अल सालूस अल-अक़्दस

ये मानी हुई बात है कि मसीही अक़ाइद (मज़्हब के उसूल, ईमान) में सालूस (मुक़द्दस तस्लीस) का मसअला सबसे मुश्किल और आख़िरकार बरतर-अज़-अक़्ल है। लेकिन इस के ये मअनी (नहीं) हैं कि अक़्ल इस के सबूत में दो बातें भी नहीं कह सकती। अक़्ल इस के सबूत में दो छोड़ बहुत से दलाईल

Holy Trinity

अल सालूस अल-अक़्दस

By

Abnash Chander Ghosh
अबिनाश चन्द्र घूस

Published in Nur-i-Afshan August 16, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 16 अगस्त 1895 ई॰

ये मानी हुई बात है कि मसीही अक़ाइद (मज़्हब के उसूल, ईमान) में सालूस (मुक़द्दस तस्लीस) का मसअला सबसे मुश्किल और आख़िरकार बरतर-अज़-अक़्ल है। लेकिन इस के ये मअनी (नहीं) हैं कि अक़्ल इस के सबूत में दो बातें भी नहीं कह सकती। अक़्ल इस के सबूत में दो छोड़ बहुत से दलाईल (गवाहियाँ) बयान कर सकती है। इनमें से चन्द ख़ुदा की मदद से हम यहां बयान करते हैं। अव़्वल हम बयान करते हैं कि मसअला सालूस है क्या? जो इस का पूरा बयान पढ़ना चाहे अंग्रेज़ी कलीसिया की नमाज़ की किताब में से अथानासीस का अक़ीदा पढ़ ले। मुख़्तसर तौर पर ये मसअला यूं बयान हो सकता है। ज़ात-ए-बारी में जो बेमिस्ल और वाहिद है तीन अक़ानीम या शख़्सियतें हैं। यानी बाप बेटा और रूह-उल-क़ूद्स। बेटा बाप से मुस्तख़रज (निकला हुआ) है और रूह-उल-क़ूद्स बाप और बेटे से सादिर (नाफ़िज़) है। ये तीनों अक़ानीम दर्जे में बराबर और हम-क़दम हैं। लफ़्ज़ तौहीद (वहदानियत, ख़ुदा के एक होने पर यक़ीन करना) का इतलाक़ (जारी करना, आइद होना) ज़ात-ए-ख़ुदा पर है ना शख़्सियत ख़ुदा पर। शख़्सियत तीन हैं लेकिन ज़ात वाहिद (एक) है। इस को तौहीद-फ़ील-तस्लीस कहते हैं। हमारे मज़्मून के दो हिस्से होंगे :-

1. जिसमें सालूस का अक़्ली सबूत दिया जाएगा।

2. जिसमें अक़्लन साबित किया जाएगा कि जो रिश्ता और ताल्लुक़ अक़ानीम-ए-सलासा के दर्मियान कलीसिया मानती है बिल्कुल दुरुस्त है।

(अलिफ़) हमें दुनिया में हर शैय की तीन हालतें नज़र आती हैं :-

1. पैदाइश

2. असली हालत पर क़ायम रहना जिसमें तरक़्क़ी शामिल है।

3. बिगड़ कर फिर असली और दुरुस्ती की हालत पर बहाल होना।

दुनिया में जितनी चीज़ें हैं उनकी बहुत सी हालतें मुम्किन हैं। लेकिन इन तमाम हालतों को जो मुम्किन हैं हम इन तीनों हालतों में से किसी ना किसी के तहत में ला सकते। इनसे और कोई चौथी हालत मुम्किन नहीं। पस इन तीन हालतों को देखकर हम कहते हैं कि एक ताक़त है जो पैदा करती है उस को हम ख़ुदा बाप कहते हैं। दूसरी ताक़त है जो पैदा की हुई चीज़ को बहाल रखती है या तरक़्क़ी देती है उस को हम रूह-उल-क़ूद्स कहते हैं। तीसरी ताक़त है जो बिगड़ी हुई शैय को उस की असली हालत पर फिर लाती है उस को हम ख़ुदा बेटा या कलाम-उल्लाह कहते हैं।

अब मालूम हुआ कि इन्सानी मुशाहिदा गो सालूस की हस्ती का कामिल सबूत तो नहीं देता और याद रहे कि कोई ऐसी अक़्ली दलील (गवाही) आज तक ईजाद नहीं हुई जिससे ख़ुदा की मह्ज़ हस्ती का सबूत कामिल (मुकम्मल) तौर पर हुआ हो। ताहम उस की तरफ़ एक बारीक और पुर ज़ोर इशारा करता है। लेकिन इस दलील पर एक भारी एतराज़ आ सकता है। वो ये है कि क्यों ये तीन हालतें एक ही ताक़त की तरफ़ मन्सूब (क़ायम) ना की जाएं। इस के दो जवाब हैं :-

अव़्वल : ये कि क्यों हम इन तीन हालतों को एक ताक़त की तरफ़ मन्सूब करें। एक काम के करने के लिए तो दलाईल की ज़रूरत होती है लेकिन इस के ना करने के लिए भी दलाईल चाहें। हम पूछते हैं कि वो कौन सी दलील (गवाही) है जो हमको कहती है कि इन तीन हालतों को तीन ताक़तों की तरफ़ मन्सूब ना करो। दूसरा जवाब ज़रा तवील (लंबा) है। हमको दुनिया में चीज़ें नज़र आती हैं नेकी और बदी। और हमने नेकी के बानी को ख़ुदा कहा और बदी के बानी को शैतान।

अब हम मोअतरिज़ से पूछते हैं कि क्यों तुम्हारे उसूल के मुताबिक़ हम यहां भी दो अश्या को एक ही ताक़त की तरफ़ मन्सूब (क़ायम) ना करें। यानी अगर अक़्ल का ये तक़ाज़ा है कि सब चीज़ें एक ही ख़ालिक़ की तरफ़ मन्सूब की जाएं। तो बदी और नेकी क्यों ख़ुदा ही की तरफ़ मन्सूब नहीं की जातीं और क्यूँ-बे चारे ग़रीब शैतान को ईजाद कर के उस को गालियां देना शुरू हुआ। और अगर इस वक़्त से बचने की ख़ातिर कोई मान ले, कि बदी और नेकी दोनों का मूजिद (इजाद करने वाला, बानी) ख़ुदा है और शैतान कुछ नहीं तो हम पूछेंगे कि फिर उस का इन्साफ़ कहाँ गया कि वो बदों को सज़ा देगा। और नेकों को जज़ा (सवाब) क्या वो अर्श पर बैठा हम ग़रीब बेकस इन्सानों के साथ तमाशा कर रहा है। हमें वो ऐसे हुक्म देता है जिनकी अस्ल और हक़ीक़त ही नहीं अगर ख़ुदा ऐसा है तो हमने आज से दहरियत इख़्तियार की और उम्मीद है कि ऐसे ख़ुदा को दुनिया जल्द फ़रामोश (भूला देना) करेगी।

पस जब ये मानना दुरुस्त आया कि दो चीज़ों को दो ख़ालिक़ों की तरफ़ मन्सूब करना दुरुस्त है तो उस के मानने में कौन सी अक़्ली दिक़्क़त (मुश्किल) है कि दुनिया में जो हर शैय की तीन हालतें नज़र आती हैं उनको भी तीन मुख़्तलिफ़ ताक़तों की तरफ़ मन्सूब करते हैं कोई अक़्ली ग़लती नहीं। ज़ाहिर है कि सालूस के मानने में कोई ऐसी दिक़्क़त नहीं जो मह्ज़ ख़ुदा की हस्ती और सिफ़ात के मानने में भी ना हो। गोया ख़ुलासा ये है कि अगर कोई मुसलमानों जैसी तौहीद (ख़ुदा के एक होने पर यक़ीन करना) क़ायम करना और सालूस का इम्कान ही उड़ा देना चाहे तो इस को ज़रूर होगा कि तमाम दुनिया के मजमुए को ख़ुदा माने और बदी और नेकी दोनों को ख़ुदा की तरफ़ मन्सूब करे और अपने आपको ख़ुदा का टुकड़ा माने और अगर चाहो कि ख़ुदा शैतान और दुनिया को अलेहदा (अलग) अलेहदा (अलग) वजूद मानो तो हमारा मसअला सालूस भी अपने लिए अज़रूए अक़्ल गुंजाइश पैदा करेगा। कोई दलील नहीं जिससे साबित हो कि अश्या की पैदाइश बहाल रहने और बहाल होने को ख़ुदा बाप ख़ुदा रूह-उल-क़ुद्स और ख़ुदा बेटे की तरफ़ मन्सूब करना ग़लत है। और ख़ासकर जब उस की ताईद में मसीह और उस के हवारीईन (शागिर्द) के अक़्वाल मौजूद हैं।

अगर कोई कहे कि अश्या की तीन हालतों के इलावा मौत की एक चौथी हालत है तो याद रहे कि मौत दो क़िस्म की है।

(1) एक तो वो मौत जो मह्ज़ नक़्ल-ए-मकानी या नक़्ल हालत है और ये बहाल रहने की एक शाख़ है और रूह-उल-क़ूद्स की तरफ़ मन्सूब हो सकती है। (2) दूसरी मौत वो जो गुनाह के बाइस है और उस का बानी तो शैतान मान ही रखा है हमने अपने मज़्मून में लफ़्ज़ ताक़त का इस्तिमाल बहुत किया है।

और यह इसलिए नहीं किया कि बाअज़ मुल्हिदों (जिसका कोई मज़्हब ना हो) की तरह हम ख़ुदा को मह्ज़ एक ताक़त मानते हैं बल्कि इसलिए कि ये लफ़्ज़ हमारे मतलब को ख़ूब अदा करता है। ये हम साबित कर सकते हैं कि असली ताक़तें सब शख़्सी ताक़तें हैं। और कोई ताक़त बग़ैर शख़्सियत के कुछ अस्ल नहीं रखती।

हम क्या हैं?

हमने कभी अपनी हालत पर ग़ौर ना किया कि “वर्ना हम ज़रूर अपनी ख़ुद ही तारीफ़ कर लेते। हालाँकि ख़ालिक़ एव किब्र ने हमको अशरफ़-उल-मख़्लूक़ात का रुत्बा अता किया। अगर हम अपनी उन आज़माईशी हालतों पर जो हमको इस पुर ज़ाल दहर (मुद्दत-उल-अम्र) की गोद में वाक़ेअ होती हैं। नज़र ताम्मुक़ (गहराई की नज़र)

What are we?

हम क्या हैं?

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan August 16, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 16 अगस्त 1895 ई॰

हमने कभी अपनी हालत पर ग़ौर ना किया कि “वर्ना हम ज़रूर अपनी ख़ुद ही तारीफ़ कर लेते। हालाँकि ख़ालिक़ एव किब्र ने हमको अशरफ़-उल-मख़्लूक़ात का रुत्बा अता किया। अगर हम अपनी उन आज़माईशी हालतों पर जो हमको इस पुर ज़ाल दहर (मुद्दत-उल-अम्र) की गोद में वाक़ेअ होती हैं। नज़र ताम्मुक़ (गहराई की नज़र) से देखें तो फ़ील-वाक़ेअ हम उन पाक फ़रिश्तों से जो “रब-उल-अफ़्वाज” के गिर्द “कुद्स कुद्स” पुकारते हैं क़ाबिल-ए-तर्जीह हैं। अगर वो भी मिस्ल हमारे इस पुर ख़तर मैदान-ए-आज़माईश में आ निकलते तो यक़ीनन हमसे फ़ौक़ियत (सबक़त) ना ले जाते। मगर ये तर्जीह उन्ही को हो सकती है, जो इस दुनियाना पायदार की बे-सबाती पर क़ाने (जितना मिल जाए उस पर सब्र करना) करने वाले हैं। और बहर नूअ (इन्सान) अपने दामन को लूत-ए-इस्याँ (गुनाह) से बचा सकते हैं।

“हम क्या हैं” इस सवाल को अगर हम क़ायम कर के मुअतक़िदान नेचर (एतिक़ाद रखने वाले) या हमा औसत (सूफ़ियों का क़ौल है कि ख़ुदा के सिवा किसी शैय का वजूद नहीं। जो कहते हैं सब कुछ ख़ुदा है) वालों से या उन फिलासफरों (दानिशवरों, इल्म-ए-फ़ल्सफ़ा के जानने वाले) से जिनकी दिमाग़ी क़ुव्वत पर मह्ज़ फ़िलोसफ़ी ही मुसल्लत (क़ाबिज़) है पूछें तो वो हमको सीधी रफ़्तार से ठोकर देकर बहका दें। मगर हम तो मुख़्तसर हालते मौजूदह पर अर्ज़ करते हैं ना कि इस क़ज़ीया (बह्स, तकरार) कि जो मुतख़ासिमीन (बाहम मुख़ालिफ़, फ़रीक़ैन) में एक अर्से से क़ायम है चुकाए बैठे हैं।

हम सिर्फ इस पर इक्तिफ़ा (इत्तिफ़ाक़) करते हैं कि हम ख़ुदा अज़्ज़ व जल (ख़ुदा ए तआला की सिफ़त के तौर पर इस्तिमाल होता है) के जलाल ज़ाहिर करने वाले हैं हम उस की सनअत हैं। हम उसी के मज़हर-ए-क़ुद्रत हैं। और हमारी पैदाइश और हमारी परवरिश हमारी इज़्ज़त हमारी ज़िल्लत, हमारी इबरत (नसीहत) हमारी इमारत (दौलत-मंदी, सरदारी, हुकूमत) सब शान एज़दी (ख़ुदाई) हैं। जो ख़ास उस की मस्लिहत (हिक्मत, नेक सलाह) पर मबनी है। क्योंकि हमारे इम्कान से बाहर है कि हम उस के इसरार नहानी (पोशीदा बातें, भेद) को समझें। और यही कोताही (कमी, नुक़्स) एक ऐसी ज़बरदस्त दलील (गवाही, सबूत) है जो हमारी मख़लूकियत का इस्बात (तस्दीक़, सबूत) है।

हाँ हम ये कह सकते हैं कि इंतिज़ामे आलम हमारे ही लिए है ख़ुदा ने अव्वलन कुल चीज़ों को पैदा कर के ज़ीनत (ख़ूबसूरती, सजावट) के लिए हज़रत आदम को बाद में ख़ल्क़ किया। उनकी ना-फ़र्मानी व ख़ुद-शनासी (हक़ीक़त) ने हमको गिर्दाब-ए-हलाकत (हलाकत के भंवर) में डाल दिया। हम ज़रूर बहीरा हलाकत के पुरजोश अम्वाज (लहरों) में क़रीब-उल-ग़र्क (डूबने के नज़्दीक) थे कि दूसरे आदम ने जिसको 1900 बरस के क़रीब होते हैं हमको बचा लिया। सच्च पूछो तो ना आदम गुनाह करता। ना मसीह मरता। और ना हम अपनी हालत के समझने पर क़ादिर (मुख़्तार, क़ाबू रखने वाले) होते और ना हम बग़ैर उस के रहमते एज़्दी (ख़ुदा की मेहरबानी या करम) के क़ाइल (तस्लीम करने वाले, ग़लती मानने वाले) होते। बक़ौल, ना हो मरना तो जीने का मज़ा क्या।

ज़ाहिर है कि जब तक दो मुतज़ाद (बरअक्स, ख़िलाफ़) हालतें ना हों इम्तिहान मुक़ाबला ग़ैर-मुम्किन है। मसलन रंज (दुख, ग़म) ना हो तो मुसावी (बराबर, यकसाँ) ख़ुशी क्या। पस अगर हज़रत आदम गुनाह ना करते तो मसीह क्यों आता और हम उस ग़फ़ूरुर-रहीम (ख़ुदा तआला का सिफ़ाती नाम) के दरिया-ए-रहमत के पैराक (तैराक) क्योंकर होते बहर-हाल वो भी एक इन्सान था। जिसने ख़ता (ग़लती) की। और वो भी एक इन्सान है जिसने ख़ता ना की।

अब हम भी एक इन्सान हैं। ताहम “हम क्या हैं” अब हम इस जगह से इन्सानी फ़िर्क़े के दो हिस्से करते हैं कि वो क्या हैं और “हम क्या हैं” इस तक़्सीम में हम कुल अक़ानीम पर बह्स नहीं करते बल्कि अपने हिन्दुस्तान ही को देखते हैं “हम” मसीही हैं और “वो” ग़ैर क़ौम। क्या हमारे लिए ये हैरत-अंगेज़ नहीं है और उनकी तरक़्क़ी उनकी कोशिश उनका उरूज (बुलंदी) क़ाबिल-ए-ग़ौर नहीं है हाँ है तो मगर हम भी अब बग़ैर कहे ना रहेंगे। माना कि ये ग़ुरूर (अकड़, घमंड) है। हमारी दानिस्त (समझ) में मसीही हालत का इज़्हार इस हद तक नहीं पहुंचता और इतना तो होना भी चाहिए। अगर हम दिलेराना व बेबाकाना (निडर) कह दें, कि हम सब कुछ हैं। तो अफ़्सोस हम अपने को ईमान के एक (एक्सट्रीम) इंतिहाई दर्जा किनारा से भी तजावुज़ (हद से बढ़ना) कर के बाहर फेंक देते हैं।

तो क्या हम ये कह दें कि हम कुछ भी नहीं। आह हम ये भी नहीं कह सकते क्योंकि हम अभी अभी ये कुछ कह चुके कि हम ख़ुदा के जलाल ज़ाहिर करने वाले हैं और उस के मज़हरे क़ुद्रत हैं। पस ये तो हम ज़रूर कह सकते हैं कि हम बहुत कुछ हैं। ख़ुदा हमारी मदद करे मगर जब हम अपनी ग़ुर्बत अपनी बेकसी अपने इफ़्लास (ग़रीबी) (मुफ़लिसी, तंगदस्ती) पर ग़ौर करते हैं तो हम मायूस होते हैं बावजूद ये कि हमारा ये ख़याल बिल्कुल कमज़ोर है जो हमारी अवा-अल-अज़मी (जुर्रत, बुलंद हिम्मती) के ख़िलाफ़ है क्या ये थोड़ी सी तरक़्क़ी जिसको हम हद्या नाज़रीन करते हैं इस ममालिक मग़रिबी शुमाली के हौसला ख़ेज़ नहीं है। ज़रूर हमारा क़लम इस वक़्त जोश मसर्रत (ख़ुशी) में ऐसा तरो ताज़ा है जैसा कि अला-उल-सबाह (बहुत सवेरे) नसीम-ए-सहर (सुबह की हवा, हल्की हल्की खुशबूदार हवा) के सर्द सर्द झोंकों से या इस वक़्त उस की नरम नरम व नाज़ुक ख़िरामी (आहिस्ता-आहिस्ता चलने या टहलने का अमल) जिसको नेचर (क़ुद्रत) ने कुछ इसी सुहाने वक़्त के लिए मौज़ूं (मुनासिब) किया है। शाम-ए-जां तक पहुंच कर दिमाग़ को फ़रीश या ताज़ा करती है। और जिसकी बलंद परवाज़ी हमारे बिरादरान क़ौम के लिए मसरदा (बशारत, ख़ुशख़बरी) ख़ुशी होगी।

और क्या ये अख़्बार नूर-अफ़्शां हमारी क़ौमी हालत का पोलेटिकल (सियासी) हैसियत से क़ासिद (एलची, चिट्ठी रसां) बन कर गर्वनमैंट की ख़िदमत में गुज़ारिश ना कर सकेगा, कि वो ख़याल जो हमारी अदम तवज्जोही (बेपरवाही, बे एहतियाती) मिंजानिब ज़बान उर्दू व फ़ारसी से ज़ाहिर की जाती है। वो अबस (फ़ुज़ूल) है कि हमारे अज़ीज़ जोज़फ़ जी घूस प्रोफ़ैसर सेंट जॉन्स कॉलेज आगरा ने इम्तिहान एम॰ ए॰ बज़बान फ़ारसी पास किया। ये शख़्स शायद पहला ईसाई नहीं है जिसने फ़ारसी में एम॰ ए॰ पास किया। और वो भी कौन ईसाई, बंगाली ईसाई। हम इसी तरक़्क़ी पर ख़ुश नहीं हैं। बल्कि हमारी ख़ुशी का सीन इस तरक़्क़ी के स्टेज पर तीन प्लाटों में क़ायम है।

अव़्वल : जो यहां हो चुका।

दुवम : हमारे नवजवानान जेम्स मेकल, तहार्टन दबूस वग़ैरह की एंटर मेडमीट वमस्टर रेमन के॰ बी॰ ए॰ की कामयाबीयों पर।

सोइम : हमारी मुअज़्ज़िज़ लेडीज़ मिस्ल मिस लीला दिति सिंगा कि एम॰ ए॰ व मिस देवी सीतल व मिस कलेडी कलियोफिस वग़ैरह के इंटरमीडीयेट की कामयाबी पर है।

नोट : मुनासिब होगा अगर ऐसी इस्तिदा हिन्दुस्तानी सोसाइटियों के ज़रीये जारी हो और वही वक़्त-ए-दुआ मुईन करें और अपनी दरख़्वास्त को कुल मिशन सोसाईटियों और यूरोप में रवाना करें।

तजस्सुम ख़ुदा

इस मसअले पर मुख़ालिफ़ बहुत एतराज़ करते हैं। और बाअज़ सिरे से इस का इन्कार करते हैं और कहते हैं, कि ख़ुदा का मुजस्सम (जिस्मदार) होना बिल्कुल नामुम्किन और अक़्ल के ख़िलाफ़ है। हम इस मज़्मून में साबित करेंगे कि अक़्ल के नज़्दीक ख़ुदा का मुजस्सम होना बिल्कुल मुम्किन है। अक्सर एतराज़ ये होता है, कि ख़ुदा तो ग़ैर-महदूद है

Incarnation of God

तजस्सुम ख़ुदा

By

Abnash Chandr Ghos
अबनाशन चन्द्र घूस

Published in Nur-i-Afshan August 9, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 9 अगस्त 1895 ई॰

मसीही कलीसिया ने मसीह को ख़ुदामुजस्सम माना है

इस मसअले पर मुख़ालिफ़ बहुत एतराज़ करते हैं। और बाअज़ सिरे से इस का इन्कार करते हैं और कहते हैं, कि ख़ुदा का मुजस्सम (जिस्मदार) होना बिल्कुल नामुम्किन और अक़्ल के ख़िलाफ़ है। हम इस मज़्मून में साबित करेंगे कि अक़्ल के नज़्दीक ख़ुदा का मुजस्सम होना बिल्कुल मुम्किन है। अक्सर एतराज़ ये होता है, कि ख़ुदा तो ग़ैर-महदूद है फिर क्योंकर हो सकता है कि ग़ैर-महदूद ख़ुदा महदूद जिस्म में मुक़य्यद (क़ैद) हो जाये।

ये बात तो सब मानते हैं कि ख़ुदा हर जगह हाज़िर व नाज़िर है। अब उस का हाज़िर व नाज़िर होना दो तरह से हो सकता है :-

1. वो एक जगह में साकिन (ठहरा हुआ, क़ायम) है और अपनी क़ुद्रत कामला से सब कुछ देखता और सब जगह हाज़िर है। या

2. ये कि जिस जगह का ख़याल किया जाये वहां ख़ुदा ख़ुद हाज़िर होता है और किसी ख़ास जगह में साकिन नहीं।

अब अगर इन दोनों सूरतों में से पहली को मंज़ूर करें तो साफ़ ज़ाहिर है, कि ख़ुदा का मुजस्सम होना मुम्किन है। क्योंकि अगर वो एक जगह में साकिन हो के सारी दुनिया को देख रहा है तो क्या अक़्ल नहीं कहती कि मुम्किन है कि वो एक जिस्म में साकिन हो कर सब कुछ वैसा ही देखता रहे। क्यों इन्सानी जिस्म उस का मस्कन नहीं हो सकता। कोई दलील (सबूत, गवाही) इस के ख़िलाफ़ नज़र नहीं आती। जिस्म भी और मकानों की तरह एक मकान है।

रही दूसरी सूरत ये कि ख़ुदा किसी ख़ास मकान पर साकिन नहीं बल्कि हर जगह है। इस सूरत में भी हम साबित करेंगे, कि उस का मुजस्सम होना मुम्किन है। दावा ये है कि ख़ुदा हर जगह मौजूद है ज़्यादा सफ़ाई के वास्ते हम एक ख़ास मकान का नाम लेते में यानी दिल्ली की जामा मस्जिद। पस ख़ुदा दिल्ली जामा मस्जिद में मौजूद है। लेकिन वो बंबई की जामा मस्जिद में भी मौजूद है। अब ये तो हो नहीं सकता कि कोई कहे उस का एक हिस्सा दिल्ली में एक हिस्सा बंबई में है। अगर वो दिल्ली में है तो कुल है और अगर बंबई में है तो कुल है। तो गोया साबित हुआ कि इस दूसरी राय के मुताबिक़ ख़ुदा कुल्लिया तौर पर एक मस्जिद में समा सकता है और अगर एक मस्जिद में समा सकता है। तो कौन सी चीज़ उस के एक जिस्म में समाई से मानेअ (रुकावट) होती है। कोई मोअतरिज़ जवाब दे।

पस इस दूसरे राय के मुताबिक़ भी साबित हुआ कि ख़ुदा का तजस्सुम मुम्किन है।

वाइज़ तुम्हारी कमरें बंधी रहें

मसीह कहता है कि मैं नागहानी रात के वक़्त जैसे दूल्हा शादी के लिए आता है तुम शागिर्दों के पास आऊँगा ख़ुदावन्द हम सब मसीहियों को हुक्म देता है कि तुम्हारी कमर बंधी रहे, और तुम्हारा दिया जलता है।

Sermon Get dressed for Service

वाइज़ तुम्हारी कमरें बंधी रहें

By

Padri Pram Sukh
पादरी परम सुख

Published in Nur-i-Afshan Agust 2, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 2 अगस्त 1895 ई॰

चाहीए कि तुम्हारी कमर बंधी रहे और तुम्हारा दिया जलता रहे। लूक़ा 12:35

मसीह कहता है कि मैं नागहानी रात के वक़्त जैसे दूल्हा शादी के लिए आता है तुम शागिर्दों के पास आऊँगा ख़ुदावन्द हम सब मसीहियों को हुक्म देता है कि तुम्हारी कमर बंधी रहे, और तुम्हारा दिया जलता है।

अव़्वल हम इस पर ग़ौर करें कि कमर बांधना किस का काम है। क्या हर एक जो अपना अपना काम करते हैं वो कमर बांध के नहीं करते। हाँ इस दुनिया में देखने में आता है कि हर एक अपना अपना काम कमर बाँधके करते हैं फिर कमर बाँधने से ही मुराद नहीं है कि कोई कपड़े या चमड़े से कमर बाँधे बल्कि ये मुराद है कि हर एक अपने काम में दिल व जान से मशग़ूल रहे हैं ये ही कमर बांधना है। अब सवाल लाज़िम आता है कि हमारी कमरें किस चीज़ से बंधी रहें यानी कौन से कमर बंदे बंधी रहें कलाम पाक में बहुत से कमर बंदों का बयान है मैं यहां पर चंद कमर बंदों का बयान तहरीर करता हूँ।

अव़्वल : वफ़ादारी का कमरबंद। दुवम सुलह का कमरबंद। सोइम सच्चाई का कमरबंद। चहारुम मुहब्बत का कमरबंद। कि वही कमाल का कमरबंद है। पस रसूल की इस्तिलाह में कमर कसने के मअनी तैयारी और चुसती और सरगर्मी और मुस्तअदी (तैयारी) है।

1. वफ़ादारी का कमरबंद इस से मुराद है अमानतदारी और हम सभों को चाहिए कि हम सब अपने काम काज में वफ़ादार रहें। देखो इस की बाबत ख़ुदावन्द मसीह ने क्या कहा है। मत्ती 24:44 से आख़िर तक यूं मर्क़ूम है, पस कौन है वो दियानतदार और होशियार ख़ादिम जिसे उस के ख़ुदावन्द ने अपने नौकरों चाकरों पर मुक़र्रर किया कि वक़्त पर उन्हें खाना दे मुबारक वो ख़ादिम है जिसे उस का ख़ुदावन्द अगर ऐसा ही करते पाए।

2. सुलह के बंद से बंधे रहे। इफ़िसियों 4:3 यहां पर सुलह के बंद से मुराद है रूह की यगानगत जो हम सभों को ख़ुदावन्द मसीह से मिली है कि इस रूह से हम सब एक दिल होते हैं। तब जो काम हम लोग करते हैं कामयाब होते हैं। फिर हमारे ख़ुदावन्द मसीह ने ख़ुद कहा कि तुम एक दिल हो। क्योंकि हम देखते हैं, कि एक दिल होने से लोगों ने क्या-क्या बड़े काम किए हैं। देखो नहमियाह के बयान से हमको कितनी बड़ी तसल्ली होती है। जब नहमियाह ने देखा कि यरूशलेम उजड़ा पड़ा है और उस के फाटक जल गए तब उसने शहर के लोगों से कहा कि आओ हम यरूशलेम की शहर पनाह बनाएँ वो बोले चलो। सो इस अच्छे काम के लिए उन्होंने अपने हाथों को मज़्बूत किया देखो उन लोगों ने कैसी दिलेरी के साथ अपना काम किया कि एक हाथ में तल्वार और दूसरे हाथ में ईंट मसालिहा वग़ैरह इस दिलेरी के साथ उन लोगों ने अपना काम किया।

3. सच्चाई का कमरबंद। इस के हक़ में पौलुस रसूल यूं फ़रमाता है। इसलिए तुम अपनी कमर सच्चाई से कस के और रास्त बाज़ी का बक्तर पहन के इफ़िसियों 6:14 यहां पर सच्चाई से मुराद ख़ुदा का कलाम है देखो यूहन्ना 17:17 में यूं तहरीर है, उन्हें अपनी सच्चाई से पाक कर तेरा कलाम सच्चाई है फिर इसी किताब के बाब 8:34 में ख़ुदावन्द मसीह फ़रमाता है कि तुम सच्चाई को जानोगे और सच्चाई तुमको आज़ाद करेगी। फिर सच्चाई से ये मुराद है मसीह की ताअलीम यानी वो सब कलाम जिसे उसने कलिमा हो कर जहान पर आशकार (ज़ाहिर) कर दिया। और जो हमारे वास्ते इन्जील में मुन्दरज है वो इस वास्ते सच्चाई कहलाती है, कि बिल्कुल सच्च और सब सच्ची बातों में अफ़्ज़ल और मुक़द्दम है ये कलामे हक़ उस के मानने वालों को आज़ाद कर देता है यानी शैतान और गुनाह की गु़लामी से आज़ाद करता है। जो शख़्स गुनाह में फंसा उस का हाल ग़ुलाम की तरह है कि वो शैतान और अपने बुरे दिल को तरग़ीबों (लालच, बहकावा) और रग़बतों (ख़्वाहिशों) के ताबे करता है और अपनी इन ज़ंजीरों को तोड़ नहीं सकता। मगर मसीह की ख़ुशख़बरी इन ज़ंजीरों को तोड़ देती और गुनाह के ग़ुलामों को आज़ाद कर देती है। पस चाहिए कि जो मसीह के सिपाही हैं तो इस ही सच्चाई से हमारी कमर बंधी रहे और अपने ख़ुदावन्द की राह ताकते रहें।

4. मुहब्बत का कमरबंद कि वही कमरबंद कमाल का है। कुलस्सियों 3:14 हम सब मसीहियों को चाहिए कि इसी मुहब्बत से कमर बाँधे कि एक दूसरे को प्यार करें। देखो ख़ुदावन्द मसीह अपने जलाल के तख़्त पर बैठ कर क्या कहेगा। मत्ती 25:34 से आख़िर तक देखो। फिर पहला यूहन्ना 4:8 से 14 तक देखो। जिसमें मुहब्बत नहीं वो ख़ुदा को नहीं जानता क्योंकि ख़ुदा मुहब्बत है फिर रसूल मुहब्बत की कैसी तारीफ़ करता है इस के बारे में देखो पहला कुरिन्थियों बाब 13 को ये मुहब्बत का कमरबंद ऐसा है। जिससे रुहानी ज़ात के सब हुस्न व जमाल गोया कसे जाते हैं जो तमाम पोशाक को ज़ेब (ख़ूबसूरती) देता है।

  دوہا ۔ پریم نہ باری  اوبچےپریم نہ ہاٹ  بکائے۔  بناپریم  کا منواں  جم پور باندھا  جائے۔

दूसरा हिस्सा इस आयत का ये है। तुम्हारा दिया जलता रहे। इस की बाबत देखो मत्ती 25:1 से 14 तक। यूं मर्क़ूम है कि उस वक़्त आस्मान की बादशाहत दस कुँवारियों की मानिंद होगी जो अपनी मिशअलें लेकर दुल्हे के इस्तिक़बाल को निकलें वग़ैरह।

पस हर एक ईसाई को चाहीए कि उस का दिया जलता रहे ऐसा ना हो कि दिया बुझ जाये और इस घर पहुंचने से महरूम रह जाएं। फिर कलीसिया में बहुतेरे मसीह के आने के वक़्त के लिए तैयार नहीं हैं। क्योंकि उनके कुप्पियों में तेल नहीं है। ये लोग उस वक़्त अपनी कमी दर्याफ़्त करेंगे, जब कि दर्याफ़्त करने से कुछ हासिल ना होगा। क्योंकि मौत और क़ियामत के वक़्त हम इन्सान से नजात नहीं पा सकते हैं। और मख़्लूक़ में से कोई हमें ये तैयारी नहीं दे सकता है सिवाए मसीह के।

सो हम ना फ़क़त मसीह के आने की इंतिज़ार करें बल्कि उस के लिए मेहनत और मशक़्क़त भी करना चाहिए। क्योंकि बाज़ों को कम और बाज़ों को ज़्यादा लियाक़त (क़ाबिलीयत, ख़ूबी) दी जाती है। और हर एक को अपनी ताक़त और लियाक़त के बमूजब मेहनत करना चाहिए। फिर मसीह जो पहली बार दुनिया में आया ज़लील और हक़ीर (अदना) समझा गया। लेकिन दूसरी बार वो निहायत जलाल और इज़्ज़त के साथ आएगा और सब फ़रिश्ते उस के चौगिर्द होंगे। और वो अदालत के तख़्त पर बैठेगा। उस वक़्त सिर्फ़ दो ही तरह के लोग होंगे। तीसरी क़ौम नहीं यानी रास्तबाज़ और नारास्त दहनी तरफ़ वाले और बाएं तरफ़ वाले जो मसीह के हैं और जो मसीह के नहीं हैं क्योंकि मसीह में शामिल होना ये ही मसीही दीनदारी की बुनियाद है। और जो मसीह में शामिल हैं वो उस के लोगों का भी शरीके हाल और हम्दर्द होगा।

पर जो सच्चे दीनदार हैं वो अपनी नेकी और लियाक़त पर फ़ख़्र नहीं करते हैं। हासिल-ए-कलाम ये है कि ईसाई को लाज़िम है कि हर वाक़िये के लिए तैयार हो इस के लिए तदबीर (कोशिश, तज्वीज़) की गई और वाअदा किए हुए नमूने पेश किए और नसीहतें मिलीं पर ख़ुदावन्द येसू का फ़र्मान ये है कि तैयार रहो चाहिए कि हम इस दुनिया में तक्लीफ़ पाने और उन्हें बर्दाश्त करने और उनसे फ़ायदा हासिल करने को तैयार हों पर चाहिए कि मौत के लिए तैयार हों मौत ज़रूर आएगी पर क्या जाने कि कब या किस तरह से आएगी।

पस लाज़िम है कि कमर बांध के और आस्मानी बातों पर दिल लगा कर तैयार हों और हम सभों को चाहिए कि मसीह की आमद के लिए तैयार हों क्योंकि जिस तरह वो आस्मान को गया इस तरह फिर आएगा। और हम उसे रूबरू देखेंगे। क्योंकि लाज़िम है कि हमारी उम्मीद और आरज़ूऐं और इंतिज़ारी उस की आमद पर हों चाहिए कि हम उस के आने के ऐसे मुंतज़िर रहें जैसे काश्तकार पानी का और गुमराह राह का और पासबान सुबह का और दुल्हन आने वाले दुल्हे की और क़ैदी रिहाई का मुंतज़िर है।

पस ऐ भाईयों मैं तुमसे इल्तिमास (दरख़्वास्त) करता हूँ कि तैयार हो कि ईसा आता है क्या जानें कि जल्द ये आवाज़ सुनी जाये कि देख दुल्हा आता है उस के मिलने को निकलो काश की उस वक़्त हमारी कमरें बंधी हों और हमारी मिशअलें रोशन हों तब ख़ुशी से पुकारेंगे। कि ऐ ख़ुदावन्द येसू जल्द आ जल्द आ जो इस तरह से तैयार है वो काम करे और बेकार ना रहे और मरने और जीने और यहां रहने और मसीह के पास जाने को तैयार है।

पस हम सभों की ये ही आरज़ू (ख़्वाहिश) है कि ऐ रूह-उल-क़ूदस अपने लोगों के दिलों पर नाज़िल हो ता कि वो तेरी तासीर (ख़ासियत) से अज सर-ए-नौ पैदा हो कर मसीह के आने की बड़ी आरज़ू और कोशिश से मुंतज़िर रहें क्या मुबारक ये बात है कि ख़ुदावन्द आएगा। ऐ ख़ुदावन्द येसू जल्द आ। आमीन फ़क़त।

मुझे कब मानते हो तुम

नाज़रीन हमारे ख़ुदावन्द येसू अल-मसीह ने इन्जील यूहन्ना 5:46 के मुताबिक़ यहूदीयों के रूबरू इस अम्र का दाअवा किया, कि मूसा ने मेरे हक़ में लिखा है और इसी की ताईद (हिमायत) में पतरस रसूल ने उन लोगों से जो निहायत हैरान हो के उस बर आमदा की तरफ़ जो सुलेमान का कहलाता है। उन के पास दौड़े आए मूसा की पैशन गोई को इस तरह दोहराया। मूसा

How will you believer me?

मूसा ने मेरे हक़ में लिखा जानते हो तुम उस को ना माना तो मुझे कब मानते हो तुम

By

Kedarnath
केदारनाथ

Published in Nur-i-Afshan August 2, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 2 अगस्त 1895 ई॰

नाज़रीन हमारे ख़ुदावन्द येसू अल-मसीह ने इन्जील यूहन्ना 5:46 के मुताबिक़ यहूदीयों के रूबरू इस अम्र का दाअवा किया, कि मूसा ने मेरे हक़ में लिखा है और इसी की ताईद (हिमायत) में पतरस रसूल ने उन लोगों से जो निहायत हैरान हो के उस बर आमदा की तरफ़ जो सुलेमान का कहलाता है। उन के पास दौड़े आए मूसा की पैशन गोई को इस तरह दोहराया। मूसा ने बाप दादों से कहा, कि ख़ुदावन्द जो तुम्हारा ख़ुदा है तुम्हारे भाईयों में से तुम्हारे लिए एक नबी मेरी मानिंद उठाएगा। आमाल 3:22 इस की तस्दीक़ के लिए तौरेत शरीफ़ के हिस्से पंजुम मौसूमह इस्तिस्ना 18:15 को ज़ेल में नक़्ल करते हैं। ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी बरपा करेगा।

अगरचे बादियुन्नज़र (इब्तिदाई नज़र) में इन हर सह (तीन) हवालेजात के मज़ामीन का मतलब एक सा है और समझने वाले को चंदाँ दिक़्क़त (बिल्कुल मुश्किल) नहीं क्योंकि मज़्मून निहायत साफ़ है। पर तो भी हमारे इनायत (तवज्जोह, मेहरबानी) नहीं। अबू अल-मंसूर देहलवी की दिक़्क़त पसंद तबीयत ने इस आयत के समझने में मुहम्मदी माद्दा को जोश दे ही दिया। और कुछ ना बन पड़ा तो भी कह दिया, कि मूसा के कलाम में ये इबारत ज़्यादा है तेरे दर्मियान से। चूँकि मौलवी साहब को लफ़्ज़ी तकरार का मर्ज़ है। लिहाज़ा इस की ताईद (हिमायत) में 15 सतरें लिख मारें।

पर हक़ ये कि “तेरे दर्मियान” वाली से कोई बुनियादी पत्थर नहीं जिस पर मुहम्मदी मज़्हब की इमारत बन सके। अलबत्ता लफ़्ज़ “भाईयों” क़ाबिले ग़ौर है और इस पर मौलवी नूर-उद्दीन साहब भैरवी की भी राल टपकी है। लिहाज़ा ख़ुदा बाप से रूह-उल-क़ुद्स मुक़द्दस सालूस से मदद पा कर हम अपने ख़यालात का सिलसिला हिलाते हैं। और पहली जुंबिश (हरकत) में ये साबित करेंगे कि मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

तनक़ीह (तहक़ीक़, तफ़्तीश) लफ़्ज़ “मानिंद” का मफ़्हूम जो मूसा की नबुव्वत में वारिद है ऐसे मुक़ामात पर आता है। जहां दो मुतग़ाएर (अलग, जुदा) अश्या के दर्मियान किसी क़िस्म की यकसानियत का इज़्हार मकसूद-ए-ख़ातिर हुआ। और इस में सिर्फ 3 ही दर्जे मुतसव्वर हो सकते हैं। बड़ा या छोटा या बराबर यानी किसी क़िस्म की यकसानियत मालूमा जो बिल-मुक़ाबिल एक शेय में है वो दूसरी में या तो कम होगी या ज़्यादा या बराबर पर ज़ाहिर है। कि अगर कम है तो वो शैय जिसमें वो पाई गई बनिस्बत उस शैय के कि जिसमें वो मौजूद है मह्ज़ बेमाअनी है और अगर बराबर है तो तहसील हासिल से ज़्यादा वक़अत नहीं रखती। पस चाहिए कि मालूमा यकसानियत उस शैय में जो मानिंद ठहरती है ब-मुक़ाबिल उस शैय के जो मानिंद चाहत्ता है ज़्यादा हो तब ये मानिंद उस मानिंद की मानिंद होगी जिसका ज़िक्र मूसा ने अपनी नबुव्वत में किया है।

वाज़ेह तौर पर हम यूं कहते हैं कि वो नबी जो मूसा की मानिंद बरपा होगा। अगर मूसा जब कि आला से अदना की तरफ़ रुजू करना ना मौलवी साहब ही पसंद करेंगे और ना हम और अगर वो नबी मूसा के बराबर होगा। तो तहसील हासिल है क्योंकि मूसा तो ख़ुद उस नबी की मानिंद है इस के बरपा होने से बमुक़ाबला मूसा ख़ल्क़ ख़ुदा को क्या फ़ायदा होगा। लेकिन अगर वो नबी मूसा से से ज़्यादा हो तब अलबत्ता हम मूसा के साथ उस नबी की आमद का बसर व चश्म-ए-इन्तिज़ार करेंगे और उस की तरफ़ कान धरेंगे ऐसा ना हो कि ख़ुदावन्द ख़ुदा हमसे हिसाब ले। तश्रीह नबी उस को कहते हैं जो नजात की बाबत ख़ुदा की मर्ज़ी को इन्सान पर ज़ाहिर करे। और नबी उस को भी कहते हैं जो ताअलीम दे। इस तश्रीह के मुताबिक़ वो तमाम अम्बिया जो ज़माना बनी-आदम की हिदायत के वास्ते बरपा हुए इन दोनों में से किसी एक मअनी के लिहाज़ से नबी कहलाए तो भी मुनासिब है कि वो नबी जो मूसा की मानिंद हो उस पर दोनों माअनों के लिहाज़ से नबी का इतलाक़ दुरुस्त आता हो। पस इन सारी बातों पर लिहाज़ करते हुए मुन्दरिजा ज़ैल अस्बाब से साबित होता है कि अरबी मुहम्मद वो नबी नहीं है जो मूसा की मानिंद है।

अव़्वल : इस सबब से कि ख़ुदावन्द ख़ुदा ने बाग़ अदन में आप ही बता दिया कि “औरत की नस्ल शैतान के सर को कुचलेगी।” पैदाइश 3:15 अब औरत का लफ़्ज़ जब कि हक़ीक़ी है तब इस का मतलब ये है कि शैतान का सर कुचलने वाला मर्द के सिलसिले से नहीं बल्कि मह्ज़ औरत के सिलसिले से नमूदार (पैदा) होगा। और अगर औरत का लफ़्ज़ मजाज़ी (ग़ैर-हक़ीक़ी, ग़ैर-असली) है तो ये मक़्सद है कि औरत की नस्ल से दीनदार लोग और शैतान से बेदीन लोग मुराद हैं। और अक़्ल चाहती है कि वो नबी जो मूसा की मानिंद है ज़रूर औरत की नस्ल से ना सिर्फ मजाज़ी तौर पर दीनदार घराने से बल्कि हक़ीक़ी तौर पर सिर्फ औरत के सिलसिले से मुतवल्लिद (पैदा) हो। लिहाज़ा चूँकि मुहम्मद साहब ना मजाज़ न दीनदार ख़ानदान से पैदा हुए क्योंकि अरबी फ़र्ज़न्द मौऊद (वाअदा किया हुआ) बेटा इज़्हाक़ की नस्ल नहीं हैं। और ना मख़रोज पिसर (निकाला हुआ बेटा) हाजिरा मुसम्मा इस्माईल के नुत्फे से जब कि अदनान से आगे मिदाद तक नसब नामा नहीं मिलता और अगर मिलता भी (ये मुहाल है जब कि मुहम्मद साहब ने ख़ुद कहा कि जो मेरे नसब नामे को अदनान से आगे बढ़ाते हैं वो कज़्ज़ाब है) तो भी औरत की नस्ल ना होती। बल्कि बर-अक्स शैतान की नस्ल से शैतान का सर कुचलने वाला वो नबी मूसा की मानिंद ज़ाहिर होता जो बिल्कुल कलाम-ए-ख़ुदा और अक़्ल और तजुर्बे के ख़िलाफ़ है। और ना हक़ीक़तन मुहम्मद साहब सिर्फ औरत से बग़ैर बाप के पैदा हुए। पस इस सबब से मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

दुवम : ख़ुरूज 7:1 से मालूम होता है कि मूसा ख़ुदा सा था तो चाहिए कि वो नबी जो मूसा की मानिंद है ना सिर्फ ख़ुदा सा बल्कि ख़ुद ख़ुदा भी हो पर ज़ाहिर है कि मुहम्मद साहब तो मह्ज़ इन्सान थे उन्होंने कभी ख़ुदाई का दावा नहीं किया। और ना कभी क़ुरआन में उन को ख़ुदा सा बयान किया गया लिहाज़ा ना वो मूसा से बढ़कर हैं। और ना बराबर पस मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

सोइम : उस नबी का जो मूसा की मानिंद है बनी-इस्राईल के पास आना ज़रूर था और वो मेरी क़ौम इस्राईल की रिआयत करेगा क्योंकि मूसा की नबुव्वत में ये भी साफ़ बताया गया है कि तुम उस की तरफ़ कान धरो यहां “तुम” से मुराद वही लोग हो सकते हैं जो उस वक़्त मूसा के सामने थे या उन की औलाद बनी-इस्राईल ना ग़ैर लेकिन मुहम्मद साहब “ख़ुदा के लोगों” “बनी-इस्राईल” के पास नहीं आए बल्कि अपनी हम क़ौम बुत-परस्त अरब के पास। पस इस सबब से मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

चहारुम : मूसा बनी-इस्राईल को ज़मीन मिस्र और गु़लामी के घर से निकाल लाया। अगर कोई शख़्स उन मोअजज़ात और वाक़ियात फ़ौक़ुल आदत (आदत से बढ़कर) से जो मिस्र और दरिया-ए-क़ुलज़ुम के उबूर के वक़्त मूसा की मार्फ़त वाक़ेअ हुई क़त-ए-नज़र (नज़र-अंदाज) कर के इस तारीख़ी माजरे पर सरसरी नज़र डाले तो ज़मीन मिस्र और गु़लामी के घर से निकाल लाना कोई बड़ी बात नहीं। ताहम बागे अदन वाले वाक़िये को पेश-ए-नज़र रखकर कुल बाइबल पर ग़ौर करते हैं तो साफ़ मालूम होता है, कि ज़मीन-ए-मिस्र से शैतान की बादशाहत और गु़लामी के घर से गुनाह की गु़लामी मुराद है। चूँकि पहला काम जो अलामती है और बहुत भारी नहीं मूसा से हुआ तो लाज़िम है कि वो नबी जो मूसा की मानिंद है दूसरे काम को जो हक़ीक़ी है और निहायत ही मुश्किल बल्कि इन्सान के नज़्दीक बिल्कुल मुश्किल और मुहाल (दुशवार) है अंजाम दे। लेकिन दोनों शक़ों पर लिहाज़ करते हुए मुहम्मद साहब ने ना बनी-इस्राईल को किसी दुनियावी ताक़त से रिहाई बख़्शी और ना शैतान और गुनाह से उन को मख़लिसी दी। पस इस सबब से मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

पंजुम : मूसा की मार्फ़त एक ऐसी अख़्लाक़ी शरीअत दी गई जो तमाम बातों में कामिल और पाक और रास्त और रुहानी है। और जिसकी बाबत हुक्म हुआ “सारे हुक्मों पर जो आज के दिन मैं तुम्हें फ़रमाता हूँ ध्यान रखकर अमल करना ताकि तुम जीओ।” (इस्तिस्ना 8:1) लेकिन उस की बाबत कोई ऐसा इशारा नहीं हुआ कि अगर कोई किसी हुक्म के किसी हिस्से पर सहूवन (भूलचूक) या उम्दन (जानबूझ) या कमज़ोरी के सबब से अमल ना करेगा तो उस के एवज़ (कफ्फारे) में मूसा उस को कामिल कर देगा। इसलिए ये अम्र ज़रूरी मालूम होता है कि वो नबी जो मूसा की मानिंद हो एसा हो कि अपनी ताबेदारी, इस हालत में दस्त-गीरी (मदद, हिमायत) करे और उनके नुक़्सान को रफ़ा कर के उन्हें कामिल बनाए। लेकिन मुहम्मद साहब ने कभी दावा ना किया और ना वाअदा, कि मैं उनके इस बोझ को हल्का करूँगा या बांट लूँगा। पस इस सबब से मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

शश्म : मूसा की मार्फ़त रस्मी शरीअत मर्हमत (इनायत, नवाज़िश) हुई जिसमें इलावा और बातों के ख़ासकर वो क़ुर्बानी है जो गुनाह का कफ़्फ़ारा मुक़र्रर हुई। और उस में बेऐब बर्रे की शर्त थी और जिसकी बाबत कामिल यक़ीन से कह सकते हैं, कि इस से शारेअ (शरीअत बताने वाले) की ये ग़र्ज़ थी कि वो उस हक़ीक़ी क़ुर्बानी की अलामत ठहरे जो आइंदा ज़माने में वक़्त मुअय्यना पर गुज़रने को थी। अब जो नबी मूसा की मानिंद हो लाज़िम है कि वो इस अलामत की हक़ीक़त ठहरे। मगर मुहम्मद साहब ने इस की बाबत कुछ इंतिज़ाम नहीं किया पर हम नहीं जानते कि ईद-उल-अज़हा की क़ुर्बानी से उन की क्या मुराद है अगर वही मुराद है जो मूसा की थी तो इस अदल बदल से क्या फ़ायदा निकला और अगर वो ग़र्ज़ नहीं है तो फिर बग़ैर इस के कि ईद फ़स्ह की तक्मील अमल में आई उस का मसदूद (रद्द किया, बंद) करता और ख़ुद उस अलामत की हक़ीक़त ना ठहरना मह्ज़ बेमाअनी है। पस इस सबब से मुहम्मद मूसा की मानिंद नहीं हैं।

हफ़्तुम : मूसा बावजूद ये के मह्ज़ इन्सान था तो भी ख़ुदा सा कहला कर उस में किसी क़द्र तीन बातें और भी नज़र आती हैं। (1) नबुव्वत (2) कहानत जब कि बारहा उस ने बनी-इस्राईल के वास्ते ख़ुदा के हुज़ूर में सिफ़ारिश की। वाज़ेह हो कि कहानत दर्जे में दो बातें शामिल हैं क़ुर्बानी दुवम सिफ़ारिश

(3) बादशाहत अगरचे उस वक़्त बनी-इस्राईल का बादशाह सिर्फ़ ख़ुदावन्द यहोवा था। पर तो भी नयाबती इंतिज़ाम में वो एक क़िस्म की हुकूमत करता है। लिहाज़ा मुनासिब है कि वो नबी जो मूसा की मानिंद हो इन सब बातों में कामिल और पूरे तौर से हो यानी मूसा मह्ज़ इन्सान था वो कामिल इन्सान हो। मूसा सिर्फ़ ख़ुदा सा था वो कामिल ख़ुदा हो। फिर ये तीन बातें भी कामिल तौर पर उस में पाई जाएं। नबुव्वत, कहानत, बादशाहत लेकिन मुहम्मद साहब ना कामिल इन्सान थे ना कामिल ख़ुदा थे। और ना नबी थे। ना काहिन ना बादशाह अगरचे दुनियावी तर्ज़ पर बुद्वाना सूरत ग़ासिबाना (नाजायज़ क़ब्ज़ा) बादशाहत रखते थे। जिसके हासिल करने को अबू बक्र उमर व उस्मान से सिपाहसालार काफ़ी थे। पस इस सबब से मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

हश्तम : इस्तिस्ना 34:5, 6 में यूं तहरीर है कि, सो ख़ुदावन्द का बन्दा मूसा ख़ुदावन्द के हुक्म के मुवाफ़िक़ मूआब की सर-ज़मीन में गिर गया। और उस ने उसे मूआब की एक वादी में बैत फ़ग़ोर के मुक़ाबिल गाढ़ा पर आज के दिन तक कोई उस की क़ब्र को नहीं जानता इसलिए ज़रूर है कि वो नबी जो मूसा से कुछ ज़्यादा हैरत-अंगेज़ वाक़ियात रखता हो लेकिन मुहम्मद साहब बा-रज़ा फीवर (बुख़ार में) मर गए और अपनी बीवी आईशा के हुज्रे में दफ़न हैं इस में अबू बक्र और उमर भी गाड़े गए उन की क़ब्र मदीना में सबको मालूम है। पस इस सबब से मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

नह्म : मूसा बनी-इस्राईल को मुल्क-ए-मऊदा (वाअदा किया हुआ मुल्क) के किनारे तक लाया। मगर उस में उन्हें दाख़िल ना कर सका इसलिए वाजिबी मालूम होता है कि वो नबी जो मूसा की मानिंद हो बनी-इस्राईल को हक़ीक़ी कनआन में दाख़िल करे लेकिन मुहम्मद साहब ने बनी-इस्राईल को मजाज़ी कनआन में दाख़िल नहीं किया और हक़ीक़ी कनआन से तो वो ख़ुद दूर हैं। पस इस सबब से मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

दहुम : अगरचे मूसा नबुव्वत के ओहदे में पहला नबी ना था तो भी मालूम होता है कि उसी के इख़्तियार से जिसने बाग़-ए-अदन में सबसे पहले नबुव्वत का काम अंजाम दिया जब कहा कि “औरत की नस्ल साँप के सर को कुचलेगी” मूसा ने पीतल का एक साँप बना के एक नेज़े पर रखा और ऐसा हुआ कि साँप ने जो किसी को काटा तो जब उस ने पीतल के साँप पर निगाह की तो वो जीता रहा। गिनती 21:9 लिहाज़ा जिस तरह मूसा ने साँप को ब्याबान में बुलंदी पर रखा इसी तरह ज़रूर है कि वो नबी जो मूसा की मानिंद हुआ उठाया जाये। ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए। लेकिन मुहम्मद साहब बाग़-ए-अदन वाले नबी नहीं हैं और ना ऊपर उठाए गए। पस मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

याज़ दहुम : वो नबी जिसने बाग-ए-अदन में नबुव्वत की उसी वक़्त उन से क़ाज़ी और मुंसिफ़ बन कर आदम और हव्वा पर और शैतान पर सज़ा और लानत का फ़त्वा सुनाया और उसी के इख़्तियार से मूसा भी क़ज़ा या फ़ैसल (फ़ैसला करना) करता था। लिहाज़ा वो नबी जो मूसा की मानिंद हो चाहिए कि यही बल्कि उस से बढ़ कर इख़्तियार पा कर आख़िरी फ़तवा सुनाए। लेकिन मुहम्मद साहब ने बाग़-ए-अदन में अदालत नहीं की और ना आख़िरी अदालत उन के सपुर्द हुई बल्कि क़ुरआन के सूरह क़लम वाली आयत से गवाही मिलती है कि मालिके रोज़े जज़ा साहिब-ए-जिस्मानी आज़ा है क्योंकि वो अपनी पिंडली खोल कर दिखाएगा। इसलिए मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

दवाज़दहुम : मूसा की नबुव्वत में ये भी दर्ज है, “और जो कुछ मैं उसे फ़र्माऊंगा वो सब उन से कहेगा और ऐसा होगा कि जो कोई मेरी बातों को जिन्हें वो मेरा नाम लेकर कहेगा ना सुनेगा तो मैं उस का हिसाब उस से लूंगा। इस्तिस्ना 18:18, 19 यहां अल्फ़ाज़ “जो कुछ” में ज़ोर पाया जाता है अगर “उन्हें जो कुछ” के तमाम मअनी लिए जाएं तो नतीजा ये होगा कि शायद और नबी और ख़ुद मूसा भी सब जो कुछ ख़ुदा से पैग़ाम पाते थे, लोगों को नहीं सुनाते थे। ऐसा गुमान अक़्ल और इल्हाम दोनों के ख़िलाफ़ है तो हमको दूसरे मअनी इख़्तियार करना पड़ेंगे। जिनकी ये ख़ासियत है कि अगले अहकाम से ना तो मुख़ालिफ़त साबित हो और ना तन्सीख़ (ख़त्म) तो भी क़ुदरत-ए-इख़्तियार का इज़्हार पाया जाये और ताकि इसलिए तरीक़ा ताअलीम को देखकर सुनने वाले कोई उज़्र (बहाना) ना पेश कर सकें और दर सूरत इन्हिराफ़ (ना-फ़र्मानी, मुख़ालिफ़त) जो कुछ के हिसाब वो और जवाबदेह हों। तब ज़रूर है कि वो नबी जो मूसा की मानिंद हुआ इख़्तियार के साथ ताअलीम दे। लेकिन मुहम्मदी ताअलीम जहां तक तौरेत व ज़बूर सहाइफ़ अम्बिया और इन्जील से मस्रूक़ (चोरी) की गई जैसा कि चंद हफ़्ते गुज़रे अख़्बार नूर-ए-अफ़्शां के वसीले दो मुख़्तलिफ़ पर्चों में साफ़ दिखलाया गया कि मुसन्निफ़ क़ुरआन व हदीस ने किस हिक्मत-ए-अमली से आधी आयत इधर से और पूरी आयत उधर से एक लफ़्ज़ यहां से और दो लफ़्ज़ वहां से उड़ा कर शरीअत-ए-मुहम्मदी और तरीक़त अहमदी नाम रख लिया वहां तक बनिस्बत मूसा की ताअलीम के कोई अजूबा बात नहीं लेकिन जो कुछ मुहम्मदी मज़्हब की ख़ुद अपनी तस्नीफ़ है इस की ये हालत है कि, ہ گندہ  بروز  ہ یا خشکہ  خوردن  گندہ  الا ایجاد  بندہ   और इस के इलावा ना सिर्फ यही कि मुहम्मदी ताअलीमात ख़ास से ख़ुदा की बेइज़्ज़ती होती बल्कि क़ुद्रत इख्तियारी भी ज़ाहिर नहीं होती पस इस सबब से मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद नहीं हैं।

अब हम उन क़ियासात और तुहमात के जांचने की तरफ़ मुतवज्जोह होते हैं जो हकीम नूर उद्दीन भैरवी ने अपनी किताब फ़स्ल-उ-खिताब के सफ़ा 22 से 36 के शुरू तक दौड़ाए हैं।

अव़्वल : उस नबी की क़ौम को बताया कि वो बनी-इस्राईल के भाईयों से होगा। और इस के वहम फ़हम के वास्ते क़ुरआनी दलाईल को पेश किया है।

1. और डर सुना दे अपने नज़्दीक के नाते वालों को।

2. दीन तुम्हारे बाप अबराहाम का उसने नाम रखा तुम्हारा मुसलमान हुक्म-बरदार पहले से।

3. ऐ रब मैंने बसाई है एक औलाद अपनी मैदान में जहां खेती नहीं है। तेरे अदब वाले घर के पास।

हम इन बातों का जवाब यूं देते हैं। अव़्वल कि मौलवी साहब ने तौरेत के मुताबिक़ दावा किया कि मूसा ने उस नबी की क़ौम को बताया कि वो बनी-इस्राईल के भाईयों से होगा। और दलील उस की क़ुरआन से दी। लेकिन चाहिए यूं था कि तौरेत ही से साबित कर के दिखाते कि बनी-इस्राईल के भाई कौन हैं ख़ुद बनी-इस्राईल या बनी-इस्माईल अगर थोड़ी सी मेहनत करते तो ये अक़्दह (मुश्किल बात) हल हो जाता और बग़ल में लड़का होते हुए शहर में ढंढोरा ना पिटवाते। देखे ख़ुरूज 2:11 में यूं लिखा है, “और इन दिनों में यूं हुआ कि जब मूसा बड़ा हुआ तो अपने भाईयों के पास बाहर गया और उनकी मशक़्क़तों को देखा।” अब देखिए जनाब बनी-इस्राईल बनी-इस्राईल के भाई हैं। क्योंकि मूसा ने बनी-इस्माईल की मशक़्क़तों को नहीं देखा बल्कि अपने भाईयों बनी इस्राईल की। पस अगर मूसा बनी-इस्राईल का भाई है तो यूं ख़ुद बनी-इस्राईल बनी-इस्राईल के भाई ना होंगे इस में तो दलील की हाजत (ज़रूरत) भी नहीं कभी आपने सुना होगा कि गंगा मदार का साथ नहीं हो सकता।

दुवम : क़ुरआन से भी साबित नहीं होता कि बनी-इस्माईल बनी-इस्राईल के भाई हैं कि आपकी पेश कर्दा आयत के नज़्दीक के नाते वाले फ़िक़्रह से अगर कुछ साबित हो तो सिर्फ इस क़द्र कि मुहम्मद के ख़ुद भाई भतीजे नज़्दीक नाते वाले हैं। और बाक़ी अरबी दौर के जैसा कि यहां हिन्दुस्तान में भी नाते वालों की दो क़िस्में होती हैं। एक ख़ानदानी। दुवम बर्दारी। पर ग़ैर-बिरादरी तो किसी तरह नज़्दीक नाते वाले नहीं हो सकते। चह जाये कि बनी-इस्राईल। पस इस से भी साबित हुआ कि अरबी इब्रानियों के नज़्दीक नाते वाले हैं। या बिरादरी। दूसरी आयत में वही दावा है जो मौलवी साहब का है लेकिन ना मौलवी साहब के दावे के लिए कोई दलील है और ना उनके ख़ुद के दावा के वास्ते कोई हुज्जत (बह्स) मालूम नहीं कि मुसन्निफ़ क़ुरआन ने किस मन्तिक़ (दलील) से अबराहाम को अरबों का बाप क़रार दिया जब कि किसी तवारीख़ से भी साबित नहीं। तीसरी आयत में जो कुछ मज़्मून है इस की बाबत भी साबित नहीं होता कि इस से क्या मुराद है ग़रज़ कि ये बाइबल से ना क़ुरआन से ना तवारीख़ से मौलवी साहब के दावा ला ताइल को तक़वियत पहुँचती है कि बनी-इस्राईल के भाई अरबी हैं।

सो : वो नबी मुझसा होगा तश्बीह महल ताम्मुल है कि किस अम्र में मूसा सा होगा यानी मौलवी साहब को मालूम नहीं कि लफ़्ज़ “सा” के क्या मअनी हैं तो भी   کس بشنودیا نشنود  من  گفتگو   ئے سیکنم   मुहम्मद साहब को मूसा सा साबित करने को कम से कम 3, आयतें क़ुरआनी लिख ही दीं ये अजीब जुर्आत है।

چہ  دلا درست   وزدے   کہ بکف  چراغ  دارد ۔

अब इन आयतों को सुनीए। पहली आयत, हमने भेजा तुम्हारी तरफ़ रसूल बताने वाला तुम्हारा जैसा भेजा फ़िरऔन के पास

दूसरी आयत, तू कह भला देखो तो अगर ये हुआ अल्लाह के यहां से और तुमने स को नहीं माना और गवाही दे चुका एक गवाह बनी-इस्राईल का एक ऐसी किताब की फिर वो यक़ीन लाया

तीसरी आयत, बोली  क़ौम हमारी हमने सुनी एक किताब जो उतरी है मूसा के पीछे सच्चा करती सब अगलियों को समझाती सच्चा दीन और राह सीधी

जवाब : जब ये तश्बीह महल ताम्मुल (सोचने का मौक़ा) है और अभी तक आप यक़ीनन नहीं कह सकते कि सा से क्या मुराद है तो फिर इतनी दर्द सिरी क्यों गवारा की, कि वो मुहम्मद साहब हैं ज़रा अब तकलीफ़ फ़र्मा के हमारे इस मज़्मून के सदर में तन्क़ीह (फ़ैसला) के मोटे लफ़्ज़ को जो आप ही की ख़ातिर से जली-क़लम (साफ़ क़लम) से लिखा है, मुलाहिज़ा शरीफ़ में लाए। तो यक़ीन है कि आइन्दा को बनाए फ़ासिद अला अल्फ़ासिद के फ़र्ज़ से आपको हमेशा रुस्तगारी (रिहाई, नजात) रहेगी। क्योंकि आपकी पेश कर्दा आयत अव़्वल से अगर कुछ आपको अपने दिल बहलाने के वास्ते हाथ आता है तो सिर्फ इस क़द्र कि पेश अज़ीं नेस्त। कि मुसन्निफ़ क़ुरआन मुहम्मद के अरब के पास आने को इस तरह क़रार देता है जिस तरह मूसा फ़िरऔन पास गया लेकिन अगर इस भेजे जाने की यकसानियत पर थोड़ा सा भी ताम्मुल (सोचना) किया जाये तो साफ़ ज़ाहिर होगा कि मूसा के फ़िरऔन के पास भेजे जाने और मुहम्मद साहब के अरब में मुद्दई नबुव्वत होने में इतना ही फ़र्क़ है। जितना मूसा और मुहम्मद साहब की ज़िंदगी में तौरेत ही से ज़ाहिर है कि पहले इस से कि मूसा फ़िरऔन के पास गया बनी-इस्राईल ने मूसा को रद्द किया था। देखो ख़ुरूज 2:14 वो बोला कि किस ने तुझे हम पर हाकिम या मुंसिफ़ मुक़र्रर किया आया तो चाहता है कि जिस तरह तू ने इस मिस्री को मार डाला मुझे भी मार डाले तब मूसा डरा और कहा कि यक़ीनन ये भेद फ़ाश (ज़ाहिर) हुआ। और फिर देखो आमाल 7:35 उसी को ख़ुदा ने उस फ़रिश्ते की मार्फ़त जो उसे झाड़ी में नज़र आया भेजा कि हाकिम और छुटकारा देने वाला हो। वही उन्हें निकाल लाया और ये बातें मुहम्मद में पाई नहीं जाती क्योंकि मूसा अपने भाईयों का रिहाई देने वाला था। और मुहम्मद अपने भाईयों में सिर्फ ऐसा था जैसा कि बंगाली हिन्दुओं में राजा राम मोहन राय या आजकल के हिन्दुओं में दयानंद सरस्वती जिसको अरबी में मुसलेह (इस्लाह करने वाला) और अंग्रेज़ी में रीफ़ारमर कहते हैं।

चुनान्चे ज़िंदा मिसाल सर सय्यद अहमद ख़ान साहब बाल-क़ाबह अलीगढ़ में मुहम्मदी कॉलेज के मूजिद (इजाद करने वाला, बानी) मौजूद हैं अगर इस क़ुरआनी आयत के मुताबिक़ मुहम्मद साहब मूसा की मानिंद हैं तो क्यों राजा राम मोहन राय और दया नंद सरस्वती और और सर सय्यद साहब बहादुर स्टार आफ़ इंडिया मूसा की मानिंद ना हों? ये अजीब बे इंसाफ़ी है फिर मूसा राज़ी ना था, कि वो उन के पास जिन्हों ने उसे एक-बार रद्द किया। फिर जाये मगर ख़ुदा ने उसे भेज दिया ना नबी सा बल्कि “ख़ुदा सा” और उस के भाई हारून को उसी का पैग़म्बर क़रार दिया। ख़ुरूज 4:16 वही तेरी ज़बान की जगह होगा और तू उस के लिए ख़ुदा की जगह होगा। फिर ख़ुरूज 7:1 में यूं है कि फिर ख़ुदावन्द ने मूसा से कहा, कि देख मैंने तुझे फ़िरऔन के लिए ख़ुदा सा बनाया और तेरा भाई हारून तेरा पैग़म्बर जनाब मौलवी साहब ज़रा संजीदगी के साथ इन मुक़ामात-ए-कलाम-ए-इलाही को पढ़ीए किसी जाहिल के कहने से यूं ना कह उठे कि ख़ुदा का कलाम मुहर्रिफ़ (तब्दील) हो गया तौबा तौबा अब तक बनी-इस्राईल में मूसा की मानिंद कोई नबी नहीं उठा जिससे ख़ुदावन्द आमने सामने आश्नाई (मुलाक़ात, मुहब्बत) करता। इस्तिस्ना 34:10 उन से सब निशानीयों और अजाइब ग़राईब की बाबत जिनके करने के लिए फ़िरऔन और उस के सब खादिमों और उस की सारी सर-ज़मीन के सामने ख़ुदावन्द ने उसे मिस्र की ज़मीन में भेजा था। इस्तिस्ना 34:11 और उस क़वी हाथ और बड़ी हैबत के सब कामों की बाबत जो मूसा ने तमाम बनी-इस्राईल के आगे कर दिखाए। इस्तिस्ना 34:12 जनाब ये वही मूसा है जिसने बनी-इस्राईल से कहा कि “ख़ुदावन्द जो तुम्हारा ख़ुदा है तुम्हारे भाईयों में से तुम्हारे लिए मुझसा एक नबी ज़ाहिर करेगा उस की सुनो।” आमाल 7:37 जब मूसा ऐसा आला मुक़ाम शख़्स है तो हमको लाज़िम नहीं कि हर एक धनीए जुलाहे, कनजड़े क़साई, माली, धोबी, को इस मानिंद कह उठें। सच्चे दिल से तौबा कीजिए आपके यहां भी मूसा का कलिमा यूं पढ़ा जाता है, कि (ला इलाहा इल्लाह मूसा कलीम-उल-लाह) अब चूँकि पहला सिलसिला यहां पर ख़त्म होता है तो पेश्तर इस के कि हम दूसरा सिलसिला हिलादें इतना कह कर मज़्मून को ख़त्म करते हैं, कि आइन्दा से ये कलिमा पढ़े कि (ला इलाहा इल्लाह ईसा कलाम-उल्लाह)

मुक़द्दस तस्लीस

और बेशक यही दोनों बातें मसीही मज़्हब की ख़ास व ज़रूरी बातें, बल्कि आला उसूल हैं। जिन पर इन्सान की नजात का दारो मदार है। और चूँकि वो इसरारे इलाही हैं। इसलिए उनका पूरे तौर पर समझ में आना भी दायरा महदूद अक़्ल-ए-इंसानी से बिल्कुल बाहर और नामुम्किन अम्र है। जब कि हम इन्सान अपनी ही माहीयत (हक़ीक़त को पूरे तौर पर समझने

Holy Trinity

मुक़द्दस तस्लीस

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan July 15, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 15 जुलाई 1895 ई॰

ये अम्र तो पोशीदा (छिपा हुआ) नहीं है, कि मुहम्मदी साहिबान हम मसीहियों से गुफ़्तगु व बह्स के वक़्त ज़्यादा तर इन्हीं दो बातों यानी :-

अव़्वल : मसअला पाक तस्लीस और

दोम : उलूहियत ख़ुदावन्द येसू मसीह पर अक्सर तकरार किया करते हैं।

और बेशक यही दोनों बातें मसीही मज़्हब की ख़ास व ज़रूरी बातें, बल्कि आला उसूल हैं। जिन पर इन्सान की नजात का दारो मदार है। और चूँकि वो इसरारे इलाही हैं। इसलिए उनका पूरे तौर पर समझ में आना भी दायरा महदूद अक़्ल-ए-इंसानी से बिल्कुल बाहर और नामुम्किन अम्र है। जब कि हम इन्सान अपनी ही माहीयत (हक़ीक़त को पूरे तौर पर समझने में क़ासिर (मजबूर, आजिज़) हैं। तो उस क़ादिर ख़ालिक़, ला-इंतिहा व लामहदूद ख़ुदा की माहीयत (असलियत) को भला क्योंकर समझ सकते हैं। तो भी जहां तक या जिस क़द्र ख़ुदा ने अपने पाक कलाम में इनकी बाबत हमारी ताअलीम के लिए ज़ाहिर कर दिया। अक्सर उलमा मसीही ने इस को अपनी तसानीफ़ (तहरीर की हुई किताबें) में साफ़ व सरीह (वाज़ेह) तौर पर बयान भी कर दिया है। जो चाहे उनका मुतालआ कर के मालूम कर सकता और तसल्ली पा सकता है।

मगर मुसन्निफ़ क़ुरआन ने जिस तस्लीस का तस्लीस इलाही ख़याल कर के इन्कार किया। हम मसीही भी उस के मुन्किर (इन्कार करने वाले) हैं। बल्कि इस को कुफ्र (बेदीनी, ख़ुदा को ना मानना, नाशुक्री) समझते हैं। चुनान्चे क़ुरआन में मज़्कूर है, ऐ ईसा बेटे मर्यम के क्या तू ने कहा था लोगों को कि पकड़ो मुझको और माँ मेरी को “माबूद सिवाए अल्लाह के” सूरह अल-मायदा रुकूअ 16

वाह क़ुरआनी ख़ुदा की आलिम-उल-ग़ैबी जिसको इस क़द्र भी ख़बर नहीं कि किस इन्जील में ईसा ने ये कहा, किस में नहीं। सरीह बोहतान (वाज़ेह इल्ज़ाम) है। सिर्फ रोमन कैथोलिक ईसाईयों को मर्यम की ज़्यादातर ताज़ीम (इज़्ज़त) करते हुए देखकर मुसन्निफ़ क़ुरआन ने मर्यम को तस्लीस अक़्दस का उक़नूम सालिस (तीसरा) क़रार दे दिया। और जिनकी इब्ताल (झूट) में दलील (गवाही) भी फ़ौरन पेश कर दी कि “ईसा और मर्यम दोनों खाना खाया करते थे।” देखो कैसी उम्दा दलीलें इन दोनों के इब्ताले उलूहियत पर बयान करते हैं। पर देखो वो नहीं मानते।” सूरह ईज़न (ऊपर वाली) रुकूअ 10

सुब्हान-अल्लाह बहुत-बहुत उम्दा दलीलें हैं। मगर मानें क्योंकर मर्यम तो इन्सान थी। जिसको कभी किसी ईसाई ने आज तक पाक तस्लीस का उक़नूम सालिस क़रार नहीं दिया। मगर हाँ ख़ुदावन्द येसू मसीह इन्जीले मुक़द्दस के मुवाफ़िक़ कामिल ख़ुदा और कामिल इन्सान दोनों ज़ाहिर है। (फिलिप्पियों 2:5-11 तीमुथियुस 3:16 व कुलस्सियों 2:9) जिसको उलूहियत की दलीलों से उलूहियत का सबूत और इन्सानियत के कामों से इन्सानियत का सबूत है। मगर खाना खाना अगर ख़ुदा के नज़्दीक नापसंद व मकरूह है तो ताज्जुब है कि बक़ौल मुहम्मदियों ख़ुदावन्द येसू मसीह का वही खाना खाने वाला जिस्म क्योंकर ख़ुदा के पास आस्मान पर ज़िंदा चला गया? ज़रूर तो ये था कि उस की उलूहियत की दलीलों को रद्द कर के उस का इब्ताल (गलत साबित करना) ज़ाहिर करते। मगर ये नामुम्किन अम्र था क्योंकर हो सकता। चुनान्चे कलाम-ए-मुक़द्दस बाइबल के मुवाफ़िक़ उस की उलूहियत (ख़ुदाई) की दलीलों में से बाअज़ ये हैं :-

1. नबुव्वत का कलाम। यसअयाह 9:6, यर्मियाह 23:6 मीकाह 5:2-6

2. ख़ुदा बाप की गवाही। मत्ती 3:17, 17:5

3. यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की गवाही। यूहन्ना 1:15-27

4. ख़ुद मसीह का क़ौल। यूहन्ना 8:42,58, 14:11,16 17:5

5. उस का ज़िंदा होना। मत्ती 28:5-8

6. रसूलों की गवाही। यूहन्ना 1:14 रोमीयों 1:3-4

7. रूह-उल-क़ुद्स की गवाही। (बमूजब क़ौल मसीह, यूहन्ना 16:13-14) 1 कुरिन्थियों 12:3)

मासिवा इनके क़ुरआन में भी दर्ज है, कि ईसा बेटा मर्यम का रसूल अल्लाह का है और कलमा है उस का डाल दिया उस को तरफ़ मर्यम के और रूह है उस की तरफ़ से अलीख। सूरह अल-निसा रुकूअ 23

(भला क्या ये अजीब ख़िताब किसी और नबी की तरफ़ भी मन्सूब हुए? हरगिज़ नहीं)

पस ज़ाहिर है कि मुसन्निफ़ क़ुरआन ने मर्यम को पाक तस्लीस का उक़नूम सालिस ख़याल किया। जिस पर कुल मुफ़स्सिर क़ुरआन (तफ़्सीर करने वाले) भी मुत्तफ़िक़ हैं। कि मुहम्मद साहब ज़रूर मर्यम को तस्लीस का उक़नूम सालिस समझते थे। जिसको हम मसीही भी कुफ़्र समझते हैं। मगर बाअज़ मुहम्मदी साहिबान ने मसीह और रूह-उल-क़ुद्स का जो इन्कार किया। वो पीछे का ख़याल है, जो उन्होंने ईसाईयों से सुना है।

इलावा इस के आयत क़ुरआनी मज़्कूर बाला के आख़िर में जो ये अल्फ़ाज़ मज़्कूर हुए कि “मत कहो तीन ख़ुदा हैं” सरीह बोहतान (साफ़ झूट) है क्योंकि ईसाईयों के अक़ीदे में तीन ख़ुदा कहना या मानना बिल्कुल कुफ़्र है। बल्कि वो सिर्फ एक वाहिद ख़ुदा के क़ाइल हैं। (इस्तिस्ना 6:4, रोमीयों 16:27, 1 तमीथीसि 1:17, यहूदाह 1:25) मगर एक ख़ुदा में अक़ानीम सलासा यानी अब्ब, इब्न और रूह-उल-क़ुद्स (बाप, बेटा और रूह-उल-क़ुद्स) के भी क़ाइल हैं। जिनसे तीन ख़ुदा लाज़िम हरगिज़ नहीं आते। बल्कि तीन उसूल जो फ़िल-हक़ीक़त शख़्सियत में अलग अलग मगर ज़ात व सिफ़ात और जलाल में वाहिद (मत्ती 28:19, 1 कुरिन्थियों 13:14) उस इलाही अज़ली व हक़ीक़ी वहदानियत में जो सर इलाही है। कलाम इलाही के मुवाफ़िक़ क़ुबूल करना मुनाफ़ी (खिलाफ) उस वहदत (एक होना, यकताई) के नहीं जो अल्लाह की वहदत है। मगर हाँ वहदत मुजर्रिद (तन्हा) या उस वहदत के ज़रूर ख़िलाफ़ है जो अक़्ली वहदत है। क्योंकि अल्लाह की वहदत में अक़्ली वहदत का क़ाइल होना ही कुफ़्र है। जिसके इक़रार व ईमान से मुतलक़ कोई फ़ायदा नहीं है। (याक़ूब 2:19) क्योंकि ख़ुदा की वहदत वो वहदत है जो क़ियास व गुमान इन्सानी (समझ इन्सानी) से बालातर है। उस में ना वहदत वजूद हे ना अक़्ली ना वहदत अददी है। बल्कि वो ग़ैर मुद्रिक (ना समझने वाला।) है जो मुतशाबिहात (जिस तरह क़ुरआन शरीफ़ की वो आयतें जिनके मअनी सिवाए ख़ुदा तआला के कोई नहीं जानता। जिनके एक से ज़्यादा मअनी हो सकते हैं) में से है। जिसका मतलब आज तक कोई नहीं समझ सका। और ना इन्सान की ताक़त है कि उस को समझ सके।

पस इस तस्लीस-ए-इलाही को क़ुबूल करना कलाम-उल्लाह के मुवाफ़िक़ हर इन्सान का फ़र्ज़-ए-ऐन (दुरुस्त, हक़ीक़त) है। मगर वो सिर्फ़ ईमान ही के ज़रीये क़ुबूल की जाती है। क्योंकि “नफ़्सानी आदमी ख़ुदा की रूह की बातें क़ुबूल नहीं करता, कि वो उस के आगे बेवकूफियां हैं और ना उन्हें जान सकता। क्योंकि वो रुहानी तौर पर बूझी जाती हैं।” (1 कुरिन्थियों 2:15)

पस इसलिए हर फ़र्द बशर पर कमाल ज़रूरी है कि इन बातों पर दिल की ग़रीबी से गौर व फ़िक्र कर के उस के ख़ालिस व पाक कलाम की सच्चाई व रास्ती का ख़्वाहां हो। ताकि वो रोज़े अदालत सुर्ख़रु हो कि ख़ुदा के हुज़ूर हमेशा की अबदी व लासानी ख़ुशी को हासिल करे।

नबी का फ़र्मान, “आओ कहो जिएँ और अपनी राहों को जांचें और ख़ुदावन्द की तरफ़ फिरें।” यर्मियाह का नोहा 13:4

रसूल पौलुस का क़ौल “सारी बातों को आज़माओ। बेहतर को इख़्तियार करो” 1 थिस्सलुनीकियों 5:21

मूसा व येसू की मुवाफ़िक़त

कलाम पाक से करे तमीज़ (फ़र्क़) मूसा येसू मसीह का बहुत ही साफ़-साफ़ और खुला हुआ निशान था। चुनान्चे उसने ख़ुद बनी-इस्राईल के सामने अपने को ख़ुदावन्द येसू मसीह से निस्बत दी। जैसा कि इस्तिस्ना 18:15 में मर्क़ूम है। ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी बरपा करेगा। तुम उस की तरफ़ कान लगाओ।

Similarities between Moses and Jesus Christ

मूसा व येसू की मुवाफ़िक़त

By

Rev. Perm Sukh
पादरी परम सुख

Published in Nur-i-Afshan July 19, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 19 जुलाई 1895 ई॰

मसीह है मिस्ल मूसा ऐ अज़ीज़ !

कलाम पाक से करे तमीज़ (फ़र्क़) मूसा येसू मसीह का बहुत ही साफ़-साफ़ और खुला हुआ निशान था। चुनान्चे उसने ख़ुद बनी-इस्राईल के सामने अपने को ख़ुदावन्द येसू मसीह से निस्बत दी। जैसा कि इस्तिस्ना 18:15 में मर्क़ूम है। ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी बरपा करेगा। तुम उस की तरफ़ कान लगाओ। ये नबुव्वत येसू मसीह के आने की है।

अव़्वल

ये कि येसू मसीह और मूसा की पैदाइश की हालत में बहुत मुवाफ़िक़त (एक जैसा होना) है कि मूसा बनी-इस्राईल में से पैदा हुआ। और मसीह भी इसी ख़ानदान से पैदा हुआ फिर मूसा की पैदाइश के वक़्त ये घराना बहुत पस्त हाल (ग़रीब) था। सो येसू की पैदाइश के वक़्त में भी ये ख़ानदान पस्त हालत में था। फिर मूसा की पैदाइश के वक़्त में बादशाह मिस्र ने औलाद-ए-बनी-इस्राईल को वक़्त-ए-विलादत दाइयों को मार डालने का हुक्म दिया था। वैसा ही यहूदिया के बादशाह हेरोदेस ने भी वक़्त-ए-पैदाइश मसीह के सारे बैत लहम के छोटे-छोटे लड़कों की हलाकत का हुक्म दिया था। और जिस तरह ख़ुदा ने फ़िरऔन के सख़्त हुक्म क़त्ल से मूसा को बचा लिया। उसी तरह हेरोदेस के सख़्त हुक्म से मसीह को महफ़ूज़ रखा।

दुवम

दोनों ने यानी मूसा और मसीह ने मह्ज़ अपनी ख़ुशी और मर्ज़ी से अपने तईं पस्त और नीच (कमतर) किया। मूसा मुल्क-ए-मिस्र की सल्तनत का वारिस था। पर ख़ुदा के लोगों को बचाने को अपनी इस बड़ी इज़्ज़त और हश्मत को पसंद ना किया। बल्कि उनके दुख और दर्द में शरीक होने को ख़ुश इज़्ज़त पर फ़ौक़ियत (बरतरी) दी। जैसा कि लिखा है, ईमान से मूसा ने सियाना (समझदार) हो के फ़िरऔन की बेटी का बेटा कहलाने से इन्कार किया। कि उसने ख़ुदा के लोगों के साथ दुख उठाना इस से ज़्यादा पसंद किया कि गुनाह के सुख को जो चंद रोज़ा है हासिल करे मसीही लान तअन को मिस्र के ख़ज़ाने से बड़ी दौलत जाना। इब्रानियों 11:24, 25 सो ऐसा ही मसीह ने भी उस ख़ुशी के लिए जो उस के सामने थी शर्मिंदगी को नाचीज़ जान के सलीब को सहा और ख़ुदा के तख़्त के दाहने जा बैठा। इब्रानियों 12:2

सोइम

दोनों ने (मसीह व मूसा) ग़ुलाम और असीरों (क़ैदियों) और मुसीबत में पड़े हुओं को उनकी गु़लामी और मुसीबत से निकाला। मूसा ने बनी-इस्राईल को फ़िरऔन के क़ब्ज़े और मिस्र की गु़लामी से छुड़ाया येसू मसीह ने अपने लोगों को शैतान की गु़लामी और गुनाह की असीरी से बचाया।

चहारुम

दोनों ने लोगों पर ख़ुदा की मर्ज़ी और शरीअत ज़ाहिर की मूसा ने नजात की राह आमालों के वसीले बतलाई और मसीह ने फ़ज़्ल के वसीले नजात की राह दिखलाई। जैसा कि कलाम-ए-इलाही ख़बर देता है। क्योंकि शरीअत मूसा की मार्फ़त दी गई मगर फ़ज़्ल और सच्चाई येसू मसीह से पहुंची। यूहन्ना 1:17

पंजुम

दोनों ने ख़ुदा और इन्सान के दर्मियानी और कहानत का काम किया।

शश्म

मूसा ने बहुत मोअजिज़े दिखाए मसीह ने भी तरह-तरह के मोअजिज़े दिखाए।

हफ़्तुम

मूसा दरिया-ए-क़ुलज़ुम पर सूखी ज़मीन से हो कर पार निकल गया मसीह समुंद्र पर पाँव पाँव चला।

हश्तम

मिस्र से निकलने के बाद पचासीवां दिन ख़ुदा ने मूसा के वसीले कोह-ए-सिना पर दस अहकाम बड़े जलाल के साथ दीए। वो वैसा ही मसीह ने आस्मान पर जाने के बाद पचासवें यानी पंतीकोस्त के दिन पाक रूह अपने शागिर्दों को इनायत की और वो तरह तरह की ज़बानें बोलने लगे। आमाल 2:4

नह्म

ख़ुदा से मूसा ने रूबरू बातें कीं उसी तरह मसीह येसू ने ख़ुदा से बातें कीं।

दहुम

मूसा ने चालीस दिन रोज़ा रखा इसी तरह मसीह ने भी चालीस दिन रोज़ा रखा।

याज़-दहु

दोनों ने ख़ुदा की तरफ़ से लोगों के लिए तरह-तरह की बेशक़ीमत नेअमतें और बरकतें हासिल कीं। चुनान्चे मूसा ने बनी-इस्राईल के लिए ब्याबान में ख़ुराक और जो कुछ दरकार था। ख़ुदा से सिफ़ारिश कर के हासिल किया। इसी तरह येसू मसीह ने अपने लोगों के लिए तरह-तरह की रुहानी बरकतें और नेअमतें हासिल कीं।

दवाज़दहुम

दोनों ने औरों की भलाई के लिए मेहनत और दुख उठाया मूसा ने बनी-इस्राईल के लिए अपनी बेइज़्ज़ती इख़्तियार की और लोगों का लान तअन सुना। और येसू मसीह ने सारे गुनेहगार इन्सानों के लिए दुख उठाया।

सेज़दहुम

दोनों ने इस नाहक़ नाशुक्रों से जिनके लिए बड़े-बड़े दुख उठाए एहसानमंदी ना देखी। बनी-इस्राईल ने अक्सर मूसा की बात ना सुनी। और उस की हुकूमत से नाराज़ हो कर उस से सरकशी करने और अलग होने पर हुए और अक्सर उस की शिकायत करने और कुड़ कुढ़ाने और अपनी तक़्लीफों को जो उनके गुनाह के बाइस थीं उस को क़सूरवार ठहराते थे। और इसी क़द्र यहूदीयों की आदत मसीह के साथ थी कि उन्होंने ख़ूनी को उस से यानी मसीह से ज़्यादा अज़ीज़ रखा और पसंद किया वो अपनों के पास आया अपनों ने क़ुबूल ना किया फ़क़त।

अपनी तक़्लीफों पर ग़ौर करो

मज़्मून हज़ा इरसाल-ए-ख़िदमत है। उम्मीद वासिक़ (मज़्बूत, पक्का यक़ीन) है कि अपने अख़्बार गो हर बार के किसी गोशा (हिस्सा, कोना) में दर्ज फ़र्मा कर राक़िम को ममनून व मशकूर (एहसानमंद व शुक्रगुज़ार) फ़रमाएँगे।

Look at you sufferings

अपनी तक़्लीफों पर ग़ौर करो

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan July 15, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 15 जुलाई 1895 ई॰

जनाब एडीटर साहब

तस्लीम

मज़्मून हज़ा इरसाल-ए-ख़िदमत है। उम्मीद वासिक़ (मज़्बूत, पक्का यक़ीन) है कि अपने अख़्बार गो हर बार के किसी गोशा (हिस्सा, कोना) में दर्ज फ़र्मा कर राक़िम को ममनून व मशकूर (एहसानमंद व शुक्रगुज़ार) फ़रमाएँगे।

यूनान की तवारीख़ में एक सिपाही का ज़िक्र है। जो कि एंटी गोंस बादशाह की फ़ौज में भर्ती था। उस के बदन में शिद्दत से दर्द रहता था। जिसके बाइस वो निहायत बेचैन और बेक़रार था। जंग के वक़्त वही सिपाही सब सिपाहीयों से ज़्यादा दिलेरी से लड़ता और बेधड़क दुश्मनों पर हर्बा (दाओ, हमला) करता था। उस का दर्द उस को लड़ाता था क्योंकि जब तक वो सख़्त जंग में मसरूफ़ रहता था। अपने दर्द को भूला रहता था। ये भी उस का ख़याल था, कि ख़्वाह दर्द से ख़्वाह दुश्मन की गोली से उस की मौत क़रीब है।

पस अपनी ज़िंदगी को हीच (कमतर) समझ कर बे-ख़ौफ़ मैदान-ए-जंग में अपने दुश्मनों से मुक़ाबला करता था। एंटी गोंस बादशाह ने उसी सिपाही की बहादुरीयां देखकर उस की क़द्र की और उस का हाल व चाल दर्याफ़्त किया। और जब मालूम हुआ कि वो दर्द में मुब्तला रहता है तो उस को एक होशियार हकीम के सपुर्द किया। ताकि उस का ईलाज किया जाये। बादशाह ने कहा कि ऐसे अच्छे सिपाही को दर्द से रिहा होना चाहिए क्योंकि जब वो दर्द से रिहाई पाएगा तो और भी ज़्यादा कार्रवाई करेगा। पस हकीम ने इस सिपाही का ईलाज किया और उस का दर्द जाता रहा। लेकिन जब वो अच्छा हो गया तो उस की दिलेरी और सिपाही गिरी में फ़र्क़ आ गया। वो अपने आराम की तरफ़ रुजू हुआ। उसने अपने साथीयों से कहा, कि अब मैं क्यों अपनी जान को मैदान-ए-जंग के ख़तरों में डालूं? अब क्यों अपनी ज़िंदगी को खोऊं जब कि तंदरुस्ती, आराम और ख़ुशीयां हैं।

ऐ नाज़रीन मज़्कूर बयान से ज़ेल की नसीहतें हासिल होती हैं जिन पर आपकी तवज्जोह मबज़ूल (तवज्जोह दिलाना) कराना चाहता हूँ।

1. बाअज़ दफ़ाअ ख़ुदा तक़्लीफों के ज़रीये हमको अपने नज़्दीक बुलाता है। तक्लीफ़ व मुसीबत के वक़्त ही ज़्यादा ख़ुदा की तरफ़ देखते, उस पर भरोसा रखते और दिल से उस की ख़िदमत करते हैं।

2. जैसे पानी के सेलाब ने नूह की कश्ती का नुक़्सान ना किया उस को ऊपर उठाया गोया आस्मान के नज़्दीक पहुंचाया वैसे ही मुसीबतें ख़ुदा परस्तों को ऊपर की जानिब उठातीं और ख़ुदा के नज़्दीक पहुंचाती हैं।

3. बाअज़ क़िस्म के पौदे ऐसे होते हैं कि जितना ज़्यादा उन को कुचलो उतना ही ज़्यादा ख़ुशबू देते हैं। यूँही ईमानदार जितना ज़्यादा मुसीबतों से कुचला जाता है उतना ही ज़्यादा ख़ुशबू देता है।

4. दुख हमारे दिल को दुनिया से हटाता और आस्मान के अबदी आराम की तरफ़ रुजू कराता है। रूह अपने बाज़ुओं को फैलाती और आस्मान को उड़ जाने के लिए मुश्ताक़ (ख़्वाहिशमंद) होती है।

5. अक्सर तंदरुस्ती व आराम व ख़ुशीयों के वक़्त दुनिया दिल में घुसी आती है। आदमी दुनिया और उस की चीज़ों के लिए जीता और पैरवी करता और ख़ुदा और उस की चीज़ें दिल से दूर हो जाती हैं। पस ख़ुदा जो कुछ हमारे लिए करता इस में उस की मस्लिहत (नेक सलाह) और हमारी बेहतरी है। लिहाज़ा मज़मूर नवीस के साथ हम-आवाज़ हो कर यूं कहें, कि “भला हुआ कि मैंने दुख पाया ता कि तेरे हुक्मों को सीखूं।” ज़बूर 110:71 आयत

सच्ची दोस्ती

सच्ची दोस्ती का एक बड़ा ख़ास्सा ये है, कि जब कोई अपने दोस्त की निस्बत कोई नामुनासिब बात उस की ग़ैर-हाज़िरी में सुने तो इस मौक़े पर वफ़ादारी ज़ाहिर करे। अक्सर देखा जाता है, कि इन्सान इस क़द्र अपनी तारीक दिली और कमज़ोरी ज़ाहिर करता है, कि अपने ही दोस्तों की निस्बत जिनकी दोस्ती का वो दम भरता है बुरी और

True Friendship

सच्ची दोस्ती

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan August 2, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 2 अगस्त 1895 ई॰

सच्ची दोस्ती का एक बड़ा ख़ास्सा ये है, कि जब कोई अपने दोस्त की निस्बत कोई नामुनासिब बात उस की ग़ैर-हाज़िरी में सुने तो इस मौक़े पर वफ़ादारी ज़ाहिर करे। अक्सर देखा जाता है, कि इन्सान इस क़द्र अपनी तारीक दिली और कमज़ोरी ज़ाहिर करता है, कि अपने ही दोस्तों की निस्बत जिनकी दोस्ती का वो दम भरता है बुरी और नामुनासिब ख़बरें सुन कर राज़ी होता है। क्या ये रोज़ मर्रा की बात नहीं है कि इन्सान का नेचर जब औरों के क़ुसूरों ग़लतीयों या कमियों को दिल लगा कर सुनता है। सुनने से ख़ुश होता है। कम-अज़-कम हमको इस क़द्र तो इक़रार करना पड़ेगा, कि इस तरफ़ इन्सान का बड़ा मीलान (रुझान) है। लेकिन हमको मुनासिब है कि हम दुनिया में मुहब्बत का ऐसा नमूना दिखला दें। जो ऐसी बुरी बातों को सुनकर जो इस को ज़रर (नुक़्सान) पहुंचाती हैं। या उस के नुक़्स और कमियों को ज़ाहिर करती हैं। ख़ुश हूँ हम पर वाजिब (फ़र्ज़) है कि इस से हमारे दिल में रंज (अफ़्सोस) हो।

मसीही मुहब्बत का ये तक़ाज़ा है कि हम अपने दोस्त के चाल चलन के बचाओ में इस क़द्र सरगर्मी ज़ाहिर करें। जैसा कि हम अपनी ख़ातिर किया करते हैं। हम सच-मुच अपने भाई के रखवाले हैं। पौलुस रसूल क्या ही मुहब्बत की तारीफ़ करता है मुहब्बत साबिर है और मुलायम है। मुहब्बत डाह (हसद) नहीं करती, मुहब्बत शेख़ी नहीं मारती। और फूलती नहीं बेमौक़ा काम नहीं करती। ख़ुद-ग़र्ज़ नहीं ग़ुस्सा व रुनाएं बदगुमान (बदज़न, शक्की) नहीं। नारास्ती से ख़ुश नहीं बल्कि रास्ती से ख़ुश है। सब बातों को पी जाती है सब कुछ बावर (यक़ीन) करती है सब चीज़ की उम्मीद रखती है सबकी बर्दाश्त करती है।” अलीख। अगर ये मुहब्बत हमारे दिल में हो और हम इस पर अमल करें तो ग़ौर कीजिए और सोचिए कि किस क़द्र नाइत्तिफ़ाक़ी और आपस का रंज और जुदाईयां और झगड़े और बद इंतिज़ामीयाँ हमारी सोसाइटी हमारी कमवेंटी हमारे मुल्क से जाते रहेंगे और किस क़द्र चेन और आराम और मिलन-सारी और दिली इत्मीनान हम हासिल करेंगे और किस क़द्र ख़ुशी और तसल्ली हमारा बख़रा (हिस्सा) होगी।

नाज़रीन नूर-अफ़्शां को याद होगा कि दो हफ्ते गुज़रे कि हमने एक ख़त का तर्जुमा जो अमरीका के 22 बोर्ड की जानिब से उनकी मुताल्लिक़ा कलीसियाओं के नाम सेल्फ सप्रोट के बारे में ही दर्ज अख़्बार किया था हमारी ग़र्ज़ इस के इंदिराज से ये थी कि हमारे अहले अल-राए मसीही नाज़रीन इस अम्र पर ग़ौर कर के इस मुआमले में अपनी आज़ाद राय दें हमारे ख़याल में ये अम्र हिन्दुस्तान के मसीहियों के लिए बड़ा गौरतलब अम्र है और जिस क़द्र जल्द हो सके अगर हिंद के मसीही इस को अमली तौर पर हल करें तो निहायत ही मुनासिब होगा। हम जानते हैं कि अमली तरीक़े और अमली तदाबीर पेश की जाएं ता कि इस पर अमल-दर-आमद होने लगे।

ज़बूर 119:37

इस आलम में जिधर नज़र डालो आँख के लिए एक दिलकश नज़ारा दिखलाई देता है। इस दुनिया की हर एक शैय इन्सान की नज़र में पसंदीदा मालूम होती है। और इंसान के दिल को फ़रेफ़्ता (आशिक़, दिलदादा) कर देती है। अगरचे ख़ल्क़त की किसी चीज़ को पायदारी नहीं। और जिस शैय को आँख देखकर एक वक़्त हज़ (लुत्फ़, ख़ुशी) उठाती थी वो दम-भर में बिगड़ कर ऐसी बद-शक्ल और घिनौनी

Psalm 119:37

ज़बूर 119:37

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Allama G L Thakurdas
अल्लामा जी एल ठाकुरदास

Published in Nur-i-Afshan April 12, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 12 अप्रैल 1895 ई॰

मेरी आँखों को फेर दे कि बुतलान (झूट, नाहक़) पर नज़र ना करें। (ज़बूर 119:37)

इस आलम में जिधर नज़र डालो आँख के लिए एक दिलकश नज़ारा दिखलाई देता है। इस दुनिया की हर एक शैय इन्सान की नज़र में पसंदीदा मालूम होती है। और इंसान के दिल को फ़रेफ़्ता (आशिक़, दिलदादा) कर देती है। अगरचे ख़ल्क़त की किसी चीज़ को पायदारी नहीं। और जिस शैय को आँख देखकर एक वक़्त हज़ (लुत्फ़, ख़ुशी) उठाती थी वो दम-भर में बिगड़ कर ऐसी बद-शक्ल और घिनौनी (गहन लगना, रौनक कम होना) हो जाती है कि आँख उस के देखने से बे-ज़ार (अफ़्सुर्दा, नाख़ुश) हो जाती है।

लेकिन मौजूदा हालत में कुछ वक़्त के लिए तो इन्सान अश्या की ज़ाहिरा रौनक और ख़ूबसूरती को देखकर ग़लतां व पेचां (परेशान) हो जाता है। और अपने ख़ालिक़ व मालिक और दीन व उक़बी को बिल्कुल भूल जाता है। और इस तरह पर इस दुनिया की लुभाने वाली चीज़ों पर अपना दिल लगा कर अपनी क़लील (छोटी, कम) ज़िंदगी को ख़तरे में डालता है।

बड़े आलिम और दाना सुलेमान ने जिसका सानी (हम-पल्ला) दुनिया में नहीं हुआ अपना तजुर्बा यूं ज़ाहिर किया है, कि सब कुछ जो मेरी आँखें चाहती हैं मैंने उनसे बाज़ नहीं रखा। मैंने अपने दिल को किसी तरह की ख़ुशी से नहीं रोका क्योंकि मेरा दिल मेरी सारी मुहब्बत से शादमान हुआ। और मेरी सारी मेहनत से मेरा बख़राह (हिस्सा, टुकड़ा) ये ही था। बाद इस के मैंने उन सब कामों पर जो मेरे हाथों ने किए थे। और उस मेहनत पर जो मैंने काम करने में खींची थी नज़र की और देखा कि सब बुतलान (झूट) और हवा की चिरान (निहायत तेज़ चलना) है और आस्मान के तले कुछ फ़ायदा नहीं। (वाइज़ 2:10-11) इसी तजुर्बा पर उस का ये मक़ूला (क़ौल, बात) क़ायम हुआ बुतलानों की बुतलान वाइज़ कहता है। सब बुतलान हैं। वाइज़ 12:8

सुलेमान का तजुर्बा और मक़ूला बिल्कुल दुरुस्त है लेकिन इस दुनिया में आदम की नस्ल से कोई ऐसा इंसान पैदा नहीं हुआ जिसने दुनिया की चीज़ों को देखा और उनमें नहीं उलझा। मगर एक औरत की नस्ल से पैदा हुआ जिसने दुनिया की सारी बादशाहतें और उनकी शान व शौकत देखी लेकिन इन सब दिलफ़रेब (हसीन, ख़ूबसूरत) चीज़ों को बुतलान समझा। मत्ती 4:8, 9, 10 और इबादत इलाही को मुक़द्दम ठहराया।

आयत मुन्दरिजा सदर दाऊद की दुआ का एक फ़िक़्रह है जिसमें दाऊद बादशाह ख़ुदा की दरगाह में मुल्तमिस (अर्ज़ करने वाला) है, कि उस की आँखें फेरी जाएं ताकि वो बुतलान पर नज़र ना करे। अगरचे इन्सान की तबीयत नफ़्सानी और जिस्मानी होने के सबब से अपनी आँखों को दुनिया की बातिल (झूटी) अश्या पर ज़्यादा लगाती है या यूं कहो कि इंसान की तबीयत का मीलान (तवज्जोह, ख़्वाहिश) चीज़ों की तरफ़ ज़्यादा है मगर हो सकता है कि मदद एज़दी (ख़ुदा की तरफ़ मदद) और ताक़त इलाही पा कर इंसान की आँखें इस तरफ़ से घुमाई जाएं और आस्मानी और ग़ैर-फ़ानी चीज़ों की तरफ़ लगाई जाएं। इस के लिए निहायत ज़रूर है कि ख़ुदा से दुआ की जाये जिस तरह कि दाऊद ने की। और ख़ुदा क़ादिर है कि इस ख़राबी से इन्सान को बचाए। और उस को उन आस्मानी और रुहानी नेअमतों के ईमान की आँखों से देखने के लायक़ बनाए। जो इस दुनिया के गुज़र जाने के बाद हमेशा के लिए रहेगी। जिनकी ख़ूबसूरती और रौनक इनके मुक़ाबला में कुछ हक़ीक़त नहीं रखती।

वो ये कहता ही था कि देखो एक नूरानी बदली ने उन पर साया किया और देखो इस बादल से एक आवाज़ इस मज़्मून की आई की ये मेरा प्यारा बेटा है जिससे मैं ख़ुश हूँ। तुम उस की सुनो। मत्ती 17:5

इस नूरानी बदली (रोशन बदली) में ख़ुदा जल्वा-नुमा हुआ। क्योंकि ख़ुदा नूर है और नूर में रहता है। 1 तमीथीसि 6:16 और उस ने उन शागिर्दों पर ख़ुदावन्द येसू मसीह की क़दरो मंजिलत और इलाही आला दर्जा ज़ाहिर करने के लिए कि जिन पर मसीही मज़्हब की इशाअत और आइन्दा तरक़्क़ी बहुत कुछ मौक़िफ़ व मुन्हसिर (ठहरने की जगह) थी। अपनी आस्मानी आवाज़ से उस राज़ मख्फी (पोशीदा) व इसरार ग़ैबी (ग़ायब) और भेद अज़ली को ज़ाहिर किया। जिसका जानना बनी-इंसान के लिए ज़रूर था। क्योंकि ये कोई अक़्ली मसअला नहीं था कि जिसको इंसान अपनी अक़्ल से दर्याफ़्त कर लेता। इसलिए अगरचे इस से पेश्तर मसीह ख़ुदावन्द ने अपनी ज़बाने मुबारक से अपने आपको ख़ुदा का बेटा कहा था। लेकिन अशद ज़रूरत थी कि आलम-ए-बाला की तरफ़ से आस्मानी आवाज़ इस पर गवाही दे और बनी-आदम को यक़ीन दिलाए ता कि वो उस के मानने में ताम्मुल (शक शुब्हा) ना करें ये वाक़िया शागिर्दों के ईमान के मज़्बूत करने और उन के एतिक़ाद (यक़ीन) को क़ायम करने के लिए ज़रूर था। हम चाहते हैं कि नाज़रीन ज़रा इस पर ग़ौर करें।

मज़्मून आवाज़

ये मेरा प्यारा बेटा है जिससे मैं ख़ुश हूँ। तुम इस की सुनो। इस मज़्मून के दो हिस्से हैं :-

1. ख़ुदावन्द येसू मसीह की इलाही ज़ात को शागिर्दों पर ज़ाहिर करना कि वो ख़ुदा का प्यारा बेटा है।

2. शागिर्दों को मुतवज्जोह करना कि वो सुनें कि ख़ुदा का प्यारा बेटा उन से क्या कहता है।

पहले अम्र की निस्बत हम ये कहते हैं, कि जब से ख़ुदा ने अपने पाक कलाम में जिसको अह्दे-अतीक़ (पुराना-अहद) कहते हैं पहले ईमानदारों को अपने बेटे की ख़बर दी और मुख़्तलिफ़ किनाइयों (मतलब) और इशारों में उस की आमद का मसरदा (ख़ुशख़बरी, बशारत) दिया और फिर अपने कलाम मुक़द्दस में जिसको अह्दे-जदीद (नया-अहद) कहते हैं अपने बेटे के कुल हालात मुश्तहिर (मशहूर) करवाए उस के दुनिया में मुजस्सम हो कर आने से लेकर उस के मस्लूब होने तक के तमाम अहवाल जो बे कम व कासित (बग़ैर कमी बेशी) दर्ज हैं। तब से तमाम मसीही मोमिनों ने इस ईमानी मसअले को बिल्कुल सच्च व हक़ समझा और माना है। और आज तक ऐसा ही मानते चले आए हैं। लेकिन दुनिया के लोगों ने जितनी कि इस मसअला दकी़क़ (नाजुक, बारीक) और राज़ अमीक़ (गहिरा कामिल) से मुख़ालिफ़त की। और इस से ठोकर खाई है किसी और मसअले से नहीं खाई। बल्कि उसने गोया साबित कर दिखलाया कि ख़ुदावन्द येसू मसीह बहुत लोगों के लिए ठोकर खिलाने वाला पत्थर और ठेस दिलाने वाली चट्टान है।

मुहम्मदियों और हिंदुओं ने भी इससे ठोकर खाई जिस तरह कि यहूदीयों ने खाई थी और बहुत अब तक ठोकरें खाते-जाते हैं। लेकिन जब कि ख़ुदा ने इस बात का इज़्हार आस्मानी आवाज़ से किया है हम क्यों इस पर मुख़ालिफ़त करें। और क्यों इस आवाज़ के शुन्वा (सुनने वाले) ना हों जो साफ़-साफ़ लफ़्ज़ों में कह रही है कि मसीह ख़ुदा का प्यारा बेटा है।

लफ़्ज़ बेटा सुनकर फ़ौरन लोगों के दिल में जिस्मानी ख़यालात आ जाते और खिलाफ-ए-तहज़ीब और अक़्ल बातें कहते और बेहूदा बकवास करने पर आमादा हो जाते हैं। लेकिन ये सिर्फ़ इन्सानी अक़्ल की कमज़ोरी है। इलाही भेद में ख़ुदावन्द येसू मसीह जो ख़ुदा का बेटा कहलाता है इलाही ज़ात का दूसरा उकूनुम (जुज़) है और मुजस्सम हो कर दुनिया में आने पर इस बात का इज़्हार हुआ कि वो उस का बेटा भी कहलाता है अब इन्सान की क्या मजाल है कि ख़ुदा की बात को टाले। और अपनी अक़्ल नाक़िस से इस में हुज्जत (बह्स, एतराज़) निकाले। हमारी समझ में जो ख़ुदा के किसी कलाम की मुख़ालिफ़त करता है वो ख़ुदा के साथ गोया मुक़ाबला करता है और ख़ुदा से ज़्यादा दाना ठहरने की कोशिश करता है जो एक बिल्कुल नामुम्किन अम्र और मह्ज़ बेवक़ूफ़ी में दाख़िल है।

दूसरी बात की निस्बत हमें सिर्फ इतना कहना चाहिए हैं कि जो कुछ ख़ुदा के प्यारे बेटे ने क़ौल व फ़ेअल और रफ़्तार व गुफ़तार (बोल-चाल) से कहा और सिखलाया है वो नसीहत व ताअलीम आम पसंद है जिसको ना सिर्फ उस के ईमानदार ही क़ुबूल करते हैं। बल्कि दीगर मज़ाहिब के लोग बिला हुज्जत मान लेते हैं और तस्लीम करते हैं। और ख़ुद मुक़िर (इक़रार करने वाले) हैं, कि ताअलीम बहुत उम्दा है। लेकिन सिर्फ ईमान लाना नागवार (बुरा महसूस होना) है उस के शागिर्द उस के कलाम को सुनते और क़ुबूल करते हैं क्योंकि उसने ख़ुद कहा है कि उस की भेड़ें उस की आवाज़ सुनती हैं। यूहन्ना 10:4

तब येसू ने अपने शागिर्दों से कहा कि अगर कोई चाहे कि मेरे पीछे आए तो अपना इन्कार करे और अपनी सलीब उठा के मेरी पैरवी करे। मत्ती 16:24

मसीही मज़्हब इंसान को पूरी आज़ादगी में छोड़ता है। दो क़िस्म की बातें ये बख़ूबी वाज़ेह कर के इन्सान के रूबरू रख देता है :-

अव़्वल : वो बातें जो उस के गुनेहगार होने और सज़ाए इलाही ठहरने के बारे में हैं। और उस की बुरी और ख़ौफ़नाक हालत का नक़्शा खींच कर बख़ूबी दिखलाता है। और साफ़ तौर से गुनेहगार इन्सान को जताता है कि गुनाह के सबब से इलाही क़ुर्बत (नज़दीकी) जाती रही है। और क़हर इलाही सर पर झूम रहा है और जहन्नम ने अपना मुँह खोला हुआ है और फ़ौरन निगलने को तैयार है।

दुवम : वो बातें मज़्हब इन्सान को बताता है जो इन्सान को उस की बिगड़ी हालत से निकालने वाली और उस को बचाने वाली हैं। ये किसी की हालत में एक मददगार की ज़रूरत बताता और ख़बर देता है कि एक ऐसा मददगार आया है जो ख़ुदा के हुज़ूर गुनेहगार का ज़ामिन (ज़मानत देने वाला) बना है। और अपनी जान की क़ुर्बानी देकर ख़ुदा के अदल (इन्साफ़) के तक़ाज़े को पूरा कर चुका है और अपने ऊपर ईमान लाने वाले को अपनी रास्तबाज़ी और सलामती देता है और उस का ऐलान आम देता और कहता है जो मुझ पर ईमान लाता है हमेशा की ज़िंदगी उसी की है। यूहन्ना 6:47

इन सब बातों का तमाम व कुल बयान कर के मसीही मज़्हब आदमी को उस की मर्ज़ी आज़ादगी पर छोड़ देता है। दीगर मज़ाहिब की तरह से ज़ुल्म और जबर से इस बात का मुक़तज़ी (तक़ाज़ा करना) नहीं कि ज़बरदस्ती लोग इस तरीक़ पर लाए जाएं। पर वो कहता है, अगर कोई चाहे तो आए और राहे नजात को इख़्तियार करे और अगर ना चाहे तो ना आए। ये ज़बरदस्ती से किसी को बहिश्त में नहीं ले जाना चाहता बल्कि इस आज़ाद मर्ज़ी वाले दीनदार को जो उस की ईमानी बातों को क़ुबूल कर के उस का मुरीद बनता है साफ़ कहता है कि मुझ पर ईमान लाने की एक शर्त है अगर क़ुबूल कर सकता है तो समझ सोच कर देख और इस पर क़ायम हो। अपना इन्कार कर। ये शर्त बड़ी भारी है। अपना इन्कार करना आदमी के लिए निहायत मुश्किल है। ख़ुद इंकारी इन्सान के दुनिया की निस्बत मर जाने के बराबर है। लेकिन इस बड़ी शर्त पर मसीह आदमी को अपना शागिर्द बनाता है और अगर कोई मसीह पर ईमान लाया है और उसने अपना इन्कार नहीं किया तो वो हक़ीक़त में मसीह का शागिर्द नहीं बना चाहे वो दुनिया में ज़ाहिरा तौर से मसीही भी कहलाता रहे। लेकिन इस शर्त के बग़ैर मसीह ख़ुदावन्द उस को अपना शागिर्द ना कहेगा। जो लोग ना-वाक़िफ़ी से एतराज़ किया करते और कहते हैं कि अगर सिर्फ मसीह पर ईमान लाने के सबब से नजात है तो इस पर ईमान ला कर फिर जो चाहे इन्सान करे कुछ मज़ाईका (हर्ज) नहीं। उनको सोचना चाहिए कि मसीही ईमान के साथ ख़ुद इंकारी की बड़ी भारी क़ैद है। और अपना इन्कार करने वाला फिर क्योंकर अपने नफ़्स बद (बुरी फ़ित्रत) का मह्कूम (ग़ुलाम) होगा।

मुन्दरिजा बाला आयत में जो शर्त मसीही होने की ख़ुदावन्द येसू ने ठहराई है सिर्फ ख़ुद इंकारी ही पर मुकतफ़ी (काफ़ी होना) नहीं होती बल्कि इस से बढ़ कर मसीही ईमानदार को लाज़िम है कि रोज़ बरोज़ दुख व तक्लीफ़ और लान व तअन जो इस तरीक़ पर होने के सबब से उस की राह में आएं वो उनको बखु़शी उठाए और साबित-क़दम रहे। और आला दर्जे का साबिर बन कर उन सब तक्लीफ़ात की सलीब को उठा कर मसीह की पैरवी करे।

फिर शायद कोई ख़याल करे कि ये तो निहायत मुश्किल बातें हैं और इनका होना दुशवार (मुश्किल) है लेकिन सच्चे मसीही के लिए ये कुछ मुश्किल नहीं क्योंकि सच्चे ईमानदार को रूह की बरकत बख़्शी जाती है जिस नेअमत उज़्मा (बड़ी नेअमत) से वो इस क़िस्म की तमाम मुश्किलात से रिहाई पाने और उन पर ग़ालिब आने की क़ुव्वत और ताक़त पाता है और आख़िरकार नजात-ए-अबदी का मुस्तहिक़ (हक़दार) ठहरता है।

अब जो कोई चाहे मसीह ख़ुदावन्द के पास आए और इस शर्त को क़ुबूल करे। तो वो रूह-उल-क़ूदस का इनाम पाएगा और तमाम मुश्किलात में उस की मदद पाकर और शैतान गुनाह और दुनिया पर ग़ालिब आकर हमेशा की ज़िंदगी का वारिस होगा।