हमेशा की ज़िंदगी की बातें

शमाउन पतरस ने उसे जवाब दिया कि, “ऐ ख़ुदावंद हम किस के पास जाएं हमेशा की ज़िंदगी की बातें तो तेरे पास हैं। और हम तो ईमान लाए और जान गए हैं कि तू ज़िंदा ख़ुदा का बेटा मसीह है।” (युहन्ना 6:68-69) दरिया-ए-तबरियास के पार जब कि एक बड़ी भीड़ ख़ुदावंद के एजाज़ी कामों की शौहरत सुनकर उस की ताअलीम सुनने और उसकी करामतों को देखने के लिए फ़राहम

Words of the Eternal Life

हमेशा की ज़िंदगी की बातें

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Allama G. L. Thakur Das

अल्लामा जी॰ एल॰ ठाकुरदास

Published in Nur-i-Afshan Jun 18, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 18 जून 1891 ई॰

शमाउन पतरस ने उसे जवाब दिया कि, “ऐ ख़ुदावंद हम किस के पास जाएं हमेशा की ज़िंदगी की बातें तो तेरे पास हैं। और हम तो ईमान लाए और जान गए हैं कि तू ज़िंदा ख़ुदा का बेटा मसीह है।” (युहन्ना 6:68-69) दरिया-ए-तबरियास के पार जब कि एक बड़ी भीड़ ख़ुदावंद के एजाज़ी कामों की शौहरत सुनकर उस की ताअलीम सुनने और उसकी करामतों को देखने के लिए फ़राहम हो गई थी। तो लोगों को बहालत गिर संगी देखकर ख़ुदावंद को उन पर रहम आया। और पाँच रोटियों और दो छोटी मछलीयों को बरकत दे के तख़मीनन पाँच हज़ार आदमीयों को सैर कर दिया था। पस बहुत से लोग जो सिर्फ शिकम बंदा थे ये जान कर कि यसूअ की पैरवी में बिला-मशक्क़त रोटी हमें हमेशा मिलती रहेगी। उस को अपना बादशाह और उस्ताद बनाने और उस के मह्कूम व शागिर्द होने पर मुस्तइद व आमादा हो गए।

लेकिन ख़ुदावंद ने उन के मतलब व मक़्सद से वाक़िफ़ होकर जब उन्हें ये नसीहत की, कि तुम फ़ानी ख़ुराक के लिए नहीं, बल्कि उस खाने के लिए ज़्यादा-तर मेहनत व फ़िक्र करो जो हमेशा की ज़िंदगी बख़्शता और अबद तक ठहरता है। और वो ख़ुराक तुम्हें इब्न-ए-आदम के कफ़्फ़ारा आमेज़ मौत से और उस के पाक जिस्म की क़ुर्बानी से सिर्फ हासिल हो सकती है। इसीलिए उस ने साफ़ तौर पर कहा कि, “मैं वो ज़िंदा रोटी हूँ जो आस्मान से उतरी, अगर कोई शख़्स इस रोटी को खाए तो अबद तक जीता रहेगा। और रोटी जो मैं दूँगा मेरा गोश्त है जो मैं जहां की ज़िंदगी के लिए दूँगा। मेरा गोश्त फ़िल-हक़ीक़त खाने और मेरा लहू फ़ील-हक़ीक़त पीने की चीज़ है।” मगर शिकम परस्त (पेट के पूजारी) अश्ख़ास इन बातों का मतलब ना समझे। और ना आजकल ऐसे लोगों की समझ में ये बात आती है। और जैसा उस वक़्त बहुत लोग इन बातों को सख़्त कलाम जान कर बोले कि, “कौन इन बातों को सुन सकता है।” और उस की पैरवी को बेसूद जान कर उल्टे फिर गए। वैसा हर ज़माने में होता रहा। और अब भी अक्सर होता है। क्योंकि नफ़्सानी आदमी दुनियवी व जिस्मानी चीज़ों को रुहानी व ग़ैर-फ़ानी चीज़ों से ज़्यादा पसंद करते। और अगर दुनियवी व जिस्मानी अश्या के हासिल होने में मसीह से उन्हें कोई सूरत नज़र ना आए (अगरचे वो सब कुछ सख़ावत के साथ देता है) तो वो फ़ौरन उस को छोड़कर तरीक़ हलाकत में चलने को पसंद करते हैं। लेकिन जो अबदी ज़िंदगी के तालिब सादिक़ हैं और फ़ानी व दुनियवी चीज़ों पर ज़्यादा दिलदादा नहीं हैं। वो बहरहाल पतरस के हम ज़बान होकर कहेंगे कि, “ऐ ख़ुदावंद हम किस के पास जाएं हमेशा की ज़िंदगी की बातें तो तेरे पास हैं।” कौन ऐसे बदबख़्त लोगों की बुरी हालत का अंदाज़ा कर सकता है?

मसीही शायर ने दुरुस्त कहा है :-

तेरे दरबख़्शिश से जो महरूम चला जाये

शामत ही उस की नहीं तक़सीर किसी की

फ़िल-हक़ीक़त ऐसे लोग ना इधर के रहते ना उधर के। और अपनी ग़म आलूदा व पुर अफ़्सोस ज़िंदगी दिली बे आरामी व नदामत के साथ बसर करके मौत के वक़्त अमीक़ व बेहदयास व हिर्स में इस दुनिया से गुज़र जाते और अबदी हलाकत में पड़ के जहन्नम को आबाद करते हैं। जहां की आग कभी नहीं बुझती और कीड़ा कभी नहीं मरता है।

इस क़िस्म के बद-बख़्त लोगों में से एक शख़्स का हाल अभी हमने सुना है। जिसकी निस्बत अख़्बार आम (मत्बूआ 5 जून में बहवाला ट्रीबीवन एक तवील आर्टीकल बउनवान ईसाई का फिर हिंदू हो जाना) शाएअ हुआ है। इस शख़्स का नाम तुलसीदास बा अब्दुल मसीह मुक़ीम डेरा ग़ाज़ी ख़ान है जो क़रीब दस (10) बरस हुए ईसाई हो गया था और अब फिर हिन्दुओं में आ मिला है। गंगा पर जा के प्रायश्चित (तौबा) करके उस ने वहां के पंडितों से शुद्ध (पाक) होने का ज़रूरी सर्टीफ़िकेट हासिल किया। और फिर डेरा ग़ाज़ी ख़ान में वापिस आया। और वहां के ब्रह्मणों से दरख़्वास्त की, कि उस को बिरादरी में शामिल किया जाये। लेकिन वहां के लोगों ने मंज़ूर ना किया। बल्कि बरअक्स इस के पुराने फ़ैशन के लोगों ने एक बड़ा जोश उस के ख़िलाफ़ पैदा कर दिया। लिहाज़ा तुलसी दास ने आर्या समाज से मदद मांगी जिसने खुलेबंदों इसे शामिल कर लिया।

अख़्बार आम का ख़्याल इस शख़्स को हिंदू बनाने के ख़िलाफ़ है। और जो कुछ हिंदू मज़्हब के क़ुयूद व क़वानीन की निस्बत ऐसे मुआमलात में उसने लिखा वो बिल्कुल दुरुस्त है। हम अख़्बार मज़्कूर के कुल बयान को लिखना नहीं चाहते। मगर उस के चंद फ़िक्रात का इंतिख्व़ाब करना काफ़ी समझते हैं। ताकि हिन्दुओं के मज़्हब की सूरत और ऐसे अश्ख़ास की क़ाबिल-ए-अफ़सोस हालत नाज़रीन के ज़हन नशीन हो सके चुनान्चे वो लिखता है कि, “अब इतने अरसे के बाद फिर हिन्दुओं में शुमार होने को आपके धान में पानी फिर आया और प्रायश्चित की ठहराई। जिस पण्डित के ऐसे ईसाई को बाद हिंदू होने की इजाज़त दी और बे सतहा निकाली है बिल्कुल ख़िलाफ़ धर्मशास्त्र कार्रवाई की है और कोई पक्का हिंदू उस के फ़तवे को रास्त क़ुबूल नहीं कर सकता। ऐसा कोई प्रायश्चित हिंदू धर्मशास्त्रों में नहीं है।” न्यू फ़ैशन के लोग मस्लहत-ए-वक़्त के ख़्याल से ऐसे लोगों को फिर शामिल कर लेना मूहिब तरक़्क़ी क़ौम समझें। लेकिन ओल्ड फ़ैशन के लोग यानी न्यू फ़ैशन वालों के बाप-दादा किसी साया-दार दरख़्त की हिफ़ाज़त के लिए उस किसी पत्ते या टहनी को काट कर फेंक देना इस से बेहतर समझते हैं कि ऐसी शाख़ें जिनको घुन या कीड़ा लगा हुआ है और जिसकी बोसीदगी सारे दरख़्त को नुक़्सान पहुंचाएगी फिर इस में पैवंद की जाएं। क्या आपको यक़ीन है कि गंगा जी के पंडितों का फ़रमान ख़ुदाई है जो एक पापी को क़लम के दो हर्फ़ों से पवित्र (पाक) कर सकता है? क्या आप ख़्याल करते हैं कि हरिद्वार के पण्डित के पास[1] चिट्ठी ले जा कर उस की हिदायत में सर मुंडवा कर आपके सब पाप धोए गए? आपके इस रवैय्ये से कई ख़तरनाक मिसालें हिंदू मज़्हब के लिए “ओल्ड फ़ैशन” वालों के नज़्दीक पैदा होने लगी। हम कभी ख़्याल नहीं कर सकते कि पण्डित तुलसीराम जी ने कौन से वजूहात से और कौन से धर्मशास्त्र से एक ऐसे हिंदू के शूदा होने की बेवस्तहा फ़त्वा दी है। जो दस (10) पंद्रह (15) बरस खुल्लम-खुल्ला ईसाईयों में शामिल रहा, मकरूह खाना खाया, हिन्दुओं और उन के पंडितों को गालियां दीं। और अब फिर सब कुछ कर के हिन्दुओं में जिन्हें चोर और ग़ुलाम बतलाया जाता है शामिल करने की नाजायज़ कोशिश की जाती है। ताज्जुब की बात है कि बक़ौल आम “न्यू फ़ैशन वाले” यानी आर्या दयानंदी गंगा में किसी पापी को शुद्ध (पाक) करने की ताक़त के हरगिज़ मुअतक़िद (अक़ीदतमंद, पैरौ) नहीं हैं। लेकिन चूँकि उनका दस्तूर-उल-अमल मस्लहत-ए-वक़्त और हिक्मत-ए-अम्ली पर इब्तिदा से रहा है किसी ऐसे शख़्स को शूदा होने के लिए फिर भी गंगा में स्नान करने और वहां के पन्डों से जिन्हें वो पोप का ख़िताब हक़ारतन देते हैं हिन्दुओं में घसीटने पर नेक ख़्याल से सर्टीफ़िकेट हासिल करने की तर्ग़ीब देते हैं। क्या ये दियानत की बात है? हरगिज़ नहीं हम अख़्बार आम के हम-राए हो कर बिला-ताम्मुल कह सकते हैं कि ऐसे कहु-चल लट्टूओं के शामिल करने से हिंदू सोसाइटी और ना दियानंदी फ़िर्क़े की तरक़्क़ी व सर सब्ज़ी ज़ाहिर व साबित होगी, बल्कि ये एक मिनजुम्ला दीगर बवायस व वजूहात के उन के तनज़्ज़ुल दादबार का सरीह निशान है। हम इस मज़्मून पर ज़्यादा लिखना चाहते लेकिन फ़िलहाल इतने ही पर इक्तिफ़ा करते हैं।

मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी का सफ़ैद झूट

अर्से से मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद साहब क़ादियानी ने शोर व शर मचा रखा था कि उन को इल्हाम होता है। पर उन के इल्हाम की कोई हक़ीक़त ना खुली। जितनी दफ़ाअ इल्हाम आपको हुआ वह इल्हाम, इल्हाम ना ठहरा। आजकल आप लूदयाना में फ़िरौकश (मुकाम करना) हैं और इश्तिहार पर इश्तिहार देते हैं। कभी मुहम्मदियों को और कभी ईसाईयों को। कभी तो दावा मुल्हीम होने का था,

White lie of Mirza Ghulam Ahmad Qadiani

मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी का सफ़ैद झूट

By

Rev. Jamil Singh

पादरी जमील सिंह

Published in Nur-i-Afshan Jun 25, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 25 जून 1891 ई॰

मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी का सफ़ैद झूट[1] और

उस का ज़िंदा को मुर्दों में ढूंढना

अर्से से मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद साहब क़ादियानी ने शोर व शर मचा रखा था कि उन को इल्हाम होता है। पर उन के इल्हाम की कोई हक़ीक़त ना खुली। जितनी दफ़ाअ इल्हाम आपको हुआ वह इल्हाम, इल्हाम ना ठहरा। आजकल आप लूदयाना में फ़िरौकश (मुकाम करना) हैं और इश्तिहार पर इश्तिहार देते हैं। कभी मुहम्मदियों को और कभी ईसाईयों को। कभी तो दावा मुल्हीम होने का था, और अब मसीह होने का फ़ख़्र दिल में समा गया है। लेकिन जाये ताज्जुब है कि आपका इल्हामी होना तो अभी पाया सबूत को नहीं पहुंचता था कि आपने उस से बढ़-चढ़ कर दावा मसील मसीह होने का कर लिया। आख़िर आपके दाअवों का कोई सबूत भी है? या क्यों नहीं “छोटा मुँह बड़ी बात” के मिस्दाक़ हो रहे हो? आपकी किसी बात का आज तक कोई सबूत नहीं मिला। बिला सबूत आपके दाअवों का कहाँ तक तूल खींचेगा? आप नाहक़ अपनी सिरदर्दी करते हो और ज़ईफ़ ईमान वालों को अपने धोके में लाकर दीन व ईमान से खोते हो। मुनासिब तो है कि कोई आपकी किसी नविश्त की तरफ़ मुतलक़ ख़्याल ना करे, क्योंकि आपकी तहरीरात गुमराह और काफ़िर और बेदीन बनाने के लिए काफ़ी सामान रखती हैं। और हर एक फ़िक़्रह रास्ती से कोसों दूर और ईमान से बर्गश्ता करने के लिए ज़हर-ए-क़ातिल से भरा हुआ है। आपकी ये छेड़-छाड़ तो देर से लगी हुई है, इस से आपको किसी क़द्र फ़ायदा तो पहुंच चुका है, शौहरत तो आपकी बख़ूबी हो चुकी है। लेकिन अफ़्सोस कि आपने रोज़-बरोज़ दीन व ईमान से दूर व महजूर (जुदा) होकर अब नौबत यहां तक पहुंचाई है कि एलानिया झूट का शेवा इख़्तियार कर लिया है। सच है कि अगर कोई अव़्वल ही किसी काम से ना रुके तो रफ़्ता-रफ़्ता इस में पुख़्ता हो जाता है और आख़िर को इस का छोड़ना मुश्किल बल्कि दुशवार हो जाता है। चूँकि आपने पहले झूटी बातें बनाने और उन को इल्हामी जताने की मश्क़ करती थी। तो अब इस में तरक़्क़ी करनी ही थी। अब आपका बड़ा आख़िरी झूट ज़ाहिर हुआ कि मसीह मुर्दों में है। आफ़रीन आपकी होशयारी और चालाकी पर। आपको तो झूट पर झूट बोलने में कोई रुकावट नहीं पर आप मुहम्मदी आलिमों को भी अपने साथ शामिल करना चाहते हो। आपने अपने इश्तिहार (मत्बूआ 20 मई 1891 ई॰) में शाएअ किया है, कि अफ़्सोस हमारे गुज़श्ता आलिमों ने ईसाईयों के मुक़ाबिल पर कभी इस तरफ़ (यानी मसीह को मुर्दा साबित करने में) तवज्जह ना की। क्यों करते वो आप जैसे आलिम ना थे। उन को आपके मुवाफ़िक़ ऐसे नाहक़ दाअवों का मर्ज़ ना था। वो अहाता मुसलमानी से बाहर ना जाते थे। वाह साहब वाह आपको ख़ूब सूझी। ऐसी तो ना आपसे पहले किसी उलमा को सूझी थी और ना ज़माना-ए-हाल के मौलवी साहिबान के ख़्याल शरीफ़ में आती है। क्योंकि आपकी इस बेशक़ीमत समझ की कुछ वक़अत नहीं करते। बल्कि उन्हों ने मुत्तफ़िक़-उल-राए हो कर फ़त्वा आपकी बाबत लगाया है जो आपने बख़ूबी पढ़ा होगा।

कुछ ज़रूरत नहीं कि आपके लिए पूरा-पूरा सबूत इस अम्र का लिखा जाये कि ख़ुदावंद यसूअ मसीह ज़िंदा होकर आस्मान पर तख़्त नशीन है। लेकिन कुछ थोड़ा सा लिखना चाहता हूँ। ज़मानों से इस बात का सच्चा होना साबित होता आया है और इस में कुछ शक व शुब्हा नहीं किया गया कि ख़ुदावंद यसूअ मसीह ज़िंदा में फिर आने वाला है। ना सिर्फ ईसाई इस बात के क़ाइल हैं बल्कि ग़ैर-अक़्वाम भी ख़ुसूसुन मुहम्मदी। क्योंकि क़ुरआन में बार-बार मसीह के ज़िंदा आस्मान पर जाने का ज़िक्र है। अगरचे इस बयान में और बाइबल के बयान में इख़्तिलाफ़ है पर मसीह के ज़िंदा आस्मान पर जाने में पूरा इत्तिफ़ाक़ है और किसी मुहम्मदी को इस में कलाम नहीं। बल्कि तमाम मुसलमान साहिबान अज़-इब्तदाए मुसलमानी ये ही ईमान रखते रहे हैं कि हज़रत मसीह ज़िंदा आस्मान पर गए और जिस्म इन्सानी में वहां मौजूद हैं। पर बरअक्स उस के आप जो अजीब क़िस्म के मुहम्मदी हैं बरख़िलाफ़ क़ुरआन व मुहम्मदी एतिक़ाद के नाजायज़ इश्तिहार देते हैं कि मसीह इब्ने-ए-मरियम फ़ौत हो चुका। और (सुरह अल-नहल आयत 21) की एक आयत नक़्ल करके मोटे हर्फ़ों में अल्फ़ाज़ (اَمۡوَاتٌ غَیۡرُ اَحۡیَآءٍ) पर बड़ा ज़ोर दिया है जिसका मतलब है कि मुर्दे हैं नहीं ज़िंदा। अगरचे हम मसीही क़ुरआन की आयतों को तस्दीक़ नहीं समझते। मगर चूँकि एक मुसलमान एक आयत को बेमतलब और बेफ़ाइदा इस्तिमाल करता है उस के लिए इतना कहना काफ़ी है कि अगर मसीह की निस्बत भी ये ख़्याल है कि वो मुर्दा है और ज़िंदा नहीं तो फिर उन क़ुरआनी आयात का क्या मतलब है कि जिनमें साफ़ व सरीह लिखा है कि मसीह नहीं मरा देखो (सुरह अल-निसा रुकूअ 22, सुरह आले-इमरान रुकूअ 6, सुरह 1 अल-मायदा रुकूअ 16, रुकूअ 2)

मिर्ज़ा साहब सुनिए तमाम हवारी जो मसीह के ज़िंदा होने के वक़्त चश्मदीदा गवाह थे इस बात की गवाही बड़े ज़ोर व शोर से उन लोगों के रूबरू देते रहे कि जिनके सामने ये वाक़ियात वक़ूअ में आए थे कि ख़ुदावंद यसूअ मसीह ज़िंदा हो कर आस्मान पर चला गया। और 1891 ई॰ बरस हो चुके कि तमाम मसीही हर मुल्क के इस ही ईमान पर क़ायम रहे और हैं लेकिन आप इस सदी के आख़िर में मुख़ालिफ़ मसीह बल्कि मुन्किर मसीह ज़ाहिर हुए हैं। और हालाँकि ख़ुदावंद मसीह आस्मान पर अल-क़ादिर के दहने हाथ सर्फ़राज़ है मगर ताज्जुब कि आप उस को मुर्दों में ढूंडते हो। मसीह के जी उठने के बाद कई एक औरतें उस क़ब्र को देखने गईं कि जिसमें यसूअ दफ़न किया गया था। लेकिन फ़रिश्तों ने उन औरतों से कहा कि, “तुम क्यों ज़िंदा को मुर्दों में ढूंढती हो वो यहां नहीं बल्कि जी उठा है।” (लूक़ा 24:5) मैं भी आपसे इस वक़्त ये ही कलिमे कहता हूँ कि ऐ मिर्ज़ा साहब आप क्यों ज़िंदा को मुर्दों में ढूंडते हो? उस वक़्त उन लोगों ने उसे देखा और वो ईमान लाए क्योंकि वो फ़ुर्सत और तौबा का वक़्त था। और क्योंकि वो वक़्त क़ियामत का ना था। आप भी ख़ुदावंद मसीह को देखोगे पर क़ियामत के दिन। उस वक़्त आप क्या करोगे? वो तो जिस तरह ऊपर गया है फिर आएगा। (आमाल 1:11) पर अदालत के वास्ते आएगा जिसके अब आप मुख़ालिफ़ हैं। उस ही को रोज़-ए-हश्र की अदालत सपुर्द हुई है। आप ऐसी मुख़ालिफ़त अब कर के उस की अदालत से क्योंकर बच निकलोगे। ख़ुदा आपको हिदायत करे कि आप अपने तोहमात से रिहाई पाएं और हक़ बात को जान कर झूट से ताइब हों और

बहुत मोअजज़े दिखाता है

“ये मर्द बहुत मोअजज़े दिखाता है।” (युहन्ना 11:47) ज़रूर नहीं कि लफ़्ज़ मोअजिज़ा की तशरीह की जाये क्योंकि ये लफ़्ज़ ऐसा आम हो गया है कि हर एक मज़्हब व मिल्लत के लोग बख़ूबी तमाम जानते और समझते हैं कि मोअजिज़ा क्या है। अगरचे मोअजिज़ा को ग़ैर-मुम्किन व मुहाल जानने वाले हर ज़माने और हर मुल्क में होते आए हैं। लेकिन ये ख़्याल इन्सानी तबीयत में क़ुदरती ऐसे तौर

This man is performing a lot of miracles

बहुत मोअजज़े दिखाता है

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One Disciple

एक शागिर्द’

Published in Nur-i-Afshan June 4, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 4 जून 1891 ई॰

“ये मर्द बहुत मोअजज़े दिखाता है।” (युहन्ना 11:47) ज़रूर नहीं कि लफ़्ज़ मोअजिज़ा की तशरीह की जाये क्योंकि ये लफ़्ज़ ऐसा आम हो गया है कि हर एक मज़्हब व मिल्लत के लोग बख़ूबी तमाम जानते और समझते हैं कि मोअजिज़ा क्या है। अगरचे मोअजिज़ा को ग़ैर-मुम्किन व मुहाल जानने वाले हर ज़माने और हर मुल्क में होते आए हैं। लेकिन ये ख़्याल इन्सानी तबीयत में क़ुदरती ऐसे तौर पर जमा हुआ है कि कोई उस को मिटा नहीं सकता। इस में शक नहीं अगर ख़ुदा की हस्ती को तस्लीम करते तो कोई वजह-मुवज्जह मोअजिज़ा को तस्लीम ना करने की क़ियास में नहीं आती। नेचरलिस्ट (फ़ित्रत को मानने वाले) और मटीरिएलिस्ट (माद्दे को मानने वाले) वग़ैरह सिर्फ उन्हीं चीज़ों को जो उन की महदूद अक़्ल और नज़र में आ सकती हैं क़ुबूल करते। और अगर ब-मज्बूरी और शर्मा-शर्मी ख़ुदाई हस्ती के क़ाइल भी हों, तो ऐसे ख़ुदा के हैं। जो नेचर में दस्त अंदाज़ी और तग़य्युर पैदा करने की क़ुदरत हरगिज़ ना रखता हो। मख़्लूक़ को फ़ौक़-उल-ख़लक़त कामों का समझना निहायत ही मुश्किल और ग़ैर-मुम्किन के क़रीब है। लेकिन जब कि वो ख़ालिक़ की क़ुदरत बेहद का मग़्लूब हो जाता, तो अगरचे उस का मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) व मुअ़तरिफ़ ईमान सादिक़ और मुहब्बत वासिक़ से ना हो। ताहम मज्बूरी के बाइस उन फ़रीसयों और सरदार काहिनों की मानिंद जिन्हों ने ख़ुदावंद के जलाली और सरीह एजाज़ी कामों को देखकर बेसाख़्ता कहा कि, “ये मर्द बहुत मोअजज़े दिखाता है।”

तूँदकरहन (चार व नाचार) बजुज़ इक़रार हक़ीक़त और क्या कह सकता है। मसीह ख़ुद मोअजज़ों का मोअजिज़ा है। और ब-नतीजा मसीहीय्यत सरासर मोअजिज़ा के सिवा और कुछ नहीं। अगर हम ख़ुदा को वाजिब-उल-वजूद जानें और मानें। और मसीह को ईलाही मुअल्लिम और फ़ौक़-उल-ख़लक़त शख़्स। जैसा कि पाक तवारीख़ उस को ज़ाहिर करती है तस्लीम करें, तो उन तमाम माजरों और कामों के, जो उस की ज़िंदगी और ताअलीम से मुताल्लिक़ हैं इन्कार करने की कोई माक़ूल वजह हरगिज़ क़ियास में नहीं आ सकती।

दरहालेका मुवाफ़िक़ व मुख़ालिफ़, आलिम व जाहिल, ख़ास व आम, उस के एजाज़ी कामों के मुक़र हैं। तो मसीहीयों के लिए कोई मुश्किल और मुक़ाम शक मुतलक़ नहीं है कि मसीही मोअजज़ात मुंदरजा अनाजील को हक़ और सही जानें।

अब हम इस मुआमले में ज़्यादा लिखना नहीं चाहते। और अपने वाअदे के मुवाफ़िक़ नंबर हज़ा से “मसीही मोअजज़ात” को सिलसिला-वार लिखना शुरू करते हैं। यक़ीन है कि मसीही नाज़रीन ख़ुसूसुन और ग़ैर-मसीही नाज़रीन उमूमन मज़ामीन मुसलसल को बग़ौर व दिलचस्पी मुतालआ फ़रमाएँगे। हर-चंद ये सब्जेक्ट (मज़्मून) एक दकी़क़ और किस क़द्र दुशवार फ़हम है। ताहम कोशिश की गई है कि वो आम-फहम और सलीस इबारत में तर्जुमा किया जाये। और नाज़रीन को हत्त-उल-इम्कान उस से फ़ायदा मतलूबा हासिल हो।“ये मर्द बहुत मोअजज़े दिखाता है।” (युहन्ना 11:47) ज़रूर नहीं कि लफ़्ज़ मोअजिज़ा की तशरीह की जाये क्योंकि ये लफ़्ज़ ऐसा आम हो गया है कि हर एक मज़्हब व मिल्लत के लोग बख़ूबी तमाम जानते और समझते हैं कि मोअजिज़ा क्या है। अगरचे मोअजिज़ा को ग़ैर-मुम्किन व मुहाल जानने वाले हर ज़माने और हर मुल्क में होते आए हैं। लेकिन ये ख़्याल इन्सानी तबीयत में क़ुदरती ऐसे तौर

मेला बंदगी साहब सरहिंद

ये मेला एक ख़ानक़ाह पर जो बंदगी साहब की ख़ानक़ाह कहलाती है बमुक़ाम सरहिंद जो एक बड़ा मशहूर शहर हो गुज़रा है हर साल जमा होता है। दूर व नज़्दीक के बेशुमार मुसलमान साहिबान जौक़ दर जौक़ पीर साहब की क़ब्र की ज़ियारत और उस पर नज़रें चढ़ाने के वास्ते चले आते हैं। बताशे रेवड़ी और पैसे नज़रें चढ़ाते और मिन्नतें मानते और मुरादें चाहते हैं।

The Festival of Sirhind

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Rev. Jamil Singh

पादरी जमील सिंह

Published in Nur-i-Afshan Jun 25, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 25 जून 1891 ई॰

ये मेला एक ख़ानक़ाह पर जो बंदगी साहब की ख़ानक़ाह कहलाती है बमुक़ाम सरहिंद जो एक बड़ा मशहूर शहर हो गुज़रा है हर साल जमा होता है। दूर व नज़्दीक के बेशुमार मुसलमान साहिबान जौक़ दर जौक़ पीर साहब की क़ब्र की ज़ियारत और उस पर नज़रें चढ़ाने के वास्ते चले आते हैं। बताशे रेवड़ी और पैसे नज़रें चढ़ाते और मिन्नतें मानते और मुरादें चाहते हैं। ये जगह सरहिंद क़दीम के खन्डरात में एक वीरान मुक़ाम है। ना कोई साया-दार दरख़्त और ना लोगों को पानी का आराम है। प्यास के मारे ये मुक़ाम गोया कर्बला बन जाता है। अगर कुछ पानी है भी तो वो बिल्कुल कीचड़ है। गर्मी से लोगों का नाक में दम आ जाता है। सर पर सूरज की गर्मी और तपिश और नीचे से गर्द व धूल पांव से सर तक आती है। लोग पसीने-पसीने गर्द व ग़ुबार से भरे हुए पीर साहब की क़ब्र के इर्द-गिर्द जमा हो कर नज़रें चढ़ाने और ख़ुशीयां मनाते हैं। और ज़रदार सुर्ख़ और रंगा-रंग के कपड़े पहने हुए मस्तूरात गिरोह की गिरोह पीर साहब की ख़ानक़ाह पर सर झुका कर और नज़रें चढ़ा कर वापिस आते वक़्त फ़क़ीरों से घेरी जाती हैं। जिनको वो दो-दो चार-चार बताशे या रेवड़ियाँ या दो-चार कौड़ियाँ देकर पीछा छुड़ाती हैं और वहां से निकल कर गीत गाती हुई आस-पास के खन्डरात में जा बैठती हैं और पीर साहब की सना गाती हैं। इन औरतों के ऐसे झूटे एतिक़ाद और भरोसे को देखकर अफ़्सोस आता है कि ये बेचारी भोली भेड़ें किस तरह शैतान के चंगुल में पड़ी हैं। जिसने उन को क़ब्र-परस्ती और पीर-रस्ती की तरफ़ ऐसा लगाया है कि उनको सिवा उस के और कुछ ख़्याल और उम्मीद ही नहीं उन के लिए जो कुछ किया है सो पीर ही ने किया है और जो कुछ कर सकता है सो पीर ही कर सकता है। इस मुल्क में जितना कि औरतें पीरों, देवी-देवताओं और फ़क़ीरों की मुअतक़िद (अक़ीदतमंद, पैरौ) हैं उतना मर्द नहीं। उस का सबब ज़ाहिर है कि औरतों को अभी इतनी ताअलीम नहीं मिली जितनी कि मर्दों को मिल चुकी है। अफ़्सोस सद-अफ़सोस कि लाख बल्कि करोड़ो औरतें इल्म से बे-बहरा हो कर जहालत और ज़लालत में गिरफ़्तार हैं। औरतों को ताअलीम की बड़ी ज़रूरत है। क्योंकि औरतों पर बहुत कुछ मुन्हसिर है। अगरचे मिशन की सौ बेटीयों ने मस्तूरात की ताअलीम की तरफ़ बहुत कुछ तवज्जा की है। और हर एक शहर में उन के लिए मदारिस क़ायम किए हैं। मगर बाअज़ कोताह अंदेश साहिबान वावेला मचाते हैं कि मिशन स्कूलों में अपने लड़के-लड़कीयों को ना भेजो ख़्वाह वो बेइल्म ही क्यों ना रह जाएं।

ع ۔ بریں عقل و دانش بباید گریست

ऐसी गुमराही और बुत-परस्ती और तोहमात में तो चाहे पड़े हैं मगर इल्म से रोशनी हासिल ना करें।

बंदगी साहब की बाबत अजीब बातें सुनने में आईं जिनमें से एक दो क़िस्से नाज़रीन की ख़ातिर यहां दर्ज करता हूँ। एक उम्र रसीदा मुसलमान की ज़बानी यूं सुनने आया कि जब कि ये शहर सरहिंद आबाद था उन दिनों में बंदगी साहब हिंदू मुसलमानों के लड़कों को पढ़ाया करते थे, और बड़े रियाज़ती और इबादती शख़्स थे। एक दफ़ाअ का जिक्र है कि गंगा स्नान का वक़्त आया। और एक हिंदू लड़के ने अपने वालदैन के साथ गंगा जाने की रुख़्सत तलब की। बंदगी साहब ने इजाज़त ना दी। लड़का हर-चंद ब-ज़िद हुआ पर रुख़्सत ना मिली। लेकिन आख़िर को जब कि लड़के ने ज़्यादा दिक़ किया तो उन्हों ने कहा कि तुम गंगा में ग़ुस्ल करना चाहते हो हम तुमको वहां ग़ुस्ल करवा देंगे। ठीक जिस रोज़ कि स्नान का मौक़ा था। उस लड़के से फ़रमाने लगे कि तुम सच-मुच गंगा का स्नान करना चाहते हो? उसने कहा कि अब क्या हो सकता है? स्नान तो आज है। और मैं किस तरह अब वहां पहुंच सकता हूँ? इस पर बंदगी साहब ने फ़रमाया आओ तुम, अभी गंगा का स्नान कर आओगे। पास एक छोटा सा तालाब था वहां ले जा कर लड़के से कहा कि ग़ोता मार। जब लड़के ने ग़ोता मारा तो वहीं गंगा में पहुंच गया। और वालदैन के साथ ख़ूब स्नान किया। जाते वक़्त बंदगी साहब ने सात कौड़ियाँ लड़के को देकर फ़रमाया था, कि हमारी ये कौड़ियाँ भी गंगा माई को देते आना। और कहना ये बंदगी साहब ने दी हैं। वहां पर जब वो कौड़ियाँ लड़के ने गंगा माई को देनी चाहें तो वहीं गंगा माई ने अपना चूड़ी वाला हाथ निकाल कर और कौड़ियाँ ले के ग़ायब हो गई। ग़ुस्ल करने के बाद जब लड़के ने आख़िरी ग़ोता लगाया तो फ़ौरन उसी तालाब में बंदगी साहब के पास आ निकला। उस के वालदैन और लोगों को बड़ा ताज्जुब हुआ और बंदगी साहब के पास आकर इस तिलिस्मात की बाबत दर्याफ़्त करने लगे। उस ने कहा कि मैं इस तालाब में अभी फिर गंगा को बुला सकता हूँ। और देखो मैं अभी वही कौड़ियाँ इसी वक़्त मंगवाता हूँ ये कह कर पुकारा कि ऐ गंगा माई मेरी वही सात कोडियें जो फ़लाने लड़के ने मेरी तरफ़ से तुमको दी हैं वो मुझको वापिस दे दे, उसी वक़्त वही हाथ उसी तालाब में से निकला और कौड़ियाँ बंदगी साहब को देकर ग़ायब हो गया। इस पर उस वक़्त (160) हिन्दुओं ने जनेऊ तोड़ डाले। और मुहम्मद साहब का कलिमा पढ़ कर मुसलमान हो गए। ये क़िस्सा सुन कर हमें बड़ा ताज्जुब आता है कि हिन्दुओं की गंगा माई बंदगी साहब की ऐसी ताबेदार हो गई। इस क़िस्से की बनावट में ज़र्रा भी शक नहीं और ना कोई साहब-ए-इल्म यक़ीन करेगा।

एक और अजीब बात सुनी गई कि बंदगी साहब के मकान के नज़्दीक एक पीपल का दरख़्त था। अगर किसी हिंदू की लाश जलाने के वास्ते उस के नीचे से (क्योंकि इस मुहल्ले का रास्ता वहीं से था) चली जाती तो वो लाश हरगिज़ ना जलती चाहे सैंकड़ों मन लकड़ियाँ वहां क्यों ना जलाई जाएं। अफ़्सोस कि ऐसी वैसी कहानियां क़िस्से जोड़-जोड़ कर लोग नाहक़ इन्सान परस्ती करने लग जाते हैं। जो ख़ुदा के हुक्म के बिल्कुल बरख़िलाफ़ है। और यूं ख़ुदा के सामने क़सूर करके गुनाहगार ठहरते हैं।

इस मेले में इंजील की बशारत भी दी गई और सच्चे ख़ुदा की परस्तिश की ज़रूरत बताई गई और समझाया गया कि ख़ुदा की परस्तिश क़ब्र-परस्ती और इन्सान परस्ती से नहीं होती, बल्कि रूह और रास्ती से होती है। लेकिन मुनादी की तरफ़ लोग कम रुजू होते थे। दीनी किताबें भी फ़रोख़्त की गईं। लेकिन देखने में आया कि मुसलमान ईसाई मज़्हब की किताबों का पढ़ना बुरा समझते और यसूअ मसीह का नाम सुनकर ही किताब रखकर चले जाते और कहने लगते हैं कि इन किताबों का पढ़ना हमको जो मुसलमान हैं मुनासिब नहीं। हमारे ख़ुदावंद यसूअ मसीह का फ़रमाना क्या ही हक़ है। जैसा कि उस ने फ़रमाया, “क्योंकि जो कोई बुराई करता है दर नूर से दुश्मनी रखता है और नूर के पास नहीं आता ऐसा ना हो कि उस के काम फ़ाश हो जाएं। पर वो जो हक़ करता है नूर के पास आता है ताकि उस के काम ज़ाहिर हों कि वो ख़ुदा की मर्ज़ी से हैं।” (युहन्ना 3:20-21)

रेशनलिज़्म मज़्हब अक़्ली और मोअजज़ात

बुत-परस्त मज़ाहिब आइन्दा हालत की निस्बत सिर्फ एक धुँदली सी पेश ख़बरी रखते थे। आइन्दा ज़िंदगी बनिस्बत एक तासीर बख़्श ईमान व एतिक़ाद के शोअ़रा के लिए एक मज़्मून ही ज़्यादातर था। और ये मसअले फ़ैलसूफ़ों के नज़्दीक भी ऐसा बे-क़याम था कि वो सदाक़त जिसका इज़्हार पाक नविश्ते करते हैं यानी ज़िंदगी और बका इंजील ही से रोशन व ज़ाहिर हुई हैं।

Rationalism Religion Rational and Miracles

By

Mr. Smaul Smith M.P.

मिस्टर समूएल स्मिथ एम॰ पी॰

Published in Nur-i-Afshan Jul 23, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 23 जुलाई 1891 ई॰

मसीहीय्यत के लिए उस की उम्मीदों की अज़मत से एक दलील मिलती है।

मसीही मज़्हब के हक़ में एक माक़ूल दलील उन उम्मीदों की अज़मत से हासिल होती जिन्हें वो बनी-आदम पर ज़ाहिर करता है। इन तमाम मज़हबी तरीक़ों में से जिनमें इन्सान ने परस्तिश की है सिर्फ यही एक है जो हयात-ए-अबदी की मुबारक और यक़ीनी उम्मीद दे सकता है।

बुत-परस्त मज़ाहिब आइन्दा हालत की निस्बत सिर्फ एक धुँदली सी पेश ख़बरी रखते थे। आइन्दा ज़िंदगी बनिस्बत एक तासीर बख़्श ईमान व एतिक़ाद के शोअ़रा के लिए एक मज़्मून ही ज़्यादातर था। और ये मसअले फ़ैलसूफ़ों के नज़्दीक भी ऐसा बे-क़याम था कि वो सदाक़त जिसका इज़्हार पाक नविश्ते करते हैं यानी ज़िंदगी और बका इंजील ही से रोशन व ज़ाहिर हुई हैं। जब तक कि मसीह की क़ियामत ने मौत के फाटकों को खोल ना दिया। ग़ैर-अक़्वाम के दर्मियान आने वाली ज़िंदगी की निस्बत कोई यक़ीनी एतिक़ाद ना था। और यहूदीयों के दर्मियान भी ये सिर्फ एक ज़ईफ़ (कमज़ोर) एतिक़ाद था। उस वक़्त से अब तक जहां कहीं मसीह की इंजील की ख़ुशख़बरी पहुंची है ज़िंदगी और बका की मुनादी की गई है। आइन्दा हालत की निस्बत मसीही इल्हाम इन्सानी ख़्याल की तस्वीरों से किस क़द्र ज़्यादा अफ़्ज़ल व आला है! वर-जल के अलीसीन फ़ील्डज़ (ور جؔل کے الیسین فیلڈز) या मुहम्मद के नफ़्सानी बहिश्त का मुकाशफ़ात के नए यरूशलेम के साथ मुक़ाबला करो। मुक़द्दम-अलज़िक्र (مقدم الذکر) में हम नर व जन (نر وجن) के बहादुरों को साया-दार दरख़्त ज़ारों के दर्मियान, उन अगले खेलों में मशग़ूल, और उन घोड़ों और असलाह में दिल बहलाते हुए पाते हैं जिनसे वो इस ज़मीन पर लड़ाई करते थे। मुहम्मदी बहिश्त उन बुत-परस्त ख़यालात से भी पस्त है। क्योंकि वो एक बड़ा ही नफ़्सानी ऐश व इशरत का बहिश्त (जन्नत) है। जहां सब तरह की जिस्मानी ख़्वाहिशात एक मुबालग़ा आमेज़ मिक़दार पर पूरी की जाती हैं। लेकिन कान लगा कर सुनो कि पटमस के नाज़िर ने मसीही के मकान को बजालत जलाली कैसा देखा। “और मुझ युहन्ना ने शहर मुक़द्दस नए यरूशलेम को आस्मान से दुल्हन की मानिंद जिसने अपने शौहर के लिए सिंगार किया आरास्ता ख़ुदा के पास से उतरते देखा। और मैंने बड़ी आवाज़ ये कहती आस्मान से सुनी कि देख ख़ुदा का ख़ेमा आदमीयों के साथ है। और वो उन के साथ सुकूनत करेगा। और वो उस के लोग होंगे। और ख़ुदा आप उनका ख़ुदा होगा। और ख़ुदा उन की आँखों से हर आँसू पोंछेगा। और फिर मौत ना होगी। और ना ग़म और ना नाला और ना दुख होगा। क्योंकि अगली चीज़ें गुज़र गईं हैं।” (मुकाशफ़ा 21:2-4) और फिर “वो मुझे रूह में बड़े और ऊंचे पहाड़ पर ले गया। और बुज़ुर्ग शहर मुक़द्दस यरूशलेम को आस्मान पर से ख़ुदा के पास से उतरते दिखाया। उस में ख़ुदा का जलाल था और उस की रोशनी सबसे बेशक़ीमत पत्थर की मानिंद उस रेशम की सी थी जो बिलौर की तरह शफ़्फ़ाफ़ हो.. और मैंने कोई हैकल ना देखी क्योंकि ख़ुदावंद ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़ और बर्रा उसकी हैकल हैं। और शहर सूरज और चांद का मुहताज नहीं कि इस में रोशनी दें। क्योंकि ख़ुदा के जलाल ने उसे रोशन कर रखा है। और बर्रा उस की रोशनी है। और वो कौमें जिन्हों ने नजात पाई उस की रोशनी में फिरेंगी। और ज़मीन के बादशाह अपना जलाल और इज़्ज़त उस में लाते हैं। और उस की दरवाज़े दिन को बंद ना होंगे, क्योंकि रात वहां ना होगी। और वो क़ौमों के जलाल और इज़्ज़त को उस में लाएँगे। और कोई चीज़ जो नफ़रती या नापाक और झूट है उस में दर ना आएगी। मगर सिर्फ वो ही जो बर्रे की किताब-हयात में लिखे हुए हैं।” (मुकाशफ़ा 21:10 से आख़िर तक) सहीफ़-तुल-इल्हाम (صحیفتہ الالہٰام) के इलावा हम इस की मानिंद आला ख़यालात कहाँ पाएँगे?

इन्सानी रूह को सर्फ़राज़ी बख़्शने के लायक़ ऐसी एसी उम्मीदें हमको कहाँ मिलेंगी? मिनजुम्ला मज़ाहिब सिर्फ़ मसीही मज़्हब ही ने इस मुर्दा हड्डी ख़ाने को इस के ख़ौफ़ और दहश्तों से ख़ाली किया। और ईमानदार शख़्स को ये कहने के क़ाबिल बना दिया है.. ऐ मौत तेरा डंक कहाँ है? ऐ क़ब्र तेरी फ़त्ह कहाँ है?” इन पुर ख़ुशी उम्मीदों के साथ इस ज़ईफ़ और अफ़्सुर्दा रोशनी का मुक़ाबला करो जो ताअलीम तसव्वुफ़ क़ब्र पर डालती है। वो मसीह की क़ियामत को नज़र-अंदाज करती। क्योंकि वो अपना निज़ाम बग़ैर उस के पूरा ख़्याल करती है। वो अपनी बका की उम्मीदों को। आइन्दा हालत की बाबत उन धुँदली अटकलों पर क़ायम करती है। जो अक़्ल और नेचर की रोशनी दे सकती है। लेकिन इस थरथराती हुई तही-दस्त व तन्हा क़रीब-उल-इंतिकाल जान को कुछ तसल्ली नहीं बख़्श सकती। जो इस क़ुद्दूस के हुज़ूरी में। जिसकी आँखें बदी पर नज़र नहीं कर सकतीं खड़ी होने वाली है। वो उस ज़ेरबार ज़मीर के लिए कोई बचाने वाला पेश नहीं कर सकती। जो गुज़शता ज़िंदगी के तमाम आमाल को इस मुसन्निफ़ के हुज़ूर में जिससे कोई चीज़ छिपी नहीं रह सकती ज़ाहिर होने से पीछे हटता है। वो ख़ुदा के रहम पर एक अली अला-अल-उमूम (आम तौर पर) भरोसा रखने की तर्ग़ीब देनी है। लेकिन मरने वाली जान अपने सहारे के लिए किसी ज़्यादा-तर मज़्बूत शैय की मुहताज है। वो ख़ुदा के किसी यक़ीनी कलाम की ख़्वाहिश रखती है। और ये बजुज़ मुक़द्दस नविश्तों के कहीं नहीं मिल सकती। वो तसल्लीयां जो इन्सानी फ़िलोसफ़ी मरने वाले शख़्स के पेश कर सकती है। बमुक़ाबला इन दज़नदार कलिमात के जो मुलहम दानाई ने सब्त कराए हैं निहायत कमज़ोर और ज़ईफ़ हैं। हमारे मज़्हब की क़द्रो-क़ीमत बनिस्बत साअत मौत के और कहीं बेहतर इम्तिहान नहीं की जा सकती है। किस ने कभी किसी मरते हुए मसीही को अपने मज़्हब से पछताते सुना? किस ने कभी ऐसे शख़्स को जिसने मसीह को निहायत प्यार किया और बख़ूबी उस की ख़िदमत की हो अफ़्सोस करते मालूम किया। क्या तसव्वुफ़ के किसी मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) की निस्बत ऐसा कहा जा सकता है? दालटेर रोज़ युवावर टॉमपेन और इस बेदर्द मुल्हिद डेविड ह्यूम के भी अख़ीर घंटों की बाबत हमने अजीब हिकायतें सुनी हैं। हमको शक है कि मसीहीय्यत के अक्सर मुख़ालिफ़ों ने अबदीयत के किनारे पर खड़े हुए अपनी गुज़शता ज़िंदगी पर इत्मीनान और दिल-जमई के साथ नज़र की हो। और अगर उन को मौत से फ़ुर्सत मिले तो फिर वैसी ही ज़िंदगी बसर करने को पसंद किया हो। हमें यक़ीन है कि इनमें से अक्सर मरते हुए मसीही की मुत्मइन हालत व बख़राह से अपनी हालत व क़िस्मत को बखु़शी बदल लेना चाहते।

मसीही मज़्हब की ताक़त

हक़ीक़त ये है कि उस वाक़ई प्वाईंट पर जहां तमाम इन्सानी मज़्हब के तमाम तरीक़े शिकस्त हो जाते मसीही मज़्हब अपनी ईलाही ताक़त में क़ायम रहता है। उन राज़ों का जो मौत से मुताल्लिक़ हैं वो दिलेराना सामना करता और उन्हें जलाली तौर से ज़ाहिर व मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) करता है। ख़ुदा की ख़ूबी और मख़्लूक़ात की जिन्हें उस ने

Power of Christian Religion

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One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jul 30, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 30 जुलाई 1891 ई॰

हक़ीक़त ये है कि उस वाक़ई प्वाईंट पर जहां तमाम इन्सानी मज़्हब के तमाम तरीक़े शिकस्त हो जाते मसीही मज़्हब अपनी ईलाही ताक़त में क़ायम रहता है। उन राज़ों का जो मौत से मुताल्लिक़ हैं वो दिलेराना सामना करता और उन्हें जलाली तौर से ज़ाहिर व मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) करता है। ख़ुदा की ख़ूबी और मख़्लूक़ात की जिन्हें उस ने पैदा किया हलाकत के दर्मियान नापसंदीदा मुक़ाबले की निस्बत दीगर मज़ाहिब घबरा जाते हैं। वो अपने क़यासात की रु से ख़ुदा की आलमगीर ख़ैर ख़्वाही व मेहरबानी के मसअले का बयान नहीं कर सकते। लेकिन बाइबल इस में पेशक़दमी करके इन्सान की तबाही और ख़ुदा के ईलाज की हिकायत का बयान करती है। मसीही मज़्हब ख़ुदा की पाकीज़गी को इस क़द्र जगमगाती हुई सफ़ाई में हमें दिखलाता है कि इन्सानी बोसीदगी दो-चंद तारीक नज़र आती है। और इस गुनाह और मौत के जिस्म छुटकारा पाने की ज़रूरत को ज़ाहिर करती है। ताकि ये फ़ानी ग़ैर-फ़ानी को और ये मरने वाला हमेशा की ज़िंदगी को पहन ले।

हम उस का इन्कार नहीं करते कि बाइबल के बयानात में भी इन्सान की हालत व क़िस्मत के राज़ पाए जाते हैं। लेकिन वो बनिस्बत उन के जिनके साथ इन्सानी फ़िलोसफ़ी के हर एक तरीक़े को बह्स करना पड़ता है बहुत ही कम हैं। बाइबल उन मुश्किलात को पैदा नहीं करती है, वो इस से पेश्तर मौजूद थीं। और क़दामत की तमाम हिक्मत व दानाई इस से हैरान थी। बाइबल उन के इन्किशाफ़ में हमें बेशक निहायत मदद देती है, लेकिन वो उन को बिल्कुल रफ़ा नहीं करती है। इस पर कुछ ताज्जुब ना करना चाहिए जैसा कि अभी हमने इशारा किया है, ख़ुदा का लामहदूद दिल, महदूद इन्सान के दिल की ज़ईफ़ समझ पर किस क़द्र ज़ाहिर हो सकता है। “अभी हम आईने में धुँदला सा देखते हैं।” ख़ुदा और इन्सान के दर्मियान इत्तिसाल (मेल-मिलाप) के प्वाईंट को बाइबल रोशन व मुनव्वर करती है। लेकिन वो लकीरें जो इस प्वाईंट से निकलती हैं ग़ैर मालूम वुसअतों में फलती। और चूँकि ख़ुदा ने सिर्फ हमारी राज़ जाली को मुत्मइन करने के लिए कोई बात ज़ाहिर नहीं की है। पस जब हम उन अमीक़ मुआमलात पर जो बराह-ए-रास्त हमसे ताल्लुक़ नहीं रखते अक़्ली मुबाहिसा करते हैं तो जल्द गुम-शुदा हो जाते हैं। ये एक नामुम्किन-उल-फ़हम राज़ है कि बदी को मौजूद होने की इजाज़त दी गई है। बाइबल उस को मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना, खुलना) नहीं करती है। और इसलिए कि वो ऐसा करने की कोशिश नहीं करती इस पर इल्ज़ाम आइद नहीं होता है। लेकिन वो ये ज़ाहिर करती है कि जहां तक हर फ़र्द बशर से ताल्लुक़ है उस से क्योंकर मख़लिसी हासिल हो सकती है और इस राज़ के बक़ीया के लिए हमको उस वक़्त तक ठहराना ज़रूर है जब कि हम “रूबरू” देखेंगे। हम यक़ीनन मालूम कर सकते हैं कि उस वक़्त इस पुर-सताइश गीत गाने के लिए काफ़ी वजह होगी जो एक बड़ी जमाअत तमाम क़ौमों और फ़िर्क़ों और अहले-ज़बान में से निकल कर तख़्त को घेरे हुए गाती होगी। जिन्हों ने अपने जामा को बर्रे के लहू से धोया और सफ़ैद किया। जिस वक़्त ईमान की अस्ल की दिल में उस की मुनासिब जगह दे जाती है तो उन मुश्किलात का जो मसीही इल्हाम को घेरे हुए हैं एक बड़ा हिस्सा रफ़ा हो जाता है। मज़्हब अक़्ली इस के ख़िलाफ़ सरकशी करता है। उस की पुकार ये है कि, “जिस बात को मैं समझ नहीं सकता उस पर क्योंकि ईमान ला सकता हूँ।” वो शुरू ही से एक मोअतरिज़ व झगड़ालू सूरत इख़्तियार करता और किसी सच्चाई को जो पहले इन्सान की महदूद अक़्ल के तंग फाटक से नहीं गुज़री है रुहानी लियाक़तों के अंदर दाख़िल नहीं होने देता। लेकिन ख़ुदा आप बराह-ए-रास्त इन्सान की रुहानी नेचर से ख़िताब करता है। वो जानता है कि रुहानी नेचर बराह-ए-रास्त उस को जवाब दे सकती और इस सच्चाई को जो वो फ़रमाता है। उन आज़माईशों से जो हमारी नेचर की असली ज़रूरीयात के लिए काफ़ी हैं साबित करती है। ख़ुदा हमारी अक़्ली तबीयत पर जबर करना नहीं चाहता वो एक झूट अक़ीदा है जो अक़्ल की साफ़ तज्वीज़ को पामाल करने का ख़्वाहां है। और वो जिसने इन्सानी तबीयत को पैदा किया इस अम्र की बड़ी ख़बरदारी करता है कि जब वो हमारी रुहानी नेचर से अपील करता है उस की ताक़तों को नुक़्सान ना पहुंचा दे। लेकिन ताहम बाइबल में साफ़ तौर पर बयान किया गया है कि, “नफ़्सानी आदमी ख़ुदा की रूह की बातों को क़ुबूल नहीं करता है, ना वो उन्हें जान सकता है। क्योंकि वो रुहानी तौर पर जानी जाती हैं।” और इस बाइस इस बात का उम्मीदवार होना कि मसीही तज्वीज़ के ख़िलाफ़ मह्ज़ इन्सानी अक़्ल के हर एक पेश कर्दा मुश्किल मसअले का साफ़ जवाब दिया जा सकता है बेफ़ाइदा है। बे-एतिक़ादी का ये मुस्तक़िल सबब इन्सान की नफ़्सानी तबीयत में क़ियाम रखता है। और सिर्फ वो जवाब जो अक्सर उस के सवाल का दिया जा सकता है ये है, “ख़ुदावंद यूं फ़रमाता है।” ये अम्र इन सब मुश्किलात को जो इल्म व तहक़ीक़ात के ज़ेर हुक्म हैं रफ़ा करने की कोशिश का हमें मानेअ नहीं है। लेकिन वो हमें इस धोके से महफ़ूज़ रखेगा कि मसीही उज़्रदार की क़ुदरत में है कि वो जुम्ला हर्फ़गीरयों और सच्ची मुश्किलात का काफ़ी और मुत्मइन जवाब देगा। मसीहीय्यत की आख़िरी अपील उस जान के वास्ते जो ख़ुदा की रूह से मुनव्वर हुई है ये है और हम ये कहने की जुर्आत करते हैं कि कोई नहीं है जिसने ईलाही मर्ज़ी का फ़रमांबर्दार हो कर पाक नविश्तों में ढ़ूंडा है और ये मालूम करने में नाकामयाब रहा है कि “हर एक किताब जो इल्हाम से है ताअलीम के और इल्ज़ाम के और सुधारने के और रास्तबाज़ी में तर्बीयत करने के वास्ते फ़ायदेमंद है ताकि मर्द-ए-ख़ुदा कामिल और हर एक नेक काम के लिए तैयार हो।”

इश्तिहार मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद साहब क़ादियानी

जनाब मिर्ज़ा साहब आप ख़्याल फ़रमाईए, कि चंद गुज़रे सालों में आपने इतने इश्तिहार दीए और किताबें लिखीं लेकिन कोई बात भी आपकी बन ना पड़ी। आप हमेशा कहते रहे कि ख़ुदा ने ये बात और वो बात मुझ पर ज़ाहिर की है। मगर वो इश्तिहार नापायदार ठहरते रहे। और साथ ही अपने इस तर्ज़ से ख़ुदा को भी बदनाम किया।

Mirza Ghulam Ahmad Qadiani and False Teaching

By

G. L. Thakur Das

जी एल ठाकुर दास

Published in Nur-i-Afshan June 11, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 11 जून 1891 ई॰

मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद साहब क़ादियानी ने एक इश्तिहार बा-उन्वान “इश्तिहार बमुक़ाबिल पादरी साहिबान” हमारे पास भी भेजा है। जिसके अस्ल मंशा की बाबत मैं अभी नहीं कह सकता कि कहाँ तक झूट है। सिर्फ चंद बातें इस इश्तिहार के जवाब में जैसा वो अभी है मिर्ज़ा साहब की हिदायत के लिए तहरीर करता हूँ, सो :-

जनाब मिर्ज़ा साहब आप ख़्याल फ़रमाईए, कि चंद गुज़रे सालों में आपने इतने इश्तिहार दीए और किताबें लिखीं लेकिन कोई बात भी आपकी बन ना पड़ी। आप हमेशा कहते रहे कि ख़ुदा ने ये बात और वो बात मुझ पर ज़ाहिर की है। मगर वो इश्तिहार नापायदार ठहरते रहे। और साथ ही अपने इस तर्ज़ से ख़ुदा को भी बदनाम किया। और इस रविश से अब तक बाज़ नहीं आते। आपका मुद्दा तो हासिल हो गया है यानी शौहरत आपकी उड़ ही गई है। आपकी तस्नीफ़ात और इश्तिहारात से बहुतों को मालूम हो गया है कि आप क्या हैं। सो अब हम सिवाए इस के और क्या कह सकते कि, “तुम बको हम सुनते हैं।” चुनान्चे आपने अब ये इश्तिहार दिया है कि, “ख़ुदा तआला ने मेरे पर साबित कर दिया है कि हज़रत मसीह इब्ने-ए-मरियम हमेशा के लिए फ़ौत हो चुके हैं।” (क्यों साहब क़ियामत के भी मुन्किर हो गए?) “और इस क़द्र सबूत मेरे पास हैं कि किसी मुसन्निफ़ को बजुज़ मानने के चारा नहीं।” शायद आप उन सबूतों से लाइलाज हो गए होंगे पर हमें भी तो बतलाइये और मैं वाअदा करता हूँ कि आप तहक़ीक़ से बे राह हो गए होंगे तो ठीक रास्ता बतलाया जाएगा। सच पूछीए तो हमें आपकी बातों का बिल्कुल एतबार नहीं है। क्योंकि आपने हमेशा अपने ख़यालों के लिए सबूत मौजूद होने का इश्तिहार दिया। जब वो सबूत देखे और परखे गए तो कोई सबूत सबूत ना रहा। क्या आपने बराहीन अहमदिया वाले सबूतों का हाल रिव्यू बराहीन अहमदिया में नहीं देखा कि उनका क्या हाल हुआ? फिर बेटे इम्मानुएल के साथ कैसी गुज़री? और अपने इल्हाम की सुनाईए। सो उम्मीद है कि ऐसा ही हाल आपके इस इश्तिहार का भी होगा। और आप ख़ूब जान रखें कि ईसाई लोग आपकी बातों से परेशान नहीं हो सकते बल्कि आपके हाल पर रहम खाते हैं कि आप अपने वहम के धोके में पड़े हुए हैं और मुँह आई बात को ख़ुदा की तरफ़ से कह देते हैं।

इस इश्तिहार में आपने मुसलमानों की ख़ूँख़ार तबीयत और ईसाईयों की नर्म मिज़ाजी और बुर्दबारी का मुक़ाबला किया है। चुनान्चे आप लिखते हैं कि हाल के मुसलमान मौलवी आपकी बात से “सख़्त नाराज़ हैं, और हमेशा आपको उन मौलवियों से बह्स के वक़्त यही ख़तरा और ढरका रहता है कि बात करते-करते कहीं लाठी भी ना चला दें।” जब कोई मुसलमान मुख़ालिफ़ मिलने के लिए दावत देता है तो उस के चेहरे पर एक दरिंदगी के आसार होते हैं गोया ख़ून टपकता है। हर-दम ग़ुस्से से नीला-पीला होता जाता है।” लेकिन ईसाईयों में वो “तहज़ीब” है जो अदलगुस्तर गर्वनमैंट बर्तानिया ने अपने क़वानीन के ज़रीये से मुहज़्ज़ब लोगों को सिखलाई है और उनमें वो अदब है जो एक बा-वक़ार सोसाइटी ने नुमायां आसार के साथ दिलों में क़ायम किया है।

और ख़ुद पादरी साहिबान ख़ल्क़ और बुर्दबारी और रफिक़ और नर्मी हमारे उन मौलवी साहिबों से ऐसी सबक़त ले गए हैं कि हमें मुवाज़ना करते वक़्त शर्मिंदा होना पड़ता है।”

आपके इस बयान पर भी मुझे कलाम है। अव़्वल ये कि ईसाईयों की तहज़ीब और नर्म दिली का सबब तो बतलाया मगर मुसलमानों की ग़ुस्सा-दर और ख़ूँख़ार तबीयत का सबब ना बतलाया। इस भेद को ख़ूब ज़ाहिर करना था। क्या उन को गर्वनमैंट बर्तानिया के क़वानीन सिखलाए नहीं जाते और क्या वो आला सोसाइटी की कार्वाइयों को अपने सामने नहीं देखते हैं? मगर फिर भी तहज़ीब और तादीब नहीं आती है। इस का ग़ैर मुहज़्ज़ब और तुंद तबीयत का मूजिब क़ुरआन है जिसके लिए आप कहा करते थे कि मुझे इल्हाम होता है। क़ुरआन की ताअलीम और मुहम्मद साहब की ज़िंदगी का नमूना इस तबीयत के बानी हैं। (देखो सीरत दालहम्द, और अदम ज़रूरत क़ुरआन तबा दोम फ़स्ल नह्म व ज़मीमा किताब नंबर 2) और जो तहज़ीब और सलीम मिज़ाजी मुसलमानों में है या होने लगी है वो कुछ तो यहां के बाशिंदे होने के सबब और कुछ मसीही तहज़ीब के सबब है जो मिशनों और नीज़ गर्वनमैंट के ज़रीये से फैलाई जा रही है।

दूसरे ये कि जो वजह अपने ईसाईयों की नरम दिली और दोस्ताना तबीयत की बतलाई वो वजह मुहम्मद साहब ने अपने ज़माने के ईसाईयों की सलीम मिज़ाजी की नहीं बतलाई थी बल्कि ये कहा था कि, “तू पाएगा सबसे नज़्दीक मुहब्बत में मुसलमानों की वो लोग जो कहते हैं कि हम नसारा हैं। ये इस वास्ते कि उन में आलिम हैं और दरवेश हैं और ये कि वो तकब्बुर नहीं करते।” (सुरह माइदा रुकूअ 11 आयत 85) सो आपकी नई वजह दुरुस्त नहीं मालूम होती।

तीसरे क्या आपने कभी इस बात को बख़ूबी सोचा है कि गर्वनमैंट बर्तानिया क्यों ऐसी है कि सब रईयत ख़ुशी और आज़ादगी के साथ बह्स और बर्ताव कर सकती है और लाठी चलने का अंदेशा दूर रहता है, और अगर कभी चलती है तो लोगों के अपने-पुराने ख़मीर के सबब चलती है। ऐसी सलीम मिज़ाजी गर्वनमैंट में कहाँ से आई? सो मालूम हो कि इस दीनी शरा का इंग्लिश क़ौम पर बड़ा असर है कि, “अपने पड़ोसी को ऐसा प्यार कर जैसा आपको।” लिहाज़ा ईसाई मज़्हब और ईसाईयों की सलीम मिज़ाजी गर्वनमैंट बर्तानिया की तहज़ीब और सलीम मिज़ाजी के मूजिब हैं ना कि गर्वनमैंट ईसाईयों की सलीम मिज़ाजी की मूजिब है। (क्या आपका भी यही मतलब है या वो जिसकी तर्दीद की गई है?) क्योंकि “इंजील मुक़द्दस का हुक्म है कि हमेशा मुस्तइद हो, कि हर एक जो तुमसे इस उम्मीद की बाबत जो तुम्हें ही पूछे फ़िरोतनी और अदब से जवाब दो।” (1 पतरस 3:15) मिर्ज़ा साहब ये क्योंकर है कि आपकी ख़ैर अंदेशी में भी बदअंदेशी नुमायां है? उम्मीद है कि आप अपनी बात के सबूत भी ईसाईयों के सामने पेश करेंगे।

मैं क्योंकर जानूं कि तुम मुझे प्यार करते हो?

मैं क्योंकर जानूं कि तुम मुझे प्यार करते हो?

गो हमारे मज़्मून के पढ़ने वाले हमसे बहुत दूर हैं, तो भी हम क़यास की दूरबीन लगाए घर बैठे एक अजीब तमाशा देख रहे हैं, कि उन्वान के जुमले पढ़ कर कई एक के चेहरे तमतमा रहे हैं, आँखें ख़ून की तरह लाल हुई जाती हैं, पेशानी पर मारे ग़ुस्से के बल पड़ रहे हैं, ज़बान से अगर कोई कलिमा निकलता है तो बस यही,

HOW DO I KNOW THAT YOU LOVE ME?

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Rev. Talib-U-Den

रेव॰ तलिबुद्दीन

Published in Nur-i-Afshan Aug 6, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 6 अगस्त 1891 ई॰
हाय मैं कहता जो हूँ, देखो तुम्हारे लिए मैंने कैसे-कैसे दुख सहे, तुम्हें अभी मालूम नहीं?

गो हमारे मज़्मून के पढ़ने वाले हमसे बहुत दूर हैं, तो भी हम क़यास की दूरबीन लगाए घर बैठे एक अजीब तमाशा देख रहे हैं, कि उन्वान के जुमले पढ़ कर कई एक के चेहरे तमतमा रहे हैं, आँखें ख़ून की तरह लाल हुई जाती हैं, पेशानी पर मारे ग़ुस्से के बल पड़ रहे हैं, ज़बान से अगर कोई कलिमा निकलता है तो बस यही, ऐ नूर-अफ़्शाँ और ये फ़िक़्रे तौबा-तौबा! अगरचे इस ग़ुस्से और ग़ज़ब का स्वधर्म ही हैं। तो भी हम बड़े जोश से अपने ग़ुस्से फ़र्मा दोस्तों की तारीफ़ करते हैं, कि उन के दिलों में नूर-अफ़्शाँ की ग़ैरत तो है। मगर मालूम हो कि इन जुमलों के इक़्तिबास से हमारा ये मतलब नहीं कि हम अल्फ़ाज़ की बंदिश या मासूक जफ़ा-पेशा का नाज़ दादा या आशिक़ दिल-फ़िगार का हाल-ए-ज़ार, नाज़रीन को दिखाएं नहीं हरगिज़ नहीं।

चंद दिन हुए कि हमें इस ज़माने के एक नामी गिरामी मुसन्निफ़ की तस्नीफ़ देखने का इत्तिफ़ाक़ हुआ था, तो वो एक क़िस्सा मगर ऐसा ना था जैसे पिछले ज़माने के क़िस्से कहानियां। जिनके बाअज़-बाअज़ हिस्सों का पढ़ना ना सिर्फ औरतों के लिए नाजायज़ है, बल्कि इस क़द्र मर्दों के लिए भी। लेकिन इस किताब में जिसका हम ज़िक्र करते हैं ऐसे दो शख्सों का हाल मुंदरज है जिन्हों ने अपने-अपने दिल को एक दूसरे के हाथ फ़क़त अदाओं की क़ीमत पर बेच कर उम्र-भर के लिए रंज और राहत का शरीक बने। और वफ़ा में साबित क़दमी दिखाने का वाअदा किया है। ख़ैर इस से हमें क्या। हमारा काम सिर्फ सुर्ख़ी के सवाल और जवाब से है इस सवाल को पढ़ कर “मैं क्योंकर जानूं कि तुम मुझे प्यार करते हो?” उस ज़रूरत का ख़याल दिल में पैदा होता है, जो एक ख़ास हालत में हर एक इन्सान को अपनी सूरत दिखाई जाती है। क़ुदरत ने हमारे दिलों पर एक ऐसा मोटा और ज़ख़ीम पर्दा डाल रखा है कि प्यारे से प्यारा और अज़ीज़ से अज़ीज़ उस को चीरने और हमारे ख़यालात से वाक़िफ़ होने की ताक़त नहीं रखता। बेटा बाप के, बाप बेटे के, दोस्त दोस्त के ख़यालात से हरगिज़ वाक़िफ़ नहीं हो सकता। तावक़्ते के ज़बान को काम में ना लाएं। ये एक ऐसी ज़रूरत है जो हमारी ज़िंदगी के हर एक रिश्ते और इलाक़े में मौजूद है। मुहब्बत और इत्तिहाद का रिश्ता चाहे कैसा ही मज़्बूत हो। लेकिन अपने दिल का हाल जब तक ख़ुद ना बताओ कोई नहीं जान सकता। माँ की मुहब्बत से बढ़कर और कौन सी मुहब्बत होगी? पर वो भी अपने बच्चे की भूक से वाक़िफ़ नहीं हो सकती जब तक कि वो ख़ुद बिलक कर ज़ाहिर ना करे कि मैं भूका हूँ। जोरू और शौहर ज़िंदगी-भर की मुसाफ़त में चाहे रंज हो या ख़ुशी, पस्ती हो या बुलंदी, इफ़्लास (ग़रीबी) हो या दौलतमंदी। गर्दनों में बाहें डाले एक दूसरे को तसल्ली देते। ज़माने के दिए हुए ज़ख़्मों पर मुहब्बत और दिलासे के मरहम लगाते गुज़र जाते हैं लेकिन यहां भी ये ज़रूरत मौजूद है। हज़ारों ऐसे-ऐसे दोस्त हमनिवाला और हमपियाला देखने में आते हैं। जो एक दूसरे से कोई भेद पोशीदा नहीं रखते छोटी से छोटी बात भी जिसके खु़फ़ीया रखने से उन की यगानगत में कुछ फ़र्क़ नहीं आ सकता बे बताए नहीं रहते। और एक दूसरे पर जान फ़िदा करने को तैयार होते हैं पर वहां भी ये ज़रूरत हाज़िर है।

चाहे हम क़िस्से नवीसों को बुरा ही समझें, लेकिन एक बात तो हमको ज़रूर ही माननी पड़ती है जिस तरह सर्जन ये जानता है कि दिल की ये शक्ल है, उस में इतना ख़ून है, इतने वक़्त में इतनी हरकत करता है। उसी तरह ये भी यानी शायर और क़िस्से नवीस किस क़द्र उन इलाक़ों से वाक़िफ़ होते हैं जो वो जिस्म के साथ नहीं पर ख़याल और वहम के साथ रखता है सच है। अदम से हस्ती की तरफ़ आते वक़्त नेचर उन को क़िस्म-क़िस्म की प्यालियां तरह-तरह के रंगों से पुर देती है, और साथ ही ये कह देती है, लो जाओ सफ़ा तजुर्बे पर इन्सान के रंज व ग़म, शादी और ख़ुशी, क़हर और ग़ुस्सा, कमज़ोरी और लाचारी ज़ोर-आवर ताक़त की जैसी तस्वीर खींची हुई देखो। वैसी तुम भी अपने ज़हन ख़ुदादाद और उन रंगों के इस्तिमाल से खींच कर दिखाया करो। मगर अफ़्सोस उनमें से अक्सर इस अतीया बेश-बहा को बहुत बुरे तौर पर बरतते हैं। हाँ तस्वीर तो बहुत खींचते हैं और हम ये भी मानते हैं कि उन की मुसव्विरी अपनी क़िस्म में बढ़कर होती है। लेकिन जिस पैराये में वो उस को दिखाते हैं, या जो आईने उस पर चढ़ाते हैं, वो साफ़ और ऐब से बरी नहीं होता। या तो जगह-जगह बद-अख़्लाकी के पत्थर खाकर टूटा हुआ होता है, या किसी और क़िस्म की गर्द उस पर लगी होती है। काश हमारे आजकल के शायर जैसी अख़्लाक़ की सूरत देखते हैं, वैसी चमकती झलकती उस की फ़ोटो फिर खींच कर दिखाएं। इन लफ़्ज़ों में कि, “मैं क्योंकर जानूं तुम मुझे प्यार करते हो?” क्या ही ठीक और सच्ची तस्वीर हमारी कमज़ोरी की खींची हुई है। और तजुर्बा ये कह कर शहादत दे रहा है, सच है हम किसी के दिल का हाल हरगिज़ नहीं जान सकते। जब तक कि वो ख़ुद ना बताए। हमारे उन्वान के हबीब ने तरह-तरह के हादसे सहे, हज़ारों रंज झेले, घर छोड़-छाड़ कर ख़ाना-ए-वीरान होना मंज़ूर किया। लेकिन तो भी उस के महबूब को उस की मुहब्बत की ख़बर अब तक नहीं हुई, क्यों? कभी बतलाया नहीं। ख़्वाह कोई को हकनी में जान-ए-शीरीं बर्बाद करे। ख़्वाह जंगलों में दीवाने-वार मारा-मारा फिरे और भूक प्यास सहे, यहां तक कि सूख कर कांटा सा रह जाये। ख़्वाह अथाव समुंद्र में गिर कर ज़िंदगी से हाथ धो बैठे। लेकिन जब तक इस शख़्स को जिसके लिए ये सब तकलीफ़ें गवारा कीं, ये मालूम ना हो कि इन सब मुसीबतों का बाइस मैं हूँ, तब तक कभी उस की आँख से ग़म का आँसू दिल से दर्द की आह। लब से अफ़्सोस का कलिमा ना निकलेगा।

अगर इस मज़्मून के पढ़ने वालों में से कोई बाप होने का रुत्बा रखता हो, तो ज़रा सी देर के लिए लौट कर अपनी तय की हुई ज़िंदगी पर नज़र डाल कर देखे, क्या उस में कोई ऐसा मौक़ा उसे नज़र नहीं आता जब कि वो अपने बेटे की चाल व चलन के या उस के इधर-उधर आवारा रहने के या किसी और मुआमले के मुताल्लिक़ कोई बात दर्याफ़्त करना चाहता था, पर बेटा बात को छुपाता था। हाँ अगर कोई ऐसा मौक़ा नज़र में हो तो याद करे कि उस के गुरेज़ करने और बात को सही-सही बता ना देने पर उस के दिलेर क्या कुछ गुज़रता था। क्या बरछीयॉं ना चलती थीं, और बार-बार ये आवाज़ ना निकलती थी, हाय अगर मेरा बस चलता तो इस के दिल का एक-एक कोना देख डालता पर कुछ ना कर सकता था। या अगर उस का कोई दोस्त हो तो उस वक़्त को याद करे जब उस का दोस्त उस से कोई बात छुपाता था। क्या उस वक़्त उस का दिल बे-ताबी के भंवर में ना डूबा जाता था। और क्या इस में से दम-ब-दम ये सदा जलती आग की तरह ना निकलती थी? काश मुझे क़ुदरत होती तो उस के पुर्जे-पुर्जे़ कर डालता, रग व रेशे में से छानबीन कर उस बात को जिसे छुपाता है निकाल लाता। अज़ीज़ो ये हमारा हाल है जिस अक़्ल पर जिस दूरबीन पर हम अक्सर फ़ख़्र किया करते हैं उस की ऐसी रवय्य हालत है कि दोस्त, दोस्त के दिल का हाल नहीं जान सकता। मगर इस पर तुर्रह ये कि हम में से हज़ारों इस बात का दम भरते हैं कि ख़ुदा की बाबत हम ख़ुद ही सब कुछ दर्याफ़्त कर सकते हैं, इल्हाम की कोई ज़रूरत नहीं। लेकिन ये याद रहे जब कि हम उन लोगों के ख़यालात से जो हर वक़्त हमारे सामने रहते हैं। जो शेर व शुक्र से ज़्यादा हमसे वाबस्ता हैं, जो हमारी हड्डी और हमारा ख़ून हैं, वाक़िफ़ नहीं हो सकते। तो कब मुम्किन है कि ख़ुदा की मुहब्बत और उस के औसाफ़ से ख़ुद बख़ुद कमा-हक़्क़ा वाक़िफ़ हो सकें। उसे तो हमने देखा भी नहीं। अगर दूसरे आदमी का इरादा दर्याफ़्त करना मुश्किल है, तो ख़ुदा का इरादा दर्याफ़्त करना हज़ारचंद मुश्किल-तर होना चाहीए। अगर दूसरे आदमी के हालात जानने के लिए ये अम्र लाज़िम ठहरता है कि वही बताए तो हम जानें। तो हज़ार लाज़िम तर ये अम्र ठहरता है कि ख़ुदा ही अपने फ़ज़्ल से अपने इरादात हम पर ज़ाहिर करे तो हम जानें, जो ये दावा करते हैं कि सिर्फ उस की सनअत ही से सब कुछ दर्याफ़्त हो सकता है, उन के जवाब में हम ये कहते हैं कि दावा सरासर ग़लत है। अलबत्ता इस बात के हम भी क़ाइल हैं कि उस की सनअत पर ग़ौर करने से उस की क़ुदरत हिक्मत और दानाई हम पर ज़ाहिर हो जाती हैं। लेकिन क्या ये काफ़ी है? हिन्दुस्तान में ताज-महल एक ऐसी इमारत है कि दूर-दूर मुल्कों में कोई और मकान उस का सानी नहीं पाया जाता। नाज़रीन उसे देखकर बनाने वालों की ख़ूब तारीफ़ करते होंगे। और ज़रूर कहते होंगे आफ़्रीं उस उस्ताद पर जिसने ये इमारत तामीर की। लेकिन हम ये नहीं मान सकते कि इस इमारत की सनअत को देखकर नाज़रीन उन मुअम्मारों की ख़ुद ख़सलत और चाल व चलन से वाक़िफ़ हो सकें, जिन्हों ने अपनी कारीगरी से उन मकान को तामीर किया। अगर कोई तस्वीर देखकर मुसव्विर की निस्बत या इमारत देखकर मुअम्मार की निस्बत या कल देखकर कल बनाने वाले की निस्बत ये जान सकता है कि वो मग़रूर था या ख़ाकसार था, रास्तबाज़ था या दरोग़गो था, और लोगों पर रहम करने वाला था या उन को सताने वाला था। तो ख़ैर हम भी ये मान लेंगे कि फ़क़त चांद सूरज ज़मीन और आस्मान पर नज़र डालने से ख़ुदा की मुहब्बत, पाकीज़गी और और बाक़ी औसाफ़ कमायंबग़ी दर्याफ़्त हो सकते हैं। अगर कोई जो कहे कि मैंने या फ़लाने ने इन बातों को दर्याफ़्त किया। तो हम कहते हैं कि ज़रा इस बात का जवाब भी दे दे, कि कभी “मैं” या “फलाना” ऐसे ज़माने में भी पैदा हुआ जब कि इल्हाम दुनिया में ना था। जिस ज़माने से दुनिया की मोअतबर तारीख़ शुरू होती है, उस से कहीं पहले इल्हाम आ चुका था। अभी आदम अदन ही में था। जब ख़ुदावंद रहीम ने उस को ये मसरदा दिया कि औरत की नस्ल से एक पैदा होगा जो साँप के सर को कुचलेगा। अगर इल्हाम को ना मानने वाला ख़ुदा की मुहब्बत और रहमत वग़ैरह का हाल बयान करे तो कभी ना समझो कि ये उस की सोच व फ़िक्र का नतिजा है, हरगिज़ नहीं। वो एक तरह की चोरी करता है। औरों से सुनी हुई बातें अपनी बनाता है।

इंजील का दावा ये है, “ख़ुदा जो अगले ज़माने में नबियों के वसीले बाप-दादों से बार-बार और तरह-बतरहा हमकलाम हुआ। इन आख़िरी दिनों में हमसे बेटे के वसीले बोला।” यही एक वसीला था जिससे हम पर ख़ुदा की मुहब्बत, उस की मर्ज़ी, उस के अहकाम और उस के औसाफ़ ज़ाहिर हो सकते थे। उस के बेटे ने आकर हमको सिखाया कि ख़ुदा से और इन्सान से कैसी और किस क़द्र मोहब्बत रखनी चाहिए। ये वही था जिसने मुर्दों के जी उठने, हश्र के दिन हिसाब व किताब होने, बहिश्त के अबदी आराम में दख़ल पाने या दोज़ख़ के मुदाम अज़ाब में गिराए जाने की निहायत वज़ाहत से ख़बर दी। ये वही था जिसने रूह और रास्ती से बंदगी करने, रस्मी और फ़ुज़ूल इबादत से किनाराकश होने का हुक्म किया।

ऐ प्यारे नाज़रीन तुम भी मसीह से ये सवाल करो, “मैं क्योंकर जानूं कि तू मुझे प्यार करता है?” अगर ये सवाल करो और इंजील में इस का जवाब ढूंढो तो ये आवाज़ सुनोगे, “अपने दिल का दरवाज़ा खोल मैं अंदर आऊँगा, तेरे साथ रहूँगा, तेरे साथ खाऊंगा और पीयूंगा।”

दूसरी बात ये है कि, गो ज़बान से मुहब्बत का ज़ाहिर करना लाज़िमी तो है लेकिन काफ़ी नहीं, जैसा हमने उन्वान के जवाब में पाया। वहां हम देखते हैं कि पहले ज़बान से इक़रार किया है और फिर अमली सबूत दिया है यानी अपनी तक़्लीफों का ज़िक्र किया है। चाहे ये शख़्स मुद्दतों ज़बान से कहा करता, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। मैं तुम्हें चाहता हूँ। लेकिन कुछ सूद ना होता, जब तक कि वो अपने फअल से भी अपनी मुहब्बत की सदाक़त ज़ाहिर ना करता। और हम दावे से कह सकते हैं कि अगर कोई ज़बानी जमा ख़र्च पर किसी की मुहब्बत का क़ाइल हो बैठे और उस के चाल चलन से मुहब्बत का सबूत ना ढ़ूंढ़े, तो वो बड़ी ग़लती पर है। ख़ुसूसुन इस शख़्स का हाल तो और भी बदतर बल्कि क़ाइल रहम है। जो सरीहन ये देखता है कि फ़लां शख़्स मेरी मुहब्बत का दम सिर्फ अपने ज़ाती फ़ायदे के लिए भरता है, पर फिर भी उस की मुहब्बत का क़ाइल रहता है। ख़ुदावंद मसीह की मुहब्बत ऐसी मुहब्बत ना थी। “ज़रूर है कि इब्न-ए-आदम सलीब पर खींचा जाये।” ये वो अल्फ़ाज़ हैं जो ख़ुदावंद ने अपनी सलीबी मौत से पेशतर अपने शागिर्दों से कहे थे। यूं तो बहुत सी किताबें और बहुत से हादी, गुरु और मुर्शिद इस बात का दावा करते हैं कि हम :-

दुनिया के लोगों के लिए कामिल दर्जे की मुहब्बत रखते हैं। लेकिन ये देखना चाहिए कि उनकी तरफ़ कोई फअल भी ऐसा पाया जाता है जो उन के दावा मुहब्बत को साबित करता हो। शायद ऐसे भी बहुत मिल जाएं जिन्हों ने तकलीफ़ें सही हों। लेकिन ऐसा कोई ना मिलेगा, जिसने हमले पर हमला सदमे पर सदमा उठाया हो। पर फिर भी अपनी ज़बान और अपने हाथ को बंद रखा हो। आपको याद होगा और अगर नहीं तो हम याद दिलाए देते हैं कि जब यहूदीयों के प्यादे मसीह को पकड़ने गए। और जब उस पर हाथ डालने लगे। तो उस के शागिर्दों में से एक ने नियाम से तल्वार सौंप कर मुख़ालिफ़ों पर हमला करने के लिए क़दम बढ़ाया। तो उस मुहब्बत के पुतले ने उस की तरफ़ नज़र फेर कर ये कहा, “अपनी तल्वार बंद कर” फिर जब उसे गिरफ़्तार कर के हाकिम के रूबरू लाए, तो वहां उस के साथ वो सुलूक किया जिसको सोचते कलेजा मुँह को आता है, तम्सख़र से कांटों का ताज उस के सर रखा, तमांचे उस को मारे, ठट्ठों में उसे उड़ाया। ग़रज़ कि उस की तक़्लीफों ने वह तूल खींचा कि आख़िर कार सलीब पर खींचा गया। लेकिन वो ऐसा रहा जैसे “बर्रा” अगर वो चाहता तो फ़रिश्तों के गिरोह उस की मदद को हाज़िर हो जाते। लेकिन नहीं उस के चितवन तक ना बदले, क्यों? इसलिए कि लोगों को मालूम हो जाये कि उस की मुहब्बत बेरिया और बे नुक्स है। ऐ मसीह से नफ़रत करने वालो सुनो वो क्या कह रहा है। “मैंने तुम्हारे लिए ऐसे-ऐसे दु:ख सहे ऐसी-ऐसी तकलीफ़ें झेलीं और तुम्हें अब तक मालूम नहीं कि मैं तुमको प्यार करता हूँ।

क्या ईसाई भी हज करते हैं?

हमने नूर-अफ़्शाँ के किसी पर्चे में ज़िक्र किया था, कि एक शख़्स ने सवाल किया था कि जैसा मुहम्मदियों के हाँ मक्का में जाके काअबे का हज व तवाफ़ करना मूजिब सवाब समझा जाता। और हिन्दुओं में हरिद्वार वग़ैरह का तीर्थ करना बाइस नजात ख़्याल किया जाता है, क्या ईसाई भी किसी मुक़ाम के हज व तीर्थ को जाना मूजिब हुसूल-ए-नजात व सवाब समझते हैं?

Do Christians also do Hajj?

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One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jul 16, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 16 जुलाई 1891 ई॰

हमने नूर-अफ़्शाँ के किसी पर्चे में ज़िक्र किया था, कि एक शख़्स ने सवाल किया था कि जैसा मुहम्मदियों के हाँ मक्का में जाके काअबे का हज व तवाफ़ करना मूजिब सवाब समझा जाता। और हिन्दुओं में हरिद्वार वग़ैरह का तीर्थ करना बाइस नजात ख़्याल किया जाता है, क्या ईसाई भी किसी मुक़ाम के हज व तीर्थ को जाना मूजिब हुसूल-ए-नजात व सवाब समझते हैं? चुनान्चे इस के जवाब में उस सामरी औरत का ज़िक्र उस से किया गया था। जिसका ख़्याल इस मुआमले में साइल (सवाल करने वाला, पूछने वाला) के ख़्याल की मानिंद था। और उस ने ख़ुदावंद मसीह से इस को नबी जान के ये कह के दर्याफ़्त करना चाहा कि हमारे “बाप दादों ने इस पहाड़ पर परस्तिश की और तुम कहते हो (यानी यहूदी लोग) कि वो जगह जहां परस्तिश करनी चाहिए यरूशलेम में है।” ख़ुदावंद ने इस को जवाब दिया कि वो घड़ी आती है बल्कि अभी है कि सच्चे परिस्तार ना इस पहाड़ पर और ना यरूशलेम में बाप की परस्तिश करने के लिए मुक़य्यद व मज्बूर रहेंगे। बल्कि हर कहीं रूह और रास्ती से उस की परस्तिश कर सकेंगे। ख़ुदा रूह है और उस के परिस्तारों (इबादत गुज़ारों) को चाहिए कि रूह और रास्ती से परस्तिश (इबादत) करें।

रियाज़ उद्दीन अहमद साहब अख़्बार मुहज़्ज़ब लखनऊ में लिखते हैं कि ऐडीटर नूर-अफ़्शां साइल को जवाब नहीं दे सके। और अपने साइल की तसल्ली के लिए यूरोप में एक मुक़ाम बतलाया है जहां वो लिखते हैं कि साल में एक दफ़ाअ नहीं बल्कि हर रोज़ ईसाईयों का एक हुजूम रहता है यानी मॉन्टी करलो। ये मुक़ाम उन के ख़्याल में निहायत मुक़द्दस मुक़ाम है। और सैंकड़ों ईसाई वहां अपने गुनाह दूर कराने के लिए जाते हैं। रियाज़ उद्दीन अहमद के इस बयान की नक़्ल “ताज-उल-अख़बार और लायल ख़ालिसा गज़्ट” ने भी की है। लेकिन ये निहायत अफ़्सोस की बात है कि रियाज़ उद्दीन अहमद साहब और उन के ख़्याल के मुअय्यिद (ताईद करने वाला) अख़बारात इतना भी नहीं जानते कि इंजील में कोई ताअलीम इस क़िस्म की नहीं पाई जाती कि गुनाहगार आदमी फ़लां मुक़ाम की ज़ियारत से नजात या सवाब हासिल कर सकता है। जिस मुक़ाम और जिन ईसाईयों का बरा-ए-ज़ियारत वहां जाने का आपने ज़िक्र किया ये सिर्फ उन लोगों की जहालत है वर्ना मसीही लोग हरगिज़ किसी मुक़ाम को हज व ज़ियारत के वास्ते जाना मूजिब सवाब व बख़्शिश गुनाह का ज़रीया मिस्ल हिंदू मुसलमानों के हरगिज़ नहीं ख़्याल करते। आपके इस नाहक़ इल्ज़ाम का क्या जवाब दिया जाये कि, “ईसाईयों ने हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की ताअलीमात को छोड़ दिया है। दुनिया की आलूदगी में फंस गए हैं। क़िमारबाज़ी, शराबख़ारी, ज़िनाकारी को ईसाई ताअलीमात क़रार देते हैं। वो किसी मुतबर्रिक मुक़ाम की क्यों ज़ियारत करने लगे।” बजुज़ इस के, कि जो लोग मज़्कूर बाला गुनाहों को ईसाई ताअलीमात क़रार देते हैं वो हक़ीक़त में ईसाई नहीं हैं। बल्कि ऐसों के हक़ में ख़ुदावंद साफ़ फ़रमाता है कि, वो आस्मान की बादशाहत में हरगिज़ दाख़िल ना होंगे। आप बहुत कोशिश ना करते और चाहते हैं कि किसी सूरत से ईसाई मज़्हब और ईसाईयों को अपने बराबर साबित करके अपने दिल को मुत्मइन करें। लेकिन याद रखिये कि आपके एक बुज़ुर्ग का कौल है, “कोशिश बेफ़ाइदा सुस्त व समा बराबर दीए कौर” ऐसी बे-बुनियाद और इल्ज़ामी बातों से आपका मतलब हरगिज़ हासिल ना होगा।

सर सय्यद अहमद ख़ान बहादुर की गलतीयां चंद क़ाबिल एतराज़

ये कि फ़िक़्रह का हद ममनू मुंदरजा बाब 3 आयत 22 किताब मुसम्मा बह पैदाइश मूसवी में जुम्ला ममनूअ् के दाख़िल कलिमा नू के मअनी उस यानी ज़मीर वाहिद ग़ायब के भी हो सकते,

Some Offensive Objections of Sir Syed Ahamd

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Allama Abdullah Athim Masih

Published in Nur-i-Afshan April 16, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 16 अप्रैल 1891 ई॰

(1) ये कि फ़िक़्रह का हद ममनू मुंदरजा बाब 3 आयत 22 किताब मुसम्मा बह पैदाइश मूसवी में जुम्ला ममनूअ् के दाख़िल कलिमा नू के मअनी उस यानी ज़मीर वाहिद ग़ायब के भी हो सकते, हसब फ़रमाने आँजनाब के हमको तस्लीम हैं अल-बमूजब कुतुब लुगात और सर्फ व नहव इब्रानी के बमाअनी हम यानी जमा मुतकल्लिम जनाब को भी तस्लीम होने चाहें। बाक़ी रहा ये सवाल को मतन कलाम बमूजब अंसब (ज़्यादा मुनासिब) और वाज़ेह मअनी कौन से हैं? वो पूरे फ़िक़्रह को जिसमें कलिमा मुतनाज़ा वाक़ेअ है सो ये है, कि यहोवा इलोहीम ने कहा देखो इन्सान नेक व बद की पहचान में बक़ौल (मसीहयान-ए-तस्लीसी) हम में से एक की मानिंद हो गया (और बक़ौल सर सय्यद साहब) इन से यकता हो गया। यहां पर मर्जूअ (रुजू किया गया) इस्म ज़मीर जमा मुतकल्लिम हम का तो यहोवा इलोहीम मतन में ज़ाहिर है लेकिन इस्म ज़मीर वाहिद ग़ायब उस का मतन कलाम में तो कहीं नहीं ताहम सय्यद साहब फ़रमाते हैं कि इस का मर्जूअ (रुजू किया गया) वो आदम हैं जो आदम मारूफ़ से पहले गुनाह कर के गुज़र गए। अब ये तावील (तशरीह) भी आँजनाब (आलीक़द्र) की ना तो कहीं कलाम बाइबल से फ़रोग़ (रोशनी) पाती है ना जियालिजी (जियालोजी) से और ना कहीं और किसी वाक़ेअ माक़ूली या मनकोली (मंतक़ी और नक़्ल किया गया) से तो किस क़द्र ख़्याली और बेजा है कि जिसका कुछ हद ठिकाना नहीं। यहूदी जो कहते हैं कि यहां जमा मुतकल्लिम में मुक़र्रब फ़रिश्ते भी दाख़िल हैं अगरचे बावजाह उस के कि फ़रिश्ते भी मख़्लूक़ और मुहताज बालगीर हर अम्र में हो कर, ज़ाती इल्म बदी का नहीं रख सकते और कसबी इल्म रखें तो लायक़-ए-सोहबत अक़्दस ख़ालिक़ के नहीं रह सकते लिहाज़ा ग़लत ही हैं ताहम गुस्ताख़ी माफ़ सर सय्यद साहब से कुछ बेहतर हैं।

(2) इलोहीम में कलिमा यम (یم) जमा तादादिया का सय्यद साहब नहीं मानते मगर ताज़ीमा का मानते हैं और हुज्जत (बह्स) अपनी अस्मा-ए (इस्म की जमा) बअलीम व अश्तरा असीम से क़ायम फ़रमाते, हमारी नज़र में अस्मा-ए-ख़ास में जमा ताज़ीमिया ना तो कभी और कहीं वाक़ेअ हुई और ना ऐसा स्भाविक (मुम्किन) है। कलिमा (الہ) कि जिसकी जमा इलोहीम है इस्म-ए-ख़ास ही है, मौक़ा मुतनाज़ा पर तो बाइलाक़ा यहोवे ख़ास ये कलिमा आया है जो बाल-ख़सीस नाम ख़ुदा का है मगर जहान बमाअनी क़ुज़ात मुस्तअमल हुआ है, वहां भी तादाद ये ही है ना ताज़ीमिया और अश्तरास फ़र्ज़ी देवता थे, और ज़माना-ए-सल्फ़ (अगला ज़माने) में सिर्फ उन की मूरतों ही में पूजे जाते थे, लिहाज़ा बलिहाज़ कस्रत मूरतों के उन की जमा बअ़लीम और अश्तर-असीम (اشتراثیم) बनी है वर्ना नबी ख़ुदा के बुतों को तअ़ज़ीम क्योंकर देते या मौक़ा नक़्ल या मज़ाह का कौन सा था।

(3) सर सय्यद साहब इल्हाम को इल्क़ा-ए-फ़ित्रती (ख़ुदा की तरफ़ से बात) इसलिए क़रार देते है कि वो ऐसे मोअजिज़े के क़ाइल नहीं जो बदून दख़ल इल्म या क़ुदरत बेहद के वकूअ़ ना आ सके। इसी लिए क़ुदरत ख़ालिका के भी वो मुन्किर हैं। हाँ अलबत्ता क़ुदरत तर्कीब दहिंदा हकीम मुतलक़ व कामिल के वो क़ाइल हैं, मगर ख़ुदा को ख़ालिक़ अश्या महदूद-उल-वजूद का नहीं मानते। हमारे नज़्दीक कोई शैय क़दीम नहीं हो सकती जब तक कि सिफ़त ज़रूरत मुतल्लक़ा उस की बुनियाद हस्ती की ना हो, जो ज़रूरत मुहताज या मग़्लूब ग़ैर बाक़ी नफ़्सा (ज़ात) तग़य्युर-पज़ीर (तब्दीली होने वाली) नहीं हो सकती और कि ना तो वो ख़ुद इरादा है और ना शख़्स साहिबे इरादा। लिहाज़ा हद-मकानी या ज़मानी उस को कोई नहीं लगा सकता माज़ा जो शैय महदूद फील-मकान बाज़मान है वो लाबदन (बदी से पाक) हादिस भी है, क्योंकि जिसने एक हद उस को लगा दी वो अदम में भी उसे पहुंचा सकता है, और जो अदम में जा सकती वो अदम ही से बिलज़रूर आई भी है। अदम को सामान-ए-वजूद किसी शैय का तो हम भी नहीं मानते मगर ऐसी क़ुदरत का इन्कार भी दुरुस्त नहीं जानते जो बग़ैर सामान कुछ बना सके, गो हमारे इल्म व ताक़त से वो बाहर हो। ये भी सही है कि कसाफ़त, कसाफ़त को जगह नहीं देती और मुसावी लतीफ़ अश्या एक जाजमा हो कर अलेहदा-अलेहदा (अलग-अलग) नहीं रह सकती, लेकिन कोई वजह नहीं कि एक ऐसा लतीफ़ कि जिसकी लताफ़त ब-ज़िद मुतलक़ कसाफ़त के होना बनिस्बत किसी कसीफ़तर शए के जो कि बग़ैर छेद के बंध सके हमा जा क्यों ना हो सके और बेनज़ीर मुतलक़ में कोई शैय क्योंकर एक हो सके ज़रूरत ऐसे ख़ालिक़ की हद वजूदी अश्या में ज़ाहिर है।

(4) सर सय्यद साहब का ये गुमान भी ग़लत है कि इरादे की तहरीक के लिए सबब फाएक़ की ज़रूरत है। हम पूछते हैं कि जहां दो कशिशें मुसावी और ज़िद फ़ीलहाल दरान वाहिद हों थां रूया क़ुबूल अहदे के लिए सबब फाएक़ कौन सा हो सकता है? और चंचल इन हर दो में आराम क्योंकर पा सकता? अगर कह दो कि मुसावी ही होना मुहाल है तो क्या शैय मानेअ ऐसे इम्कान की है या बताओ कि तब आज़ादी और नदामत का मख़रूज कौन सा है?

(5) वो जो सय्यद साहब फ़रमाते हैं कि क़ुरआन में ईमान बिल-जब्र की ताअलीम मुतल्लिक़न नहीं मगर ये कि या मानो या मरो या जज़्या गुज़ार हो कर जीयो। हम पूछते हैं कि शर्त जज़्या बख़बर ख़ास अहले-किताब के आम के लिए कहाँ है? सूरह तौबा के आयत 4 में जहां सिर्फ ये शर्त बयान हुई है, अगर कलिमा मिनजुम्ला      من الذين الذين में फ़ासिल और मुस्तसना अहले-किताब का नहीं तो ज़िक्र अहले-किताब का क्या मअनी रखता है? ला-इकराह फ़ीद्दीन (لا اکراہ فی الدین) के मअनी बरु-ए-क़ुरआन कराहत ईमान बाल-जबर की नहीं, मगर मुमानिअत बाहमी लूट-मचाई की है, जो बह-बहाना नाफ़हमी के मुसलमान, मुसलमान को लूट लेता था और लकुम-दीनकुम-वलीयदीन (لکم وینکم ولیدین) में ज़िक्र अम्र वाक़ई का ही है, ना किसी अम्र दहनी का। इंतिक़ाम और इंतिज़ाम के जिहाद भी क़ुरआन में अलबत्ता हैं, मगर सूरह तौबा के आयत 4 में इसलिए भी क़त्ल का हुक्म है कि जो ख़ुदा और क़ियामत को ना माने और अल्लाह व रसूल की हराम ठहराई शैय को हराम ना जानें। मामिन्हु घिरा सैर का नहीं, मगर वो जगह जहां इस पर कोई ज़ुल्म ना करे और वो फिर दीन से ना फिर जाये।

(6) गु़लामी जब कि ख़रीदार-ए-असीरान जंग की क़ुरआन में जायज़ है, तोरक़ेत मुस्तकबिला का जवाज़ मफ़्हूम दर क़ुरआन रखना पहले जवाज़ ही से नाजायज़ है, तावक़्त के ऐसी रक़बत आइन्दा साफ़-साफ़ मना ना लिखी हो।

फ़ायदा

तौरात में क़त्ल करने बाअज़ गिरोह-ए-कफ़्फ़ार का हुक्म दिया निशान तो लाशक लिखा है, मगर शर्त ईमान पर आमान वहां कुछ नहीं जैसा कि क़ुरआन में हैं। गु़लामी और कस्रत इज़्दवाजी मुजुज़ा तौरात में हक़-तल्फी के बजाय मह्ज़ रहम और रफ़ाहत मुहताजगान की सूरत ही है और वह भी ज़मान व मकान महदूद व ख़ास के अंदर बरख़िलाफ़ क़ुरआन के कि जिसमें हक़-तल्फी का ख़्याल, ख़्याल में भी नहीं और दाअवा अबदियत और हमाजा होने उस की शरीअत का मौजूद है सब से बड़ा फ़र्क़ बाइबल और क़ुरआन में ये है कि बाइबल तो रहम बिला मुबादला जायज़ नहीं रखती, जब कि क़ुरआन जायज़ रखता है।