किसी दूसरे के वसीले से नजात नहीं

उन्नीसवीं सदी हुआ आती है कि ये कलाम कहा गया। हज़ारों मील हमसे दूर पतरस हवारी (शागिर्द) की ज़बानी अहले यहूद की बड़ी कचहरी में क़ैदी की हालत में उनके बड़े बड़े सरदारोँ और बुज़ुर्गों के रूबरू (आमने सामने) ये अल्फ़ाज़ कहे गए। ज़मानों को तै कर कर ये अल्फ़ाज़ समुंद्र और ख़ुशकी का सफ़र कर के हमारे कानों तक पहुंचे हैं। क्या वजह है कि ये कलाम इस क़द्र मुद्दत-ए-मदीद (ज़माना दराज़) तक क़ायम रहा?

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Salvation is found in no one else

किसी दूसरे के वसीले से नजात नहीं

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan March 23, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 23 मार्च 1894 ई॰

और किसी दूसरे के वसीले से नजात नहीं क्योंकि आस्मान के तले आदमीयों को कोई दूसरा नाम नहीं बख़्शा गया जिसके वसीले से हम नजात पा सकें। (आमाल 4:12)

उन्नीसवीं सदी हुआ आती है कि ये कलाम कहा गया। हज़ारों मील हमसे दूर पतरस हवारी (शागिर्द) की ज़बानी अहले यहूद की बड़ी कचहरी में क़ैदी की हालत में उनके बड़े बड़े सरदारोँ और बुज़ुर्गों के रूबरू (आमने सामने) ये अल्फ़ाज़ कहे गए। ज़मानों को तै कर कर ये अल्फ़ाज़ समुंद्र और ख़ुशकी का सफ़र कर के हमारे कानों तक पहुंचे हैं। क्या वजह है कि ये कलाम इस क़द्र मुद्दत-ए-मदीद (ज़माना दराज़) तक क़ायम रहा?

इसलिए कि ये पतरस का कलाम नहीं पर उस का है जो आजकल और परसों यकसाँ है। क़दीम-उल-अय्याम, ग़ैर-तब्दील, अल्फ़ा व उमेगा (इब्तिदा, इंतिहा) अव़्वल और आख़िर। देखो इन्जील मर्क़ुस 13:11 “पर जब तुम्हें ले जा के हवाले करें आगे से फ़िक्र ना करो कि हम क्या कहेंगे। और ना सोचो बल्कि जो कुछ इस घड़ी तुम्हें बताया जाये वो कहो। क्योंकि कहने वाले तुम नहीं हो बल्कि रूह-उल-क़ुद्स है।”

इस कलाम में तीन अम्र हमारे क़ाबिले गौर हैं :-

अव़्वल : आदमजा़द को नजात की ज़रूरत है।

दुवम : ये नजात मिंजानिब अल्लाह है।

सोइम : ये नजात मसीह के सिवा मिल नहीं सकती है।

अव़्वल : हमको नजात की ज़रूरत हैइस वास्ते कि हम बड़े ख़तरे में हैं। बल्कि वाजिब-उल-मौत, गुनेहगार हो कर ग़ज़ब-ए-इलाही के सज़ावार। इन्जील हमको मसीह के वसीले इस गुनाह और मौत से छुटकारे की ख़बर देती है। क्योंकि लिखा है कि वो “आया है कि खोए हुओं को ढूंढे और बचाए।” हमको बहुत चीज़ों की ज़रूरत है मगर हमारी अशद ज़रूरत नजात है। भूके की अशद ज़रूरत रोटी। प्यासे की पानी। डूबते हुए की निकाला जाना। गुनेहगार ग़ज़बे इलाही के सज़ावार की अशद ज़रूरत नजात है।

अगर किसी मकान में आग लगी हो और मालिक मकान खड़े हो कर कहने लगे। भई इस मकान की कुर्सी (इमारत की ता की ऊंचाई) बुलंद चाहिए। दरवाज़े लंबे रोशन दान बड़े, खिड़कियाँ आईनादार, कमरे वसीअ, वग़ैरह-वग़ैरह तो क्या लोग ना कहेंगे। मियां अजब बेवक़ूफ़ी है। आग तो भुजाइये पानी की फ़िक्र कीजिए। पहले मकान को तो बचाईए।”

ऐ नाज़रीन क्या ये अजीब बेवक़ूफ़ी हर रोज़ देखने में नहीं आती। क्या आदमजा़द अपनी अशद ज़रूरत से बे परवाह हो कर उन चीज़ों पर जो बिल-मुक़ाबिल इस ज़रूरत के कमतर ज़रूरी हैं अपना दिल नहीं देते। और इस वाक़ई ज़रूरत को क़त-ए-नज़र (इस के सिवा) कर के इन से हक़ीक़त-ए-ज़रूरीयात पर अपना सारा ध्यान नहीं लगाते हैं। कहते हैं ग़रीब हैं हमको पैसा चाहिए बीमार हैं तंदरुस्ती चाहिए। अनपढ़ हैं इल्म चाहिए ये चाहिए, वो चाहिए हाँ चाहिए ज़रूर चाहिए। कौन कहता है नहीं चाहिए। मगर ऐ गुनेहगार ग़ज़ब-ए-इलाही के सज़ावार तेरी रूह का क्या हाल है इस को तो पहले हलाकत से बचा तेरी अशद ज़रूरत तो नजात है।

हम को नजात की ज़रूरत है

2. ये नजात मिंजानिब अल्लाह है

नेचर गवाह है कि अल्लाह कैसा मेहरबान है। हर उम्दा चीज़ ख़ुदा से आती है। ख़ुरिश (ख़ुराक) पोशिश (लिबास) सामान-ए-आसाइश, दोस्त अज़ीज़ व अका़रिब सब अल्लाह के दान (बख़्शिश) हैं। लिखा है, हर एक अच्छी बख़्शिश और हर एक कामिल (मुकम्मल) इनाम ऊपर ही से है और नूरों के बानी की तरफ़ से उतरता है जिसमें बदलने और फिर जाने का साया भी नहीं। “ख़ुदा ने अपनी रहमत-ए-अज़ीम से ना सिर्फ इस दुनिया की बरकतें बोहतात से दी हैं। मगर आख़िरत की ख़ुशी का सामान अपने बेटे ख़ुदावन्द येसू मसीह के देने से हमारे लिए मुहय्या किया है। मसलन दीगर बरकात के ये बरकत भी मुफ़्त मिलती है।” ख़ुदावन्द येसू मसीह पर ईमान ला और तू नजात पाएगा। ख़ुदा का क़ौल है। ख़ुदा की नेअमतें बेश-बहा हैं। लेकिन ये बरकत बयान से बाहर है उसी बरकत से हमारी रूह की असीरी (रूह की गु़लामी) हमारे कुल नेचर की असीरी है। हमारी जिस्मानी ख़ुशीयां हम अल्लाह के हाथों क़ुबूल करते हैं। रुहानी ख़ुशीयां भी उस के हाथों क़ुबूल करना है। वर्ना हलाकत नज़्दीक है क्योंकि :-

3. ये नजात मसीह के सिवा मिल नहीं सकती है

मज़्कूर बाला कलाम इस अम्र में निहायत साफ़ है। और किसी दूसरे से नजात नहीं। फिर ताकि हम धोका ना खाएं हमको जताया जाता है “क्योंकि आस्मान के तले आदमीयों को कोई दूसरा नाम नहीं बख़्शा गया जिससे हम नजात पा सकें।” आदमजा़द की उम्मीद का लंगर सिर्फ़ ख़ुदावन्द येसू मसीह है। बुज़ुर्गाने अहले यहूद ने इस का इन्कार किया और हलाक हुए अगर हम इन्कार करें तो हम हलाक होंगे। जिस हाल राह-ए-नजात एक ही है। और हम इस को इख़्तियार करने से इन्कार करते हैं। तो नतीजा ये ही होगा कि हम हलाक होंगे। “ख़ुदा ने जहान को ऐसा प्यार किया है कि उसने अपना इकलौता बेटा बख़्शा ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हुए बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।”

क्या ये अजीब बेवक़ूफ़ी नहीं कि इस को क़ुबूल ना करें। अगर एक मकान आग से जल रहा हो और हमारे निकल जाने को एक सीधा रस्ता बताया जाये। और हम खड़े हो कर हुज्जत (मज़ाक़) करें कि क्या कोई और रस्ता नहीं हो सकता। तो हमारा हाल सिवाए हलाकत के और क्या होगा। नजात का रस्ता सीधा और साफ़ है। अल्लाह का मुक़र्ररा रस्ता है। तमाम आदमजा़द के लिए है ये ही एक अकेला राह है। जो कोई इस को तर्क करते हैं हलाक होते हैं। आदमीयों को कोई दूसरा नाम नहीं बख़्शा गया है। नाम से मुराद ख़ुद नजातदिहंदा है। हमारे नाम के दस्तख़त हमको इस बात के लिए पूरे-पूरे ज़िम्मेवार बनाते हैं। कि जहां वो सब्त (नक़्श) किए गए हों। हमारी हैसियत, मिल्कियत, इज़्ज़त ऐसे दस्तख़त से अपना ज़िम्मे उठा लेते हैं। मसीह की सदाक़त (सच्चाई) और भर पूरी उनकी नजात के लिए जो उस पर ईमान लाते हैं ज़मानत (ज़िम्मेदारी) है। इस ज़ामिन (वो शख़्स जो किसी दूसरे की ज़मानत दे) का नाम हमको ख़ुदा से मेल करवाता है। हमारा क़र्ज़ अदा करता। और हमको आस्मानी बरकात का वारिस बनाता है। ये ही नूरानी नाम है कि जिसकी नूर अफ़्शानी की जाती है। ऐ ख़ताकार (गुनेहगार) इस नाम को क़ुबूल कर “क्योंकि आस्मान के तले आदमीयों को कोई दूसरा नाम नहीं बख़्शा गया जिससे हम नजात पा सकें।”

हरी चरित्र या आदि ग्रंथ और बाइबल का मुकाबला

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ये नादिर किताब जो फ़िलहाल मतबअ अमरीकन मिशन लूधियाना में अव्वल मर्तबा छपी है। आदिग्रंथ और बाइबल के दर्मियान अजीब मुताबिक़त (मुशाबहत, बराबरी) ज़ाहिर करती है। इस के मोअल्लिफ़ (तालीफ़ करने वाला, किताब लिखने वाला) रोशन ज़मीर पण्डित वालजी भाई गुजराती ने सवाल व जवाब के तौर पर हर एक मज़्हबी ताअलीम को जो मसीही मज़्हब के मुताल्लिक़ है।

A Comparison of Adh Granth and Bible

हरी चरित्र या आदि ग्रंथ और बाइबल का मुकाबला

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan March 9, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 9 मार्च 1894 ई॰

ये नादिर किताब जो फ़िलहाल मतबअ अमरीकन मिशन लूधियाना में अव्वल मर्तबा छपी है। आदिग्रंथ और बाइबल के दर्मियान अजीब मुताबिक़त (मुशाबहत, बराबरी) ज़ाहिर करती है। इस के मोअल्लिफ़ (तालीफ़ करने वाला, किताब लिखने वाला) रोशन ज़मीर पण्डित वालजी भाई गुजराती ने सवाल व जवाब के तौर पर हर एक मज़्हबी ताअलीम को जो मसीही मज़्हब के मुताल्लिक़ है। आदिग्रंथ और बाइबल के अश्लोक (नज़्म, शेअर) और आयात से मुताबिक़ कर के दिखाया। और साबित किया है, कि नानक साहब की ताअलीम का माखज़ (बुनियाद) किया है। इस किताब के दीबाचे में लिखा है, कि नानक साहब का मज़्हब हर पंथ या मुक्ती पंथ कहलाता है। वो 1469 ई॰ में पैदा हुए। और इस मज़्हब की मुनादी उन्होंने 1500 ई॰ में करनी शुरू की। अक्सर लोग ख़याल करते हैं कि नानक साहब वेदान्ति थे। लेकिन ये बिल्कुल नादुरुस्त है। क्योंकि उन्होंने हिंदू और मुहम्मदी मज़ाहिब को रद्द किया। और हिंदू देवताओं और अवतारों (ख़ुदा रसीदा आदमीयों) को और वेद (हिंदूओं की मुक़द्दस किताब) और पुराण (हिन्दुओं की मज़्हबी किताबें जिनमें से 18 पुराण मशहूर हैं) को झुठलाया है। हमको आदिग्रंथ से मालूम होता है कि नानक साहब एक दाना (अक़्लमंद) और ख़ुदा परस्त शख़्स थे। उन्होंने साधुओं और गुरुओं के बहुत से भीकहा पहने और सच्चाई की तलाश में बहालत तिश्नगी व गिरस्नगी (प्यास व भूक) सहरा नोर्द (जंगलों में रहना) रहे। और आख़िर को सत गुरु हरी इब्ने-अल्लाह से आगाह हुए और बदिल व जान उस की परस्तिश शुरू की। ना उन्हों ने फ़ील-हक़ीक़त अपने गुनाहों से तौबा की और ना उनका इक़रार किया। नानक साहब और उनके पैरौ (पीछे वाले) भी हमेशा अपने गुनाहों का इक़रार करते और क़ुबूल करते हैं, कि उनमें कोई ऐसी नेकी नहीं है जिससे वह नजात के मुस्तहिक़ (लायक़) हो सकें। और ये भी आदिग्रन्थ से मालूम होता है कि कोई शख़्स अपने नेक कामों के सबब से नजात नहीं पा सकता। (बशर्ते के वो ख़ुदा से फ़ैसला किए जाएं) लेकिन वो सिर्फ़ हरी (ख़ुदा) इब्ने-अल्लाह की रास्तबाज़ी के वसीले नजात पा सकता है। आदिग्रन्थ में हिंदू और मुहम्मदियों को यकसाँ बताया गया है। और उनको बड़ी मलामत (लान तअन, बुरा भला) की गई है। आदिग्रंथ के लिखने वालों ने हिंदू और मुहम्मदियों को यकसाँ शुमार किया है। और हिन्दू के देवताओं का भी ज़िक्र किया है। मसलन इस में ऐसे नाम हिंदूओं के देवताओं का भी ज़िक्र किया है। जैसा कि गोपाल, लाल गोपाल, गोविंद, दमोदर वग़ैरह। लेकिन ये बिल्कुल ख़याल ना करना चाहिए कि इनकी परस्तिश वाजिब है।

नानक साहब ने ना सिर्फ अक्सर आदिग्रंथ में हिंदू देवताओं और अवतारों की परस्तिश से मना किया है। बल्कि ये भी साफ़ बज़ाहिर किया है, कि मुन्दरिजा बाला देवताओं में कोई नजात देने की क़ुद्रत नहीं रखता है। क्योंकि वो माया (दुनिया) के बस में गिरफ़्तार हो गए। और मग़्लूब (ज़ेर) हो गए। वो फ़क़ीर हैं। वो दीवाने हैं। वो वेद से बख़ूबी वाक़िफ़ नहीं। वो सब गु़लामी में हैं। इंद्र और दीगर देवता रोते हैं। वो सब बीमार हैं। उन सब पर माया ग़ालिब हो गई है। ब्रम्हा और दीगर हिंदू देवता सस्त गुरु की परस्तिश से नावाक़िफ़ हैं। इन बातों के इलावा आदि ग्रन्थ में हिंदू देवताओं की नालयाक़ती। और इनकी परस्तिश ना करने। और इस बारे में कि इनके ज़रीये किसी को नजात नहीं मिल सकती साफ़ बयानात पाए जाते हैं। इस से ये मालूम होता है, कि जो नाम हिंदू देवताओं के उन्होंने लिखे हैं। ख़ुदा से मन्सूब हैं और हरी की सिफ़त व सना ज़ाहिर हैं।

अच्छा चरवाहा मै हूँ

कलाम-उल्लाह के अक्सर मुक़ामात में ख़ुदा तआला को गडरिए या चौपान से, और उस के ईमानदार बंदों को भेड़ों से तश्बीह दी गई है। और जमाअत मोमिनीन को गल्ला कहा गया है। चुनान्चे दाऊद ने फ़रमाया कि “ख़ुदावन्द मेरा चौपान है। मुझको कुछ कमी नहीं” और अपने को भेड़ से तश्बीह देकर कहा, “वो मुझे हरियाली चरागाहों में बिठाता है।

I am the Good Shepherd

अच्छा चरवाहा मै हूँ

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan February 2, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 2 फरवरी 1894 ई॰

अच्छा चरवाहा मैं हूँ। अच्छा चरवाहा भेड़ों के लिए अपनी जान देता है। (यूहन्ना 10:11)

कलाम-उल्लाह के अक्सर मुक़ामात में ख़ुदा तआला को गडरिए या चौपान से, और उस के ईमानदार बंदों को भेड़ों से तश्बीह दी गई है। और जमाअत मोमिनीन को गल्ला कहा गया है। चुनान्चे दाऊद ने फ़रमाया कि “ख़ुदावन्द मेरा चौपान है। मुझको कुछ कमी नहीं” और अपने को भेड़ से तश्बीह देकर कहा, “वो मुझे हरियाली चरागाहों में बिठाता है। वो राहत के चश्मों की तरफ़ मुझे ले पहुँचाता है।” ज़बूर 23:1-2 फिर वो अपनी दुआओं में कलीसिया की परेशानी के लिए मिन्नत करता। और यूं ख़ुदा से मुल्तजी (इल्तिजा करना) होता है। ऐ इस्राईल के गडरीए, तू जो यूसुफ़ को गल्ले की मानिंद ले चलता। और करोबीम (फ़रिश्ते) के ऊपर तख़्त नशीन है जलवागर हो। ज़बूर 80:1 पस ख़ुदावन्द मसीह ने भी अपने को तम्सिलन फ़रमाया कि वो अच्छा गडरिया मैं हूँ। और मेरा अच्छा गडरिया होने का सबूत ये है, कि मैं अपनी भेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान तक देने से दरेग़ (इन्कार) ना करूँगा। वो अच्छा गडरिया हो कर अपने दुनिया में आने का ये सबब बताता है, कि उस के लोग जो इस दुनिया के जंगल में उन भेड़ों की मानिंद थे जिनका कोई चरवाहा ना हो। और वो हलाक होने के ख़तरे में हों। ज़िंदगी और नजात हासिल करें। चुनान्चे ख़ुदावन्द फ़रमाता है, देख मैं ही अपनी भेड़ों की तलाश करूँगा। और उन्हें ढूंड निकाल लूँगा। जिस तरह से गडरिया, जिस दिन कि वो भेड़ों के दर्मियान हो जो परागंदा हो गई हैं अपने गल्ले को ढूंढता है। इसी तरह मैं अपनी भेड़ों को ढूंढता। और उन्हें हर कहीं से जहां वो अब्र व तारीकी के दिन तितर बितर हो गई हैं बचा लाऊँगा। हिज़्क़ीएल 34:11,12,13

अब वो लोग जो कहा करते हैं, कि अगर मसीह ख़ुदा है। तो उस को ऐसी क्या ग़र्ज़ और ज़रूरत थी, कि वो औरों के बदले दुनिया में आकर दुख उठाए। और सलीबी मौत को इख़्तियार करे। गुम-शुदा इंसान की क़रीब-उल-हलाकत हालत पर। और ख़ुदावन्द की मुहब्बत और उस के रहम व करम पर कुछ ग़ौर व फ़िक्र करें। तो मालूम होगा कि मसीह का मुजस्सम हो कर दुनिया में आना। और गुनेहगारों के बदले में अपनी जान देना क्या मअनी रखता है। इस में शक नहीं कि मसीह का इन्सानी सूरत को इख़्तियार कर के दुख उठाना। और मारा जाना मज्बूरी व बेमक़दूरी की वजह से ना था। और जैसा कि उसने इसी बाब की सोलहवीं और सत्रहवीं आयतों में फ़रमाया कि, “बाप मुझे इस लिए प्यार करता है, कि मैं अपनी जान देता हूँ। ताकि मैं उसे फिर लूं। कोई शख़्स उसे मुझसे नहीं लेता। पर मैं आप उसे देता हूँ। मेरा इख़्तियार है, कि उसे दूँ। और मेरा इख़्तियार है कि उसे फिर लूं ये हुक्म मैंने अपने बाप से पाया। ये बात रोज़ अज़ल से क़रार पा चुकी थी, कि गुनेहगार बनी-आदम के कफ़्फ़ारे के लिए इब्ने-अल्लाह बसूरत इन्सान ज़ाहिर हो के एक कामिल (मुकम्मल) क़ुर्बानी गुज़ारने। और ख़ुदा और इंसान में सुलह करा के दो को एक करे। जैसा लिखा है कि “मसीह ने अपना जिस्म देकर दुश्मनी को यानी शरीअत के हुक्मों और रस्मों को खो दिया। ताकि वो सुलह करा के दो से आप में एक नया इंसान बना दे। और आप में दुश्मनी मिटा के सलीब के सबब से दोनों को एक तन बना कर ख़ुदा से मिलाए।” (इफ़िसियों 2:15-16)

लेकिन मुतअस्सिब (तास्सुब करने वाला) और नफ़्सानी (ख़ुद-ग़र्ज़) आदमी इन बातों को हरगिज़ क़ुबूल नहीं करता। और इन्जील की ज़िंदगी बख़्श ताअलीमात के मक़्सद व मअनी को ना समझ कर अपने तारीक फ़हम व अक़्ल (दानाई व अक़्ल) के मुताबिक़ इनकी तफ़्सीर व तश्रीह करता है। चुनान्चे तोहफ़ा मुहम्मदियाह में ये किसी मुसलमान ने लिखा है, कि “हज़रत मसीह किसी तौर से राज़ी ना थे मस्लूब हों।” और अपने इस ख़याल के सबूत में ख़ुदावंद मसीह की उस दुआ को जो उसने गतसमनी में मांगी। इन्जील से इक़्तिबास (अख़ज़ करना) किया है। और लिखा है कि “उस के गिड़ गिड़ा कर ये दुआ मांगने से कि “ऐ बाप अगर हो सके तो ये पियाला मुझसे गुज़र जाये।” साबित होता है कि मसीह किसी तौर से राज़ी ना थे।

अफ़्सोस है कि इस क़िस्म के एतराज़ और ख़याल करने वाले अश्ख़ास मुक़द्दस नविश्तों से बख़ूबी वाक़फ़ीयत नहीं रखते। और सिर्फ अपने मतलब के पूरा करने के वास्ते कहीं से कोई बात निकाल कर अपने हस्बे मंशा (मर्ज़ी के मताबिक) इस की शरह व बयान करते हैं। मोअतरिज़ ने शायद इस दुआइया आयत के आख़िरी अल्फ़ाज़ पर ग़ौर नहीं किया जो ये हैं, “तो भी मेरी ख़्वाहिश नहीं। बल्कि तेरी ख़्वाहिश के मुताबिक़ हो।” बात ये है कि जब तक मसीह की रूह पाक इंसान के ज़हन को ना खोले। वो कलाम-उल्लाह की इन बातों को हरगिज़ समझ नहीं सकता। और नहीं जानता कि “यूं लिखा, और यूँही ज़रूर था, कि मसीह दुख उठाए और तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठे।” (लूक़ा 24:46)

हमारी ज़िंदगी

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इंसान की ज़िंदगी में ख़ास तीन हालतें हैं या यूं कहो कि इंसान के अय्यामे ज़िन्दगी तीन बड़े हिस्सों में मुनक़सिम (तक़्सीम) हैं। बचपन, जवानी, बुढ़ापा। इनमें से उम्र का पहला हिस्सा वालदैन की निगरानी और उस्तादों की सुपुर्दगी में गुज़रता है। और नाबालिग़ होने की सूरत में दूसरों की मर्ज़ी और ख़्वाहिश के मुवाफ़िक़ चलना पड़ता है बाक़ी उम्र दो

Our Life

हमारी ज़िंदगी

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan March 23, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 23 मार्च 1894 ई॰

ज़िंदगी के तीन बड़े हिस्से

इंसान की ज़िंदगी में ख़ास तीन हालतें हैं या यूं कहो कि इंसान के अय्यामे ज़िन्दगी तीन बड़े हिस्सों में मुनक़सिम (तक़्सीम) हैं। बचपन, जवानी, बुढ़ापा। इनमें से उम्र का पहला हिस्सा वालदैन की निगरानी और उस्तादों की सुपुर्दगी में गुज़रता है। और नाबालिग़ होने की सूरत में दूसरों की मर्ज़ी और ख़्वाहिश के मुवाफ़िक़ चलना पड़ता है बाक़ी उम्र दो हिस्सों का बहुत कुछ दारो मदार (इन्हिसार) इसी पर मुन्हसिर (मुताल्लिक़, वाबस्ता) है। बल्कि अगर यूं कहा जाये कि ये ज़िंदगी का हिस्सा मिस्ल बीज के बोने का वक़्त है और बाक़ी दोनों वक़्त इस बोए हुए के काटने का वक़्त हैं तो दुरुस्त है। पैदा होते ही जब कि इंसान अपने हवास-ए-ख़मसा (पाँच हवास, देखने, सुनने, सूंघने, चखने और छूने की पाँच क़ुव्वतें) को काम में लाने लगता है। इस वक़्त से वो इस दुनिया की बातों को सीखने लगता है। बचपन का ज़माना गोया सीखने का ज़माना है बच्चा इस उम्र के हिस्से में चाहे कुछ सीख ले इल्म या हुनर, नेकी या बदी, और जो कुछ चाहो उस को सिखा लो। सीखने का माद्दा इस में ख़ालिक़ ने बना दिया है। दो तरह से इंसान का बच्चा सीखता है एक तो सिखाने पढ़ाने से दूसरा सोहबत संगत से। अगर पहली तरह की ताअलीम अच्छी और वाजिबी तौर पर की जाये। और इस के मुअल्लिम और अतालीक़ (उस्ताद) साहिब-ए-लियाक़त (क़ाबिलीयत) और दीनदार हों तो वो दाना (अक़्लमंद) और होशियार हो जाता है और ख़ुशी और फ़ारिगुलबाली (ख़ुशहाली) से बाक़ी उम्र के हिस्से गुज़रानता है। पर अगर ताअलीम व तर्बीयत अच्छी ना हो बल्कि कोई बुरा पेशा या गुनाह का काम कि जिसका करना अख़्लाक़ी और मुल्की शराअ की रु से मुनासिब ना हो सीख ले। तो तमाम उम्र बर्बाद हो जाती है। सोहबत भी दो तरह की हैं नेक सोहबत और बद-सोहबत। जिस तरफ़ बच्चे को लगा लो वो वैसा ही बन जाएगा। ज़िंदगी के इस हिस्से में बड़ी भारी होशयारी और ख़बरदारी लाज़िम व मुनासिब है और जिनके जो बच्चे सपुर्द हैं उनका बिगड़ना और सँवरना उनके ही इख़्तियार में है। कलाम इलाही में ज़िंदगी के इस हिस्से के लिए बच्चों को बड़ी उम्दा नसीहतें हैं जिनमें से चंद एक का ज़िक्र करना ख़ास करना नूर अफ़्शां के नाज़रीन तालिब-ए-इल्मों के लिए जो ज़िंदगी के इस हिस्से में हैं फ़ाइदेमंद होंगे।

और अपनी माँ की ताक़ीद को मत तर्क कर

बच्चों के वास्ते हिदायतें :-

ऐ मेरे बेटे अपने बाप की तर्बीयत का शुन्वा (सुनने वाला) हो। और अपनी माँ की ताकीद (ताअलीम) को मत तर्क कर। अम्साल 1:8 इस का फ़ायदा ये है कि ये तेरे सर के लिए रौनक का ताज और तेरी गर्दन के लिए तौक़ (गले का हार) हैं। अम्साल 1:9

ऐ लड़को बाप की ताअलीम सुनो और अक़्लमंदी के हासिल करने पर ध्यान रखो। अम्साल 4:1 ऐ मेरे बेटे मेरी शरीअत को फ़रामोश मत कर पर तेरा दिल मेरे हुक्मों को हिफ़्ज़ करे। अम्साल 3:1

इस का फ़ायदा ये होगा कि वो उम्र की दराज़ी और पीरी और सलामती तुझको बख़्शेंगे। तो तू ख़ुदा और ख़ल्क़ का मंज़ूर-ए-नज़र हो के नेअमत और बड़ी क़द्र पाएगा। अम्साल 3:4

ऐ मेरे बेटे अगर गुनेहगार लोग तुझे फुसला दें तो मत मान। अम्साल 1:10

अपने सारे दिल से ख़ुदावन्द पर तवक्कुल कर और अपनी समझ पर तकिया मत कर और अपनी सारी राहों में उस का इक़रार कर और वो तेरी रहनुमाई करेगा। अम्साल 3:5, 6

अपनी निगाह में (अपने) आपको दानिश मंद मत जान। ख़ुदावन्द से डर। और बदी से बाज़ रह। इस का फ़ायदा ये होगा, कि ये नाफ़ के लिए सेहत और तेरी हड्डीयों के लिए तरावट होगी। अम्साल 3:7, 8

शरीरों की राह में दाख़िल मत हो और ख़बीसों के रस्ते पर मत जा। इस से बाज़ रह और इस के नज़्दीक गुज़र ना कर। उधर से फिर जा और गुज़र जा। अम्साल 4:14, 15

दानिश मंद बेटा बाप को ख़ुश-नूद करता है पर बेदानिश फ़र्ज़न्द अपनी माँ का बार-ए-ख़ातिर होता है। अम्साल 10:1

दानिश्वर बेटा अपने बाप की ताअलीम सुनता है पर ठट्ठा करने वाला सरज़निश पर कान नहीं धरता। अम्साल 13:1

होशियार बेटा बाप को खुशनूद करता है पर बेवक़ूफ़ आदमी अपनी माँ की तहक़ीर करता है। अम्साल 15:20

ऐ मेरे बेटे तू सुन और दानिशमंद हो और अपने दिल की राहबरी कर। अम्साल 23:19

अपने बाप की बात जिस से तू पैदा हुआ है सुन और अपनी माँ को उस के बुढ़ापे में हक़ीर ना जान। अम्साल 23:22

ऐ मेरे बेटे तू ख़ुदावन्द से और बादशाह से डर और उन लोगों के साथ सोहबत ना रख जो तलव्वुन मिज़ाज हैं। अम्साल 24:21

काश कि तमाम बच्चे लड़कपन में दाऊद की तरह कहें, मैं पैदा होते ही तुझ पर फेंका गया। जब मैं अपनी माँ के पेट से निकला तब ही से तू मेरा ख़ुदा है। ज़बूर 22:10

जवानी के अय्याम

हमारी ज़िंदगी में ये वक़्त निहायत क़ीमती और भारी और नाज़ुक है। और ख़तरनाक आज़माईश में मुब्तला होने के बड़े अंदेशे (ख़तरे) का वक़्त है। इंसान के क़वाइद बदनी तंदुरुस्त और मज़्बूत होते हैं। और नफ़्सानी और हैवानी ख़्वाहिशें ज़ोर पर होती हैं। इंसान बड़ी आसानी से हर एक काम अंजाम कर सकता है। चाहे बुरा हो चाहे भला। लेकिन चूँकि इंसान की बिगड़ी तबीयत का फैलान बड़ाई की तरफ़ ज़्यादा हो गया है उमूमन बुरे काम करने में जवानों के क़दम बड़े तेज़ और चालाक हो जाते हैं। दाऊद ज़बूर की किताब में एक सवाल पेश करता है जो हक़ीक़त में एक भारी सवाल है कि “जवान अपनी राहें किस तरह साफ़ कर रखे?” ज़बूर 119:9

शायद कोई इस का जवाब देता लेकिन दाऊद ख़ुद ही इस का जवाब यूं देता है, इस पर ख़ूब निगाह करने से तेरे कलाम के मुताबिक़।” ज़बूर 119:9 जवानों के लिए वाइज़ सबसे बड़ी हिदायत ये देता है। जो हर एक जवान के लिए ग़ौर तलब है। अपनी जवानी के दिनों में अपने ख़ालिक़ को याद कर।

सारी बातों को आजमाओ बेहतर को इख्तियार करो

बुढ़ापा

इंसान की ज़िंदगी में ये वक़्त तक्लीफ़ और दिक़्क़त (मुश्किल) का है। इन्सान के बदन की ताक़त ज़ाइल (ज़ाए) हो जाती है। आज़ा बेकार हो जाते हैं। काम काज हो नहीं सकता। गुज़र औक़ात मुश्किल हो जाती है। ज़िंदगी बे-लुत्फ़ (बेमज़ा) मालूम होती है। तबइयत को कोई चीज़ ख़ुश मालूम नहीं होती। इस उम्र की बख़ूबी तश्रीह व वाइज़ ने अपनी किताब के 12 बाब में ख़ूब उम्दा तौर से की है। वो इस उम्र को “बुरे दिन” कहता है। जैसा कि लिखा है जब कि बुरे दिन हनूज़ नहीं आए और वो बरस नज़्दीक ना हुए जिनमें तू कहेगा, कि उनसे मुझे कुछ ख़ुशी नहीं। जब कि हनूज़ सूरज और रोशनी और चांद और सितारे अंधेरे नहीं होते। और बदलियां फिर बारिश के बाद जमा नहीं होतीं। जिस दिन कि घर के रखवाले थर-थराने लगें। (यानी टांगें कमज़ोर हो जाएं) और ज़ोर-आवर लोग हो जाएं (यानी पीठ) और पीसने वालियाँ बे काज रहें यानी दाँत इसलिए कि वो थोड़ी सी हैं और वो जो खिड़कियाँ से झाँकती हैं धुँदला जाएं। (यानी आँखें) और गली के किवाड़े बंद हो जाएं (यानी कान) जब चक्की की आवाज़ धीमी होती और वह चिड़िया की आवाज़ से चौंक उठे और नग़मा की सारी बेटियां ज़ईफ़ हो जाएं। (यानी गाने की ताक़त ना रहे) और जब वो चिड़ियों से भी डर जाएं और दहश्तें राह में हूँ। और बादाम ना पसंद होए और टिड्डी एक बोझ मालूम हो और ख़्वाहिश नफ़्स मिट जाये। क्योंकि इंसान अपने दाइमी मकान में चला जाएगा। और मातम करने वाले गली गली फिरेंगे। पेश्तर इस से कि चांदी की डोरी खोली जाये यानी जान और सोने की कटोरी तोड़ी जाये और घड़ा चशमे पर (यानी जिस्म) फट जाये। और हौज़ का चर्ख़ टूट जाये। उस वक़्त ख़ाक ख़ाक से जा मिलेगी। जिस तरह आगे मिली हुई थी और रूह ख़ुदा के पास फिर जायेगी। जिसने उसे दिया। वाइज़

अक्सर बाअज़ इंसान अपनी जवानी ख़राबी और बड़ाई और हर तरह के नजिस (नापाक) कामों में सर्फ कर देते हैं और बुढ़ापे में माला या तस्बीह लेकर बैठ जाते हैं और ख़याल करते हैं, कि अब हम बंदगी कर के ख़ुदा को ख़ुश कर लेंगे ये ऐसे लोगों का ख़याल बिल्कुल ग़लत है अगर एक लड़का आम के फल या किसी और क़िस्म के फल का गुदा आप खा ले। और ख़ाली गुठली अपने बाप को दे। तो क्या उस का बाप उस को क़ुबूल कर लेगा। हरगिज़ नहीं बल्कि ऐसे ख़याल पर वो ऐसे नादान लड़के को ख़ूब तंबीया करेगा।

अगर हम अपनी बचपन की उम्र और जवानी के अय्याम ख़ुदा की राह पर चलने में काटें तो हमारा बुढ़ापा मुबारक होगा। और हम दाऊद की तरह से कह सकेंगे, मैं जवान था अब बूढ़ा हुआ पर मैंने सादिक़ को तर्क किए हुए और उस की नस्ल में से किस को टुकड़े मांगते ना देखा। ज़बूर 37:25

हमने सुना भी नहीं कि रूह-उल-क़ुद्स नाज़िल हुआ है

ये जवाब इफ़िसुस शहर के उन शागिर्दों ने पौलुस रसूल को दिया था, जब कि वो ऊपर के अतराफ़ मुल्क में इन्जील सुना कर इफ़िसुस में पहुंचा। और उसने पूछा, क्या तुमने जब ईमान लाए रूह-उल-क़ुद्स पाया? अगरचे ये लोग कमज़ोर, और बग़ैर रूह-उल-क़ुद्स पाए हुए ईसाई थे। तो भी शागिर्द कहलाए क्योंकि वो मसीह ख़ुदावन्द पर ईमान रखते थे।

We have not even heard that there is a holy spirit.

हमने सुना भी नहीं कि रूह-उल-क़ुद्स नाज़िल हुआ है

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan February 9, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 9 फरवरी 1894 ई॰

उन्हों ने उस से कहा हमने तो सुना भी नहीं कि रूह-उल-क़ुद्स नाज़िल हुआ है। (आमाल 19:2)

ये जवाब इफ़िसुस शहर के उन शागिर्दों ने पौलुस रसूल को दिया था, जब कि वो ऊपर के अतराफ़ मुल्क में इन्जील सुना कर इफ़िसुस में पहुंचा। और उसने पूछा, क्या तुमने जब ईमान लाए रूह-उल-क़ुद्स पाया? अगरचे ये लोग कमज़ोर, और बग़ैर रूह-उल-क़ुद्स पाए हुए ईसाई थे। तो भी शागिर्द कहलाए क्योंकि वो मसीह ख़ुदावन्द पर ईमान रखते थे। मुम्किन है कि एक गुनेहगार शख़्स इंजीली पैग़ाम सुनकर मसीह पर ईमान लाए। लेकिन रूह-उल-क़ूदस हनूज़ (अभी तक) उस को ना मिला हो। पस मुनासिब नहीं कि ऐसे शख़्स को मसीहिय्यत के दायरे से ख़ारिज और हक़ीर (कमतर) समझा जाये। क्योंकि वह ख़ुदावन्द जिसने ईमान के काम को उस के दिल में शुरू किया है। अपना रूह-उल-क़ुद्स अता कर के उस को कामिल (मुकम्मल) करेगा। वो जो मसले हुए सरकंडे को नहीं तोड़ता। और धूवां उठते हुए सन (रस्सी) को नहीं बुझाता। अपने कमज़ोर ईमान दारों को नाचीज़ समझ कर उन्हें तर्क नहीं कर देता है। जैसा कि हम इन इफसी शागिर्दों की हालत में पाते हैं। ख़ुदावन्द ने इन लोगों के दिली ईमान, और कमज़ोर हालत, और रूह-उल-क़ुद्स की एहतियाज (ज़रूरत) को मालूम कर के पौलुस रसूल को उनके पास भेजा। और जब उसने उन पर हाथ रखा। तो रूह-उल-क़ुद्स उन पर नाज़िल हुआ। और वो तरह तरह की ज़बानें बोलने। और नबुव्वत करने लगे।

इस में शक नहीं कि मसीही कलीसिया में अब भी अक्सर ऐसे शागिर्द मौजूद हैं। जो रूह-उल-क़ुद्स की तासीर (असर) से हनूज़ (अभी तक) मोअस्सर नहीं हुए। हालाँकि उन्होंने बाप बेटे, और रूह-उल-क़ुद्स के नाम से बपतिस्मा पाया है। और उन इफ़िसियों की मानिंद नहीं कह सकते, कि “कि हमने तो सुना भी नहीं, कि रूह-उल-क़ुद्स है।” ताहम मुनासिब नहीं, कि हम उन्हें हक़ीर व नाचीज़ समझें। या जैसा बाज़ों का दस्तूर (रिवाज) है। उन्हें जमा कर के पूछें कि तुमने रूह-उल-क़ुद्स पाया, या नहीं? और उनके दर पै हो कर और दिक़ (ज़बरदस्ती) कर के रूह-उल-क़ुद्स के पाने का इक़रार करवाएं। बल्कि ऐसे मसीहियों को कलाम से नसीहत करें। उनके लिए और उनके साथ दुआ मांगें। कि वो रूह-उल-क़ुद्स की तासीरात और नेअमतों को हासिल करें।

तज़किर-तुल-अबरार में लिखा है कि “अगरचे इफ़िसुस में और भी ईसाई थे। मगर वो लोग जो रूह-उल-क़ुद्स से कम वाक़िफ़ थे सिर्फ बारह एक थे। अब भी जमाअतों में ज़ोर-आवर और कमज़ोर लोग रले मिले रहते हैं। मुनासिब है कि ऐसे लोग तलाश किए जाएं। और उन्हें जमा कर के सिखाया जाये। और उनके लिए दुआ की जाये। मगर अफ़्सोस की बात है, कि इस वक़्त जो बाअज़ मिशनरी बाहर से आते हैं। वह अक्सर ज़ोर-आवर और नामदार भाईयों को तलाश कर के उनसे बहुत बातें करते हैं। पर कमज़ोर और अफ़्सरदह दिल भाईयों की तरफ़ कम मुतवज्जोह होते हैं। और अगर कुछ ज़िक्र भी आता है, कि फ़ुलां भाई कमज़ोर है। तो ये लोग इस उम्मीद पर कि वहां का पास्टर उनकी मदद करेगा। उन्हें छोड़ देते हैं। इस बात पर नहीं सोचते कि अगर वहां के पास्टर की ताक़त रूहानी के दफ़ाअ-ए-मर्ज़ (बीमारी को दूर करना) के लिए मुफ़ीद होती, तो वो अब तक क्यों ऐसे कमज़ोर रहते।

मुनासिब है कि अब दूसरे भाई की रूहानी ताक़त उनकी मदद करे। शायद वह बच जाएं। इफ़िसुस में अकोला और परसकिला भी रहते थे। जिन्हों ने अपोलूस जैसे फ़ाज़िल (आलिम) आदमी को भी सिखाया। तो भी अकोला और परसकिला की ताक़त से ये बारह शख़्स मज़्बूत ना हुए। मगर पौलुस की मुनादी और ईमान और दस्तगीरी (हिमायत) से देखो उन्होंने कितनी क़ुव्वत पाई। पस हर मुअल्लिम हर रूह के लिए मुफ़ीद नहीं है। मदारिज मुख़्तलिफ़ हैं और क़ुव्वतें भी मुख़्तलिफ़ हैं। सबको सब कहीं जहां मौक़ा मिले ख़िदमत करना चाहिए।”

कोई दानिशमंद कोई ख़ुदा का तालिब

ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस की नज़र में बनी-आदम की गुनाह आलूदा हालत की निस्बत ये एक ऐसे शख़्स की शहादत (गवाही) है। जो मुलहम (इल्हाम शुदा) होने के इलावा, बहैसीयत एक बड़ी क़ौम का बादशाह होने के ख़ास व आम के हालात व मुआमलात से बख़ूबी वाक़िफ़, और तजुर्बेकार था। और ये ना सिर्फ उसी की शहादत है,

Someone wise, Someone seeking God

कोई दानिशमंद कोई ख़ुदा का तालिब

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 9, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 9 जनवरी 1894 ई॰

“ख़ुदावंद आस्मान पर से बनी-आदम पर निगाह की ताकि देखे कि कोई दानिशमंद कोई तालिब है या नहीं। वो सब के सब गुमराह हुए। वो बाहम नजिस हो गए। कोई नेकोकार नहीं। एक भी नहीं। (ज़बूर 14:1-3)

ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस की नज़र में बनी-आदम की गुनाह आलूदा हालत की निस्बत ये एक ऐसे शख़्स की शहादत (गवाही) है। जो मुलहम (इल्हाम शुदा) होने के इलावा, बहैसीयत एक बड़ी क़ौम का बादशाह होने के ख़ास व आम के हालात व मुआमलात से बख़ूबी वाक़िफ़, और तजुर्बेकार था। और ये ना सिर्फ उसी की शहादत है, बल्कि वो सब भी जिन्हों ने नेअमत इल्हाम पा के पाक नविश्तों को क़लम-बंद किया। बनी-आदम की अला-उल-उमूम (आम तौर पर) गुनाहगारी का इज़्हार व इक़रार करते हैं।

बाइबल ही एक ऐसी किताब है जिससे मालूम हो सकता है कि आदम से ता एंदम कोई बशर मुबर्रा अनिलल-ख़ता (ग़लती से पाक होना) ना हुआ। और ना ताकियाम क़ियामत हो सकता है। ये किताब किसी नबी, रसूल या बादशाह के गुनाह पर पर्दा नहीं डालती। और ना उनके किसी गुनाह को तर्क ऊला, या लीला कह कर उस को ख़फ़ीफ़ (मामूली) ठहराती है। वो ना अम्बिया दायमा को मासूम साबित करने की कोशिश करती, और ना महाऋषियों और महात्माओं की निस्बत ये ताअलीम देती है, कि सामर्थी को दोश नहीं। बल्कि साफ़ तौर पर ज़ाहिर करती है, कि “सभों ने गुनाह किया। और ख़ुदा के जलाल से महरूम हैं” वो गुनाह के नतीजे को भी बसफ़ाई बताती, और बनी-आदम को आगाह करती है, कि “जो जान गुनाह करती है सो ही मरेगी” और ये कि “गुनाह की मज़दूरी मौत है।”

इस में शक नहीं कि इन्सानी ख़ुद-पसंद तबीयत, और फ़रेब ख़ुर्दह दिल को ये बात पसंद नहीं, कि वो इल्हाम की ऐसी आवाज़ सुने कि “सभों ने गुनाह किया” सब के सब बिगड़े हुए हैं। और कोई नेकोकार नहीं एक भी नहीं लेकिन ख़्वाह कोई इन बातों को क़ुबूल व पसंद करे या ना करे वो दरहक़ीक़त बहुत ही सही, और सादिक़ (सच्चे) हैं। वो लोग जो गुनाह की बुराई से और ख़ुदा तआला की अदालत व कुद्दूसी (पाकीज़गी) से नावाक़िफ़ हैं। और जिन्हों ने अपनी दिली व अंदरूनी हालत को नहीं पहचाना। किसी बुज़ुर्ग शख़्स की निस्बत मासूमियत का ख़याल कर सकते। और अपने को भी बनिस्बत दूसरों के पाक और रास्त समझते हैं। बल्कि बाअज़ ऐसे लोग भी मौजूद हैं, जो मसीहियों से सवाल किया करते हैं कि “गुनाह क्या है?” एक दफ़ाअ एक वाइज़ ने दौरान वाज़ कहा कि “हम सब गुनेहगार हैं” तो सामईन में से एक आदमी ने जो शायद ब्रहमन था जवाब दिया, “बेशक तुम सब गुनेहगार हो मगर मैं नहीं हूँ” क्या ये अम्र निहायत अफ़्सोस के क़ाबिल नहीं, कि कितने हज़ार आदमी बग़ैर गुनाह की पहचान, और उस की माफ़ी हासिल किए, इस दुनिया से गुज़र जाते हैं। और मरने के बाद उन्हें अबदी अज़ाब में मुब्तला होना पड़ता है।

लेकिन अगरचे सारे बनी-आदम गुनाह से मग़्लूब (हारना) हो गए तो भी आदम-ए-सानी (दूसरा आदम यानी येसू मसीह) जो ख़ुदावन्द आस्मान से था। ज़ाहिर हुआ। और गुनाह और मौत पर ग़ालिब आकर अपने सब हम-जिंसों के लिए मुफ़्त नजात का दरवाज़ा खोल दिया। जैसा कि लिखा कि “जब एक ही की ख़ता (ग़लती, गुनाह) के सबब बहुत से मर गए। तो एक ही आदमी यानी येसू मसीह के वसीले से ख़ुदा का फ़ज़्ल, और फ़ज़्ल से बख़्शिश बहुतेरों के लिए कितनी ज़्यादा हुई।”

रूह-उल-क़ुद्स और मुहम्मद

लूक़ा के चौबीसवें बाब की 49 वीं आयत में ख़ुदावन्द मसीह ने रूह-उल-क़ुद्स को मौऊद (वाअदा किया गया) फ़रमाया और शागिर्दों से कहा। देखो मैं अपने बाप के उस मौऊद को तुम पर भेजता हूँ। लेकिन तुम जब तक आलम-ए-बाला की क़ुव्वत से मुलब्बस (क़ुव्वत से भरना) ना हो यरूशलेम में ठहरो। ये ख़ुदावन्द की आख़िरी तसल्ली बख़्श बात थी।

Holy Spirit and Muhammad

रूह-उल-क़ुद्स और मुहम्मद

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One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 12, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 12 जनवरी 1891 ई॰

लेकिन जब रूह-उल-क़ुद्स तुम पर आएगा तो तुम क़ुव्वत पाओगे। और यरूशलेम और सारे यहूदिया व सामरिया में बल्कि ज़मीन की हद तक मेरे गवाह होगे। (आमाल 1:8)

लूक़ा के चौबीसवें बाब की 49 वीं आयत में ख़ुदावन्द मसीह ने रूह-उल-क़ुद्स को मौऊद (वाअदा किया गया) फ़रमाया और शागिर्दों से कहा। देखो मैं अपने बाप के उस मौऊद को तुम पर भेजता हूँ। लेकिन तुम जब तक आलम-ए-बाला की क़ुव्वत से मुलब्बस (क़ुव्वत से भरना) ना हो यरूशलेम में ठहरो। ये ख़ुदावन्द की आख़िरी तसल्ली बख़्श बात थी। जिसमें एक ऐसा वाअदा शामिल था, कि जब तक वो पूरा ना हो लिया मसीह के रसूल उस की गवाही देने के क़ाबिल ना हो सके। क्योंकि सिर्फ रूह-उल-क़ुद्स ही क़ुव्वत व क़ुद्रत का वो सर-चशमा है। जिससे सब मुक़द्दसों में क़ुव्वत और हिम्मत व जुर्रत पैदा होती। और कलाम के समझने, मज़ामीन रुहानी की बर्दाश्त, रुहानी जंग की क़ुव्वत, कलाम की ख़िदमत उसी की मदद से होती है। मालूम होता है कि मसीह के आस्मान पर उरूज (उठाया जाना) फ़रमाने के बाद सब शागिर्द यरूशलेम ही में एक बाला -ख़ाना में फ़राहम (इकट्ठे) रह कर इस मौऊद मसऊद (मुबारक वाअदा) की इंतिज़ारी में शब व रोज़ दुआ मांगने और इबादत करने में मशग़ूल (मसरूफ़) रहे। और जब ईदे पंतकोस्त का दिन आया तो वो वाअदा अजीब तौर से पूरा हुआ। और जब कि ईद मज़्कूर की तक़रीब के बाइस तख़मीनन पचपिस लाख यहूदी ममालिक मुख़्तलिफ़ा के यरूशलेम में जमा थे। सब के देखते हुए रोज़-ए-रौशन में मजमा-ए-आम में आतिशी ज़बान की सूरत में नाज़िल हो कर उन बेइल्म उम्मी (अनपढ़) गलीली मछोओं को ग़ैर-ज़बानों में ख़ुदा की उम्दा बातें बोलने और मसीह के नजात बख़्श नाम की निहायत दिलेरी व इस्तिक़लाल (मज़बूती) के साथ गवाही देखने के क़ाबिल कर दिया। ज़रूर था कि अव्वलन मसीह की ख़ुशख़बरी यहूदीयों को दी जाये। और यरूशलेम से ये काम शुरू किया जाये। जहां के हज़ारों आदमीयों ने मसीह को मस्लूब होते हुए देखा था।

उस की ज़िंदगी में उस के कलाम को सुना था। और उस को बख़ूबी जानते पहचानते उस के मोअजज़ात को मुशाहिदा कर चुके थे। क्योंकि ये बातें कोने में नहीं हुईं। पस रसूलों ने इस वक़्त से एक अर्सा तक मसीह की गवाही यरूशलेम शहर में बड़े जोश व ख़रोश के साथ दी। और सबसे ज़्यादा ज़ोर इसी एक बात पर दिया कि येसू वही मसीह है जिसका ज़िक्र नविश्तों में किया गया। जिसको क़ौम यहूद ने पिलातूस से दरख़्वास्त कर के सलीब दिलवा दी और क़त्ल किया। और वही येसू मुर्दों में से जी उठा है। आख़िर दिन में वही दुनिया की अदालत करने को फिर आएगा। और ये कि उस के सिवा और कोई नजातदिहंदा नहीं। जो उस के नाम पर ईमान लाता है। सो वही नजात पाएगा।

अगरचे ये हुक्म ख़ुदावन्द ने उस वक़्त उन ही शागिर्दों को जो हाज़िर थे दिया। मगर इस की तामील (अमल करना) हर एक मसीही ईमानदार पर फ़र्ज़ है। हर एक मसीही मोमिन ख़ुदावन्द मसीह का गवाह है। और वाजिब है कि वो अपने आमाल व अक़्वाल, हरकात व सकनात ज़िंदगी और मौत से अपने नजातदिहंदा की गवाही दे और ऐसा करने से वो अपने को फ़रिश्तों, नबियों और रसूलों का हम-ख़िदमत साबित करेगा।

और मैं अपने बाप से दरख़्वास्त करूंगा। और वो तुम्हें दूसरा तसल्ली देने वाला देगा, कि तुम्हारे साथ अबद तक रहे। यानी सच्चाई का रूह जिसे दुनिया नहीं पा सकती। क्योंकि उसे नहीं देखती ना उसे जानती है। लेकिन तुम उसे जानते हो। क्योंकि वो तुम्हारे साथ रहता है। और तुम में होगा। यूहन्ना 14_16:17

दूसरा तसल्ली देने वाला

जिस यूनानी लफ़्ज़ का तर्जुमा है वो दरअस्ल पाराक़लीतस (दूसरा मददगार) है। मुहम्मदी इस को फ़ारक़लीत (فارقلیط) (तारीफ़ किया गया) कहते और मुहम्मद साहब की ख़बर समझते और कहते हैं, कि फ़ारक़लीत (فارقلیط) के मअनी अहमद हैं। इसी लिए क़ुरआन में आया है कि मसीह ने कहा, اِنّی مُبشرِاً بِرُسول ياتی من بَعدی اسمہ احمد यानी मैं ख़ुशख़बरी देता हूँ एक रसूल की जो मेरे बाद आएगा। उस का नाम अहमद होगा। तमाम अहद-ए-जदीद (नया अहदनामा) में ये ही एक ऐसा मुक़ाम है। जिस पर मुहम्मदियों ने हज़रत को रसूल मौऊद (वाअदा किया हुआ) ठहराने के लिए बहुत ज़ोर मारा है। मगर मसीहियों ने मक़्दूर भर (ताक़त मुताबिक़) उनकी ग़लतफ़हमी को रफ़ा (दूर) करने की कोशिश की। और मुदल्लल (दुरुस्त) तौर पर बहुत कुछ लिखा। तो भी अभी तक मुहम्मदी ये ही समझते हैं कि ज़रूर फ़ारक़लीत (فارقلیط) से मुराद मुहम्मद साहब ही हैं। लेकिन अगर इन तमाम आयात पर जो इस मौऊद की निस्बत इन्जील में पाई जाती हैं। बख़ूबी ग़ौर किया जाये तो साफ़ मालूम हो जाएगा, की मसीह ख़ुदावन्द ने जो काम और सिफ़तें इस से मन्सूब की हैं वो किसी इन्सान के दरकिनार (जुदा, अलग) किसी फ़रिश्ते के साथ भी हरगिज़ मन्सूब नहीं की जा सकती हैं। और यूं तो मुहम्मद साहब को क्या हर एक शख़्स को जिसका नाम हो इख़्तियार है, कि वो अपने को फ़ारक़लीत (فارقلیط) तसव्वुर कर के मौऊद तसल्ली देने वाला ज़ाहिर करे। चुनान्चे अक्सरों ने मसीह के बाद ऐसा दावा किया है। और बाअज़ मुहम्मदियों ने भी जिनके नाम में लफ़्ज़ अहमद शामिल था। अपने को और दीगर मुहम्मदी अश्ख़ास को धोका दिया। मिन-जुम्ला उनके एक मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद साहब क़ादियानी हैं। जो इस आयत क़ुरआनी को अपने ऊपर जमाते और कहते हैं कि मैं आया हूँ। और मेरा नाम अहमद है। देखो इज़ाला सफ़ा 673

लेकिन जैसा कि तोज़ीन-उल-अक़वाल से ज़ाहिर होता है। पंद्रहवीं सदी से इस उन्नीसवीं सदी तक हिंदुस्तान में चार अहमद ज़ाहिर हो चुके हैं। जिन्हों ने दीन-ए-इस्लाम की मुरम्मत और सल़्तनत-ए-इस्लामीया के बारे में फ़िक्र किया है। और मुजद्दिद (पुराने को नया करने वाला, तजदीद करने वाला) होने के मुद्दई (दावा करने वाला) हुए हैं।

पहला अहमद : शेख़ अहमद सर हिन्दी हैं। जिनका इंतिक़ाल 134 हिज्री में हुआ। और शहर सरहिंद में उनका मक़बरा है। वो मज़्हब इस्लाम के एक जय्यद आलिम (ज़बरदस्त इल्म रखने वाला) और सूफ़ी (परहेज़गार) थे। उनको मुहम्मदियों ने मुजद्दिद अलफ़सानी का ख़िताब दिया था। जो अब तक इनमें मक़्बूल है। यानी वो दीन-ए-इस्लाम के मुजद्दिद या रीफ़ारमर (दुरुस्त करने वाला) और अहमद सानी कहलाए। पहला अहमद मुहम्मद साहब हुए। और दूसरा अहमद ये हज़रत समझेगे। आख़िरकार उनके ख़याल में भी कुछ ऐसा आ गया, कि मैं दूसरा अहमद हो के मुहम्मद साहब के क़रीब आ गया हूँ। ज़रूर दूसरे अस्हाब-ए-रसूल से मुझे सबक़त (बरतरी) हासिल हुई है। ऐसे ख़याल की बू दर्याफ़्त (मालूम) कर के बाअज़ मुहम्मदी उन पर तअन करने लगे थे। तब उन्हें कहना पड़ा कि ये ग़लत है। मेरा गुमान (ख़याल) ऐसा नहीं है। (सफ़िनत-उल-औलीया) मगर

تانبا شد اند کے مردم نگو يند چيز ہا۔

दूसरा अहमद : सय्यद अहमद ग़ाज़ी हैं। उनका हाल नाज़रीन बग़ौर सुनें। क्योंकि मिर्ज़ा साहब ने उन की तक़्लीद (नक़्ल, पैरवी) कर के नबी और मसीह होने का दावा किया है। और इस तरह के कुछ बंदो बस्त नज़र आते हैं। ये हज़रत क़ौम से सय्यद और रायबरेली के बाशिंदे थे। और सीधे मिज़ाज के आदमी बेइल्म शख़्स थे और ऊला नवाब टोंक के सवारों में मुलाज़िम थे। शाह अब्दुल अज़ीज़ की शौहरत सुनके दिल्ली में आए और सराय में उतरे। इरादा था कि शाह साहब के मुरीद (चेला) हो के वापिस चले जाऐंगे।

उस वक़्त दो मौलवी साहब हमराज़ दोस्त और दुनिया की तरफ़ से तंग, और शाह साहब से बा बातिन कशीदा-ख़ातिर, बज़ाहिर उन के अज़ीज़ किसी मन्सूबा में गुशट किया करते थे। यानी मौलवी इस्माईल और मौलवी अब्दुल हइ मौलवी इस्माइल बड़ा अलस्सान (ख़ुशगुफ़तार) और उम्दा वाइज़ शाह साहब का भतीजा था। उस को उम्मीद थी कि शाह साहब जो ला-वलद (बेऔलाद) थे अपनी मीरास में से इस भतीजे को हिस्से देंगे। लेकिन शाह साहब उन के मुक़ल्लिद (पैरवी) ख़यालात से ख़ुश ना थे। कुछ तरका (मीरास) ना दिया। सब कुछ अपने दामाद के नाम लिख दिया। तब इस्माइल ने सख़्त नाराज़ हो के मुक़ल्लिदीन फ़िर्क़े की बेख़कुनी (नेस्त व ना-बूद कर देना) की। और अपनी मईशत दुनियावी के फ़िक्र में हो गए। और अब्दुल हइ उन के दोस्त जो मेरठ के किसी सरकारी दफ़्तर में मुहर्रिर थे। बरख़ास्त हो के दिल्ली में आ गए थे। दोनों फ़िक्रमंद दोस्त हमराह चलते फिरते और किसी तज्वीज़ (राय, सलाह) के दरपे थे। नागाह सराय में सैर के लिए गए। वहां सय्यद अहमद साहब को मुसाफ़िराना उतरते हुए पाया। मुलाक़ात हुई और हाल पूछा। मिज़ाज देखा। और जिहाद की पट्टी पढ़ाई। और अपने पंजे में फंसा लिया। और मंसूबे बांध लिए। और शाह साहब के पास मुरीद (चेला, पैरवी करने वाला) कराने को ले गए। जब वो मुरीद हो के बाहर निकलते पालकी मौजूद थी उन्हें सवार किया। और एक मौलवी दहने एक बाएं हुआ। और अदब से पालकी के साथ दौड़ते थे। और जब वो जामा मस्जिद में नमाज़-ए-जुमा के लिए आते, तो मस्जिद के दरवाज़ा पर एक जूती उनकी मौलवी इस्माईल, और दूसरी जूती मौलवी अब्दुल हइ अदब से उठा लेते। और दस्त-बस्ता (हाथ बांध कर) पीछे खड़े रहते थे। लोग हैरान थे कि ये क्या मुआमला है, कि ऐसे बड़े-बड़े मौलवी इस शख़्स की पाए ख़ाक (पांव की ख़ाक) हो गए हैं। ये कौन साहब हैं। तब ये दोनों मौलवी कहते थे, कि हज़रत सय्यद अहमद साहब बड़े वली अल्लाह हैं। ये हज़रत मुहम्मद साहब के मुशाबेह पैदा हुए हैं।

ख़ुदा ने उनको भेजा कि सल्तनत इस्लामीया को क़ायम करें और दीन-ए-इस्लाम को रौनक दें। और ख़ुदा ने उनसे हम-कलाम हो के बड़ी फ़त्हमंदी के वाअदे फ़रमाए हैं। अब ये हज़रत इमाम हो के जिहाद (दीन की हिमायत के लिए हथियार उठाना) करेंगे। और काफ़िरों को मार के हिन्दुस्तान से निकाल देंगे। तमाम मुसलमानों को चाहिए, कि अपनी जान से और माल से उनकी मदद करें। और उनके साथ हो के जिहाद में जाना ऐसा समझें जैसे रसूल-अल्लाह के साथ गए। देखो किताब सिरात-उल-मुस्तक़ीम तस्नीफ़ मौलवी इस्माईल, जो इन्हीं अय्याम में जल्द लिखी गई। दीबाचे में लिखा है कि जनाब सय्यद अहमद का नफ़्स आली-जनाब रिसालत माआब के साथ कमाल मुशाबहत पर बद्दू फ़ित्रत में पैदा किया गया है। और ख़ातिमा में लिखा है कि हज़रत नबी साहब को सय्यद साहब ने ख्व़ाब में देखा और नबी साहब ने अपने हाथ से उनको ख़रमे (खजूर की शक्ल की मिठाई) खिलाइ। फिर किसी रोज़ हज़रत अली और हज़रत फ़ातिमा भी ख्व़ाब में उनसे मिलने को आईं। अली ने बदस्त ख़ुद उनको ग़ुस्ल दिया और फ़ातिमा ने बदस्त ख़ुद उनको उम्दा पोशाक (लिबास) पहनाई। फिर एक रोज़ ख्व़ाब में उनसे ख़ुदा तआला ने मुलाक़ात की। और अपनी क़ुद्रत के हाथ से उन को पकड़ लिया। और पाक चीज़ें उनके सामने रख के कहा कि ये चीज़ें मैंने तुझे दीं और आइन्दा को और चीज़ें भी तुझे दूंगा। ग़र्ज़ सय्यद साहब को पीर बना के ले उड़े। और तमाम हिन्दुस्तान में पालकी ले के फिर गए। और जाबजा वाज़ कर के मुल्क के मुसलमानों को अपनी तरफ़ खींच लिया। बेशुमार रुपया जमा किया और जा-ब-जा हंडवी भेज के महाजनों (ख़ज़ानची) में जमा कराया। और हज़ार हज़ार जाहिल नमाज़ी मुसलमान जिहाद के लिए तैयार कर के कुछ आगे भेज दिए कुछ हमराह लिए। और शहर शहर सय्यद साहब के ख़लीफ़े बिठाए ता कि रुपया और आदमी भी पीछे रवा ना रहें।

जब अंग्रेज़ों ने पूछा कि ये क्या मुआमला है? तो कहा कि हम आप लोगों से नहीं पंजाब के सिखों से जिहाद करेंगे। वो वक़्त ऐसा था कि अंग्रेज़ भी मस्लिहतन चुप कर गए। और ये हज़रत फ़ौज बना के बराए सिंध स्वात बूनेर तक पहुंचे ताकि इस तरफ़ से सिखों पर हमला हो।… उम्मीद थी कि अफ़्ग़ान भी साथ हो जाऐंगे और जब मुल़्क पंजाब सिखों से ख़ाली करा लेंगे। तब अंग्रेज़ों को समझ लेंगे। और यूं सल्तनत इस्लामीया क़ायम हो जाएगी। मौलवी अब्दुल हई कोइटा की राह में बा-रज़ा तप-ए-लरज़ा इंतिक़ाल कर गए। और इस्माईल व सय्यद अहमद वहां पहुंचे। कई दिन फ़ौज ले के कुछ लड़े। आख़िरकार बाअज़ पठानों की मदद से सिखों ने रात को ऐसा उन पर छापा मारा कि सबको क़त्ल किया। मौलवी इस्माईल वहां मारे गए। और सारे मोमिनीन मुजाहिदीन क़त्ल हुए सय्यद अहमद साहब की टांग में गोली लगी थी। और वो मैदान में बैठ गए थे। इसी जगह मर गए कोई कहता है कि एक पठान उनको अपने घर उठा ले गया था। वहां जा के मर गए। कोई आदमी भाग के बमुशकिल वापिस आया था। और ये वाक़िया 1827 ई॰ में वाक़ेअ हुआ था। (देखो किताब मौलवी ग़ुलाम हुसैन होशियार पूरी व अनवर आरिफीन तस्नीफ़ मुहम्मद हुसैन मुराद आबादी)

जब तक इस पुश्त के लोग ना मरे उनको यही ख़याल रहा कि सय्यद साहब पहाड़ों में पोशीदा (छुपे) हैं। किसी वक़्त निकलेंगे। इस मन्सूबा इस्माईल का नतीजा क्या निकला? ये कि इन्सानी चालाकी थी रसूली मुशाबहत और वो सब ख्व़ाब बातिल (झूटे) थे। सब दोड़ धुप बर्बाद हुई। आप भी मारे गए। और सदहा जाहिल नमाज़ी अतराफ़ पूरब (मशरिक़) के मोमिनीन क़त्ल करवा दिए। उनकी औरतें रांड (बेवा) हुईं बच्चे यतीम हो के मुहताज हुए। ख़ाना-ख़राबियाँ हो गईं बादशाही हाथ ना आई। हाँ इस्लाम की इस क़द्र मुरम्मत हुई कि ग़ैर-मुक़ल्लिद फ़िर्क़ा उनके वाज़ों से और उनकी किताब, तक़वियत-उल-ईमान वग़ैरह से पैदा हो गया।

अब मिर्ज़ा क़ादियानी साहब का वही तौर (तरीक़ा) नज़र आता है वो ख़ुद मुसलमानों को सिखाते हैं। (फ़त्ह इस्लाम सफ़ा 8, 71) कि रस्मी उलूम और क़ुरआन व अहादीस के तर्जुमों की इशाअत से इस्लाम की मुरम्मत नहीं हो सकती। आस्मानी सिलसिले की तरफ़ देखना चाहिए। मतलब मैं आस्मान की तरफ़ से नबी और मसीह मुक़र्रर हो के आया हूँ। मेरी इताअत (ताबादारी) से मुरम्मत इस्लाम होगी ना तुम्हारे रिवाजी दस्तुरात से। और अपनी बेशुमार तारीफ़ें आप अपने मुँह से करते हैं कि मैं बड़ा कामिल (मुकम्मल) शख़्स हूँ। और जैसे सय्यद अहमद ग़ाज़ी को दो मौलवी उड़ाने वाले मिल गए थे। इनको भी हकीम नूर उद्दीन और ग़ुलाम क़ादिर फ़सीह साहब और मौलवी मुहम्मद अह्सन साहब मिल गए हैं। इनका अंजाम उनसे ज़्यादा ख़तरनाक होगा। सुन्नी मुसलमानों ने जो मिर्ज़ा को रद्द किया दानिशमंदी से अपने मज़्हब के मुवाफ़िक़ काम किया है। और मुहम्मद हुसैन बटालवी तहसीन (तारीफ़) के लायक़ हैं। और वो जो मिर्ज़ा साहब की सलाह (मश्वरा) में शरीक हैं अपने मज़्हब के और अक़्ल सलीम (पूरी अक़्ल) के ख़िलाफ़ काम करते हैं।

तीसरा अहमद : सय्यद अहमद ख़ान साहिब-ए-बालकाबह हैं। उन्होंने सबसे ज़्यादा इस्लाम का तजदद किया। इस्लाम क़दीम को काठ की हंडिया (झूट और दग़ा बाज़ी) बता के छोड़ दिया। और क़ुरआन व हदीस को नेचरीयत के पैराये में ला के इस़्पात (फ़ौलाद की हंडिया) बनाया। और क़ुरआन की तफ़्सीर नेचरी लिखी। मुहम्मद साहब ने अपने इस्लाम का रुख अम्बिया-ए-बनी-इस्राईल की तरफ़ कुछ-कुछ रखा था। सय्यद साहब ने इधर से बमुश्किल खींचा, और फ़िलोसफ़ी की तरफ़ कर दिया। इस के सिवा और कुछ नहीं किया। लेकिन ये इमारत जो उन्होंने उठाई है तालिब-ए-हक़ के दिल में कुछ तसल्ली तो पैदा नहीं कर सकती। और ना कुछ पायदार (मज़्बूत) है। बल्कि बहुत जल्द गिर जाएगी। क्योंकि अल्फ़ाज़ क़ुरआन से उनके मज़ामीन मुख़्तरा (बानी, ईजाद करने वाला) को कुछ इलाक़ा (ताल्लुक़) नहीं है। उनके बयान उनकी तफ़्सीर में मर्क़ूम (लिखा हुआ) पड़े रहेंगे। और अल्फ़ाज़ व इबारात क़ुरआन अपने मअनी व मज़ामीन लाज़िमा को हरगिज़ ना छोड़ेंगे। और वो जो मुहक़्क़िक़ (तहक़ीक़ करने वाला) पैदा होंगे। हमेशा अहले-ज़बान से मअनी दर्याफ़्त करेंगे। सबसे बड़ी अक़्ली तफ़्सीर (अक़्ल से तश्रीह करना) क़ुरआन की इमाम फ़ख़्रउद्दीन राज़ी[1] ने लिखी है। जहां से सय्यद साहब ने बहुत कुछ लिया। तो भी फ़ख़्र-उद्दीन साहब के मज़ामीन अक़लीया मुसलमानों के ईमान में शामिल ना हुए बल्कि जलाल उद्दीन सियूती ने इस के तफ़्सीर को चंद सतरों में ज़लील कर दिखलाया, और लिखा है।

इमाम फ़ख़्रउद्दीन ने अपनी तफ़्सीर को अक़वाल-ए-हुकमा और फ़लासफ़ा वग़ैरह से भर दिया है। और एक से दूसरी बात की तरफ़ निकल गया। यहां तक कि नाज़िर (देखने वाला) को मौरिद आयत के साथ अदम मुताबिक़त (मुवाफ़िक़ ना होना) से ताज्जुब (हैरानगी) होता है। अबू हयान ने कहा कि राज़ी ने अपनी तफ़्सीर में नहवी बातें (गराइमरी बातें) जिनकी इल्म तफ़्सीर में हाजत (ज़रूरत) नहीं। बकस्रत लंबी चौड़ी भरी हैं। इसी वास्ते बाअज़ उलमा ने कहा, कि इस की तफ़्सीर में सब कुछ है, लेकिन क़ुरआन के मअनी नहीं।

इस बिद्अती का और कुछ इरादा नहीं है। मगर ये कि आयतों को तहरीफ़ (रद्दो-बदल) करे। और अपने फ़ासिद (बेकार) मज़्हब के बराबर बनाए। इस तरह से कि जब उस को कोई दूर से दौड़ता हुआ वहम (गुमान, शक) नज़र आ गया। तो उसी के दरपे हो लेता है। या कोई ऐसी जगह मिल जाये जहां ज़रा खड़ा हो सके, तो उधर दौड़ पड़ता है। यही हाल इन सब नेचरियों का है। आप क़ुरआन के ताबे नहीं होते। मगर क़ुरआन को अपने ताबे करते हैं और अपने ज़हन में कुछ मज़्हब कहीं से ला के क़ायम कर लिया है। इस के मुवाफ़िक़ क़ुरआन को बनाते चले जाते हैं। फ़िल-हक़ीक़त तफ़्सीर नेचरी इन्हीं दो-चार लफ़्ज़ों से गिर जाती है, कि वो क़ुरआन की असली वज़ाअ के खिलाफ है।

चौथा अहमद : मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद हैं। वो अहमद सोइम का मज़्हब रखते हैं। और अहमद दुवम की रविश (तरीक़ा) पर चलते हैं। और क़ुरआन व हदीस को ना बसिम्त अम्बिया, और ना बसिम्त फ़िलासफ़ा मगर बसिम्त दरिया-ए-ख़बत खींच रहे हैं। और अहमद चहारुम रहना नहीं चाहते। अहमद अव़्वल बनने का इश्तियाक़ (शौक़) है। इसी लिए क़ुरआन में हाथ डाला। और अस्मा अहमद वहां से अपने लिए निकाला। जो साबिक़ के किसी अहमद को ना सूझी थी। अभी क्या कोई दिन में अहमद बिला मीम अपना नाम रखेंगे। क्योंकि सूफ़ी भी हैं। और अभी देख लो वो कहते हैं, कि ख़ुदा ने मुझसे कहा ऐ मिर्ज़ा तू मुझसे है। और मैं तुझसे हूँ। गोया मिर्ज़ा ख़ुदा से पैदा हुए और ख़ुदा मिर्ज़ा से पैदा हुआ है। अगर कुछ और मतलब हो तो उनके ज़हन में होगा इबारत का मतलब यही है।

और अगर ये दो मअनी कलाम है तो ऐसी दो मअनी कलाम बोलना जिसके एक मअनी से ख़ुदा की तहक़ीर (कमतर समझना) हो बेईमान आदमी का काम है।

लेकिन अगर ख़ुदा की तरफ़ से है

ग़मलीएल फ़रीसी एक मुअज़्ज़िज़ मुअल्लिम शरीअत की उम्दा व मस्लिहत आमेज़ सलाह (अच्छा मश्वरा, मुनासिब तज्वीज़) जो उसने क़ौमी ख़ैर ख़्वाही व हम्दर्दी के जोश में अपने अकाबिर (अकबर की जमा, बड़े लोगों) क़ौम को दी। आयात-ए-मज़्कूर बाला की बातें अठारह सौ बरस से कैसा साफ़ सबूत दिखा रही हैं।

But if it is from God

लेकिन अगर ख़ुदा की तरफ़ से है

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan December 10, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 10 दिसंबर 1891 ई॰

“क्योंकि ये तदबीर या काम अगर आदमीयों की तरफ़ से है तो आप बर्बाद हो जाएगा। लेकिन अगर ख़ुदा की तरफ़ से है तो तुम इन लोगों को मग़्लूब ना कर सकोगे।” (आमाल 5:38-39)

ग़मलीएल फ़रीसी एक मुअज़्ज़िज़ मुअल्लिम शरीअत की उम्दा व मस्लिहत आमेज़ सलाह (अच्छा मश्वरा, मुनासिब तज्वीज़) जो उसने क़ौमी ख़ैर ख़्वाही व हम्दर्दी के जोश में अपने अकाबिर (अकबर की जमा, बड़े लोगों) क़ौम को दी। आयात-ए-मज़्कूर बाला की बातें अठारह सौ बरस से कैसा साफ़ सबूत दिखा रही हैं। और मुवाफ़िक़ व मुख़ालिफ़ (मुताबिक़ व बरअक्स) तूअन व करहान उनकी सदाक़त (सच्चाई) के मुकर (इक़रार करने वाले) हैं। जो लोग इल्म तवारीख़ के माहिर हैं जानते हैं, कि रसूलों के ज़माने से आज तक इस तदबीर या काम मसीहिय्यत को ज़ाए करने वाले और ख़ुदा से लड़ने वाले कैसे कैसे ज़बरदस्त लोग दुनिया में हुए और अब तक हैं। मगर फ़त्हमंद व कामयाब ना हुए और ना होंगे।

ग़मलीएल उस वक़्त तक ना जानता था, कि वो नासरी जिसने ऐसा बड़ा दावा किया कि “राह हक़ और ज़िंदगी मैं हूँ” वो ही है जो इस्राईल का मख़लिसी व नजात देने वाला ख़ुदावन्द है। और उसी के नाम की मुनादी ये गलीली लोग करते हैं। जो क़ौम के नज़्दीक वाजिब-उल-क़त्ल (क़त्ल करने के क़ाबिल) ठहरे हैं। मसीहिय्यत को वो “तदबीर या काम” समझा हुआ था। जो ख़्वाह इंसान या ख़ुदा की तरफ़ से हो। उसने उस का फ़ैसला तजुर्बे पर छोड़ा। और उस वक़्त अपनी क़ौम को रसूलों के क़त्ल कर डालने से बाज़ रखा। अगरचे उस वक़्त उन्हें धमका के और कोड़े मार के छोड़ दिया। और हुक्म मुहकम (मज़्बूत हुक्म) दिया, कि येसू के नाम पर बात ना करें। लेकिन थोड़े ही अर्से में यहूदीयों की आतिश-ए-ग़ज़ब (ग़ुस्सा की आग) फिर मुश्तअल (भड़की) हुई। और स्तिफ़नुस को संगसार (पत्थर मार मार कर हलाक करना) कर के यरूशलेम की कलीसिया पर जो इब्तिदाई हालत में बहुत क़लील (कम) और कमज़ोर थी, बड़ा ज़ुल्म किया, मसीहियों को सताया, क़ैद और क़त्ल किया, और मसीहिय्यत के नेस्त व नाबूद (तबाह व बर्बाद) करने के लिए मक़्दूर (ताक़त) भर ज़ोर मारा। मगर आख़िर को थक कर बैठ गए। और अपने दिलों में क़ाइल (तस्लीम करने वाले) हुए कि हम इस “तदबीर या काम” को ज़ाए नहीं कर सकते। रोमी शहंशाहों और हुक्काम ने मुसम्मम (पक्का) इरादा किया। कि इस मसीह मुख़ालिफ़-ए-क़ैसर, और इस के रोज़-अफ़्ज़ूँ पैरओं (पीछे चलने वालों) को जो हमारे देवताओं के आगे सर-बजूद (सर झुकाना) नहीं होते। सफ़ा हस्ती से मिटा दें, उन्होंने मसीहियों को मारा, जलाया, दरिंदों से फड़वाया, और बिल-आख़िर हैरान हो के कहा कि “मुल़्क ईसाईयों से भर गया। कहाँ से इतनी तलवारें आएं जो इनको क़त्ल किया जाये” यूनानियों ने अपने इल्म व हिक्मत के आगे मसीहिय्यत को हक़ीर (बेक़द्र, छोटा) जाना। और उसे ठट्ठों (मज़ाक़) में उड़ाया। मुबश्शिरों को बकवासी और बेवक़ूफ़ समझा। और आख़िर को मसीह मस्लूब के आगे सर झुकाया। छः सौ बरस बाद कुतब-ए-मुक़द्दसा की पेशीन गोइयों के मुताबिक़ मुल्क-ए-अरब से एक धुआँ-धार मुख़ालिफ़त ने सर उठाया। ईबतदन (शुरू में) तो मसीह और मसीहियों की बड़ी तारीफ़ व तौसीफ़ (ख़ूबी) का इज़्हार किया। मसीह को रूह-मिन्हू (अल्लाह कि तरफ से रूह) और कलमा (अल्लाह का कलमा) और आयत-उल-आलमीन (तमाम आलम के लिए निशान) वग़ैरह आला ख़िताब दीए। और मसीहियों को अहले मुवद्दत (मुहब्बत लायक़) यहूदीयों से ज़्यादा नर्म-दिल। मुश्रिकों (बुत परस्तों) की दोस्ती पर भरोसा ना रखने वाले। आलिम और सच्चे। आबिद (इबादत करने वाला) सोमा नशीन (राहिब) तकब्बुर (ग़ुरूर) ना करने वाले। हक़ को मानने वाले वग़ैरह बताया। और फिर दोस्त नुमा दुश्मन बन कर उनकी और उनके दीन की बेख़कुनी (नेस्त व नाबूद कर देना) की। ख़लीफ़ा सानी ने तो ग़ज़ब (अज़ाब) ही ढाया। बेशुमार मसीही मर्दों और औरतों को तह-ए-तेग़ (तल्वार से क़त्ल करना) बे दरेग़ किया हज़ार-हा गिरजा मिस्मार (गिरा देना) कर डाले। और बेशक़ीमत कुतब ख़ानों को जला कर राख कर दिया। ये तूफान-ए-बेतमीज़ी उस वक़्त से शुरू हो कर आज तक मसीहिय्यत की बर्बादी व बेख़कुनी पर हर वक़्त उमड़ा (तैयार) रहता। और फ़ी ज़माना इस के साथ तल्ख़ अदावत (सख़्त दुश्मनी) व मुख़ालिफ़त में ग़ैर-अक़्वाम ख़्वाह मवह्हिद (पक्का मुसलमान) हों। या बुत-परस्त व मुल्हिद (काफ़िर) हों सब एक हो जाते। और मुत्तफ़िक़ (इकट्ठे) हो कर हमला करते हैं। लेकिन मटर के छर्रे जबराल्टर के क़िले की मुस्तहकम व मज़्बूत दीवारों पर क्या असर पहुंचा सकते हैं। बावजूद इन सख़्त मुख़ालफ़तों और मजनूनाना हमलों के, मसीहिय्यत की रोज़-अफ़्ज़ूँ (रोज़ाना) तरक़्क़ी, मुल्क-ए-हिंद और दीगर ममालिक में देखकर हमें ग़मलीएल की दाना सलाह (दानिशमंद मश्वरा) की बातें इस वक़्त याद आती हैं। और तजुर्बा हमें सिखा और बता रहा है कि “अगर ये तदबीर या काम इंसान से होता तो कभी का ज़ाए हो जाता। मगर चूँकि ये ख़ुदा से है। कोई इंसानी मुख़ालिफ़ कोशिश और जद्दो जहद इस को ज़ाए ना कर सकी। और ना कर सकेगी।” और जो लोग इस की मुख़ालिफ़त में कोशां (कोशिश में) हैं ख़ुदा से लड़ते हैं जिसका नतीजा उन्हीं की शिकस्त-ए-फ़ाश ज़हूर (ज़ाहिर होना) में आएगा।

इसी तरह जब तुम इन सब बातों को देखो

ये सब देखो” यानी मसीह के आने की अलामतें। मिन-जुम्ला जिनके ये कि झूटे मसीह और झूटे नबी उठेंगे। और ऐसे बड़े निशान और करामातें (अनोखापन) दिखाएँगे, कि अगर हो सकता तो बर्गज़ीदों (ख़ुदा के चुने हुए) को भी गुमराह करते।” हम आजकल अपने ही मुल्क में कैसा साफ़ देख रहे हैं। कि कोई मह्दी अपने को ज़ाहिर करता। तो कोई अपने को मसील-ए-मसीह ठहराता है।

The Reply to the Objection from Mulwai Gulam Nabi

इसी तरह जब तुम इन सब बातों को देखो

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan December 3, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 3 दिसंबर 1891 ई॰

इसी तरह जब तुम इन सब बातों को देखो तो जान लो कि वो नज़्दीक बल्कि दरवाज़े पर है। (मत्ती 24:33)

“ये सब देखो” यानी मसीह के आने की अलामतें। मिन-जुम्ला जिनके ये कि झूटे मसीह और झूटे नबी उठेंगे। और ऐसे बड़े निशान और करामातें (अनोखापन) दिखाएँगे, कि अगर हो सकता तो बर्गज़ीदों (ख़ुदा के चुने हुए) को भी गुमराह करते।” हम आजकल अपने ही मुल्क में कैसा साफ़ देख रहे हैं। कि कोई मह्दी अपने को ज़ाहिर करता। तो कोई अपने को मसील-ए-मसीह ठहराता है। और कितने हैं जो उनके मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) व मुरीद (एतिक़ाद रखने वाला व चेला) हो कर बदल व जान उनकी इलाही रिसालत (ख़ुदा की तरफ़ से रसूल होना) को यक़ीन किए हुए हैं। सच्च है नफ़्स-उल-अम्र (हक़ीक़त) में किसी को कुछ इख़्तियार नहीं। इसी लिए कलाम-उल्लाह की पेशीन गोईयाँ हमारी हिदायत के लिए लिखी गई हैं, कि किसी झूटे मसीह या झूटे नबी को अपना मसीह हरगिज़ ना मानें। लेकिन जिनके पास पैशन गोइयों का ये बे-बहा ख़ज़ाना नहीं। वो बाआसानी हर किसी मुद्दई मसीहाई (मसीह होने का दावा करने वाला) के दामे अक़ीदत में फंस जाते हैं। जैसा कि हमारे मुअज़्ज़िज़ मिर्ज़ा मवह्हिद साहब। मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद साहब क़ादियानी के दावे मुमासिलते मसीहा (मसीह की मानिंद होना) पर मिटे हुए हैं। और उन्हें जो उनके खिलाफ-ए-अक़ीदा हैं। और क़ादियानी साहब की मसीहाई को तस्लीम (मानना) नहीं करते। सलवातें (बुरा भला कहना) सुनाते। और जो चाहते हैं वज़ीर हिंद में उनकी निस्बत बुरा भला लिखते हैं। चुनान्चे वज़ीर-ए-हिंद मत्बूआ 15 नवम्बर में एक लीडर आपने बउनवान “मसीह-उल-ज़मान” शेअर हज़ा के साथ शुरू किया है :-

“तुझ सा कोई ज़माने में माजिज़यां नहीं। आगे तेरे मसीह के मुँह में ज़बान नहीं।”

फिर आपने उनके मुबाहिसा दिल्ली का ज़िक्र कर के, दिल्ली वाले एक दूसरे मुद्दई मसीहाई की तर्दीद फ़रमाई है। और क़ादियानी साहब के बड़े गुन गा के। हमारे हाल पर मेहरबानी फ़रमाई। और लिखा है कि “मगर वो लोग ख़ुसूसुन ऐडीटर नूर अफ्शां कि जो आँहज़रत के सामने तो तिफ़ल-ए-मक्तब (तालिबे इल्म, ना तजुर्बेकार शख़्स) की तरह बैठा हुआ चुपका मुँह तकता रहता है।

और मिशन में जा कर जो जी में आता है धर घसीटता है। अला हज़ा (इसी तरह) आजकल अक्सर अख़बारात में मसीह-उल-ज़मान के ख़िलाफ़ वाक़ियात लोगों ने लिखने शुरू किए हैं। जिनको हम पढ़ कर ताज्जुब (हैरत) की निगाह से देखते हैं। हालाँकि इन लोगों को मसीह-उल-ज़मान की ख़ूबीयों और कमालात के देखने का कभी मौक़ा ख्व़ाब व ख़याल में भी नहीं मिला। वो घर बैठे उनके ख़िलाफ़ तब्अ-आज़माई (ज़हानत इम्तिहान) कर रहे हैं।” पस इस के जवाब में सिर्फ इतना लिखना मुनासिब जानते हैं, कि हम सिर्फ एक मर्तबा मए लाला उम्राओ सिंह साहब सैक्रेटरी आर्या समाज लूदियाना और दो एक मुअज़्ज़िज़ अहले शहर के उनसे मिलने के लिए (जब कि वो लूदियाना में मुक़ीम थे) गए और जैसा आप फ़र्माते हैं तिफ़्ल-ए-मक्तब (तालिबे इल्म) की तरह बैठे हुए चुपके मुँह तकते रहने के लिए नहीं लेकिन सिर्फ ये दर्याफ़्त करने को, कि आप जो खिलाफ-ए-अक़ीदा आम इस्लाम। मसीह की वफ़ात के क़ाइल (तस्लीम करने वाले) हैं।

मेहरबानी कर के ये भी बता सकते हैं कि इस की सूरत व तरह वफ़ात क्या थी। और जो जो अब आपने दिया हमने उसी हफ्ते के नूर अफ़्शां में शाएअ कर दिया। दूसरा सवाल बाइबल मुक़द्दस की अस्लियत व तहरीफ़ (बदल देना) के बारे में था। जिनके जवाब में मिर्ज़ा साहब ने फ़रमाया कि ये एक तवील (लंबी) और बहस-तलब बात है। जिसकी निस्बत हालते मौजूदह में वो कुछ भी ना बोले। और एक मर्तबा हस्ब-उत-तलब। इस बेफ़ाइदा मुबाहिसे में मिर्ज़ा साहब को देखा। जो लूदियाना में मौलवी मुहम्मद हसन साहब के मकान पर मौलवी मुहम्मद हुसैन साहब बटालवी के साथ हुआ था। वहां किसी तीसरे शख़्स के बोलने की ज़रूरत ना थी। मवह्हिद साहब को यूं तो इख़्तियार है कि वो क़ादियानी साहब को मसीह-उल-ज़मान किया बल्कि जिनके रूबरूं (बक़ौल उनके) मसीह भी बेज़बान है समझें। लेकिन मुनासिब नहीं कि वो औरों को, जो उनके ऐसे मुहमल इल्हाम (बेमाअनी इल्हाम) और मसील-ए-मसीह (मसीह की मानिंद) होने के दावे को क़ुबूल ना करें, बुरा भला कहें।

ख़ुदावन्द मसीह, जिसके मसीही मुंतज़िर (इंतिज़ार करने वाले) हैं। जब फिर दुनिया में तशरीफ़ लाएगा। तो उस को मौलवियों और पंडितों के साथ मुबाहिसा (बह्स) करने। किताबें छपवा के फ़रोख़्त करने। और इश्तिहारात जारी करने की कुछ ज़रूरत ना होगी क्योंकि जैसे बिजली पूरब (मशरिक़) से कौंद के पक्षिम (मग़रिब) तक चमकती वैसा ही इब्ने-आदम का आना भी होगा।” पस मवह्हिद साहब हमसे नाराज़ ना हों। क्योंकि हम मसीही लोग किसी मसील के मुंतज़िर नहीं। बल्कि मसीह ही के मुंतज़िर हैं। जिसके लिए ब-वक़्त सऊद (आस्मान पर वक़्त) फ़रिश्तों ने रसूलों से कहा कि “ऐ गलीली मर्दो। तुम क्यों खड़े आस्मान की तरफ़ देखते हो। यही येसू जो तुम्हारे पास से आस्मान पर उठाया गया इसी तरह जिस तरह तुमने उसे आस्मान को जाते देखा फिर आएगा। (आमाल 1:11) यही वजह है कि मसीहियों ने क़ादियानी साहब के दाअवों और इल्हामों पर मुतलक़ (बिल्कुल) तवज्जोह ना की। और है भी यूं, कि क़ादियानी साहब मुहम्मदियों ही के सामने अपनी मसीहाई को पेश कर रहे हैं। और उनका रक़ीब (हमपेशा, मुक़ाबला करने वाला) भी जो दिल्ली में खड़ा हुआ वो मुहम्मदियों में से है मसीहियों को ऐसी बेसूद बातों से कुछ सरोकार (मतलब) नहीं। मवह्हिद साहब नाहक़ हम पर अपनी ख़फ़गी (नाराज़गी) ज़ाहिर करते हैं।

वोह अपने आपको दाना जता कर बेवक़ूफ़ बन गए

वोह अपने आपको दाना जता कर बेवक़ूफ़ बन गए। (रोमीयों 1 बाब 22 आयत) पौलुस रसूल ने शहर रोम के मसीहियों को ख़त लिखते वक़्त ये फिक़रा उस वक़्त के उलमा और फुज़ला और यूनानी उस्तादों के हक़ में लिखा। जो ख़ुदा के कलाम की निस्बत अपने इल्म व हिक्मत की रु से मुख़ालिफ़त ज़ाहिर करते थे।

Although they claimed to be wise, they became fools.

वोह अपने आपको दाना जता कर बेवक़ूफ़ बन गए

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan November 12, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 12 नवम्बर 1891 ई॰

वोह अपने आपको दाना जता कर बेवक़ूफ़ बन गए। (रोमीयों 1 बाब 22 आयत) पौलुस रसूल ने शहर रोम के मसीहियों को ख़त लिखते वक़्त ये फिक़रा उस वक़्त के उलमा और फुज़ला और यूनानी उस्तादों के हक़ में लिखा। जो ख़ुदा के कलाम की निस्बत अपने इल्म व हिक्मत की रु से मुख़ालिफ़त ज़ाहिर करते थे। और ज़िद और तास्सुब (मज़्हब की बेजा हिमायत, तरफ़-दारी) से अंधे हो कर मसीहियों को सताते और तक्लीफ़ पर तक्लीफ़ देते थे। उनके दाना (अक़्लमंद) और हकीम (होशियार, तबीब) और साहिब-ए-इल्म होने पर रसूल ने कुछ एतराज़ नहीं किया। अगरचे पौलुस ख़ुद एक बड़ा आलिम व फ़ाज़िल (बहुत पढ़ा लिखा व दाना) था। और अगर कोई बात इल्म व अक़्ल की बाबत क़ाबिले गिरफ्त थी। (एतराज़ के लायक़) होती तो वह ज़रूर उस का नोटिस ले सकता था। उसने उनके दुनियावी इल्म की निस्बत उनको नादान (बेवक़ूफ़) नहीं कहा। बल्कि उस को इस “जहां की हिक्मत” कहा। (1 कुरिन्थियों 3 बाब 19 आयत) मगर दीनी इल्म व समझ की बाबत उनको साफ़ कहा कि वो नादान (नासमझ, बेवक़ूफ़) हो गए। गुनेहगार इंसान के बचाने और उस की नजात के बारे में कोई तज्वीज़ (राय, सलाह) किसी आलिम ने जो दुनियावी इल्म में कैसा ही माहिर (तजुर्बेकार) क्यों ना हो। और इल्म-ए-फ़ल्सफ़ा और दानाई से पुर हो अब तक नहीं निकाली। और कोई तदबीर (तज्वीज़, सोच बिचार) हिक्मत इंसान से बन ना पड़ी बल्कि वो सब दानाई सरासर (तमाम) बेवक़ूफ़ी ठहरी। क्योंकि इन्सान के गुनाह माफ़ कराने और दोज़ख़ की सज़ा से रिहाई दिलाने और पाक व साफ़ बनाने में आलिमों का तमाम इल्म व दानाई और कुल तदबीरें नाक़िस (ख़राब) और रद्दी बल्कि मह्ज़ बेवक़ूफ़ी ठहरीं। जिस तरह उस वक़्त के आलिम व फ़ाज़िल लोगों का ये हाल था।

इस तरह हर ज़माने में ऐसा ही रहा है। चुनान्चे आजकल भी ऐसा ही देखने में आता है। बड़े-बड़े आलिम व फ़ाज़िल लोग अपने इल्म व अक़्ल के दीवाने हो कर मसीह और मसीही दीन की मुख़ालिफ़त में ज़बान खोलते और बुरा भला कहते और लिखते हैं। वो अपनी अक़्ल पर तकिया (भरोसा) कर के ख़ुदा की क़ु्दरत के मुन्किर (इन्कार करने वाले) बन जाते। और रफ़्ता-रफ़्ता हक़ से दूर जा पड़ते हैं और दाना हो कर नादान बनते हैं। आजकल मुहम्मदी अख़बारात मुक़ाम लोर पोल में एक पादरी साहब के मुसलमान हो जाने का ज़िक्र बड़े फ़ख़्र के साथ दर्ज करते हैं। उस को दीने मुहम्मदी की सदाक़त (सच्चाई) तसव्वुर करते हैं। अगरचे इस ख़बर की सेहत में तो क़फ़ (देर, वक़्फ़ा) और कलाम (एतराज़) है। लेकिन ताज्जुब (हैरत) नहीं कि ये दुरुस्त ही हो। अगर किसी पादरी या बिशप साहब ने ऐसा किया भी हो तो उस ने बुरा किया। और हमको उस के हाल पर अफ़्सोस आता है कि वो रुहानी नेअमतों का मज़ा चख के गिर गया। उसने शायद इस दुनिया की हिक्मत को जिसको ख़ुदा बेवक़ूफ़ी ठहराता है पसंद किया या जिस्मानी और नफ़्सानी ख़यालात में मुब्तला हो कर उनका मग़्लूब (हारा हुआ, ज़ेर) हो गया। हम साफ़ कह सकते हैं कि उसने इस जहान की बेशक़ीमत और हमेशा तक रहने वाली बरकतों को इस दुनिया-ए-दून (दुनिया की ख़्वाहिश) के एवज़ (बदले) में बेच डाला जिसका अंजाम आख़िर को पछताना और अफ़्सोस करना होगा। और ज़्यादातर अफ़्सोस उन साहिबान पर आता है कि जो ऐसे लोगों पर नाज़ाँ (फ़ख़्र वाले) होते हैं।