दुआ यानी दो धारी तल्वार

मुझे कामिल (पूरा) यक़ीन है, कि जो लोग अक़्ल और इल्म पर ज़्यादा भरोसा रखते हैं। मेरी इस सरगुज़िश्त (माजरा) को सुनकर हँसेंगे। लेकिन मसीही ईमानदारों के नज़्दीक ये बात ना-मुम्किनात से नहीं होगी। क्योंकि अक्सर कई एक वाक़ियात उन के तजुर्बे से गुज़रे होंगे।

Prayer is Two Edge Sword

दुआ यानी दो धारी तल्वार

By

Dena Nath Shad
दीनानाथ शाद

Published in Nur-i-Afshan Dec 7, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 7 दिसंबर 1894 ई॰

मुझे कामिल (पूरा) यक़ीन है, कि जो लोग अक़्ल और इल्म पर ज़्यादा भरोसा रखते हैं। मेरी इस सरगुज़िश्त (माजरा) को सुनकर हँसेंगे। लेकिन मसीही ईमानदारों के नज़्दीक ये बात ना-मुम्किनात से नहीं होगी। क्योंकि अक्सर कई एक वाक़ियात उन के तजुर्बे से गुज़रे होंगे।

तख़मीनन डेढ़ साल का अर्सा गुज़रा है, कि यक-ब-यक मुझे खांसी और तख़मा (बद-हज़मी) की बीमारी ने आ पकड़ा। अव़्वल अव़्वल मैंने चंद ईलाज जो बुज़ुर्गों की ज़बानी सुने थे किए। लेकिन कुछ फ़ायदा ना हुआ। बाद मैंने अक्सर यूनानी हुकमा की अदवियात को आज़मा देखा लेकिन सेहत कहाँ (सेहत तो ख़ुदावंद के लबों में पाई जाती है।) इस के बाद मैंने अंग्रेज़ी डाक्टरों की तरफ़ रुख किया लेकिन किसी का मुआलिजा सूदमंद (फ़ायदा) ना हुआ। और बीमारी ने मुझे ऐसा दबाया, कि ना तो बदन में ताक़त छोड़ी ना दिमाग़ में क़ुव्वत बाअज़ बाअज़ वक़्त जब मैं निहायत लाचार (बेबस) हो जाता था। तो मेरी ज़बान से अक्सर, बातें ख़ुदावंद की शान के बरख़िलाफ़ निकलती थीं।

ऐ नाज़रीन मेरी उस वक़्त की मुसीबत अय्यूब की मुसीबत से कम ख़याल ना करना शायद अपने हलाक होने में देरी ज़रा ना थी। बिस्मिल था नीम-जाँ को तो चश्म बक़ा ना थी। तरफ़ माजरा ये कि बावजूद इस सब मुसीबत के मैं ऐसा संगदिल (बेरहम) था, कि शिफ़ायाबी के लिए कभी ख़ुदा से दुआ ना मांगता था। क्योंकि मेरा ख़याल था कि शिफ़ायाबी के लिए दुआ माँगना फ़ुज़ूल बात है। क्या ख़ुदावंद नहीं जानता, कि मेरा बंदा बीमार है? वो आप ही शिफ़ा बख़्शेगा।

आख़िरकार

एक रात को मुझे इस मर्ज़ ने ऐसा तंग किया, कि मैं ज़ार ज़ार रोने लग गया। और इसी हालत में दुआ माँगना शुरू कर दिया। लेकिन ज़बान से तो ना रोने की आवाज़ और ना दुआ के अल्फ़ाज़ निकल सकते थे। दिल ही दिल में रो-रो कर और आँसू बहा कर ख़ुदावंद की मिन्नत करता था। कि ऐ ख़ुदा बाप इस बीमारी से अपने प्यारे बेटे येसू मसीह की ख़ातिर मुझे नजात बख़्श। आमीन

उसे फ़ज़्ल करते नहीं लगती बार

ना हो उस से मायूस उम्मीदवार

सिर्फ बारह या पंद्रह मिनट ही में मेरी हालत बिल्कुल बदल गई। और मुझे कामिल (पूरा) यक़ीन हो गया, कि अब बीमारी का नाम व निशान भी बाक़ी नहीं है। और दर-हक़ीक़त ऐसा ही ज़हूर (इज़्हार, वक़ूअ) में आया।

तब रूह-उल-क़ुद्दुस ने

मुझे ये तहरीक (किसी बात को शुरू करना, हरकत देना) दिलाई, कि ख़ुदावंद की बख़्शिश का इज़्हार जहां तक हो सके, ज़रूर करना चाहिए। लेकिन मैंने सिर्फ एक दो मौक़े पर ख़ुदावंद की इस बड़ी बख़्शिश का तज़्किरा (ज़िक्र) किया। इस के बाद मेरे अपने दिल से भी ये बात उठ गई। जिसकी सज़ा में मैं फिर बीमार हो गया। और फिर बदस्तूर साबिक़ (पहला, अव्वल) बहुत से मुआलिजात (ईलाज) किए लेकिन किसी से फ़ायदा ना हुआ। आख़िर फिर दुआ की तरफ़ रुजू किया और शिफ़ा पाई। तब मैंने यक़ीन जाना कि दुआ फ़िल-हक़ीक़त दो-धारी तल्वार है। जिसका ख़ाली-अज़-तासीर (असर, नतीजा) होना दुशवार (मुश्किल) है।

सफ़ीर हासिल हुई सेहत मदद रूह पाक से। तक़्दीर वर्ना अपनी तो ऐसी रसा ना थी।

मेरी ग़र्ज़ इस सरगुज़श्त के दर्ज नूर-अफ्शां कराने से ये है, कि पिछले साल मुझे एक मसना सौंपा गया था। जो कि मैंने रूमाल में लपेट के ज़मीन में दफ़न कर दिया। जिसकी सज़ा में मुझे रोना और दाँत पीसना पड़ा लेकिन अब के साल मुझे दो मसना सौंपी गई हैं। इसलिए मैं एक तो सर्राफ़ (साहूकार, मालदार) की कोठी में जमा कराता हूँ। ताकि सूद समेत लूं। और एक से आप व्यपार (कारोबार) करने का इरादा है। ताकि बढ़होतरी हो। और जिस वक़्त मेरा मालिक मुझसे हिसाब मांगे उस से अर्ज़ करूँ, कि देख तेरी इस मसनाने दो और पैदा किए तब मेरा मालिक मुझे अपनी ख़ुशी में शामिल करे आमीन।

ये भी उस के साथ था

फ़िक़्रह मुन्दरिजा उन्वान लूक़ा की इन्जील के बाईस्वीं बाब की छप्पनवीं (22:56) आयत में मज़्कूर है। इस के मतलब पर थोड़ी देर के लिए ग़ौर और फ़िक्र करें। ताकि नाज़रीन नूर-अफ़्शां ख़्वाह हिंदू हों, ख़्वाह मुसलमान इस तारीकी से जो अभी तक ब्रिटिश इंडिया के बाअज़ मख़्फ़ी हिसस (छुपे हिस्सों) में छाई हुई है। निकल कर आफ़्ताब सदाक़त (सच्चाई का सूरज) के परतो जलाल (जलाली साया) से मुनव्वर जाएं।

He was also with Him

ये भी उस के साथ था

By

Kaidar Nath
केदार नाथ

Published in Nur-i-Afshan Dec 7, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 7 दिसंबर 1894 ई॰

फ़िक़्रह मुन्दरिजा उन्वान लूक़ा की इन्जील के बाईस्वीं बाब की छप्पनवीं (22:56) आयत में मज़्कूर है। इस के मतलब पर थोड़ी देर के लिए ग़ौर और फ़िक्र करें। ताकि नाज़रीन नूर-अफ़्शां ख़्वाह हिंदू हों, ख़्वाह मुसलमान इस तारीकी से जो अभी तक ब्रिटिश इंडिया के बाअज़ मख़्फ़ी हिसस (छुपे हिस्सों) में छाई हुई है। निकल कर आफ़्ताब सदाक़त (सच्चाई का सूरज) के परतो जलाल (जलाली साया) से मुनव्वर जाएं।

मिस्र के बादशाह फ़िरऔन ने बनी-इस्राईल को क्यों सताया? इसलिए कि याक़ूब के मिस्र में ख़ुश बाश होने के कुछ अर्से पेश्तर एक क़ौम से जो हिकसॉस कहलाती थी। और जो गल्लाबानी करती थी। शाहान-ए-मिस्र को सख़्त तक्लीफ़ पहुंची थी। मज़्कूर फ़िरऔन और उस की रियाया ने अपने वहम में ये ख़याल किया कि यक़ीनन ये भी वही हैं। ऐसा ना हो, कि उनकी तरक़्क़ी फिर हमारे ज़वाल (नाकामी, पस्ती) का बाइस ठहरे। पस उन्होंने बनी-इस्राईल को अज़ीयत पहुंचाने पर कमर बाँधी। उन की औलाद नरिना (लड़के) क़त्ल की गई उन से ख़िश्त पज़ी (ईंटें पकाना) की बेगार ली (बग़ैर मज़दूरी) और उज्रत कोड़ी ना दी। यहां तक, कि उन की हलाकत की ख़्वाहिश में आप ही दरिया-ए-क़ुलज़ुम में ग़र्क़-ए-आब (पानी में डूबे) हुए।

आज तक हमारे हिंदू भाई आलमगीर को बदी के

हमारे मुल्क हिन्दुस्तान में सुल्तान औरंगज़ेब मुहम्मद आलमगीर ने एक हिंदू फ़िर्क़ा सत नारायन से मुतवहि्ह्श (नफ़रत करने वाला) हो कर कुल हिंदूओं पर इस ख़ामख़याली से, कि ये भी वही हैं। इस क़द्र सख़्ती रवा रखी, कि आज तक हमारे हिंदू भाई आलमगीर को बदी के साथ याद करते हैं।

वालिया भोपाल के शौहर मुतवफ़्फ़ी (वफ़ात पाने वाला) अमीर-उल-मुल्क वाला जाह नवाब सिद्दीक़ अल-हसन ख़ान साहब भी इसी मर्ज़ लाइलाज में मुब्तला हो कर राहे मुल्क-ए-अदम (मरने के बाद की जगह) हुए।

1857 ई॰ में बाद कंपनी बहादुर कारतुस मुँह से काटे जाने के हुक्म पर अमरीकन पादरीयों और हिन्दुस्तानी मसीहियों का सताया जाना। जानों से मारा जाना। अभी तक हमारी आँखों के सामने होलनाक नज़ारा मौजूद है।

क़ैसर मलिका मुअज़्ज़मा दाम इक़बालहा के अहद-ए-मादिलत (अदल व इन्साफ़ का दौर) महद में बाद नफ़ा ज़ाएकट असलाह हिंदूस्तानियों के मसीह को क़ुबूल करने पर ये कहना कि अब तो ये साहब लोग हो गए। कोट पतलून पहनेंगे। छुरी कांटे से खाएँगे। फिर इस पर ये कहता, कि मस के इश्तियाक़ (शौक़) में ईसाई हो गए रोटियों का सहारा हो गया। बे-धरम हो गए। अब तो आबदस्त से भी छूटे। फिर मसीहियों से सख़्त नफ़रत और अदावत (दुश्मनी) हर वक़्त लान तअन (लानत) कुँओं से पानी भरने की मुमानिअत (मना करना)

अब मैं कहता हूँ, कि अगर मसीही भी वही हैं। और इसी लिए उन की हिक़ारत (ज़िल्लत, नफ़रत) करना और उनको तक्लीफ़ पहुंचाना हमारे हिंदू मुहम्मदियों के वहम में मुतमक्किन (क़रार पकड़ने वाला, जागज़ीन) है। तो मेहरबानी कर के ज़ेल की मुश्किल को हल कर दें। जो निहायत ख़तरनाक है। इस अक़्दह (गिरह, मुश्किल) के खोलने में यक़ीनन हमारे हम-अस्र नूर अला नूर तो ज़रूर है कुछ ना कुछ रोशनी इनायत (तवज्जोह) फ़रमाएँगे। क्योंकि :-

मैदान अख़्बार तंग नहीं, और पाए क़लम लंग नहीं

देखिए गुज़श्ता तवारीखे हिन्द पर नज़र डालने से साबित हो चुका है, कि ब्रिटिश गवर्नमेंट की मुसावी (बराबर, यकसाँ) कोई सरकार इस मुल्क-ए-हिंद को नसीब नहीं हुई रेल, तार, जहाज़, शिफ़ाख़ाना, मदरिसा, सड़क, पुल, मुख़्तलिफ़ कलें (मशीनें) अस्बाबे तिजारत। छापा वग़ैरह इस मुल्क को कब मिला था?

मज़्हबी आज़ादी, हिंदू संख (बड़ी कोड़ी जो मंदिरों में बजाई जाती है) बजाएँ। मुल्ला बाँग लगाऐं ब्रहमो समाज, देव समाज, आर्या समाज, सिंह सभा, धर्म सभा, अंजुमन हिमायत इस्लाम, इशाअत-उल-सुन्नत, तहज़ीब-उल-अख़लाक़ एक ऐसी शक्ल जिसके अज़ला मुख़्तलिफ़, और गोशा ग़ैर मुसावी। फिर भी चेन चान अमन अमान ख़ुश गुज़राँ। पस ईसाईयों से इनाद व अदावत (लड़ाई दुश्मनी) मह्ज़ इस ग़र्ज़ से कि ये भी वही हैं यानी उसी ख़ुदावंद येसू मसीह को मानते हैं, जिसे अंग्रेज़ भी अपना नजातदिहंदा जानते हैं। اولیٰ الام منکم की साफ़ तफ़्सीर (तश्रीह, वज़ाहत) है या नहीं और, الناس علے دین ملوکھم के ख़िलाफ़ तक़रीर है या नहीं?

मसीह का जी उठना

क़ब्ल इस के, कि हम मसीह के जी उठने की निस्बत यूरोपियन मुल्हिदों (दीन से फिरे हुए, काफ़िर) और मुनकिरों (इन्कार करने वाले) के क़ियास रुयते ख़्याली (ज़हूर के ख़्याली अंदाज़े लगाना) के तर्दीदी मज़्मून के सिलसिले को ख़त्म करें। ये मुनासिब मालूम होता है,

Ressurection of Jesus Christ

मसीह का जी उठना

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Dec 7, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 7 दिसंबर 1894 ई॰

 

 

 

क़ब्ल इस के, कि हम मसीह के जी उठने की निस्बत यूरोपियन मुल्हिदों (दीन से फिरे हुए, काफ़िर) और मुनकिरों (इन्कार करने वाले) के क़ियास रुयते ख़्याली (ज़हूर के ख़्याली अंदाज़े लगाना) के तर्दीदी मज़्मून के सिलसिले को ख़त्म करें। ये मुनासिब मालूम होता है, कि वो एक और उस की हक़ीक़ी रवैय्यतों मुन्दरिजा अह्दे-जदीद (नया अहदनामा) का ज़िक्र करें। ताकि बख़ूबी मालूम हो जाये, कि बक़ौल लूक़ा तबीब कातिब-ए-इन्जील “उस ने अपने शागिर्दों पर अपने मरने के पीछे अपने आपको बहुत सी क़वी (मज़्बूत) दलीलों से ज़िंदा साबित किया” था। जी उठने के बाद की उस की मुख़्तलिफ़ कम अज़ कम दस रवैय्यतों (ज़हूर) का बयान अहदे जदीद में मिलता है। जिनसे ना सिर्फ उस का शागिर्दों का बेयक निगाह नज़र आना। और फ़ौरन ग़ायब हो जाना। बल्कि बदेर उन के साथ हम-कलाम होना। उन के साथ खाना। और अपनी जिस्मानी हैयत (जिस्मानी साख़त) कज़ाई को ज़ाहिर करना साबित होता है। गुज़श्ता ईशू (मसलन) में उस का अमाऊस की राह में दो शागिर्दों को नज़र आने। उन के हमराह गुफ़्तगु करते हुए मकान तक पहुंचने। और उन के साथ रोटी खाने में शरीक होने का ज़िक्र किया गया।

और तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठा

और अब हम एक और रुयते (दीदार) का ज़िक्र करेंगे। जिससे ख़्याली रुयते का क़ियास कुल्लियतन बातिल (झूट) व आतिल ठहरेगा। और साबित व ज़ाहिर होगा, कि कोई ख़्याली ग़ैर-हक़ीक़ी सूरत नहीं। बल्कि वही मसीह था जो बैत-लहम में पैदा हुआ। नासरत में परवरिश पाई। जो क़रीब साढे़ तीन बरस तक अपने शागिर्दों के दर्मियान रहा। यरूशलेम के कूचों में फिरा। हैकल में वाज़ किया। मोअजज़ात दिखलाय। और बिलआख़िर मस्लूब व मदफ़ून (सलीब पर चढ़ा व दफ़न हुआ) हुआ। और तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठा। और अपने शागिर्दों को इसी मस्लूब शूदा जिस्म से बार-बार दिखलाई दिया। चुनान्चे यूहन्ना रसूल अपनी इन्जील के 20 बाब में लिखता है, कि हफ़्ता के पहले दिन यानी इतवार की शाम को जब कि शागिर्द एक मकान में, जिसके दरवाज़े यहूदीयों के डर से बंद कर रखे थे। जमा थे और ग़ालिबन इन्ही बातों का तज़्किरा बाहम कर रहे थे कि इतने में येसू उन के दर्मियान आ खड़ा हुआ। और उन्हें कहा तुम पर सलाम। और वो उस को देखकर ख़ुश हुए लेकिन तोमा इस रुयते (दीदार) के वक़्त ग़ैर-हाज़िर था। और जब और शागिर्दों ने उस से कहा, कि हमने ख़ुदावंद को देखा है। तो उस ने उन के कहने पर यक़ीन ना किया। और कहा कि “जब तक कि मैं उस के हाथों में कीलों के निशान ना देखूं। और कीलों के निशानों में अपनी उंगलीयां ना डालूं जो भाले से छेदा गया था कभी यक़ीन ना करूँगा।” तोमा की इस दरख़्वास्त तहक़ीक़ात मूशिगाफ़ (बारीक बीन) और इत्मीनान बख़्श के लिए हम उस पर बे-एतिक़ादी (शक करना) या गुस्ताख़ी का इल्ज़ाम नहीं लगा सकते। क्योंकि अगरचे वो अपने साथीयों की सदाक़त व रास्ती की निस्बत बदज़न (शक्की, बदगुमान) ना था। ताहम अक़्ल इंसानी के नज़्दीक ऐसे एक ग़ैर-मुम्किन अल-वक़ूअ। अम्र को दूसरों से सुन लेने। और यक़ीन करने की बनिस्बत दह बचश्म ख़ुद देखना (ख़ुद अपनी आँख से देखना) और ना सिर्फ देखना, बल्कि छूना। और ख़ातिर-ख़्वाह इत्मीनान हासिल कर के यक़ीन करना बदर्जा हा बेहतर समझता था। इलावा अज़ीं ख़ुद ख़ुदावंद ने भी उस की ऐसी राज़ जो तफ़्तीश को दाख़िल गुस्ताख़ी ना समझा और उस के हस्बे दिल-ख़्वाह (दिली-ख़्वाहिश) तमानियत (इत्मीनान) बख़्शने से उस को महरूम व मायूस ना किया। चुनान्चे लिखा है, कि “आठ रोज़ के बाद जब उस के शागिर्द जमा थे। और तोमा उन के साथ था। तो दरवाज़ा बंद होते हुए येसू आया। और बीच में खड़ा हो कर बोला, तुम पर सलाम फिर उस ने तोमा को कहा, कि अपनी उंगली पास ला। और मेरे हाथों को जिनमें आहनी मेख़ों (कीलों) के ज़ख़्म थे देख। और अपना हाथ पास ला। और उसे मेरे पहलू में जो भाले से छेदा गया था डाल। और बेईमान मत हो। बल्कि ईमान ला” और यूं तोमा, जब कि वो क़ुव्वत-ए-बासिरा (देखने की क़ुव्वत)  सामिआ (सुनने वाला) और लासिर के ज़रीये मालूम कर चुका। तो ना सिर्फ उस को हक़ीक़ी फिर ज़िंदा हुई इन्सानियत व जिस्मानियत का, बल्कि उस की उलूहियत का क़ाइल व मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) हो गया। और बिला-ताम्मुल (बग़ैर सोचे समझे) सर-ए-तस्लीम झुका कर कहा, “ऐ मेरे ख़ुदावंद। और ऐ मेरे ख़ुदा” जिस पर ख़ुदावंद ने फ़रमाया कि, ऐ तोमा इसलिए कि तू ने मुझे देखा तू ईमान लाया है। मुबारक वो हैं जिन्हों ने नहीं देखा, तो भी ईमान लाए।

अब हम उन लोगों से जो मसीह की ख़्याली रुयते (वहमी नज़ारे) के क़ियास को पेश करते और उस के फ़िल-हक़ीक़त जी उठने को ग़ैर-मुम्किन समझते सवाल कर सकते हैं, कि क्या ये बयान सिर्फ किसी ख़्याली रुयते (वहमी नज़ारे) का है? क्या ख़्याली रुयते अपनी जिस्मानियत को इस तरह पर साबित करने के लिए मुस्तइद व आमादा हो सकती। और किसी मुश्ताक़ रुयते (नज़ारे) के साथ ऐसी सराहत (तश्रीह, वज़ाहत) के साथ इस क़द्र अर्से तक हम-कलाम हो कर इस के शकूक औहाम (शक व वहम) दिली को रफ़ा दफ़ाअ कर सकती है? कौन मुहक़्क़िक़ (तहक़ीक़ करने वाला) और तालिब सदाक़त (सच्चाई का चाहने वाला) ऐसे बे-बुनियाद क़ियास (अंदाज़ा) को बमुक़ाबला ऐसी साफ़ और वाज़ेह तहरीरी शहादतों (सबूतों) के क़ुबूल कर सकता है?

 

मसीह ने दुख उठाए

अब हम मसीह के मुर्दों में से जी उठने के मुख़ालिफ़ एक तीसरे क़ियास (ज़हन, सोच बिचार) का ज़िक्र करेंगे। जिसको यूरोप के मशहूर मुल्हिदों (बेदीन, काफ़िर) मिस्ल इस्ट्राओस, रेनन वग़ैरह ने पसंद कर के पेश किया है। और वो ये है कि जी उठे मसीह की रुवैय्यतें (रुयते की जमा, सूरत का नज़र आना) हक़ीक़ी

Christ Suffered

मसीह ने दुख उठाए

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Nov 30 , 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 30 नवम्बर 1894 ई॰

और (येसू ने) उन से (अमाऊस बस्ती में दो शागिर्दों से) कहा, कि यूं लिखा, और यूं ही ज़रूर था, कि मसीह दुख उठाए और तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठे।
इंजील शरीफ बमुताबिक़ रावी लूक़ा 24:46

अब हम मसीह के मुर्दों में से जी उठने के मुख़ालिफ़ एक तीसरे क़ियास (ज़हन, सोच बिचार) का ज़िक्र करेंगे। जिसको यूरोप के मशहूर मुल्हिदों (बेदीन, काफ़िर) मिस्ल इस्ट्राओस, रेनन वग़ैरह ने पसंद कर के पेश किया है। और वो ये है कि जी उठे मसीह की रुवैय्यतें (रुयते की जमा, सूरत का नज़र आना) हक़ीक़ी व ख़ारिजी ना थीं। बल्कि सिर्फ़ अंदरूनी तसव्वुरात मोतक़िदीन (एतिक़ाद रखने वाले) और उन की नज़र का धोका थीं। जो अक्सर ख़्वाहिश व सर गर्मी और इंतिज़ारी से बहरे हुए दिलों में पैदा हो जाया करती हैं। इस क़ियास (अंदाज़ा) के जवाब में हम बमाक़ुलियत कह सकते हैं, कि मसीह के शागिर्दों को हरगिज़ ये यक़ीन ना था। कि वो फिर जी उठेगा। दरहालेका निहायत पुर अज़ीयत मौत के सदमे से मुआ (मरा)। उस के हाथों और पांव में आहनी मेंखें (कील) ठोंकी गईं। और उस का पहलू भाले से छेदा गया। और इस दर्द-नाक हालत में वो छः घंटे तक बराबर उसी सलीबे जान सतां (जान लेने वाला) पर आवेज़ां (लटका) रहा। वो क्योंकर ऐसे मस्लूब व मक़्तूल के जी उठने के मुंतज़िर हो सकते थे? अक़्ल-ए-इन्सानी हरगिज़ इस अम्र मुहाल (नामुम्किन काम) को तस्लीम नहीं कर सकती, कि किसी ऐसे मक़्तूले जफ़ा (ज़ुल्म व ज़्यादती से क़त्ल हुआ) के पहर ज़िंदा हो जाने का कोई शख़्स मुंतज़िर हो सके इलावा अज़ीं बक़ौल यूहन्ना रसूल, “वो हनूज़ उस नविश्ता (लिखा हुआ, तहरीरी सनद) को ना जानते थे। कि मुर्दों में से उस का जी उठना ज़रूर है।” यूहन्ना 20:9 और “वो उस कलाम को आपस में रख के चर्चा करते थे, कि मुर्दों में से जी उठने के क्या मअनी हैं।” मर्क़ुस 9:10 पस हम रेनन के फ़र्ज़ी क़ियास को हरगिज़ क़ुबूल नहीं कर सकते कि मसीह के जी उठने और नज़र आने की हक़ीक़त सिर्फ उस के शागिर्दों की ख़्वाहिश व इंतिज़ारी उन के दिलों में पैदा हो जाने पर मबनी (बुनियाद रखने की जगह) है। मासिवा इस के, कि वो जी उठे मसीह की रवैय्यतों के देखने के लिए मुंतज़िर और पेश मीलान (तवज्जोह, ख़्वाहिश) हालत में ना थे। मसीह ने उन पर अपने को सिर्फ एक ही दफ़ाअ, और एक ही तौर व तरीक़ पर ज़ाहिर नहीं किया।

 

बल्कि मुख़्तलिफ़ औक़ात में और मुल्क की मुतफ़र्रिक़ जगहों में ऐसे साफ़ तौर पर ज़ाहिर किया, कि जो ख़्याली रुयते के ख़याल से मुतलक़ (आज़ाद) कुछ भी इलाक़ा नहीं रखता। चुनान्चे लूक़ा लिखता है, कि उसी दिन इनमें से दो शख़्स जो यरूशलेम से अमाऊस बस्ती को, जो पौने चार कोस के फ़ासिला पर थी। इन वाक़ियात की निस्बत आपस में बातचीत करते हुए चले जाते थे, कि यकायक एक तीसरा शख़्स उन के पास पहुंचा। और उन के साथ साथ उन की बाहमी गुफ़्तगु को सुनता हुआ उन के हमराह हो लिया। जिसको उन्होंने अपनी मानिंद कोई मुसाफ़िर समझा। और ना जाना कि वो ख़ुदावंद मसीह है। और जब उस ने उन से कहा, कि ये क्या बातें हैं। जो तुम आपस में करते जाते। और उदास नज़र आते हो? तो उन्होंने इस ताज़ा माजरे का बयान ब तफ़्सील तमाम उस से किया जिसको सुनकर उस ने उन से कहा, कि “ऐ नादानो! और नबियों की सारी बातों के मानने में सुस्त मिज़ाजो! क्या ज़रूर ना था, कि मसीह ये दुख उठाए। और अपने जलाल में दाख़िल हो?” और बावजूद ये कि “उस ने मूसा और सब नबियों से शुरू कर के वो बातें जो सब किताबों में उस के हक़ में थीं उन के लिए तफ़्सीर (तश्रीह, तफ़्सील) कीं।” ताहम उन्होंने उस वक़्त तक ना जाना, कि ये मसीह ही है। जो हमसे बातें कर रहा है। ये ख़्याली रुयते (नज़ारा, दीदार) का ख़ास्सा नहीं है। कि वो इतनी दूर तक। और इतनी देर तक किसी के साथ रह कर इतनी बातें उस से करे। फिर लिखा है, कि “जब वो अमाऊस के क़रीब पहुंचे। और वो तीसरा शख़्स उन से आगे बढ़ा चाहता था। तो उन्होंने ये कह कर उसे रोका, कि हमारे साथ रह। क्योंकि शाम हुआ चाहती है।

और वो उन की दरख़्वास्त पर मकान में जा कर उन के साथ रहा। और जब खाने के वक़्त उस ने रोटी लेकर उसे मुतबर्रिक (पाक) किया। तो उन की आँखें खुल गईं। और उन्होंने उस वक़्त पहचाना, कि वो ख़ुदावंद मसीह आप है। तब वो उन की नज़रों से ग़ायब हो गया। अब कौन मुंसिफ़ (इन्साफ़ करने वाला) और मुहक़्क़िक़ (तहक़ीक़ करने वाला) शख़्स रेनन के क़ियास (अंदाज़ा, सोच बिचार) को दम-भर के लिए भी क़ुबूल कर सकेगा। कि वो सिर्फ एक ख़्याली रुयते (वहमी नज़ारे) थी। जो मरीज़ आसाब वाले शख्सों की ग़मगीं जानों, और ख़्वाहिश व सर गर्मी, और इंतिज़ारी से बहरे हुए दिलों में पैदा हो जाती है? मगर इस हक़ीक़त को क़ुबूल करने का सिर्फ एक ही तरीक़ा रास्त है और वो ये कि मसीह ख़ुदावंद फ़ील वाक़ई जी उठा। और मौत और क़ब्र पर फ़त्हमंद हुआ है। और उस का ये कलाम-ए-हक़ है, कि “मैं मुआ (मरा) था और देख मैं ज़िंदा हूँ। और आलम-ए-ग़ैब (आलम-ए-अर्वाह) और मौत की कुंजियाँ मेरे पास हैं।” मुकाशफ़ात 1:18

रात को जब हम सोते थे

रूमी सिपाही बतमाअ ज़र (पैसे का लालच) और वाअदा हिफ़ाज़त अज़ सियासत इस दरोग़ (झूठ) बे फ़रोग़ को, जो उन की, और उन के सिखलाने वालों की हमाक़त (बेवक़ूफ़ी) मह्ज़ को ज़ाहिर करता था। अवाम में मशहूर करने पर रज़ा मंद हो गए। लेकिन चूँकि कोई ज़माना दाना और अक़्लमंद इन्सानों से ख़ाली नहीं होता।

At Night When We Used to Sleep?

रात को जब हम सोते थे

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Nov 23, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 23 नवम्बर 1894 ई॰

तुम कहो, कि रात को जब हम सोते थे उस के शागिर्द आकर उसे चुरा ले गए।

मत्ती 28:13

रूमी सिपाही बतमाअ ज़र (पैसे का लालच) और वाअदा हिफ़ाज़त अज़ सियासत इस दरोग़ (झूठ) बे फ़रोग़ को, जो उन की, और उन के सिखलाने वालों की हमाक़त (बेवक़ूफ़ी) मह्ज़ को ज़ाहिर करता था। अवाम में मशहूर करने पर रज़ा मंद हो गए। लेकिन चूँकि कोई ज़माना दाना और अक़्लमंद इन्सानों से ख़ाली नहीं होता। और जैसा कि फ़ी ज़माना हम लोग इन सोए हुए गवाहों की गवाही को हर एक पहलू से जांच सकते हैं। वैसा ही उस ज़माने के लोगों ने भी इस पर बख़ूबी ग़ौर कर के इस के तसना (बनावट, झूठ) को ज़रूर दर्याफ़्त कर लिया होगा “जब हम सोते थे उस के शागिर्द आकर उसे चुरा ले गए” सोए हुवों ने क्योंकर जाना, कि मसीह के शागिर्द या और लोग उस की लाश को निकाल ले गए? और बफ़र्ज़ मुहाल शागिर्द ही ले गए। तो उन्होंने लाश को क्या किया? लाश को ले जाकर वह दो ही काम कर सकते थे या तो उस को किसी दूसरी जगह में दफ़न करते। या मिस्रियों की तरह अम्बाम (लाश में मसाला भरना) कर के कहीं ना कहीं रखते मगर इन हर दो सूरतों से ना सिर्फ उनका कुछ मतलब ना निकल सकता बल्कि ख़िलाफे मतलब ज़हूर में आता।

पस इस गवाही को लगू (फ़ुज़ूल) और बे-बुनियाद समझ कर मसीह के मुर्दों में से जी उठने के मुख़ालिफ़ अहले-ख़याल ने ये क़ियास भी पेश किया है, कि मसीह हक़ीक़त में बिल्कुल मर नहीं गया था। बल्कि वो सिर्फ एक हालते ग़शी में। बोझ तक्लीफ़ और ख़ून बह जाने के पड़ गया था और थोड़े अर्से में ग़ालिबन उन ख़ुशबुओं ताज़ा कुन दिमाग़ के असर से। जिनसे उस के मुअतक़िदीन (अक़ीदतमंद, पैरोकार) मिस्ल निकुदेमुस वग़ैरह ने इस के लाश को हनूत किया (चंद ख़ुशबूदार चीज़ों का एक मुरक्कब जो मुर्दे को ग़ुस्ल देने के बाद उस पर मलते हैं) था। और ब फ़रात क़ब्र में रख दिया था। वो पहर बहाल और ताज़ा-दम हो गया। और क़ब्र से निकल कर चला गया। इस पर अलगुज़ींडर मेयर डी॰ डी॰ लिखते हैं कि, “अगर इस ख़याल को बफ़र्ज़ मुहाल (ना-मुम्किन को फ़र्ज़ करना) तस्लीम भी कर लिया जाये तो उस की पिसली के ज़ख़्म-ए-कारी (गहिरा ज़ख़्म) की निस्बत जिससे लहू और पानी बहता था क्या तसव्वुर करें? पहर उस हक़ीक़त की निस्बत, कि रूमी सिपाहीयों ने, जिन्हें ऐसे मुआमलात में तजुर्बा हासिल था उस को मुर्दा मालूम किया। और उन यहूदीयों के अमल की निस्बत जो उस को मुर्दा जान कर उस के दफ़न करने में शरीक थे क्या ख़याल करें और अह्दे-जदीद के उन बयानात को जिनमें हर कहीं उस की मौत को एक यक़ीनी और वाक़ई माजरा बयान किया है क्या समझें? क्या जी उठने के बाद वो एक मुतलक़ (बिल्कुल) गुमनामी और तारीकी की हालत में ज़िंदगी बसर करता रहा। और अपने शागिर्दों को एक दरोग़ अज़ीम (बड़ा झूठ) की मुनादी करने। और ऐसे एक सफ़ैद झूट के लिए जान तक दे देने की नसीहत कर गया? कौन दाना और अक़्लमंद शख़्स ऐसी बातों को ज़रा भी मोअतबर (दुरुस्त, एतबार किया गया) और क़ाबिल-ए-यक़ीन तसव्वुर कर सकता है?

इस्ट्राओस, जो मसीही मज़्हब का बड़ा मुख़ालिफ़, और मसीहिय्यत के मुख़ालिफ़ मशहूर मुसन्निफ़ हुआ है। यूं लिखता है, कि ये ग़ैर मुम्किन है, कि एक शख़्स जो अध मुआ (अध मरा) क़ब्र में से छुप के निकला हो। जो कन ज़ोर और मांदा (थका हुआ) और तबई मुआलिजा (डाक्टर) का मुहताज हो। जिसको मरहम पट्टी की ज़रूरत हो। और जो ताक़त पाने और बीमारदारी की एहतियाज (हाजत, ज़रूरत) रखता हो। और जो बिल-आखिर अपनी अज़ीयतों का मग़्लूब (आजिज़, दबा हुआ) हो गया हो। वो अपने शागिर्दों के दिल पर ये नक़्श कर सके, कि मैं ज़िंदगी का सुल्तान, मौत और क़ब्र पर फ़त्हमंद हूँ। और ये वो नक़्श था जो उन की आइंदा ख़िदमत की बुनियाद था। ऐसी आरिज़ी ताज़गी उस नक़्श को। जो येसू ने बहालत ज़िंदगी बवजह अह्सन उन के दिल पर कर दिया था सिर्फ कमज़ोर कर सकती थी। लेकिन मुम्किन ना था, कि उन के ग़म को ख़ुशी व सरगर्मी से, और उन की ताज़ीम को इबादत से बदल सकती।

पस रूमी सिपाहीयों का ये बयान “कि रात को जब हम सोते थे उस के शागिर्द आकर उसे चुरा ले गए।” और ख़ुश-फ़हम मुख़ालिफ़ों का ये क़ियास (अंदाज़ा) कि मसीह दर-हक़ीक़त मुआ (मरा) नहीं था। और ख़ुशबुओं की तासीर से बहाल हो कर क़ब्र से निकल कर चला गया कामिल तहक़ीक़ात के रूबरु बिल्कुल हीच (कम) और पोच (हक़ीर) ठहरते हैं। और हक़ीक़त यही है कि “मसीह मुर्दों में से जी उठा। और उन में जो सो गए हैं पहला पहल हुआ।”

ज़रूर था मसीह दुख उठाए

मसीह का मस्लूब हो कर मारा जाना, और तीसरे दिन जी उठना कोई क़िस्सा कहानी की मस्नूई (खुदसाख्ता) या फ़र्ज़ी बात नहीं। बल्कि एक मोअतबर व मुस्तनद तवारीख़ी (माना हुआ, तस्दीक़ शूदा) माजरा है। फिर ये तवारीख़ी माजरा भी ऐसा है, कि जिसको किसी बुत-परस्त या मुल्हिद व उहद (काफ़िर) मूर्ख ने नहीं,

Christ must have Suffered

ज़रूर था मसीह दुख उठाए

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Nov 3, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 3 नवम्बर 1894 ई॰

और येसू ने उन से अमाऊस बस्ती में दो शागिर्दों से कहा, कि यूं लिखा, और यूँही ज़रूर था कि मसीह दुख उठाए, और तीसरे दिन मुर्दों से जी उठे। लूक़ा 24:46

मसीह का मस्लूब हो कर मारा जाना, और तीसरे दिन जी उठना कोई क़िस्सा कहानी की मस्नूई (खुदसाख्ता) या फ़र्ज़ी बात नहीं। बल्कि एक मोअतबर व मुस्तनद तवारीख़ी (माना हुआ, तस्दीक़ शूदा) माजरा है। फिर ये तवारीख़ी माजरा भी ऐसा है, कि जिसको किसी बुत-परस्त या मुल्हिद व उहद (काफ़िर) मूर्ख ने नहीं, बल्कि ख़ुदा परस्त क़ौम के मुतअद्दिद अश्ख़ास मुलहम (इल्हाम रखने वाले) ने कलमबंद किया है। जो ना सिर्फ इस माजरे की कैफ़ीयत को कानों से सुनने वाले, बल्कि आँखों से देखने वाले थे। क्योंकि ये माजरा कोने में नहीं हुआ, बल्कि एक पब्लिक मंज़र था। अगर इल्मे तवारीख इस उन्नीसवी सदी में कुछ क़ाबिले यक़ीन और इन्सान के लिए कार-आमद मुतसव्वर हो सकता तो हम कोई वजह नहीं पाते, कि एक ऐसे तवारीख़ी माजरे की सेहत व सदाक़त में जिसकी निहायत दकी़क़ व मूशिगाफ़ (गहरी, वाज़ेह) तहक़ीक़ात दोस्ताना और मुख़ालिफ़ाना हर एक पहलू से की गई है। किसी शक व शुब्हा को दख़ल दें। और मुवाफ़िक़ीन व मुख़ालिफ़ीन (मानने वाले व मुख़ालिफ़त करने वाले) की इन बकस्रत शहादतों को जो इस की निस्बत कलमबंद की गईं यक-क़लम नज़र-अंदाज कर दें इस अजीब माजरे की निस्बत डाक्टर अर्नलड साहब जो माक़ूल तहक़ीक़ात व तलाश के बाइस बड़े मशहूर व मारूफ़ आलिम हैं यूं बयान करते हैं कि, मैं बहुत बरसों से ज़माना हाय दीगर की तारीख़ के मुतालआ में मशग़ूल रहा, ताकि उन लोगों की शहादतों को जिन्हों ने इन ज़मानों की बाबत लिखा है आज़माऊं। और उनका मुवाज़ना करूँ और मैं इन्सान की तारीख़ में एक भी ऐसे माजरे को नहीं जानता जो इस बड़े निशान की बनिस्बत ख़ुदा ने हमें दिया है, कि मसीह मुर्दों में से जी उठा एक साफ़-दिल मुतलाशी हक़ के दिल में हर क़िस्म की कामिल तर और बेहतर शहादत से साबित किया गया है।

अगरचे ख़ुदावंद मसीह ने अपने मस्लूब होने, और फिर तीसरे रोज़ जी उठने की निस्बत चंद मर्तबा अपने शागिर्दों से पैशन गोई की थी। देखो मत्ती 20:18, मर्क़ुस 10:33, 34 लेकिन वो वो इस अम्र से, कि ये क्योंकर होगा बिल्कुल नावाक़िफ़ थे। और वो इस कलाम को आपस में रखकर चर्चा करते थे, कि मुर्दों में से जी उठने के क्या मअनी हैं। उन्होंने अह्दे-अतीक़ से मालूम किया था, कि इलीशा नबी ने एक दौलतमंद औरत बाशिंदा शून्यम् (शून्यम की रहने वाली) के मुर्दा बेटे को किस तरह ज़िंदा किया। कि उसने ख़ुदा से दुआ मांगी, और इस लड़के के मुँह पर अपना मुँह, और इस की आँखों पर अपनी आँखें, और इस के हाथों पर अपने हाथ रखे। और इस का बदन गर्म हुआ और वो जी उठा और मसीह का इबादतखाने के सरदार याइर की बेटी को उस का हाथ पकड़ कर तुल्यता क़ौमी (ऐ लड़की मैं तुझे कहता हूँ उठ) कह कर ज़िंदा कर देना। और नाइन शहर की बेवा के नौजवान बेटे के ताबूत को छू कर फ़रमाना, कि ऐ जवान मैं तुझसे कहता हूँ उठ, और उस का उठ बैठना। बैतइनियाह के क़ब्रिस्तान में चार दिन के मदफ़ून मुर्दा लाज़र की क़ब्र खुलवा कर बुलंद आवाज़ से मसीह का चिल्लाना, कि ऐ लाज़र बाहर निकल आ। और उस का कफ़न से हाथ पांव बंधे हुए क़ब्र से बाहर निकल आना। ये सब कुछ तो उन्हें बख़ूबी तमाम मालूम था। और इन सब क़ुद्रत के कामों को वो अपनी आँखों से देख चुके थे। लेकिन मसीह का ख़ुद बख़ुद मुर्दों में से जी उठना उन के लिए एक निहायत हल तलब मुअम्मा (पहेली, राज़) था। क्योंकि उनकी इन्सानी अक़्ल के नज़्दीक ये मुताल्लिक़ (बिल्कुल) ग़ैर-मुम्किन मालूम होता था, कि मसीह इस सूरत व हालत में जो उस पर वाक़ेअ हुई, कि उस के हाथ पांव छिदने से तमाम बदन का ख़ून निकल जाये। और पिसली के ज़ख़्म नेज़े से उस का दिल छिद जाये ताहम वो फिर सही व सालिम और ज़िंदा हो कर उस क़ब्र से ख़ुद बख़ुद निकल आए। जिसके मुँह पर एक भारी पत्थर रखा हुआ हो। और मुहर कर दी गई हो। और जिसकी निगहबानी के लिए मुसल्लह (असलाह रखने वाले) रूमी गार्ड मुतय्यन हो। वो अभी मसीह की इस क़ुदरत-ए-कामला से बख़ूबी आगाह ना हुए थे, कि उस को अपनी जान दे देने का इख़्तियार है। और इस को फिर लेने का इख़्तियार है। कि आलम-ए-अर्वाह और मौत की कुंजियाँ उस के पास हैं।

अब इधर तो मसीह के शागिर्दों का उस के मुर्दों में से जी उठने की निस्बत कम फ़ह्मी (कम इल्मी) का ये आलम था। और इधर उस का जी उठना उस की इलाही रिसालत, उलूहियत, इब्नियत (बेटा) और मसीहाई बल्कि उस की तमाम बातों पर एक ऐसी मुहर थी, कि जिसके बग़ैर ये सब कुछ ना-मुकम्मल व मशकूक रह जाता। उसने अपने मसीहाई इक़तिदार व इख़्तियार के सबूत में इब्तिदा ही में उन यहूदीयों को जो उस से एक इख्तियारी व क़ुदरती निशान के तालिब थे फ़रमाया था, कि इस हैकल को ढा दो, और मैं इसे तीन दिन में खड़ा करूँगा। जिससे उस की ये मुराद थी, कि तुम मस्लूब करो। और मैं तीसरे रोज़ फिर जी उठूँगा। पस अगर उस की ये पैशन गोई जो उसने बारहा अपने मुवाफ़िक़ीन व मुख़ालिफ़ीन के सामने की थी। पूरी ना होती तो उस के तमाम एजाज़ी काम। और उम्दा ताअलीमात वग़ैरह एक बड़े ख़ुदा रसीदा और मुसल्लेह व खेर ख़्वाह (इस्लाह करने वाला, बेहतरी चाहने वाला) इन्सान शख़्स के कामों और ताअलीमात की फ़हरिस्त में दर्ज होने के सिवा और ज़्यादा कुछ दर्जा ना रखते। मगर ये ग़ैर-मुम्किन था। कि इस सदक़-उल-सादिक़ीन (सच्चा व बरहक़) की ऐसी अहम और ज़रूरी पैशन गोई के पूरा होने में सर-ए-मू (राई बराबर) फ़र्क़ पड़े। आस्मान व ज़मीन टल जाएं। मगर जो कलाम उस के मुँह से निकला हरगिज़ नहीं टल सकता।

अगरचे मसीह के मुख़ालिफ़ यहूदीयों के सरदार काहिनों और फ़रीसियों ने जो इस पैशन गोई को सुन चुके थे। मगर उस में मसीह और उस के शागिर्दों की किसी साज़िश का गुमान करते थे। उस के रोकने के लिए मक़्दूर भर (जहां तक हो सके) कोशिश की जैसा लिखा है, कि उन्होंने पिलातूस के पास जमा हो कर कहा, ऐ ख़ुदावंद हमें याद है, कि वो दग़ाबाज़ अपने जीते-जी कहता था, कि मैं तीन दिन बाद जी उठूंगा। इसलिए हुक्म कर कि तीसरे दिन तक क़ब्र की निगहबानी करें। ना हो कि उस के शागिर्द रात को आकर उसे चुराले जाएं। और लोगों से कहें, कि वो मुर्दों में से जी उठा है। तो ये पिछ्ला फ़रेब पहले से बदतर होगा। पिलातूस ने उनसे कहा, तुम्हारे पास पहरे वाले हैं। जा कर मक़्दूर भर (जहां तक हो सके) उस की निगहबानी करो। उन्होंने जा कर उस पत्थर पर मुहर कर दी। और पहरे बिठा कर क़ब्र की निगहबानी की। (मत्ती 27:62 से 66 तक)

सग दुनिया

आलमे सफ़ली (दुनिया, ज़मीन) में मौजूदात की तीन क़िस्में हैं। जमादात, नबातात और हैवानात। ये तीनों क़िस्में बजहत (वजह, सबब) हद माअनवी सब में शामिल हैं। और अज्साम-ए-तब्ई (पैदाइशी जिस्म) सबको हासिल हैं। सब यकसाँ हैं। लेकिन बाद अमतंराज अनासिरे

Worldly Men

सग दुनिया

By

Ahmad Shah Shaiq
अहमद शाह शाईक

Published in Nur-i-Afshan Nov 2, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 2 नवम्बर 1894 ई॰

शेफ़्ता दुनिया पे दुनिया दार है

ख़्वाहिश सग जानिब मुर्दार है

आलमे सफ़ली (दुनिया, ज़मीन) में मौजूदात की तीन क़िस्में हैं। जमादात, नबातात और हैवानात। ये तीनों क़िस्में बजहत (वजह, सबब) हद माअनवी सब में शामिल हैं। और अज्साम-ए-तब्ई (पैदाइशी जिस्म) सबको हासिल हैं। सब यकसाँ हैं। लेकिन बाद अमतंराज अनासिरे अर्बआ[1] (امتنراج عناصر اربعہ) के जैसी क़ाबिलीयत जिसमें पैदा हुई। उस के वास्ते वैसी ही फ़ज़ीलत (बरतरी) भी है। इस मुक़ाम पर हम सिर्फ हैवानात में से हैवान-ए-नातिक़ (बोलने वाला हैवान यानी इन्सान) की कुछ तारीफ़ कर के अपने उन्वान की तरफ़ रुजू होंगे।

इन्सान सिफ़त नतक़ (बोलने की ख़ूबी) से मौसूफ़ (वो जिसकी तारीफ़ की गई हो) है। इसी वजह से इन्सान सब अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) अज्साम पर मुम्ताज़ (बरतर) है। मगर नतक़ से मुराद फ़क़त बोलना और बातें करना नहीं है, बल्कि इस से मुराद क़ुव्वते इदराक माक़ूलात है। ख़ैर को शर से जुदा करके पहचानना और अपने ख़ालिक़ के मक़्सूद को जान कर उसकी मर्ज़ी बजा लाना। इसी वजह से हक़ तआला ने इन्सान के जुम्ला हवाईज और ज़रियात का मदार राय व तदबीर पर रखा है। वर्ना बहाइम (जानवर) और परिंदों को ख़ुदा तआला ने किसी तदबीर व राय या सनअत का मुहताज नहीं रखा। बाअज़ उनकी ज़रूरीयात उन के बदन ही में मौजूद हैं। और बाअज़ क़ुदरती तौर पर मुहय्या कर रखी हैं अगर किसी को मुहताज-ए-सनअत किया तो उसको सनअत भी ताअलीम कर दी मसलन घोंसला झूंज बनाना खोदना वग़ैरह बख़िलाफ़ इस के इन्सान की ग़िज़ा, लिबास, नफ़ा, नुक़्सान, सब मुन्हसिर सनअत पर रखा और ज़रूरत को उसकी राय और तदबीर के हवाले किया। और यूँही नेकी और बदी को भी उसके फेअल मुख़तारी पर छोड़ दिया चाहे तो अपने अफ़आल (काम) नेक से हुस्न आख़िरत को इख़्तियार करे या तो अपने अफ़आल अबद से हलाकत-ए-अबदी का वारिस हो और वक़्तन-फ़-वक़्तन अपने पाक और बर्गुज़ीदा लोगों की मार्फ़त अपने इल्हाम से भी आगाह किया। और बार-बार सिखाया कि किस तरह माबूद-ए-हक़ीक़ी की इबादत करके अपनी रूह को एक हसीन और ख़ूबसूरत मलिका बनाए बहाइम (जानवर) को ख़ुदावन्द करीम ने अपनी बंदगी से आज़ाद किया। क्योंकि वो अपनी बुजु़र्गी और हश्मत सिर्फ़ इन्सान से चाहता है। हालाँकि बहाइम और दीगर मौजूदात के ख़ल्क़ करने से भी उस का जलाल उसी क़द्र ज़ाहिर होता है। जितना कि इन्सान अशरफ़-उल-मख़्लूक़ात के वजूद में लाने से। नबातात और हैवानात मुतलक़ भी उसकी हम्दो सना में सर बसजूद (सर झुकाना) हैं। मगर उस क़ादिरे मुतलक़ ने अपनी ख़ास बंदगी और इताअत के लिए सिर्फ इन्सान को मुंतख़ब किया। पस इसलिए इन्सान पर फ़र्ज़ है। कि अपने ख़ालिक़ ख़ुदा-ए-वाहिद की बंदगी बुज़र्गी करे उसकी बुजु़र्गी और जलाल किसी दूसरे को ना दे क्योंकि सिवा उस के कोई दूसरा ख़ुदा नहीं। वो ख़ुद हुक्म करता है कि मेरे आगे तेरे लिए कोई दूसरा ख़ुदा ना हो। मगर बाअज़ बशर ऐसे हैं जो सूरत तो इन्सान की रखते हैं। मगर ख़साइल उनमें बहाईम (जानवर) के हैं। यानी सिर्फ खाना, पीना, पहनना।

ऐश व इशरत करना, और सो रहना। यही उनका ख़ास काम है। बाक़ी अपने ख़ालिक़ को याद करना, या उस की सताइश में अपनी ज़बान जो उसी की दी हुई है वा (खोलना) करना वो आर (शर्मिंदगी) समझते हैं। दीगर अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) के वो लोग हैं। जिसका फ़हम व इल्म व कमाल अपने ख़ालिक़ की बाबत बहुत ज़्यादा बढ़ा हुआ है। और वो लोग मआश (रोज़ी कमाना) की तरफ़ बक़द्र ज़रूरत तवज्जह करते हैं। और हमा-तन इस्लाह उमूर मुआद (आख़िरत पर तवज्जोह करना) में मुतवज्जोह रहते हैं। और इन का नफ़्स हर वक़्त तालिब कमाल रहता है। उनको तमाम नूअ बशर पर तर्जीह व फ़ज़ीलत है। इसी अज्सामे आलम में तवारीख़ हमको बतलाती है, कि चंद ऐसे लोग भी गुज़रे हैं, जिनके दिल कुल दुनिया की लज़्ज़तों से बिल्कुल तो पाक नहीं थे। मगर तो भी जुम्ला उमूर उनके जुज़्वी व कुल्ली आला दर्जे के कमाल के तालिब थे। (हालाँकि वो सब कामिल ना थे।) कलाम-उल्लाह सिवाए एक के और किसी को कामिल नहीं बताता। और वही एक जो बिल्कुल कामिल और बेऐब था। खुद अपने हक़ में दावा करता है, कि कौन तुम में से मुझ पर गुनाह साबित कर सकता है। ऐसे लोगों को ख़ुदावंद करीम ने वही व इल्हाम से ताईद फ़रमाई ये लोग सूरत इन्सान में हो कर सीरत फ़रिश्तों की रखते थे। और इस हालत में फ़रिश्तों से बढ़कर थे।

कलाम-उल्लाह के मुतालए से मालूम होता है कि इन्सान दो तरह पर तक़्सीम किए गए हैं एक तो वो, जिनको कलाम मुक़द्दस ख़ुदा-परस्त का ख़िताब देता है। दूसरे जिनको वो दुनिया परस्त कहता है हमारे मज़्मून का उन्वान सग-ए-दुनिया है जो बऔज़ दुनिया परस्त के इस्तिमाल किया गया है। ख़ुदा की लातादाद सिफ़तों में से दो सिफ़तें अदल व रहम हैं। जो ख़ास कर इन मज़्कूर बाला तफ़रीक़ों के होने पर मुन्हसिर हैं। अगर ये तफ़रीक़ ना होती तो दोनों सिफ़तों का होना भी ख़ुदा में लाज़िम ना होता। जैसा कि एक बुज़ुर्ग फ़ादर का क़ौल है कि ख़ुदा हमेशा से रहीम व आदिल ना था। मगर जब इन्सान ने गुनाह किया। तो उसने इन दोनों सिफ़तों को इख़्तियार किया। गो ये दोनों सिफ़तें इब्तिदा से उस की ज़ात में मौजूद थीं।

हम अपने इस मज़्मून में सिर्फ दुनिया परस्त, या सग-ए-दुनिया की ज़िंदगी के हालात पर ज़रा ग़ौर करने के लिए नाज़रीन की तवज्जोह तलब करते हैं। दुनिया परस्त पाकीज़गी और इलाही मुहब्बत में कोताही (लापरवाही) पहलू-तही (दामन बचाना) सस्ती व बेपर्वाई करता है। इस के ख़ुदा-परस्त हमदर्द उस की इस बदतरीन हालत को देखकर नालां (तंग) और शाकी (शिकायत करना) और रहते हैं। और आख़िर को थक कर वो भी इस से कनार कशी करना ही मुनासिब जानते हैं क्योंकि वो बख़ूबी वाक़िफ़ हैं, कि इस का सबब सिर्फ ये है कि उस शख़्स को मार्फ़त इलाही का इर्फ़ान हासिल नहीं हुआ। और ना वो हासिल करना चाहता है। वो ख़ैर व शर (अच्छाई, बुराई) में तमीज़ नहीं करता। रूह के नफ़ा व नुक़्सान की उस को चंदाँ (बिल्कुल) पर्वा नहीं। क़वाइद इल्म व हिक्मत से जाहिल, और ये आदत उस के क़ल्ब (दिल) में रासिख़ (मज़्बूत) हो गई है। ऐसे शख़्स को कोई नसीहत, या कलिमात-ए-हम्दर्दी हरगिज़ कुछ असर ना करेंगे। मगर ख़ुदा की रूह के आगे कोई काम नामुम्किन नहीं है। तारीख़ शाहिद (गवाह) है कि उसने बड़े-बड़े संगदिलों को मोम (नरम) कर दिया है।

दुनिया परस्त रात-दिन बद सोहबत (बुरी दोस्ती) की तलाश में रहता है। मार्फ़त इलाही से दूर दूर भागता है। ऐसे लोगों के हक़ में दाऊद नबी का कलाम यूं सादिक़ आता है, कि लानत है उस शख़्स पर जो शरीरों और ख़ताकारों की मज्लिस में बूदो बाश करता है। और ख़ुदावंद के कलाम से नफ़रत रखता है। दुनिया परस्त की तबीयत नेको कारों की तरफ़ से मुतनफ्फर (नफ़रत करना) है। अपने नफ़्स के वास्ते भी सिवाए इन बातों के जिनका आदी हो गया है किसी तरह की किताब की फ़ज़ीलत व कमाल को पसंद नहीं करता बल्कि अगर ऐसा मौक़ा व महल बहम पहुंचता है। तो उज्र (बहाना) करता है। पहलूतिही कर जाता है। ऐसे लोगों से जो अस्हाब फ़ज़ाएल व मुहब्बत होते हैं नफ़रत करता है। दूर दूर भागता है। जैसे कोई काटे खाता है हमेशा इसी फ़िक्र में रहता है, कि अपनी तन-परवरी (जिस्म को पालने वाला) व ख़्वाहिश पसंदी व इताअत नफ़्स अम्मारा (नफ़्स-परस्ती) रज़ा जोई तबीयत व माद्दा शहवानी दिल अज़ीज़ नफ़्सानी (ख़्वाहिशात के कहे पर चलना, जिस्मानी ख़्वाहिश बदी की तरफ़ तवज्जोह) का दरपे है। उस को इस से कुछ ग़र्ज़ नहीं, कि इस का अंजाम क्या होगा, क्या करता हूँ किस राह चलता हूँ। वो हमेशा लाल और मुहीन कपड़े पहनने का आदी है। इस दुनिया परस्ती में इन्सानी हम्दर्दी को भी उसने ख़ैर बाद कह रखा है। वो एक नज़र ज़ख़्मों भरी लाज़र को नहीं देखता, कि वो किस तरह अपनी इस तबाह हाली में उसकी मेज़ से गिरे हुए टुकड़ों को चुन चुन कर खा रहा है। अफ़्सोस सद-अफ़्सोस कि कुत्ते जो अज़ नौ बहाईम (कमतर, जानवर) हैं। उस की हम्दर्दी कर रहे हैं। उस के घाव (ज़ख़्म) को चाट कर साफ़ कर रहे हैं। मक्खीयों को उड़ा रहे हैं। मगर ये शख़्स जो उसी का हम-जिंस, उसी का भाई उसी की मानिंद जिस्म रखता है। ज़रा नज़र भर कर नहीं देखता, कि मेरे एक भाई पर क्या गुज़र रही है। वो अपनी नख़वत (ग़ुरूर, घमंड) के जाम में अल-मस्त है। मगर वक़्त आएगा, कि वो ख़ुद इस नासूरों भरे लाज़िर का मुहताज होगा। वो आरज़ू करेगा, कि काश नासूरों से भरा हुआ लाज़र अपनी उंगली का एक पूर भिगो कर मेरी जलती ज़बान को ठंडा करे। वो हसरत भरी निगाह से लाज़र के आराम और चेन को देखेगा, और इस की तमन्ना करेगा। मगर अब तो इस को एक पानी का क़तरा अपनी ज़बान की तपिश बुझाने को भी नसीब ना होगा।

उस वक़्त दुनिया परस्त अपने अज़ीज़ों और रिश्तेदारों को याद करेगा। मगर कोई काम नहीं आएगा। वो उनकी शान व शौकत को हिक़ारत की निगाह से देखेगा। और अगर मुम्किन हो तो ज़ोर से उनको पुकार कर नसीहत करेगा, कि दुनिया परस्ती छोड़कर हक़-परस्ती को इख़्तियार करो। वो ज़रूर कहेगा, कि इस शान व शौकत को छोड़ो, ख़ुदा-ए-वाहिद लाशरीक की जुस्तजू (कोशिश) करो। ऐसा ना हो कि तुम भी मेरी तरह इस अज़ाब शदीद में पड़ो। मगर अब तो उस की ज़बान हमेशा के लिए उस के तालू से खींची जाएगी। वो क़ब्र की चार दीवारों के अंदर बंद किया जाएगा। क्योंकि जब तक वो दुनिया में था। उस को इस से कुछ ग़र्ज़ ना थी, कि उस की शानो-शौकत और ग़फ़लत (लापरवाई) का क्या अंजाम होगा। इस को अपनी रूह की कुछ फ़िक्र ना थी। वो अपने जिस्म को आरास्ता करना जानता था। वो फ़ानी ख़ुशी से नादीदनी और अबदी ख़ुशी का मज़हका (मज़ाक़ उड़ाना) किया करता था। जो लोग उस के बारे में कुछ ज़िक्र करते थे। उन को सिड़ी व सोदाई (दीवाना, पागल) के ख़िताब उस की सरकार से अता होते थे। ग़र्ज़ कि वो अपनी लज़्ज़त तलबी में ऐसा डूबा हुआ है, कि दरिया-ए-ग़फ़लत व मदहोशी से उभरता ही नहीं। ऐसी बे-होशी की नींद का माता (मदहोश) है, कि आँख नहीं खौलता। वो रात-दिन शराब ख़ुद-पसंदी (अपनी ख़ुदी का नशा) में अल-मस्त पड़ा रहता है। और उन्हीं चीज़ों को पसंद करता है। वैसे ही लहू लइब (ऐश व इशरत) को बेहतर समझता है। जो इस को चौंकने ना दें बल्कि नशा-ए-ग़फ़लत (लापरवाही का नशा) तह बह तह कर के दो आतिशा (डबल, दोहरा) कर दें। क्योंकि वो ख़ूब जानता है, कि अगर मैं ज़रा भी होश में आया, तो अक़्ल अपना काम करने लगेगी। और सबसे पहले अक़्ल इस बात का हुक्म देगी, कि वो अपने नफ़्स की इस्लाह (दुरुस्ती) पर आमादा हो। और ये अम्र उस की इंतिहा की अज़ीयत का बाइस होगा। पस वो क्यों होश में आकर अक़्ल की नसीहत से अज़ीयत का मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) हो? वो अक़्ल को बालाए ताक़ (ध्यान ना देना) रखकर ग़फ़लत के ख़र्राटे लेता है। ऐसा शख़्स उन्हीं लोगों को दोस्त रखेगा, जो उस को इसी हालत में पड़ा रहने दें। उस की इसी हालत को पसंद करें। लज़्ज़त ही उस को इस चीज़ में होगी। जो उस को बे-ख़ुद रखे। लिहाज़ा ऐसी हालते ज़श्त (बद-शक्ल, बुरी हालत) में अपनी अज़ीज़ रूह को ज़ाए करेगा। और अपने नज़्दीक वो इस को अपनी सआदत समझेगा।

इस के हाशियानशीन (पास बैठने वाले) है इस की इस हरकत से उस को ना रोकेंगे क्योंकि वो ख़ुद भी उसी की तरह हैं। और अपनी ख़ुदग़र्ज़ी से उस की आतिश हवा व हवस (भूक) को ज़्यादा भड़काते रहेंगे। तावक़्ते के ग़फ़लत का जाम पीते पीते वो मौत का जाम पी कर क़ब्र की चार-दीवारी में बंद हो ऐसा शख़्स तो ज़ाहिर में नफ़्स परवर हैं। पर हक़ीक़त में अपनी रूह और जिस्म दोनों का दुश्मन है। और अंजाम ऐसे शख़्स का सिवाए हसरत व अफ़्सोस और हलाकत के और कुछ नहीं है।

दुनिया परस्त अपनी नफ़्सानी ख़्वाहिशों के पूरा करने के लिए बड़ी-बड़ी तदबीरें काम में लाता है। गिले शिकवों के दफ़्तर के दफ़्तर लिख डालता है। ये किस वास्ते? सिर्फ अपनी शहवा-ए-नफ़्सानी (जिस्मानी ख़्वाहिश) के पूरा करने के लिए वो ख़ुदा की हम्द व सना में अपनी ज़बान को वा (खोलना) करना सबसे बड़ा गुनाह जानता है। हक़ीक़ी महबूब यानी अपने ख़ालिक़ को छोड़कर मजाज़ी हुस्न परस्ती का शेवा तरीक़ा इख़्तियार करता है।

अपने मतलब के हासिल करने के लिए उज्लत (जल्दबाजी) करता है और विसाल (मिलाप) के इश्तियाक़ (इंतिज़ार) में घड़ियाँ गिनता है। एक एक साअत (लम्हा) उस को एक एक साल के बराबर गुज़रती है। अपनी ख़्याली दुनिया में माशूक़ के मकान के बाहर ना चार बैठा हुआ दुखड़ा रो रहा है। शिकायतें कर रहा है। ठंडी ठंडी आहें भर रहा है।

दुनिया परस्त जिस तरह अपनी रूह व जिस्म को धोका देता है। चाहता है कि ख़ुदा को भी धोका दे। वो अपनी ज़बान से ख़ुदा-ए-अज्ज व जल (बुज़ुर्ग व बरतर) की मुहब्बत का दावा करता है। हालाँकि जो कुछ वो अपनी ज़बान से कहता है उस के मअनी व मफ़्हूम को बिल्कुल नहीं समझता। शायद पंज वक़्ता नमाज़ पढ़ता और तीस रोज़े भी रखता है। ज़कात भी देता है। मगर ये सब ज़ाहिरदारी है। बातिन का जाल उस का निहायत ख़राब है। और हक़ीक़ी इताअत व बंदगी जो ख़ुदा-ए-पाक ने अपने बंदों के लिए मुक़र्रर की उस पर कभी तवज्जोह भी नहीं करता। ख़ुदा से ऐसा शख़्स वाक़िफ़ नहीं है। और ये बात ज़ाहिर है, कि मुहब्बत किसी शख़्स की किसी शख़्स के वास्ते नहीं हो सकती। जब तक कि वो उस के हालात और कवाइफ़ से मार्फ़ते कामिल (मुकम्मल वाक़फ़ीयत) हासिल ना करे। और महबूब की सिफ़ात पर मुत्ला`अ (आगाह) ना हो। उस का असली ख़ुदा, उस की समझ में और महबूब तो दुनिया ही है। वो अपने ख़ालिक़ परवरदिगार को कब जानता, और किस तरह जान सकता है। क्योंकि लिखा है, कि तुम ख़ुदा और दुनिया दोनों की ख़िदमत नहीं कर सकते। पस जब दुनिया उस का ख़ुदा और महबूब हुई। तो ख़ुदा से उस को वास्ता ना रहा। जो भले से बुरे को तमीज़ नहीं कर सकता वो ख़ुदा से हरगिज़ हरगिज़ मुहब्बत नहीं रख सकता।

जिस वक़्त तक दुनिया की फ़ानी दौलत फ़ानी जिस्म के ख़ुश करने और बेशक़ीमत रूह को बर्बाद करने को उस के पास मौजूद है। दुनिया पर जान देने वाले उस के यार बने रहते हैं। किसी को ये जाम भर कर दे रहा है। कोई ख़ुशामद के अल्फ़ाज़ में इस आब स्याह (काला पानी) की तारीफ़ कर रहा है। कोई तबले की थाप पर दीवाना है। कोई जलसे की हर शैय व इंतिज़ाम को अपने मज़ाक़ के मुताबिक़ पा कर मिर्ज़ा ग़ालिब का ये शेअर जोश व ख़ुरोश से अलाप रहा है :-

लुत्फ़ ख़िराम साक़ी व ज़ौक़ सदाए चंग

ये जन्नत-ए-निगाह हवा फ़िरदौस-ए-गोश है

कोई दुनिया परस्त अपने बाप का माल बटवा कर किसी दूर दराज़ मुल्क का अज़म (इरादा) करता है। तो शैतान के एजैंट फ़ौरन उस के लिए ख़ैर-मक़्दम को बढ़ते हैं। और सदाए अह्सनत (शाबाश, वाह वाह) सुनाते हैं और दुनिया के बे फ़िक्रे उस के चौगिर्द जमा हो कर उस की रूह को क़ाबिले जहन्नम बना कर छोड़ते हैं। और ये सीधा-सादा आदमी इन शैतान के एजैंटों के फंदे में फंसकर। और उनकी चिकनी चुपड़ी बातों पर फ़रेफ़्ता (आशिक़) हो कर ऐश व इशरत के सामान उनसे तलब करता है। और अपने बाप का क़ुव्वत-ए-बाज़ू से कमाया हुआ सरमाया उनके हवाला करता है। मगर वाह-रे इन्क़िलाबे ज़माना आज वही शख़्स हमको एक जंगल में सूअर चराता हुआ नज़र आता है। वो तमाम यार जो उस के पसीने की जगह ख़ून बहाने का दावा करते थे। उस की नज़रों से ओझल (दूर) हैं। कोई इतना भी नहीं करता, कि एक टुकड़ा रोटी और दो घूँट पानी उस को दे लोगों ने उस के दस्तर ख़्वान से उम्दा उम्दा नेअमतें खा कर अपने को हद से ज़्यादा फ़र्बा (मोटा) किया होगा। मगर ये आज सूअर के पसख़ुर्दा (झूटे) छिलकों को खा कर अपना पेट भर ना ग़नीमत जानता है। इस शख़्स को हम फिर भी ग़नीमत समझते हैं। क्योंकि ये अपनी इस हालत पर मुत्ला`अ (बाख़बर) हो कर अपने अज़ीज़ व मेहरबान बाप के घर को याद करता है। और अपनी इशरत के ज़माने के यारों के हक़ में ये शेअर :-

नेअमत में यार-ए-ग़ार मुसबीयत में बरकिनार

दुनिया परस्त देखने वाले हवा के हैं

पढ़ कर ये कहता हुआ अपने बाप के घर जाता है, कि मैं उठ कर अपने बाप के पास जाऊँगा, और उस से कहूँगा, कि ऐ बाप मैंने तेरे हुज़ूर आस्मान का और तेरा गुनाह किया है। और अब मैं इस लायक़ नहीं कि फिर तेरा बेटा कहलाऊँ। मैं तेरी मिन्नत करता हूँ, कि मुझे अपने नौकरों में से एक की मानिंद बना। मगर बाअज़ दुनिया परस्त ऐसे अल-मस्त हैं, कि उनको ख़्वाह कितना ही चौंकाओ वो ज़रा ख़बर नहीं होते। और यूं उनका अंजाम हलाकत होता है। अब ऐ दुनिया के (आशिक़) लोगो ज़माने को हरगिज़ किसी बेवफ़ा से कम ना समझो। दुनिया में क्या है। इस का बयान करना एक तूलानी (लंबी) तारीख़ है। जिसके हर सफे पर ख़ूनीं कफ़नों की यादगार तस्वीरें मौजूद हैं। हर सतर ज़ंजीर पा है। ज़ुल्फ़ व काकुल की पेच दर पेच मज़ामीन ऐसा परेशान नहीं करते। जैसा ज़माने की तारीख़ी सतरें ख़याल में पेचीदगियां पैदा करती हैं। अदम व हसती (ना होना, वजूद) दो ऐसी तस्वीरें नहीं, कि जिनका मंत्र हर वक़्त सामने ना रहता हो। मगर दुनिया के जानदादा इनका ज़र्रा भर ख़याल ना कर के अपने वक़्त को यूंही ज़ाए करते जाते हैं। वो नहीं जानते, कि हमारी रूह जो निहायत बेशक़ीमत है। इस के बचाओ की सूरत का वक़्त गुज़रता जाता है। सुबह व शाम के इख़्तिलाफ़ात से एक अच्छा सबक़ दुनिया परस्तों को हासिल हो सकता है। मगर चश्म-ए-बीना (देखने वाली आँख) और गोश शुन्वा (सुनने वाले कान) चाहिए।

वक़्त की अनमोल पूँजी जिसको इस अल-बज़ाअत (सरमाया, दौलत) कहते हैं मुफ़्त ख़्याल-ए-जानां (महबूब का ख़याल) और शहवाए नफ़्सानी (जिन्सी ख़्वाहिश) के पूरा करने और ऐश व इशरत में बर्बाद हो जाती है और इसी के साथ रूह भी बर्बाद होती है। कोई इनसे दर्याफ़्त करे कि मीठी नींद सोने वालो अब तो उठो। क्या तुमको अब तक इस मुसर्रिफ़ बेटे (ख़र्च करने वाला) के हाल से कुछ इबरत (सबक़) हासिल नहीं हुई? क्या तुमने अपनी ज़िंदगी को पेटैंट (रजिस्ट्री शूदा) करा लिया है। या समझ में इस को रजिस्ट्री करा रखा है कि जिस पर मौत का ज़ोर नहीं चलेगा? क्या तुम अपने सामने गुरू (क़ब्र) को शेर बब्बर की तरह मुँह खोले नहीं देख रहे हो। जो तुमको निगलने के लिए हर वक़्त ताक लगाए बैठी रहती है? क्या तुम ख़याल कर सकते हो, कि तुम्हारा ख़याल इसी तरह दुनिया के ऐश व इशरत के लिए जवान रहेगा? क्या तुम्हारी नाज़ुक ख़्याली ऐसी ही बारीकियां और मोशिगाफ़ीयाँ किया करेगी? क्या तुम्हारे मज़्बूत हाथ यूंही वर्जिश जवाँमर्दी का पट्टा लिए रहेंगे? ऐ ग़ारत गिरो अपनी रूह के लुटेरे ना बनो। दुज़-दीदा निगाहों (नज़र चुराना) से चोरी चोरी मता ख़ुर्दो दानिश (अक़्ल की दौलत) पर हत फेरी (चालाकी, फ़रेबी) ना करो। अपने शबाब (जवानी) के जोशीले ख़ून को जो रगों में पारे की तरह दौड़ रहा है सफ़ैद ना करो। बल्कि उस को अपनी ख़ालिक़ की याद में काम में लाओ। दुनिया की लज़्ज़तों को हासिल करने में माना तुम चाबुकदस्त (होशियार) सही। तुम्हारी निगाहों में मक़नातीसी कशिश सही। तुम्हारी आँखों की पुतलीयां गर्दिश का साथ देती हैं। आस्मान सही ज़माना सही। मगर कब तक? आख़िर एक रोज़ ये सब साक़ित (ख़त्म) हो जाऐंगे। और तुम गुरू (क़ब्र) के दहन (मुँह) का निवाला होगे। मसलन देखो कल तक जो फूलबाग आलम में अपनी महक से दिमाग़ पर क़ाबू किए थी। दिल में जोश पैदा कर रहे थे। ख़याल को पाकीज़गी दे रहे थे। वो आज मुरझाए कुमलाए हुए पड़े हैं। ना किसी हसीन के गले का हार हैं ना किसी मेज़ पर गुलदस्ता बन कर बहार दिखा रहे हैं। नसम सहर के वो नाज़ुक और मस्ताना झोंके जो सुबह को कलियाँ खिला रहे थे। मीठी नींद सोने वालों के सिरहाने पंखा झूल रहे थे। फिर दिन चढ़े कैसे ठंडे पड़ गए।

ऐ दुनिया पर जान देने वालो 94 ई॰ अब क़रीब इख़्तताम है। अगर तुमको इस के आख़िर तक गुर (क़ब्र) की चार दीवारी में बंद होना पड़े तो तुम अपने ख़ालिक़ को क्या जवाब दोगे? अभी उठो। बेदार हो अपनी रास-अल-ब्ज़ाइत (माल, सरमाया) को ग़नीमत जानो। और इस को क़ाबू में रखो। और ख़ुद इस के हर एक लम्हे को बे-बहा मोती समझो। और तौबा करो क़बूलीयत का दर खुला है। बेखटके चले आओ। गुज़श्ता उम्र में तुमको तुम्हारी इन्सानी बहकने वाली आँख ने धोका दिया। जहां इस में सात पर्दे थे वहां एक पर्दा ग़फ़लत का भी इस के आगे मौजूद रहा और इस आठवें पर्दे ने हाइल हो कर अस्ल हक़ीक़त को वस्ल मजाज़ी की हरी-भरी शाख़ों में छिपा दिया। मगर अब इस हालत में तुमको इबरत से सबक़ लेना वाजिब है। वो तुमको बेदार करती है। तुम्हारा फ़र्ज़ है। कि जागो। वो इशारों से बताती है तुम्हारा फ़र्ज़ है समझो। आवाज़ से जगाती है। बल्कि अपने हाथों से शानह (कंधा) हिला कर ख्व़ाब-ए-ग़फ़लत से जगाती है। अब ऐसा ना हो कि तुम उस वक़्त अपनी आँख से ग़फ़लत (लापरवाही) का पर्दा उठाओ। जब तुम मौत का जाम पीने पर तैयार हो मताए कामयाबी को ज़र्द हिना छीन ले साग़र लबरेज़ टूट जाये। और उस वक़्त तुमको ब-सद अफ़्सोस व हसरत ये कहना पड़े :-

दिल में शौक़-ए-वस्ल, याद-ए-यार तक बाक़ी नहीं

आग इस घर में लगी ऐसी कि जो था जल गया

 


[1] नोट अनासिरे अर्बअ आम मुहावरे के तौर पर लिखा गया है। वर्ना इस उस वक़्त तक 68 अंसर दर्याफ़्त हुए हैं, जो कुल कायनात की बनावट में शामिल हैं। और अर्बा अनासिर आब, आतिश, ख़ाक, बाद तो कोई ख़ास अंसर नहीं हैं। बाअज़ इनमें मुरक्कब हैं, और बाअज़ कुछ भी नहीं। मसलन आब मुरक्कब है, दो मुफ़रदों यानी अंसरों ऑक्सीजन, और हाइड्रोजन से। आतिश ये मुफ़रद है, ना मुरक्कब। बल्कि एक असर है। दो मुफ़रदों के आपस में मिलने के वक़्त जो हरारत पैदा होती है, उस को आतिश कहते हैं। आम तौर पर इस को जलना कहते हैं अगर कीमियावी इस्तिलाह में इस को मिलना कहते हैं। ख़ाक से भी कोई ख़ास माक़ूलात है। और नेक व बद में तमीज़ करना। ख़ैर को शर से जुदा करके पहचानना और अपने ख़ालिक़ के मक़्सूद को जान कर उस की मर्ज़ी बजा लाना। इसी वजह से हक़ तआला ने इन्सान के जुम्ला हवाईज और ज़रूरीयात का मदार राय व तदबीर और सनअत पर रखा। वर्ना बहाईम और परिंदों को ख़ुदा ए तआला ने किसी तदबीर व राए या सनअत का मुहताज नहीं रखा बाअज़ उनकी ज़रूरीयात उनके बदन में ही मौजूद हैं। और बाअज़ क़ुदरती तौर से उन के लिए मुहय्या कर रखी हैं ना अगर किसी को मुहताज सनअत का किया तो इस को सनअत भी ताअलीम कर दी। मसलन घोंसला झूंज बनाया। या मांद खोदना वग़ैरह बख़िलाफ़ इस के इन्सान की ग़िज़ा, लिबास, नफ़ा, नुक़्सान, सब मुन्हसिर सनअत पर रखा। और ज़रूरत को उस की राय और तदबीर के हवाले किया। और यूँही नेकी और बदी को भी उस की फ़ेअल मुख़तारी पर छोड़ दिया। चाहे तो अपने अफ़आल नेक से हुस्न आख़िरत को इख़्तियार करे, या चाहे तो अपने अफ़आल बद से हलाकत अबदी का वारिस हो और वक़्तन-फ़-वक़्तन अपने और बर्गुज़ीदा लोगों की मार्फ़त अपने इल्हाम से भी उसे आगाह किया। और बार-बार सिखलाया, कि किस तरह माबूद हक़ीक़ी की इबादत कर के अपनी रूह को एक हसीन और ख़ूबसूरत मलिका बनाए। भाईम को ख़ुदावंद करीम ने अपनी बंदगी से आज़ाद किया। क्योंकि वो अपनी बुजु़र्गी और हश्मत सिर्फ़ इन्सान से चाहता है। हालाँकि भाईम और दीगर मौजूदात के ख़ल्क़ करने से भी इस का जलाल उसी क़द्र ज़ाहिर होता है। जितना कि इन्सान अशरफ़-उल-मख़्लूक़ात के वजूद में लाने से। नबातात और हैवानात मुतलक़ भी उस की हम्द व सना में सर-ए-सुजूद हैं। मगर उस क़ादिर-ए-मुतलक़ ने अपनी ख़ास बंदगी और इताअत के लिए सिर्फ इन्सान को मुंतख़ब किया। पस इसलिए इन्सान पर फ़र्ज़ है, कि अपने ख़ालिक़ ख़ुदा-ए-वाहिद की बंदगी व बुजु़र्गी करे। उस की बुजु़र्गी और जलाल।

मुहब्बत इस में नहीं

इस में शक नहीं, कि जब ख़ुदा-ए-ख़ालिक़ अर्ज़ व समा (आस्मान व ज़मीन को बनाने वाला) ने सब कुछ पैदा और मुहय्या कर के आदम को ख़ल्क़ किया। तो वो अपने ख़ालिक़ व मालिक के सिवा किसी को दोस्त ना रखता था। और सिर्फ उसी के साथ मुहब्बत सादिक़ रखकर उस की

Love in not in it

मुहब्बत इस में नहीं

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Nov 2, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 2 नवम्बर 1894 ई॰

मुहब्बत इस में नहीं, कि हमने ख़ुदा से मुहब्बत रखी। बल्कि इस में है कि उसने हम से मुहब्बत रखी। और अपने बेटे को भेजा। कि हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा होए। 1 यूहन्ना 4:10

इस में शक नहीं, कि जब ख़ुदा-ए-ख़ालिक़ अर्ज़ व समा (आस्मान व ज़मीन को बनाने वाला) ने सब कुछ पैदा और मुहय्या कर के आदम को ख़ल्क़ किया। तो वो अपने ख़ालिक़ व मालिक के सिवा किसी को दोस्त ना रखता था। और सिर्फ उसी के साथ मुहब्बत सादिक़ रखकर उस की इताअत व इबादत में मसरूर व मशग़ूल (ख़ुश व मसरुफ़) था। लेकिन अफ़्सोस वो इस मुबारक हालत में क़ायम ना रहा। और इम्तिहान में पड़ कर ख़ुदा से दूर व महजूर (जुदा) हो गया। उस को ख़ुदा की हुज़ूरी से ख़ौफ़ आया। और उस के हुज़ूर से भाग कर अपने को दरख़्तों में छुपाया। मुहब्बत के बदले उस के दिल में ख़ुदा से नफ़रत व दहश्त (ख़ौफ़) पैदा हो गई। और इताअत व इबादत की जगह ना-फ़र्मानी व बग़ावत (सरकशी) दाख़िल हुई। उस की अक़्ल यहां तक ज़ाइल (कम) हो गई, कि उसने अपने को बाग़ के दरख़्तों में इस हमा जा हाज़िर व नाज़िर (हर जगह मौजूद होने वाला) दानाए निहां आश्कारा से छुपाना चाहा। जिसका इर्फ़ान दाऊद के लिए निहायत अजूबा (अनोखा) था। और जिसकी निस्बत उसने यूं लिखा है, तेरी रूह से मैं किधर जाऊं। और तेरी हुज़ूरी से मैं कहाँ भागूं? अगर मैं आस्मान के ऊपर चढ़ जाऊं, तो तू वहां है। अगर मैं पाताल में अपना बिस्तर बिछाऊं, तू देखता तो वहां भी है। अगर सुबह के पंख लेकर मैं समुंद्र की इंतिहा में में जा रहूँ, तो वहां भी तेरा हाथ मुझे ले चलेगा। और तेरा दहना हाथ मुझे संभालेगा। अगर मैं कहूं, कि तारीकी तो मुझे छुपा लेगी। तब रात मेरे गरदर् वशनी हो जाएगी। यक़ीनन तारीकी तेरे सामने तीरगी (अंधेरा) नहीं पैदा करती। पर रात-दिन की मानिंद रोशन है तारीकी और रोशनी दोनों यकसाँ हैं। (ज़बूर 139:7 से 12 तक) लेकिन हक़ीक़त ये है, कि आदम जब गुनाह का मुर्तक़िब हो चुका उसने ख़ुदा की हुज़ूरी में अपने आपको खड़ा रखने के नाक़ाबिल समझा। और ना चाहा कि अपना शर्मसार चेहरा उस को दिखलाए। और वहशयाना तौर से जिस्म पर पत्ते लपेटे हुए अपनी बदहैती (जसामत) उस पर ज़ाहिर करे अगर यहोवा अपनी लाइंतिहा कुद्दूसी व अदालत के तक़ाज़े के मुवाफ़िक़ उसी बदबख्ती की हालत में आदम को छोड़ देता, और चाहता, कि वो आप अपनी बर्गश्तगी का चारा (सरकशी का हल) करे। और अपने ही किसी अमल व कोशिश से अपनी गुम-शुदा सआदत व शराफ़त को फिर हासिल करे। तो आज के दिन तक उस को (अगर वो ज़िंदा रहता) सख़्त मायूसी व नाकामी के सिवा कुछ भी हासिल ना होता। और उस के साथ उस की नस्ल भी हमेशा के लिए इलाही क़ुर्बत (नज़दिकी) व हुज़ूरी से दूर व महजूर (जुदा) और मातूब व मक़हूर (ग़ज़ब व क़हर के नीचे) रहती। ऐसी ख़राब इन्सानी हालत का कौन अंदाज़ा कर सकता है? इलाही रजामंदी, और हुसूल-ए-नजात में इन्सान की बेमक़दूरी व लाचारी की निस्बत तजुर्बेकार मशहूर रोज़गार मुसन्निफ़ ज़बूर ने बहुत दुरुस्त लिखा है, कि उनमें से किसी का मक़्दूर (ताक़त, हैसियत) नहीं, कि अपने भाई को छुड़ाए। या उस का कफ़्फ़ारा ख़ुदा को दे, कि उनकी जान का फ़िद्या भारी है। (ये काम अबद तक मौक़ूफ़ रखना होगा) कि वो सदा जीता रहे। और हरगिज़ मौत को ना देखे। ज़बूर 49:7, 8, 9 पस इस परेशान हाली में जब कि इन्सानियत चिल्लाती थी, कि ख़ताओं ने मुझे मग़्लूब किया है। हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा तूही करेगा। तो ख़ुदा ने जो मुहब्बत है। जिसका ग़ुस्सा एक दम का है। और जिसके करम में ज़िंदगानी है। और जो ग़ुस्सा करने में धीमा और शफ़क़त में बढ़कर है। जिसका झुन्झलाना दाइमी (हमेशा) तक नहीं। और जो अपने ग़ुस्से को अबद तक नहीं रख छोड़ता। उस की हालत ज़ारो ख़ार (बद-हाल) पर रहम किया। और आप ही उस के बचाने की तदबीर निकाली। और गुम-शुदा व दिल-शिकस्ता आदम को एक ऐसे बचाने वाले और दर्मियानी की ख़ुशख़बरी से जो औरत की नस्ल से ज़ाहिर हो कर। अपनी एड़ी को कटवा कर उस के दुश्मन के सर को कुचले। हयात ताज़ा और मसर्रत बे-अंदाज़ा बख़्श कर अज सर-ए-नौ जादा (रास्ता, तरीक़ा) तस्लीम व रज़ा में क़दम रखने के लिए क़ाबिल कर दिया। बक़ौल शख़से जो दरवाज़ा अंदर से बंद किया गया। वो अंदर ही से खुल सकता है। सिर्फ इस निहायत मुख़्तसर ख़ुशख़बरी पर ईमान लाए। और वाअदा इलाही को यक़ीनी जानने के लिए आदम के कान में गोया इलाही आवाज़ ये कहती हुई सुनाई दी। कि मैंने तेरी ख़ताओं को बादल की मानिंद। और तेरे गुनाहों को घटा की मानिंद मिटा डाला। मेरी तरफ लौट आ, कि मैंने तेरा फ़िद्या दिया है।

बाअज़ लोग इस मुश्किल को पेश कर के ये सवाल किया करते हैं, कि आदम के वक़्त से मसीह के ज़ाहिर होने तक जो लोग गुनेहगार थे उनकी नजात किस ज़रीये से हुई होगी। क्योंकि मसीह ने इस अर्से में मुजस्सम हो कर गुनेहगारों के लिए अपने को कफ़्फ़ारे में नहीं गुज़राना था? ऐसे सवाल का साफ़ और सही जवाब यही है, कि इसी एक कामिल ख़ुशख़बरी पर जो आदम को दी गई। ईमान लाने से जुम्ला मुतक़द्दिमीन (पहले ज़माने के लोग) व मुताख्खिरीन (बाद में आने वाले) की नजात हो सकती है। फ़र्क़ सिर्फ इतना है कि वो ईमान रखते थे, कि मौऊद ह नजातदिहंदा आएगा। और ये ईमान रखते, कि वो मौऊदा नजातदिहंदा आ गया। और ये फ़र्क़ भी सिर्फ इन्सानी ख़याल से है वर्ना ख़ुदा तआला के नज़्दीक माज़ी व मुस्तक़बिल यकसाँ है। पस जब वक़्त पूरा हुआ खुदा ने अपने बेटे को भेजा। जो औरत से पैदा हो कर शरीअत के ताबे हुआ, ताकि वो उनको जो शरीअत के ताबे हैं मोल ले। और हम ले-पालक (लेकर पाले हुए) होने का दर्जा पाएं। दरहालिका (इस सूरत) में वो फ़रिश्तों का नहीं, बल्कि अब्रहाम की नस्ल का साथ देने वाला था। इस सबब से ज़रूर था, कि वो हर एक बात में अपने भाईयों की मानिंद बने। ताकि वो उन बातों में जो ख़ुदा से इलाक़ा (मुताल्लिक़) रखतीं लोगों के गुनाहों का कफ़्फ़ारा करने के वास्ते एक रहीम और दियानतदार सरदार काहिन ठहरे। इब्रानियों 2:17

ये बेनज़ीर ताअलीम मसीहिय्यत के इलावा दुनिया के किसी मज़्हब में नहीं पाई जाती। और ना किसी पेशवा-ए-मज़्हब ने सिखलाई कि “मुहब्बत इस में नहीं, कि हमने ख़ुदा से मुहब्बत रखी। बल्कि इस में है कि उस ने हमसे मुहब्बत रखी और अपने बेटे को भेजा कि हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा हो।” क्या ये अजीब व ख़ुद निसार (ख़ुद को क़ुर्बान करने वाली) मुहब्बत नहीं, कि वो जो मख़दूम व मस्जूद मलाइक (मालिक, क़ाबिल-ए-ताज़िमम जिसे फ़रिश्ते सज्दा करें) और माबूद ख़लाइक (दुनिया के लोगों का ख़ुदा) था। वो शक्ल इन्सानी में इन्सान के बचाने के लिए आए, और ख़ादिम की सूरत पकड़ के उनके लिए अपनी जान तक देने से दरेग़ ना करे? कौन इस बेमिस्ल मुहब्बत की वुसअत व अज़मत (गहराई, बड़ाई) का बयान कर सकता है?

बाअज़ लोग एतराज़न ये सवाल किया करते हैं, कि क्या ख़ुदा-ए-क़ादिर इन्सान को और किसी तदबीर से नजात नहीं दे सकता था, कि उस को ज़रूरत लाहक़ हुई कि अपने बेटे को दुनिया में दुख उठाने के लिए, और अपने को कफ़्फ़ारे में गुज़राँने के लिए भेजे? हम इस का माक़ूल व मन्क़ूल (लिखा गया) यही जवाब दे सकते हैं, कि अगर इस से बेहतर और कोई तदबीर होती, तो वो ज़रूर उस को इख़्तियार करता।

चूँकि बिगड़ी और गिरी हुई वाजिब-उल-ताज़ीर (सज़ा के लायक़) इन्सानियत के सुधारने। उठाने और ख़ुदा के हुज़ूर में इस को मग़फ़ूर व मंज़ूर (माफ़ी, क़बूलीयत) ठहराने के लिए एक कामिल इन्सानी नमूने और फ़िद्ये की ज़रूरत थी, लिहाज़ा कलिमतुल्लाह का बशक्ल इन्सान मुजस्सम हो कर दुनिया में आना रहमत व फ़ज़्ल इलाही की एक कामिल दलील है। जिसने सब कुछ दुरुस्त कर दिया, और इन्सान को अज़ सर-ए-नौ (नए सिरे से) ख़ुदा की सूरत पर बन जाने का इक़तिदार बख़्शा। और अब बक़ौल मसीही शायर :-

इन्सानियत को मख़र हे ज़ात मसीह से

इज़्ज़त थी ख़ाक की मगर उस की ज़राना थी

अक़्वाल-उल-मशाहीर दरबारा दोस्ती

जो दोस्ती दुनियावी अख़्लाक़ के उसूलों पर मबनी है ज़िंदगी के तमाम तग़य्युर व तबद्दुल (तब्दीलीयों) पर ग़ालिब आती है। लेकिन जिस दोस्ती की बिना मज़्हब पर क़ायम है वो ला-इंतिहा अर्सा तक रहेगी। अव़्वल क़िस्म की दोस्ती ख़यालात के रद्दो-बदल और दुनिया के इन्क़िलाब के सदमे के मुक़ाबिल खड़ी रही। दूसरी क़िस्म की

Word of Scholars about Friendship

अक़्वाल-उल-मशाहीर दरबारा दोस्ती

By

Inayat Alah Nasir
इनायत-उल्लाह नासिर

Published in Nur-i-Afshan Oct 26, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 26 अक्तूबर 1894 ई॰

1. दोस्ती ज़िंदगी की सी है। (यंग)

2. दोस्ती से पेश्तर (पहले) जांचो, फिर आख़िर तक साबित-क़दम रहो। (ईज़न)

3. दोस्त के बग़ैर एक दुनिया का मालिक भी मुफ़्लिस (कंगाल) है तमाम जहां को देकर एक दोस्त हासिल कर लेने में भी नफ़ा है। (ईज़न)

4. जैसे मक्खियां शीरीं गल्लों (मीठे फूल) से शहद निकालती हैं उसी तरह इन्सान दोस्ती से हिक्मत और फ़र्हत (ताज़गी) हासिल करता है। (ईज़न)

5. जिसका कोई दोस्त नहीं उसे ज़िंदगी का कुछ लुत्फ़ नहीं। (बेकन)

6. सच्चे दोस्तों का ना होना सबसे बड़ी तन्हाई है बेवफाई का मुनासिब सिला दोस्तों की महरूमी है। जो नए दोस्त बनाता है वो नए फ़राइज़ इख़्तियार करता है।

7. जिस शख़्स का कोई ऐसा दोस्त नहीं जिससे दिल का हाल कह सके वो ख़ुद अपने दिल के लिए घुन (एक कीड़ा जो लकड़ी को खा जाता है) है। (फ़ैसाग़ोरस)

8. दोस्ती को बतद्रीज (आहिस्ता-आहिस्ता) आगे बढ़ने दो। क्योंकि अगर वो तेज़ी करे तो जल्दी दम हार जाएगी।

9. दोस्ती एक ऐसा बर्तन है जो ज़रा सी आँच या सदमा या ठेस से फ़ौरन टूट सकता है। इस की जिस क़द्र ख़ूबी हमारी निगाह में थी उस की पैवंद (जोड़ना) करने में उसी क़द्र ना उम्मीदी होगी शिकस्ता पत्थर (टूटा पत्थर) को जोड़ सकते हैं। लेकिन शिकस्ता गौहर (टूटा मोती) को जोड़ना मुहाल (मुश्किल) है।

10. दोस्त का सबसे क़ाबिल-ए-तहसीन (क़ाबिल-ए-तारीफ़) फ़र्ज़ ये है कि वो दिलेरी से हमारी ग़लतीयों को हम पर ज़ाहिर करे। जो शख़्स मेरे नफ़ा को मद्द-ए-नज़र रखकर मेरा ऐब मुझे बताता है। मैं उस को दाना और दियानतदार कहूँगा। दाना इसलिए कि उसने वो बात देखी जिसको मैं ना देख सका। और दियानतदार इसलिए कि उसने तुमुल्क आमेज़ कलाम (नर्मी, ख़ुश-आमद) के बजाय मुझे साफ़ साफ़ मेरे ऐब से वाक़िफ़ कर दिया।

11. हक़ीक़ी दोस्त वो है जिस के सामने तुम्हारा दिल ऐसा शगुफ़्ता (तरो ताज़ा) हो जाता है जैसा गुल (फूल) सूरज के सामने जिससे कुछ हासिल करना मूजिब ख़ुशी का है। जिसकी ख़ातिर अपने तईं क़ुर्बान करना ऐन फ़र्हत (ख़ुशी) है। जिसकी ज़िंदगी ने तुम्हारी मुहब्बत को बर-अंगेख़्ता (आमादा करना) किया है। जिसकी ख़ामोशी को तुम बाआसानी समझ सकते हो। जिसके बशरा की हरकतों में तुम वाक़ियात का मुतालआ कर सकते हो। जिसकी हस्ती तुम्हारी हस्ती के साथ गोया मुल्हिक़ (जुड़ना) हो गई है। (ब्रूक)

12. जो दोस्ती दुनियावी अख़्लाक़ के उसूलों पर मबनी है ज़िंदगी के तमाम तग़य्युर व तबद्दुल (तब्दीलीयों) पर ग़ालिब आती है। लेकिन जिस दोस्ती की बिना मज़्हब पर क़ायम है वो ला-इंतिहा अर्सा तक रहेगी। अव़्वल क़िस्म की दोस्ती ख़यालात के रद्दो-बदल और दुनिया के इन्क़िलाब के सदमे के मुक़ाबिल खड़ी रही। दूसरी क़िस्म की उस वक़्त तक क़ायम रहेगी, जब आस्मान जाते रहेंगे और कायनात भस्म हो जाएगी। अव़्वल में इस दर्जे तक पाएदारी है जिस क़द्र ज़मीनी मुआमलात में हो सकती है। दुवम ख़ुदा के साथ अज़लियत में शरीक है। दुनियावी दोस्ती में बदल जाने का एहतिमाल (डर) है। रुहानी दोस्ती बेबदल और बेज़वाल (कम ना होने वाली) है। वो दोस्ती जो तबाइअ (तबइयत की जमा) और आदात के मुताबिक़त पर मौक़ूफ़ (ठहराया गया) है परवरदिगार की तरफ़ से इस चंद रोज़ा दुनिया की ज़ीनत (रौनक, इज़्ज़त) के लिए मुक़र्रर की गई है। लेकिन जिसका दारो-मदार मज़्हब पर है वो थोड़े अर्से के बाद ख़ुदा के फ़िर्दोस को आरास्ता करने के लिए मुंतक़िल की जाएगी। राबर्ट हाल

उलुहिय्यत येसू मसीह की तौज़ीह अज़ किताब मुक़द्दस

उलुहिय्यत येसू मसीह की तौज़ीह अज़ किताब मुक़द्दस

यूहन्ना 3:16 वो ख़ुदा का इकलौता बेटा है। यूहन्ना 15:18 उस के दुश्मनों ने उस पर ये तोहमत लगाई कि अपने तईं ख़ुदा के बराबर ठहराता है और मसीह ने इस का इन्कार नहीं किया। यूहन्ना 6:40 मसीह ने दावा किया कि वो आख़िरी दिन मुर्दों को जिलाए। और जो उस पर ईमान लाए हमेशा की ज़िंदगी पाएगा। यूहन्ना 5:23

The explaination of the Divinity of the Jesus Christ by the Holy Scripture

उलुहिय्यत येसू मसीह की तौज़ीह अज़ किताब मुक़द्दस

By

Malik Roshan Khan
मलिक रोशन ख़ान

Published in Nur-i-Afshan Oct 26, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 26 अक्तूबर 1894 ई॰

1. पैदाइश 18:2, 17, 28:13, 32:9, 31, ख़ुरूज 3:14, 13:21, 20:1, 2, 25:21 इस्तिस्ना 4:33, 36, 39, नहमियाह 9:7 ता 28 ये शख़्स यहोवा कहलाता है जो (ख़ुदा का इस्म-ए-ज़ात है) और साथ ही इस के उस को फ़रिश्ता या भेजा हुआ भी कहा है। पैदाइश 11, 13, 48, 15, 16, होसेअ 12:2, 5 इलावा बरीं ख़ुरूज 3:14, 15 बमुक़ाबला आमाल 7:30, 35 व ख़ुरूज 13:21 बमुक़ाबला ख़ुरूज 14:19 व नीज़ ख़ुरूज 20:1, 2 बमुक़ाबला आमाल 17:38 व यसअयाह 63:7, 9

2. लेकिन ख़ुदा बाप को किसी बशर ने हरगिज़ नहीं देखा। यूहन्ना 1:18, 6:46 और ना वो फ़रिश्ता या किसी दूसरे का भेजा हुआ हो सकता है। पर ख़ुदा का बेटा देखा गया। 1 यूहन्ना 1:2, 5:36

3. ये यहोवा जो पुराने अहदनामे में फ़रिश्ता या भेजा हुआ कहलाया है। नबियों की मार्फ़त इस्राईल का मुनज्जी और नए अहदनामे का बानी भी कहलाता है। ज़करयाह 2_10, 11 में आया है, कि एक यहोवा ने दूसरे यहोवा को भेजा है। फिर मीकाह 5:2 मलाकी 3:1 में मज़्कूर है कि “ख़ुदावन्द अहद का रसूल अपनी हैकल में आएगा।” ये मसीह से निस्बत किया गया है। (मर्क़ुस 1:2) पहर ज़बू र 97:7 बमुक़ाबला इब्रानियों 1:6 व यसअयाह 6:1 ता बमुक़ाबला, यूहन्ना 12:41

4. नए अहदनामे के अक्सर इशारे जो पुराने अहदनामे की तरफ़ किए गए इस हक़ीक़त पर सरीह दलालत (वाज़ेह सबूत) करती हैं। ज़बूर 78:15, 16, 35 बमुक़ाबला 1 कुरिन्थियों 10:9

5. कलीसिया तो दोनों अहद नामों में एक ही है। और इब्तिदा से येसू मसीह कलीसिया का नजातदिहंदा है और सर यानी सरदार भी। इस वास्ते ये अम्र नजात के सिलसिले में इन तीन उक़नूम इलाही (मुक़द्दस तस्लीस) के अफ़राद के ओहदों की निस्बत कलाम-ए-पाक में हम पर आश्कारा (ज़ाहिर) किया गया है। हमारे इस ख़याल से जो यहां पेश किया गया है निहायत ही मुताबिक़ हो जाता है। यूहन्ना 8:56, 58, मत्ती 23:37, 1 पतरस 1:10, 11

उस्क़ुफ़ फ़ोर्स साहब फ़र्माते हैं कि येसू मसीह की उलूहियत की दलीलें जो बाइबल में पाई जाती हैं कई एक साफ़ साफ़ और कई एक इशारे मज़्कूर हैं और वो ये हैं :-

अलिफ़ : वो दलीलें जो साफ़ साफ़ पाई जाती हैं।

यूहन्ना 1:1 कलाम ख़ुदा था। वो इब्तिदा में था। ख़ुदा के साथ था। [1]यूहन्ना 1:18 में इकलौता बेटा नहीं बल्कि इकलौता ख़ुदा (बमूजब मतन इन्जील यूनानी)[2]

यूहन्ना 3:16 वो ख़ुदा का इकलौता बेटा है। यूहन्ना 15:18 उस के दुश्मनों ने उस पर ये तोहमत लगाई कि अपने तईं ख़ुदा के बराबर ठहराता है और मसीह ने इस का इन्कार नहीं किया। यूहन्ना 6:40 मसीह ने दावा किया कि वो आख़िरी दिन मुर्दों को जिलाए। और जो उस पर ईमान लाए हमेशा की ज़िंदगी पाएगा। यूहन्ना 5:23 उसने फ़रमाया कि बाप की मर्ज़ी है कि सब बेटे की इज़्ज़त करें जिस तरह बाप की करते हैं। यूहन्ना 10:30 मैं और बाप एक हैं। यूहन्ना 17:5 दुनिया की पैदाइश से पेश्तर ख़ुदा बाप के साथ जलाल रखता था। यूहन्ना 14:6 कि उसने फ़रमाया, कि राह हक़, ज़िंदगी मैं हूँ। यूहन्ना 20:31 बल्कि इस इन्जील का मक़्सद यही है कि इस के पढ़ने वाले ईमान लाएं कि वो ख़ुदा का बेटा है। ये बात नविश्तों के और मुक़ामों से भी ज़ाहिर होती है। मसलन बाक़ी तीन इंजीलों से ज़ाहिर होता है कि जब उसने इब्ने-अल्लाह (अल्लाह का बेटा) होने का दावा किया तो यहूदीयों ने उस पर कुफ़्र का इल्ज़ाम लगाया। मत्ती 26:63, 64, मर्क़ुस 14:61-62, लूक़ा 22:70-71, रोमीयों 9:5 मसीह सब का ख़ुदा हमेशा मुबारक है। 1 यूहन्ना 5:20, यूहन्ना 20:28, व तितुस 2:13 इब्रानियों 1:8 व 1तीमुथियुस 3:16, आमाल 20:28 मसीह की उलूहियत पाक नविश्तों के मज़्मून से साबित है क्योंकि उनमें ये ताअलीम बराबर पाई जाती है कि एक ही ख़ुदा है उसी पर अपना भरोसा रखो वही नजातदिहंदा है और नए अहदनामे में बकस्रत ये ताअलीम मौजूद है कि येसू मसीह पर ईमान लाओ यही नजातदिहंदा है। अगर मसीह ख़ुदा ना होता तो ऐसी ताअलीम उस की निस्बत हरगिज़ ना दी जाती।

, येसू मसीह की उलूहियत की दलीलें जो बाइबल में इशारतन पाई जाती हैं दलाईल बाला से क़वी (मज़्बूत-तर) हैं मसलन गिनती 21:5, 6 को, 1 कुरंथियों 10:9 से मुक़ाबला करो कि उन्होंने जिस यहोवा का इम्तिहान किया वो मसीह है। और मलाकी 3:1 को मत्ती 11:10 से मुक़ाबला करो। और यसअयाह 8:13, 14, 15 को लूक़ा 2:34 व रोमीयों 9:23 से मुक़ाबला करो कि वो चट्टान और पत्थर मसीह है। और यसअयाह 6:1 को यूहन्ना 12:38 ता 41 से मुक़ाबला करो। ज़बूर 97, 7, 2:1 25:26 को इब्रानियों 6:10 के साथ मुक़ाबला करो।

ख़ुदा से ख़ुदा। यूहन्ना 1:1, 20:28, आमाल 20:28 रोमीयों 9, 5, 2 थिस्सलुनीकियों 1:12, 1 तीमुथियुस 3:16, तितुस 2:3 इब्रानियों 8, 1 यूहन्ना 5:20, जो इलाही सिफ़तें हैं। वो भी मसीह की तरफ़ मन्सूब की गई हैं मसलन मसीह का अज़ली व अबदी होना। यूहन्ना 1:1, 1, 2, 8:8, 17:5, मुकाशफ़ात 1:8, 17, 18, 22:13 मसीह ला तब्दील है। इब्रानियों 11, 12, 13:8 मसीह हाज़िर व नाज़िर है। यूहन्ना 3:13 इब्ने आदम आस्मान पर है यानी अज़रूए उलूहियत आस्मान पर था। मत्ती 18:20, 28:20 मसीह हमा दान है। मत्ती 11, 27, यूहन्ना 2:23 ता 25, 21:17 मुकाशिफ़ा 2:23

मसीह क़ादिर-ए-मुतलक़ यूहन्ना 5:17, इब्रानियों 1:3, मुकाशिफा 1:18, 11:17 अफ़आल इलाही भी मसीह की तरफ़ मन्सूब हैं मसलन मसीह ख़ालिक़ है। यूहन्ना 1:3, 10, कुलिस्सियों 1:16, 17 मसीह पर परवरदिगार और संभालने वाला है। इब्रानियों 1:3 कुलुस्सियों 1:17, मत्ती 28:18

मसीह अदालत करने वाला है। 2 कुरंथियों 10, मत्ती 25:31, 32, यूहन्ना 5:22 मसीह हमेशा की ज़िंदगी का देने वाला। यूहन्ना 10:28

मसीह माबूद बरहक़ है। मसलन मत्ती 28:19, यूहन्ना 5:22, 23, 14:1, 1:3 आमाल 7:59, 60, 1 कुरंथियों 1:2, 2 कुरंथियों 13:14, फिलिप्पियों 2:9, 10, इब्रानियों 1:6, मुकाशफ़ा 1:5, 6, 5:11, 12, 7:10 एक और बुज़ुर्ग ने इब्रानियों 1:3 की ये तफ़्सीर की, कि रोशनी आग में भी है और आग भी है और आग रोशनी का सबब है और रोशनी आग से जुदा नहीं हो सकती है और ना आग अपनी रोशनी से जुदा हो सकती है। क्योंकि जैसी आग है वैसी ही उस की रोशनी है। पस अगर हम अपने हवास से पहचान सकते हैं कि एक चीज़ दूसरी चीज़ से भी हो और उस चीज़ में भी हो, तो क्योंकर ना मानें। जैसा कि रसूल फ़रमाता है कि ख़ुदा का लोगास यानी ख़ुदा का इकलौता बेटा मुतवल्लिद (पैदा भी हुआ) और हमेशा से उस शख़्स के साथ रहता है कि जिससे वो मुतवल्लिद हुआ। जैसा जलाल वैसी उस की रौनक जलाल अज़ली है इसलिए वो रौनक भी अज़ली होगी। और जैसी रोशनी और आग की एक ही माहीयत (हक़ीक़त, अस्ल) है वैसी ही बाप और बेटे की एक ही माहीयत (असलियत) है। और फिर उसी आयत में ये लिखा है कि वो यानी मसीह ख़ुदा की माहीयत (हक़ीक़त, अस्ल) का नक़्श है। ये 2 कुरंथियों 4:4 के मुताबिक़ है कि मसीह ख़ुदा की सूरत है। और कुलुस्सियों 1:15 और अन-देखे ख़ुदा की सूरत है और ये हमारे ख़ुदावंद के इस क़ौल के मुताबिक़ है कि “जिसने मुझे देखा उसने बाप को देखा।” जब हम मसीह को ख़ुदा का कलाम कहते हैं तो हम ये ज़ाहिर करना चाहते हैं कि वो अज़ल से बाप के साथ था और जब हम उसे ख़ुदा का बेटा कहते हैं तो हमारा मतलब ये होता है कि वो एक इकुनुम है। यूहन्ना 14, 10

जिस रसूल ने फ़रमाया कि ख़ुदा नूर है। (यूहन्ना 1:5) उसी ने ये भी फ़रमाया है कि बेटा हक़ीक़ी नूर है। (यूहन्ना 1:9) यानी जैसा नूर आफ़्ताब के साथ जैसे गर्मी आग के साथ जैसे नदी चशमे के साथ जैसे ख़याल अक़्ल के साथ एक है। वैसे ही मसीह की उलूहियत ख़ुदा बाप के साथ एक है। एक बुज़ुर्ग फ़र्माते हैं कि जब मैं ये कहता हूँ कि बेटा और है और बाप और है। तो मेरा मतलब ये नहीं है कि दो ख़ुदा हैं। मगर ये कि जैसे नूर से नूर, चशमा से पानी, सूरज से किरण वैसा ही ख़ुदा से ख़ुदा है।

सिकंदरीया के करलास साहब फ़र्माते हैं, कि हमें हरगिज़ ये ना समझना चाहिए कि लोगास (कलाम) या अक़्ल ख़ादिम था और दूसरे की मर्ज़ी के ताबे हो कर काम करता था। वर्ना वो ख़ालिक़ ना होता। अन्ताकिया केथीव फ़लस साहब फ़र्माते हैं कि बेटा आपसे कुछ नहीं कर सकता, इसलिए कि उस में ऐसी कोई चीज़ नहीं है जो बाप से अलग और बाप से मुख़्तलिफ़ हो। मगर सब बातों में अपने बाप की मानिंद है। और जैसे उस की वही हस्ती और माहीयत (अस्ल) है जो बाप की है। वैसी उस की वही क़ुव्वत भी है जो बाप की भी है और इस वास्ते वो वही काम करता है जो बाप भी करता है। और कोई नहीं कर सकता क्योंकि उस में और कोई क़ुव्वत बाप से बढ़कर नहीं है, कि उनकी माहीयत (असलियत) और ताक़त व काम एक ही हैं।

क़ौल हज़रत आशिक़ उल्लाह साहब पिशावरी, फ़र्द शक्ल इन्सान में ख़ुदा था मुझे मालूम ना था।

 


[1] ये दलील उस्क़ुफ़ साहब ममदूह ने पेश नहीं फ़रमाई। बंदा मुबारिज़।

 

[2] दर-मतन क़दीम तरीन नुस्ख़ा हाय यूनानी लफ़्ज़ याह बमअने ख़ुदा-याफ्ता शुद