उस के आने का वाअ़दा कहाँ?

WHERE IS THE PROMISE OF HIS COMING?

उस के आने का वाअ़दा कहाँ?

2-Peter 3:4

By

Jaswant Singh

जसवंत सिंह द

Published in Nur-i-Afshan Jan 1, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 1 जनवरी 1891 ई॰
(2 पतरस 3:4)

नाजरीन कलीसिया ने चार इतवार मुक़र्रर किए हैं ताकि मसीह की दूसरी आमद की यादगारी व तैयारी हो। सबब इस का ये है कि इन्सान ग़ाफ़िल रहते और सो जाते हैं। और चार इतवार चार घंटों के मुवाफ़िक़ हैं कि अगर हम पहले दूसरे व तीसरे घंटे सो रहे हैं तो चौथे घंटे में जाग जाएं। यहां पतरस रसूल मसीह की दूसरी आमद का ताकीदन ज़िक्र करता है, चुनान्चे पहले बाब की 16 वीं आयत में यूं फ़रमाता है कि, “क्योंकि हमने ना फ़लसूफ़ी की कहानीयों का पीछा कर के, बल्कि उस की बुजु़र्गी को अपनी आँखों से देखने वाले होके अपने ख़ुदावंद यसूअ मसीह की क़ुदरत और आने की ख़बर तुम्हें दी।” यानी उस के दुबारा आने की ख़बर तुमको दी ना सिर्फ फ़लसूफ़ी से पुर चशमदीद गवाह हो के। तो दूसरे ख़त का मज़्मून ख़ुदावंद की दूसरी आमद की ख़बर देता है। रसूल फ़रमाता है कि, इस मुक़द्दस पहाड़ पर उस की तब्दीली सूरत देखकर हमारे दिल में एक नया यक़ीन पैदा हुआ यानी जब उस की पहली हुज़ूरी को देखा, तो उस की दूसरी हुज़ूरी का ख़्याल हमारे दिल में आया जितनी परेशानी और शक व शुब्हा हमारे दिलों में पहले थे, अब उतने नहीं। क्योंकि अब हम उस के चश्मदीद गवाह हो कर कहते हैं कि वो ज़रूर फिर आएगा।

 

इसी तीसरे बाब में वो ठोकर खिलाने वाले ठट्ठे बाज़ों का ज़िक्र करता है कि आख़िरी ज़माने में ऐसे लोग उठेंगे और ये कहेंगे कि, “उस के आने का वाअदा कहाँ?” लेकिन वो ये भी कहेंगे, कि हम तअ़नाज़नी से एतराज़ नहीं करते पर नेचर हमको यही सिखाती है। देखो सूरज का तुलूअ भी होता है और ग़ुरूब भी और, और दुनिया में बहुत तग़य्युरात व तब्दीलात (तब्दीलीयां) वग़ैरह होते हैं। तो हम किस तरह यक़ींन करें? क्योंकि ये सब बातें और चीज़ें गुज़र जाती और हलाक होती हैं। रसूल फ़रमाता कि “ख़ुदावंद अपने वाअदों की बाबत सुस्ती नहीं करता, जैसा कि बाअज़ सुस्ती समझते हैं। पर इसलिए हमारी बाबत सब्र करता कि किसी की हलाकत नहीं चाहता, बल्कि चाहता है कि सब तौबा करें।” तो ठट्ठे बाज़ लोग सवाल करते हैं कि इस बात का क्या सबूत हो सकता है? अफ़्सोस बाअज़ मसीही भी उन्हीं के शामिल-ए-हाल हो कर कहते हैं, कि उस के आने का वाअदा कहाँ? तो इस का जवाब रसूल पहले बाब में देता है, वहां नबियों और रसूलों की गवाही का ज़िक्र कर के कहता है कि ये क़वी दलील है। नबियों व रसूलों ने ना सिर्फ उस की आमद का ज़िक्र किया, बल्कि बहुत से तग़य्युरात व तब्दिलात (तब्दीलीयों) का ज़िक्र किया, मसलन बाबुल वग़ैरह का बर्बाद होना और दुनिया की बहुत बादशाहतें और सल्तनतों के तग़य्युर व तब्दील होने का ज़िक्र कर के कहता है, कि ये बड़ी क़वी दलील है तो जब उनकी बाबत ये पेशीनगोई पूरी हो गई, तो जब वो उस की दूसरी आमद का ज़िक्र करता है तो वो भी ज़रूर पूरी होगी। जब पहली आमद की बाबत पेशीनगोई हुई तो पूरी हुई वैसे ही दूसरी आमद की बाबत जो नबुव्वत है वो भी ज़रूर बिलज़रूर पूरी होगी। अलबत्ता उसने अपनी उंगली से तो इशारा कर के नहीं बतलाया कि वो है, पर उन नबुव्वतों की तरफ़ इशारा कर के कहा, कि देखो यरूशलेम वग़ैरह बर्बाद हो गई तो अब हमने उनसे भी यक़ीन किया कि दूसरी आमद के वक़्त भी वैसा ही होगा कि उसी में आस्मान सन्नाटे के साथ जाते रहेंगे और अज्राम-ए-फ़लक जल कर गुदाज़ (पिघल) हो जाऐंगे। और ज़मीन इन कारीगिरियों समेत जो इस में है भस्म हो गई। देखो 2 पतरस 3:10 को बमुक़ाबला मत्ती 24:29 से 32 तक लेकिन ठट्ठे बाज़ों ने कहा कि अलबत्ता वो कुछ दलील है पर थोड़ा सबूत है, इसलिए हम फिर तुमसे पूछते हैं कि उस के आने वाअदा कहाँ? तब रसूल फ़रमाता है कि तुम तो आलिम व फ़ाज़िल व बड़ी हिक्मत वाले हो और दुनिया में बहुत चीज़ों को देखते हो और मालूम करते हो कि वो सब एक ही हालत में नहीं रहतीं बल्कि मुबद्दल (बदली) हो जाती हैं। जैसे हज़रत नूह के वक़्त तूफ़ान से बड़े-बड़े पहाड़ ग़र्क़ाब (ग़र्क़, व बर्बाद) हो गए और सब हलाक हो गए, तो क्या ये तब्दीली ना थी? अलबत्ता थी। और फिर पत्थरों और चट्टानों को देख के और ग़ौर कर के बख़ूबी मालूम होता है कि कैसी-कैसी तब्दीलीयां वक़ूअ में आईं और ये सब चार अनासिर बदल जाएँगी। दुनिया की ये हालत देखकर तो बख़ूबी मालूम होता है कि ये तब्दीलीयां ज़हूर में आईं, तो फिर क्यों ये सब कुछ ना होगा ज़रूर होगा। तुम अपने उलूम व फ़नून वग़ैरह को तो देखो जब तुम इतने इल्म जानते हो तो फिर क्यों ग़ाफ़िल रहते हो? ना सिर्फ चट्टानों वग़ैरह में तब्दीलीयां हैं पर ज़मीन को खोद के देखो कि कैसी-कैसी तब्दीलीयां हुई हैं। ये रसूल ने दूसरा जवाब उनको दिया था, पर जब वो फिर कहते और सवाल करते कि अलबत्ता ये तो सबूत क़वी है, पर फिर भी हम पूछते हैं कि उस के आने का वाअदा कहाँ? तब रसूल आख़िरी जवाब देता है, कि अफ़्सोस कि तुम अहले इल्म हो और ये नहीं समझते तो अब चले जाओ क्योंकि जो कुछ हमसे हो सका दीन व दुनिया और इल्म व अक़्ल से तुमको जवाब दिया और तुम फिर भी कुछ नहीं समझते और नूह और लूत के ज़माने के लोगों के साथी हो, तो जाओ अपनी हलाकत आप देखो अगर तुम यक़ीन नहीं करते कि यूँही है तो अपने गुनाहों में आप ही मरोगे।

पस अब रसूल इन अहले इल्म और ठट्ठे बाज़ों की तरफ़ से मुँह फेर कर कलीसिया की तरफ़ मुख़ातब हो कर फ़रमाता है, कि कलाम तो तुम्हारे पास है और नबुव्वतें भी तो तुम्हारे लिए हैं और ख़ुदावंद की हुज़ूरी अब दरवाज़े पर है, तो अब तुम्हारा क्या हाल है? रसूल 1:19 आयत में फ़रमाता है कि “हमारा भी नबियों का कलाम है जो ज़्यादा क़दीम है” यानी बनिस्बत इस तमाशे के जो इस पहाड़ पर था, इस की निस्बत ज़्यादा नबियों का कलाम क़दीम है। इस की चमक और झलक नज़र आती है। वो एक चिराग़ है जो अँधेरी जगह में जब तक पौ ना फटे और सुबह का तारा तुम्हारे दिलों में ज़ाहिर ना होवे रोशनी बख़्शता है। तुमने तो नबुव्वतों से भी ज़्यादा दलीलें हासिल की हैं पर एक और भी दलील है चिराग़ चमकता है और ना सिर्फ ये पर सुबह का सितारा भी है, तो ये सुबह का सितारा कहाँ और कौन है? ये तो किसी दूसरे आस्मान पर नहीं पर हमारे पास और दिल में चमकता है। हाँ ख़ुदावंद आप मुकाशफ़ा की किताब में फ़रमाता है, कि सुबह का सितारा मैं हूँ। तो रसूल भी फ़रमाता है कि सुबह का सितारा तुम्हारे दिल में चमकेगा। रसूल अपने लोगों के दिलों को तैयार करता है, कि ग़ाफ़िल मत हो और रोओ मत क्योंकि ना उनके चिरागदान में तेल है और ना उनके बर्तनों में। तो वो सुबह के सितारे को उनके सामने पेश करता है यानी मसीह की दूसरी आमद की ख़बर देता है, कि जब सुबह का सितारा चमकेगा तो ज़रूर सूरज तुलूअ होगा। क्योंकि ये हो नहीं सकता कि सितारा चमके और सूरज ना चमके तो वो ज़रूर बिलज़रूर चमकेगा। रसूल उनको कहता है कि नबुव्वतें यानी चिराग़ तो तुम्हारे पास बहुत हैं, जिनसे रोशनी पहुँचती है पर एक सुबह का सितारा भी है जब वो आएगा तो दिन चढ़ जाएगा। और लड़ाई तमाम होगी तब वो जो वफ़ादार रहेगा, ख़ुदावंद का वाअदा उस ख़ादिम के लिए ये है कि सुबह का सितारा तेरे दिल में दूंगा क्योंकि वो जानता है कि मैं दुख व मुसीबत और दुश्मनों के घेरे में हूँ। तो जवाब है कि सब्र कर और इस्तिराहत (आराम) में रह अब थोड़ी देर लड़ाई है तब तमाम होगी। डर मत मुझ पर भरोसा रख और मेरे कलाम की नबुव्वत की बातों को पढ़ और देख और समझ और याद कर आख़िर को थोड़े दिनों के बाद सबसे भारी सबूत तुम्हारे वास्ते होगा यानी बड़ी तसल्ली तुमको होगी। यानी जब वो ख़ुदावंद आएगा वो आप तुमको तमाम मुसीबतों से रिहाई बख़्शेगा।

पस ऐ नाज़रीन हमको भी चाहीए कि हम अपने ख़ुदावंद की आमद के लिए ख़ूब इंतिज़ारी में रहें क्योंकि जब वो सुबह का सितारा चमकेगा तो वो सदाक़त आफ़्ताब यानी मसीह चढ़ेगा, तब हम सब के सब उस की रोशनी से रोशन होंगे। आमीन।

अस्ल ख़ुशी क्या है?

WHAT IS REAL JOY?

अस्ल ख़ुशी क्या है?

By

Nardwalia

नारदवालिया

Published in Nur-i-Afshan March 5, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 5 मार्च 1891 ई॰

अगर बनज़र ग़ौर देखा जाये तो ज़ाहिरी ख़ुशीयां जिनकी तरफ़ हर एक इन्सान रग़बत और ख़्वाहिश से देखता है और उस के हासिल होने पर नाज़ाँ व फ़रहां होता है। दौलत, इज़्ज़त, औलाद, उम्र दराज़ी और तंदरुस्ती ठीक है, इनके मिलने से दुनियावी आराम मिल सकते हैं। दौलत जिस इन्सान के पास होती है वो उम्दा मकान रिहाइश के वास्ते बनाता है, उम्दा पोशाक पहनता और नफ़ीस ग़िज़ा खाता है। हर तरह चैन से ज़िंदगी बसर करता है। जिस आदमी की इज़्ज़त बड़ी होती है, दूसरे लोग उस की ख़िदमत में दस्त-बस्त हाज़िर होते हैं। वो अपने आपको दूसरे इन्सानों से बेहतर और ख़ुशनसीब समझता है। बाअज़ इन्सान दुनियावी इज़्ज़त और दौलत के पीछे इस क़द्र हाथ धो कर पड़ जाते हैं कि उनको सिवाए अपना मतलब हासिल करने के और किसी तरह से चैन नहीं आता। जब उस को हासिल कर लेते हैं तो बस यही समझते हैं कि ख़ुदा की ख़ुदाई उनको मिल गई। इस तरह औलाद के होने पर भी हर एक इन्सान को बड़ी ख़ुशी हासिल होती है। ये तो हमारे मुल्क की आम मिसाल है, कि दुनिया में औलाद जैसा कोई फल मीठा नहीं। गोया दुनिया की सब ख़ुशीयों और आराम से औलाद के होने की ख़ुशी आला ख़्याल की जाती है। जिस घर में औलाद ना हो वो दुनिया में बेफ़ाइदा है। उम्र दराज़ी हर एक इन्सान दिल से चाहता है, कोई ऐसा इन्सान नहीं जो अपनी ख़ुशी से मरना चाहता हो। हमारे मुल्क का आम रिवाज है कि अगर कोई बुज़ुर्ग छोटे को इस्में (दुआ) देता है, तो वो यही कहता है कि ख़ुदा तेरी उम्र दराज़ (लम्बी) करे। बाक़ी रही तंदरुस्ती इस की बाबत तो ना सिर्फ यही कहना काफ़ी होता है कि इस आला नेअमत और ख़ुशी के क़ायम रखने के वास्ते फ़य्याज़ बादशाहों या ख़ास दौलतमंदों ने शिफ़ा-ख़ाने खोल रखे हैं और हर एक इन्सान फ़ी-ज़माना बहुत चीज़ों के खाने-पीने से इस की ख़ातिर परहेज़ रखता है, कि ये नेअमत या सोने की चिड़िया थोड़ी सी बद-परहेज़ी से हाथ से ना उड़ जाये। अंग्रेज़ी की एक मिसाल का तर्जुमा ये है कि तंदरुस्ती के मुक़ाबले में दुनिया की कुल नेअमतें हीच व बेक़द्र (बेकार) हैं।

 

अगर कोई दिल की अंदरूनी आँखों के साथ ग़ौर से देखे तो ये चीज़ें या ख़ुशीयां दर-हक़ीक़त कुछ *में नहीं। क्योंकि इनमें से कोई भी दाइमी (हमेशा रहने वाली) नहीं। अगरचे दुनियावी ख़्याल से ये ख़ुशीयां, ख़ुशीयां तो हैं। पर अगर इन पर फ़र्दन-फ़र्दन (एक-एक करके) ग़ौर करें तो जिस इन्सान को ये तमाम ख़ुशीयां भी हासिल हों तो भी अस्ल ख़ुशी हासिल नहीं होती। मसलन दौलत से इस क़द्र आराम हासिल नहीं पर उस के साथ हज़ार तरह की फ़िक्र और बेचैनीयां हैं, यानी मुम्किन हो तो इस के तुफ़ैल ये ख़िताब या वो दर्जा हासिल करे। ख़्वाह दुनिया की कुल दौलत मौजूद हो तब भी इन्सान ख़ुश-नसीब नहीं है। फ़र्ज़ करो दौलत है और लालच भी बहुत नहीं। मगर इस के साथ औलाद नहीं तो हमेशा रंज व ग़म है। इस तरह से इज़्ज़त के ताल्लुक़ से कई एक दिक्क़तें हैं, अगर इस के साथ औलाद नहीं तो हमेशा रंज व ग़म है। अगर इज़्ज़त के हुसूल होने पर इन्सान आला मेअराज पर पहुंच जाये और औलाद ना हो तो उस के दिल में हमेशा रंज रहता है। अगर औलाद हो बद-चलन हो, औलाद होने पर खाने-पीने की कोई चीज़ ना हो, तो वो औलाद भी वबाल जान हो जाती है, और इस से कुछ ख़ुशी नहीं होती। उम्र दराज़ी को हर एक इन्सान दिल से चाहता है और मरने से हमेशा डरता है। सब साहिबों को मालूम है कि सौ साला (100) बुज़ुर्ग किस दर्जे का ख़ुश होता है। लेकिन उम्र दराज़ी बद-बख़्ती से तब्दील हो जाती है, हज़ार तरह की बीमारीयां उस बेचारे के गिर्द जमा हो जाती हैं। वो औलाद जिसको उसने बड़ी तक्लीफ़ और जाँ-फ़िशानी से परवरिश किया था उस की ख़िदमत करना तो दरकिनार बेचारे को नज़र हक़ारत से देखती है। अगरचे बाअज़ लोग अपने बुज़ुर्गों की बड़ी ख़िदमत करते हैं, पर उम्र दराज़ी के लवाज़मा यानी खांसी और बलग़म को उस की ख़िदमत करने से किसी तरह से दूर नहीं कर सकते। अब अगर कोई कहे कि भाई बुढ़ापे में तो बहुत तकालीफ़ हैं, लेकिन जवानी या लड़कपन बड़े उम्दा वक़्त हैं साहब सन उन वक़्तों में भी कोई ख़ुशी नहीं है। इन्सान किसी हालत में भी चैन या ख़ुशी हासिल नहीं करता। बचपन की उम्र को दूसरों को भली मालूम होती है, क्योंकि बच्चे के दिल का हाल किसी पर ज़ाहिर नहीं हो सकता। इस की बड़ी भारी अलामत बार-बार रोना है। क्या रोना किसी शख़्स को बग़ैर तक्लीफ़ या दुख के आ सकता है? इस का जवाब यही होगा कि बिल्कुल नहीं। बच्चे का मिज़ाज बड़ा चंचल होता है और ज़बरदस्ती तक्लीफ़ भी गवारा नहीं कर सकता। बड़ा हुआ माँ बाप का ख़ौफ़ उस्ताद का ज़ुल्म व तशद्दुद अगरचे उस की बेहतरी के वास्ते होता है पर इस बेचारे के दिल से तो पूछें। जवानी का वक़्त आया हर एक क़िस्म की उमंगें कई एक ख्वाहिशें पूरी ना हुईं हर तरह से दिल को बेक़रारी लगी रहती है। हर एक शख़्स इस बात को तस्लीम कर लेता है कि दुनिया में किसी की कुल ख़्वाहिशें पूरी नहीं हो सकतीं। फिर ख़्याल मआश (रोज़गार) या और किसी क़िस्म की फ़िक्र उस के दिल को आराम नहीं लेने देती। गोया ज़िंदगी का कोई हिस्सा बे-नुक्स नहीं अब अगर दौलतमंद भी हो, इज़्ज़त भी सब तरह की बनी हो, औलाद भी हो, और फ़र्ज़ किया कि नेक-चलन औलाद हो तो भी दिल को चैन ना आएगा।

अब सवाल ये है कि इन्सान की ख़ुशी को मुकम्मल करने के वास्ते किस चीज़ की और ज़रूरत है? भाईयों मैं आपके जवाब का मुंतज़िर नहीं रहूँगा, क्योंकि इस का जवाब देना मेरे ही ज़िम्में लगाया गया है वो सब्र है, जो इन्सानी ख़ुशी को पूरा कर सकता है। इस दरख़्त का फल गो कड़वा मालूम देता है, लेकिन इस का असर मीठा है। जब इन्सान के दिल में सब्र होता है तो इस्तिक़लाल (साबित-क़दमी) पहले ही से आ हाज़िर होता है। अगर आदमी कंगाल हो, बेऔलाद हो, कोई उस की इज़्ज़त ना करता हो, बीमार भी हो, पर जब उस के दिल में सब्र है तो वो तक्लीफ़ के बग़ैर सब कुछ बर्दाश्त करेगा। इस के नताइज सब पर रोशन हैं अगर आदमी सब्र से ख़ुदा की इबादत करे और अपने ऊपर तकालीफ़ उठाए तो उस को बड़ा दर्जा नसीब होता है। अगर वो इस्तिक़लाल से कोई दुनियावी काम शुरू करे तो ज़रूर उस में कामयाब होगा। अहले इंग्लिस्तान जब इस मुल्क में आए तो मामूली सौदागरों की एक जमाअत थी। उन्होंने और इस्तक़लाल (साबित-क़दमी) से काम शुरू किया। शाहाँ मुग़्लिया के ज़ुल्म व सितम उठाए अगर वो इन तक़्लीफों से डर जाते और अपने मुल्क जहां उनको हर तरह के आराम व आसाइश मुहय्या थे, चले जाते और इस्तक़लाल (साबित-क़दमी) को हाथ से दे देते तो आज के दिन मुल्क का बादशाह कौन होता। अगर मसीह की मौत के बाद उस के बारह शागिर्दों की तकालीफ़ और दुख ना उठाते और हज़ारों तरह के मुख़्तलिफ़ दुःख (सताव) उठाकर शहीद (क़ुर्बान) ना होते तो आज इस रीडिंग रोम का वजूद जो सब्र का फल है, हम इतने दूर दराज़ फ़ासिले पर ना देखते और फ़ायदा ना उठाते। अब रही ये बात कि इन्सान किस तरह से साफ़ है, मेरी मर्ज़ी तो ज़रूर है कि इस पर कुछ बयान करूँ। लेकिन इस मज़्मून ने इस क़द्र तवालत पकड़ी है कि और बयान करना अपने वक़्त से ज़्यादा काम लेना है।

क़ुरआन कि बाबत एक आलिम अरब की राय

The Opinion of an Arab Scholar about the Quran

क़ुरआन कि बाबत एक आलिम अरब की राय

By

Baajwa

बाजवा

Published in Nur-i-Afshan Feb 19, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 19 फरवरी 1891 ई॰

ख़लीफ़ा मामून के अहद में जो जवाब अब्दुल्लाह वल्द इस्माईल हाश्मी को अब्दुल मसीह वल्द इस्हाक़ किन्दी ने दिया, उस में वो लिखता है कि, मसीही राहिबों में (राहिबान के तरीक़े का यहां बयान कुर्बा ज़रूरी नहीं) सर जेविश नामी एक शख़्स था, जिस से कोई ना-मुलाएम (सख़्त) हरकत सरज़द हुई जिसके सबब मसीही जमाअत ने उस को ख़ारिज कर दिया और उस से राह व रस्म तर्क कर दी (जैसा कि हमेशा से उन लोगों का दस्तूर है) इस से सर जेविश निहायत नादिम हुआ और शहर थामा को चला गया, यहां तक कि मक्का की सर-ज़मीन में पहुंचा। उस वक़्त वहां दो क़िस्म के मज़्हब राइज थे (यहूदीयत परस्त) ये शख़्स हमेशा मुहम्मद साहब से मिलता रहा और उस का दोस्त बन गया। यहां तक कि उस को अपनी राइयों के साथ मिला लिया और अपना नाम उन के सामने नस्तूरियस (इस तरीक़े का बयान करना यहां ज़रूर नहीं) ज़ाहिर किया। और इस तब्दीली नाम से उस का मतलब ये था कि जिस नस्तूरियस का वो मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) था उस के मज़्हब की इशाअत करे और उस राय (नस्तूरियस) को साबित करे। चुनान्चे वो हमेशा मुहम्मद साहब के पास रहता और गुफ़्तगु करता रहता था, यहां तक कि उस को (मुहम्मद साहब को) बुत-परस्ती से बिल्कुल हटा दिया और अपना ताबेअ़ और शागिर्द बना कर नस्तूरियस तरीक़े की तरफ़ दावत करने लगा। जब यहूदीयों को ख़बर मिली तो उस पुरानी दावत के सबब (जो यहूदो नसारा में चली आती है) भी मुख़ालिफ़ हो गए। मगर सर जेविश की सोहबत का ये असर हुआ कि क़ुरआन में मसीहीयों की याद ईलाही का ज़िक्र है और उस में इस अम्र की शहादत मिलती है कि मुहम्मदियों के नज़्दीक सबसे ज़्यादा वो लोग हैं (मुहब्बत में) जो अपने आपको नसारा कहते हैं और उस में आलिम व दरवेश हैं और वो लोग तकब्बुर नहीं करते। (देखो सूर मायदा 82) लेकिन इसी अर्से में सर जेविश (या नस्तूरियस) ने इंतिक़ाल किया। इस के बाद अब्दुल्लाह बिन सलाम और कअ़ब यहूदी आलिमों ने एज़्राह मक्र व फ़रेब मुहम्मद साहब से रिफ़ाक़त कर ली। (क्योंकि नस्तूरियस से उनका मुक़ाबला था जो इंतिक़ाल कर गया, अब उन्होंने समझा कि मुहम्मद साहब को अपनी तरफ़ करना चाहीए) और ये ज़ाहिर किया कि हम आपकी राइयों के ताबेअ़ और आपके मसाइल के क़ाबिल हैं, मगर अपने दिल का राज़ पिन्हाँ (छुपा) रखा हत्ता कि मुहम्मद साहब के इंतिक़ाल के बाद जब अबू बक्र को हुकूमत मिली तो उन्हों ने अली को उभारा कि तू नबुव्वत का दाअ्वा क्यों नहीं करता? हम तेरे शरीक-ए-हाल उसी तरह से हैं जिस तरह तेरे हज़रत का शरीक नस्तूरियस नसरानी था। गो अली को नस्तूरियस राहिब का हाल मालूम था, मगर मुहम्मद साहब की सोहबत के वक़्त वो कम उम्र था और इन दोनों ने अली को ये भी सिखा दिया कि किसी को ये बात ना बताएं और अली ने कम उम्री और सादा-दिली नातजूर्बेकारी से अब्दुल्लाह और कअ़ब की बात मान ली मगर ख़ुदा तआला को ये बात मंज़ूर ना थी, अबू बक्र पर यह राज़ इफ़शा (ज़ाहिर) हो गया। वो अली के पास आए और हुर्मत की याद दिलाई और अली ने जब अबू बक्र की तरफ़ निगाह की तो उनकी क़ुव्वत को देखा और अपने दिली इरादे से बाज़ रहा। मगर ये असर उन दिनों यहूदी आलिमों का हुआ कि जो किताब मुवाफ़िक़ मुराद इन्जील के मुहम्मद साहब की तरफ़ से अली को हाथ आई थी, उस में तसर्रुफ़ किया गया। तौरेत के कुछ अखबार व अहकाम और शहरों के हालात उस में दाख़िल किए गए। कुछ घटाया कुछ बढ़ाया और उन सब ग़ैर-मुस्तनद बातों को उस में मिला दिया। (सूरह बक़रह आयत 107) और इस तरह सूरह नहल व नमल व अन्कबूत वग़ैरह में है जिससे ज़ाहिर होता है कि मुख़्तलिफ़ गिरोह की तरफ़ ख़िताब है और ये सब बातें बे-बुनियाद हैं, पस ज़ाहिर है कि मुहम्मद साहब ने कुछ ताअलीम सर जेविश ईसाई और अब्दुल्लाह व कअ़ब यहूदी आलिमों के क़ुरआन के मज़ामीन लिखे या लिखवाए और चूँकि बाद में उस के तर्तीब देने और जमा करने में मुख़्तलिफ़ अश्ख़ास का हाथ था इस वास्ते तौरेत और इन्जील के हक़ीक़ी क़िसस (क़िस्से, वाक़ियात) में फ़र्क़ आ गया। यही वजह है कि बाईबिल और क़ुरआन के मज़ामीन में तफ़ावुत (इख्तिलाफ़) है। इस पुराने आलिम अरब की राय पर मुहम्मदियों को ग़ौर करना चाहिए और बजाय इस के कि वो क़ुरआन की ताअलीम को ज़माने के मुवाफ़िक़ करने की कोशिश करें। उस चशमे की ताअलीम को क़ुबूल करें जिसकी रोशनी से मुनव्वर हो कर नेचरी (फ़ित्रत के मानने वाले) और फ़लां बनते फिरते हैं। ये रेत के व मदमे कब तक? आख़िर वही ग़ालिब है जो कहता है कि अपने घर की बुनियाद चट्टान पर रखो ताकि तूफ़ान हो और बारिश से सदमा ना पहुंचे। (राक़िम बाजवा)

आदम की पैदाइश और क़ुरआन

Creation of Adam and Quran

आदम की पैदाइश और क़ुरआन

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Mar 19, 1891

नूर-अफ्शां मत्बूअ़ 19 मार्च 1891 ई॰ ई॰

सूरह अल-बक़र रुकूअ़ 3 में पैदाइश आदम की बाबत लिखा है, “और जब कहा तुम्हारे रब ने वास्ते सब फ़रिश्तों के कि “बेशक में पैदा करने वाला हूँ ज़मीन में एक ख़लीफ़ा” तो मलाइका ने उस से कहा “क्या पैदा करता है तू ज़मीन में उसे जो फ़साद करे उस में और ख़ूँरेज़ी करे?” तफ़्सीर में लिखा है कि इस बात से फ़रिश्तों की वाक़फ़ीयत हुक्म ईलाही से थी या लौह-ए-महफ़ूज़ में (जिसमें बाएतिक़ाद मुहम्मदयान ख़ुदा ने सब कुछ जो अज़ल से अबद तक होने वाला है लिख दिया है) उन्हों ने पढ़ा या उनकी अक़्लों में जमा हुआ था कि गुनाह ना करना उन्हीं का ख़ासा (ख़ूबी) है। ख़ुदा ने फ़रिश्तों से कहा, कि जो मैं जानता हूँ तुम नहीं जानते। और आदम को हक़ तआला ने सब के सब नाम सिखाए और उन नाम वालों को फ़रिश्तों के सामने पेश किया और कहा, कि बताओ मुझे इनके नाम अगर तुम सच्चे हो, फ़रिश्तों ने कहा “तज़ियह करते हैं हम तेरी, हमको कुछ इल्म नहीं मगर जो कुछ तू ने हमें सिखा दिया।” तब ख़ुदा ने आदम से कहा तू उन्हें इनके नाम बता दे। अगर हम इस बयान का तौरेत पैदाइश 2 बाब के साथ मुक़ाबला करें तो दोनों में ज़मीन व आस्मान का फ़र्क़ मालूम होगा। पहला बयान जो मूसा की मार्फ़त दो (2) हज़ार बरस से सिवा (कुछ) पेशतर से लिखा हुआ अहले-किताब के हाथ में मौजूद था। पिछले बयान की निस्बत कैसा अफ़्ज़ल व आला और ख़ुदा तआला के लायक़ मालूम होता है। क्या इस में कुछ ख़ूबी है कि ख़ुदा ने आदम को सब मख़्लूक़ात के नाम सिखा दीए तो उसने बता दीए और फ़रिश्तों को ना सिखाए और वो ना बता सके? क्यों फ़रिश्तों को नादानी से आदम के मुक़ाबले में मूत्हम (तशवीश में मुब्तला) व माअतूब (इल्ज़ाम लगाया जाये और मुजरिम ठहरया जाये) ज़ाहिर किया जाता? हाँ अगर ख़ुदा ने वो नाम उन्हें ना सिखाए थे तो वो इतना करते कि लौह-ए-महफ़ूज़ में देखकर इम्तिहान में पास हो जाते मगर ऐसा ना किया तो भी फ़रिश्तों की पेशीनगोई कि आदम ज़मीन पर फ़साद व ख़ूँरेज़ी करेगा, उसे क्यों पैदा किया जाता है? पूरी हुई ! इन्सानी तज़ीफ़ और कलाम-उल्लाह में कितना फ़र्क़-ए-अज़ीम है। ख़ुदा ने आदम को अपनी सूरत पर पैदा किया, उस को फ़रिश्तों से मश्वरा लेने की कुछ ज़रूरत ना थी। आदम को ना ज़ईफ़ ना नादान ना जल्दबाज़ बनाया और ना ख़ुदा ने लौह-ए-महफ़ूज़ में लिखा कि वो मुफ़सिद व ख़वीरेज़ (फ़साद और खूंरेंजी फैलाने वाला) होगा। ये भारी बातें हैं और तौरेत हमारी तसल्ली के लिए इनका काफ़ी और मुफ़स्सिल व माअ्क़ूल बयान करती है।

वाक़ियात तौरेत व क़ुरआन में सरीह मुख़ालिफ़त

The Contradictory Events of Torah and Quran

वाक़ियात तौरेत व क़ुरआन में सरीह मुख़ालिफ़त

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 8, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 8 जनवरी 1891 ई॰

तफ़्सीर क़ादरी तर्जुमा तफ़्सीर हुसैनी में लिखा है, कि हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम के क़िस्से में और उर्याह की औरत के साथ आपके निकाह करने में बहुत इख़्तिलाफ़ है। बाअज़ मुफ़स्सिरों ने ये क़िस्सा इस तरह बयान किया है कि शराअ और अक़्ल इसे क़ुबूल करने से इन्कार करती है। जो कुछ सेहत के साथ मालूम हो वो ये है कि उर्याह ने एक औरत के साथ अपने निकाह का पयाम दिया और क़रीब था कि उस का निकाह हो जाये। औरत के वलीयों (मालिक, शौहर) को इस के साथ कुछ ख़रख़शा (झगड़ा) पड़ा था, इसलिए निकाह ना होने दिया। हज़रत दाऊद ने अपने साथ निकाह का पयाम भेजा और हज़रत दाऊद के निनान्वें (99) बीबीयां थीं। अ़ताब ईलाही दाऊद पर इसलिए हुआ, कि उर्याह के पयाम देने के बाद हज़रत दाऊद ने पयाम दिया और उस से निकाह कर लिया। जिब्राईल और मीकाईल दो मतख़ासीन (मुख़ालिफ़) की सूरत पर अपने-अपने साथ फ़रिश्तों का एक-एक गिरोह बशक्ल इन्सान ले के दाऊद के पास आए और बयान किया, कि मेरे इस भाई के पास निनान्वें (99) भेड़ें हैं और मेरी एक ही भेड़ है उसने ग़लबा कर के वो भी ले ली। दाऊद ने कहा कि अगर ये कैफ़ीयत वाक़ई है तो उसने ज़ुल्म किया। जब हज़रत दाऊद ने ये बात कही तो वो खड़े हुए और नज़र से ग़ायब हो गए। पस हज़रत दाऊद सोच में पड़ गए और मग़फ़िरत मांगी। देखो तफ़्सीर सूरह (ص) स्वाद।

अब इस बयान का (जिसको मुफ़स्सिर सेहत के साथ मालूम किया हुआ बताता है) मुक़ाबला 2 समुएल 11, 12 बाब से करें, तो मालूम हो जाएगा कि मुसन्निफ़ और मुफ़स्सिर क़ुरआन सही वाक़ियात अम्बिया-ए-साबक़ीन मालूम करने में किस क़द्र क़ासिर हैं।

وَ یَعۡبُدُوۡنَ مِنۡ دُوۡنِ اللّٰہِ مَا لَا یَضُرُّہُمۡ وَ لَا یَنۡفَعُہُمۡ وَ یَقُوۡلُوۡنَ ہٰۤؤُلَآءِ شُفَعَآؤُنَا عِنۡدَ اللّٰہِ

तर्जुमा : यानी पूजते हैं अल्लाह के सिवा उस चीज़ को जो ना उनका बुरा करे और ना भला करे और कहते हैं ये हमारे सिफ़ारशी हैं अल्लाह के पास। (सूरह यूनुस आयत 18)

ये मुशरिकान अरब की निस्बत कहा गया और इस आयत क़ुरआनी से चार बातें साबित होती हैं। अव़्वल ये कि वो अपने बुतों को ना अपना और ना ग़ैर का ख़ालिक़ व मालिक बताते थे। और ना उनको ज़ात ईलाही के बराबर जानते थे। सोम ये कि वो ज़ात ईलाही की उलूहियत के मुन्किर भी ना थे और चौथे ये कि वो लोग उन अस्नाम मुअ़तक़िदा (बुतों पर ईमान) को अपना शाफ़े-इंद अल्लाह (सिफ़ारशी شافع عند اللہ) बताने के बाइस मुशरिक कहलाए। अब नाज़रीन ग़ौर करें कि हज़रत मुहम्मद साहब हजरे अस्वद मक्की में वो सिफ़त साबित करते जो मख़्सूस बज़ात ईलाही है, यानी इल्म-ए-ग़ैब। मिश्कात-उल-मसाबिह में दरबाब व ख़ौल मक्का व तवाफ़ सफ़ा 220 में लिखा है :-

قال رایت عمر یقبل الحجر ویقولون انی لا علم انک حجرالا تنفع ولا تضر ولولا انی رایت رسواللہ صلی اللہ علیہ واسلم یقبل ماقبلتک متفق علیہ

यानी आबस बिन रबीया से रिवायत है, कि कहा उसने कि देखा मैंने उमर को हज्र-ए-असवद चूमते हुए और कहता था कि मैं ख़ूब जानता हूँ कि तू पत्थर है, ना तो नफ़ा पहुँचाता है और ना नुक़्सान और अगर ना देखता मैं रसूल-अल्लाह को चूमते हुए तो ना चूमता मैं तुझे।

इस हदीस पर सब का इत्तिफ़ाक़ है। अब देखिए ये काला पत्थर (जिसको बाअज़ हिंदू मुकेश्वर महादेव कहते हैं) बक़ौल ख़लीफ़ा उमर के अपने चूमने वालों को कुछ नफ़ा नुक़्सान नहीं पहुंचा सकता, जैसा कि मुशरिकान अरब के बुत नफ़ा नुक़्सान अपने पर सितारों का नहीं पहुंचा सकते थे। तो भी ख़लीफ़ा उमर ने इस को चूमा और सब मुसलमान जो हज के लिए जाते इस को ज़रूर चूमते हैं और सुन्नत मुहम्मदिया क़रार देते हैं। अगरचे क़ुरआन में इस पत्थर का कुछ ज़िक्र नहीं है। लेकिन हमारी समझ में ख़लीफ़ा उमर का ये कहना कि हज्रुल-अस्वद अपने चूमने वालों को ना नफ़ा पहुंचा सकता है और ना नुक़्सान पहुंचा सकता है, दुरुस्त नहीं ठहरता। क्योंकि इसी किताब मिश्कात-उल-मसाबिह सफ़ा 219 में एक और हदीस पाई जाती है, जिस का तर्जुमा ये है कि इब्ने अब्बास ने कहा, कि फ़रमाया रसूल सलअम ने हज्रुल-अस्वद की शान में कि क़सम है अल्लाह की, कि देगा इस को ख़ुदा क़ियामत के दिन दो आँखें कि देखेगा वो उनसे और ज़बान देगा उस को कि बोलेगा वो इस से और गवाही देगा, इस पर जिसने इस को चूमा सच्चे इरादे से। रिवायत किया इस हदीस को तिर्मिज़ी और इब्ने माजा और दारमी ने। ख़लीफ़ा उमर फ़रमाते हैं कि इस पत्थर के चूमने वाले को कुछ नफ़ा और नुक़्सान हरगिज़ नहीं पहुंचता और मुहम्मद साहब फ़रमाते हैं कि हज्रुल-अस्वद अपने चूमने वालों के लिए बरोज़ क़ियामत ख़ुदा के रूबरू गवाह ख़ैर होगा। और बाएतिक़ाद चूमने वालों के लिए उस की गवाही बड़ी नफ़ा बख़्श होगी। और रियाकारी के साथ चूमने वालों के हक़ में इस की शहादत (गवाही) बाइस ज़रर ठहरेगी। पस कोई मुहम्मदी साहब बतलाएं कि इन दोनों साहिबों में से किस का क़ौल सही है।

ख़ुलासा अल-मसाईब

Summary of Troubles

ख़ुलासा अल-मसाईब

By

G.L.Thakur Dass

अल्लामा जी॰ एल॰ ठाकुरदास

Published in Nur-i-Afshan Feb 12, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 12 फरवरी 1891 ई॰

ख़ुलासा अल-मसाईब में रिवायत है कि एक रोज़ मुहम्मद साहब हुसैन के गले के बोसे लेते थे तो उन्हों ने पूछा, ऐ नाना क्या बाइस है आप मेरे गले को चूमते हैं? हज़रत रोए और फ़रमाया, ऐ फ़र्ज़न्द मैं इसलिए चूमता हूँ कि एक दिन ये गला ख़ंजर ज़ुल्मो-सितम से काटा जाएगा। हुसैन ने अर्ज़ की, ऐ नाना किस जुर्म व गुनाह पर मुझे क़त्ल करेंगे? हज़रत मुहम्मद बोले तू मासूम है जुर्म व खता से लेकिन शफ़ाअत मेरी उम्मत की तेरी शहादत पर मौक़ूफ़ (ठहराया गया) है। ज़रूरी नहीं कि हम इस वक़्त इस पर कुछ लिखें कि हुसैन जुर्म व खता से वाक़ई मासूम थे या नहीं। क्योंकि हम ये दिखाना चाहते हैं कि कफ़्फ़ारे की ज़रूरत हज़रत (स॰) को मालूम थी, अगरचे उन्हों ने क़ुरआन में इस भारी ज़रूरत का कुछ ज़िक्र नहीं किया। और उम्मते-मुहम्मदी की नजात सिर्फ उन आमाले-हस्ना (अच्छे काम) पर मौक़ूफ़ रखी गई है तो भी हम देखते हैं कि अहले इस्लाम बिलइत्तफ़ाक शहादत हुसैन को रफाह-ए-उम्मत (उम्मत की भलाई) पर मंसूब करते हैं और जो जहत्ता (झगड़ालू और लड़ाका) और कज-बह्स (उलटी सीधी बह्स करने वाले) अश्ख़ास मसीह की सलीबी मौत और उस के कफ़्फ़ारा गुनाहाने-मोमेनीन (मोमिनों के गुनाहों का कफ़्फ़ारा) होने पर एतराज़ किया करते और कहा करते हैं कि गुनाह तो करे दूसरा औरा उस के बदले में मारा जाये कोई दूसरा, ये कहाँ का इन्साफ़ व अदालत है? वो इस पर ग़ौर करें कि हज़रत ने भी नजात उम्मत-ए-मुहम्मद ये को क़त्ल-ए-हुसैन पर मौक़ूफ़ व मुनहसिर (वाबस्ता होना) ठहराया है। अलबत्ता ये ज़रूर है कि कफ़्फ़ारा गुज़ारनने वाला एवज़ी गुनाहान-ए-कबीरा व सग़ीरा (बड़े और छोटे गुनाह) से अक़लन व नक़लन (अज़रुए-अक़्ल और दूसरों की नक़्ल) पाक और मासूम हो। अब हम अहले इन्साफ़ की तवज्जोह व ग़ौर इस फ़ैसले पर रुजू कराते हैं कि फ़िल-हक़ीक़त कौन ऐसा है। क्या वो शख़्स जिसने मुख़ालिफ़ों के रूबरू दाअ्वा किया और कहा, कि “कौन तुम में से मुझ पर गुनाह साबित करता है?” (यूहन्ना 8:46) और जिसके हक़ में कलाम ईलाही में लफ़्ज़ क़ुद्दूस लिखा और कहा गया। देखो (लूका 1:35, आमाल 3-14, और आमाल 4:30) या वो शख़्स जिसने कहा हो “طاعتی قلیل ومعصیتی کثیر اً” यानी मेरी इबादत थोड़ी और मेरे गुनाह बहुत हैं? अहकाम-उल-अइम्मा।

अंजीर की तम्सील

PARABLE OF FIG TREE

अंजीर की तम्सील

By

Editorial

ऐडीटर

Published in Nur-i-Afshan Jan 29, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 29 जनवरी 1891 ई॰॰

जनाब-ए-मसीह की ये तम्सील बतौरे ख़ास क़ौम यहूद से और बतौरे आम मसीहीयों और ग़ैर-मसीहीयों जुम्ला आदमजा़द से इलाक़ा रखती है। अगरचे हमारे मसीही नाज़रीन ने इस तम्सील को अक्सर इन्जील मुक़द्दस में पढ़ा होगा, लेकिन ग़ैर-अक़्वाम के फ़ायदे के लिए अगर हम अव्वलन तम्सील को पूरा लिखें तो नामुनासिब ना होगा। ख़ुदावंद ने फ़रमाया कि :-

“किसी के अंगूर के बाग़ में अंजीर का दरख़्त लगाया गया था और वो (बाग़ का मालिक) आया और इस पर फल ढूंढा और ना पाया। तब उसने बाग़बान को कहा कि देख तीन बरस से में आता हूँ और इस अंजीर का फल ढूंढता और नहीं पाता हूँ इसे काट डाल क्यों ज़मीन भी रोकी है। पर उसने जवाब दे के उसे कहा, ऐ ख़ुदावंद इस साल और भी इसे रहने दे ताकि इस के गर्द थाला (गढ़ा) खोदूँ और खाद डालूं शायद कि फल लाए, नहीं तो काट डाले।” (लूक़ा 13:6-9)

तक इस तम्सील का बयान ऐसा साफ़ है कि तफ़्सीर व शरह की ज़्यादा ज़रूरत नहीं ताहम चंद बातें लिखना मुनासिब समझते हैं। मुफ़स्सिरीन इन्जील ने इस की तफ़्सीर यूं की है, कि बाग़ का मालिक ख़ुदा है। अंगूर के बाग़ से दुनिया मुराद है और अंजीर का दरख़्त क़ौम यहूद है। बाग़बान ख़ुदावंद यसूअ मसीह है। और तीन साल मूसा और नबियों और ख़ुदावंद यसूअ मसीह का ज़माना हैं या ये कि मसीह यहूदीयों में तीन बरस अपनी ख़िदमत का काम करता रहा। या यूं समझिए कि इन्सान की ज़िंदगी के तीन ज़माने यानी लड़कपन जवानी और बुढ़ापा हैं। ग़र्ज़ तीन बरस जो अंजीर के फलने की इंतिज़ारी के लिए काफ़ी हैं, उनके ख़ातिमा पर भी सिवा पत्तों के इस में कुछ नज़र नहीं आता आख़िर हुक्म होता कि “इसे काट डाल क्यों कि ज़मीन भी रोकी है।” ये कैसे इबरतनाक अल्फ़ाज़ हैं “इसे काट डाल।” ये सच है कि हर फ़र्द व बशर इस बाग़-ए-आलम में अपनी जगह रोके हुए है। बाग़ का मालिक सब्र के साथ हर एक से फलों (कारहा-ए-ख़ैर) का इंतिज़ार करता है। एक साल यूँही गुज़र जाता और दूसरा शुरू होता है। लड़कपन खेल-कूद लहू व लइब (खेल तमाशों) में गुज़र जाता। जवानी में आँखों में चर्बी छा जाना नेक व बद कुछ नहीं सूझता शौक़ ऐश व इशरत तलब माल व दौलत नफ़्सानी व जिस्मानी ख़्वाहिशात की पैरवी में इन्सान दीवानादार जोयायाँ और पोयां रहता और नहीं जानता कि “उस की उम्र के दिन डाक से भी जल्द रूहैं वे उड़ जाते और चैन नहीं देखते हैं।” (अय्यूब 9:25) वो नहीं सोचता कि ख़ुदा की मेहरबानी इस पर इसी लिए है कि वो तौबा करे और उस के लायक़ फल लाए। नाज़रीन शायद हम तुम में से किसी की निस्बत 1890 ई॰ के इख़्तताम पर मालिक बाग़ की तरफ़ से फ़रमाया गया कि “इसे काट डाल क्यों कि ज़मीन भी रोकी है। लेकिन इस सिफ़ारिश कनुंदा यसूअ मसीह ख़ुदावंद की सिफ़ारिश पर जो मसले हुए सेंठे (सरकंडे) को नहीं तोड़ता और धुआँ उठते हुए सन को नहीं बुझाता, फ़रमाया हो कि इस साल 1891 ई॰ में और उसे रहने देता, कि इस के गर्द थाला (गड्ढा) खोदूँ और खाद डालूं शायद कि फल लाए, नहीं तो बाद इस के काट डालीयो हम फ़िलहाल इस बाग़-ए-आलम में मालिक बाग़ ने और रहने दिया, ताकि अम्साल उस के हस्ब-ए-मुराद फल ला दें। ख़ुदा करे नूर-अफ़्शाँ के नाज़रीन में से कोई ऐसा ना हो जिसके हक़ में साल-ए-रवां में ये फ़त्वा दिया जाये कि उसे काट डाल क्यों ज़मीन भी रोकी है।

ऐ हमारे बाप

OUR FATHER

ऐ हमारे बाप

By

Editorial

ऐडीटर

Published in Nur-i-Afshan Feb 5, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 5 फरवरी 1891 ई॰

इस में शक नहीं कि मज़्हब ईस्वी के अलावा दुनिया के अक्सर मज़्हबों में ख़ुदा के बहुत से ज़ाती व सिफ़ाती नाम पाए जाते हैं और उनकी दीनी किताबों में भी ख़ुदा तआला के अक्सर नाम लिखे हुए मौजूद हैं। मुसलमानों में ख़ुदा के 99 यानी निनान्वें नाम अरबी ज़बान में एक वज़ीफ़ा की किताब मौसूमा-बह-जोशन-कबीर में तर्तीबवार लिखे हुए हैं, जिन्हें वो बतौर वज़ीफ़ा रोज़मर्रा पढ़ते हैं अक्सर नाम अपने मुक़तदियों और शागिर्दों को उनके हादियों और उस्तादों ने खासतौर पर ताअलीम किए हैं, जिन्हें वो इस्म-ए-आज़म समझते और बाअज़ नाम के दरूद वज़ीफ़ा में एक मख़्सूस तासीर व ताक़त के मुअ़तक़िद हैं। मुहम्मदियों में ये ख़्याल बेशतर पाया जाता है। लेकिन ये एक मह्ज़ वहम व ख़्याल है कि फ़लां इस्म को हर रोज़ फ़लां वक़्त व मुक़ाम में फ़लां तौर व तरीक़े से सौ (100) या पांच सौ (500) या हज़ार (1000) दफ़ाअ पढ़ो और यह या वो मुराद व मतलब हासिल होगा। हमने मुसलमानों की अक्सर किताबों को इन इस्मयात (नामों) की तारीफ़ व तौसीफ़ और तर्कीब व फ़वाइद से भरा हुआ पाया और आज़माया मगर बजुज वसवास व उहाम के कुछ ना देखा। मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब के मुअल्लिमों में से किसी ने ये प्यारा नाम जो उन्वान में लिखा गया अपने पैरओं को कभी नहीं सिखलाया और ना ख़ुद उनके ज़हन में कभी आया क्योंकि उन्होंने ले-पालक होने की रूह ना पाई जिससे वो अब्बा यानी “ऐ बाप कह” सकते।

 

लेकिन इस मुअल्लिम यकता ने जो आस्मान से उतरा ख़ाकी बनी-आदम को ये शर्फ़ बख़्शा और सिखलाया कि वो ख़ुदा को “ऐ बाप” कह के पुकारते हैं और जो कुछ तासीर इस नाम में है मुहताज बयान नहीं। बाप की मुहब्बत का बयान जो कलामें-मुक़द्दस में पाया जाता है कौन उस की इंतिहा तक पहुंच सकता है? यूहन्ना रसूल अपने पहले ख़त में इन अल्फ़ाज़ का इस्तिमाल करता और कहता है, “देखो कैसी मुहब्बत बाप ने हमसे की है कि हम ख़ुदा के फ़र्ज़न्द कहलाएँ।” ख़ुदा ईमानदरों का बाप है और वह बिला-तकल्लुफ़ कह सकते हैं “ऐ हमारे बाप जो आस्मान पर है।” ख़ुदा की अलवियत मुहब्बत की मुक़तज़ी है। हम ख़ुदा की बाबत ख़्याल कर सकते हैं कि वो हमारा पैदा करने वाला, रहीम, हाफ़िज़ व निगहबान है। बावजूद इस सब के हम अपनी निस्बत उस की मुहब्बत को पहचानने में क़ासिर रहते हैं। कुम्हार मिट्टी के बर्तन का बनाने वाला है लेकिन वो अपनी बनाई हुई चीज़ से इस क़द्र मोहब्बत नहीं रखता।

बाज़-औक़ात हाकिम एक मुजरिम के ऊपर रहीम हो कर माफ़ी बख़्शता लेकिन वो मुजरिम के साथ और ज़्यादा मुहब्बत नहीं करता। एक सिपाही किसी क़ैदी का हाफ़िज़ व निगहबान मुक़र्रर किया जाता ताहम वो क़ैदी को महबूब व अज़ीज़ नहीं जानता। लेकिन ख़ुदा अपने लोगों का इस मानी में जो उस नाम के हैं बाप है। बाइबल ख़ुदा की मुहब्बत के इज़्हार से मामूर व भरपूर है। इस में सिर्फ ख़ुदा अपनी हक़ीक़ी मुहब्बत को अपने लोगों के साथ ऐसी मिसालियों से ज़ाहिर करता है, जो उस आदमी की समझ में जिसने इस मुहब्बत का कुछ मज़ा हासिल ना किया हो ख़ुदा की निस्बत हक़ीर मालूम होंगी और बेसाख़्ता उस की ज़बान से निकलेगा, कि ख़ुदा का अपने को ऐसी ना चीज़ मख़्लूक़ात से तश्बीह देना उस के जलाल और अज़मत के लायक़ नहीं। मसलन ख़ुदा अपने (आप) को उक़ाब से तश्बीह देता कि “जैसे उक़ाब अपने घोंसले को हिला-हिलाकर अपने बच्चों पर मंडलाता है, वैसे ही उसने अपने बाज़ुओं को फैलाया और उन को लेकर अपने परों पर उठाया। फ़क़त ख़ुदावंद ही ने उनकी रहबरी की और उस के साथ कोई अजनबी माबूद ना था।” (इस्तिस्ना 32:11-12) फिर ख़ुदावंद मुर्ग़ी से अपनी मिसाल देता और फ़रमाता “कितनी बार मैंने चाहा कि जिस तरह मुर्ग़ी अपने बच्चों को परों तले जमा कर लेती है, उसी तरह मैं भी तेरे लड़कों को जमा कर लूं।” (मत्ती 23:37) फिर वो अपने को दूध पिलाने वाली माँ से मुशाबेह करता और फ़रमाता, “क्या ये मुम्किन है कि कोई माँ अपने शीर-ख़्वार (दूध पीते) बच्चे को भूल जाये और अपने रहम के फ़र्ज़न्द पर तरस ना खाए? हाँ वो शायद भूल जाये पर मैं तुझे ना भूलूँगा। (यसअयाह 49:15) वो अपने को इन्सान से तश्बीह देता और फ़रमाता, “तू ने देखा कि जिस तरह इन्सान अपने बेटे को उठाए हुए चलता है, तुमको इसी तरह ख़ुदावंद तेरा ख़ुदा तेरे उस जगह आ पहुंचने तक सारे रास्ते जहां-जहां तुम गए तुमको उठाए रहा।” (इस्तिस्ना 1:31) जब हम ऐसी मिसालों को जो ईलाही मुहब्बत के इज़्हार में कलाम-मुक़द्दस में बकस्रत पाई जाती हैं, पढ़ते हैं तो ताज्जुब से भर जाते। ख़ाकी कीड़ों पर इस क़द्र उस की मुहब्बत और प्यार का ज़ाहिर होना कैसी अजीब बात है। सच-मुच “क्योंकि ख़ुदा ने दुनिया से ऐसी मुहब्बत रखी कि उसने अपना इकलौता बेटा बख़्श दिया, ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो, बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।” (यूहन्ना 3:16) क्या ऐसी मुहब्बत ईलाही की मिसालें और बातें बजुज़ बाइबल और दीन-मसीही के और किसी किताब व मज़्हब में पा सकते हैं?

मसीहाना उम्मीद

Messianic Hope

मसीहाना उम्मीद

By

Kadarnath

कीदारनाथद

Published in Nur-i-Afshan Feb 19, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 19 फरवरी 1891 ई
(2 समुएल 24:13-14)

इस बयान का शुरू यूं होता है कि बाद इस के ख़ुदावंद का ग़ुस्सा इस्राईल पर भड़का, कि उसने दाऊद के दिल में डाला कि उनका मुख़ालिफ़ हो के कहे कि जा और इस्राईल और यहूदा को गिन। (2 समुएल 24:1)

मुख़ालिफ़ान मज़्हब ईस्वी इस आयत में उसने का मुशारन-इलय्या (जिसकी तरफ़ इशारा किया गया हो) ख़ुदावंद को ठहरा कर, 1 तवारीख़ की 21:1 से जहां लिखा है कि, शैतान इस्राईल के मुक़ाबले में उठा, पाक कलाम में मुख़ालिफ़त साबित करते हैं। लेकिन ये उनकी क़वाइद ज़बान (ज़बान के उसूल) से सरीह (बिल्कुल) ना-वाक़िफ़ी है, क्योंकि क़रीबन हर एक ज़बान में मह्ज़ इशारा हुस्न कलाम में दाख़िल है, फिर जो पहली आयत में मुक़द्दर है वो तवारीख़ में मौजूद है पस मुख़ालिफ़त ना रही। अब हम दाऊद की बादशाहत में मसीह का ईमा है। इस तरह उस की ज़िंदगी हम मसीहीयों की ज़िंदगी की ईमा (इशारा) ठहर सकती है। अगर हम इस बात का लिहाज़ रखें कि दुनिया के सफ़र में इन्सान को क़िस्म-क़िस्म के वाक़ियात का पेश आना ज़रूरी है और कि इन्सान की हालत यकसाँ नहीं ये सिर्फ़ ख़ुदावंद की सिफ़त है, जिसमें बदलने और फिर जाने का साया नहीं। (मलाकी 3:6, याक़ूब 1:17) चुनान्चे दाऊद की सवानिह उम्री इस मुद्दे की शाहिद है। एक वक़्त वो साऊल के मारने से बाज़ रहा। 1 समुएल 24:6 और 11:26 और एक वक़्त वो ज़िना में मुब्तला हुआ। 2 समुएल 11:4 ऊरिया को क़त्ल कराया।

2 समुएल 11:15 एक वक़्त वो ख़ुदा के संदूक़ के आगे नाचा। 2 समुएल 6:14 और एक वक़्त ख़ुदा की मर्ज़ी के बरख़िलाफ़ इस्राईल को शुमार कराया। 2 समुएल 24:1 और बावजूद मना करने के भी बाज़ ना आया। 2 समुएल 24:4 पर तो भी वो दिल से ख़ुदा के हुज़ूर रास्तबाज़ था। 1 सलातीन 3:14 दर्याफ़्त करना चाहिए कि वो रास्तबाज़ी दाऊद में क्या थी, जिसने बावजूद इस क़द्र सख़्त कमज़ोरीयों के भी उसे इस चट्टान पर क़ायम रखा? जिसका वो आप 18 ज़बूर की 2 में ज़िक्र करता है। इस का जवाब इसी 2 समुएल के 24:10 में मौजूद है कि दाऊद का दिल बेचैन हो गया और दाऊद ने कहा, कि मैं ख़ुदावंद का गुनाहगार हूँ। 2 समुएल 12:13 पर ये इक़रार वो इक़रार नहीं है जो यहूदा इस्करियोती को हलाकत तक पहुँचाता है। मत्ती 27:4 बल्कि पतरस के हम अश्कबारों को नजात के चशमें तक ले जाता है। मत्ती 75:26 इस इक़रार को हम मसीहाना उम्मीद कह सकते हैं और यही हमारी आयतों का मौज़ू है। आओ थोड़ी देर के लिए इस पर ग़ौर करें, और वो तीन ग़ौर हैं :-

अव़्वल : मसीहाना उम्मीद की तारीफ़

आने वाले ज़माने में किसी मिलने वाली चीज़ के आसार को उम्मीद कहते हैं ख़्वाह वो मिले ख़्वाह ना मिले, क्योंकि दुनिया बाउम्मीद क़ायम है। लेकिन मसीहाना उम्मीद इस के बरख़िलाफ़ है। ये उम्मीद शर्मिंदा नहीं करती। रोमीयों 5:5 बल्कि नाउम्मीदी में उम्मीद के साथ ईमान लाने का सबब है। रोमीयों 4:18 शरीरों (बेदीनों) की उम्मीद फ़ना होगी। अम्साल 10:28 पर मसीहाना उम्मीद ज़िंदा उम्मीद है। 1 पतरस 1:3 और ये उम्मीद ना इन्सान से, बल्कि ख़ुदा से लगाई गई है। ज़बूर 31:24 हाँ इसी उम्मीद पर रसूलों ने यरूशलेम को अपनी ताअलीम से भर दिया। आमाल 5:28 और इसी उम्मीद पर आज मसीही ताअलीम की इशाअत आलमगीर हो रही है।

दोम : मसीहाना उम्मीद की पाएदारी

दुनियादारों की उम्मीदें कमज़ोर हैं पर ख़ुदावंद के ख़ौफ़ में हमारी उम्मीद क़वी है। अम्साल 14:28 रियाकार की उम्मीद तोड़ी जाती है। अय्यूब 8:13 लेकिन हमारी उम्मीद आख़िर तक कामिल है। इब्रानियों 6:11 और वो उम्मीद गोया हमारी जान का लंगर है। इब्रानियों 6:19 वो किसी आज़माईश के टाले नहीं टलती और ना किसी मुसीबत से हटाए हटी है।

क्योंकि इस उम्मीद की बुनियाद ख़ुदावंद है। 1 तीमुथियुस 1:1 इस आग से जलती भट्टी पर नज़र करो, जिसमें सदरक मिसक और अबदनजू डाले गए। दानीएल 3:21 वो अपनी उम्मीदगाह पर साबित थे कि वो उन्हें बे-उम्मीद ना छोड़ेगा और बचाने पर क़ादिर है। दानीएल 3:17 जो ख़ुदा के बेटे की सूरत में इन तीनों में बनोकद-नज़र को चौथा नज़र आया। दानीएल 3:25

सोम : मसीहाना उम्मीद किन चीज़ों पर लगी है?

 

 

दुनियादारों की उम्मीद उन ही चीज़ों पर मौक़ूफ़ है जिन्हें वो देख सकते या जिन से मुतमत्ते (फ़ायदा उठाया जा सके) हो सकते वो उनकी नफ़्सानी ख़्वाहिशों के नताइज हैं या जिनको वो हासिल नहीं कर सकते। मसलन तमाम दुनिया की दौलत और हफ़्त…बादशाहत या दुनयवी सामान राहत पाने वाले जहान में। जन्नत और शराब व कबाब वग़ैरह पर शुक्र-ए-ख़ुदा कि मसीहाना उम्मीद उन अश्या पर लगी है, जिनको आँखों ने देखा और ना कानों ने सुना और ना दिल में आईं। 1 कुरिन्थियों 2:9 हम तो ख़ुदा के जलाल पर फ़ख़्र करते हैं। रोमीयों 5:2 और कि हम उम्मीद से बच गए। रोमीयों 8:24 बल्कि रूह के सबब ईमान की राह से रास्तबाज़ी की उम्मीद के बर आने के मुंतज़िर हैं। ग़लतीयों 5:5 और हमेशा की ज़िंदगी की उम्मीद है। तीतुस 1:2 और यही रुहानी ख़्वाहिशों के फल हैं। हासिल कलाम इस तमाम बयान से चंद फ़वाइद निकलते हैं।

  1. जो शख़्स फ़ज़्ल के तहत आ गया वो कभी हलाक नहीं हो सकता। ज़बूर 37:24, 2-कुरिन्थियों 9:4
  2. कोई शख़्स कैसा ही मज़्बूत क्यों ना हो पर गिर पड़ने का ख़ौफ़ है। 1 कुरिन्थियों 10:12
  3. आने वाली मुतअ़द्दिद मुसीबतों में से हल्की मुसीबत को इख़्तियार करना अक़्लमंदी का काम है।
  4. दुख-सुख दोनों हालतों में सिर्फ ज़िंदा ख़ुदा के हाथों में पड़ना ईमानदारी का निशान है।

राक़िम

केदारनाथ मिडिल क्लास मदरिसा इल्म ईलाही- सहारनपूर

मज़ाहिरे हक़

Mazahr-e-Haq

मज़ाहिरे हक़

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan March 5, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 5 मार्च 1891 ई॰

जिल्द सोम, किताब-उल-जिहाद सफ़ा 345 में लिखा है कि उन लोगों की निस्बत जो जिहाद में मारे जाते हैं। “हज़रत ने फ़रमाया, कि उनकी रूहें सब्ज़ परिंदे जानवरों के शिकम में रहती हैं और उनके लिए क़ंदीलें अर्श के नीचे लटकाई गई हैं जो बमंज़िला उनके घोंसलों के हैं। और वो बहिश्त (जन्नत) के मेवे खाते हैं और उन क़ंदीलों में ठिकाना (बसेरा) पकड़ते हैं। इस की बाबत इस किताब में बतौर शरह अगरचे ये लिख दिया है कि इस से तनासुख़ का इस्बात नहीं होता तनासुख़ उस को कहते हैं कि इस आलम में रूह बदन में रुजू करे ना कि आख़िरत में और मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) इन तनासुख़ (तनासुख़ पर ईमान रखने वाले) आख़िरत के मुन्किर हैं।”

लेकिन हमारे ख़्याल में नहीं आता कि ऐसा लिख देने से ये एतराज़ इस ताअलीम पर से क्योंकि दूर हो सकता है? अगर ये अम्र नामुम्किन तस्लीम किया जाये कि रूह इन्सानी इस आलम में किसी ग़ैर-जिन्स जिस्म में नहीं आ सकती तो फिर ये क्योंकर मुम्किन है कि वो रूह सब्ज़-रंग जानवरों में बहिश्त (जन्नत) में रखी जाये और वो जानवर क़ंदीलों में जो बजाय घोंसलों के अर्श में लटकती हैं बसेरा लें। इलावा-अज़ीं मुअतक़िदान (अक़ीदत रखने वाले) तनासुख़ मुन्किरे आख़िरत नहीं, बल्कि कहते हैं कि चौरासी भगत कर आख़िर को अबदी आराम में रूह पहुंच जाती है। हमारे नज़्दीक इन्सानी रूह का ना इस दुनिया में ना आख़िरत में किसी ग़ैर-जिन्स क़ालिब में जाना क़रीन-ए-अक़्ल व इल्हाम मालूम होता है। और ना हम ऐसी बातों को इन्सान की अबदी ज़िंदगी व ख़ुशहाली के मुताबिक़ पाते हैं। बेशक ख़ुदा के कलाम में जो कुछ इस अम्र में लिखा है वो निहायत तसल्ली बख़्श मालूम होता है। इन्जील में कुरिन्थियों के 15 बाब 39 आयत से यूं है,

“सब जिस्म वही जिस्म नहीं बल्कि आदमीयों का जिस्म और है, चौपाईयों का जिस्म और, मछलीयों का और है परिंदों का और, आस्मानी बदन हैं और ख़ाकी बदन हैं पर आस्मानियों का जलाल और है और ख़ाकियों का और, आफ़्ताब का जलाल और है और माहताब का जलाल और, और सितारों का जलाल और है क्योंकि सितारा सय्यारे से जलाल में फ़र्क़ रखता है। मुर्दों की क़ियामत भी ऐसी ही है। फ़ना में बोया जाता बक़ा में उठता है, बेहुरमती में बोया जाता जलाल में उठता है। कमज़ोरी में बोया जाता क़ुदरत में उठता है। हैवानी बदन बोया जाता है रुहानी बदन उठता है। हैवानी बदन है और रुहानी बदन है। चुनान्चे लिखा है कि पहला आदमी यानी आदम जीती जान हुआ और पिछ्ला आदम (यानी यसूअ मसीह) जिलानी वाली रूह। लेकिन रुहानी पहले ना था, बल्कि हैवानी बाद उस के रुहानी। पहला आदमी ज़मीन से खाकी था दूसरा आदमी ख़ुदावंद आस्मान से है। जैसा ख़ाकी वैसे वे भी जो ख़ाकी हैं, और जैसा आस्मानी वैसे भी वो भी आस्मानी हैं। और जिस तरह हम ने ख़ाकी की सूरत पाई है हम आस्मानी की सूरत भी पाएँगे।”

पस वो जो मरने के बाद आख़िरत में ये उम्मीद रखते हों ख़्वाह मुहम्मदी हों जो आक़िबत में सब्ज़-रंग परिंदों के पेट में रहने और मेवे खाने और क़ंदीलों में ठिकाना पाने के मुंतज़िर हैं या हिंदू जो चौरासी जीवन भोगने के ख़रख़शा में पड़े हुए हैं। कलाम ईलाही की आयात बाला पर ग़ौर करें और अगर उस ख़ुदावंद पर जो आस्मान से उतरा और इन्सानियत के लिबास को पहन कर हम ख़ाकियों का हम-शक्ल बना और गुनाह के सिवा सारी बातों में हमारी मानिंद आज़माया गया और अपने लहू से हमें मोल लेकर शरीअत की लानत से छुड़ा दिया ईमान लाएं तो वो जैसा उन्होंने ख़ाकी की सूरत पाई है रुहानी की सूरत भी पाएँगे। और सब्ज़-रंग परिंदों में या गधे कुत्तों के जीवन में रहने के ख़्याल से बेफ़िक्र और मुत्मइन होंगे।