी-इस्राईल मूसा की मौत की ख़बर सुन कर घबरा गए थे। हज़रत मूसा उन को तसल्ली देता है और कहता है, तुम मत घबराओ मैं तो मर चला हूँ लेकिन ख़ुदावन्द तुम्हारा ख़ुदा तुम्हारे भाईयों में से तुम्हारे लिए एक नबी क़ायम करेगा। वो तुमको हिदायत करेगा तुम उस की सुनो। बनी-इस्राईल पर ख़तरा था कि मुल़्क-ए-कनआन में अगर बुत परस्तों के देव और ग़ैब दानों में जा कर अपनी चाल चलन की बाबत सलाह (मश्वरा) और हिदायत पूछे। हज़रत मूसा उनको इस मुक़ाम में इस ख़तरे से मुतनब्बाह (आगाह, ख़बरदार) कर रहा है और फ़रमाया है कि तुम कभी ऐसा मत करना। तुम बुत परस्तों के देओं और ग़ैब गोइयों के पास मत जाना। और तुम्हारा ख़ुदा तुम्हारे भाईयों में तुम्हारे लिए मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा। तुम उस की सुनों मैं हैरान हूँ कि किस तरह से इस बाब के पढ़ने वाले इस नबुव्वत को मुहम्मद साहब पर जो कि दो हज़ार बरस पीछे और एक ग़ैर-मुल्क में पैदा हुआ वारिद करते हैं। मुझे क़वी (मज़्बूत) उम्मीद है कि अगर इस नबुव्वत के क़रीना (तर्ज़, अंदाज़) पर ग़ौर करें और इस का आग़ा पीछा अच्छी तरह देख-भाल लें तो फ़ौरन मुहम्मद साहब का ख्व़ाब व ख़याल दिल से दूर हो जाएगा।

सोम मुझको ख़ुदा के कलाम से ख़ासकर तौरेत पर ग़ौर करने से साफ़ मालूम देता है, कि नबुव्वत या दीनी बरकत बनी-इस्माईल पर वाअदा नहीं है इसलिए बनी-इस्माईल के दर्मियान किसी नबी की तलाश करना ला-हासिल है। ये बात यूं साबित होती है, पैदाईश के 17 बाब की पहली से 8 तक जब अब्राम निनावें (99) बरस का हुआ तब ख़ुदावन्द अब्राम को नज़र आया और उस से कहा कि मैं ख़ुदा ए क़ादिर हूँ तू मेरे हुज़ूर चल और कामिल हो। और मैं अपने और तेरे दर्मियान अहद करता हूँ कि मैं तुझे निहायत बढ़ाऊँगा। तब अब्राम मुँह के बल गिरा और ख़ुदा उस से हम-कलाम हो कर बोला कि देख मैं तुझसे ये अहद करता हूँ, कि तू बहुत क़ौमों का बाप होगा और तेरा नाम फिर अब्राम ना रहेगा बल्कि तेरा नाम अबराहाम हुआ क्योंकि मैंने तुझे बहुत क़ौमों का बाप ठहराया। और मैं अपने और तेरे दर्मियान और तेरे बाद तेरी नस्ल के दर्मियान इनकी पुश्त दर पुश्त के लिए अपना अहद जो हमेशा का अहद है करता हूँ। कि मैं तेरा और तेरे बाद तेरी नस्ल का ख़ुदा होऊंगा और मैं तुझको और तेरे बाद तेरी नस्ल को कनआन का तमाम मुल्क जिसमें तू परदेसी है देता हूँ, कि हमेशा के लिए मालिक हो। और मैं उनका ख़ुदा होऊंगा फिर देखो (पैदाइश का 17 बाब पंद्रह से बीस आयत तक) और खुदा ने अबराहाम से कहा कि तू अपनी जोरू को सारी मत कह बल्कि उस का नाम सारा है। मैं उसे बरकत दूंगा और इस से भी तुझे एक बेटा बख्शूंगा मैं उसे बरकत दूंगा क़ौमों की माँ होगी और मुल्कों के बादशाह इस से पैदा होंगे। तब अबराहाम मुँह के बल गिरा और हंस के दिल में कहा कि क्या सौ बरस के मर्द को बेटा पैदा होगा। और क्या सारा जो नव्वे बरस की है जनेगी। और अबराहाम ने ख़ुदा से कहा कि काश इश्माइल तेरे हुज़ूर जीता रहे। तब ख़ुदा ने कहा कि बेशक तेरी जोरू सारा तेरे लिए एक बेटा जनेगी तू उस का नाम इज़्हाक़ रखना। और मैं इस से और बाद इस के उस की औलाद से अपना अहद जो हमेशा का अहद है करूँगा। और इसमाआईल के हक़ में मैंने तेरी सुनी देख में उसे बरकत दूंगा। और इसे बरूमंद करूँगा। और इसे बहुत बढ़ाऊँगा और इस से बारह सरदार पैदा होंगे। और मैं इसे बड़ी क़ौम बनाऊँगा।

लेकिन मैं इज़्हाक़ से जिसको सारा दूसरे साल जनेगी अपना अहद करूँगा। फिर (पैदाइश के 21 बाब की 12, 13 आयत) ख़ुदा ने अबराहाम से कहा कि वो बात जो सारा ने इस लड़के और तेरी लौंडी की बाबत कही तेरी नज़र में बुरी ना मालूम हो सब कुछ जो सारा ने तुझे कहा मान क्योंकि तेरी नस्ल इज़्हाक़ से कहलाएगी। और इस लौंडी के बेटे से भी एक क़ौम पैदा करूँगा क्योंकि वो तेरी नस्ल है। 18 ख़ुदा ने कहा कि ऐ हाजिरा उठ और लड़के को उठा कर अपने हाथ से सँभाल कि मैं इस को एक बड़ी क़ौम बनाऊँगा। इन आयतों को बग़ौर पढ़ने से ये उमूर बख़ूबी दर्याफ़्त हो जाएगा। अव्वल ये कि जब अबराहाम निनावें बरस का था ख़ुदा ने इस के साथ अहद बाँधा जो हमेशा का अहद है। और जिसका एक जुज़्व (हिस्सा) ये था, कि मैं तेरा और तेरे बाद तेरी नस्ल का ख़ुदा होऊंगा। और मैं तुझको और तेरे बाद तेरी नस्ल को कनआन का मुल्क जिसमें तू परदेसी है देता हूँ, कि हमेशा का मालिक हो और मैं उनका ख़ुदा होऊंगा। दूसरा अबराहाम के दो बेटे पैदा हुए एक इस्माईल हाजिरा लौंडी से और दूसरा इज़्हाक़ उस की बीबी सारा से।

तीसरा अपना अहद ख़ुदा ने जो अबराहाम के साथ किया था। इज़्हाक़ और इस की नस्ल में क़ायम किया इस वास्ते पौलुस रसूल रोमीयों के ख़त में यूं कहता है वो इस्राईली हैं और फ़र्ज़ंदी और जलाली और अहदनामा और शरीअत और इबादत और वाअदे इन्हीं के हैं। और बाप दादे इन्हीं के हैं। और जिस्म की निस्बत मसीह भी इन्हीं में से पैदा हुआ। जो सब का ख़ुदा हमेशा मुबारक है। (9 बाब की 4, 5 आयत) यानी सारी दीनी नेअमतें बनी-इस्राईल पर ख़ुदा ने नाज़िल कीं। यानी वो हमेशा का अहद कि मैं तेरा और तेरे बाद तेरी नस्ल के साथ पुश्त दर पुश्त करता हूँ कि मैं उनका ख़ुदा होऊंगा और वो मेरे लोग होंगे। ये अहद इब्राहीमी ख़ुदा ने इज़्हाक़ की नस्ल में क़ायम किया और फ़रमाया कि इस में इस्माईल शरीक नहीं होगा।

चौथा इस्माईल को भी ख़ुदा ने बरकत दी और वाअदा किया, कि इसे भी मैं बढ़ाऊँगा और इस से बारह सरदार पैदा होंगे। और मैं इसे बड़ी क़ौम बनाऊँगा। ख़ुदा ने इस्माईल के हक़ में सिर्फ दुनियावी बरकत का वाअदा किया और फ़रमाया कि दीनी बरकतें ख़ास इज़्हाक़ की नस्ल के लिए हैं। इसलिए मेरी नज़र में किसी क़िस्म की दीनी बरकतों की यानी ख़ुदा का कलाम या नबुव्वत की तलाश बनी इस्माईल के दर्मियान करना ला-हासिल है। ख़ुदा ने अपने कलाम में साफ़ फ़रमाया कि ये नेअमतें उनको ना मिलेंगी। मैं उम्मीद करता हूँ कि मेरे मुहम्मदी भाई जिन को सच्चे दीन की तलाश है इन बातों को जोकि मैं उनकी ख़िदमत में गुज़ारिश करता हूँ ग़ौर से मुतालआ करेंगे।

मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े किए हैं या नहीं?

अब हम इस बात पर कई एक सवाल करते हैं। सवाल अव़्वल क्या सब मुहम्मदी लोग हदीसों को मानते हैं? नहीं। हर शख़्स को मालूम है कि शीया सब हदीसों को नहीं मानते। सवाल दुवम किया सुन्नी तमाम हदीसों को क़ाबिल-ए-एतिबार समझते हैं कभी नहीं। ये बात साफ़ ज़ाहिर है कि सुन्नी हदीसों को दर्जा ब दर्जा मानते हैं। इस से वाज़ेह होता है कि उनके नज़्दीक

Whether Muhammad has done miracles or not?

मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े किए हैं या नहीं?

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan July 22, 1875

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 22 जुलाई 1875 ई॰

 तमाम अहले इस्लाम मुक़िर (राज़ी) हैं कि मुहम्मद साहब ने बहुत से मोअजिज़े दिखलाए हैं। अगर कोई उस के मोअजिज़े पर शक करे तो वो उन की नज़र में काफ़िर और मलऊन (जिस पर लानत की गई हो) है। मगर जो कोई तास्सुब (मज़्हब की बेजा हिमायत) और ज़िद को तर्क कर के हक़ का मुतलाशी (तलाश करने वाला) हो। उसे चाहिए कि इन बातों से हरगिज़ ना डरे। क्योंकि वो लोग जो अपने मज़्हब को बग़ैर सोचे और दर्याफ़्त किए सच्चा और दूसरों के मज़्हब को झूटा जानते हैं। वो अक्सर उस शख़्स को जो दीने हक़ की तहक़ीक़ात करना चाहता है तअन (ताने देना) और मलामत (बुरा भला) कहना करते हैं। और उस को मलऊन काफ़िर और तरह तरह का मुजरिम ठहराते हैं। मसलन अगर शाइस्ता आदमी उम्दा लिबास पहन कर नंगे वहशी आदमीयों में जा निकले। तो क्या वो उस के साथ नेक सुलूक से पेश आएँगे। हरगिज़ नहीं बल्कि पथराओ करेंगे इसलिए हमें मुनासिब है कि जिस क़द्र वो हमारे साथ सख़्ती और तअद्दी (नाइंसाफ़ी) करें। उस क़द्र हम हक़ के दर्याफ़्त करने में सई और कोशिश करें।

मुहम्मदियों को दाअवा है कि मुहम्मद साहब के बहुत से मोअजिज़ों का ज़िक्र हदीसों और क़ुरआन में मौजूद है। और मुहम्मद साहब की वफ़ात के बाद मुहम्मदियों ने भी बहुत से मोअजिज़े किए हैं। अब हम पर ये फ़र्ज़ है कि हत्तलमक़्दूर (जहां तक हो सके) इन चार बातों पर ख़ूब ग़ौर करें सब लोग जानते और इक़रार करते हैं, कि करामातों (मोअजिज़ों) को पुख़्ता शहादतों (गवाहों) से क़ुबूल करना चाहिए। और बग़ैर गवाही पुख़्ता के क़ुबूल करना मुनासिब नहीं। अव़्वल इनके हम इस दाअवे को तहक़ीक़ (छानबीन) करते हैं कि हदीसों में कैसी करामातों का ज़िक्र है। मसलन लिखा है कि एक रोज़ जब मुहम्मद साहब को हाजत हुई दरख़्त इकट्ठे हो कर उस के लिए जा-ए-ज़ुरूर (बैतूल-खला) बन गए।

अब हम इस बात पर कई एक सवाल करते हैं। सवाल अव़्वल क्या सब मुहम्मदी लोग हदीसों को मानते हैं? नहीं। हर शख़्स को मालूम है कि शीया सब हदीसों को नहीं मानते। सवाल दुवम किया सुन्नी तमाम हदीसों को क़ाबिल-ए-एतिबार समझते हैं कभी नहीं। ये बात साफ़ ज़ाहिर है कि सुन्नी हदीसों को दर्जा ब दर्जा मानते हैं। इस से वाज़ेह होता है कि उनके नज़्दीक भी हदीसें एतबार के लायक़ नहीं हैं। अब इनका ना-मोअतबर (नाक़ाबिल-ए-एतबार) होना चंद दलीलों से जो ज़ेल में मुन्दरज की जाती हैं, साबित है। मुहम्मद साहब की हयात (ज़िंदगी) में उनके पैरौ (मानने वाले) उन को बहुत ही अज़ीज़ जानते थे। लेकिन जब वो फ़ौत हो गए तो उन के पैरू (पीछे चलने वाले) कहने लगे, कि हज़रत ने हमसे ये बातें फ़रमाई थीं। ग़र्ज़ की हर एक उन में से यही कहता था, कि मुहम्मद साहब ने मुझे फ़ुलानी बात सुनाई। कुछ अर्से बाद मुहम्मद साहब की उन्होंने उन तमाम बातों को जमा करने का इरादा किया। और ये भी वाज़ेह हो कि सब लोग दाना (अक़्लमंद) नहीं होते। और ना सब लोग सच्चे होते हैं। जाहिल अपनी जहालत के सबब उन बातों को जो क़ाबिल-ए-एतबार नहीं लोगों को सुनाते थे। फ़िल-जुम्ला उन्होंने और और झूटों ने इज़्ज़त और हुर्मत (इज़्ज़त) पाने के लिए इन बातों का ज़िक्र लोगों के आगे किया। और इन तमाम बातों का ज़िक्र लोगों के आगे किया और इन तमाम बातों को जमा कर लिया। जब आलिमों ने इन बातों पर ग़ौर किया तब उन्होंने सोचा कि ये बातें बिल्कुल मानने के लायक़ नहीं हैं। मगर जो बातें उन को ज़रा भी अच्छी मालूम हुईं उन को अलेहदा (अलग) कर लिया। अब हमको क्योंकर मालूम हो कि वो बातें जिनको आलिमों ने तस्लीम किया रास्त (दुरुस्त) हैं। और जिनको उन्होंने रद्द किया ख़िलाफ़ हैं। क्योंकि अक़्लमंदों के नज़्दीक तहक़ीक़ करना इन उमूरात का मुहाल (दुशवार) है। ऐसी बातें क़ाबिल-ए-तस्लीम कभी नहीं हो सकतीं। सब लोग बख़ूबी जानते हैं कि जब कोई पेशवा या गुरु मर जाता है उस के पैरू या चेले उस के हक़ में अजीब अजीब बातें लोगों को सुनाते हैं। मगर कौन जानता है कि वो सब बातें सच्ची हैं। कोई दाना शख़्स ऐसी बातों पर बग़ैर सबूत यक़ीन नहीं कर सकता।

मैं अपने फायदे और नुक़्सान का कुछ भी इख्तियार नहीं रखता।

मसलन सिर्फ तीन चार सौ (400) बरस का अर्सा गुज़रा है कि बाबा नानक मर गया। उस के पैरू (मानने वाले) अब तक बहुत सी करामतों का ज़िक्र करते हैं। इन अजीब बातों में से एक तो ये है कि एक रोज़ बाबा नानक मक्का शरीफ़ गया और काअबा की तरफ़ पांव फैला कर सो गया। एक मुसलमान ने देखकर उसे गालियां दीं और कहा कि काअबा की तरफ़ तुमने क्यों पांव किया है। ये सुनकर बाबा नानक ने अपने पांव दूसरी तरफ़ कर लिए और सो रहा। इतने में काअबा भी फ़ील-फ़ौर उस के पांव की तरफ़ हो गया। क्या कोई मुहम्मदी इस करामत (ख़ूबी) को क़ाबिल-ए-एतिबार समझता है कोई नहीं।

पोशीदा ना रहे कि जब कोई आदमी अपना बड़ा महल बनाना चाहता है तो उसे बड़ी पुख़्ता (मज़्बूत) बुनियाद दरकार होती है। ताकि उस का मकान देर तक क़ायम रहे। इस तरह हमारे ईमान के लिए पुख़्ता न्यू दरकार है ना सिर्फ लोगों की बेहूदा बातें बल्कि ख़ुदा तआला का पाक कलाम।

अब हमें ये भी दर्याफ़्त करना चाहिए कि आया क़ुरआन से मुहम्मद साहब की करामातें साबित होती हैं, कि नहीं। सूरह क़मर की पहली आयत में लिखा है कि :-

“اقتربت الساعت وانشق القمر” यानी पास आ लगी वो घड़ी और फट गया चांद लेकिन अक्सर मुहम्मदी कहते हैं कि इस आयत में रोज़-ए-हश्र (क़ियामत के दिन) का ज़िक्र है और हमको इबारत से साफ़ मालूम नहीं होता है, कि इस में मुहम्मद साहब का ज़िक्र है। क्योंकि किसी का नाम इस में मुन्दरज नहीं किया गया। फिर सूरह बनी-इस्राईल की पहली आयत में लिखा है। سبحان الذی اسرً ا بعبد ہ الخ ۔ जिसके ये मअनी हैं पाक ज़ात है जो ले गया अपने बंदे को राती रात अदब वाली मस्जिद से पर ली मस्जिद तक फ़क़त।”

लेकिन इस आयत में भी मुहम्मद साहब का ज़िक्र नहीं है और मसीह की वफ़ात के चालीस बरस बाद टाइटस ने जो रूमी सिपाहसालार था इस मस्जिद को गिरा दिया था। और मुहम्मद साहब के वक़्त तक किसी ने इस जगह मस्जिद ना बनाई थी। और मुहम्मद साहब के वक़्त पर ये मस्जिद मौजूद ना थी। फिर वो किस तरह इस मस्जिद में गए। और कोई ये भी नहीं कह सकता कि फ़ुलाने ने इस मोअजिज़े को देखा। यानी मुहम्मद साहब का बैत-उल-हराम से बैतुल-मुक़द्दस तक जाना। ये भी वाज़ेह हो कि तवारीख़ की बातें सिर्फ़ गवाहों से साबित हो सकती हैं। जब इस बात का कोई पुख़्ता गवाह नहीं है तो ये किस तरह क़ाबिल-ए-एतिबार हो सकता है। ये भी पोशीदा ना रहे कि अगर कोई शख़्स कहे कि मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े किए हैं, तो वो सरासर क़ुरआन के बरख़िलाफ़ कहता है क्योंकि इस में बार-बार लिखा है कि मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े हरगिज़ नहीं किए। अगर दर्याफ़्त करना हो तो सूरह अनआम की इन आयतों में मुलाहिज़ा करो :-

36 आयत “قا لو الو لا نزل علیہ آیتہ ولکن اکثر ھم لا یعلمون ” और कहते हैं क्यों नहीं उतरी इस पर निशानी उस के रब से तू कह कि अल्लाह की क़ुद्रत है कि उतारे कुछ निशानी लेकिन न बहुतों को समझ नहीं और फिर इसी सूरह की एक सौ नौवीं आयत,

واقمواباللہ جھد ایما نہم لئن جاوتھم آیتہ منن بھاقل نما الا یت عنداللہ وما یشع کر انھا ذا جایت لا یومنون

और क़समें खाते हैं अल्लाह की कि अगर उनको एक निशानी पहुंचे अलबत्ता उस को मानें तू कह निशानियाँ तो अल्लाह के पास हैं और तुम मुसलमान क्या ख़बर रखते हो कि जब वो आएँगे तो ये ना मानेंगे।” एक सौ ग्यारवीं, اننا نزلینا الہم الملئکتہ و کلہم للتی وحشر نا علیم کل شی قبلا ما کانو الیو منوالا ان بشا اللہ ولکن اکثر ہم لچھلون और अगर हम न पर उतारें फ़रिश्ते और उनसे बोलें मुर्दे और जिला दें हम हर चीज़ को उन के सामने हरगिज़ मानने वाले नहीं। मगर जो चाहे अल्लाह पर ये अक्सर नादान हैं।” और एक सौ चौबीसवीं, و اذا جا ء تھم آیہ قالوالن نو من حتی نوتی مثل ما اوتی رسول اللہ اللہ علم جنث یجعلوا और जब पहुंचे उन को एक आयत कहें हम हरगिज़ ना मानेंगे। जब तक हमको ना मिले जैसा कुछ पाते हैं अल्लाह के रसूल अल्लाह बेहतर जानता है जहां भेजे अपने पयाम।”

 

फिर सूरह आराफ़ की एक सौ अठाईसवीं, رقل لا املک لنفسی نفعاو لا ضراً ماشا اللہ و لو کنت اعلم الغیب لا سکثرت من الخبر و مامنسی السوء ان اناالا نذیر و بشیر لقوم یومنون۔

“तू कह मैं मालिक नहीं जान के भले और बुरे का। मगर जो अल्लाह चाहे और अगर मैं जान करता ग़ैब की बातों की बहुत खूबियां लेता और मुझको बुराई कभी ना पहुँचती। मैं तो ये हूँ डर और ख़ुशी सुनाने वाला मानने वाले लोगों को।” बाक़ी आइंदा

बक़ीया, मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े किए हैं या नहीं

और सूरह बनी-इस्राईल की बानवें आयत से पिचान्वीं आयत तक :-

وقا لو الن نو من لک حتی لفجر لنامن الارض یجبنوعا ً اوتکون لک جنتہ من فخیل و عنب ففجرا کا نھم خللھا تففیراً اوتسقط السما ء کی زعمت علینا کسفا اوتاتی باللہ ولمکیکتہ قبیلا اویکون لک بیت من ذخرف و ترقی فی السماء ولن نومن رقیک حتی تنزل علینا کتبا تقر و قل سبحان ربی ھل کنت الا بشر رسولا

“और बोले हम ना मानेंगे तेरा कहा जब तक तू ना बहा निकाले हमारे वास्ते ज़मीन से एक चश्मा या हो जाये तेरे वास्ते एक बाग़ खजूर और अंगूर का फिर बना ले तू उस के बीच नहरें चला कर या गिरा दे आस्मान हम पर जैसा कहा करता है टूकड़े टूकड़े या ले आओ फ़रिश्तों को और अल्लाह को ज़ामिन या हो जाये तुझको एक घर सुनहरी या चढ़ जाये तू आस्मान में और हम यक़ीन ना करेंगे। तेरा चढ़ना जब तक ना उतार लादे, हम पर एक लिखा जो हम पढ़ लें तू कह सुब्हान-अल्लाह मैं कौन हूँ मगर एक आदमी हूँ भेजा हुआ फ़क़त।”

और इक्सठवीं आयत :-

وماسعنا ان نرسل باالا یت الا ان کذب بھا الا ولون و اتینا ثمو د الناقہ مبصر ۃ فظلمو بھاو مانرسل باا لا یت الا تخو یفا

“और हमने इस से मौक़ूफ़ (ठहराया गया) कीं निशानियाँ भेजनी कि अगलों ने उनको झुठलाया। और हमने दी समूद को ऊंटनी समझा ने को फिर उस का हक़ ना माना और निशानीयां जो हम भेजते हैं सो डराने को फ़क़त।” और सूरह अम्बिया की पांचवीं आयत, بل قالو اضغات احروم بل فتوہ بل ھو شاعر فلیا تنا بایہ کما ارسل الا ولون

ये छोड़कर कहते हैं उड़ती ख्व़ाब में नहीं झूट बांध दिया है नहीं शेअर कहता है फिर चाहे ले आए हमारे पास कोई निशानी जैसे पैग़ाम लाए हैं पहले।” अब इन आयतों पर ग़ौर करो और देखो इनमें साफ़ पाया जाता है कि मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े नहीं किए।

एक दफ़ाअ में ज्वालामुखी (एक इलाक़ा) को गया और उन लोगों से मुलाक़ात की जो मोअजिज़े करने का दावा करते थे। और हक़ीक़त में लोगों को फ़रेब देते थे। मैंने कहा कि मेहरबानी कर के मुझे भी कोई मोअजिज़ा दिखलाए। तब उन्होंने इन्कार किया क्योंकि उन्होंने जाना कि ये अच्छी तरह से तहक़ीक़ (तस्दीक़) करेगा। ऐसा ही जब मुहम्मद साहब इस दुनिया में थे तो बहुत लोग उनको भी कहते हैं कि हमें मेहरबानी कर के ऐसी चंद अलामतें जिनसे नबुव्वत साबित होती है दिखलाए। तो उन्होंने भी इन्कार किया और ये कहा कि ख़ुदा तआला ने ऐसी अलामतों का दिखलाना बंद कर दिया है क्योंकि अगलों ने झुठलाया। जब ये आयतें हम क़ुरआन से मुहम्मदियों को सुनाते हैं। तो वो जवाब देते हैं कि ईसा ने भी कहा कि बुरे लोग निशान ढूंडते हैं लेकिन उनको कभी दिखलाया ना जाएगा। बेशक जब लोगों ने मसीह को आज़माना चाहा उस ने मोअजिज़ा दिखलाने से इन्कार किया। लेकिन उस ने ये कभी नहीं कहा कि ख़ुदा तआला ने ऐसी अलामतों का दिखलाना बंद कर दिया है और ना ये कहा कि सुब्हान-अल्लाह मैं कौन हूँ मगर राह दिखाने वाला।

अब हम इस से ये मालूम करते हैं कि मुहम्मद साहब ने कोई मोअजिज़ा नहीं किया मगर ईसा को मोअजिज़ा करने का कुल इख़्तयार था और अगर वो चाहता तो उन लोगों को भी जो उसे आज़माना चाहते थे मोअजिज़े दिखलाता।

अगर मैं गैब कि बातें जानता होता तो बहुत से फायदे जमा कर लेता।

फिर मुहम्मद इक़रार करते हैं कि क़ुरआन ख़ुद एक मोअजिज़ा है। क्योंकि इस की इबारत ऐसी उम्दा है कि कोई आदमी उस के मुवाफ़िक़ बना नहीं सकता। मैंने माना कि ये सच्च है। मगर संस्कृत की इबारत भी बहुत ही अच्छी है। बेशक कोई शख़्स बेद की संस्कृत इबारत की मानिंद नहीं बना सकता। और बड़े बड़े पण्डित भी कहते हैं कि बेद (हिन्दुवों की किताब) की संस्कृत इबारत की मानिंद कोई बशर नहीं बना सकता। फिर मुहम्मद किस तरह उस को मोअजिज़ा कहते हैं। अगर कोई आदमी ऐसा बड़ा दरख़्त देखे जिसके बराबर और कोई बड़ा दरख़्त ना हो तो वो मोअजिज़ा तसव्वुर नहीं किया जाता। सब लोग जानते हैं कि दाऊद के वक़्त एक पहवान मुसम्मा जोलियत था जिसे उस ने मार डाला था उस के क़द के मुवाफ़िक़ कोई दूसरा शख़्स ना था। मगर कोई शख़्स इतने बड़े क़द को मोअजिज़ा नहीं कहता था। कोई मुहम्मदी होमर की मानिंद यूनानी इबारत और गुल की मानिंद लातीनी इबारत और कालीदास की मानिंद संस्कृत इबारत हरगिज़ नहीं बना सकता है। फिर क्या ये भी मोअजिज़ा होगा? फिर अक्सर मुहम्मदी कहते हैं कि मुहम्मद साहब के वक़्त भी कोई शख़्स ऐसा ना था कि ऐसी इबारत बनाने की लियाक़त (क़ाबिलीयत) रखता। बल्कि तमाम लोग यही इक़रार करते थे, कि क़ुरआन की इबारत के मुवाफ़िक़ कोई बशर इबारत नहीं बना सकता। कौन जानता है कि मुहम्मद साहब के वक़्त सब लोग ऐसा ही कहते थे सब दाना आदमी जानते हैं कि आजकल फ़्रांस जर्मनी इंग्लिस्तान अस्ट्रिया अमरीका वग़ैरह मुल्कों में बहुत लोग इब्रानी योनानी संस्कृत और अरबी ज़बान को बख़ूबी पढ़ते हैं। और उन ज़बानों की किताबो को अच्छा कमा-हक़्क़ा (ठीक ठाक, बख़ूबी) समझते हैं। मगर किसी शख़्स ने कभी नहीं कहा कि क़ुरआन की इबारत दूसरी ज़बानों की इबारत से फ़ौक़ियत (सबक़त) रखती है। अगर मुहम्मदी इब्रानी योनानी संस्कृत और लातीनी ज़बान को तहसील (हासिल) करें तो बड़ा फ़ायदा उठाएं।

क्योंकि इन ज़बानों में निहायत उम्दा और क़दीमी किताबें लिखी गई हैं मसलन वो लोग जो दिल्ली में रहते हैं उन्होंने और कोई बड़ा आलीशान शहर नहीं देखा। वो तो ज़रूर यही कहेंगे कि दिल्ली की मानिंद और कोई शहर दुनिया की सतह पर नहीं है। अगर वो और मुल्कों की भी सैर करें और सेंट पीटरज़ बर्ग वायना मास्को, पार्स, न्यूयार्क, लीवर पोल, लंडन, वग़ैरह शहरों को देखकर फिर दिल्ली की तारीफ़ जैसी पहले करते थे हरगिज़ ना करेंगे और और शहरों पर उसे फ़ौक़ियत ना देंगे। इसी तरह अगर मुहम्मदी सेसरवीमा सतहर व रजल हारिस होमर मिल्टन वग़ैरह मुसन्निफ़ों की किताबें पढ़ें। और क़ुरआन से उनका मुक़ाबला करें तो वो भी ज़रूर कहेंगे कि इन किताबों की इबारत बेशक क़ुरआन की इबारत से उम्दा है।

ये भी वाज़ेह हो कि इबारत मज़्मून से ऐसी निस्बत रखती है जैसी पोशाक (लिबास) आदमी से, इस का मतलब ये है कि बुरे लोग भी अच्छी पोशाक पहन सकते हैं। अब बेहतर ये है कि हम इबारत की फ़िक्र हरगिज़ ना करें। लेकिन मतलब पर ख़ूब ग़ौर करें। अगर क़ुरआन की ताअलीम सब मज़्हबी किताबों की ताअलीम से अच्छी हो तो मैं इस को ज़रूर ख़ुदा का कलाम समझूंगा। और मानूँगा लेकिन इस का ज़िक्र आगे किया जाएगा। फिर मुहम्मदी कहते हैं कि मुहम्मद साहब के पैरओं ने बेशुमार मोअजिज़े किए हैं इस बात का ज़िक्र करना ला-हासिल है। क्योंकि जब मुहम्मद साहब के मोअजिज़े साबित ना हुए तो उन के पैरओं के मोअजिज़े किस तरह साबित हो सकते हैं। आइंदा

मज़्हब का अस्ल काम क्या है?

जैसा हम लोग मज़्हब के नाम से कुछ काम करते या करना चाहते हैं। वैसा ही मज़्हब ख़ुद हमारे लिए कुछ काम करता है। और जहां जानबीन (दोनों जानिब से, फ़रीक़ैन) के काम बराबर हो जाएं वहां कहा जाएगा कि मज़्हब की तक्मील हुई।

What is the Purpose of Religion?

मज़्हब का अस्ल काम क्या है?

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan March 20, 1884

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 20 मार्च 1884 ई॰

जैसा हम लोग मज़्हब के नाम से कुछ काम करते या करना चाहते हैं। वैसा ही मज़्हब ख़ुद हमारे लिए कुछ काम करता है। और जहां जानबीन (दोनों जानिब से, फ़रीक़ैन) के काम बराबर हो जाएं वहां कहा जाएगा कि मज़्हब की तक्मील हुई।

आम लोगों के ख़यालात मज़्हब की निस्बत सिर्फ उन्हीं कामों पर मुन्हसिर पाए जाते हैं, जो वो मज़्हब के नाम से करते हैं और बस। वो मज़्हब की बैरूनी अलामात की पाबंदी ज़रूरी समझते हैं। यानी एक मज़्हब का जामा पहन लेना मसलन चोटी और जेनियु (वो बटा हुआ धागा जिसे हिंदू लोग बुद्धहि की तरह गले में डालते रहते हैं) का क़ायम रखना। खतना और शरई मूछों का लिहाज़ रखना इस्तबाग (बपतिस्मा) लेना वग़ैरह-वग़ैरह। वो समझते हैं कि पूजापाट और ज़ोहद व रियाज़ (पाकीज़गी की मश्क़) करना। दान पुन क़ुर्बानी और ज़कात का देना। वाअज़ व ताअलीम और इबादत में अपने आपको मसरूफ़ रखना। हज और तीर्थ (मुक़द्दस मुक़ाम जहां लोग नहाने और यात्रा के लिए जाते हैं) के लिए दूर दराज़ सफ़र करना मज़्हब है।

लेकिन मैं कहता हूँ कि ये मज़्हब के काम नहीं हैं। बहुत लोग तारिक-उल-दुनिया (दुनिया को छोड़कर) हो कर गोशा नशीन (तन्हाई में रहने वाला) या

बन मानुस बन जाते हैं। और ज़बान से अल्लाह अल्लाह या राम-राम जपना और जिस्म को तरह तरह की तक़्लीफों में डालना मज़्हब का काम समझते हैं लेकिन ये मज़्हब नहीं है। बहुत से मुसलमान सूफ़ी तर्क तअय्युन और बहमा औसत की क़ील व क़ाल (बातचीत, गुफ़्तगु) और हिंदू ज्ञानी (आलिम, फ़ाज़िल) मह्ज़ ज्ञान (इल्म, अक़्ल, फ़हम) के चर्चे को मज़्हब समझे हुए हैं। लेकिन ये इसी क़िस्म की गुफ़्तगु है जो फ़िलोसफ़ी या मन्तिक़ी मुबाहिसों में काम देती है। और जिसमें हार जीत का दर्जा मद्द-ए-नज़र रहता है पर वो मज़्हब नहीं है। बहुत लोग दिन या साल के मुक़र्ररा वक़्तों की इबादत का नाम मज़्हब रखते हैं। गोया मज़्हब को एक शुग़्ल समझते हैं जो ख़ास वक़्तों में काम देता है और बाक़ी औक़ात में तह कर के धर दिया जाता है। बहुत लोग नेचर (दुनिया, क़ुद्रत, फ़ित्रत) की आड़ में छिप कर इलावा पाबंदीयों से आज़ादी हासिल कर लेते हैं। और मह्ज़ उन्हीं बातों को मानते हैं जिनको उन की अक़्ल नेचर से महदूद कर सकती है। और इसी का नाम मज़्हब रखते हैं। लेकिन ये मज़्हब नहीं है। बाअज़ वाइज़ों की पुर तासीर कलाम और बाअज़ मुसन्निफ़ों की असर अंगेज़ तहरीर हमारी आँखों से आँसू बहा देती है। और गुनाहों की ख़राबी और ज़िल्लत इस दर्जे तक दिखाती है, कि हम एक दम के लिए बिल्कुल डर जाते और दिल में कोशिश करते हैं कि गुनाह से तौबा करें और फिर कभी उस के गर्द न भटकें।

दुनिया में जैसे नेक लोग हैं वैसे बद (बुरे) भी हैं

लेकिन ये बस नहीं है ये सब वही काम हैं जो हम मज़्हब के लिए करते हैं। और इनमें वो शामिल नहीं हैं जो मज़्हब हमारे लिए करता है और गो हमारे वो काम एक तरह से मज़्हबी काम हैं क्योंकि मज़्हब की पाबंदी में सरज़द होते हैं ताहम हमारे किए और मज़्हब के किए हुए कामों में बड़ा फ़र्क़ है। मज़्हब के लिए आप काम करना और मज़्हब को अपने ऊपर करता हुआ पाना दो मुख़्तलिफ़ ख़बरें हैं हमारे काम करने के साथ ज़रूर है कि मज़्हब भी हम पर अपना काम करे और हमारी रूहों में तब्दीली पैदा कर दे।

अल-मुख़्तसर मज़्हब हमारी अक़्ल या हमारे जिस्म का काम नहीं है ख़ुदा की बाबत ख़ाली खुली सोच रखना मज़्हब नहीं है इस के हुज़ूर चढ़ावा चढ़ाना ख़्वाह हाथ से हो ख़्वाह मुँह से मज़्हब नहीं है नफ़्सकुशी और तर्क-ए-आलाइक़ (ताल्लुक़ात, बखेड़े) और अपने आप में ज़ोहद व याज़त (पाकीज़गी की मश्क़) की आदत डालना भी मज़्हब नहीं है अलबत्ता ये सब बातें मज़्हब में शरीक हो सकती हैं। और मज़्हब के काम का नतीजा कही जा सकती हैं इल्ला मज़्हब नहीं हैं पस जब ये नहीं तो सवाल पैदा होता है कि फिर मज़्हब का काम क्या है?

मज़्हब का अस्ल काम क्या है?

हम अपने पिछले पर्चे नम्बर 12 में दिखला चुके हैं कि मज़्हब इंसान की अख़्लाक़ी ज़रूरीयात को पूरा करता। और अपनी तासीर (अमल, नतीजा, ख़ासियत) से उसे ऐसा बना देता है, कि वैसा और तरह से बनना मुहाल (मुश्किल) है और यह सच्च है। क्योंकि मज़्हब एक आस्मानी ताक़त है और आस्मानी ताक़त के बग़ैर इंसान ख़ुद अपनी कोशिशों से ख़ुदा की नज़र में जचने के क़ाबिल नहीं ठहर सकता। लेकिन इंसानी ज़रूरीयात एक और क़िस्म की भी हैं जो अक्सर उस के दिल में खटकती हैं। और वो भी मज़्हब की इमदाद के सिवा और किसी चीज़ से पूरी नहीं हो सकतीं।

हम अपनी तबीयत में दो मुख़्तलिफ़ ख़्वाहिशें देखते हैं, जो अपने होने में दोनों ज़बरदस्त हैं। एक नेक काम करने की और दूसरी बदी करने की। और अक्सर बदी की ख़्वाहिश को नेकी पर ग़ालिब (ज़ोर-आवर) पाते हैं। और यही ख़याल हमको एक ख़दशा में डालता और एतराज़ पैदा करता है, कि क्या ये दोनों मुतज़ाद सिफ़तें क़ुदरती हैं अगर क़ुदरती हैं तो ऐसा क्यों हुआ। ये तो किसी तरह ख़याल नहीं किया जा सकता कि मआज़-अल्लाह ख़ुदा, नापाक या बेमुंसिफ़ (इन्साफ़ न करने वाला) है। क्योंकि हम तबई तौर पर उस को ग़ायत व नेक ग़ायत (अंजाम) या गायत बयान करने वाला और क़ादिर-ए-मुतलक़ मानते हैं। और ऐसे ख़ौफ़नाक ख़याल को मुश्किल से जगह दे सकते हैं कि वो अपनी मख़्लूक़ात की कुछ परवाह नहीं करता। और उमूमन उस को नफ़्सानी जोशों के रहम पर छोड़ता ही नहीं। हम बज़ाते यक़ीन करते हैं कि ख़ुदा जैसा क़ादिर-ए-मुतलक़ है वैसा ही मुतलक़ पाक और मुतलक़ प्यार है। वो हरगिज़ नहीं चाहता कि उस की मख़्लूक़ात हलाकत के रास्ते में चले या सीधे राह से भटके। पस जब ये यक़ीन है तो फिर हमारी मौजूदा अंदरूनी हालत का तज़बज़ब (शक व शुब्हा) क्यों है। अब इस तज़बज़ब के हटाने में ना हमारी अक़्ल कुछ काम कर सकती है और ना हमारा कान्शियस (इन्सानी ज़मीर) कुछ इमदाद दे सकता है। और आख़िरश (आख़िरकार) हमको मज़्हब की तरफ़ रुजू होना पड़ता है। क्योंकि इस का ईलाज मह्ज़ मज़्हब के हाथ में है वही उसकी तर्दीद कर सकता है और वही अपनी तासीर से इस खटकता को दिल से साफ़ निकाल है।

फिर जब हम चारों तरफ़ इस वसीअ दुनिया को देखते हैं तो इस में बेशुमार बे तर्तिबियाँ पा कर एक और नए मज़्हब में पड़ जाते हैं।

हम देखते हैं कि दुनिया में जैसे नेक लोग हैं वैसे बद (बुरे) भी हैं। लेकिन नेक हमेशा अपने इरादों में कामयाब नहीं देखे जाते हालाँकि बद (बुरे) जिनको हम ख़राब जानते हैं अक्सर बा मुराद और बाइकबाल नज़र आते हैं। नेक आदमी जिनसे दुनिया को नेक फ़ायदे पहुंचते या पहुंचने वाले हैं। बहुत से जवान उम्र में मरते और अपनी जोरु, बच्चे वग़ैरह को अपने रिश्तेदारों या ग़ैरों के रहम पर छोड़कर चल बस्ते हैं। हालाँकि एक शरीर आदमी जो लोगों को नुक़्सान पहुंचा कर ख़ुश होता है अपनी पूरी उम्र तक जीता और तमाम बैरूनी हालतों में महफ़ूज़ नज़र आता है। और ये सिर्फ एक जगह या एक ख़ास वक़्त का इत्तिफ़ाक़ नहीं है बल्कि हर जगह और हर वक़्त बराबर देखा जाता है। पस अगर कोई नेक और क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा मौजूद है। जो हमेशा नेक आदमीयों को बीमार करता और बदी से मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाला) है। तो बहुत से नेक आदमी तामर्ग क्यों ना ख़ुश और ख़राब आदमी उम्र-भर ख़ुश रहते हैं। हमारी अक़्ल ऐसे सवालों के जवाब की अशद ज़रूरत रखती है क्योंकि बग़ैर मिलने शाफ़ी जवाब के वो दुनिया के मालिक-ए-कुल पर कामिल भरोसा नहीं रख सकती।

नेक हमेशा अपने इरादों में कामयाब नहीं देखे जाते

हमारी अक़्ल जब इस तरह के अंदरूनी और बैरूनी मख़्सूस में पड़ जाती है और देखती है कि नेक और बद का अंजाम मौत है। जिसके नाम से हर एक ज़िंदा मख़्लूक़ काँपती है तो इस की वजह दर्याफ़्त करना चाहती है। वो सवाल करती है कि नेक ख़ुदा अपनी मख़्लूक़ात को बदी के फंदे में क्यों फंसने देता है अगर वो उस का नेक होना पसंद करता है तो क्यों उस को बिल्कुल नेक नहीं पैदा करता। गो बाअज़ लोग रफ़्ता-रफ़्ता इसी दुनिया में नेक बन जाते हैं। मगर बहुत सी मुसीबत और तक्लीफ़ के बाद फिर अगर वो नेकों का दोस्त है तो नेकों को तक्लीफ़ में क्योंकर देख सकता है। ये तो नहीं हो सकता बाअज़ का क़ौल है कि दुनिया मह्ज़ एक खेल है जिसको उस बड़े खिलाड़ी ने मह्ज़ अपने दिल बहलाने के वास्ते फैला रखा है। नहीं बेशक इस में कोई आला मतलब मद्द-ए-नज़र है जो हमारे इदराक (अक़्ल) से बाहर है और ज़रूर इस में कोई ना कोई भारी सर मस्तंर है जिसका इफ़शा (ज़ाहिर होना) हम पर अज़ ख़ुद नहीं हो सकता और ना हम ख़ालिक़ की मुहब्बत और उस की मुतलक़ क़ुद्रत पर आसानी से क्योंकर यक़ीन कर सकते।

अल-मुख़्तसर क्या वजह है कि जब वो नेक है और हमसे नेकी चाहता और हमको नेक बना सकता है और फिर नहीं बनाता। हमको तमाम बुराईयों से महफ़ूज़ रखना चाहता और रख सकता है और फिर नहीं रखता। ख़ुद बदी से नफ़रत करता है और फिर रोकने की क़ुद्रत रखता है और फिर नहीं रोकता। इन सवालों का जवाब मज़्हब के मुताल्लिक़ है और सच्चा मज़्हब है इन मुअम्मों (उलझे हुए मसले) को हल करता और हमारी तस्कीन कर सकता है और अगर ना करे तो फिर उस के होने का फ़ायदा ही क्या है।

 

मज़्हब का अस्ल काम क्या है?

 

हम अपने पिछले पर्चे में दिखला चुके हैं कि मज़्हब का अस्ल काम इंसान की अख़्लाक़ी और अक़्ली ज़रूरीयात का पूरा करना है। और अब इस आर्टीकल में सिर्फ इस अम्र के बतलाने की कोशिश करेंगे कि सच्चे मज़्हब की पहचान क्या है।

अगर हम तहज़ीब अख़्लाक़ की कुल बातों का जो देख़ने में भली और अक़्ल को ख़ुश करने वाली हैं। लब-ए-लबाब (खुलासे का ख़ुलासा) लेकर अपने लिए एक दस्तूर-उल-अमल (क़ानून, रिवाज) बना दें। और उस को मज़्हब क़रार दें। तो ये बस नहीं होगा या अपने चारो तरफ़ नज़र दौड़ा दें। और जो बातें हमारे मज़ाक़ के पसंद हों या हमारे ख़यालात को तहरीक (हरकत देना) दे सकती हों कुछ यहां और कुछ वहां से इंतिख़ाब कर के उस का नाम मज़्हब रखें। तो ये भी काफ़ी नहीं है कि हमारे लिए एक असली और मोअस्सर ताक़त की ज़रूरत है, जो हम पर अपना असर डाले और अपनी तासीर से हम में ऐसा नतीजा पैदा करे जिसकी अज़मत और फ़ज़ीलत हम अपने पिछले पर्चों में बयान कर चुके हैं। ये सच्च है कि दुनिया में बाअज़ मज़ाहिब ऐसे मौजूद हैं। जो आदमजा़द की ज़रूरीयात को किस क़द्र कम व बेश पूरा कर सकते हैं। लेकिन जब कि कुल ज़रूरीयात पर हावी (ग़ालिब) नहीं हैं इस वास्ते तस्कीन (तसल्ली) के क़ाबिल नहीं हैं। हम मज़्हब को इलाही ताक़त मानते हैं। जो मह्ज़ ख़ुदा हमारे ख़ालिक़ की जानिब से हमको उस की मर्ज़ी के मुताबिक़ बनाने के लिए तहरीक पाती है और जो मज़्हब उस की जानिब से आता ही है। हक़ीक़त में इस सिफ़त (ख़ूबी) से मौसूफ़ (जिसकी तारीफ़ की जाये) पाया जाएगा, वही बज़ाते क़वी (ज़ोर-आवर, ताक़तवर) और मज़्बूत होगा। और वही अस्ल में सच्चा मज़्हब और हमारी तबीयत की कुल ज़रूरीयात और ख़्वाहिशों को पूरा कर सकेगा। और जब उस का मिंजानिब अल्लाह होना साफ़ और माक़ूल (मुनासिब) शहादतों (गवाहियों) से साबित होगा तो वही एतिक़ाद (यक़ीन) और एतिमाद के क़ाबिल होगा। वर्ना इंसान उस मज़्हब से कभी तस्कीन नहीं पा सकता। क्योंकि उस में ना ज़ाती वहदानियत (तौहीद) है और ना मोअस्सर ताक़त।

हम दरख़्त में मज़बूती लचक और ख़ूबसूरती तीनों सिफ़तें मुश्तर्क पाते हैं। और ये इस बाइस से है कि ख़ुदा ने ख़ुद उस को अपनी क़ुदरत-ए-कामिल से उगाया है और वो एक ही जड़ से बढ़कर अपने पूरे क़द व क़ामत और ताक़त को पहुंच गया है। लेकिन अगर हम ख़ास अपनी सनअत से एक दरख़्त बना दें जो अस्ल में पीपल का दरख़्त हो और उस पर जामुन का छिलका चढ़ा कर आम की टहनियां और उन पर नीम की पत्तियाँ जमा दें। और शगूफ़ों की जगह गुलाब के फूल और फल की जगह सेब लगा दें तो वो किसी काम का नहीं होगा क्योंकि उस में ना ताक़त होगी ना इस्तिमाल का फ़ायदा और ना ख़ूबसूरती।

पस मज़्हब भी एक ज़िंदा दरख़्त ख़ास ख़ुदा की पैदाइश का होना चाहिए। जिसमें इंसानी ज़रूरीयात के लिहाज़ से सख़्ती, लचक और ख़ूबसूरती बराबर पाई जाएं और जड़ की मज़बूती भी। ताकि उस दरख़्त को आंधीयों के तूफ़ान से जो अक्सर उस के गर्द उमंडे रहते हैं महफ़ूज़ रख सके। इंसान की नफ़्सानी शहवतों के जोश उस की मग़रूरी उस की ख़ुदी उस की ख़ुदग़रज़ी उस के शकूक सब के सब मज़्हब के लिए ख़ौफ़नाक तूफ़ान हैं और मह्ज़ वही मज़्हब जिसकी जड़ मज़्बूत होगी उन के मुक़ाबले में क़ायम रह सकेगा और दूसरा नहीं।

जब ये हालत है तो फिर एक ऐसे मज़्हब पर जो अपनी सच्चाई के सबूत की कुल्ली (पूरा) इत्मीनान नहीं दिला सकता भरोसा करना गोया सराब (धोका) से आब तलाश करना है। और इस वास्ते इंसान का हक़ बल्कि उस का फ़र्ज़ है कि मज़्हब की जड़ यानी अस्लियत की ख़ूब तहक़ीक़ करे और देखे, कि वो ख़तरे के वक़्त मज़्बूत रह सकता है या नहीं और नीज़ ये कि वो मेरे हक़ में क्या कर रहा है। अगर हमारी मौजूद हालत बमुक़ाबला गुज़श्ता हालत के इस अम्र का यक़ीन नहीं दिला सकती कि हम पिछले साल की निस्बत किस क़द्र बेहतर हो गए हैं। या देखते हैं कि अपने नफ़्स-ए-अम्मारा के मुफ़सिद (फ़साद करने वाला) जोशों को बनिस्बत साबिक़ कुछ ज़्यादा मुतीअ (ताबे) नहीं कर सकते। या अपने कमज़ोर कंगाल और मुसीबतज़दा हम-जिंसों की हम्दर्दी का ख़याल पहले से बढ़कर नहीं रख सकते या ख़ुदी और ख़ुदग़रज़ी हमारी तबीयत से आगे की निस्बत कुछ कम नहीं हुई। तो ये अमरूद शक़ों से ख़ाली ना होगा या तो हमारा मज़्हब झूटा है। जो अपने कामों में सच्चाई की तासीर मुतलक़ नहीं दिखला सकता। और बाहम दीदा व दानिस्ता (जान-बूझ कर) अपनी ज़ईफ़-उल-एतिक़ादी (कमज़ोर एतिमाद) का और शूरा पुश्ती (लड़ाई, झगड़ा) से उस की तासीर अपने दिल पर जमने नहीं देते। पस दोनों हालतों में हमें ख़ुदा से दुआ मांगनी चाहिए, कि वो हमको कामिल रोशनी और कामिल ताक़त बख़्शे ताकि हम उस का सच्चा रास्ता देखने और उस पर ताज़ीस्त (तमाम उम्र) साबित क़दम रहने पर क़ादिर हो जाएं और अपने आपको ऐसा बनाएँ जैसा वो हमारा बनना पसंद करता है।

हम बड़े अफ़्सोस से लिखते हैं कि जनाब सय्यद मौलवी यूसुफ़ हामिद मसीही ने 13 अप्रैल 1884 ई॰ को जनरल हॉस्टल मदारिस में बा-रज़ा जिगर इंतिक़ाल किया। साहब मासूर बड़े सर-गर्म देसी मसीहियों में से एक मसीही थे बलिहाज़ इल्मीयत व तजुर्बा कारी एक मशहूर आलिम थे। जब से ये मसीही हुए थे। इशाअत मज़्हब ईस्वी में बड़ी कोशिश करते रहे ख़ुसूसुन गुज़श्ता सह माही में बड़ी सर गर्मी के साथ शहर मद्रास में अहले इस्लाम के साथ दीनी मुबाहिसा जिसका ज़िक्र सिलसिला-वार अख़्बार नूर अफ़्शां में शाएअ हो चुका है। हमको उम्मीद है कि उन के तमाम काम ज़रूर फल दिखाएँगे। अगर कोई साहब उनकी मुख़्तसर और सच्ची सवानिह उम्र लिख कर हमारे पास रवाना करें तो इस को हम बखु़शी तमाम अपने अख़्बार में जगह देंगे। आख़िर में हम दुआ करते हैं कि ख़ुदावन्द उनके रिश्तेदारों और दोस्तों को सब्र और तसल्ली बख़्शे। आमीन

दीन-ए-ईस्वी सब के लिए है

चंद रोज़ हुए एक तर्बीयत याफ्ताह हिंदू रईस ने हमसे बयान किया। मसीह अख़्लाक़ी मुअल्लिमों में से सबसे अच्छा था और हर एक बात जो उसने फ़रमाई आपके लिए सच्च व रास्त (दुरुस्त, ठीक) है। लेकिन ये ताअलीम हमारे लिए ना थी। बाइबल में कहीं नहीं लिखा कि वो हमारे लिए थी। ख़ैर देखा जाएगा अज़रूए बाइबल के मसीह की पैदाइश से थोड़ी देर बाद एक फ़रिश्ते

Christianity is for everyone

दीन-ए-ईस्वी सब के लिए है

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan March 11, 1875

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 11 मार्च 1875 ई॰

चंद रोज़ हुए एक तर्बीयत याफ्ताह हिंदू रईस ने हमसे बयान किया। मसीह अख़्लाक़ी मुअल्लिमों में से सबसे अच्छा था और हर एक बात जो उसने फ़रमाई आपके लिए सच्च व रास्त (दुरुस्त, ठीक) है। लेकिन ये ताअलीम हमारे लिए ना थी। बाइबल में कहीं नहीं लिखा कि वो हमारे लिए थी। ख़ैर देखा जाएगा अज़रूए बाइबल के मसीह की पैदाइश से थोड़ी देर बाद एक फ़रिश्ते ने कई एक चौपानों (चरवाहे, गडरीए) पर ज़ाहिर हो कर कहा मैं तुम्हें एक बड़ी ख़ुशख़बरी सुनाता हूँ। जो सब लोगों के वास्ते है ये ख़ुशख़बरी नजातदिहंदा की पैदाइश थी। इसी जगह लिखा है कि मजूसी मशरिक़ से यरूशलम में उस की परस्तिश करने को आए। ज़ाहिर होता है कि मशरिक़ किसी दौर के मुल्क से मुराद है अग़्लब (मुम्किन) है कि फ़ारस हो। पस मसीह की पैदाइश के वक़्त कम से कम दो क़ौमों के लोग उस पर ईमान लाए और फ़रिश्ते ने बयान किया, कि वो सब आदमीयों के लिए बचाने वाला होगा। तीस बरस की उम्र में मसीह मुनादी करने लगा।

अब देखना चाहिए कि उसने किन लोगों को ताअलीम दी इस एक आदमी ने एक मज़्हब की बुनियाद डालनी चाही कोई मसीही ना था कोई ऐसा आदमी ना था जिसने उसे पहले क़ुबूल किया हो, ताकि वो उस की तरफ़ मुख़ातिब हो कर अपने मसाइल सुना सके। इस बात पर उस ने कभी इशारा ना किया, कि मेरे पैरों (पीछे चलने वाले) सिर्फ एक ही क़ौम के आदमी होंगे। इलाही इंतिज़ाम के मुवाफ़िक़ वो दुनिया में यहूदी हो कर आया और यहूदीयों के दर्मियान मुनादी करनी शुरू की। लेकिन उस ने अपनी ताअलीम उन्हीं के दर्मियान महदूद ना रखी। सामरी लोग यहूदीयों के गिरोह से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ क़ौम थी मसीह ने उन्हें सिखलाया। और बाअज़ उनमें से उस पर ईमान लाए रूमी सूबेदार और कनआन के बाअज़ आदमीयों का ज़िक्र है जो मसीही हुए। जब यरूशलम में सब क़ौमों से बहुत से आदमी जमा हुए मसीह ने अपनी ताअलीम में कभी ना फ़रमाया, कि मेरा कलाम बनिस्बत और क़ौमों के यहूदीयों के लिए ज़्यादा है अगरचे उस ने पहले यहूदीयों के दर्मियान मुनादी की तो भी बहुतेरे उस पर ईमान ना लाए। इसी लिए उस ने बादअज़ां अपने शागिर्दों को हुक्म दिया कि और लोगों के पास जाएं।

अब हम उस के कलाम में से चंद एक बातें पेश करेंगे। जो इस मज़्मून पर गवाही देती हैं। हम उन्हें मत्ती की इन्जील से निकालेंगे 8 बाब की 11, आयत में लिखा है मैं तुमसे कहता हूँ कि बहुतेरे पूरब और पक्षिम से आएँगे। और अबराहाम और इज़्हाक़ और याक़ूब के साथ आस्मान की बादशाहत में दाख़िल होंगे। इस से ये मअनी हैं कि बहुत सी क़ौमों के लोग मसीही होंगे। 12 बाब की 50 आयत में मसीह ने फ़रमाया जो कोई मेरे बाप की जो आस्मान पर है मर्ज़ी पर चलेगा। वही मेरा भाई और बहन और माँ है। जो कोई ख़्वाह यहूदी या ग़ैर क़ौम अंग्रेज़ या हिंदू ख़ुदा की मर्ज़ी पर चलता है मसीह से अज़ीज़ रिश्ता रखता है। 13 बाब की 37, 38 आयात में उस ने अपने तईं और अपने मुनादी के काम को एक बीज बोने वाले किसान से तश्बीह देकर फ़रमाया, कि वो जो अच्छा बीज बोता है इब्ने आदम है और खेत दुनिया है मसीह की अक्सर ताअलीम में साफ़ कहा जाता है, कि ये उन के वास्ते है जो सुने और जहां ये नहीं कहा जाता तो भी यही मुराद है। फ़िक़्रह ज़ेल हिंदू के हक़ में कैसी अच्छी मुनासबत (ताल्लुक़) रखता है जिनमें से बाज़ों को अगर मसीह पर ईमान लाएं कैसी तक्लीफ़ बर्दाश्त करनी पड़ती है। 16 बाब की 24 से 27 आयत तक यूं लिखा है, अगर कोई आदमी मेरे पीछे आना चाहे तो वो अपना इन्कार करे। और अपनी सलीब उठा कर मेरी पैरवी (फ़रमांबर्दारी) करे। क्योंकि जो कोई अपनी जान को बचाना चाहे उसे बचाएगा। क्योंकि आदमी को क्या फ़ायदा है अगर सारी दुनिया को हासिल करे। और अपनी जान को खोदे या आदमी अपनी जान के बदले क्या दे सकता है। फिर 18 बाब की 4 आयत जो कोई इस छोटे लड़के की मानिंद अपने तईं हक़ीर (छोटा) जानेगा वही आस्मान की बादशाहत में सबसे बड़ा होगा। और फिर 11 आयत में इब्ने आदम खोए हुओं को बचाने के लिए आया है। मसीह हर एक गुनेहगार को जो ख़ुदा से बर्गश्ता (भटका हुआ) हुआ बचाने को आया। 24 बाब में मसीह दुनिया के ख़त्म होने से पेश्तर अपनी दूसरी आमद के अलामात के बयान करने में 14 आयत में यूं फ़रमाता है, कि बादशाहत की ये ख़ुशख़बरी दुनिया में सुनाई जाएगी। ताकि सब क़ौमों पर गवाही हो और उस वक़्त आख़िर आएगा। बहुत सी और ऐसी आयात पेश की जा सकती हैं। लेकिन हम सिर्फ एक और पेश करेंगे। सारे आस्मान और ज़मीन का इख़्तियार मुझे दिया गया है इसी लिए तुम जा कर तमाम क़ौमों में मुनादी करो और बाप और बेटे और रूह-उल-क़ुद्दुस के नाम से बपतिस्मा दो और उन्हें सिखलाओ कि उन सब बातों को जिनका मैंने तुम्हें हुक्म दिया है मानें और देखो मैं हमेशा दुनिया के आख़िर तक तुम्हारे साथ हूँ।

क्या इन अल्फ़ाज़ का ज़्यादातर सफ़ाई से बयान हो सकता है, कि मसीह ने अपनी ताअलीम से हिन्दुओं और अंग्रेज़ों के लिए जैसा कि यहूदीयों के लिए इरादा किया था उस के सऊद (आस्मान पर चढ़ना) से सिर्फ दस रोज़ बाद बड़ी ईद के वक़्त जब कि यरूशलेम में हमेशा बहुत से मुसाफ़िर जमा हो जाते थे। मसीहियों पर वहां रूह-उल-क़ुद्दुस का अजीब नुज़ूल (नाज़िल) हुआ। जिसके सबब से तीन हज़ार आदमी मसीही हुए। ये बहुत ही मुख़्तलिफ़ क़ौमों और एशीया अफ़्रीक़ा और यूरोप के मुख़्तलिफ़ हिस्सों के थी। अग़्लब (मुम्किन) है कि बहुत से उन में हिन्दुस्तान से भी दूर के मुल्कों से आए होंगे। लेकिन अमरीका और इंग्लिस्तान से नहीं आए थे। अगर बाइबल बाशिंदगान अमरीका के लिए सच्च है तो हिन्दू के वास्ते भी वैसी ही सच्च है। पस ये मसीह के इस दुनिया को छोड़ने के बाद जल्द ज़ाहिर हुआ कि उस का आना सब लोगों के लिए बड़ी ख़ुशी का मसर्रदह (बशारत) साबित होना था। फ़ौरन शागिर्द तमाम मुल्कों में जाने लगे और बाज़ों ने हिन्दुस्तान में भी आकर मसीह की नजात की बशारत (ख़ुशख़बरी) दी।

अब अगर मसीह ने वैसी ही ताअलीम दी जैसा कि उसी के कलाम से ज़ाहिर होता है कि वो सब गुनेहगारों के बचाने को आया और अगर हर एक बात जो उस ने फ़रमाई सच्च है तो हिन्दू को उसे क़ुबूल करना चाहिए।

अगर हिंदू किसी और तरह से नजात पा सकते हैं तो या तो मसीह ने बहुत ही फ़रेब (धोका) खाया वो एक फ़रेबी था क्योंकि उस ने कहा कि कोई बाप के पास बग़ैर मेरे आ नहीं सकता। इलावा अज़ीं अगर मसीह अख़्लाक़ी मुअल्लिमों में सबसे अच्छा था जैसा कि बहुत से हिंदू क़ुबूल करते हैं। तब क्यों हिन्दू को अच्छी बात ना माननी चाहिए जब कि वो इस बात को मान सकते या नहीं मान सकते हैं। दीने ईस्वी का सब लोगों के लिए होना उस की एक आला फ़ज़ीलत (इल्म व फ़ज़्ल) है ख़ासकर ये उस वक़्त दिलकश है, जब कि वो दीन-ए-हनूद से मुक़ाबले किया जाता है। जो और सबको रद्द कर के कहते हैं कि ये सिर्फ़ हमारे ही वास्ते है। सिर्फ एक ही ख़ुदा है और सब आदमीयों ने उस के हुज़ूर गुनाह किया है। लेकिन ख़ुदा ने अपनी मेहरबानी से अपने इकलौते बेटे को दुनिया में भेजा है ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।

इलावा अज़ी उस ने फ़रमाया है ज़मीन पर आदमीयों के दर्मियान कोई दूसरा नाम नहीं बख़्शा गया। जिससे हम नजात पा सकें। अगर मसीह सब हिन्दू के वास्ते मुआ है और अपने शागिर्दों को हुक्म दिया है कि उन को मिस्ल सारी दुनिया को उस की बड़ी मुहब्बत की ख़बर दें तो क्या और मुल्कों के मसीहियों और ख़ासकर उन को जिन्हों ने इन में से मसीह को क़ुबूल किया है। हत्तल-इम्कान कोशिश ना करना चाहिए कि इस हुक्म को मानें। और अगर कोई भी हुक्म ना होता तो मसीह की रूह उस के पैरौओं (पीछे चलने वाले) को ऐसा मिज़ाज बख़्शती कि वो वही ख़बर देते जिससे वो ख़ुद बरकत पा चुके थे।