हमारी ज़िंदगी और अय्यूब की ज़िंदगी

उस के चाल चलन की बाबत लिखा है कि वो ख़ुदा से डरता और बदी से बाज़ रहता था। ख़ुदा ने भी उस को बहुत बढ़ाया। उस के सात बेटे और तीन बेटियां थीं। और उस के माल की बाबत ज़िक्र है कि उस के पास सात हज़ार भेड़ें और तीन हज़ार ऊंट, पाँच सौ जोड़ी बेल और पाँच सौ गधीयाँ थीं। उस के बहुत से नौकर-चाकर भी थे। और अहले मशरिक़ में उस की मानिंद कोई मक़्बूल (मशहूर)

Our Life and Life of Job

हमारी ज़िंदगी और अय्यूब की ज़िंदगी

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 5, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 5 जनवरी 1894 ई॰

अय्यूब का वतन

औज़ की सर-ज़मीन में एक शख़्स अय्यूब नामी था। उस की बाबत लिखा है कि वो कामिल और सादिक़ था।

 का चलन

उस के चाल चलन की बाबत लिखा है कि वो ख़ुदा से डरता और बदी से बाज़ रहता था। ख़ुदा ने भी उस को बहुत बढ़ाया। उस के सात बेटे और तीन बेटियां थीं। और उस के माल की बाबत ज़िक्र है कि उस के पास सात हज़ार भेड़ें और तीन हज़ार ऊंट, पाँच सौ जोड़ी बेल और पाँच सौ गधीयाँ थीं। उस के बहुत से नौकर-चाकर भी थे। और अहले मशरिक़ में उस की मानिंद कोई मक़्बूल (मशहूर) ना था। उस का ईमान ख़ुदा पर था। वो सादिक़ और मर्द-ए-ख़ुदा था। ख़ुदा भी उस को अपना “बंदा” कहता है। देखो (किताब अय्यूब 1:8)

अय्यूब ख़ुशी से अपने ख़ानदान में रहता था। ज़िंदगी का सामान ख़ातिर-ख़्वाह उस को मुहय्या था। जिस्मानी नेअमतों से भी वो माला-माल था और रुहानी बरकतें भी उस के शामिल-ए-हाल थीं। किसी चीज़ की मोहताजी उस को ना थी। कामिल और सादिक़ होने के सबब से वो और भी ख़ुश व ख़ुर्रम था। और ख़ुदा में मसरूर रहता था। जब कि अय्यूब के चारों तरफ़ अमन और चेन था।

अय्यूब की आज़माईश

और किसी क़िस्म का फ़िक्र व ग़म उस के दिल में ना था। इत्तिफ़ाक़न उस का ईमान आज़माया गया। और उस के प्यारे लड़के और लड़कीयां एक दम मर गए सिर्फ़ वो और उस की औरत अकेले रह गए। और ना सिर्फ ये ही हुआ। बल्कि यके बाद दीगरे उस का माल और अस्बाब सब रफ़्ता-रफ़्ता बर्बाद हो गया। और आख़िरकार उस के पास कुछ ना रहा और वो ख़ाली हाथ रह गया। वो जो एक बड़ा मालदार था बिल्कुल कंगाल (तंगहाल) हो गया। और अगरचे इस तरह वो बेऔलाद और बे-घर व बेज़र (बग़ैर रुपया) हो गया। और उस की ज़िंदगी तल्ख़ (ना-गवार) हो गई। लेकिन इस सादिक़ और कामिल शख़्स ने इन तमाम तक्लीफ़ात और आफ़ात में ज़रा भी घबराहट और दिल में तंगी ज़ाहिर ना की बल्कि ऐसे मौक़े पर जब कि उस को ग़म पर ग़म, और रंज पर रंज हो रहा था, उसने कहा “अपनी माँ के पेट से मैं नंगा निकल आया और फिर नंगा वहां जाऊँगा।” और ये सब कुछ जाता देखकर उसने कहा, “ख़ुदावंद ने दिया, ख़ुदावंद ने ले लिया। ख़ुदावंद का नाम- मुबारक है।” पर इतने ही पर इक्तिफ़ा (काफ़ी होना) ना हुआ बल्कि अय्यूब को सख़्त और बुरी तरह सर से लेकर पांव तक जलते फोड़े निकले। और वो खुजाते खुजाते लहूलुहान हो गया। और उस का तमाम बदन लहू से भर गया। उस की ज़िंदगी ना सिर्फ बैरूनी तक्लीफ़ात से ही रंजीदा और ग़मगीं हो कर अज़-हद दुख में थी, बल्कि ख़ुद उस को ऐसी तक्लीफ़ थी कि जिसका बयान नहीं हो सकता। इस पर और भी ज़्यादती ये हुई कि ऐसे दुख के वक़्त में तमाम उस के दोस्त भी उस के दुश्मन हो गए। यहां तक कि ख़ुद उस की औरत भी उस के साथ हम्दर्द ना रही। वो भी उस के ज़ख्मी दिल को गाह बगाह ज़्यादातर रंजीदा कर देती थी।

अय्यूब का सब्र

लेकिन ये मर्द-ए-ख़ुदा ऐसा साबिर रहा। और हर एक दुख और तक्लीफ़ को उसने तन्हा ऐसा बर्दाश्त किया कि वो साबिर कहलाया। और अय्यूब का सब्र दुनिया में ज़रब-उल-मसल (मशहूर मिसाल) ठहर गया। अगरचे अय्यूब ने अपने रंज व ग़म का अंदाज़ा यहां तक किया कि उसने ख़ुद कहा, कि “ऐ काश कि मेरा ग़म तोला जाता और मेरा ग़म तराज़ू में एक साथ धरा जाता। क्योंकि वो अब समुंद्र की रेत से भारी ठहरता।” तो भी उसने अपनी ज़बान से कोई बुरा कलिमा ना निकाला। अक्सर देखने में आता है, कि जब आदमी किसी सख़्त तक्लीफ़ या दुख में गिरफ़्तार होता है। तो वो कुड़ कुड़ाता है। और अपने मुंह से बुरी बातें बोलता है। और ख़ुदा पर इल्ज़ाम लगाता है। लेकिन अय्यूब ने ऐसा ना किया। बल्कि सब्र के साथ इस सबको कमाल बर्दाश्त से सह लिया। और ख़ुदा की मर्ज़ी पर राज़ी रहा। इसलिए अय्यूब का सब्र हक़ीक़तन एक अजीब सब्र है। और वो साबिर कहलाने के लायक़ है। वो इन मुतज़क्किरा बाला तक्लीफ़ात को बर्दाश्त करते वक़्त यूं कहता है, “अगरचे मैं सादिक़ होता, तब भी उसे जवाब ना देता। बल्कि अपने अदालत करने वाले से मिन्नत करता।”

अय्यूब ने अपनी तक्लीफ़ और दुख के वक़्त जो बातें ज़बान से निकालीं। वो निहायत नसीहत-आमेज़ हैं। बाअज़ जगहों में उसने इन्सान की ज़िंदगी की कोताही पर ऐसे कलिमात कहे हैं कि जिनसे इस फ़ानी ज़िंदगी का नक़्शा खींच कर दिखला दिया है। और बाअज़ जगह रुहानी ज़िंदगी की बेश-क़ीमत नेअमतों का बयान करते-करते बहिश्त का उम्दा नक़्शा खींच कर दिखाया है। बाअज़ जगह ख़ुदा की अदालत का और बाअज़ जगह उस की रहमत का अजीब इज़्हार किया है। दुख की हालत में गोया उस का दिल बेपर्वाई से खुल गया। और उसने दिल की सदाक़त से हक़ बातों का इज़्हार किया। अय्यूब की हालत वो ना रही, बल्कि पेश्तर के मुवाफ़िक़ ख़ुदा ने उस को हर एक चीज़ से माला-माल किया। इतने ही लड़के लड़कीयां फिर उस के घर में पैदा हो गए। और उतना ही माल व अस्बाब।

अय्यूब की हालत का बदलना

बल्कि इस से भी ज़्यादा फिर हो गया। उस के सब्र का फल मीठा निकला। और इस तरह से ख़ुदा का बंदा अय्यूब आज़माईश में पूरा निकला। वो आज तक ख़ुदा के बंदों के लिए एक नमूना है ताकि वो भी उस की मानिंद सादिक़ और कामिल हों। और उस का सा सब्र सीखें। (बाक़ी आइन्दा)

काम की मुहब्बत

पिछले आर्टीकल में हमने जोश का कुछ ज़िक्र किया था। अब हम नाज़रीन की ख़िदमत में एक और बात पेश करते हैं। जो इरादे को फ़ेअल में लाने के लिए हिम्मत और जोश की तरह लाज़िमी है। और वो

Love of Work

काम की मुहब्बत

By

Talib
तालिब

Published in Nur-i-Afshan Dec 17, 1891

ननूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 17 दिसंबर 1891 ई॰

सिलसिले के लिए देखो नूर अफ़्शां नम्बर 48

पिछले आर्टीकल में हमने जोश का कुछ ज़िक्र किया था। अब हम नाज़रीन की ख़िदमत में एक और बात पेश करते हैं। जो इरादे को फ़ेअल में लाने के लिए हिम्मत और जोश की तरह लाज़िमी है। और वो :-

3. इरादा कर्दा शूदा फ़ेअल की मुहब्बत है जिस तरह हिम्मत और जोश की अदम (ग़ैर) मौजूदगी में किसी काम को अंजाम देना मुश्किल है। इस तरह इस सिफ़त की गैर-हाज़िरी में इस को पूरा करना ग़ैर-मुम्किन होगा। बचपन का ज़माना ग़ौर के लायक़ है। हम वो वक़्त याद दिलाना चाहते हैं, जब कि माँ बाप आपको स्कूल भेजते थे। मगर आप चोरी छिपे गली कूचों में गोलीयां खेलने, या पतंग उड़ाने, या आस्मान पर कबूतरों की क़लाबाज़ीयां देखने लग जाते थे। और घंटों वहीं गुज़ार देते थे। उस वक़्त स्कूल से गुरेज़ करने का सिवाए इस के कि पढ़ने से उल्फ़त ना थी, कोई और सबब ना था। अगर उन दिनों वालदैन की तरफ़ से गोशमाली (तम्बीह करना) और उस्ताद की सूरत मलक-उल-मौत (मौत का फ़रिश्ता) की तरह डराने वाली ना होती तो आप क़ाएदे किताब को तो बालाए ताक़ रखते, बल्कि उस की भी गोलीयां बना कर खेल में ऐसे मसरूफ़ होते कि सुबह से खेलते खेलते शाम कर देते, और फिर ना थकते। पढ़ने से उन्स (मुहब्बत) ना था। इसलिए इस से पहलूतिही (दामन बचाना) करते थे। खेलने से तबीअत को लुत्फ़ मिलता था। इस वास्ते इस में मशग़ूल रहते थे। लेकिन उस्ताद की सूरत मौसूफ़ (तारीफ़ के क़ाबिल) ने इतनी इनायत (मेहरबानी) की कि कुछ-कुछ पढ़ते भी रहे। इतने में वो वक़्त आ पहुंचा कि शायरों के जादू भरे ख़यालात और मुसन्निफ़ों की इश्क़ अंगेज़ तस्नीफ़ात समझने का (सलाहीयत) माद्दा पैदा हुआ। तबीअत कुछ शबाब (जवानी) के लिहाज़ से, कुछ समझ के ज़्यादा हो जाने के सबब से उधर राग़िब (माइल) हुई शौक़ पैदा हुआ, तो और भी क़िस्म क़िस्म की किताबें देखने लगे। फिर तो ऐसे मसरूफ़ हुए कि रात-दिन एक कर के दिखा दिया। और जिधर रुजू हुए, कमाल ही पैदा करके छोड़ा। अगर शायरी की तरफ़ झुके तो शायरों में नाम हासिल किया। अगर फ़ल्सफ़े की तरफ़ गए तो अफ़लातुन और अरस्तू से पानी भरवाया। अगर साईंस की तरफ़ मीलान (रुझान) हुआ। तो वहां भी अपना सिक्का जमा (रुअब जमाना) कर हटे। इस तरक़्क़ी और कमाल का बाइस माँ बाप की सरज़निश (तंबीया) या उस्ताद की धमकी ना थी। इस का बाइस वही मुहब्बत थी, जो तहसील-ए-इल्म (इल्म हासिल करना) के लिए आपके दिल में पैदा हुई माँ बाप की सख़्ती और उस्ताद का ग़ज़ब इस रुत्बे तक पहुंचाने में क़ासिर (लाचार) है। आपको ज़रूर किसी ऐसे लड़के का हाल याद होगा, जिसके माँ बाप ने हर तरह से कोशिश की कि वो इल्म हासिल करे। कभी उस को मिठाई ले दी। कभी उम्दा कपड़े बनवा दिए। कभी घड़ी ख़रीद दी। कभी नसीहत से समझाया और जब यूं ना माना तो मुशकीं कस (बाज़ू बांध) कर धूप में डाल दिया। या कभी कोठरी में बंद कर दिया। कभी खाना ना दिया। कभी पीट डाला। ग़रज़-कि लाड दुलार (मुहब्बत) से ज़ोर जबर (सख़्ती, ज़बरदस्ती) से। जो कुछ कर सकते थे, उन्होंने सब कुछ किया। लेकिन उस पर कुछ असर ना हुआ। अगर हुआ तो ये कि और भी चिकना घड़ा (बेशर्म) बना दिया। अगर उस में पढ़ने लिखने की मुहब्बत होती, तो वो ख़ुद बख़ुद इल्म हासिल करने में लगा रहता। और ऐसी दुरुश्ती (सख़्ती) और नर्मी की चंदाँ हाजत (बिल्कुल ज़रूरत) ना होती। मगर चूँकि इल्म से उन्स (लगाओ) ना था। इस इनायत (मेहरबानी) और सख़्ती ने भी कुछ काम ना किया और वो ख़ाली रहा। सिर्फ इल्म ही में नहीं, बल्कि हर एक हुनर। हर एक हिर्फ़ा (पेशा) और हर एक काम में इस बात की तस्दीक़ (सबूत) होती है।

ना वह कभी थकता और ना कभी शिकायत ही करता है

काम से लज़्ज़त उठाने का एक फ़ायदा ये होता है कि इन्सान इस में ज़्यादा तवज्जोह सर्फ़ करता है। हमें एक लतीफ़ा याद आता है, गो वो ज़र्राफ़त (मज़ाक़) से भरा हुआ है। ताहम इस मौक़े पर निहायत नसीहत आमेज़ मालूम होता है। कहते हैं कि एक नौजवान साहब कमरे में बैठे अपनी मंसूबा (मंगेतर) के मुहब्बतनामे की राह देख रहे थे। मगर इत्तिफ़ाक़ से नामा-बर (ख़त लाने वाला) को देर लग गई। एक एक पल सदीयों के बराबर गुज़रने लगा। कभी अंदर आते, कभी बाहर जाते। कभी आह सर्द भर कर कुर्सी पर गिर पड़ते थे। कभी फिर उठ कर दरीचे (खिड़की) से झांक लेते थे। इस तरह बहुत हाथ पांव मारे एड़ीयां रगड़ीं, लेकिन नामा बर (ख़त लाने वाला) की बू तक ना आई। आख़िर इस इज़तिराब (बेचैनी) में साहब को ये सूझी कि चिट्ठी रसां तो क्या जाने कब आए चलो हम ज़रा ख़त (हजामत बनाना) ही बना लें। आईना ढब (तरीक़ा) से रखकर साबुन मलना शुरू किया। जब रेश-ए-मुबारक (दाढ़ी) के बाल ख़ूब भीग गए, तो आपने उस्तरा उठाया, और सफ़ाई शुरू की। लेकिन ध्यान चिट्ठी रसां की तरफ़ अब भी लगा हुआ है। दरवाज़े की तरफ़ बार-बार देखते जाते हैं। मूंछों के नज़्दीक जब उस्तरा पहुंचा। तो किसी ने किवाड़ (दरवाज़ा) खटखटा कर कहा, हुज़ूर चिट्ठी। चिट्ठी का नाम सुनते ही बे-इख़्तियार मुँह फेरा। और ये भूल गए कि हाथ में उस्तरा भी है। मुँह फेरना था कि निस्फ़ नाक नदारद (आधी नाक कट गई) घबरा कर उठे। तो उस्तरा हाथ से निकल कर पांव पर बैठा। वहां अँगूठा क़लम (कट) कर दिया। अब फ़िक्र ये लगी कि चिट्ठी रसान के सामने हूँ तो क्योंकर हूँ। सोचते सोचते ये ठहरी, कि नाक का टुकड़ा उस की जगह, और अंगुठा उस की जगह लगा दूँ, और फिर चिट्ठी लेने जाऊं। झुक कर उठाने लगे मगर ये भी बे तू जुही (लापरवाही) से। जल्दी जो की तो नाक का टुकड़ा पांव में, और पांव का अँगूठा नाक में लग गया। अजीब अलख़लफ़त (अनोखी शक्ल) का बन गए। चाहे ये बात सच्च हो या ना हो। लेकिन इस अम्र का इन्कार कोई नहीं कर सकता, कि बेतवज्जुही के नतीजे इसी क़िस्म के होते हैं। अगर इस लतीफे का हीरो (बहादुर) एक काम तवज्जोह और रग़बत (दिलचस्पी) से करता। यानी अगर इंतिज़ारी करने लगा था, तो इंतिज़ारी ही करता या अगर ख़त बनाने लगा था, तो ख़त ही तवज्जोह से बनाता। तो नाक और पांव की खंडित (टुकड़े) ना होती।

एक और फ़ायदा काम से लज़्ज़त उठाने का यह होता है कि जितना हिस्सा इस काम का दिल की ख़ुशी और रजामंदी से किया जाता है। वो नुक्ता-चीनी और ऐब गीरी (नुक़्स) से बरी (पाक) होता है। बल्कि आला दर्जे की ख़ूबसूरती और कमालियत ज़ाहिर करता है। एक मर्तबा एक दोस्त के हाँ जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ। वो कुछ लिख रहे थे। क़लम आंधी की तरह चल रहा था। और रोशनाई (स्याही) किसी जगह तो इतनी गिर पड़ती थी कि सारी जगह काली हो जाती थी, और किसी जगह इतनी थोड़ी कि ऐनक लगा कर भी देखते तो हुरूफ़ मुश्किल से नज़र आते। उन से पूछा कि भाई इतनी जल्दी क्यों करते हो? कोई तल्वार तो लिए नहीं? जवाब दिया। अरे भई ख़ामोश ही रहो।

बला को सर से टलने दो। उधर वो ये जवाब देते थे। और इधर उनका दस्तख़त (हाथ से लिखा) ज़बान-ए-हाल से ये कह रहा था। मियां तुमने तो मुफ़्त में जवाब देने की तक्लीफ़ उठाई। ये तो सिर्फ सर बतरफ़ देखने से मालूम हो जाता कि आप ने बला ही टाली है। अगर ऐसे ख़त के मुक़ाबिल एक नस्तअलीक़ (फ़ारसी का रस्म-ए-ख़त जो साफ़ और सीधा होता है) खुशख़त रिसाला रख दिया जाये। तो उस का एक एक नुक़्ता और शोशा पुकार कर ये कहेगा। कि मुझको ये ख़ूबसूरती और ख़ुश-उस्लूबी, और मेरे लिखने वाले को तहसीन व आफ़रीं (तारीफ़ व मर्हबा) हरगिज़ नसीब ना होती। अगर वो सब कुछ छोड़ छाड़ कर मुझको मुहब्बत के साथ ना लिखता। और मेरी ख़ूबसूरती को बहम पहुंचाने में ज़र ज़ोर (पैसा, क़ुव्वत) और मग़ज़ (दिमाग़) ख़र्च ना करता। कैसी-कैसी तस्वीरें नज़र से गुज़रती हैं, जिनका दिलकश कमाल देखने वालों को हैरत आग का पुतला बना देता है। कैसी-कैसी इमारतें आँखों के सामने आती हैं, जिनकी बे मिस्ली और बेनज़ीरी पर लोग अश अश (बहुत ख़ुश हो कर तारीफ़ करना) करते थकते नहीं। कैसी कैसी अलवाल ग़र्मियां सुनने में आती हैं, जिनका फ़क़त तज़्किरा सामईन (सुनने वाले) के अंदर उमंगों के दरिया जारी कर देता है। कैसी-कैसी जान निसारियां वाक़ेअ होती हैं, जिनका मह्ज़ इल्म दिल में जोश की आग भड़का देता है। पर अगर इन तमाम इल्मी और जंगी और मज़्हबी कामों की तह में नज़र करें, तो इनकी बुनियाद उसी मुहब्बत पर पाएंगे, जिसका ज़िक्र हम कर रहे हैं।

जब कि वह तमाम व कमाल इस काम को अंजाम दे चुकता है

सबसे बड़ा फ़ायदा काम की मुहब्बत से से ये होता है कि अपने काम को करने वाला पूरा करके छोड़ता है। वो निस्फ़ या तीन चौथाई पूरा करने से ख़ुश नहीं होता। उस की ख़ुशी उस वक़्त कामिल (पूरी) होती है, जब कि वो तमाम व कमाल उस काम को अंजाम दे चुकता है। ना वो कभी थकता और ना कभी शिकायत ही करता है। अब हम उन अहबाब की तरफ़ मुख़ातब होना चाहते हैं। जो मसीही मज़्हब के फ़ैज़ व फ़ज़्ल से, और उस की लज़्ज़त से वाक़िफ़ हो चुके हैं। मगर दुनियावी पाबंदीयों के सबब से अपने ईमान और नजात के काम को पूरा नहीं करते। ये याद रखना चाहिए कि इस लज़्ज़त का घटाना, और बढ़ाना बैरूनी अस्बाब पर बहुत मुन्हसिर है। अगर आप शहद खाते खाते हंज़ल (حنظل तमां, कड़वा फल) का लुक़मा भी ले लें, और फिर शहद की ख़ालिस शीरीनी चाहें। तो ये नामुम्किन है। अगर साफ़ और शीरीं लज़्ज़त दरकार हो, तो उसी अकेले को इस्तिमाल करना चाहिए। प्यारो मसीह का इक़रार करो। क्योंकि उस का इक़रार करना ईमान के काम को पूरा करना है। दिल में मानना और ज़ाहिर में इक़रार ना करना। गोया एक इमारत को निस्फ़ हिस्से तक तैयार करके छोड़ देना है। अगर मकान की दीवारें तैयार की जाएं, खिड़कियाँ और दरवाज़े अंदाज़ से लगा दिए जाएं। आईने मौक़ा बमौक़ा सलीक़े से जोड़ दिए जाएं। क़ालीनों के फ़र्श ठाठ से बिछाए जाएं। लेकिन अगर इस नीम तैयार सजे हुए मकान पर छत ना हो तो इस ज़ेबाइश से किया सूद (फ़ायदा)? अज़ीज़ो ईमान के मकान को ज़रूर पूरा करना चाहिए ताकि ख़ुदावंद के लिए हैकल तैयार हो। ताकि वो इस में बसे और उस की सल्तनत इस में क़ायम हो। और दुनिया जाने कि तुम इस में हज़ (लुत्फ़) उठाते हो और वह तुम में। डाक्टर पन्टिकास्त साहब ने एक और दिन अपने लेक्चर में ज़ेल का क़िस्सा बयान किया। और चूँकि इस जगह भी इस का बयान ज़ेबा (मुनासिब) मालूम होता है इसलिए हम पेश करते हैं। मुल्क स्कॉटलैंड में जब इस बात का चर्चा हुआ कि हिन्दुस्तान, चीन और जापान में मिशनरियों के भेजने का इंतिज़ाम करना चाहिए ताकि वहां जा कर इन्जील मुक़द्दस की बशारत (ख़ुश-ख़बरी) दें तो एक नौजवान लड़की के दिल में ये आरज़ू पैदा हुई कि मैं भी वहां जाऊं। और जा कर अपनी बहनों को मसीह के फ़ज़्ल और मुहब्बत की ख़बर दूँ। माँ को चुपके से कहा, प्यारी मामा इस मामा को दाई वाली ना समझें। अहले बर्तानिया माँ को कहते हैं मेरी प्यारी मामा मैं तो हिन्दुस्तान जाऊँगी। एक तो दिल की ममता कुछ हसब व नसब और माल व दौलत का ग़ुरूर। बुढ़िया निहायत मलूल (ग़म-ज़दा) हुईं। थोड़ी देर तक सकता (बे-होशी) के से आलम में रहीं। मगर जब बेटी को बार-बार यही कहते सुना तो झिड़क कर ये जवाब दिया, अरे लड़की! तू कहीं दीवानी हो गई है? ये क्या रट लगाई है? हिन्दुस्तान जाऊँगी, हिन्दुस्तान जाऊँगी। बावली (पागल) ! कहीं तेरी उम्र की लड़कीयां भी ऐसे-ऐसे काम कर सकती हैं? हाँ मैं मानती हूँ कि ये काम बहुत अच्छा है। पर बेटी तुम ऐसी नाज़ पर्वर्दों (लाड से पली हुई) से नहीं हो सकता। अगर चाहो तो रुपया से, पैसे से मदद दो। हम तुमको नहीं रोकेंगे। मगर जाने का नाम ना लो। बेटी ने रोते और माँ की बलाऐं (प्यार करना) लेते हुए कहा, प्यारी माँ मुझे जाना है, और मैं ज़रूर जाऊंगी। माँ ने बाप ने दोस्तों ने हर-चंद मना किया लेकिन वो कब मानती थी। उस के अन्दर यह सदा आ रही थी उठ और इस मुबारक काम को अंजाम दे। उसने इस आवाज़ को सुना। और इस के बमूजब अमल भी किया। इस तरह के और हज़ारों तारीख़ी क़िस्से मौजूद हैं। मसलन शोहदा के अहवाल जिनके मुतालआ से दिल उमड़ आता है। और आँखें आँसूओं से भर जाती हैं। उनका सूली दिया जाना। शिकंजों में खींचा जाना। पथराओ किया जाना। क़ैद में डाला जाना। और आरों से चीरा जाना। इस बात पर शहादत दे रहा है कि वो अपने ईमान से और इक़रार से लज़्ज़त उठाते थे और इस लज़्ज़त के मुक़ाबिल उन तमाम मुसीबतों को नाचीज़ समझते थे। अज़ीज़ो तुम भी मसीह का इक़रार करो। और इस मुबारक काम को अंजाम दो।

(बाक़ी फिर)

राक़िम

तालिब

सारे आदमी नजात पाएं

इस में शक नहीं कि ज़माना-ए-हाल में अक्सर आदमी ना सिर्फ यूरोप व अमरीका में बल्कि हिन्दुस्तान और दीगर ममालिक में ऐसे मुल्हिद व बेदीन (काफ़िर) पाए जाते हैं। जो दुनिया में बे उम्मीद और बे ख़ुदा हो कर अपनी ज़िंदगी बसर करते। और बिल-आख़िर कफ़-ए-अफ़्सोस (पछताना) मलते हुए बिला चारी मौत के क़ब्ज़े में हमेशा के

All People will get salvation

सारे आदमी नजात पाएं

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Nov 26, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 26 नवम्बर 1891 ई॰

“वो (ख़ुदा) चाहता है कि सारे आदमी नजात पाएं और सच्चाई की पहचान तक पहुंचें कि ख़ुदा एक है और ख़ुदा और आदमीयों के बीच एक आदमी भी दर्मियानी है वो यसूअ है।” (1 तीमुथियुस 2 बाब 4,5 आयात)

سارے آدمی نجات پائیں اور سچائی کی پہچان تک پہنچیں

इस में शक नहीं कि ज़माना-ए-हाल में अक्सर आदमी ना सिर्फ यूरोप व अमरीका में बल्कि हिन्दुस्तान और दीगर ममालिक में ऐसे मुल्हिद व बेदीन (काफ़िर) पाए जाते हैं। जो दुनिया में बे उम्मीद और बे ख़ुदा हो कर अपनी ज़िंदगी बसर करते। और बिल-आख़िर कफ़-ए-अफ़्सोस (पछताना) मलते हुए बिला चारी मौत के क़ब्ज़े में हमेशा के लिए फंस जाते हैं और एक ऐसे आलम में जा पहुंचते हैं जहां रोना और दांट पीसना होता है और जहां की आग कभी नहीं बुझती और कीड़ा कभी नहीं मरता। ताहम दुनिया में मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब वाले करोड़ों करोड़ बनी-आदम हैं जो इस बात के मुकर (मानने वाले) और मुअतक़िद (अक़ीदतमंद, एतिक़ाद रखने वाले) हैं कि ज़रूर एक ख़ुदा है जो सभों का ख़ालिक़ व मालिक है और जिसकी इताअत व इबादत (फ़रमांबर्दारी व बंदगी) करना सभों पर वाजिब व लाज़िम है। वो ये भी मानते हैं कि ख़ुदा आदिल व क़ुद्दूस और बनी-आदम गुनाहगार व क़सूरवार हैं। और इसी लिए उन्होंने अपनी नजात और हुसूले माफ़ी के लिए किसी ना किसी तरह का ज़रीया अपने लिए ठहरा रखा है। बाअज़ का ख़याल है कि उनके आमाल हसना (नेक काम) उनकी नजात का काफ़ी ज़रीया हैं। और ख़ुदा के साथ सुलह और मिलाप हासिल होने के लिए किसी दर्मियानी की ज़रूरत मुतलक़ (बिल्कुल) नहीं है। बहुतों ने आमाल नेक के सिवा एक शफ़ी (शफ़ाअत करने वाला) या दर्मियानी की ज़रूरत भी मालूम कर के किसी पीर व पैग़म्बर या देवी देवता को अपनी नजात का वसीला, या शफ़ाअत करने वाला और ख़ुदा से मिला देने वाला समझ रखा है। और बावजूद देखा, इन मन-माने दर्मियानियों और शफ़ाअत कनंदों की आम कमज़ोरीयों और अमदी व सहवी (बड़ी ग़लती) ख़ताओं और तक़सीरों (गुनाहों) से वाक़िफ़ हैं। ताहम उनकी ऐसी बातों को तर्क ऊला या लीला वग़ैरह कह के उन्हीं की शफ़ाअत और दस्त-गीरी (मदद) पर अपनी उखरवी बहबूद व नजात (आख़िरत की भलाई और रिहाई) का भरोसा किए हुए हैं। ख़ुदा और इन्सान के दर्मियान एक शफ़ी व दर्मियानी की ज़रूरत गुनाहगार आदमी के दिल में क़ुदरती तौर पर ऐसी जमी हुई है कि वो किसी दलील व दलाईल से हरगिज़ मिट नहीं सकती। तो भी बाअज़ आदमी इस ख़याल में अपने को मुत्मइन किए हुए हैं कि सिर्फ ख़ुदा ए वाहिद की हस्ती का मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) होना, इन्सान की नजात के लिए काफ़ी व वाफ़ी है। चुनान्चे गुज़श्ता सफ़र में ऐसा वाक़ेअ हुआ कि हम साथ, हम-राही एक मैडीकल मिशनरी साहब के एक नौजवान मसीही लड़की को जो क़रीब-उल-मर्ग थी देखने के लिए उस के मकान पर गए। और जब डाक्टर साहब मौसूफ़ ने दो तीन मर्तबा उस लड़की को बनाम पुकारा तो उसने आँखें खोल के हम लोगों को देखा। डाक्टर साहब ने उस से कहा कि तुम्हारी दिली हालत इस वक़्त कैसी है? क्या तुम अपने नजातदिहंदा ख़ुदावंद यसूअ मसीह पर भरोसा रखती हो कि वो तुम्हें बचाएगा, और तुम्हारी मदद करेगा? उसने बआहिस्तगी जवाब दिया कि “हाँ” और ये कह के आँखें बंद कर लीं। मरीज़ा की हालत से ज़ाहिर था कि वो चंद घंटे की मेहमान है। जब हम बाहर निकले तो उस लड़की का बाप जो एक सिर्फ नामी मसीही था। कहने लगा साहब कौन नहीं जानता कि एक परमेश्वर है। और जब कोई इन्सान ये जानता और मानता है तो बस फिर क्या ज़रूरत है कि उस को ये कहा जाये कि क्या तुम यसूअ मसीह पर भरोसा रखते हो। इस नामी मसीही की इस बात को सुनकर हमें निहायत अफ़्सोस हुआ। और इस को बतलाया कि ये जानना कि ख़ुदा एक है अच्छी बात है। लेकिन नजात के लिए काफ़ी नहीं है बल्कि गुनाहगार इन्सान के लिए ज़रूर है कि वो इस अम्र (काम) का मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) हो कि “ख़ुदा एक है और ख़ुदा और आदमीयों के बीच एक आदमी भी दर्मियानी है वो यसूअ मसीह है।”

निहायत अफ़्सोस की बात है कि अक्सर लोग ऐसा समझते हैं कि ख़ुदा को वाहिद जानना नजात हासिल करने के लिए बस है। याक़ूब रसूल फ़रमाता है कि “तू ईमान लाता है कि ख़ुदा एक है अच्छा करता है, पर शयातीन भी यही मानते और थरथराते हैं।” (याक़ूब 2:19) पस दर-हालिका शयातीन मानते और यक़ीन करते हैं कि ख़ुदा वाहिद है तो भी उनके लिए ये अक़ीदा मुफ़ीद और नजात बख़्श नहीं ठहर सकता। हम उन लोगों की हालत पर अफ़्सोस करते हैं जो इस बात पर भरोसा किए बैठे हैं कि जो कोई कहेगा कि कि ला इलाहा इल्लल्लाह वो दाख़िले जन्नत होगा। हाँ ये ज़रूर है कि ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस और गुनाहगार आदमीयों के बीच में जो शख़्स शफ़ी और दर्मियानी हो वो कामिल (मुकम्मल) और पाक इन्सान हो। ख़ुदावंद मसीह ने यहूदीयों से फ़रमाया कि, “तुम ख़ुदा पर ईमान लाते हो मुझ पर भी ईमान लाओ।” इसी लिए आयात उन्वान में पौलुस रसूल ने फ़रमाया कि “वो चाहता है कि सब आदमी नजात पाएं और सच्चाई की पहचान तक पहुंचें कि ख़ुदा एक है और ख़ुदा और आदमीयों के बीच एक आदमी भी दर्मियानी है वो यसूअ मसीह है।” पस जो शख़्स ख़ुदा को वाहिद जानना अपनी नजात के लिए काफ़ी समझे। और ख़ुदावंद यसूअ मसीह को दर्मियानी ना जाने वो अपने को फ़रेब देता है।

रूह-उल-क़ुद्दुस तुम पर नाज़िल होगा

“लेकिन जब रूह-उल-क़ुद्दुस तुम पर आएगी तो तुम क़ुव्वत पाओगे। और यरूशलेम और सारे यहूदिया व सामरिया में, बल्कि ज़मीन की हद तक मेरे गवाह होगे।” (आमाल 1:8)

The Holy Spirit will come upon you

रूह-उल-क़ुद्दुस तुम पर नाज़िल होगा

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 12, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 12 जनवरी 1891 ई॰

“लेकिन जब रूह-उल-क़ुद्दुस तुम पर आएगी तो तुम क़ुव्वत पाओगे। और यरूशलेम और सारे यहूदिया व सामरिया में, बल्कि ज़मीन की हद तक मेरे गवाह होगे।” (आमाल 1:8)

लूक़ा के चौबीसवें (24) बाब की उंचासवीं (49) आयत में ख़ुदावन्द मसीह ने रूह-उल-क़ुद्दुस को मौऊद (वाअदा करना) फ़रमाया और शागिर्दों से कहा, “देखो अपने बाप के उस मौऊद को तुम पर भेजता हूँ। लेकिन तुम जब तक आलम-ए-बाला (आस्मान) की क़ुव्वत से मुलब्बस (लिबास पहनना) ना हो यरूशलेम में ठहरो।” ये ख़ुदावंद की आख़िरी तसल्ली बख़्श बात थी जिसमें एक ऐसा वाअदा शामिल था कि जब तक वो पूरा ना हो लिया। मसीह के रसूल उस की गवाही देने के क़ाबिल ना हो सके। क्योंकि सिर्फ रूह-उल-क़ुद्दुस ही क़ुव्वत व क़ुद्रत का वो सरचश्मा है, जिससे सब मुक़द्दसों में क़ुव्वत और हिम्मत व जुराअत पैदा होती और कलाम को समझे, मज़ामीन रुहानी की बर्दाश्त, रुहानी जंग की क़ुव्वत और कलाम की ख़िदमत उसी की मदद से होती है। मालूम होता है कि मसीह के आस्मान पर उरूज (बुलंद) मर्तबा फ़रमाने के बाद सब शागिर्द यरूशलेम ही में एक बाला-ख़ाने में फ़राहम रह कर इस मौऊद मसऊद (वाअदा किया हुआ मुबारक) की इंतिज़ारी में शब व रोज़ दुआ मांगने और इबादत करने में मशग़ूल (मसरूफ़) रहे। और जब ईद पंतीकोस्त का दिन आया, तो वो वाअदा अजीब तौर से पूरा हुआ और जब कि ईदे मज़्कूर की तक़रीब के बाइस तख़मीनन (अंदाज़ा से) पच्चीस लाख यहूदी ममालिक मुख़्तलिफ़ा (मुख़्तलिफ़) के यरूशलेम में जमा थे। सब के देखते हुए रोज़े रोशन में मजमा-ए-आम में आतिशी ज़बान (आग की ज़बान) की सूरत में नाज़िल हो कर उन बेइल्म व उम्मी गलीली मछोओं (मछली पकड़ने वालों) को ग़ैर-ज़बानों में ख़ुदा की उम्दा बातें बोलने और मसीह के नजात बख़्श नाम की निहायत दिलेरी व इस्तिक़लाल (साबित क़दमी) के साथ गवाही देने के क़ाबिल कर दिया। ज़रूर था कि अव्वलन मसीह की ख़ुशख़बरी यहूदीयों को दी जाये और यरूशलेम से ये काम शुरू किया जाये। जहां के हज़ारों आदमीयों ने मसीह को मस्लूब होते हुए देखा था। उस की ज़िंदगी में उस के कलाम को सुना था। और उस को बख़ूबी जानते पहचानते। उस के मोअजज़ात को मुशाहिदा कर चुके थे। क्योंकि ये बातें कोने में नहीं हुईं। पस रसूलों ने उस वक़्त से एक अर्सा तक मसीह की गवाही यरूशलेम शहर में बड़ी जोश व ख़रोश के साथ दी और सबसे ज़्यादा ज़ोर इसी एक बात पर दिया कि यसूअ वही मसीह है जिसका ज़िक्र नविश्तों में किया गया। जिसको क़ौम यहूद ने पिलातुस से दरख़्वास्त करके सलीब दिलवा दी और क़त्ल किया। और वही यसूअ मुर्दों में से जी उठा है। वो हमारे देखते हुए आस्मान को गया है। और आख़िर दिन में वही दुनिया की अदालत करने को फिर आएगा। और ये कि उस के सिवा और कोई नजातदिहंदा नहीं। जो उस के नाम पर ईमान लाता है सो ही नजात पाएगा।

لیکن جب رُوح القدس تم پر آئے گی تو تم قوت پاؤ گے

अगरचे ये हुक्म ख़ुदावन्द ने उस वक़्त उन ही शागिर्दों को जो हाज़िर थे दिया। मगर इस की तामील हर एक मसीही ईमानदार पर फ़र्ज़ है। हर एक मसीही मोमिन ख़ुदावंद मसीह का गवाह है और वाजिब है कि वो अपने आमाल व अक़्वाल, हरकात व सकनात ज़िंदगी और मौत से अपने नजातदिहंदा की गवाही दे और ऐसा करने से वो अपने को फ़रिश्तों, नबियों और रसूलों का हम ख़िदमत साबित करेगा।

“और मैं अपने बाप से दरख़्वास्त करूँगा। और वो तुम्हें दूसरा तसल्ली देने वाला देगा, कि तुम्हारे साथ अबद तक रहे। यानी सच्चाई की रूह जिसे दुनिया नहीं पा सकती क्योंकि उसे नहीं देखती और ना उसे जानती है। लेकिन तुम उसे जानते हो, क्योंकि वो तुम्हारे साथ रहती है और तुम में होगी।” (यूहन्ना 14:16-17)

दूसरा तसल्ली देने वाला

जिस यूनानी लफ़्ज़ का तर्जुमा है वो दरअस्ल “पारा कलीतस” (پارا قلیتس) है। मुहम्मदी इस को “फ़ारक़लीत (فارقلیط)” कहते और मुहम्मद साहब की ख़बर समझते। और कहते हैं कि “फ़ारक़लीत (فارقلیط)” के मअनी “अहमद” हैं। इसी लिए क़ुरआन में आया है, कि मसीह ने कहा, (اِنّی مُبشراً برسُول) तर्जुमा, “यानी मैं ख़ुशख़बरी देता हूँ एक रसूल की मेरे बाद आएगा उस का नाम अहमद होगा।” तमाम अहद-ए-जदीद में यही एक ऐसा मुक़ाम है जिस पर मुहम्मदियों ने हज़रत रसूल मौऊद (वाअदा किया हुआ) ठहराने के लिए बहुत ज़ोर मारा है। मगर मसीहीयों ने मक़्दूर (ताक़त, हैसियत के मुताबिक़) भर उन की ग़लतफ़हमी को रफ़ा (दूर) करने की कोशिश की और मुदल्लिल (दलील के साथ) तौर पर बहुत कुछ लिखा तो भी अभी तक मुहम्मदी यही समझते हैं कि ज़रूर “फ़ारक़लीत (فارقلیط)” से मुराद मुहम्मद साहब हैं।

लेकिन अगर इन तमाम आयात पर जो इस मौऊद की निस्बत इन्जील में पाई जाती हैं बख़ूबी ग़ौर किया जाये तो साफ़ मालूम हो जाएगा कि मसीह ख़ुदावंद ने जो जो काम और सिफ़तें इस से मन्सूब (निस्बत) की हैं वो किसी इन्सान से तो दरकिनार (इलावा) किसी फ़रिश्ते के साथ भी हरगिज़ मन्सूब नहीं की जा सकती हैं। और यूं तो मुहम्मद साहब को क्या हर एक शख़्स को जिसका नाम अहमद हो, इख़्तियार है कि वो अपने को “फ़ारक़लीत (فارقلیط)” तसव्वुर करके मौऊद तसल्ली देने वाला ज़ाहिर करे। चुनान्चे अक्सरों ने मसीह के बाद ऐसा दावा किया है। और बाअज़ मुहम्मदियों ने भी जिनके नाम में लफ़्ज़ अहमद शामिल था अपने को और दीगर मुहम्मदी अश्ख़ास को धोका का दिया। मिनजुम्ला (तमाम) इनके एक मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद साहब क़ादियानी हैं जो इस आयत क़ुरआनी को अपने ऊपर जमाए और कहते हैं कि मैं आया हूँ और मेरा नाम अहमद है। (देखो इज़ाला सफ़ा 673)

लेकिन जैसा कि “तोज़िन-अल-अक़्वाल” (توزین الاقوال) से ज़ाहिर होता है। पंद्रहवीं सदी से इस उनीसवीं सदी तक हिन्दुस्तान में चार अहमद ज़ाहिर हो चुके हैं। जिन्हों ने दीन-ए-इस्लाम की मुरम्मत (दुरुस्ती) और सल्तनते इस्लामिया के बारे में फ़िक्र किया है। और मुजद्दिद (पुराने को नया करने वाले) होने के मुद्दई (दावा करने वाले) हुए हैं।

 

पहला अहमद

शेख़ अहमद सर हिन्दी हैं जिनका इंतिक़ाल *134 हिज्री में हुआ और शहर सरहिंद में उनका मक़बरा है। वो मज़्हब इस्लाम के एक जय्यद आलिम (खिरा ज़ोरर-आवर आलिम) और सूफ़ी (परहेज़गार) थे। उनको मुहम्मदियों ने मुजद्दिद अलिफ़ सानी (दूसरे हज़ार बरस का मुजद्दिद) का ख़िताब दिया था। जो अब तक इनमें मक़्बूल (मशहूर) है। यानी वो दीन इस्लाम के मुजद्दिद या रिफार्मर (इस्लाह करने वाला) और अहमद सानी (दूसरा मुहम्मद) कहलाए। पहला अहमद मुहम्मद साहब हुए। और दूसरा अहमद यह हज़रत समझे गए। आख़िरकार इनके ख़याल में भी कुछ ऐसा आ गया कि मैं दूसरा अहमद हो के मुहम्मद साहब के क़रीब आ गया हूँ। ज़रूर दूसरे असहाब-ए-रसूल से मुझे सबक़त (बरतरी) हासिल हुई है। ऐसे ख़याल की बू दर्याफ़्त (मालूम) कर के बाअज़ मुहम्मदी उन पर तअन (मलामत) करने लगे थे। तब उन्हें कहना पड़ा कि ये ग़लत है। मेरा गुमान (वहम) ऐसा नहीं है।

( سفنیتہ الاليامگر تا نبا شداند کے مردم نگویند چیز ہا)

दूसरा अहमद

सय्यद अहमद ग़ाज़ी हैं। उनका हाल नाज़रीन बग़ौर सुनें। क्योंकि मिर्ज़ा साहब ने उनकी तक़्लीद (पीछे चलना) कर के नबी और मसीह होने का दावा किया है। और इस तरह के कुछ बंदो बस्त नज़र आते हैं। ये हज़रत क़ौम से सय्यद और राय बरेली के बाशिंदे थे। और सीधे मिज़ाज के आदमी बेइल्म शख़्स थे। और अव्वलन नवाब टोंक के सवारों में मुलाज़िम थे। शाह अब्दुल अज़ीज़ की शौहरत सुन के दिल्ली में आए, और सराय में उतरे। इरादा था कि शाह साहब के मुरीद हो के वापिस चले जाऐंगे।

بلکہ زمین کی حد تک میرے گواہ ہو گے

उस वक़्त दिल्ली में दो मौलवी साहब हमराज़ दोस्त और दुनिया की तरफ़ से तंग, और शाह साहब से ब-बातिन कशीदा ख़ातिर। बज़ाहिर उनके अज़ीज़। किसी मन्सूबे में गशट किया करते थे। यानी मौलवी इस्माईल और मौलवी अब्दुल हई, मौलवी इस्माईल बड़ा लिसान (बहुत बोलने वाला) और उम्दा वाइज़ शाह साहब का भतीजा था। उस को उम्मीद थी कि शाह साहब जो ला-वलद (औलाद नहीं थी) थे। अपनी मीरास में से इस भतीजे को हिस्सा देंगे। लेकिन शाह साहब उन के ग़ैर-मुक़ल्लिद (पैरवी ना करने वाले) ख़यालात से ख़ुश ना थे। कुछ तरका (विरासत में हिस्सा) ना दिया। सब कुछ अपने दामाद के नाम लिख दिया। तब इस्माईल सख़्त नाराज़ हो के मुक़ल्लिदीन (पैरवी करने वाले) फ़िर्क़ा की बेख़कुनी (जड़ से उखाड़ना) और अपनी मईशत दुनियावी के फ़िक्र में हो गए। और अब्दुल हई उन के दोस्त जो मेरठ के किसी सरकारी दफ़्तर में मुहर्रिर (लिखने वाले) थे। बरख़ास्त (मुलाज़मत से अलग) हो के दिल्ली में आ गए थे। दोनों फ़िक्रमंद दोस्त हमराह (साथ) चलते फिरते। और किसी तज्वीज़ के दरपे (ख़्वाहां) थे। नागाह सराय में बतौर सैर के आ गए। वहां सय्यद अहमद साहब को मुसाफ़िराना उतरे हुए पाया। मुलाक़ात हुई और हाल पूछा। मिज़ाज देखा और जिहाद की पट्टी पढ़ाई। और अपने पंजे में फंसा लिया और मंसूबे बांध लिए और शाह साहब के पास मुरीद कराने को ले गए। जब वो मुरीद हो के बाहर निकले। पालकी मौजूद थी। उन्हें सवार किया। और एक मौलवी दहने और एक बाएं हुआ। और अदब से पालकी के साथ दौड़ते थे। और जब वो जामा मस्जिद में नमाज़-ए-जुमा के लिए आते तो मस्जिद के दरवाज़े पर एक जूती उनकी मौलवी इस्माईल। और दूसरी जूती मौलवी अब्दुल हई अदब से उठा लेते। और दस्त-बस्ता (हाथ बांध कर) पीछे खड़े रहते थे। लोग हैरान थे कि ये क्या मुआमला है कि ऐसे बड़े-बड़े मौलवी उस शख़्स की पाए ख़ाक (पैरों मिट्टी) हो गए हैं। ये कौन साहब हैं? तब ये दोनों मौलवी कहते थे कि हज़रत सय्यद अहमद साहब बड़े वली-अल्लाह हैं। ये हज़रत मुहम्मद साहब के मुशाबेह पैदा हुए हैं। ख़ुदा ने इनको भेजा है कि सल्तनत इस्लामीया को क़ायम करें और दीन-ए-इस्लाम को रौनक दें। और ख़ुदा ने इनसे हम-कलाम हो के बड़ी फ़त्हमंदी के वाअदे फ़रमाए हैं। अब ये हज़रत इमाम (पेशवा) हो के जिहाद करेंगे, और काफ़िरों को मार के हिन्दुस्तान से निकाल देंगे। तमाम मुसलमानों को चाहिए कि अपनी जान से और माल से उनकी मदद करें और उनके साथ हो के जिहाद में जाना ऐसा समझें जैसे रसूल-अल्लाह के साथ गए। (देखो किताब सिरातउलमुस्तक़ीम तस्नीफ़ मौलवी इस्माईल) जो उन्हीं अय्याम में जल्द लिखी गई। दीबाचे में लिखा है कि जनाब सय्यद अहमद का नफ़्स आली-जनाब रिसालत मआब के साथ कमाल मुशाबहत पर बद्दू फ़ित्रत में पैदा किया गया है और ख़ातिमे में लिखा है कि हज़रत नबी साहब को सय्यद साहब ने ख्व़ाब में देखा और नबी साहब अपने हाथ से उनको खुरमे खिलाए। फिर किसी रोज़ हज़रत अली और हज़रत फ़ातिमा भी ख्व़ाब में उनसे मिलने को आएं। अली ने बदस्त ख़ुद (अपने हाथ से) उन को ग़ुस्ल दिया और फ़ातिमा ने बदस्त ख़ुद उनको उम्दा पोशाक पहनाई। फिर एक रोज़ ख्व़ाब मैं उनसे ख़ुदा तआला ने मुलाक़ात की और अपनी क़ुद्रत के हाथ से उनको पकड़ लिया और पाक चीज़ें उनके सामने रख के कहा कि ये चीज़ें मैंने तुझे दीं और आइन्दा को और चीज़ें भी तुझे दूंगा। ग़र्ज़ सय्यद साहब को पीर बना के ले उड़े। और तमाम हिन्दुस्तान में पालकी ले के फिर गए और जा-ब-जा वाज़ कर के मुल्क के मुसलमानों को अपनी तरफ़ खींच लिया। बेशुमार रुपया जमा किया और जाबजा हंडवी भेज के महाजनों में जमा कराया। और हज़ार हज़ार जाहिल नमाज़ी मुसलमान जिहाद के लिए तैयार करके कुछ आगे भेज दीए कुछ हमराह लिए और शहर शहर सय्यद साहब के ख़लीफ़े बिठलाए ताकि रुपया जमा करें। और आदमी भी पीछे रवाना करते रहें। जब अंग्रेज़ों ने पूछा कि ये क्या मुआमला है? तो कहा कि हम आप लोगों से नहीं पंजाब के सिखों से जिहाद करेंगे। वो वक़्त ऐसा था कि अंग्रेज़ भी मस्लिहतन चुप कर गए। और ये हज़रत फ़ौज बना के बराह सिंध स्वात बूनेर तक पहुंचे। ताकि उस तरफ़ से सिखों पर हमला हो। उम्मीद थी कि अफ़्ग़ान भी साथ हो जाऐंगे। और जब मुल़्क पंजाब सिखों से ख़ाली करा लेंगे तब अंग्रेज़ों को समझ लेंगे और यूं सल्तनत इस्लामीया क़ायम हो जाएगी। मौलवी अब्दुल हई कोइटा की राह में बा-रज़ा तप-ए-लरज़ा (कपकपी बुख़ार) इंतिक़ाल कर गए। और इस्माईल व सय्यद अहमद वहां पहुंचे। कोई दिन फ़ौज ले के कुछ लड़े। आख़िरकार बाअज़ पठानों की मदद से सिखों ने रात को ऐसा उन पर छापा मारा कि सबको क़त्ल किया। मौलवी इस्माईल वहां मारे गए। और सारे मोमिनीन मुजाहिदीन क़त्ल हुए सय्यद अहमद साहब की टांग में गोली लगी थी। और वो मैदान में बैठ गए थे। इसी जगह मर गए। कोई कहता है कि एक पठान उनको अपने उठाए गया था। वहां जा के मर गए कोई कोई आदमी भाग के बमुशकिल वापिस आया था। और ये वाक़िया (1827 ई॰) में वाक़ेअ हुआ था। (देखो किताब मौलवी ग़ुलाम हुसैन होशियार पूरी  अन्वर-उल-आरिफीन तस्नीफ़ मुहम्मद हुसैन मुरादाबादी)

जब तक इस पुश्त (नस्ल) के लोग ना मरे उनको यही ख़याल रहा कि सय्यद साहब पहाड़ों में पोशीदा हैं, किसी वक़्त निकलेंगे। () इस मन्सूबे इस्माईल का नतीजा क्या निकला? ये कि इन्सानी चालाकी थी रसूली मुशाबहत और वो सब ख्व़ाब बातिल (झूटे) थे। सब दौड़-धूप (मेहनत) बर्बाद हुई आप भी मारे गए और सदहा जाहिल नमाज़ी अतराफ़ पूरब के मोमीनिन क़त्ल करवा दिए। उनकी औरतें रांड (बेवा) हुईं बच्चे यतीम हो के मुहताज हुए। ख़ाना-ख़राबियाँ हो गईं। बादशाही हाथ ना आई। हाँ इस्लाम की इस क़द्र मुरम्मत हुई कि ग़ैर-मुक़ल्लिद (पैरवी ना करने वाला) फ़िर्क़ा उनके वाज़ों से और उनकी तक़वियत-उल-ईमान वग़ैरह से पैदा हो गया।

अब मिर्ज़ा क़ादियानी साहब का वही तौर (तरीक़ा) नज़र आता है। वो ख़ुद मुसलमानों को सिखलाते हैं। फ़त्ह-उल-इस्लाम सफ़ा 8,71 कि रस्मी उलूम और क़ुरआन व अहादीस के तर्जुमों की इशाअत से इस्लाम की मुरम्मत (दुरुस्ती) नहीं हो सकती आस्मानी सिलसिले की तरफ़ देखना चाहिए। मतलब मैं इनमें आस्मान की तरफ़ से नबी और मसीह मुक़र्रर हो के आया हूँ।

मेरी इताअत से मुरम्मत-ए-इस्लाम होगी, ना तुम्हारे रिवाजी दस्तुरात से। और अपनी बेशुमार तारीफ़ें आप अपने मुँह से करते हैं कि मैं बड़ा कामिल शख़्स हूँ। और जैसे सय्यद अहमद ग़ाज़ी को दो मौलवी उड़ाने वाले मिल गए थे। इनको भी हकीम नूर उद्दीन और ग़ुलाम क़ादिर फ़सीह साहब और मौलवी मुहम्मद अह्सन साहब मिल गए हैं। इनका अंजाम उनसे ज़्यादा ख़तरनाक होगा। सुन्नी मुसलमानों ने जो मिर्ज़ा को रद्द किया दानिशमंदी से अपने मज़्हब के मुवाफ़िक़ काम किया है और मुहम्मद हुसैन बटालवी तहसीन (तारीफ़ के लायक़) हैं। और वो जो मिर्ज़ा साहब की सलाह में शरीक में अपने मज़्हब के और अक़्ले सलीम के ख़िलाफ़ काम करते हैं।

तीसरा अहमद

مسلمان اس کو’’ فارقلیط‘‘ کہتے اور محمد صاحب کی خبر سمجھتے

सय्यद अहमद ख़ान साहब बालक़ाबा हैं। उन्हों ने सबसे ज़्यादा इस्लाम का तजद्दुद (पुराने को नया बनाना) किया। इस्लाम क़दीम को काठ की हंडिया (झूट नापायदार) बता के छोड़ दिया। और क़ुरआन व हदीस को नेचरियत (फ़ित्रत पर चलना) के पैराये में लाके इस़्पात की हंडिया (सख़्त लोहा, फ़ौलाद) बनाया। और क़ुरआन की तफ़्सीर नेचरी (फ़ित्रत के मुताबिक़) लिखी। मुहम्मद साहब ने अपने इस्लाम का रुख अम्बिया-ए-बनी-इस्राईल की तरफ़ कुछ-कुछ रखा था। सय्यद साहब ने इधर से बमुश्किल खींचा। और फ़िलोसफ़ी (इल्म-ए-मौजूदात) की तरफ़ कर दिया। इस के सिवा और कुछ नहीं किया। लेकिन ये इमारत जो उन्होंने उठाई है तालिब-ए-हक़ (सच्चाई जानने का ख़्वाहिशमंद) के दिल में कुछ तसल्ली तो पैदा नहीं कर सकती। और ना कुछ पायदार (मज़्बूत) है। बल्कि बहुत जल्द गिरेगी। क्योंकि अल्फ़ाज़-ए-क़ुरआन से उनके मज़ामीने मख़तराअ (ईजाद किए गए मज़ामीन) को कुछ इलाक़ा (ताल्लुक़) नहीं है। उनके बयान उनकी तफ़्सीर में मर्क़ूम पड़े रहेंगे। और अल्फ़ाज़ व इबारात क़ुरआन अपने मअनी व मज़ामीन लाज़िमा (ज़रूरी) को हरगिज़ ना छोड़ेंगे। और वो जो मुहक़्क़िक़ (तहक़ीक़ करने वाले) पैदा होंगे। हमेशा अहले-ज़बान से मअनी दर्याफ्त (मालूम) करेंगे। सबसे बड़ी अक़्ली तफ़्सीर क़ुरआन की इमाम फ़ख़्रउद्दीन राज़ी[1] ने लिखी है। जहां से सय्यद साहब ने बहुत कुछ लिया। तो भी फ़ख़्रउद्दीन साहब के मज़ामीन-ए-अक़्लीया (अक़्ल से बनाए हुए) मुसलमानों के ईमान में शामिल ना हुए बल्कि जलाल उद्दीन सीवती ने उस की तफ़्सीर को चंद सतरों में (बे*) दलील कर दिखलाया। और लिखा है।

इमाम फ़ख़्रउद्दीन ने अपनी तफ़्सीर को अक़्वाल हुकमा और फ़िलासफ़ा वग़ैरह से भर दिया है। और एक बात से दूसरी बात की तरफ़ निकल गया। यहां तक कि नाज़िर (देखने वाला) को मौरिद आयत (बनाई हुई) के साथ अदम मुताबिक़त (किसी अम्र का दूसरे के मुताबिक़ ना होना) से ताज्जुब (हैरानगी) होता है। अबू हयान ने कहा कि राज़ी ने अपनी तफ़्सीर में नहवी (जुमलों का इल्म) बातें। जिनकी इल्म-ए-तफ़्सीर में हाजत (ज़रूरत) नहीं। बकस्रत लंबी चौड़ी भरी हैं। इसी वास्ते बाअज़ उलमा ने कहा कि उस की तफ़्सीर में सब कुछ है। लेकिन क़ुरआन के मअनी नहीं।

इस बिद्अती (मज़्हब में कोई नई बात निकालने वाला) का और कुछ इरादा नहीं है। मगर ये कि आयतों को तहरीफ़ (बदल देना) करे। और अपने फ़ासिद (बिगड़ा हुआ) मज़्हब के बराबर बनाए। इस तरह से कि जब उस को कोई दूर से दौड़ता हुआ वहम नज़र आ गया। तो उसी के दरपे हो लेता है। या कोई ऐसी जगह मिल जाये जहां ज़रा खड़ा हो सके, तो उधर ही दौड़ पड़ता है। यही हाल इन सब नेचरियों (सय्यद अहमद के पैरोकार) का है। आप क़ुरआन के ताबे नहीं होते, मगर क़ुरआन को अपने ताबे करते हैं और अपने ज़हन में कुछ मज़्हब कहीं से ला के क़ायम कर लिया है। इस के मुवाफ़िक़ क़ुरआन को बनाते चले जाते हैं। फ़िल-हक़ीक़त तफ़्सीर नेचरी इन्हीं दो-चार लफ़्ज़ों से गिर जाती है कि वो क़ुरआन की असली वज़ा (साख़त) के ख़िलाफ़ है।

चौथा अहमद

मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद हैं। वो अहमद सियुम का मज़्हब रखते हैं। और अहमद दुवम की रविश पर चलते हैं और क़ुरआन व हदीस को ना बसमत अम्बिया और ना बसमत फ़िलासफ़ा मगर बसमत दरिया-ए-ख़बत खींच रहे हैं। और अहमद चहारुम रहना नहीं चाहते। अहमद अव़्वल बनने का इश्तियाक़ (शौक़) है। इसी लिए क़ुरआन में हाथ डाला और अस्मा अहमद वहां से अपने लिए निकाला। जो साबिक़ के किसी अहमद को ना सूझी थी। अभी क्या कोई दिन में अहमद बिला-मीम अपना नाम रखेंगे। क्योंकि सूफ़ी भी हैं। और अभी देख लो वो कहते हैं कि ख़ुदा ने मुझसे कहा, (ऐ मिर्ज़ा तू मुझसे है और मैं तुझसे हूँ।) गोया मिर्ज़ा ख़ुदा से पैदा हूए, और ख़ुदा मिर्ज़ा से पैदा हुआ है। अगर कुछ और मतलब हो तो उनके ज़हन में होगा इबारत का मतलब यही है और अगर ये ज़ू-मअनी (जिसके दो मतलब निकलते हों) कलाम है तो ऐसी ज़ूमाअनी कलाम बोलना जिसके एक मअनी से ख़ुदा की तहक़ीर (बे-हुरमती) हो बेईमान आदमी का काम है।

 


[1] दर-अस्ल बेज़िनी बाशिंदा ने मुतसिल बुखारा (دراصل بے زینی باشندہ نے متصل بخارا۔)

दुनिया में मज़ाहिब की आमद व रफ़्त की क्या वजह है?

क्योंकि मुशाहिदे से मालूम होता है कि वो ऐसे नहीं बने हैं कि एक आलमगीर मज़्हब होने के क़ाबिल हो सकें और ना उनके बानीयों की ये ग़र्ज़ ही थी। हर एक मज़्हब जो इन्सान की सीरत का बानी नहीं है, वो आलमगीर हो ही नहीं सकता। मज़्हब का अस्ल मंशा (मक़्सद) ना समझने के सबब से लोगों को मज़्हब ईजाद करने की कुछ आदत हो गई है। और नतीजा ये

Transaction of religions in the world

दुनिया में मज़ाहिब की आमद व रफ़्त की क्या वजह है?

By

G. L. Thakur Das
अल्लामा जी॰ एल॰ ठाकुरदास

Published in Nur-i-Afshan Dec 10, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 10 दिसंबर 1891 ई॰

दुनिया में मज़ाहिब की आमद व रफ़्त की क्या वजह है?

क्योंकि मुशाहिदे से मालूम होता है कि वो ऐसे नहीं बने हैं कि एक आलमगीर मज़्हब होने के क़ाबिल हो सकें और ना उनके बानीयों की ये ग़र्ज़ ही थी। हर एक मज़्हब जो इन्सान की सीरत का बानी नहीं है, वो आलमगीर हो ही नहीं सकता। मज़्हब का अस्ल मंशा (मक़्सद) ना समझने के सबब से लोगों को मज़्हब ईजाद करने की कुछ आदत हो गई है। और नतीजा ये होता रहा है कि एक मज़्हब आता और जाता रहा है। और यूं वो लोगों के दिमाग़ की हवाख़ोरी ना कि मज़्हब ठहरते रहे हैं।

ये बात सच्च है कि क़रीबन हर एक मज़्हब में किसी क़ुव्वत, या चीज़ को (इस का वजूद हो ख़्वाह ना हो) अपने से ज़ोर-आवर समझ कर ऐसा कुछ माना गया है, जिसकी वक़्तन-फ़-वक़्तन ताज़ीम की जाये। जैसा क़दीम यूनानी और रूमी हर एक चीज़ का एक देवता मानते थे, और हिंदू मानते हैं। जैसे इंद्र, अग्नी, वायु, मारूत, वैष्णव और लक्ष्मी, शिव और पारवती। क़दीम शामी क़ौमों में एल या अल्लाह, जिसको अरब में मुहम्मद साहब ने बनी-इस्राईल के ख़ुदा यहोवा की सिफ़ात से मन्सूब कीं। और इलाह को अल-इलाह (अल्लाह) कर के बयान किया। ख़ैर अपने से आला ख़्वाह किसी चीज़, याक़ूत, या फ़र्ज़ी वजूद को किसी तरह माना। कुछ ना कुछ माना ज़रूर। मगर उनको मानने के लिए जो जो बंदो बस्त किए गए। उनकी बाबत मालूम करना चाहीए कि क्यों ऐसे बंदो बस्त तज्वीज़ किए गए। देखा जाता है कि हर मज़्हब में कुछ ना कुछ दुनियावी ख़ुसूसीयत है। अब वो ख़ुसूसीयत किस क़िस्म की है और मज़्हब बनाने में इस का कहाँ तक असर हुआ है।

 

अव़्वल : देखा जाता है, और अगली किताबों से भी मालूम होता है कि आबो हवा का बहुत सी मज़्हबी बातों पर-असर है। यानी जैसी किसी मुल्क की आबो हवा है इस के मुताबिक़ उस मुल्क में मज़्हबी दस्तूर जारी किए गए। चुनान्चे गर्म मुल्कों में पानी मज़्हब में एक जुज़्व (हिस्सा) है। इश्नान या ग़ुस्ल और वुज़ू पर कई एक बातों का बोझ है। ये बातें इबादत का ज़रूरी जुज़्व ठहराई गई हैं। इन के बग़ैर इबादत नाक़िस क़रार दी जाती है। इनसे इबादत की इबादत और साथ ही तफ़रीह तबाअ (दिल बहलाना) भी हो जाती है। फिर गर्म मुल्कों में साया-दार जगहों की ज़रूरत होती है। मकान हों ख़्वाह दरख़्तों की झंगयां (झुंड) धूप से बचने के वास्ते ये मस्नूई (खुदसाख्ता) और क़ुदरती ज़रीये हैं। इसलिए लोग मकान बनाते, और दरख़्त लगाते हैं। अब देखा जाता है। और क़दीम ज़मानों से ये रिवाज है कि द्यूतों (देवताओं) या वो जिसको ख़ुदा कर के माना जाता है, उन की ख़ुशनुदी भी ऐसी जगहों में क़रार दी गई है। द्यूतों (देवताओं) को दरख़्तों के नीचे बिठाया जाता है। और पुराने और बड़े दरख़्तों की ताज़ीम इज़्ज़त की जाती है। और जिस तरह लोग अपने लिए मकान बनाते उनके लिए भी मंदिरें और मस्जिदें और ख़ान-क़ाहें (पीर का मक़बरा) बनाना नेकी तसव्वुर किया जाता है। और नेकी भी ऐसी जिससे हज़ारों बुराईयां दूर हो जाती हैं। इस से भी यही ज़ाहिर होता है कि ऐसी तदबीरों (कोशिशों) से एक तरफ़ तो अपना जिस्मानी आराम है और दूसरी तरफ़ सवाबे आख़रत भी इसी में आ गया। बनी-इस्राईल में भी इस क़िस्म के दस्तूर (रिवाज) डाले गए थे। मगर वो ना हमेशा के लिए थे और ना सब के लिए। बल्कि इस एक मख़्सूस (ख़ास, अलग) क़ौम के लिए। (इस्तिस्ना 7:6,11) और नतीजा ये हुआ, कि वो आए और गए। ईस्वी मज़्हब के पैरौओं (पीछे वाले) को भी देखा जाता है, कि नहाने धोने में बड़े बढ़कर हैं और इबादत के लिए मकान बनाते और उनमें कुर्सियाँ या बेंच धरते और गर्मीयों में पंखे लगाते हैं। मगर ईसाईयों में बड़ी ख़ूबी की बात ये है कि ये सब कुछ वो अपने आराम और खुशनुमाई के वास्ते करते हैं। और इसलिए नहीं कि वो इनमें कुछ सवाब मानते हैं। और या इबादत का लाज़िमी जुज़्व क़रार देते हैं। पर उनका एतिक़ाद (यक़ीन) ये है कि “ख़ुदा रूह है। और उस के परस्तारों पर फ़र्ज़ है कि रूह और रास्ती (रूह और सच्चाई) से ख़ुदा की परस्तिश करें।” बदनी रियाज़त (मशक़्क़त) को वो इबादत नहीं जानते। और ये उसूल ऐसा है कि आबो हवा और मकान का इस पर असर ना हो। ये उसूल इन्सानियत के मुताल्लिक़ और इन्सानियत की सीरते रूहानी के मुताल्लिक़ है। हर मुल्क और हर आबो हवा में अपना ज़ोर रखता है। ऐसा ही मज़्हब एक आलमगीर (दुनिया में फैला हुआ) मज़्हब हो सकता है।

दोम : लोगों की आदात और तबीअत मज़्हबों की साख़त के लिए एक और ज़बरदस्त ज़रीया रहा है। अगरचे ये सबब (वजह) ज़ाहिर नहीं किया जाता है। मगर फ़िल-वाक़ेअ ये एक मूजिब (वजह) कई मज़ाहिब की आमद का मालूम होता है। लोगों की तबीअत मुल्की और क़ौमी दस्तूरों की माँ है। जिस बात से तबीअत ख़ुश होती और आराम व आसाइश इस में मालूम हुआ, उसी बात का दस्तूर पड़ गया। और रफ़्ता-रफ़्ता उस की पैरवी के लोग आदी हो गए। और माबाअ्द की पुश्तों ने उस को अपना अपना क़ौमी दस्तूर माना। इस तरह मज़्हबों में भी कई बातें लोगों के मज़ाक़ की बिना पर जारी की गई हैं। और वो भी ऐसी कि क़ौमी ख़ुसूसीयत से महदूद हैं। एक का रिवाज दूसरी क़ौम में नहीं होता और बाअज़ हालतों में दूसरों का उस को इख़्तियार करना सिर्फ इस वजह से नागवारा होता है कि वो किसी ग़ैर-क़ौम का दस्तूर है। मसलन तीर्थ (मुक़द्दस मुक़ाम नहाने की जगह), हज, सती (हिंदूओं में मुर्दा शौहर के साथ औरत के जल मरने की रस्म) निकाह, मुर्दों की परस्तिश, फ़ाक़ा या रोज़ा या व्रत, पूजा, नमाज़, हज की बाबत हम तवारीख़ से मालूम करते हैं कि हज करना यानी संग-ए-अस्वद (जन्नत के पत्थर) की ताज़ीम के लिए फ़राहम होना, अहले अरब का एक पुराना दस्तूर था। अब अपनी क़ौम के इस पुराने दस्तूर को बानी-ए-इस्लाम ने अपने मज़्हब में दाख़िल कर लिया, और लोगों की तबीअत के मिलान (रुझान) पर अपने माइल होने को ख़ुदा की तरफ़ से क़रार दिया। और इस को सवाब-ए-आख़िरत का मूजिब (सबब) ठहराया। हिन्दुस्तान में हिंदू अपने बुज़ुर्गों के दस्तूर के मुवाफ़िक़ काशी और गया और हरिद्वार को सवाब की जगह मानते हैं। और दक्षिण में और जगहें हैं। जिनको लोग ऐसा ही पाक समझते हैं। मुहम्मद साहब ने दूसरे मुल्कों के तीर्थों (मुक़द्दस मुक़ामात) की पर्वा ना की शायद ख़बर ना थी और यूनानियों ने काअबे की पर्वा ना की, और अपने मुल्क में डोडोना को इलाहों (देवताओं) की सुकूनत गाह माना था। फिर निकाह और तलाक़ का रिवाज भी बहुत आबो हवा पर मुन्हसिर होता है। हर मुल्क में लोग बक़ा नस्ल (नस्ल बढ़ाना) की क़ुव्वत व शौक़ रखते हैं। मगर बाअज़ मुल्कों में आबो हवा की तासीर से लोग और मुल्कों की निस्बत ज़्यादा शहवत-परस्त हो जाते हैं। इन मुल्कों में मेहनत कुशी कम होती है। और लोग काहिल हो जाते हैं और शहवत परस्ती के सिवा और शुग़्ल (तफ़रीह) उन्हें नज़र नहीं आता। ये तबीअत और आदत कई एक मज़्हबी दस्तूरों की साख़त के मूजिब हैं। यानी मज़्हब को ऐसे ढंग (तरीक़ा) से बनाया है कि इस तबीअत को हर्ज (नुक़्सान) वाक़ेअ ना हो। यजुर्वेद (हिंदूओं के चारों वेदों में से दूसरा वेद, जिसमें क़ुर्बानी के रस्म व आदाब दर्ज हैं) के ज़माने के अरबों की यही तबीअत थी। यजुर्वेद की ताअलीम ख़ुद ही इस बात की शाहिद (गवाह) है। इस्लाम में जो बातें निकाह और तलाक़ की बाबत फ़रमाई गई थीं। वो अरब की तबीअत और आदत पर मबनी थीं। मगर बानी-ए-इस्लाम ने उनको ख़ुदा की तरफ़ से बतलाया। अगर इस्लाम पंजाब में जारी होता, तो वो ऐसा इस्लाम ना होता जैसा अरब में जारी हुआ। क्योंकि इस में मुल्क अरब की आबो हवा, और अहले-अरब की तबीअत और आदतों की बहुत बू आती है, जो पंचाब में बरपा होने से ना होती। फिर हिंदूओं में बचपन के निकाह में, और बेवगान (बेवा औरतों) के मना निकाह में वो दुनियावी और क़ौमी फ़ायदे तसव्वुर किए गए, जो औरों के नज़्दीक ज़ुल्म क़रार दिए जाते हैं। और ये दोनों बातें मज़्हब में भी शामिल कर ली गई हैं। हत्ता कि इन के बरख़िलाफ़ करना धर्मशास्त्र के बरख़िलाफ़ करना है। अगर मनू का शास्त्र किसी और क़ौम में लिखा जाता, तो ऐसी वहमी ख़ुदग़रज़ी की बंदिशें राहे जन्नत क़रार ना दी जातीं। ये बातें हिंदूओं ही में ख़त्म हैं, और उन्ही से ख़ुसूसीयत रखती हैं। ऐसी बातें आलमगीर नहीं हो सकतीं और इसी लिए उनकी आमद पर अब रफ्त (रवानगी) का ज़माना तारी है। फिर सती होने का रिवाज ख़्वाह किसी ग़र्ज़ से हुआ, मगर उस की आमद व रफ्त ज़ाहिर है।

اور الہہ کو اَل الہہ (اللہ) کر کے بیان کیا

लड़ाई : दुनिया में अक्सर ऐसा इत्तिफ़ाक़ होता रहा है कि एक क़ौम की दूसरी से जंग हो। हुकूमत या दूसरों की दौलत का तमअ (लालच) इस बात को दिलों में भड़काने वाले सबब हैं। ये बातें हासिल करने के लिए एक क़ौम दूसरी पर, कभी कोई उज़्र धर के (बहाना करके) और कभी यूंही और कभी तरवीज मज़ाहिब (मज़्हब की तरक़्क़ी) के बहाने से लड़ाई करती रही है। हत्ता कि बाअज़ क़ौमों में जंग करना एक मज़्हबी उसूल क़ायम किया गया। और मूजिब ख़ुशनुदी अपने ख़ुदा या द्यूतों (देवताओं) का क़रार दिया गया। और नीज़ मूजिब सवाबे आख़रत ठहराया गया। और बुज़दिलों की मज़म्मत बयान की कई थी। चुनान्चे बानी-ए-इस्लाम ने अपनी इस तबीअत की बिना पर जिहाद, यानी दीनी लड़ाई का क़ानून क़ायम किया और सवाबे आख़रत इस पर मुन्हसिर (वाबस्ता) रखा। ऐसा ही वेदों के बानीयों का हाल था। वो भी दुश्मनों को जो उनके हम-मज़्हब ना थे। मारना धर्म जानते थे। मगर ये सब बंदो बस्त आए और गए और क़ायम ना रह सके। ऐसी क़ौमी या शख़्सी तबीअत इन्सानियत की सीरत को ढालने वाला साँचा (लकड़ी, या लोहे का ढांचा, क़ालिब) ना थी। लेकिन एक इत्तिफ़ाक़ीया जोश था, जिसके मुताबिक़ हमेशा अमल नहीं हो सकता।

मज़ाहिब की साख्त की जुस्तजू करते हुए, हमें इंसाफ़न ये कहना पड़ता है कि सिर्फ दीने ईस्वी ऐसा मालूम होता है कि जिसमें कोई बात ऐसी नहीं जो इन्सानियत की कामिल सीरत को क़ायम करने वाली ना हो। इस के क़वानीन आबो-हवा या किसी क़ौम या शख़्स की तबीअत या आदत पर मबनी नहीं हैं। बल्कि ऐसे हैं :-

कि गो मुल्क-ए-यहूदिया में फ़रमाए गए, ताहम हर एक मुल्क और हर क़ौम के लिए काफ़ी और मुनासिब हैं। अव़्वल तो इस में वो बातें जो और मज़ाहिब में ख़ुशनुदी ख़ुदा (ख़ुदा की रज़ा) और सवाब आख़िरत क़रार दी गई हैं। बुरी और फ़ुज़ूल कर के तर्क की गई हैं। और फिर वो बातें फ़रमाई गई हैं, जो बहर-हाल इन्सानियत के लिए फ़ाइदेमंद और इबादते इलाही के मुनासिब हैं। इस की तर्ज़ रोज़ा और नमाज़ और ख़ैरात और दीगर सब रुहानी अम्र व नही (امرو نہی) (जाइज और मना किए हुए काम) ऐसे हैं कि आबो हवा और क़ौमी और शख़्सी तबीअत को अपने मुताबिक़ बना दें। ना कि आप उन के मुताबिक़ बनाए गए हैं। किसी मुल्क की आबो हवा का लिहाज़ नहीं किया गया है। और ना तबीअत गुनाहगार की रिआयत की गई है। बल्कि वो ऐसा मज़्हब है कि कनआन और अरब और हिंद और चीन, रूस, रुम, इंग्लिस्तान और यूनान के वास्ते यक्सां (बराबर) है। और यही सबब है कि ज्यूँ ज्यूँ लोग इस को समझते हैं ईसाई होते जाते हैं। और अगर ईसाई नहीं होते तो अपने-अपने मज़्हबों में इस के मुताबिक़ इस्लाह (दुरुस्ती) करने की कोशिश करते हैं। मगर याद रहे कि अगर पूरी-पूरी इस्लाह करें। तो इनके क़ौमी मज़्हब इन इस्लाहों में छिप जाऐंगे। और अब तक जो कुछ दीन-ए-ईस्वी अपने कामों से साबित हुआ है, वो यही साबित हुआ है कि वही एक आलमगीर मज़्हब होने के क़ाबिल है, जो इन्सानियत को सर्फ़राज़ कर सकता है, और एक दफ़ाअ फिर उस को ख़ुदा और ख़ालिक़ पाक से मिला सकता है। और उस की ये हालत उस के ज़ाइल (ख़त्म) होने की मानेअ (रोकना) है। और मिस्ल और मज़ाहिब के उस की बाबत नहीं कह सकते कि “ऐं हम आमद व रफ्त।” (ایں ہم آمد ورفت) जो जो क़ियूद (पाबंदीयां) और हदूद (हदें) मुल्की और क़ौमी रुहानी शरीअत पर बनी-इस्राईल में लगाए गए थे, उनसे रुहानी शरीअत को आज़ाद कर के कुल आलम के लिए वाजिब (लाज़िमी) ठहराया गया है। (देखो मत्ती रसूल की इन्जील बाब पाँच, छः और सात) और वैसी क़ुयूद और हदूद हर मज़्हब में मसीह ख़ुदावंद की शरीअत से झड़ जाती हैं और वो मज़्हब मज़्हब नहीं रहते।

सोम : बुत-परस्ती, ये एक और अम्र है। जो दुनिया में बहुतेरे मज़ाहिब की आमद व रफ़्त का मूजिब रहे है। ख़ुदा की सच्ची पहचान का दिल से ज़ाए होना हर क़िस्म की बुत-परस्ती का मूजिब है। बुत-परस्ती दो क़िस्म की मालूम होती है, एक क़िस्म वो है जो किसी चीज़ को ख़ुदा की जाबजा ठहरा कर ताज़ीम के लायक़ बतलाती है। हमा औसत (सब कुछ ख़ुदा है ख़ुदा के सिवा किसी शैय की वजूद नहीं) की ताअलीम इस क़िस्म की बुत-परस्ती की माँ है। दूसरी क़िस्म वो जो किसी चीज़ को ख़ुदा नहीं ठहराती। तो भी उस की ताज़ीम को जायज़ और शर्त-ए-सवाब ठहराती है। और इस से उन बातों की उम्मीद की जाती है। जो वो किसी हालत में देने की क़ुद्रत नहीं रखतीं। हिन्दुओं की बुत-परस्ती बहुत कुछ पहली क़िस्म के मुताल्लिक़ और रोमन कैथलिकों और मुहम्मदियों की बुत-परस्ती दूसरे क़िस्म के मुताल्लिक़ है। चुनान्चे सूरज और बिजली और आग और हवा वग़ैरह वैदिक (हिन्दी इल्म-ए-तिब्ब) हिन्दुओं में। अवतार (ख़ुदा का किसी शख़्स की सूरत में जन्म लेना) वग़ैरह, पुराणों (रूहों) वाले हिन्दुओं में ख़ुदा कर के माने जाते थे और माने जाते हैं। क़ब्र परस्ती और पीर-परस्ती और काअबा परस्ती मुसलमानों में और पोप परस्ती और रसूलों और मर्यम और मसीह की मूरत की परस्तिश रोमन कैथलिकों में जारी हुई और अब तक हैं। मगर दीन-ए-ईस्वी हर दो क़िस्म बुत-परस्ती को रद्द करता है। और कहता है कि बुत कुछ चीज़ नहीं। और जिनको लोग ख़ुदा कह के मानते हैं, वो हक़ीक़त में ख़ुदा नहीं और ख़ुदा सब चीज़ों का ख़ालिक़ है ना कि वो ख़ुद ही ये चीज़ें है। ख़ुदा ही सबको ज़िंदगी और सांस बख़्शता है। वो नजात देने वाला ख़ुदा है। वही दुआएं सुन सकता है। क्योंकि वही क़ादिर-ए-मुतलक़ है। वही हमारी ताज़ीम के लायक़ है। माँ बाप को वो इज़्ज़त देनी चाहिए जो उनका हक़ है। और बादशाह को बादशाह का हक़। यही सबब है कि सच्चे ईसाई ना किसी मूर्त को पूजते ना क़ब्रों को मानते ना पत्थरों की परस्तिश करते और ना नेचरी (फ़ित्री) चीज़ों की ताज़ीम करते हैं। अलबत्ता जो इस्तिमाल इन चीज़ों का हो सकता है, उनको उस इस्तिमाल में लाते हैं। और ख़ुदा को रूह बेमिस्ल (जिसकी कोई मिसाल ना हो) मानते। और रूह व रास्ती से उस की परस्तिश करते हैं। ग़ैर-कौमें अपनी बुत-परस्ती की रु से, और उन उमूरात के रु से जो उस के मुताल्लिक़ ठहराई गई हैं, सवाब आख़िरत यानी गुनाह की बख़्शिश और नजात कमाने की कोशिश करते हैं। और ऐसे कामों को आमाल-ए-हसना (नेक काम) क़रार देकर जन्नत की उम्मीद रखते। मगर ज़ाहिर है कि सिवाए चंद एक बातों के हर एक मुल्क की बुत-परस्ती जिसने उस मुल्क के मज़ाहिब को जारी करवाया। दूसरे मुल्क में कार-आमद नहीं। ना हर मुल्क में गंगा है ना हर मुल्क में मक्का। बुत-परस्ती भी क़ौमी और मुल्की ख़ुसूसीयत रखती है। और इस का इसी सबब से दुनिया में आना जाना लगा रहा है। बहुतेरे मुल्कों में से तो बिल्कुल चलदी (गई) है। अस्ल में इन चीज़ों की ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि रुहानी इन्सानियत को इनसे कुछ फ़ायदा नहीं। बल्कि उमूमन जिस्मानी फ़ायदा भी नहीं होता। ऐसे मज़्हब दुनिया में लाने से क्या फ़ायदा है। इनको जाने दो। और पाकीज़गी और रास्तबाज़ी बतलाने वाले मज़्हब की पैरवी जो ना पानी लॉग (पानी से ताल्लुक़), ना चूल्हे की राख, ना पत्थर की रगड़ से, ना बिजली की चमक से, ना सुबह की हो उसे और ना किसी बशर ज़िंदा व मुर्दा से। लेकिन इब्न-ए-ख़ुदा (ख़ुदा का बेटा और ख़ुदा की रूह से हासिल हो सकती हैं। हर मुल्क व हर क़ौम में यकसाँ। “अपने अपने मज़्हब।” वाला मक़ूला छोड़ दो, और दीन-ए-ईस्वी पैरवी करो। जिसका बंदो बस्त आलमगीर और इन्सानियत को कामिल करने वाला है।

ख़ुदा से लड़ने वाले

ग़मलीएल फ़रीसी एक मुअज़्ज़िज़ मुअल्लिम शरीअत की उम्दा व मस्लिहत आमेज़ सलाह में जो उसने क़ौमी ख़ैर-ख़्वाही व हम्दर्दी के जोश में अपने अकाबिर (बड़े लोग) क़ौम को दी। आयात मज़्कूर बाला की बातें अठारह सौ बरस से कैसा साफ़ सबूत दिखा रही हैं। और मुवाफ़िक़ व मुख़ालिफ़ तूअन व कराहन (चार व नाचार, जबरन, ख़्वाह-मख़्वाह) उनकी सदाक़त के मुकर

Pepole Fighting with God

ख़ुदा से लड़ने वाले

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Dec 10, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 10 दिसंबर 1891 ई॰

“अगर ये तदबीर या काम इन्सान से है तो ज़ाए (बर्बाद) होगा। पर अगर ख़ुदा से है तो तुम उसे ज़ाए नहीं कर सकते। ऐसा ना हो कि तुम ख़ुदा से लड़ने वाले ठहरो।” (आमाल 5:38-39)

ग़मलीएल फ़रीसी एक मुअज़्ज़िज़ मुअल्लिम शरीअत की उम्दा व मस्लिहत आमेज़ सलाह में जो उसने क़ौमी ख़ैर-ख़्वाही व हम्दर्दी के जोश में अपने अकाबिर (बड़े लोग) क़ौम को दी। आयात मज़्कूर बाला की बातें अठारह सौ बरस से कैसा साफ़ सबूत दिखा रही हैं। और मुवाफ़िक़ व मुख़ालिफ़ तूअन व कराहन (चार व नाचार, जबरन, ख़्वाह-मख़्वाह) उनकी सदाक़त के मुकर (इक़रार करने वाले) हैं। जो लोग इल्म तवारीख़ के माहिर हैं जानते हैं कि रसूलों के ज़माने से आज तक इस तदबीर या काम (मसीहीय्यत) को ज़ाए करने वाले, और ख़ुदा से लड़ने वाले कैसे-कैसे ज़बरदस्त लोग दुनिया में हुए और अब तक हैं। मगर फ़त्हमंद व कामयाब ना हुए और ना होंगे।

ग़मलीएल उस वक़्त तक ना जानता था कि वो नासरी जिसने ऐसा बड़ा दावा किया कि राह और हक़ और ज़िंदगी मैं हूँ

वो ही है जो इस्राईल का मख़लिसी व नजात देने वाला ख़ुदावंद है। और उसी के नाम की मुनादी ये गलीली लोग करते हैं। जो क़ौम के नज़्दीक वाजिब-उल-क़त्ल (क़त्ल के लायक़) ठहरे हैं। मसीहीय्यत को वो “तदबीर या काम” समझा हुआ था। जो ख़्वाह इन्सान या ख़ुदा की तरफ़ से हो। उसने इस का ये फ़ैसला तजुर्बे पर छोड़ा। और उस वक़्त अपनी क़ौम को रसूलों के क़त्ल कर डालने से बाज़ रखा। अगरचे उस वक़्त उन्हें धमका के और कोड़े मार के छोड़ दिया। हुक्म मुहकम (सख़्त हुक्म) दिया कि यसूअ के नाम पर बात ना करें। लेकिन थोड़े ही अर्से में यहूदीयों की आतिशे ग़ज़ब (ग़ुस्से की आग) फिर मुश्तइल (भड़की) हुई। और स्तिफ़नुस को संगसार (पत्थर मार कर मारना) करके यरूशलेम की कलीसिया पर जो इब्तिदाई हालत में बहुत क़लील (कम) और कमज़ोर थी बड़ा ज़ुल्म किया। मसीहीयों को सताया। क़ैद और क़त्ल किया और मसीहीय्यत के नेस्त व नाबूद (बिल्कुल ख़त्म करना) करने के लिए मक़्दूर (हैसियत के मुताबिक़) भर पूर ज़ोर मारा। मगर आख़िर को थक कर बैठ गए। और अपने दिलों में क़ाइल हुए कि हम इस “तदबीर या काम” को ज़ाए (बर्बाद) नहीं कर सकते। रूमी शहंशाहों और हुक्काम ने मुसम्मम (पक्का) इरादा किया कि इस मसीह मुख़ालिफे केसर, और उस के रोज़-अफ़्ज़ूँ पैरौओं (रोज़ाना बढ़ने वाले पैरोकार) को जो हमारे देवताओं के आगे सर बसजूद (सज्दा करना) नहीं होते। सफ़ा हस्ती (दुनिया) से मिटा दें। उन्होंने मसीहीयों को मारा, जलाया, दरिंदों से फड़वाया और बिल-आख़िर हैरान हो के कहा कि, मुल्क ईसाईयों से भर गया। “कहाँ से इतनी तलवारें आएं जो उनको क़त्ल किया जाये।” यूनानियों ने अपने इल्म व हिक्मत के आगे मसीहीय्यत को हक़ीर जाना, और उसे ठट्ठों में उड़ाया। मुबश्शिरों को बकवासी और बेवक़ूफ़ समझा और आख़िर को मसीह मस्लूब के आगे सर झुकाया। छः सौ (600) बरस बाद कुतुबे मुक़द्दसा की पेशीन गोइयों के मुताबिक़ मुल्क अरब से एक धुआँ-धार मुख़ालिफ़त ने सिर उठाया। ईब्तदाअन तो मसीह और मसीहीयों की बड़ी तारीफ़ व तौसीफ़ का इज़्हार किया। मसीह को रूह मिन्हूँ (अल्लाह की रूह) और कलमा (अल्लाह का कलमा) और आयतुल आलमीन (दुनिया के लिए निशान) वग़ैरह आला ख़िताब दिए। और मसीहीयों को अहले मुदित (मुहब्बत व दोस्ती करने वाले), यहूदीयों से ज़्यादा नर्म दिल, मुशरिकों (बुत परस्तों) की दोस्ती पर भरोसा ना रखने वाले, आलिम और सच्चे आबिद (इबादत करने वाले) सोमाअ नशीन (صومعہ نشین राहिब दुनिया को तर्क करने वाले), तकब्बुर ना करने वाले हक़ को मानने वाले वग़ैरह बतलाया। और फिर दोस्त नुमा दुश्मन बन कर उनकी और उनके दीन की बेख़कुनी (जड़ उखाड़ना) की। ख़लीफ़ा सानी ने तो ग़ज़ब ही ढाया। बेशुमार मसीही मर्दों और औरतों को तह तेग़ (तल्वार से क़त्ल) बे दरेग़ (बग़ैर अफ़्सोस) किया। हजार हा गिर्जा मिस्मार (गिराना) कर डाले। और बेशक़ीमत कुतुब ख़ानों को जला कर राख कर दिया। ये तूफ़ान बेतमीज़ी उस वक़्त से शुरू हो कर आज तक मसीहीय्यत की बर्बादी व बेख़कुनी पर हर वक़्त उमड़ा रहता, और फ़ी ज़माना उस के साथ तल्ख़ अदावत व मुख़ालिफ़त में ग़ैर-अक़्वाम ख़्वाह मवह्हिद (मुसलमान) हों, या बुत-परस्त व मुल्हिद (काफ़िर) हों सब एक हो जाते, और मुत्तफ़िक़ हो कर हमला करते हैं। लेकिन मटर के छर्रे (छोटी गोलीयां) जबर अलटर के क़िले की मुस्तहकम व मज़्बूत दीवारों पर क्या असर पहुंचा सकते हैं। बावजूद इन सख़्त मुख़ालफ़तों और मजनूनाना (दीवाना-वार) हमलों के। मसीहीय्यत की रोज़-अफ़्ज़ूँ (हर रोज़) तरक़्क़ी, मुल्क हिंद और दीगर ममालिक में देखकर हमें ग़मलीएल की दाना सलाह की बातें इस वक़्त याद आती हैं। और तजुर्बा हमें सिखला और बतला रहा है, कि “अगर ये तदबीर या काम इन्सान से होता तो कभी का ज़ाए हो जाता। मगर चूँकि ये ख़ुदा से है, कोई इन्सानी मुख़ालिफ़ कोशिश और जद्दो जहद इस को ज़ाए (बर्बाद) ना कर सकी। और ना कर सकेगी और जो लोग इस की मुख़ालिफ़त में कोशां (सख़्त मेहनत करना) हैं ख़ुदा से लड़ते हैं। जिसका नतीजा उन्हें शिकस्त-ए-फ़ाश (ऐसी शिकस्त जिसमें किसी को शक ना हो) ज़हूर (ज़ाहिर होना) में आएगा।

जोश

हमने अपने पिछले आर्टीकल में अर्ज़ किया था कि इरादे की पुख़्तगी के लिए कई एक चीज़ों की ज़रूरत है। और इसी आर्टीकल में किसी क़द्र ये भी दिखला दिया था कि इन चीज़ों में एक हिम्मत है। अब हम एक और चीज़ का जो इरादा को क़ायम रखने, और अमल में लाने के लिए निहायत ज़रूरी है। थोड़ा सा ज़िक्र करेंगे। और वो जोश है। किसी काम का इरादा करना।

Enthusiasm

जोश

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Allama Talib-u-Din
तालिब-उद्दीन

Published in Nur-i-Afshan Nov 26, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 26 नवम्बर 1891 ई॰

हमने अपने पिछले आर्टीकल में अर्ज़ किया था कि इरादे की पुख़्तगी के लिए कई एक चीज़ों की ज़रूरत है। और इसी आर्टीकल में किसी क़द्र ये भी दिखला दिया था कि इन चीज़ों में एक हिम्मत है। अब हम एक और चीज़ का जो इरादा को क़ायम रखने, और अमल में लाने के लिए निहायत ज़रूरी है। थोड़ा सा ज़िक्र करेंगे। और वो जोश है। किसी काम का इरादा करना। और उस के वास्ते रंज व आलाम (दुख-दर्द, अफ़्सोस) के मुक़ाबले को तैयार होना। इरादे को फ़ेअल (काम) में लाने के लिए काफ़ी नहीं। अगरचे लोहे के गोले की सतह नरम और मुलायम होने के सबब से रगड़ से बिल्कुल ख़ाली, और हरकत करने के ज़्यादा क़ाबिल होती है। लेकिन ताहम इस गोले में ये क़ुद्रत नहीं होती कि एक जगह से हिल कर दूसरी जगह जा रहे।

 

 

वो अपनी जगह से तब ही सर केगा जबकि और क़ुव्वत उस को सर काएगी। पांव के साथ ज़रा सी ठोकर, या हाथ के साथ हल्का सा धक्का अगर मिल जाये। तो फिर ज़रूर कहीं का कहीं चला जाएगा। इस तरह जिस वक़्त जोश अपनी क़ुव्वत से इरादे को धकेलता है, तो इरादा ख़याल से सरक कर अमल की तरफ़ आ जाता है। इस मौक़े पर हमें रेल की कारगुज़ारी याद आती है। आप ज़रा सी तक्लीफ़ से कोई दो तीन मिनट के लिए एक क़ियासी (फ़र्ज़ी) रेलवे प्लेटफ़ार्म पर खड़े हो कर एक ऐसी ट्रेन नज़र से गुज़ारें जिसकी सारी गाड़ियां नई और एक दूसरी के साथ क़ाएदे (तर्तीब) के मुताबिक़ पैवस्ता (जुड़ी हुई) हों। और उनमें एक उम्दा मज़्बूत इंजन भी लगा हो। मगर ऐसे इंजन में भाप ना हो। यक़ीन है हमारे इशारे के साथ ही ये नक़्शा सब साहिबान की आँखों के सामने जम गया होगा। अब चाहे आप हमारी इल्तिमास (दरख़्वास्त) के मुवाफ़िक़ वहां दो मिनट खड़े हों, चाहे उसी जगह साल और सदीयां गुज़ार दें। लेकिन एक बात आप देखेंगे कि वो ट्रेन हमेशा उसी जगह पर खड़ी रहेगी। उस की गाड़ियां देखने में साबित और दुरुस्त नज़र आती हैं। इंजन में भी किसी तरह का नुक़्स (ख़राबी) नहीं। सब कुछ अपने-अपने मौक़े पर ठीक है फिर ये ट्रेन चलती क्यों नहीं? इसलिए कि हरकत में लाने वाली क़ुव्वत इस में मौजूद नहीं। इंजन की अजीब साख़त, उस की नादिर बारीकियां उस की बड़ी-बड़ी खूबियां। गो अपनी-अपनी जगह कारीगर की सनअत (हुनर) के गीत गा रही हैं। मगर उनमें ये क़ुद्रत नहीं कि इंजन को एक जगह से दूसरी जगह सर का दें। ये क़ुद्रत भाप ही में है। इसी तरह इरादे को अमल में लाने वाली क़ुव्वत जोश है। लेकिन ये याद रखना चाहिए कि जब किसी बात का इरादा दिल में आता है। तो उस के साथ ही ये क़ुव्वत भी पैदा हो जाती है। बल्कि इस का ज़हूर इरादे की लज़्ज़त के साथ एक निस्बत रखता है। यानी जितना कोई दिलचस्प और नफ़्स को पसंद होगा, उसी निस्बत से ये वस्फ़ (ख़ूबी) भी मौजूद होगा। चुनान्चे इन्सान का तजुर्बा ज़ाहिर करता है कि जिस काम में नफ़्स को लज़्ज़त की ज़्यादा तवक़्क़ो (उम्मीद) होती है। दिल का जोश उस को अंजाम देने में तुंद रफ़्तार (तेज़-रफ़्तार) घोड़े की तरह बगटुट चाल (टूटी हुई बाग के साथ बहुत तेज़ चलना) चलता है। दाएं बाएं पसो पेश का कुछ लिहाज़ नहीं करता। पर अफ़्सोस ये है कि नफ़्स को अक्सर बल्कि हमेशा लुत्फ़ बुरे कामों से हासिल होता है। पस जोश एक तरह सबसे उम्दा और एक तरह सबसे बुरी चीज़ है अगर वो क़ाबू में हो और उस का रुख दुरुस्त हो तो नतीजा नेक बरामद (निकलना) होगा। और अगर उस का नारास्त (गुनाह गार), और अनान दिल (दिल की लगाम) तसर्रुफ़ (इख़्तियार) से बाहर हो, तो नुक़्सान बरपा होगा। मसलन अगर इंजन को टूटी हुई लाईन पर खड़ा कर दें, और दर्जा अव़्वल तक भाप से भर कर छोड़ दें, तो सैंकड़ों सवारीयों को इस ट्रेन से गिर कर मौत की ट्रेन पर सवार होना पड़ेगा। पस भाप से काम लेने को दो बातें होनी चाहियें। एक ये कि रेलवे लाईन पुख़्ता हो और दूसरी ये कि इंजन की क़ुव्वत-ए-ज़ब्त (क़ाबू) से बाहर ना हो। या यूं कहें कि लाईन दुरुस्त हो और ड्राईवर दाना हो। और जब ये दोनों चीज़ें मुकम्मल होती हैं। तो ट्रेन एक स्टेशन से दूसरे तक और दूसरे से तीसरे तक आती। और अंजाम-कार (आख़िरकार) सही व सलामत अपने मंज़िल-ए-मक़्सूद (वो जगह जहां पहुंचने का इरादा हो) तक पहुंच जाती है। रास्ते में बहुत से दरिया लहरें मारते। तलातुम (लहर का जोश) और तुग़्यानी की तंदी (पानी के उतार चढ़ाओ की सख़्ती) दिखाते। अपने शोर से रेल के गुल (शोर) को मिटाते हुए आते हैं। हज़ारों दश्त व वीराने (जंगल ब्याबान) क़िस्म क़िस्म के ख़ून आसाम (ख़ून पीने वाला) आदम खोर दरिंदों से भरे हुए मिलते हैं। लेकिन इंजन की पुर ज़ोर भाप दुरुस्त रास्ते पर चल कर, और ड्राईवर के ताबे रह कर इन तमाम मुश्किलात पर ग़ालिब आती। और ट्रेन और ट्रेन के साकिनों (बैठने वालों) को बहिफ़ाज़त तमाम उनकी जगह पर पहुंचा देती है। इस तरह इन्सान के कारोबार में जो जोश ज़ाहिर होता है, इस के लिए भी दो चीज़ों की ज़रूरत है। एक दानाई जो मिस्ल ड्राईवर के है। और एक सेहत ग़र्ज़ जो मिस्ल जाद मुस्तक़ीम (सीधे रास्ता) के है। जिस काम को अंजाम देना मद्द-ए-नज़र हो अगर वो सही, और इस को करने वाला हिक्मत से बहरावर (फ़ायदा उठाने वाला) हो। और इन दोनों ख़ूबीयों की रफ़्तार क़ुव्वत-ए-जोश पर मुन्हसिर (ठहराया गया) हो, तो नतीजा ज़रूर नेक होगा। बेशक इस बड़े भारी काम के सफ़र में हज़ारों क़िस्म की सऊबतें (मुसीबतें) पेश आयेंगी। जगह-जगह ऐसे स्टेशन मिलेंगे। जहां के बाशिंदे हमारी तबीअत और हमारी ख़सलत (फ़ित्रत) के मुवाफ़िक़ ना हों। और शायद उनके हाथों तरह-तरह की अक़ूबत (सज़ा) भी उठानी पड़े। लेकिन ये अक़ूबत इस सरीअ-उल-ज़वाल (जल्द घटने वाला) डर की तरह मादूम (ख़त्म) हो जाएगी। जो पुल पर से गुज़रते वक़्त सवारीयों के दिलों में पैदा होता, कि अब डूबे तब डूबे। मगर जूं ही दरिया उबूर हुआ फ़ौरन इक़रार हो जाता है। मगर जहां जोश नहीं वहां तो छोटी-छोटी तकलीफ़ें भी पहाड़ नज़र आती हैं। इस मौक़े पर हमें साअदी की वो हिकायत याद आती हैं, जिसमें एक अजमी ग़ुलाम का ज़िक्र है। जो बादशाह के साथ दरिया की सैर को गया। बादशाह दरिया का तमाशा देखने के शौक़ से पुर, और उस का दिल कश्ती की पुख्तगी (मज़बूती) और मल्लाह की दानाई से मुत्मइन था। लेकिन ये ग़ुलाम इस ख़ौफ़ के मारे कि मबादा डूब जाऊं। ना सिर्फ ख़ुद डर-डर मरता था, बल्कि औरों के ऐश को भी मुनग़्ग़िस (अफ़्सुर्दा) करता था। कश्ती की दिलकश रफ़्तार, मछलीयों का नाज़ से उछलना, और ज़रा सा झमकड़ा देख कर फिर दामन-ए-आब (पानी की तह) से मुँह छिपा लेना। ठंडी-ठंडी हवा का अठकीलयां (शोख़ियाँ) लेते आना। लहरों का जोश तबाअ दिखाना शहज़ादे के लिए फ़र्हत (ख़ुशी) का बाइस था। मगर ग़ुलाम के लिए जिसमें सैर-ए-दरिया का शौक़ नाम का नहीं मौत का निशान था। मगर जहां जोश मौजूद है। वहां का नक़्शा और ही तरह का है। इस के तौज़ीह (वज़ाहत) के लिए हम कलाम-ए-हक़ से एक मिसाल पेश करेंगे। पौलुस एक अदना दर्जे का आदमी था। ना तो वो गर्वनमैंट में कोई आला मन्सब और मर्तबा रखता था। क्योंकि वो ख़ेमा दोज़ी (ख़ेमा सीना) से अपनी रोज़ी कमाता था। और ना उस की जिस्मानी शक्ल सूरत में ही कोई ऐसी दिलपसंद ख़ूबी पाई जाती थी, जिससे वो लोगों पर अपना रोब जमा लेता। क्योंकि उस की सवानिह उम्री (ज़िंदगी) के हालात पढ़ने से मालूम होता है कि वो अक्सर बीमार रहता था। उस की आँखें उसे हमेशा दुख देती थीं। लेकिन एक बात उस में थी जिसने अगरपा के सारे दरबार को हिला दिया।

 

जिन लोगों ने एशियाई बादशाहों के दरबारों को देखा या उनकी निस्बत सुना है। उन्हें मालूम होगा कि उन दरबारों का समां कैसा होता है। एक मुतलक़-उल-अनान (ख़ुद-सर) बादशाह जिसकी मर्ज़ी क़ौम का क़ानून जिसकी इनायत (मेहरबानी) हज़ारों की सर्फ़राज़ी। जिसकी धमकी लाखों की तबाही समझनी चाहिए मुस्नद (तकिया लगा कर बैठने की जगह) हुक्मरानी पर मुतमक्किन (क़ायम) है। और इर्द-गिर्द अराकीने सल्तनत बा तर्तीब अपनी अपनी जगह गर्दनें झुकाए, सीनों पर हाथ धरे हुक्म के मुंतज़िर खड़े हैं। और उन सीनों के नीचे उन के दिल थर-थर काँप रहे हैं। एक सुकूत (ख़ामोशी का आलम) छा रहा है। सांस तक नहीं लेते कि मबादा उस के हवा से बादशाह के ग़ज़ब का शोला भड़क उठे। तो सब के सब जल कर राख ही हो जाएं। ऐसे दरबार में जिसके हर कोने और गोशे से ग़ज़ब मुतरश्शेह (टपकना) था। पौलुस को मुजरिमाना शक्ल में आना पड़ा। हथकड़ीयां पड़ी हुई हैं। ज़ंजीरों से जकड़ा हुआ है। सरकारी प्यादे दाएं बाएं तलवारें लिए खड़े हैं। उस की तो ये हालत और इधर उस के दुश्मन शादाँ व फ़रहां हैं। चेहरों से ख़ुशी टपकती है। और दिल में सोचते हैं बस अब ये कोई दम (घड़ी, पल) का मेहमान है। एक-आध लम्हे में इस का ख़ून बहा और हम इंतिक़ाम की प्यास दिल खोल कर बुझाएंगे। पर वाह रे जोश तेरे क्या-क्या गुण गाएँ। तेरे सामने ये क़ैद, ये मुख़ालिफ़त, ये ज़ंजीरें क्या कर सकती थीं। तेरी आग वहां भी भड़क उठी और हम देखते हैं कि पौलुस की पुर जोश और दिलेराना फ़साहत (ख़ुश-बयानी) ने सब के मुँह-बंद कर दिए हैं। वो समझता है कि जिस्म की मौत एक पुल है। और मैं अपने रुहानी और हक़ीक़ी जोश की क़ुव्वत से इस पर से अब गुज़रा। मुझे आस्मान को जाना है, जब कि वो मेरा घर है और राह-ए-हक़ मेरा रहनुमा। और जोश मुझे चलाने वाला, फिर मौत मुझसे क्या छीन सकती है। काश कि ख़ुदावंद हमें हिक्मत और समझ और जोश अता करे कि हम सच्चे इरादों को दिलेरी और शुजाअत (दिलेरी) के साथ फ़ेअल (अमल) में लाएं।

राक़िम

तालिब उद्दीन

बनी आदम पर निगाह

ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस की नज़र में बनी-आदम की गुनाह आलूदा हालत की निस्बत ये एक ऐसे शख़्स की शहादत (गवाही) है। जो मुलहम (इल्हाम रखने वाला) होने के इलावा, बहैसीयत एक बड़ी क़ौम का बादशाह होने के ख़ास व आम के हालात व मुआमलात से बख़ूबी वाक़िफ़। और तजुर्बेकार था। और ये ना सिर्फ उसी की शहादत (गवाही) है,

Look at the Mankind

बनी आदम पर निगाह

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 29, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 19 जनवरी 1894 ई॰

ख़ुदावन्द : “आस्मान पर से बनी-आदम पर निगाह करता था कि देखे कि उनमें कोई दानिशमंद ख़ुदा का तालिब है या नहीं? वो सब के सब गुमराह हुए। वो एक साथ बिगड़ गए। कोई नेकोकार नेक लोग नहीं एक भी नहीं।” (ज़बूर 14:2-3)

ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस की नज़र में बनी-आदम की गुनाह आलूदा हालत की निस्बत ये एक ऐसे शख़्स की शहादत (गवाही) है। जो मुलहम (इल्हाम रखने वाला) होने के इलावा, बहैसीयत एक बड़ी क़ौम का बादशाह होने के ख़ास व आम के हालात व मुआमलात से बख़ूबी वाक़िफ़। और तजुर्बेकार था। और ये ना सिर्फ उसी की शहादत (गवाही) है, बल्कि वो सब भी जिन्हों ने नेअमते इल्हाम पाके पाक नविश्तों को कलमबंद (लिखा) किया। बनी-आदम की अला-उल-उमूम (आम तौर पर) गुनाहगारी का इज़्हार व इक़रार करते हैं। बाइबल ही एक ऐसी किताब है, जिससे मालूम हो सकता, कि आदम से ता एंदम (अब तक) कोई बशर मुबर्रा एन-उल-ख़ता (ख़ता से ख़ाली) ना हुआ। और ना ताकियाम क़ियामत हो सकता है। ये किताब किसी नबी, रसूल या बादशाह के गुनाह पर पर्दा नहीं डालती। और ना उनके किसी गुनाह को तर्क औला (उस फ़ेअल का तर्क, जिसका करना अफ़्ज़ल है) या लीला (खेल तमाशा) कह कर उस को ख़फ़ीफ़ (मामूली) ठहराती है। वो ना अम्बिया दाइमा (हमेशा से) को मासूम साबित करने की कोशिश करती, और ना महाऋषियों और महात्माओं (वली, नेक आदमी) की निस्बत ये ताअलीम देती है कि, “सामर्थी को दोश नहीं (ताक़तवर को इल्ज़ाम कोई नहीं)” बल्कि साफ़ तौर पर ज़ाहिर करती है, कि “सभों ने गुनाह किया, और ख़ुदा के जलाल से महरूम हैं।” वो गुनाह के नतीजा को भी बसफ़ाई बतलाती साफ़ तौर से बताना) और बनी-आदम को आगाह (इत्तिला देना) करती है कि “जो जान गुनाह करती है सो ही मरेगी।” और ये कि “गुनाह की मज़दूरी मौत है।”

इस में शक नहीं कि इन्सानी ख़ुद-पसंद तबीअत, और फ़रेब-ख़ुर्दा (धोका खाने वाला) दिल को ये बात पसंद नहीं, कि वो इल्हाम की ऐसी आवाज़ सुने कि “सभों ने गुनाह किया।” सब के सब और बिगड़े हुए हैं। और कोई नेकोकार नहीं। एक भी नहीं। लेकिन ख़्वाह कोई इन बातों को क़ुबूल व पसंद करे, या ना करे वो दरहक़ीक़त बहुत ही सही (दुरुस्त) और सादिक़ (सच्चे) हैं। वो लोग जो गुनाह की बुराई से और ख़ुदा तआला की अदालत व कुद्दूसी (पाकीज़गी) से नावाक़िफ़ हैं। और जिन्हों ने अपनी दिली व अंदरूनी हालत को नहीं पहचाना। किसी बुज़ुर्ग शख़्स की निस्बत मासूमियत का ख़याल कर सकते, और अपने को भी बनिस्बत दूसरों के पाक, और रास्त (नेक) समझते हैं। बल्कि बाअज़ ऐसे लोग भी मौजूद हैं, जो मसीहीयों से सवाल किया करते हैं, कि “गुनाह क्या है?” एक दफ़ाअ जब कि एक वाइज़ ने दौराने वाज़ में कहा कि “हम सब गुनाहगार हैं।” तो सामईन (सुनने वाले) में से एक आदमी ने, जो शायद ब्रहमन (हिंदू पण्डित) था जवाब दिया, “बेशक तुम सब गुनाहगार हो, मगर मैं नहीं हूँ।” क्या ये अम्र निहायत अफ़्सोस के क़ाबिल नहीं कि कितने हज़ार आदमी बग़ैर गुनाह की पहचान, और उस की माफ़ी हासिल किए, इस दुनिया से गुज़र जाते हैं और मरने के बाद उन्हें अबदी अज़ाब में मुब्तला होना पड़ता है।

लेकिन अगरचे सारे बनी-आदम गुनाह से मग़्लूब (हार गए) हो गए तो भी आदम-ए-सानी (दूसरा आदम) जो ख़ुदावंद आस्मान से था। ज़ाहिर हुआ और गुनाह और मौत पर ग़ालिब आकर अपने सब हम-जिंसों के लिए मुफ़्त नजात का दरवाज़ा खोल दिया। जैसा कि लिखा है कि “जब एक ही की ख़ता के सबब बहुत से मर गए। तो एक ही आदमी यानी यसूअ मसीह के वसीले से ख़ुदा का फ़ज़्ल और फ़ज़्ल से बख़्शिश बहुतेरों के लिए कितनी ज़्यादा हुई।”

अब्राहाम के दो बेटे

ये लिखा हुआ कि अब्रहाम के दो बेटे थे। एक लौंडी से दूसरा आज़ाद से पर जो लौंडी से था, जिस्म के तौर पर। और जो आज़ाद से था सौ वाअदे के तौर पर पैदा हुआ। (ग़लतीयों 4:22-23) इन बातों का मुफ़स्सिल बयान तालिब हक़ मूसा की किताब अल-मौसुम बह पैदाइश के 16 बाब से 21 बाब तक,

Two Sons of Abraham

अब्राहाम के दो बेटे

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One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Setp 24, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 24 सितंबर 1891 ई॰

ये लिखा हुआ कि अब्रहाम के दो बेटे थे। एक लौंडी से दूसरा आज़ाद से पर जो लौंडी से था, जिस्म के तौर पर। और जो आज़ाद से था सौ वाअदे के तौर पर पैदा हुआ। (ग़लतीयों 4:22-23) इन बातों का मुफ़स्सिल बयान तालिब हक़ मूसा की किताब अल-मौसुम बह पैदाइश के 16 बाब से 21 बाब तक, अगरचे चाहे तो पढ़ के ख़ुद मालूम कर सकता है मगर हम इस मुक़ाम पर सिर्फ इतना लिख कर कि बाब मज़्कूर रह बाला की (28, 29, 30) आयात में मुक़द्दमा हज़ा की निस्बत, रसूले अहद अतीक़ के मुताबिक़ ये ज़ाहिर करता है कि, “’जैसा उस वक़्त वो (इस्माईल) जिसकी पैदाइश जिस्मानी थी उसे (इस्हाक़) को जिसकी पैदाइश रुहानी थी सताया था। वैसा अब भी होता है पर किताब क्या कहती है? “कि लौंडी और उस के बेटे को निकाल। क्योंकि लौंडी का बेटा आज़ाद के बेटे के साथ हरगिज़ वारिस ना होगा।” हम मुंसिफ़ मिज़ाज नाज़िर को ये दिखला देना मुनासिब जानते हैं कि फ़र्ज़न्द मौऊद के इम्तिहानन क़ुर्बान करने का हुक्म ख़ुदा तआला ने उस वक़्त दिया था जब कि सारा की सलाह और हुक्म ख़ुदावंदी के मुताबिक़ अब्राहाम ने अपनी लौंडी हाजरा और उस के बेटे इस्माईल को अपने घर से निकाल दिया था। पस दरीं सूरत (इस सूरत-ए-हाल में) दीन मुहम्मदी के रीफ़ामरों (इस्लाह करने वालों) और नई रोशनी के इस्लामी लेक्चरारों की आरा मह्ज़ बिला-सबूत (बगैर सबूत) और बे-बुनियाद ठहरती हैं। जो ख़ुश-फ़हमी से ख़्वामख़्वाह कह गुज़रते हैं कि मुसलमानों का दावे ह बादी-उल-राए (इब्तिदाई फ़िक्र) में क़वी है, इसलिए कि पहली औलाद इस्माईल ही हैं। इब्राहिम की नज़र औलाद अकबर ही की क़ुर्बानी से पूरी हो सकती थी। और दरअस्ल सच्ची आज़माईश जो ख़ुदा को मंज़ूर थी वो औलादे अकबर ही की क़ुर्बानी को तर्जीह देती है। क्या मज़े की बात है कि अक़्लन व नक़्लन हक़ और सही बात के क़ाइल तो भोंडी (बदशक्ल, भद्दी) ग़लती में मुब्तला समझे जाएं और ख़िलाफ़ अक़्ल व नक़्ल और मह्ज़ बे सबूत अम्र के मुद्दई अश्ख़ास अपने दावे को क़वी बतलाएं हक़ को नाहक़ और ना हक़ को हक़ ठहराना ख़ुदा-तरस इन्सानों का काम नहीं है।

सलीब का पैग़ाम

इन्जील-ए-मुक़द्दस सलीब का कलाम है, जिसमें गुनाहगार बेकस और लाचार बनी-आदम को सलीब के ज़रीये से नजात की फ़हर्त बख्श (ख़ुशी देने वाला) ख़बर दी गई है। शरीअत की उदूल-हुक्मी के सबब से मौत अबदी हलाकत और दोज़ख़ गुनाहगारों का हिस्सा ठहरी है। लेकिन सलीब के सबब से ज़िंदगी अबदी आराम और बहिश्त का दरवाज़ हर एक

The Message of Cross

सलीब का पैग़ाम

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One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Oct 29, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 29 अक्तूबर 1891 ई॰

सलीब का कलाम हलाक होने वालों के नज़्दीक बेवक़ूफ़ी है। पर हम नजात पाने वालों के लिए नजात ख़ुदा की क़ुदरत है।” (1 कुरिन्थियों 1:18)

इन्जील-ए-मुक़द्दस सलीब का कलाम है, जिसमें गुनाहगार बेकस और लाचार बनी-आदम को सलीब के ज़रीये से नजात की फ़हर्त बख्श (ख़ुशी देने वाला) ख़बर दी गई है। शरीअत की उदूल-हुक्मी के सबब से मौत अबदी हलाकत और दोज़ख़ गुनाहगारों का हिस्सा ठहरी है। लेकिन सलीब के सबब से ज़िंदगी अबदी आराम और बहिश्त का दरवाज़ हर एक ईमानदार के वास्ते खुल गया है। यूनानी लफ़्ज़ (μωρία) जिसका तर्जुमा बेवक़ूफ़ी किया गया है। इस के मअनी बेमज़ा व बे-लुत्फ़ के भी हैं सलीब का कलाम हलाक होने वाले के वास्ते बेमज़ा है। उन को उस से कुछ लुत्फ़ हासिल नहीं होता। लेकिन ईमानदारों के नज़्दीक ये ही एक अज़हद मज़े की मर्ग़ूब चीज़ है जिस पर वो फ़ख़्र करते हैं। पस जो इस कलाम ज़िंदगी बख़्श की कुछ हक़ीक़त नहीं समझते उन के लिए ये बेवक़ूफ़ी है और उन की हलाकत में कुछ शुब्हा नहीं। ज़मानों से ये सलीब हर क़िस्म के लोगों के रू बुरद इस्तादा (खड़ा हुआ, उस्ताद गान) है। आलिमों, फाज़िलों, मुत्तक़ियों, दानाओं, फ़ैलसूफ़ों और नादानों के आगे ये तमाम मुल्कों की अक़्वाम के आगे खड़ी है। अंग्रेज़ों हिंदू मुसलमानों आतिश परस्तों और सिखों वग़ैर-वग़ैरह के आगे मगर बाज़ों के सामने वो ठोकर, बल्कि हलाकत का बाइस है। और बाज़ों के आगे रोशनी और ज़िंदगी का सबब है जिस तरह कि एक ही सूरज की रोशनी एक परिंदे को नहीं भाती मगर दूसरा उस की चमकाहट व रौनक में बुलंद परवाज़ी ही करता है। और जिस तरह पर एक फूल उस की रोशनी से कुमला जाता है मगर दूसरा खिलता और फूलता है। इस तरह पर बाअज़ के लिए ये सलीब आफ़्ताब सदाक़त की रौनकदार किरनों से मुनव्वर और रोशन होने का ख़ास वसीला और सबब है बाअज़ के लिए बिल्कुल बेमज़ा और बेवक़ूफ़ी नज़र आती है। सलीब के मुख़ालिफ़ों ग़फ़लत की नींद से बेदार हो जाओ क्योंकि वक़्त क़रीब है की सलीब बर्दार सय्यदना अल-मसीह जो एक दफ़ाअ कफ़्फ़ारा हुआ फिर आने वाला है। और वो अपने मुख़ालिफ़ों को बे सज़ा ना छोड़ेगा। अब तौबा और माफ़ी का दरवाज़ा खुला है, वक़्त को ग़नीमत समझ कर मुख़ालिफ़त और सरकशी से बाज़ आकर उस के वसीले से ख़ुदा से मेल कर लो, क्योंकि आज मक़बूलियत का वक़्त है आज नजात का दिन है। ऐसा ना हो कि वो दिन अचानक तुम पर आए और बे-ताब उस के हुज़ूर उस की शान और ग़ज़बनाक अदालत में खड़े किए जाओ और अबदी सज़ा का फ़ुतूह पाकर दस्त हसरत मलते हुए हालाक हुवे जाओ।