नजात नेक-आमाल के साथ नामुम्किन

मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन नमीर, अबी आमिश, अबू सालिह हज़रत अबू हुरैरा रज़ीअल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया मियाना

Salvation with Works is Impossible?

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One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan January 15, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 15 जनवरी 1891 ई॰

बुख़ारी और मुस्लिम में अबू हुरैरा से रिवायत है कि मुहम्मद साहब ने फ़रमाया,
सही मुस्लिम, जिल्द सोम, मुनाफ़क़ीन की सिफ़ात और उनके अहकाम का बयान। हदीस 2616
कोई भी अपने आमाल से जन्नत में दाख़िल ना होगा, बल्कि अल्लाह-तआला की रहमत से जन्नत में दाख़िल होने के बयान में।

रावी : मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन नमीर, अबी आमि अबू सालिह अबू हुरैरा

حَدَّثَنَا مُحَمَّدُ بْنُ عَبْدِ اللَّهِ بْنِ نُمَيْرٍ حَدَّثَنَا أَبِي حَدَّثَنَا الْأَعْمَشُ عَنْ أَبِي صَالِحٍ عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ قَالَ قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَارِبُوا وَسَدِّدُوا وَاعْلَمُوا أَنَّهُ لَنْ يَنْجُوَ أَحَدٌ مِنْکُمْ بِعَمَلِهِ قَالُوا يَا رَسُولَ اللَّهِ وَلَا أَنْتَ قَالَ وَلَا أَنَا إِلَّا أَنْ يَتَغَمَّدَنِيَ اللَّهُ بِرَحْمَةٍ مِنْهُ وَفَضْلٍ

मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन नमीर, अबी आमिश, अबू सालिह हज़रत अबू हुरैरा रज़ीअल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया मियाना रवी इख़्तियार करो और सीधी राह पर गामज़न रहो और जान रखो, कि तुम में कोई भी अपने आमाल से नजात हासिल ना करेगा। सहाबा ने अर्ज़ किया, ऐ अल्लाह के रसूल आप सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम भी नहीं, आप सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया मैं भी नहीं, मगर ये कि अल्लाह मुझे अपनी रहमत और फ़ज़्ल से ढाँप लेगा।

Abu Huraira reported Allah’s Messenger (may peace be upon him) as saying: Observe moderation in deeds (and if it is not possible, try to be near moderation) and understand that none amongst you can attain salvation because of his deeds alone. They said: Allah’s Messenger, not even you? Thereupon he said: Not even I, but that Allah should wrap me in His Mercy and Grace.

हम देखते हैं कि मुहम्मद साहब के हक़-बर-ज़बान (ज़बान पर सच) जारी था, लेकिन अफ़्सोस ये है कि ख़ुदा के फ़ज़्ल व रहमत में ढाँपे जाने का तरीक़ा या तो हज़रत को ख़ुद मालूम ना हुआ या मालूम था तो उम्दन-बदीं (जान-बूझ कर चालाकी से) ख़्याल कि मेरी फ़ज़ीलत में कुछ फ़र्क़ आएगा, तरीक़ा हुसूल-ए-फ़ज़्ल से चश्मपोशी (देखकर टाल जाना) की और ना अपने पैरौ (पीछे चलने वाले) को बतलाया। हालाँकि वो किताब जिसके हक़ में आपने ख़ूद गवाही दी और फ़रमाया :

وَقَفَّيْنَا عَلَىٰ آثَارِهِم بِعِيسَى ابْنِ مَرْيَمَ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ التَّوْرَاةِ وَآتَيْنَاهُ الْإِنجِيلَ فِيهِ هُدًى وَنُورٌ وَمُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ التَّوْرَاةِ وَهُدًى وَمَوْعِظَةً لِّلْمُتَّقِينَ۔

और उन पैग़म्बरों के बाद उन्ही के क़दमों पर हमने ईसा बिन मर्यम को भेजा जो अपने से पहले की किताब तौरात की तस्दीक़ करते थे और उनको इन्जील इनायत की, जिसमें हिदायत और नूर है और तौरात की जो इस से पहली किताब है तस्दीक़ करती है, और परहेज़गारों को राह बताती और नसीहत करती है। (सूरह माइदा आयत 46)

परहेज़गारों के लिए इंज़िल मन-क़ब्ल पहले से उतारी गई मौजूद थी, तो भी उस से बहिश्त में दाख़िल होने के लिए हिदायत और नूर व मवाअज़त (नसीहत) हासिल ना किया और अपने पैरौं (मानने वालों) को भी महरूम रखा। क्या उस वक़्त मुहम्मद साहब के कान तक यहयाह बिन ज़करीयाह की गवाही ना पहुंची थी जो, “यूं कह के पुकारा कि ये (ईसा) वही है जिस के हक़ में मैंने कहा कि मेरे पीछे आने वाला मुझसे मुक़द्दम (बरतर) हुआ क्योंकि वो मुझसे पहले था और उस की भर पूरी से हम सबने फ़ज़्ल पर फ़ज़्ल पाया, क्योंकि शरीअत मूसा की मार्फ़त दी गई पर फ़ज़्ल और रास्ती यसूअ मसीह से पहुंची। (यूहन्ना 1:15-17) काश कि मुहम्मद साहब उस फ़ज़्ल व रहमत से जिससे ढापने जाने की आरज़ू रखते थे, उन नजात बख़्श फ़ज़्ल की बातों को क़ुबूल करते और पैरौं (मानने वालों) को।

وَاعْلَمُوا أَنَّهُ لَنْ يَنْجُوَ أَحَدٌ مِنْکُمْ بِعَمَلِهِ

तुम में कोई भी अपने आमाल से नजात हासिल ना करेगा। कहकर बहालत शक व मायूसी ना छोड़ते।

मौलवी इस्माईल और शिर्क की ताअलीम

Maulvi Ishmael and Blasphemous Teaching

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One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan January 15, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 15 जनवरी 1891 ई॰

मौलवी इस्माईल साहब देहलवी अपनी किताब तक़वियत-उल-ईमान के सफ़ा 14 में सूरह निसा की आयत 116 :-

إنَّ اللَّهَ لَا يَغْفِرُ أَن يُشْرَكَ بِهِ وَيَغْفِرُ مَا دُونَ ذَٰلِكَ لِمَن يَشَاءُ وَمَن يُشْرِكْ بِاللَّهِ فَقَدْ ضَلَّ ضَلَالًا بَعِيدًا

“ख़ुदा उस के गुनाह को नहीं बख़्शेगा कि किसी को उस का शरीक बनाया जाये, और इस के सिवा (और गुनाह) जिसको चाहेगा बख़्श देगा। और जिसने ख़ुदा के साथ शरीक बनाया वो रस्ते से दूर जा पड़ा।”

इस आयत से मालूम हुआ कि मुशरिक ना बख़्शा जाएगा और शिर्क की तफ़्सील हाशिये पर यूं लिखी है, जैसे किसी को ख़ुदा कहना या उस की सिफ़त किसी में बतानी जैसे इल्म-ए-ग़ैब, मारना जिलाना और सिवाए उस के साबित करना जैसे हिंदू और पीर परस्त वग़ैरह करते हैं। बक़ौल मौलवी साहब मौसूफ़ मज़्कूर बातें मूजिब कुफ़्र (वाजिब बेदीनी) हैं। अब देखिए कि मुहम्मद साहब हज्र-ए-अस्वद मक्की में वो सिफ़त साबित करते हैं। जो मख़्सूस बज़ात ईलाही है यानी इल्म-ए-ग़ैब। चुनान्चे,

जामा तिर्मिज़ी, जिल्द अव्वल, हज का बयान, हदीस 995

حَدَّثَنَا قُتَيْبَةُ عَنْ جَرِيرٍ عَنْ ابْنِ خُثَيْمٍ عَنْ سَعِيدِ بْنِ جُبَيْرٍ عَنْ ابْنِ عَبَّاسٍ قَالَ قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فِي الْحَجَرِ وَاللَّهِ لَيَبْعَثَنَّهُ اللَّهُ يَوْمَ الْقِيَامَةِ لَهُ عَيْنَانِ يُبْصِرُ بِهِمَا وَلِسَانٌ يَنْطِقُ بِهِ يَشْهَدُ عَلَی مَنْ اسْتَلَمَهُ بِحَقٍّ قَالَ أَبُو عِيسَی هَذَا حَدِيثٌ حَسَنٌ۔

कतीबा जरीर इब्ने ख़सीम, सईद बिन जुबैर, हज़रत इब्ने अब्बास रज़ी अल्लाह-तआला अन्हुमा से रिवायत है कि रसूल-अल्लाह सल्लल्लाहो-अलैहि व आले-वसल्लम ने हज्र-ए-अस्वद के बारे में फ़रमाया अल्लाह की क़सम अल्लाह क़ियामत के दिन इस को इस हालत में उठाएगा कि इस की दो आँखें होंगी जिनसे देखेगा और ज़बान होगी जिससे बात करेगा, और जिसने उसे हक़ के साथ चूमा उस के मुताल्लिक़ गवाही देगा इमाम ईसा तिर्मिज़ी फ़रमाते हैं कि ये हदीस हसन है।

Sayyidina Ibn Abbas reported that Allah’s Messenger (SAW) said concerning the (Black) stone, “By Allah! Allah will raise it on the Day of Resurrection such that it will have two eyes with which it will see, and a tongue whereby it will speak to give testimony over those who made its istilam with truth, (meaning) touched it or kissed it truly”

अब ग़ौर करना चाहिए कि गुज़श्ता तेराह सौ बरस के अर्से में करोड़ों-करोड़ मुहम्मदियों ने जो मुख़्तलिफ़ मुल्क और अक़्वाम से हज को गए उस को चूमा होगा और उनमें बाज़ों ने सच्चे इरादे और बाज़ों ने मिस्ल ख़लीफ़ा उमर साहब ब-तक़्लीद व शक (दूसरों की नक़्ल) चूमा होगा पस उन सभों की आरिफ़-उल-क़लूबी (ख़ुदा शनासी) क़ियामत के दिन इस पत्थर में क्योंकर मुम्किन होगी और हर एक चूमने वाले के दिली-एतिक़ाद और बदएतिक़ादी जानने और गवाही देने के सिफ़त आलिम-उल-ग़ैबी जो सिर्फ ख़ुदा-ए-अज़ोजल की मख़सूसा सिफ़त है हज्र-उल-अस्वद को क्योंकर हासिल हो जाएगी?

فاعتبر و یااولی الالباب

ख़ुदावंद अपने लोगों को ऐसी ताअलीम से महफ़ूज़ रखे।

ऐ आदमी ! तेरे गुनाह माफ़ हुए

Men Your Sins Are Forgiven

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One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan May 16, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 16 अप्रैल 1891 ई॰

“ऐ आदमी ! तेरे गुनाह तुझे माफ़ हुए।” (लूक़ा 5:20) ये कौन है जिसके इस कलाम पर फ़क़ीह और फ़रीसी ख़्याल करने लगे कि, “ये कौन है जो कुफ़्र (बेदीनी के अल्फ़ाज़) बकता है?” ये वही नासरी है जिसकी शौहरत मोजिज़-नुमाई (मोअजिज़ा दिखाने) को सुनकर गलील और यहूदिया की हर बस्ती और यरूशलेम से ये अश्ख़ास उस की बाइक़तिदार (इख़्तियार रखने वाली) ताअलीम को सुनने के लिए आए थे, और इस वक़्त तक उस की एजाज़ी क़ुदरत (मोअजिज़ा की ताक़त) के इज़्हार के मुतवक़्क़े और मुंतज़िर ना थे कि यका-य़क (अचानक) इस मजमे में छत की तरफ़ से एक दुखी इन्सानियत को लटकाया गया जो फ़ालिज की बीमारी की बनिस्बत गुनाह की बीमारी से शिफ़ायाब होने की ज़्यादातर मुहताज थी। सबकी निगाह इस अजीब माजरे की तरफ़ लगी। “और ख़ुदावंद ने उनका ईमान देखकर उसे कहा कि, ऐ आदमी तेरे गुनाह माफ़ हुए।” ये आवाज़ तो आदमी के लिए जिसके रूह व जिस्म दोनों बीमार हैं किस क़द्र शीरीं और तसल्ली बख़्श मालूम होगी। लेकिन किसी दूसरे आदमी की तरफ़ से इस को सुनकर ज़रूर ये ख़्याल पैदा हो सकता कि ये कौन है जो कुफ़्र बकता है। बेशक उन के इस क़ौल में बड़ी सच्चाई है कि, “कौन गुनाहों को माफ़ कर सकता है मगर सिर्फ़ ख़ुदा।” आदमी के गुनाह माफ़ करना ख़ुदा ही का काम है और इस काम को वो उस इब्न-ए-आदम की मार्फ़त अंजाम देता है। जो मफ़लूज को ये फ़र्माकर कि, तेरे गुनाह माफ़ हुए हुक्म देता “उठ और अपनी चारपाई उठा के अपने घर जा” और वो रुहानी व जिस्मानी अमराज़ से शिफ़ायाब हो के उसे जिस पर पड़ा था उठा कर ख़ुदा की सताइश करता हुआ अपने घर चला गया और उस पर कुफ़्र बकने का इल्ज़ाम लगाने वाले मुतहय्यर व मुतअज्जिब रह गए और ख़ौफ़-ज़दा हो कर बोले कि आज हमने अजीब माजरा देखा कि एक इब्न-ए-आदम ना सिर्फ लोगों के जिस्मानी दुख-दर्दों से उन्हें शिफ़ाऐ बख़्शता, लेकिन रूहों का भी मसीह है और उस का ये फ़रमाना, “ऐ आदमी तेरे गुनाह माफ़ हुए” कुफ़्र बकना नहीं लेकिन उस का हक़ और मन्सब है और उसे ज़मीन पर गुनाह माफ़ करने का इख़्तियार हासिल है।

दुनिया का नूर

Light of the World

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One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan April 23, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 23 अप्रैल 1891 ई॰

यसूअ ने फिर उन से मुख़ातिब हो कर कहा “दुनिया का नूर मैं हूँ। जो मेरी पैरवी करेगा वो अंधेरे में ना चलेगा।” (यूहन्ना 8:12)

“दुनिया का नूर मैं हूँ।” ये दाअ्वा ऐसा भारी है कि जिसको बादियुन्नज़र (पहली नज़र) किसी इन्सान ख़ाकी बनयान (पोशाक) की ज़बान से सुनते ही ये ख़्याल पैदा हो सकता है कि मुद्दई दीवाना या फ़रेबी या फ़रेब ख़ूर्दा है। लेकिन जब हम उस इब्न-ए-आदम को जिसके मुँह में कभी छल-बल (धोका और शरारत) ना पाया गया और मुवाफ़िक़ व मुख़ालिफ़ (क़ुबूल करने और ना करने वाले) बिल-इत्तिफ़ाक़ जिसकी रास्त-गोई व रास्तबाज़ी के क़ाइल हैं, ये कहते हुए पाते कि “दुनिया का नूर मैं हूँ।” तो फ़ौरन ये अम्र दर्याफ़्त करने पर मुतवज्जोह हो जाते हैं कि जहान ने वाक़ई उस नूर से कुछ रोशनी हासिल की है या नहीं। अट्ठारह सौ बरस से ज़्यादा गुज़रे कि, उस नूर ने बैत-लहम मुल्क यहूदिया से तालए हो कर ना सिर्फ मुल्क इस्राईल को मुनव्वर किया, बल्कि यसअयाह की मार्फ़त उस ईलाही पेशीनगोई के मुताबिक़ कि, “वो फ़रमाता है कि ये तो कम है कि तू याक़ूब के फ़िर्क़ों के बरपा करने और इस्राईल के बचे हुओं को फिरा लाने के लिए मेरा बंदा हो, बल्कि मैंने तुझको ग़ैर-क़ौमों के लिए नूर बख़्शा कि तुझसे मेरी नजात ज़मीन के किनारों तक पहुंचे।” (यसअयाह 49:6) ज़मीन के किनारों तक उस की नूरानी शआएं परतवाफ़गन (रोशनी डालने वाला) हुईं, और होती जाती हैं। जो अहले बसीरत तवारीख़ व जुग़राफ़िया ममालिक यूरोप अमरीका और एशिया व अफ़्रीक़ा के हालात व कवाइफ़ से और तारीख़-ए-कलीसाए मसीही से वाक़िफ़ हैं वो जानते हैं कि इस हक़ीक़ी नूर से क्यूँ-कर वो ममालिक जहां-जहां उस की रोशनी पहुंची है मुनव्वर और रोशन हो गए हैं। मगर जब हम आजकल के इस्लामी अख़बारात में ऐसी ख़बरें पढ़तें हैं जिनका ना सर है ना दुम है, तो सिर्फ ये ख़्याल गुज़रता है कि या तो इन बातों के लिखने और शाएअ करने वाले मह्ज़ नावाक़िफ़ हैं या उम्दन जुम्ला अवाम को धोका देना और अपने तक़लीदी अक़ाइद मज़्हब की अज़मत का इन नाजायज़ व फ़ुज़ूल तरीक़ों से उन्हें हत्ता-उल-इम्कान मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) व गरवीदा बनाए रखना मक़्सूद है। चुनान्चे वज़ीर हिंद स्यालकोट मत्बूआ 5 अप्रैल सन रद्दान में बहवाला अख़्बार कारनामा एक आर्टीकल बउनवान “अमरीका में तजल्ली मेहर इस्लाम शाएअ हुआ है जिसमें राक़िम आर्टीकल ने यूं ख़ामाफ़रसाई (लिखा है) की है कि अमरीका जिसको नई दुनिया कहते हैं जिसका सुराग़ तुलूअ आफताब-ए-इस्लाम से आठ सौ बरस बाद मिला है अब तक आफताब-ए-इस्लाम का साया इस मुल्क पर नहीं पड़ा था। ज़ुल्मत ने ऐसा घेरा कि कोई नूर ईमान के जलवे से मुशर्रफ़ (शर्फ़ दिया गया) नहीं हुआ था। अब सुब्ह सादिक़ की रोशनी नुमायां होने लगी है। एक अमीर अमरीका ने (शहर का नाम नदारद) जिनका नाम आरूप है सिर्फ तज़्किरा दीन-ए-इस्लाम सुनकर और बाअज़ रसाइल इस्लामी देख के कलमा-ए-शहादत पढ़ा, इस्लाम क़ुबूल किया। और अहले-इस्लाम बंबई से दरख़्वास्त की है, कि एक इस्लामी-मिशन अमरीका को रवाना करें ताकि वो दावत व तल्क़ीन इस्लाम का सिलसिला जारी करे। नादानों को दीन-ए-हक़ से आगाही मिले। उनका क़ौल है कि अमरीका के दानिशमंद अपने मज़्हब से नफ़रत करने लगे हैं और उस की रोज़-अफ़्ज़ूँ बुराईयां कर रहे हैं जिसकी वजह से ये मज़्हब बिल्कुल कमज़ोर हो रहा है और यक़ीन किया जाता है कि थोड़े अर्से में बिल्कुल नाबूद हो जाएगा। अब अहले-इल्म दर्याफ़्त कर सकते हैं कि इस अरोप का बयान किस क़द्र मुख़ालिफ़ हक़ीक़त है। वो मसीही अमरीका जहां के सरगर्म और दीनदार मसीही बाशिंदों की तरफ़ से हज़ार-हा आलिम व फ़ाज़िल मिशनरी ममालिक मुख़्तलिफ़ा में इंजीली बशारत दे रहे हैं, और जो करोड़ों रुपये उन ग़ैर मुल्की मिशनों और कुतुब-ए-मुक़द्दसा व दीगर किताब हाय दीनी की इशाअत व क़ाइमी पर ख़र्च कर रहे हैं। और वो अमरीका जिसमें लाखों दीनदार मसीही उलमा सर गर्मी व कामयाबी के साथ दीन मतीन ईस्वी का वाअ्ज़ कर रहे हैं। और इल्म व हिक्मत दौलत व हुकूमत ग़र्ज़ दीनी व दुनियवी तमाम ख़ूबीयों में दुनिया की तमाम क़ौमों से बढ़े-चढ़े हुए हैं कौन नासमझ होगा जो ऐसा ख़्याल भी उन लोगों की निस्बत कर सके कि वो अपने मज़्हब से नफ़रत करते और उस की रोज़-अफ़्ज़ूँ बुराईयां कर रहे हैं कि जिसकी वजह से ये मज़्हब कमज़ोर हो रहा है। हाँ दीन-इस्लाम की निस्बत तो ये क़ौल सादिक़ ठहर सकता है कि जिन-जिन ममालिक में लोग उस के मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) हैं उन की हालत ऐसी है और ऐसे ही आसार नुमायां हैं कि वो थोड़े अर्से में बिल्कुल नाबूद होने वाला है। दूर क्यों जाएं हिन्दुस्तान ही को देखें कि इस्लामी हिलाल (इस्लाम पर्चम) ने सदीयों तक इस तारीक व बुत-परस्त मुल्क में मौजूद रह कर क्या रोशनी फैलाई और कहाँ तक अहले-हिंद को रोशन व मुनव्वर और मुहज़्ज़ब व ताअलीम याफ़्ता बनाया। अगर मसीह आफ़्ताब सदाक़त की रोशनी इस तेरह व तारीक (काला स्याह) मुल्क पर ना चमकती तो इस हालत का कौन क़ियास व अंदाज़ा कर सकता है जिस पर आज के दिन वो पहुंचा हुआ होता।

 

“कहीं ख़ाक डाले से छुपता है चांद”

आगे चल के राक़िम मज़्मून मुसलमानों को सलाह देते हैं कि ऐसे वक़्त में ज़रूर है कि वो मुसलमान जो अंग्रेज़ी में मकालमत (गुफ़्तगु) कर सकते हैं। “उनका मिशन अमरीका को रवाना किया जाये क्योंकि यहां के लोग मुंतज़िर बैठे हैं कि दीन-इस्लाम को क़ुबूल कर के नजात हासिल करें।” क्या ख़ूब ! बेल ना कूदा, कूदी कोन, ये तमाशा देखे कौन।” ऐ इस़्माईली भाईयों क्यों दीदा व दानिस्ता (जान-बूझकर) हक़ से चश्मपोशी (देखकर टाल जाना) करते और ऐसी बेसूद बातें लिख के अपनी ख़ामख़याली और कुतुब-ए-इल्हामिया से ना-वाक़िफ़ी या उम्दन (अंजान होना या जान-बूझ कर) मुख़ालिफ़त ज़ाहिर करते हो। सिर्फ उसी पर ईमान लाने से जिसने फ़रमाया, “दुनिया का नूर मैं हूँ।” और जिसके हक़ में लिखा गया कि, “मैंने तुझको ग़ैर-क़ौमों के लिए नूर बख़्शा कि तुझसे मेरी नजात ज़मीन के किनारों तक पहुंचे।” आप लोगों को भी फ़ज़्ल से नजात मुफ़्त (आमाल से नहीं) मिल सकती है क्योंकि “आस्मान के तले कोई दूसरा नाम आदमीयों को नहीं दिया गया जिससे वो नजात पाएं।” पस तौबा करो और मुतवज्जोह हो कि तुम्हारे गुनाह मिटाए जाएं और ख़ुदावंद के हुज़ूर से तुम्हारे लिए भी ताज़गी बख़्श अय्याम आएं।

तौरेत व क़ुरआन के सरीह मुख़ालिफ़ वाक़ियात

Contradictory Incidents of Torah and Quran

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एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan January 8, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 8 जनवरी 1891 ई॰

तफ़्सीर कादरी तर्जुमा तफ़्सीर हुसैनी में लिखा है कि, हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम के क़िस्से में और ऊरियाह की औरत के साथ आप के निकाह करने में बहुत इख़्तिलाफ़ है। बाअज़ मुफ़स्सिरों ने ये क़िस्सा इस तरह बयान किया है कि शराअ और अक़्ल इसे क़ुबूल करने से इन्कार करती है। जो कुछ सेहत के साथ मालूम हुआ है वो ये है, कि ऊरियाह ने एक औरत के साथ अपने निकाह का पयाम दिया और क़रीब था कि, उस का निकाह हो जाये। औरत के वलीयों (वारिसों) को उस के साथ कुछ ख़रख़शता (परेशानी, झगड़ा) पड़ा था, इसलिए निकाह ना होने दिया। हज़रत दाऊद ने अपने साथ निकाह का पयाम भेजा और हज़रत दाऊद की निनान्वें (99) बीवीयां थीं अताब-ईलाही दाऊद पर इसलिए हुआ कि ऊरियाह के पयाम देने के बाद हज़रत दाऊद ने पयाम दिया और उस से निकाह कर लिया। जिब्राईल और मीकाईल दो मुतख़ासिमीन (दो गिरोह) की सूरत पर अपने-अपने साथ फ़रिश्तों का एक-एक गिरोह बशक्ल-इन्सान ले के दाऊद के पास आए और बयान किया कि मेरे इस भाई के पास निनान्वें भेड़ें हैं और मेरी एक ही भेड़ है उसने ग़लबा कर के वो भी ले ली। दाऊद ने कहा कि अगर ये कैफ़ीयत वाक़ई है तो उसने ज़ुल्म किया। जब हज़रत दाऊद ने ये बात कही तो वो खड़े हुए और नज़र से ग़ायब हो गए पस हज़रत दाऊद सोच में पड़ गए और मग़फ़िरत मांगी। देखो तफ़्सीर سورہ صٓ स्वाद।

अब इस बयान का जिसको मुफ़स्सिर सेहत के साथ मालूम किया हुआ बताता है मुक़ाबला 2 समुएल 11,12 बाब से करें, तो मालूम हो जाएगा कि मुसन्निफ़ और मुफ़स्सिर क़ुरआन सही वाक़ियात अम्बिया-ए-साबक़ीन मालूम करने में किस क़द्र क़ासिर हैं।

और उस औरत से कहा

And He Said To Her

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One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan April 30, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 30 अप्रैल 1891 ई॰

और उस औरत से कहा, तेरे गुनाह माफ़ हुए। (लूक़ा 7:48)

नूर-अफ़्शां मतबूआ 16 अप्रैल के ऐडीटोरीयल कालम में नाज़रीन ने पढ़ा होगा कि ख़ुदावंद मसीह ने यही बात एक मफ़लूज आदमी के हक़ में ज़बान मुबारक से फ़रमाई थी, “तेरे गुनाह तुझे माफ़ हुए।” और वो शमाउन फ़रीसी के घर में उस ताइब व शिकस्ता-दिल (गुनाह से पलटने वाला टूटा हुआ दिल) औरत को भी, जो उस की ख़बर सुनकर वहां पहुंची और तौबा के आँसूओं से उस के पांव धोती और इज़्हार-ए-मोहब्बत के निशान में अपने सर के बालों से उन्हें पोंछती और चूमती थी। ख़ुदावंद ने फ़रमाया, “तेरे गुनाह माफ़ हुए।” इस ज़ियाफ़त के घर में एक ग़ैर ताइब (तौबा ना करने वाला) ख़ुश-दिल मर्द और एक ताइब व मग़्मूम (तौबा करने वाली ग़म-ज़दा) औरत का नक़्शा हमारे पेश-ए-नज़र है। और जब इन दोनों की दिली हालत की तस्वीर पर ग़ौर करते हैं कि बावजूद ये कि गुनाहों को माफ़ फ़रमाने वाला :-

इब्न-ए-आदम, रूबरू मौजूद और हर दो गुनाहगारों को बख़्शने के लिए तैयार है। एक बख़्शिश-ए-ईलाही से महरूम और दूसरी मग़फ़ूर व मसरूर (बख़्शिश और ख़ुशी) नज़र आती है। साहब-ए-ख़ाना अपने मुअज़्ज़िज़ मेहमान के नबी और आलिम-उल-ग़ैब (ग़ैब का इल्म रखने) वाला होने के इम्तिहान व आज़माईश की फ़िक्र और इस ग़म-ज़दा गुनाहगार औरत निस्बत हक़ारत व नफ़रत आमेज़ ख़यालात में मुसतग़र्क़ (गुम होना) हो के अपनी ख़तरनाक हालत में मुब्तिला है और ये शिकस्ता-दिल औरत नजातदिहंदा के मुँह से अपने हक़ में ये तसल्ली बख़्श व ख़ूरुमी बख़्श अल्फ़ाज़ सुनकर “तेरे गुनाह माफ़ हुए।” मुत्मइन व शाद-काम नज़र आती है। अक्सर लोगों का ऐसा हाल है कि वो अपनी गुनाह आलूदा हालत व तबीयत से मुतलक़ (बिल्कुल) बे-ख़बर और बेफ़िक्र रहते। और दूसरों को बड़ा गुनाहगार व तक़्सीर-वार (ख़तावार) जान कर बनज़र हक़ारत उन्हें देखते हैं, और नहीं जानते कि इस का अंजाम क्या होगा। दूसरों को गुनाहगार ख़्याल करना बहुत आसान, लेकिन अपने को ख़ताकार व बदकिर्दार समझना बड़ा मुश्किल है। इस क़िस्म के आदमीयों की मिसालें कलाम-उल्लाह में और भी पाई जाती हैं। चुनान्चे ख़ुदावंद मसीह ने एक मर्तबा उन लोगों के हक़ में जो अपने ऊपर भरोसा रखते थे, कि रास्तबाज़ हैं, लेकिन दूसरों को नाचीज़ जानते थे। ये तम्सील कही कि, “दो शख़्स हैकल में दुआ मांगने गए। एक फ़रीसी दूसरा महसूल लेने वाला (टैक्स लेने वाला) फ़रीसी (रस्म परस्त फ़िर्क़ा) अलग खड़ा हो के यूं दुआ मांगता था कि, ऐ ख़ुदा तेरा शुक्र करता हूँ कि, मैं औरों की मानिंद लुटेरा, ज़ालिम, ज़िनाकार, या जैसा ये महसूल लेने वाला है नहीं हूँ। मैं हफ़्ते में दो बार रोज़ा रखता। और मैं सारे माल की दहकी (दसवाँ हिस्सा) देता हूँ। पर उस महसूल लेने वाले ने दूर से खड़ा हो कर इतना भी ना चाहा कि आस्मान की तरफ़ आँख उठाए, बल्कि छाती-पीटता और कहता था कि, “ऐ ख़ुदा मुझ गुनाहगार पर रहम कर।” मैं तुमसे सच कहता हूँ कि ये शख़्स दूसरे से रास्तबाज़ ठहर के अपने घर गया। क्योंकि जो अपने आप को बड़ा ठहराता है छोटा किया जाएगा। और जो अपने तईं छोटा ठहराता है बड़ा किया जाएगा। यक़ीनन वो लोग जो फ़रिसियाना तबीयत रखते हैं बड़ी ख़तरनाक हालत में हैं। पर वो जो अपने को गुनाहगार जान कर माफ़ी के लिए ख़ुदावंद मसीह के क़दमबोस (क़दम चूमना) होते, और ताइब व मग़्मूम हैं नजात के वारिस होंगे।

क्योंकि तेरी नस्ल इज़्हाक़ से कहलाएगी

Your Descendants Will Be Called Isaac

Genesis 21:12

क्योंकि तेरी नस्ल इज़्हाक़ से कहलाएगी

पैदायश 21 बाब 12 आयत

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 1, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 1 जनवरी 1891 ई॰

मुस्लिम भाई साहिबान मसीहीयों के सामने दीनी गुफ़्तगु में इब्राहिम के बेटे इस्माईल की बड़ी क़द्रो-मंजिलत बयान किया करते हैं। बल्कि इस बात पर निहायत फ़ख़्र करते हैं कि इस्माईल के ख़ानदान से नबी अरब पैदा हुए और कि ख़ुदा ने उनको वो इज़्ज़त और मर्तबा इनायत फ़रमाया है कि जो किसी दूसरे नबी को हासिल नहीं हुआ। और ये कि मुहर-ए-नबूव्वत उन्हीं पर ख़त्म हुई वग़ैरह।

इस फ़ख़्र की दलील अगर इन से पूछे तो ये बताते हैं कि तौरेत में ख़ुदावंद तआला ने ख़ुद इस्माईल के हक़ में फ़रमाया, कि मैं इस को बरकत दूँगा। और इस को बरूमंद करूँगा। और इस को बहुत बढ़ाऊँगा और इस से बारह सरदार पैदा होंगे।

अगर तौरेत में इस्माईल की क़द्र व मंज़िलत लिखी है, तो मैं भी तौरेत ही से उस की बाबत थोड़ी सी अर्ज़ करता हूँ।

 

मैं मानता हूँ कि ख़ुदा ने इस्माईल को बरकत दी। और उस को कहा, कि तू बरूमंद होगा वग़ैरह। मगर मालूम हो कि ये बरकत कोई ख़ास बरकत ना थी और ना ही इस बरकत और बरूमंदी से किसी नबी के ज़ाहिर होने की ख़बर अयाँ (ज़ाहिर) होती है। और ये कोई कुल्लिया क़ायदा भी नहीं है, कि जिसको ख़ुदा बरकत दे तो इस से ये ही मफ़्हूम हो कि इस बरकत याफ्ताह से ज़रूर कोई नबी ही पैदा होगा। हाँ अलबत्ता बारह (12) सरदार पैदा होने का ज़िक्र तो ज़रूर आया है मगर ये बारह सरदार एक नबी अरब नहीं बन सकते। लिहाज़ा मुस्लिम भाईयों की ग़लती है, जो कहते हैं कि इस्माईल की बरकत का नतिजा मुहम्मद साहब नबी अरब हैं।

और फिर इस बात पर भी ग़ौर करना चाहीए कि इस्माईल वाअदे का फ़र्ज़न्द ना था। जैसा कि मुहम्मदी लोग ख़्याल करते हैं। जब ख़ुदावंद ने इब्राहिम से गुफ़्तगु की तो इब्राहिम ने ख़ुदा से अर्ज़ की, कि ख़ुदावंद ख़ुदा तू मुझको क्या देगा? मैं तो बेऔलाद जाता हूँ और मेरे घर का मुख़्तार दमिश्की-अल-अज़र है। और फिर इब्राहिम ने कहा, कि देख तूने मुझे फ़र्ज़न्द ना दिया। और देख मेरा ख़ानाज़ाद (मालिक के घर में पैदा होने वाला ग़ुलाम) मेरा वारिस होगा। तब ख़ुदावंद का कलाम उस पर उतरा और उसने कहा कि ये तेरा वारिस नहीं होने का, बल्कि जो तेरी सल्ब (नस्ल) से पैदा होगा वही तेरा वारिस होगा। पैदाइश 15:2-4 अब इन आयात मज़्कूर बाला से ये मालूम होता है, कि खुदा ने इब्राहिम से एक ऐसे फ़र्ज़न्द का वाअदा किया जो इस का वारिस हो अगर फ़िल-हक़ीक़त ये वाअदा इस्माईल के लिए किया गया था, तो वाजिब था कि वो इब्राहिम की मीरास से ख़ारिज ना होता, बल्कि मीरास में शरीक और इज़्हाक़ के साथ हिस्सेदार होता। मगर बाइबल में तो ऐसा हरगिज़ नहीं। बल्कि तोरैत में यूं लिखा है कि जब इज़्हाक़ पैदा हुआ, तो इस्माईल उस से ठट्ठे करने लगा। तब सारा ने इब्राहिम से कहा, कि इस लौंडी और इस के बेटे को निकाल दे क्योंकि इस लौंडी का बेटा मेरे बेटे इज़्हाक़ के साथ वारिस ना होगा। पैदाइश 21:10 लेकिन सारा की इस बात से इब्राहिम को रंज हुआ। पर ख़ुदा ने इब्राहिम को कहा, कि वो बात इस लड़के और तेरी लौंडी की बाबत तेरी नज़र में बुरी ना मालूम हो। हर एक बात के हक़ में जो सारा ने तुझे कहा, उस की आवाज़ पर कान रख क्योंकि तेरी नस्ल इज़्हाक़ से कहलाएगी। पैदाइश 21:12 तब इब्राहिम ने अपनी ऐन-ए-हयात में रोटी और पानी की एक मश्क देकर हाजिरा और उस के बेटे इस्माईल साहब को रुख़्सत किया। पैदाइश 21:14 इस तरह से इस्माईल विरासत-ए-इब्राहीम से से ख़ारिज हुआ। अगर किसी मुस्लिम भाई को मालूम हो कि सिवाए उस रोटी और एक मश्क पानी के कुछ और भी इस्माईल को मीरास में दिया गया था, तो मेहरबानी फ़र्मा कर बता दें।

और फिर ये कि अगर ख़ुदा की बरकत और निगाह इस्माईल पर हक़ीक़ी तौर पर होती तो सिलसिला बुज़ुर्गों से क़तअ़ ना किया जाता। बाइबल में कई जगह पर फ़िक़्रह आया है, कि मैं तेरे बाप-दादों इब्राहिम का ख़ुदा इज़्हाक़ का ख़ुदा और याक़ूब का ख़ुदा हूँ। ख़ुरूज 3:6 अगर इस बरकत के बाइस इस्माईल कुछ ख़ुसूसीयत रखता था, तो क्यों ख़ुदा के कलाम में ऐसा ना लिखा, कि मैं इब्राहिम का ख़ुदा, इस्माईल का ख़ुदा, इज़्हाक़ का ख़ुदा और याक़ूब का ख़ुदा हूँ?

और फिर ये कि अगर वो मीरास और वाअदे में शरीक और इब्राहिम की औलाद था तो ज़रूर है कि बनी-इस्राईल के दुखों में भी शरीक होगा। क्योंकि ख़ुदा ने इब्राहिम को फ़रमाया, कि यक़ीन जान कि तेरी औलाद एक मुल्क में जो उनका नहीं, परदेसी होगी और वहां के लोगों की ग़ुलाम बनेगी। और वो चार सौ (400) बरस तक उन्हें दुख देंगे। (पैदाइश 15:13)

पस मुस्लिम भाई मेहरबानी करके फ़रमाएं, कि अगर इस्माईल इब्राहिम की औलाद हक़ीक़ी और मीरास में शामिल था, तो बनी-इस्राईल के मुल्क मिस्र की गु़लामी में कोई बनी इस्माईल भी उनके साथ मौजूद था, अगर था तो कौन?

अल-ग़र्ज़ ऐ मुस्लिम भाईयों ! इस्माईल अज़-रूए-बाइबल ना तो वाअदे और अहद का फ़र्ज़न्द था, और ना वो इब्राहिम का हक़ीक़ी वारिस था। बल्कि उन बरकतों और नेअमतों का मालिक और वारिस हज़रत इज़्हाक़ ही था और इज़्हाक़ ही के घराने से हमारा नजातदिहंदा ख़ुदावंद मसीह जिस्म की रु से कुँवारी मर्यम से मुजस्सम हुआ, ताकि हमको हमारे गुनाह से पाक कर के ख़ुदा के हुज़ूर रास्तबाज़ ठहराए। उस की नजात किसी ख़ास क़ौम या फ़िर्क़े के वास्ते नहीं, बल्कि कुल बनी-आदम के वास्ते है। चुनान्चे लिखा है, और देखो कि ख़ुदावंद का एक फ़रिश्ता उन पर ज़ाहिर हुआ, और ख़ुदावंद का नूर उनके चौगिर्द चमका और वो निहायत डर गए। तब फ़रिश्ते ने उन्हें कहा मत डरो, क्योंकि देखो मैं तुम्हें ख़ुशी की ख़बर देता हूँ, जो सब लोगों के वास्ते होगी, कि दाऊद के शहर में आज तुम्हारे लिए एक नजात देने वाला पैदा हुआ, वो मसीह खुदावंद है। (इन्जील लूक़ा 2:9 से 12)

उस के आने का वाअ़दा कहाँ?

WHERE IS THE PROMISE OF HIS COMING?

उस के आने का वाअ़दा कहाँ?

2-Peter 3:4

By

Jaswant Singh

जसवंत सिंह द

Published in Nur-i-Afshan Jan 1, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 1 जनवरी 1891 ई॰
(2 पतरस 3:4)

नाजरीन कलीसिया ने चार इतवार मुक़र्रर किए हैं ताकि मसीह की दूसरी आमद की यादगारी व तैयारी हो। सबब इस का ये है कि इन्सान ग़ाफ़िल रहते और सो जाते हैं। और चार इतवार चार घंटों के मुवाफ़िक़ हैं कि अगर हम पहले दूसरे व तीसरे घंटे सो रहे हैं तो चौथे घंटे में जाग जाएं। यहां पतरस रसूल मसीह की दूसरी आमद का ताकीदन ज़िक्र करता है, चुनान्चे पहले बाब की 16 वीं आयत में यूं फ़रमाता है कि, “क्योंकि हमने ना फ़लसूफ़ी की कहानीयों का पीछा कर के, बल्कि उस की बुजु़र्गी को अपनी आँखों से देखने वाले होके अपने ख़ुदावंद यसूअ मसीह की क़ुदरत और आने की ख़बर तुम्हें दी।” यानी उस के दुबारा आने की ख़बर तुमको दी ना सिर्फ फ़लसूफ़ी से पुर चशमदीद गवाह हो के। तो दूसरे ख़त का मज़्मून ख़ुदावंद की दूसरी आमद की ख़बर देता है। रसूल फ़रमाता है कि, इस मुक़द्दस पहाड़ पर उस की तब्दीली सूरत देखकर हमारे दिल में एक नया यक़ीन पैदा हुआ यानी जब उस की पहली हुज़ूरी को देखा, तो उस की दूसरी हुज़ूरी का ख़्याल हमारे दिल में आया जितनी परेशानी और शक व शुब्हा हमारे दिलों में पहले थे, अब उतने नहीं। क्योंकि अब हम उस के चश्मदीद गवाह हो कर कहते हैं कि वो ज़रूर फिर आएगा।

 

इसी तीसरे बाब में वो ठोकर खिलाने वाले ठट्ठे बाज़ों का ज़िक्र करता है कि आख़िरी ज़माने में ऐसे लोग उठेंगे और ये कहेंगे कि, “उस के आने का वाअदा कहाँ?” लेकिन वो ये भी कहेंगे, कि हम तअ़नाज़नी से एतराज़ नहीं करते पर नेचर हमको यही सिखाती है। देखो सूरज का तुलूअ भी होता है और ग़ुरूब भी और, और दुनिया में बहुत तग़य्युरात व तब्दीलात (तब्दीलीयां) वग़ैरह होते हैं। तो हम किस तरह यक़ींन करें? क्योंकि ये सब बातें और चीज़ें गुज़र जाती और हलाक होती हैं। रसूल फ़रमाता कि “ख़ुदावंद अपने वाअदों की बाबत सुस्ती नहीं करता, जैसा कि बाअज़ सुस्ती समझते हैं। पर इसलिए हमारी बाबत सब्र करता कि किसी की हलाकत नहीं चाहता, बल्कि चाहता है कि सब तौबा करें।” तो ठट्ठे बाज़ लोग सवाल करते हैं कि इस बात का क्या सबूत हो सकता है? अफ़्सोस बाअज़ मसीही भी उन्हीं के शामिल-ए-हाल हो कर कहते हैं, कि उस के आने का वाअदा कहाँ? तो इस का जवाब रसूल पहले बाब में देता है, वहां नबियों और रसूलों की गवाही का ज़िक्र कर के कहता है कि ये क़वी दलील है। नबियों व रसूलों ने ना सिर्फ उस की आमद का ज़िक्र किया, बल्कि बहुत से तग़य्युरात व तब्दिलात (तब्दीलीयों) का ज़िक्र किया, मसलन बाबुल वग़ैरह का बर्बाद होना और दुनिया की बहुत बादशाहतें और सल्तनतों के तग़य्युर व तब्दील होने का ज़िक्र कर के कहता है, कि ये बड़ी क़वी दलील है तो जब उनकी बाबत ये पेशीनगोई पूरी हो गई, तो जब वो उस की दूसरी आमद का ज़िक्र करता है तो वो भी ज़रूर पूरी होगी। जब पहली आमद की बाबत पेशीनगोई हुई तो पूरी हुई वैसे ही दूसरी आमद की बाबत जो नबुव्वत है वो भी ज़रूर बिलज़रूर पूरी होगी। अलबत्ता उसने अपनी उंगली से तो इशारा कर के नहीं बतलाया कि वो है, पर उन नबुव्वतों की तरफ़ इशारा कर के कहा, कि देखो यरूशलेम वग़ैरह बर्बाद हो गई तो अब हमने उनसे भी यक़ीन किया कि दूसरी आमद के वक़्त भी वैसा ही होगा कि उसी में आस्मान सन्नाटे के साथ जाते रहेंगे और अज्राम-ए-फ़लक जल कर गुदाज़ (पिघल) हो जाऐंगे। और ज़मीन इन कारीगिरियों समेत जो इस में है भस्म हो गई। देखो 2 पतरस 3:10 को बमुक़ाबला मत्ती 24:29 से 32 तक लेकिन ठट्ठे बाज़ों ने कहा कि अलबत्ता वो कुछ दलील है पर थोड़ा सबूत है, इसलिए हम फिर तुमसे पूछते हैं कि उस के आने वाअदा कहाँ? तब रसूल फ़रमाता है कि तुम तो आलिम व फ़ाज़िल व बड़ी हिक्मत वाले हो और दुनिया में बहुत चीज़ों को देखते हो और मालूम करते हो कि वो सब एक ही हालत में नहीं रहतीं बल्कि मुबद्दल (बदली) हो जाती हैं। जैसे हज़रत नूह के वक़्त तूफ़ान से बड़े-बड़े पहाड़ ग़र्क़ाब (ग़र्क़, व बर्बाद) हो गए और सब हलाक हो गए, तो क्या ये तब्दीली ना थी? अलबत्ता थी। और फिर पत्थरों और चट्टानों को देख के और ग़ौर कर के बख़ूबी मालूम होता है कि कैसी-कैसी तब्दीलीयां वक़ूअ में आईं और ये सब चार अनासिर बदल जाएँगी। दुनिया की ये हालत देखकर तो बख़ूबी मालूम होता है कि ये तब्दीलीयां ज़हूर में आईं, तो फिर क्यों ये सब कुछ ना होगा ज़रूर होगा। तुम अपने उलूम व फ़नून वग़ैरह को तो देखो जब तुम इतने इल्म जानते हो तो फिर क्यों ग़ाफ़िल रहते हो? ना सिर्फ चट्टानों वग़ैरह में तब्दीलीयां हैं पर ज़मीन को खोद के देखो कि कैसी-कैसी तब्दीलीयां हुई हैं। ये रसूल ने दूसरा जवाब उनको दिया था, पर जब वो फिर कहते और सवाल करते कि अलबत्ता ये तो सबूत क़वी है, पर फिर भी हम पूछते हैं कि उस के आने का वाअदा कहाँ? तब रसूल आख़िरी जवाब देता है, कि अफ़्सोस कि तुम अहले इल्म हो और ये नहीं समझते तो अब चले जाओ क्योंकि जो कुछ हमसे हो सका दीन व दुनिया और इल्म व अक़्ल से तुमको जवाब दिया और तुम फिर भी कुछ नहीं समझते और नूह और लूत के ज़माने के लोगों के साथी हो, तो जाओ अपनी हलाकत आप देखो अगर तुम यक़ीन नहीं करते कि यूँही है तो अपने गुनाहों में आप ही मरोगे।

पस अब रसूल इन अहले इल्म और ठट्ठे बाज़ों की तरफ़ से मुँह फेर कर कलीसिया की तरफ़ मुख़ातब हो कर फ़रमाता है, कि कलाम तो तुम्हारे पास है और नबुव्वतें भी तो तुम्हारे लिए हैं और ख़ुदावंद की हुज़ूरी अब दरवाज़े पर है, तो अब तुम्हारा क्या हाल है? रसूल 1:19 आयत में फ़रमाता है कि “हमारा भी नबियों का कलाम है जो ज़्यादा क़दीम है” यानी बनिस्बत इस तमाशे के जो इस पहाड़ पर था, इस की निस्बत ज़्यादा नबियों का कलाम क़दीम है। इस की चमक और झलक नज़र आती है। वो एक चिराग़ है जो अँधेरी जगह में जब तक पौ ना फटे और सुबह का तारा तुम्हारे दिलों में ज़ाहिर ना होवे रोशनी बख़्शता है। तुमने तो नबुव्वतों से भी ज़्यादा दलीलें हासिल की हैं पर एक और भी दलील है चिराग़ चमकता है और ना सिर्फ ये पर सुबह का सितारा भी है, तो ये सुबह का सितारा कहाँ और कौन है? ये तो किसी दूसरे आस्मान पर नहीं पर हमारे पास और दिल में चमकता है। हाँ ख़ुदावंद आप मुकाशफ़ा की किताब में फ़रमाता है, कि सुबह का सितारा मैं हूँ। तो रसूल भी फ़रमाता है कि सुबह का सितारा तुम्हारे दिल में चमकेगा। रसूल अपने लोगों के दिलों को तैयार करता है, कि ग़ाफ़िल मत हो और रोओ मत क्योंकि ना उनके चिरागदान में तेल है और ना उनके बर्तनों में। तो वो सुबह के सितारे को उनके सामने पेश करता है यानी मसीह की दूसरी आमद की ख़बर देता है, कि जब सुबह का सितारा चमकेगा तो ज़रूर सूरज तुलूअ होगा। क्योंकि ये हो नहीं सकता कि सितारा चमके और सूरज ना चमके तो वो ज़रूर बिलज़रूर चमकेगा। रसूल उनको कहता है कि नबुव्वतें यानी चिराग़ तो तुम्हारे पास बहुत हैं, जिनसे रोशनी पहुँचती है पर एक सुबह का सितारा भी है जब वो आएगा तो दिन चढ़ जाएगा। और लड़ाई तमाम होगी तब वो जो वफ़ादार रहेगा, ख़ुदावंद का वाअदा उस ख़ादिम के लिए ये है कि सुबह का सितारा तेरे दिल में दूंगा क्योंकि वो जानता है कि मैं दुख व मुसीबत और दुश्मनों के घेरे में हूँ। तो जवाब है कि सब्र कर और इस्तिराहत (आराम) में रह अब थोड़ी देर लड़ाई है तब तमाम होगी। डर मत मुझ पर भरोसा रख और मेरे कलाम की नबुव्वत की बातों को पढ़ और देख और समझ और याद कर आख़िर को थोड़े दिनों के बाद सबसे भारी सबूत तुम्हारे वास्ते होगा यानी बड़ी तसल्ली तुमको होगी। यानी जब वो ख़ुदावंद आएगा वो आप तुमको तमाम मुसीबतों से रिहाई बख़्शेगा।

पस ऐ नाज़रीन हमको भी चाहीए कि हम अपने ख़ुदावंद की आमद के लिए ख़ूब इंतिज़ारी में रहें क्योंकि जब वो सुबह का सितारा चमकेगा तो वो सदाक़त आफ़्ताब यानी मसीह चढ़ेगा, तब हम सब के सब उस की रोशनी से रोशन होंगे। आमीन।

अस्ल ख़ुशी क्या है?

WHAT IS REAL JOY?

अस्ल ख़ुशी क्या है?

By

Nardwalia

नारदवालिया

Published in Nur-i-Afshan March 5, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 5 मार्च 1891 ई॰

अगर बनज़र ग़ौर देखा जाये तो ज़ाहिरी ख़ुशीयां जिनकी तरफ़ हर एक इन्सान रग़बत और ख़्वाहिश से देखता है और उस के हासिल होने पर नाज़ाँ व फ़रहां होता है। दौलत, इज़्ज़त, औलाद, उम्र दराज़ी और तंदरुस्ती ठीक है, इनके मिलने से दुनियावी आराम मिल सकते हैं। दौलत जिस इन्सान के पास होती है वो उम्दा मकान रिहाइश के वास्ते बनाता है, उम्दा पोशाक पहनता और नफ़ीस ग़िज़ा खाता है। हर तरह चैन से ज़िंदगी बसर करता है। जिस आदमी की इज़्ज़त बड़ी होती है, दूसरे लोग उस की ख़िदमत में दस्त-बस्त हाज़िर होते हैं। वो अपने आपको दूसरे इन्सानों से बेहतर और ख़ुशनसीब समझता है। बाअज़ इन्सान दुनियावी इज़्ज़त और दौलत के पीछे इस क़द्र हाथ धो कर पड़ जाते हैं कि उनको सिवाए अपना मतलब हासिल करने के और किसी तरह से चैन नहीं आता। जब उस को हासिल कर लेते हैं तो बस यही समझते हैं कि ख़ुदा की ख़ुदाई उनको मिल गई। इस तरह औलाद के होने पर भी हर एक इन्सान को बड़ी ख़ुशी हासिल होती है। ये तो हमारे मुल्क की आम मिसाल है, कि दुनिया में औलाद जैसा कोई फल मीठा नहीं। गोया दुनिया की सब ख़ुशीयों और आराम से औलाद के होने की ख़ुशी आला ख़्याल की जाती है। जिस घर में औलाद ना हो वो दुनिया में बेफ़ाइदा है। उम्र दराज़ी हर एक इन्सान दिल से चाहता है, कोई ऐसा इन्सान नहीं जो अपनी ख़ुशी से मरना चाहता हो। हमारे मुल्क का आम रिवाज है कि अगर कोई बुज़ुर्ग छोटे को इस्में (दुआ) देता है, तो वो यही कहता है कि ख़ुदा तेरी उम्र दराज़ (लम्बी) करे। बाक़ी रही तंदरुस्ती इस की बाबत तो ना सिर्फ यही कहना काफ़ी होता है कि इस आला नेअमत और ख़ुशी के क़ायम रखने के वास्ते फ़य्याज़ बादशाहों या ख़ास दौलतमंदों ने शिफ़ा-ख़ाने खोल रखे हैं और हर एक इन्सान फ़ी-ज़माना बहुत चीज़ों के खाने-पीने से इस की ख़ातिर परहेज़ रखता है, कि ये नेअमत या सोने की चिड़िया थोड़ी सी बद-परहेज़ी से हाथ से ना उड़ जाये। अंग्रेज़ी की एक मिसाल का तर्जुमा ये है कि तंदरुस्ती के मुक़ाबले में दुनिया की कुल नेअमतें हीच व बेक़द्र (बेकार) हैं।

 

अगर कोई दिल की अंदरूनी आँखों के साथ ग़ौर से देखे तो ये चीज़ें या ख़ुशीयां दर-हक़ीक़त कुछ *में नहीं। क्योंकि इनमें से कोई भी दाइमी (हमेशा रहने वाली) नहीं। अगरचे दुनियावी ख़्याल से ये ख़ुशीयां, ख़ुशीयां तो हैं। पर अगर इन पर फ़र्दन-फ़र्दन (एक-एक करके) ग़ौर करें तो जिस इन्सान को ये तमाम ख़ुशीयां भी हासिल हों तो भी अस्ल ख़ुशी हासिल नहीं होती। मसलन दौलत से इस क़द्र आराम हासिल नहीं पर उस के साथ हज़ार तरह की फ़िक्र और बेचैनीयां हैं, यानी मुम्किन हो तो इस के तुफ़ैल ये ख़िताब या वो दर्जा हासिल करे। ख़्वाह दुनिया की कुल दौलत मौजूद हो तब भी इन्सान ख़ुश-नसीब नहीं है। फ़र्ज़ करो दौलत है और लालच भी बहुत नहीं। मगर इस के साथ औलाद नहीं तो हमेशा रंज व ग़म है। इस तरह से इज़्ज़त के ताल्लुक़ से कई एक दिक्क़तें हैं, अगर इस के साथ औलाद नहीं तो हमेशा रंज व ग़म है। अगर इज़्ज़त के हुसूल होने पर इन्सान आला मेअराज पर पहुंच जाये और औलाद ना हो तो उस के दिल में हमेशा रंज रहता है। अगर औलाद हो बद-चलन हो, औलाद होने पर खाने-पीने की कोई चीज़ ना हो, तो वो औलाद भी वबाल जान हो जाती है, और इस से कुछ ख़ुशी नहीं होती। उम्र दराज़ी को हर एक इन्सान दिल से चाहता है और मरने से हमेशा डरता है। सब साहिबों को मालूम है कि सौ साला (100) बुज़ुर्ग किस दर्जे का ख़ुश होता है। लेकिन उम्र दराज़ी बद-बख़्ती से तब्दील हो जाती है, हज़ार तरह की बीमारीयां उस बेचारे के गिर्द जमा हो जाती हैं। वो औलाद जिसको उसने बड़ी तक्लीफ़ और जाँ-फ़िशानी से परवरिश किया था उस की ख़िदमत करना तो दरकिनार बेचारे को नज़र हक़ारत से देखती है। अगरचे बाअज़ लोग अपने बुज़ुर्गों की बड़ी ख़िदमत करते हैं, पर उम्र दराज़ी के लवाज़मा यानी खांसी और बलग़म को उस की ख़िदमत करने से किसी तरह से दूर नहीं कर सकते। अब अगर कोई कहे कि भाई बुढ़ापे में तो बहुत तकालीफ़ हैं, लेकिन जवानी या लड़कपन बड़े उम्दा वक़्त हैं साहब सन उन वक़्तों में भी कोई ख़ुशी नहीं है। इन्सान किसी हालत में भी चैन या ख़ुशी हासिल नहीं करता। बचपन की उम्र को दूसरों को भली मालूम होती है, क्योंकि बच्चे के दिल का हाल किसी पर ज़ाहिर नहीं हो सकता। इस की बड़ी भारी अलामत बार-बार रोना है। क्या रोना किसी शख़्स को बग़ैर तक्लीफ़ या दुख के आ सकता है? इस का जवाब यही होगा कि बिल्कुल नहीं। बच्चे का मिज़ाज बड़ा चंचल होता है और ज़बरदस्ती तक्लीफ़ भी गवारा नहीं कर सकता। बड़ा हुआ माँ बाप का ख़ौफ़ उस्ताद का ज़ुल्म व तशद्दुद अगरचे उस की बेहतरी के वास्ते होता है पर इस बेचारे के दिल से तो पूछें। जवानी का वक़्त आया हर एक क़िस्म की उमंगें कई एक ख्वाहिशें पूरी ना हुईं हर तरह से दिल को बेक़रारी लगी रहती है। हर एक शख़्स इस बात को तस्लीम कर लेता है कि दुनिया में किसी की कुल ख़्वाहिशें पूरी नहीं हो सकतीं। फिर ख़्याल मआश (रोज़गार) या और किसी क़िस्म की फ़िक्र उस के दिल को आराम नहीं लेने देती। गोया ज़िंदगी का कोई हिस्सा बे-नुक्स नहीं अब अगर दौलतमंद भी हो, इज़्ज़त भी सब तरह की बनी हो, औलाद भी हो, और फ़र्ज़ किया कि नेक-चलन औलाद हो तो भी दिल को चैन ना आएगा।

अब सवाल ये है कि इन्सान की ख़ुशी को मुकम्मल करने के वास्ते किस चीज़ की और ज़रूरत है? भाईयों मैं आपके जवाब का मुंतज़िर नहीं रहूँगा, क्योंकि इस का जवाब देना मेरे ही ज़िम्में लगाया गया है वो सब्र है, जो इन्सानी ख़ुशी को पूरा कर सकता है। इस दरख़्त का फल गो कड़वा मालूम देता है, लेकिन इस का असर मीठा है। जब इन्सान के दिल में सब्र होता है तो इस्तिक़लाल (साबित-क़दमी) पहले ही से आ हाज़िर होता है। अगर आदमी कंगाल हो, बेऔलाद हो, कोई उस की इज़्ज़त ना करता हो, बीमार भी हो, पर जब उस के दिल में सब्र है तो वो तक्लीफ़ के बग़ैर सब कुछ बर्दाश्त करेगा। इस के नताइज सब पर रोशन हैं अगर आदमी सब्र से ख़ुदा की इबादत करे और अपने ऊपर तकालीफ़ उठाए तो उस को बड़ा दर्जा नसीब होता है। अगर वो इस्तिक़लाल से कोई दुनियावी काम शुरू करे तो ज़रूर उस में कामयाब होगा। अहले इंग्लिस्तान जब इस मुल्क में आए तो मामूली सौदागरों की एक जमाअत थी। उन्होंने और इस्तक़लाल (साबित-क़दमी) से काम शुरू किया। शाहाँ मुग़्लिया के ज़ुल्म व सितम उठाए अगर वो इन तक़्लीफों से डर जाते और अपने मुल्क जहां उनको हर तरह के आराम व आसाइश मुहय्या थे, चले जाते और इस्तक़लाल (साबित-क़दमी) को हाथ से दे देते तो आज के दिन मुल्क का बादशाह कौन होता। अगर मसीह की मौत के बाद उस के बारह शागिर्दों की तकालीफ़ और दुख ना उठाते और हज़ारों तरह के मुख़्तलिफ़ दुःख (सताव) उठाकर शहीद (क़ुर्बान) ना होते तो आज इस रीडिंग रोम का वजूद जो सब्र का फल है, हम इतने दूर दराज़ फ़ासिले पर ना देखते और फ़ायदा ना उठाते। अब रही ये बात कि इन्सान किस तरह से साफ़ है, मेरी मर्ज़ी तो ज़रूर है कि इस पर कुछ बयान करूँ। लेकिन इस मज़्मून ने इस क़द्र तवालत पकड़ी है कि और बयान करना अपने वक़्त से ज़्यादा काम लेना है।

क़ुरआन कि बाबत एक आलिम अरब की राय

The Opinion of an Arab Scholar about the Quran

क़ुरआन कि बाबत एक आलिम अरब की राय

By

Baajwa

बाजवा

Published in Nur-i-Afshan Feb 19, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 19 फरवरी 1891 ई॰

ख़लीफ़ा मामून के अहद में जो जवाब अब्दुल्लाह वल्द इस्माईल हाश्मी को अब्दुल मसीह वल्द इस्हाक़ किन्दी ने दिया, उस में वो लिखता है कि, मसीही राहिबों में (राहिबान के तरीक़े का यहां बयान कुर्बा ज़रूरी नहीं) सर जेविश नामी एक शख़्स था, जिस से कोई ना-मुलाएम (सख़्त) हरकत सरज़द हुई जिसके सबब मसीही जमाअत ने उस को ख़ारिज कर दिया और उस से राह व रस्म तर्क कर दी (जैसा कि हमेशा से उन लोगों का दस्तूर है) इस से सर जेविश निहायत नादिम हुआ और शहर थामा को चला गया, यहां तक कि मक्का की सर-ज़मीन में पहुंचा। उस वक़्त वहां दो क़िस्म के मज़्हब राइज थे (यहूदीयत परस्त) ये शख़्स हमेशा मुहम्मद साहब से मिलता रहा और उस का दोस्त बन गया। यहां तक कि उस को अपनी राइयों के साथ मिला लिया और अपना नाम उन के सामने नस्तूरियस (इस तरीक़े का बयान करना यहां ज़रूर नहीं) ज़ाहिर किया। और इस तब्दीली नाम से उस का मतलब ये था कि जिस नस्तूरियस का वो मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) था उस के मज़्हब की इशाअत करे और उस राय (नस्तूरियस) को साबित करे। चुनान्चे वो हमेशा मुहम्मद साहब के पास रहता और गुफ़्तगु करता रहता था, यहां तक कि उस को (मुहम्मद साहब को) बुत-परस्ती से बिल्कुल हटा दिया और अपना ताबेअ़ और शागिर्द बना कर नस्तूरियस तरीक़े की तरफ़ दावत करने लगा। जब यहूदीयों को ख़बर मिली तो उस पुरानी दावत के सबब (जो यहूदो नसारा में चली आती है) भी मुख़ालिफ़ हो गए। मगर सर जेविश की सोहबत का ये असर हुआ कि क़ुरआन में मसीहीयों की याद ईलाही का ज़िक्र है और उस में इस अम्र की शहादत मिलती है कि मुहम्मदियों के नज़्दीक सबसे ज़्यादा वो लोग हैं (मुहब्बत में) जो अपने आपको नसारा कहते हैं और उस में आलिम व दरवेश हैं और वो लोग तकब्बुर नहीं करते। (देखो सूर मायदा 82) लेकिन इसी अर्से में सर जेविश (या नस्तूरियस) ने इंतिक़ाल किया। इस के बाद अब्दुल्लाह बिन सलाम और कअ़ब यहूदी आलिमों ने एज़्राह मक्र व फ़रेब मुहम्मद साहब से रिफ़ाक़त कर ली। (क्योंकि नस्तूरियस से उनका मुक़ाबला था जो इंतिक़ाल कर गया, अब उन्होंने समझा कि मुहम्मद साहब को अपनी तरफ़ करना चाहीए) और ये ज़ाहिर किया कि हम आपकी राइयों के ताबेअ़ और आपके मसाइल के क़ाबिल हैं, मगर अपने दिल का राज़ पिन्हाँ (छुपा) रखा हत्ता कि मुहम्मद साहब के इंतिक़ाल के बाद जब अबू बक्र को हुकूमत मिली तो उन्हों ने अली को उभारा कि तू नबुव्वत का दाअ्वा क्यों नहीं करता? हम तेरे शरीक-ए-हाल उसी तरह से हैं जिस तरह तेरे हज़रत का शरीक नस्तूरियस नसरानी था। गो अली को नस्तूरियस राहिब का हाल मालूम था, मगर मुहम्मद साहब की सोहबत के वक़्त वो कम उम्र था और इन दोनों ने अली को ये भी सिखा दिया कि किसी को ये बात ना बताएं और अली ने कम उम्री और सादा-दिली नातजूर्बेकारी से अब्दुल्लाह और कअ़ब की बात मान ली मगर ख़ुदा तआला को ये बात मंज़ूर ना थी, अबू बक्र पर यह राज़ इफ़शा (ज़ाहिर) हो गया। वो अली के पास आए और हुर्मत की याद दिलाई और अली ने जब अबू बक्र की तरफ़ निगाह की तो उनकी क़ुव्वत को देखा और अपने दिली इरादे से बाज़ रहा। मगर ये असर उन दिनों यहूदी आलिमों का हुआ कि जो किताब मुवाफ़िक़ मुराद इन्जील के मुहम्मद साहब की तरफ़ से अली को हाथ आई थी, उस में तसर्रुफ़ किया गया। तौरेत के कुछ अखबार व अहकाम और शहरों के हालात उस में दाख़िल किए गए। कुछ घटाया कुछ बढ़ाया और उन सब ग़ैर-मुस्तनद बातों को उस में मिला दिया। (सूरह बक़रह आयत 107) और इस तरह सूरह नहल व नमल व अन्कबूत वग़ैरह में है जिससे ज़ाहिर होता है कि मुख़्तलिफ़ गिरोह की तरफ़ ख़िताब है और ये सब बातें बे-बुनियाद हैं, पस ज़ाहिर है कि मुहम्मद साहब ने कुछ ताअलीम सर जेविश ईसाई और अब्दुल्लाह व कअ़ब यहूदी आलिमों के क़ुरआन के मज़ामीन लिखे या लिखवाए और चूँकि बाद में उस के तर्तीब देने और जमा करने में मुख़्तलिफ़ अश्ख़ास का हाथ था इस वास्ते तौरेत और इन्जील के हक़ीक़ी क़िसस (क़िस्से, वाक़ियात) में फ़र्क़ आ गया। यही वजह है कि बाईबिल और क़ुरआन के मज़ामीन में तफ़ावुत (इख्तिलाफ़) है। इस पुराने आलिम अरब की राय पर मुहम्मदियों को ग़ौर करना चाहिए और बजाय इस के कि वो क़ुरआन की ताअलीम को ज़माने के मुवाफ़िक़ करने की कोशिश करें। उस चशमे की ताअलीम को क़ुबूल करें जिसकी रोशनी से मुनव्वर हो कर नेचरी (फ़ित्रत के मानने वाले) और फ़लां बनते फिरते हैं। ये रेत के व मदमे कब तक? आख़िर वही ग़ालिब है जो कहता है कि अपने घर की बुनियाद चट्टान पर रखो ताकि तूफ़ान हो और बारिश से सदमा ना पहुंचे। (राक़िम बाजवा)