मसीह पर ईमान लाने से रास्तबाज़ गिना जाता है

मसीही मज़्हब और दीगर मज़ाहिब दुनिया में ये एक निहायत अज़ीम फ़र्क़ है। कि वो गुनेहगार इन्सान की मख़लिसी व नजात और हुसूल-ए-क़ुर्बत (नज़दिकी) व रजामंदी इलाही को उस के आमाल हसना का अज्र व जज़ा नहीं ठहराता। बल्कि उस को सिर्फ इलाही फ़ज़्ल व बख़्शिश ज़ाहिर करता है। जबकि दीगर मज़ाहिब ताअलीम देते हैं,

Counted rightous by having faith in Jesus Christ

मसीह पर ईमान लाने से रास्तबाज़ गिना जाता है

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 11, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 11 जनवरी 1895 ई॰

हम जो पैदाइश से यहूदी हैं। और ग़ैर क़ौमों में से गुनेहगार नहीं। ये जान कर कि आदमी ना शरीअत के कामों से, बल्कि येसू मसीह पर ईमान लाने से रास्तबाज़ गिना जाता है। हम भी येसू मसीह पर ईमान लाए। ताकि मसीह पर ईमान लाने से, ना कि शरीअत के कामों से रास्तबाज़ गिने जाएं। क्योंकि कोई बशर शरीअत के कामों से रास्तबाज़ गिना ना जाएगा। ग़लतीयों 3:16, 15

मसीही मज़्हब और दीगर मज़ाहिब दुनिया में ये एक निहायत अज़ीम फ़र्क़ है। कि वो गुनेहगार इन्सान की मख़लिसी व नजात और हुसूल-ए-क़ुर्बत (नज़दिकी) व रजामंदी इलाही को उस के आमाल हसना का अज्र व जज़ा नहीं ठहराता। बल्कि उस को सिर्फ इलाही फ़ज़्ल व बख़्शिश ज़ाहिर करता है। जबकि दीगर मज़ाहिब ताअलीम देते हैं, कि पहले काम और बाद इनाम। मसीही मज़्हब ताअलीम देता है, कि पहले इनाम और बाद काम। ये ताअलीम गुनेहगार लाचार व ख़्वार इन्सान के लिए, जिसमें नेक काम करने की ताक़त मुर्दा। और क़वाए नफ़्सानी व जिस्मानी ज़िंदा ज़ोर-आवर हैं, कि “तू पहले नेक काम कर तो नजात पाएगा।” कैसी ना-मुम्किन-उल-तामील और सख़्त व ना गवार मालूम होती है। क्या कोई तबीब हाज़िक़ (माहिर डाक्टर) किसी मरीज़ को जो अर्सा-ए-दराज़ से एक मर्ज़ इजानिस्तां (जान को सताने वाला रोग) में मुब्तला रह कर यहां तक नहीफ़ व नातवां (कमज़ोर व लाचार) हो गया हो। कि वो उठने बैठने और चलने फिरने के बिल्कुल ना क़ाबिल हो। क़ब्ल सेहत ये हुक्म दे सकता, कि तो चहलक़दमी किया कर। और तुर्श व बादी अग़्ज़िया (ग़िज़ा की जमा) से मुहतरिज़ (परहेज़ करना) रह? पस वो मज़्हबी हादी व मुअल्लिम जो अपने पैरौओं को, जो मुहताज-ए-नजात हैं। ये ताअलीम देता है कि अगर तुम नेक काम करो तो आख़िर को नजात पाओगे।

उसी तबीब की मानिंद हैं जो मरीज़ को क़ब्ल शिफ़ा याबी हुसूल-ए-ताक़त व तवानाई के लिए चहलक़दमी करने, और तंदुरुस्त रहने के लिए ना-मुवाफ़िक़ व सक़ील अग़्ज़िया (ठोस ग़िज़ा) से परहेज़ करने की सलाह देता है। इस में शक नहीं, कि वो जो बज़रीया-ए-आमाल हुसूल-ए-नजात की ताअलीम देते और जो ऐसी ताअलीम को पसंद और क़ुबूल करते हैं इन्सान की दिली ख़राब हालत। और पैदाइशी बिगड़ी हुई तबइयत से बिल्कुल नावाक़िफ़ और मह्ज़ ना-आश्ना हैं। मगर ये भी सच्च है कि जिन्हों ने कलाम-अल्लाह से बिगड़ी हुई इन्सानियत के हाल को मालूम ना किया हो। वो क्यूँ-कर उस की बुराई को बख़ूबी समझ सकते हैं। क्योंकि कलाम-अल्लाह ही सिर्फ एक ऐसा आईना मुसफ़्फ़ा व मजल्लाई () है, कि जिसमें बिगड़ी हुई इन्सानियत और उस के दिल की सहीह तस्वीर मए उस के उयूब व कबाएह (ऐब व बुराई की जमा) के साफ़ तौर पर खींची और दिखलाई गई हैं। हर चंद कि ख़ुद-पसंद इन्सान ऐसी कर यह-उल-मंज़र (बद-शक्ल) तस्वीर को देखना पसंद नहीं करते। ताहम निहायत ही मुनासिब और ज़रूरी मालूम होता है, कि उन फ़रेब-ख़ुर्दा अश्ख़ास के लिए जो “पहले काम, और पीछे इनाम” की ताअलीम पा कर नजात उख़रवी के उम्मीदवार हैं उस के हर दो तारीक पहलू किसी क़द्र किताब-अल्लाह से दिखलाए जाएं।

बल्कि येसू मसीह पर ईमान लाने से रास्तबाज़ गिना जाता है।

पैदाइश की किताब के 6 बाब 5 आयत में क़ब्ल तूफ़ान यूं लिखा है, कि “ख़ुदावन्द ने देखा कि ज़मीन पर इन्सान की बदी बहुत बढ़ गई। और उस के दिल के तसव्वुर और ख़याल रोज़ बरोज़ सिर्फ बद ही होते हैं।” और ये कि ख़ुदा ने ज़मीन पर नज़र की और देखा कि वो बिगड़ गई। क्योंकि हर एक बशर ने अपने अपने तरीक़ को ज़मीन पर बिगाड़ा था।” पैदाइश 6:12

फिर उसी किताब के 8 बाब 21 आयत में लिखा है, कि “इन्सान के दिल का ख़याल लड़कपन से बुरा है।” अय्यूब की किताब के 15 बाब 14 आयत में मर्क़ूम है, कि “इन्सान कौन है कि पाक हो सके। और वो जो औरत से पैदा हुआ क्या है कि सादिक़ ठहरे।” राक़िम ज़बूर नाक़ील (नक़्ल करना) है, कि “देख मैंने बुराई में सूरत पकड़ी। और गुनाह के साथ मेरी माँ ने मुझे पेट में लिया।” ज़बूर 51:5, फिर वो फ़रमाता है कि “ख़ुदावन्द इन्सान के ख़यालात को जानता है, कि वो बातिल हैं।” ज़बूर 94:11, यर्मियाह नबी ने इन्सानी ख़राब दिल की निस्बत यूं लिखा है, “दिल सब चीज़ों से ज़्यादा हीलेबाज़ है। हाँ वो निहायत फ़ासिद (फ़सादी, बिगड़ा हुआ) है। उस को कौन दर्याफ़्त कर सकता है?” यर्मियाह 14:9, ख़ुदावन्द मसीह ने, जिससे बेहतर इन्सान की माहीयत (असलियत, फ़ित्रत) को जानने वाला कोई नहीं हुआ। यूं फ़रमाया है कि “बुरे ख़याल, ख़ून, ज़िना, हरामकारी, चोरी, झूटी गवाही, कुफ्र, दिल ही से निकलते।” मत्ती 15:19, बिल-आख़िर पौलुस रसूल चौदहवीं ज़बूर की ताईद कर के बवज़ाहत तश्रीह करता और इन्सान के सरापा की यूं तस्वीर खींचता है, कि “कोई रास्तबाज़ नहीं एक भी नहीं। कोई समझने वाला नहीं। कोई ख़ुदा का तालिब नहीं। सब गुमराह हैं। सब के सब निकम्मे हैं कोई नेकोकार नहीं। एक भी नहीं। उनका गला खुली हुई गुरू (क़ब्र) है। उन्हों ने अपनी ज़बान से फ़रेब दिया है। उन के होंटों में साँपों का ज़हर है। उन के मुँह में लानत और कड़वाहट भरी हैं। उन के क़दम ख़ून करने में तेज़ हैं। उन की राहों में तबाही और परेशानी है। और उन्हों ने सलामती की राह नहीं पहचानी। उन की आँखों के सामने ख़ुदा का ख़ौफ़ नहीं।” रोमीयों 3:10 से 18 तक।

इन्सान की निस्बत कुतुब-ए-मुक़द्दसा में ऐसे साफ़ और बेलाग (बेग़र्ज़) बयानात का मज़्कूर होना भी उन के मिंजानिब-अल्लाह होने की एक दलील मिनजुम्ला दीगर दलाईल है। क्योंकि कोई इन्सान अपनी तस्नीफ़ में इन्सानी बुरी हालत और दिली ख़राबी की ऐसी बद-हेइय्यत तस्वीर हरगिज़ नहीं खींच सकता। क्योंकि बक़ौल राक़िम ज़बूर “अपनी भूल चूकों को कौन जान सकता है।” और यही सबब है कि दीगर अहले-मज़ाहिब गुनाह को एक ख़फ़ीफ़ (मामूली) बात जान कर ज़ाहिरी शुस्त व शो (धो कर साफ़ करना) और अदाए रस्मियात व दस्तुरात मज़्हबी के ज़रीये माफ़ व महू हो जाने के ख़याल में मुत्मईन पाए जाते हैं। पस जब कि इन्सान की तबीयत व फ़ित्रत गुनाह के बाइस इस क़द्र बिगड़ गई है, कि बक़ौल यसअयाह नबी तमाम सर बीमार है। और दिल बिल्कुल सुस्त है। तलवे से लेकर चांदी तक उस में कहीं सेहत नहीं बल्कि ज़ख़्म और चोट और सड़े हुए घाओ (ज़ख़्म) हैं। जो ना दबाए गए ना बाँधे गए। ना तेल से नरम किए गए हैं।”

तो उस को आमाल-ए-हुस्ना (नेक काम) के ज़रीये हुसूल-ए-मग़्फिरत व नजात (माफ़ी व रहाई) की ताअलीम देना उस को धोके और उम्मीदे बातिल (झूटी उम्मीद) में रखकर हलाक करने के सिवा और कुछ नहीं है। ज़रूर है कि पहले वो नई पैदाइश जिसको निकुदेमुस जैसा ज़ी इल्म (आलिम) यहूदी ना समझ सका। हासिल करे और एक मुस्तक़ीम (दुरुस्त, रास्त, मज़्बूत) रूह उस के बातिन में नए सिरे से डाली जाये। और एक पाक-दिल उस के अंदर पैदा किया जाये। तब आमाल-ए-हुस्ना के उस से सरज़द होने की उम्मीद हो सकती है। वर्ना बक़ौल अय्यूब “कौन है जो नापाक से पाक निकाले? कोई नहीं।” अय्यूब 14:4 ताहम याद रखना चाहिए कि मौजूदा बिगड़ी हुई और गिरी हुई इन्सानियत के सुधारने। और उस को उठाने के लिए सिर्फ ताअलीम ही काफ़ी नहीं हो सकती। बल्कि एक कामिल नमूने की ज़रूरत है। जिसकी निस्बत फिर लिखेंगे।

मुझसे सीखो

गुज़श्ता ईशू में हमने एक नमूने की ज़रूरत का ज़िक्र किया। जिसको पेश-ए-नज़र रखकर और जिसके नक़्श-ए-क़दम पर चल कर बिगड़ा और गिरा हुआ इन्सान सुधर सके। और इन्सानियत के दर्जा आला पर सर्फ़राज़ हो कर क़ुर्बते इलाही के लायक़ बन सके। लेकिन ऐसे नमूने की तलाश अगर आदम से ताएं दम जिन्स बशर में की जाये,

Learn from Me

मुझसे सीखो

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 18, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 18 जनवरी 1895 ई॰

मेरा जूवा अपने ऊपर ले लो। और मुझसे सीखो। क्योंकि मैं हलीम और दिल से ख़ाकसार हूँ। तो तुम अपने जी में आराम पाओगे। मत्ती 11:29

गुज़श्ता ईशू में हमने एक नमूने की ज़रूरत का ज़िक्र किया। जिसको पेश-ए-नज़र रखकर और जिसके नक़्श-ए-क़दम पर चल कर बिगड़ा और गिरा हुआ इन्सान सुधर सके। और इन्सानियत के दर्जा आला पर सर्फ़राज़ हो कर क़ुर्बते इलाही के लायक़ बन सके। लेकिन ऐसे नमूने की तलाश अगर आदम से ताएं दम जिन्स बशर में की जाये, तो कोई ना मिलेगा। और बजुज़ मायूसी और कुछ नतीजा तलाश ना निकलेगा। बेशक दुनिया की तवारीख़ क़दीम में बड़े-बड़े जलील-उल-क़द्र और फ़ताह-ए-आज़म बादशाहों और शहंशाहों के नाम पाए जाते हैं। शह ज़ोर पहलवानों और बहादुरों की ख़बर मिलती है। हकीमों, दानाओं और आलिमों का पता लगता है। लेकिन किसी कामिल रास्तबाज़ इन्सान का नाम, जो तमाम बनी-आदम के लिए क़ाबिले नमूना हो, कहीं नहीं मिलता। जो नाक़िस इन्सान से ये कहने की जुर्रत कर सके, कि “तू मेरे हुज़ूर में चल। और कामिल हो।” तू पाक हो। क्योंकि मैं पाक हूँ। तू रास्तबाज़ हो। जैसा कि मैं रास्तबाज़ हूँ। फिर इस बात के मुक़र्रर (दुबारा) कहने की ज़रूरत नहीं, कि मौजूदा ख़राब हालत में इन्सान को सिर्फ ये ताअलीम देना कि तू नेक बन। आमाल-ए-हसना कर। बिल्कुल बेफ़ाइदा है। क्योंकि जब तक कोई नेक व पाक नमूना उस के हम-जिंसों में उस के पेशें नज़र ना हो। वो हरगिज़ नेक व पाक बन नहीं सकता। नमूना नसीहत व ताअलीम से बेहतर है। और हम इस मक़ूला के क़ाइल नहीं, कि اُنظُرالح ما قال   و لا تنظر الیٰ من قال और ना हम ऐसे लोगों को क़ाबिल-ए-नमूना समझ सकते हैं, जो बक़ौल फ़ारसी शायर :-

ترک دنيا بمر دم آموزند+خويشتن سيم وغلہ اندوزند

क्योंकि क़ाएल के अक़्वाल कैसे ही मुफ़ीद व उम्दा क्यों ना हों। कुछ असर पैदा नहीं कर सकते। अगर वो उस के मुताबिक़ ख़ुद आमिल हो कर अपने को एक नमूना दूसरों के लिए ना बना दे।

पस जब कि हम बिगड़े हुए इन्सान किसी कामिल नमूने की तलाश अपने तमाम हम-जिंसों में करते, ता कि उस पर नज़र कर के और उस के नक़्श-ए-क़दम पर चल कर हम सुधर जाएं। और इस तलाश में मायूस व नाकाम हो कर नज़र उठाते हैं। तो एक इब्ने आदम दिखलाई देता है, जो हम में से हर एक को फ़रमाता है, “मेरे पीछे हो ले” और अगर हम उस की पुर मुहब्बत बुलाहट को सुन कर और सभों को छोड़कर सिर्फ उसी की पैरवी करें।

तो बेशक वो हमको बदी और गुनाह से बचा कर नेकी और सलामती की सिराते मुस्तक़ीम (सीधी राह) पर चलाएगा। और तब हम दाऊद के हम-आहंग हो कर नग़मा सरा होंगे, कि “ख़ुदावन्द मेरा चौपान है। मुझको कमी नहीं। वो मुझे हरियाली चरागाहों में बिठाता है। वो राहत के चश्मों की तरफ़ मुझे ले पहुँचाता है। वो मेरी जान फेर लाता है। और अपने नाम की ख़ातिर मुझे सदाक़त की राहों में लिए फिरता है। बल्कि जब मैं मौत के साये की वादी में फिरूँ। तो मुझे ख़ौफ़ व ख़तरा ना होगा। क्योंकि तू मेरे साथ है। तेरी छड़ी और तेरी लाठी ही मेरी तसल्ली के बाइस हैं।” लेकिन अगर हम आमाल-ए-हसना पर भरोसा कर के ऐसी बड़ी नजात से ग़ाफ़िल रहें तो बजुज़ हलाकत व कफ अफ़्सोस मिलने के और कुछ हासिल ना होगा। ख़ुदावन्द के रसूल पौलुस के ये अक़्वाल व सवाल निहायत गौरतलब हैं :-

देखो। तुम उस फ़रमाने वाले से ग़ाफ़िल ना रहो। क्योंकि अगर वो भाग ना निकले। जो उस से जो ज़मीन पर फ़रमाता था ग़ाफ़िल रहे। तो हम भी अगर उस से जो हमें आस्मान पर से फ़रमाता हे मुंह मोड़ें। क्योंकि भाग निकलेंगे? इब्रानियों 12:25

गुनेहगारों को क़ुबूल करता है

अगरचे ख़ुदावन्द येसू मसीह जिस्म की निस्बत क़ौम यहूद में से था। जो अपनी क़ौम के सिवा तमाम आदमजा़द को गुनेहगार, नापाक बल्कि मिस्ल सग (कुत्ते की तरह) समझते थे। मगर चूँकि वो तमाम बनी-आदम का नजातदिहंदा और सारे गुनेहगारों का ख्वाह यहूदी हों या ग़ैर क़ौम बचाने वाला था।

He Accept the Sinners

गुनेहगारों को क़ुबूल करता है

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 25, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 25 जनवरी 1895 ई॰

और फ़रीसी व फ़क़ीह कुड़कुड़ा कर कहते थे, कि ये शख़्स गुनेहगारों को क़ुबूल करता और और उन के साथ खाता है। लूक़ा 15:2

अगरचे ख़ुदावन्द येसू मसीह जिस्म की निस्बत क़ौम यहूद में से था। जो अपनी क़ौम के सिवा तमाम आदमजा़द को गुनेहगार, नापाक बल्कि मिस्ल सग (कुत्ते की तरह) समझते थे। मगर चूँकि वो तमाम बनी-आदम का नजातदिहंदा और सारे गुनेहगारों का ख्वाह यहूदी हों या ग़ैर क़ौम बचाने वाला था। उस ने यहूदियाना तास्सुब व तनफ़्फ़ुर (बेजा तरफ़-दारी, नफ़रत) के ख़िलाफ़ यूनानियों, रोमीयों, सामरियों, ख़राज गीरों (टैक्स लेने वाले), और ऐसे लोगों के साथ जिन्हें यहूदी गुनेहगार समझते थे। मेल-जोल रखा। और उन्हें नजात की ख़ुशख़बरी पहुंचाने में दरेग़ ना किया। “क्योंकि सभों ने गुनाह किया और ख़ुदा के जलाल से महरूम थे।” मसीह का ग़ैर-यहूदीयों के साथ ऐसा बर्ताव यहूदीयों की समझ में निहायत मज़मूम (बुरा, ख़राब) था। और वो अक्सर ऐसे मौक़ों पर उस पर कुड़कुड़ाते। और इल्ज़ामन कहते थे, कि “ये शख़्स गुनेहगारों को क़ुबूल करता और उन के साथ खाता है।” और बहिक़ारत उस को ख़राजगीरों और गुनेहगारों का दोस्त नाम देते थे। मगर उस ने जो फ़िल-हक़ीक़त गुनेहगारों का दोस्त था। यहूदीयों के ऐसे बेहूदा ख़यालात की कुछ परवाह ना की। और उन्हें हमेशा ये माक़ूल जवाब दिया, कि “भले चंगों को हकीम दरकार नहीं। बल्कि बीमारों को। मैं रास्तबाज़ों को नहीं, बल्कि गुनेहगारों को तौबा के लिए बुलाने आया हूँ।”

इसी उसूल और तबीयत के मुताबिक़ उस के ख़िदमतगुज़ार और दीनदार बंदे हमेशा चलते रहे। और अब भी चलते हैं। और उन लोगों के साथ हम्दर्दी करने और उन्हें नजात की ख़ुशख़बरी सुनाने में जो अहले-दुनिया की नज़र में नीच और नाचीज़ हैं। कोताही करना नहीं चाहते। अगरचे उन की ये कार्रवाई ख़ुद-पसंद और मग़रूर इन्सानों के ख़याल में निहायत बुरी और क़ाबिल-ए-मलामत है। हम देखते हैं कि फ़ी ज़माना हिन्दुस्तान में नीच अक़्वाम के मसीही कलीसिया में शामिल होने पर हिंदू और मुहम्मदी लोग मसीहियों पर कैसी तंज़ करते। और मिशनरी साहिबान के उन के पास जाने, और मेल मिलाप रखने पर किस तरह ज़बान तअन व तशनीअ (बुरा भला कहना) दराज़ करते हैं। मगर ये मसीहियों की बनावटी आदत नहीं। बल्कि मसीहिय्यत की ताअलीम का असर है। क्योंकि जैसा वो ख़ुदा की अबवीयत (बाप) और बनी-आदम की उखुव्वत (भाई चारा) का इज़्हार करती। किसी और मज़्हब में ऐसा इज़्हार नहीं किया गया। और यही सबब है, कि मज़ाहिब मज़्कूर के पैरौ किसी ग़ैर मज़्हब व ग़ैर क़ौम। अपने से कमतर और अदना बनी नूअ इन्सान के साथ हम्दर्दी और मदद-दही में क़ासिर रहते हैं। और ये क़सूर उनका नहीं। बल्कि उन के मक़बूला मज़ाहिब का है। जो बनी-आदम की उखुव्वत और ख़ुदा तआला की अबवीयत की ताअलीम से ख़ाली हैं। और जिनमें बसफ़ाई ये ताअलीम नहीं मिलती, कि “ख़ुदा ने एक ही लहू से आदमीयों की सब क़ौम तमाम ज़मीन पर बसने के लिए पैदा की” आमाल 17:26, और ये कि “एक ख़ुदा है जो सब का बाप, सब के ऊपर और सब के दर्मियान और तुम सब में है।” इफ़िसियों 4:6 पस अदना दर्जे के लोगों से हम-कलाम ना होना। और उन्हें बनज़र हिक़ारत व नफ़रत देखना इस मुल्क के उम्रा ही का ख़ास्सा और निशान नहीं। जैसा कि ब्रह्मा प्रचारक लिखता है। बल्कि तमाम उमरा व गुरबाए अहले हनूद व इस्लाम का यही हाल है। चुनान्चे ब्रह्मा प्रचारक लिखता है, कि “हमारे मुल्क में उमूमन बड़े आदमी या अमीर होने की पहचान है, कि वो अदना दर्जे के आदमीयों से बोलते तक नहीं। और उन्हें नफ़रत की निगाह से देखते हैं। शाज़ोनादर ही कोई अमीर आदमी ऐसा होगा, कि जो किसी मिहतर (बड़ा बुज़ुर्ग) के घर बीमार पुरसी के लिए जाये। लेकिन ऐसी हालत में उस को किसी धर्म पुस्तक (मज़्हबी किताब) का पढ़ कर सुनाना हमारे मुल्क के अमीरों से अगर ना-मुम्किन ना माना जाये। तो प्रले दर्जे का मुश्किल ज़रूर है। मगर दूसरे ममालिक में क्या हाल है।

मिस्टर गिलीड स्टोन साहब साबिक़ वज़ीर-ए-आज़म इंग्लिस्तान के बारे में बयान किया जाता है, कि जब वो गिरजाघर में नमाज़ पढ़ने जाया करते थे। तो रास्ते में उन्हें एक मिहतर (बुज़ुर्ग) फाटक पर मिला करता था। एक दिन हस्ब-ए-मामूल गिरजाघर जाते वक़्त फाटक पर बजाय इस मिहतर के किसी और शख़्स को पाया। और दर्याफ़्त करने से मालूम हुआ, कि वो मिहतर घर में बीमार पड़ा है। मिस्टर गलीड स्टोन ने इस मिहतर के घर का पता पूछ कर पाकेट बुक में लिख लिया और दूसरे दिन इस मिहतर के मकान को तलाश कर के उस के पास गए। उस की बीमार पुरसी की। और तसल्ली दी। और बाइबल पढ़ कर उसे सुनाई।

क़ुरआन क्या है?

कहीए जनाब कैसी दलील सुनाई। लाए मुसाफ़ा (हाथ मिलाना) कीजिए। اللّٰہم صَلِّ पानी पी के लौटा रख दो। खटीया (चारपाई) के तले। मन्तिक़ (दलील) ने नातिक़ा (बोलने की ताक़त) बंद किया। अताए तौबा लकाए तो वाला जवाब दिया। क्या सबब कि तौरेत मूसा से रक़म हुई। ज़बूर दाऊद से ज़ेरे क़लम हुई। सहाईफ़ के मुसन्निफ़ अम्बिया ए मक़्बूल हैं।

What is Quran?

क़ुरआन क्या है?

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 25, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 25 जनवरी 1895 ई॰

 

 

 

प्यारे एडीटर : क्या ही अनोखा सवाल है। आप इसका जवाब तो दीजिए। देखें कोई क्या कहता है। क़िब्ला माफ़ कीजिए। दिल्ली के मुहम्मद शाह को सलीम गड्डा के फोर्ट में ही में सलामत रहने दीजिए। सल्तनत से दस्त बर्दारी ही बेहतर है। सय्यद तख़्त पर पांव धरते ही सर क़लम कर देंगे। ऐ हज़रत ये क्या फ़र्माते हो। मैं तो मज़्हबी बात पूछता हूँ। आप तवारीख़ हिंद सुनाते हो। जनाब मैंने तो आपको आक़िल समझ कर तकफ़ीय-तूल-इशारा पर एमा किया था। मगर अब मालूम हुआ, कि आप निरे निरे इग्नोरेंट ही हैं। माफ़ फ़रमाए। और ज़रा ज़हर क़तरा मामूर बराह इनायत बेग़ाइयत (बे-इंतिहा) अपने इज्माल की तफ़्सील सुनाए। आपने सुना नहीं, कि मौलवी पादरी इमाद-उद्दीन साहब लाहिज़ डी डी ने थोड़े ही दिन गुज़रे, कि इस सवाल का जवाब ना ज़बान से बल्कि हाथों से ऐसा दिया। कि यार लोग अब तक उंगलीयां चाट रहे हैं। बल्कि मुख़ालिफ़ीन तैश में आकर पुश्त-ए-दस्त (हाथ का पिछ्ला हिस्सा) काट रहे हैं। सौ क्यों? इसलिए कि उस अलामत अल-दहर मनशई अतारिद-रक़म ने अपने दहान क़लम (क़लम के मुँह से) से उर्दू तर्जुमा अल-क़ुरआन में वो वो मोती बरसाए। गोया जवाहरात के ढेर लगाए। जिसकी चमक धमक से दुश्मनों की आँखों में पानी उतर आया। और हज़ारहा आँखें अंधे हाफ़िज़ों के मसील नाम नैन-सुख को मोतियाबिंद का आर्ज़िया (मर्ज़) नज़र आया। इस सारी अर्क़ रेज़ि (तहक़ीक़) और खून-ए-जिगर सेज़ी का ख़ूँ-बहा सिवाए तख़वीफ़ हलाकत (मारने की धमकी) के इशाक-ए-क़ुरआन (क़ुरआन के आशिक़) ने और क्या दिया? पर तो भी इस मर्द-ए-मैदान-ए-दिलेरी ने उस्मान जामेअ-उल-क़ुरआन की सूरत فسيکفيھم اللّہ पर भरोसा किया। अब और कुछ सुनना चाहते हो? वाह साहब और कुछ सुनना चाहते हैं। ले सुनीए क़ुरआन अरबी ज़बान में एक किताब है। जो बक़ौल मुहम्मदियान रब-उल-काअबा की तस्नीफ़ नायाब है। कहते हैं कि ये तस्नीफ़ बहुत खरी है। फ़साहत (ख़ुश-बयानी) कूट कूट कर भरी है। पूछो रब-उल-काअबा कौन है? कोई होगा जिसे वो अपना माबूद समझते हैं। और औरों के ख़ुदा या माबूद का नाम सुन कर बहुत उलझते हैं। लेकिन ये तो बतलाए कि क़ादियानी इस्तकरा (तलाश करना, पैरवी) के ख़िलाफ़ क़ुरआन ख़ुदा की तस्नीफ़चेह माअनी दारद? हमने तो आज तक भी सुना था। कि कुतुब इल्हामियाह साबिक़ा मनज्ज़िल मिनल्लाह मुख़्तलिफ़ अश्ख़ास के ज़बान और क़लम से हीता तहरीर में आई हैं। पस अगर क़ुरआनी दलील के मुताबिक़ रसूल-अल्लाह होने को हमेशा मह्ज़ और मुजर्रिद इंसानियत शर्त है। और ख़ुदावंद मसीह जो बा मुहावरा क़ुरआनी कलिमतुल्लाह (کلمتہ اللہ) और रसूल-अल्लाह। और रूह-मिनहु है। ख़ुदा कामिल हो कर रसूल नहीं हो सकता। क्योंकि दलील इस्तकराई के खिलाफ है।

तो ये पाँसा उल्टा पड़ा। बक़ौल नसीम लखनवी :-

पासे की बदी आशकारा

राजा नल सल्तनत है हार

कहीए जनाब कैसी दलील सुनाई। लाए मुसाफ़ा (हाथ मिलाना) कीजिए। اللّٰہم صَلِّ पानी पी के लौटा रख दो। खटीया (चारपाई) के तले। मन्तिक़ (दलील) ने नातिक़ा (बोलने की ताक़त) बंद किया। अताए तौबा लकाए तो वाला जवाब दिया। क्या सबब कि तौरेत मूसा से रक़म हुई। ज़बूर दाऊद से ज़ेरे क़लम हुई। सहाईफ़ के मुसन्निफ़ अम्बिया ए मक़्बूल हैं। और अनाजील व ख़ुतूत वग़ैरह के मुहर्रर (तहरीर करने वाले) ख़ुदावंद येसू के रसूल हैं। मेहरबानी कीजिए। जवाब दीजिए कुल कुतुब-ए-इल्हामियाह की तस्नीफ़ का मूलहमों (इल्हाम रखने वाले) परदार व मदार हो। मगर ताज्जुब है। कि मुहम्मदियों के सरवरे अम्बिया का क़ुरआन के एक हर्फ़ पर भी ना एतबार हो? ये सुन कर तो मेरा सर चक्कर खाता है। कलेजा बाँसों मुंह को आता है। मुझे रुख़्सत फ़रमाए। जाये बक बक कर सर ना खाए बहुत ख़ूब।

राक़िम

شادم کہ ازرقيباں دامن کشاں گذشتم

گو مشت خاک     ماہم    برباد رفتہ  باشد

दुश्मने मसीहियत

सब के सब एक ही से हैं । पस शेख़ अहमद कोईलम नव मुस्लिम का ये क़ौल, कि हम मुसलमान लोग मसीह की हद से ज़्यादा ताज़ीम करते हैं। कई वजह से बातिल (झूट) है। और अंग्रेज़ी हुक्काम को धोखा देने के सिवाए मह्ज़ आतल। अव्वलन, क़ुरआन की मुन्दरिजा बाला ताअलीम के ख़िलाफ़ है।

The Enimeis of the Christiniaty

दुश्मने मसीहियत

By

Kidarnath
केदारनाथ

Published in Nur-i-Afshan Jan 4, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 4 जनवरी 1894 ई॰

नाज़रीन नूरअफ़्शाँ : हाथी के दाँत खाने के और होते हैं। और दिखाने के और। मुहम्मदी भाई कितने ही ज़ोर शोर से दावे क्यों ना करें। कि हम ख़ुदावन्द येसू मसीह की हद से ज़्यादा ताज़ीम (इज़्ज़त) करते हैं। लेकिन उन के ऐसे लायानी (फ़ुज़ूल, बेहुदा) दावे को किसी दलील से भी तक़वियत नहीं पहुँचती। अव्वलन क़ुरआन ख़ुद उन को झुटला रहा है। और لا نفرق بين احدہِ यानी नहीं फ़र्क़ करते दर्मियान किसी एक के बतला रहा है। देखिए यहां साफ़ साफ़ कहा जाता है। कि येसू मसीह और मूसा और सुलेमान वग़ैरह नबियों में कोई तफ़ावुत (फ़र्क़) नहीं।

सब के सब एक ही से हैं । पस शेख़ अहमद कोईलम नव मुस्लिम का ये क़ौल, कि हम मुसलमान लोग मसीह की हद से ज़्यादा ताज़ीम करते हैं। कई वजह से बातिल (झूट) है। और अंग्रेज़ी हुक्काम को धोखा देने के सिवाए मह्ज़ आतल। अव्वलन, क़ुरआन की मुन्दरिजा बाला ताअलीम के ख़िलाफ़ है। दोएमन, जुम्ला अहले इस्लाम मुहम्मद को कुल अम्बिया पर फ़ौक़ियत (बरतरी) देते हैं। अगर हम अपने मुहम्मदी भाईयों का इस अम्र में हिंदू भाईयों के साथ मुक़ाबला करते हैं। तो और ही मुआमला नज़र आता है। क्योंकि मुहम्मदी बावजूद ये कि ख़ुदावन्द येसू मसीह को नबी क़रार देते। लेकिन साथ ही उसे झूटा भी ठहराते। लेकिन हिंदू भाई अगरचे उसे नबी नहीं कहते। पर तो भी धर्मात्मा (नेक) कहने में शक नहीं लाते। इस पर तुर्रह (अनोखा) ये है, कि अभी तक मुहम्मदियों को इतना तक मालूम ही नहीं, कि मुहम्मद का नसब नामा इस्माईल तक दुनिया के किसी हिस्से में मौजूद नहीं। ना यूरोप में, न एशिया में, ना अफ़्रीक़ा में, ना अमरीका में। तो फिर किस बरते पर तता पानी मांगा (गर्म-जोशी दिखाना) जाता है? अगरचे ख़ुदा का कलाम हमको डंके की चोट पुकार पुकार कर कह रहा है, कि “लौंडी का बेटा आज़ाद के बेटे के साथ वारिस नहीं हो सकता है। लौंडी और उस के बेटे को घर से निकाल दो।” तो भी अगर किसी सूरत से मुहम्मद साहब को इस का कुछ सहारा कुतुब इल्हामियाह से मिल जाता। उस वक़्त हम इतना मान लेने को तैयार हो जाते। जितना कि अब्रहाम की दूसरी बीवी कतुरह की औलाद को। मगर यहां तो मुत्ला`अ ही साफ़ आता नज़र है।

इस पर हम अपने मुहम्मदी भाईयों को याद दिलाना चाहते हैं कि पण्डित दया शंकर नसीम के शेअर को याद करें :-

भाई थे जोश ख़ूँ कहा जाये

सदमा हुआ दर्द से कहा हाय

क्या मुनादी में सरे बाज़ार बह्स के वक़्त आप लोग हिंदूओं को अपनी तरफ़ नहीं मिला लेते हैं। और उन के तुहमात की ताईद में गुल नहीं मचाते हैं? इस का जवाब अक्सर मुहम्मदियों की ज़बान से ये निकलता है, कि हिंदू मुसलमान भाई भाई हैं। पस मुहम्मदियों ही के इक़रार से इस्लाम ईसाईयत का दुश्मन साबित हो गया। और अगर उलमा-ए-इस्लाम इस को अवाम मुहम्मदियों की जहालत क़रार दें। तो हमारी अर्ज़ ये है कि احل لکم طعام الذين اوتو الکتاب के ख़िलाफ़ कुफ़्फ़ार का (बक़ौल इस्लाम) दूर से दिया हुआ खाना नोशे जान फ़रमाना। बाज़ारी हलवाइयोँ की पुख़्ता पूरी कचौरी खाना। उन के लोटे का पानी चुल्लुओं से पी जाना। और ईसाई की हाथ की दवा तक ना खाना क्यों हिन्दुस्तान के मुहम्मदियों में वबा-ए-हैज़ा की तरह फैला हुआ है? और इस बीमारी का सर चशमा अनपढ़ मुहम्मदी नहीं, बल्कि पढ़े हुए फ़ाज़िल।

चुनाचे मुहम्मदियों के इमाम फ़न मुनाज़रा अबू अल-मंसूर देहलवी अपनी किताब तन्क़ीह-उल-बयान। जवाब तफ़्सीर-उल-क़ुरआन मुसन्निफ़ सर सय्यद अहमद ख़ान साहब सितारा हिंद के सफ़ा 171 की सतर बारहवीं में लिखते हैं, कि “اب طعام الذين اوتو الکتاب  ” की तफ़्सीर मुझसे सुन लीजिए। कि इस आयत में “وصف اوتو الکتاب” इस बात पर दलालत करता है, कि जो खाना बहैसीयत नुज़ूल-ए-किताब उन के इस्तिमाल में है वह खाना तुमको भी हलाल है।” چو کفر از کعبہ برخيزدکجا ماند مسلمانی लेकिन हम मुफ़स्सिर साहब से पूछते हैं, कि कुफ़्फ़ार के हाथ के पके हुए खाने में बहैसीयत नुज़ूल-ए-किताब की शान-ए-नुज़ूल भी बतला दीजिए। लेकिन इस का जवाब शायद आप या और मुहम्मदी भी देंगे। कि हिंदू मुसलमान भाई भाई हैं। अंग्रेज़ों के हम मज़्हब ईसाई हैं। लेकिन अगर शेख़ कोईलम साहब नव मुस्लिम का दिल और ज़बान एक ही है। तो उन बिचारे हिन्दुस्तानी करोड़ों मुसलमानों के कलेजों में हाथ डाल कर ईसाईयत की दुश्मनी को निकालें। और फ़ौरन अमरीका से बइतफ़ाक राय उलमा-ए-मक्का एक फ़त्वा हिन्दुस्तान के मौलवियों के नाम रवाना फ़रमाएं, कि अहले-किताब के साथ खाना खा कर अपने बुग़्ज़ दिली (दिल में हसद) को निकालें। और गर्वनमैंट बर्तानिया की नज़र में साबित कर दिखाएं, कि हम या इस्लाम दुश्मन ईसाईयत नहीं हैं। अब हम क़ुरआन के “लानफ़रक” का जवाब देकर ख़ुदा से दुआ मांगते हैं। कि प्यारे बाप हमारे मुहम्मदी भाईयों के दिलों से इस बुग़्ज़ को, जो तेरे अज़ीज़ फ़र्ज़न्द की तरफ़ से हो दूर कर। आमीन।

अब लानफ़रक का जवाब ये है, कि अगर हक़ीक़त में नबियों के दर्मियान कुछ फ़र्क़ ना करना चाहिए। और अगर ख़ुदावन्द यसू अल-मसीह नबी से बढ़कर ख़ुदा नहीं है। तो हमारी समझ में नहीं आता, कि तरीक़ा मौजूदा के ख़िलाफ़ उस के इन्सानी जिस्म में आने के लिए बाप की ज़रूरत क्यों नहीं हुई। फिर तमाम क़ुरआन में और अम्बिया के गुनाह लिखे हुए। येसू मसीह की कोई भी कमज़ोरी इशारतन या किनायतन क्यों ना लिख दी ना फिर अगर उस की मौत गुनाह का कफ़्फ़ारा ना थी। तो क़ुरआन में “ما قتلوہ و ما صلبوہ” पर क्यों ज़्यादा ज़ोर दिया गया। जब कि और नबियों की क़त्ल व ईज़ा से चंदाँ इन्कार नहीं है।

इन बातों पर लिहाज़ करने से शुब्हा पैदा होता है।

बक़ौल मिर्ज़ा नौशा देहलवी :-

बे-ख़ुदी बेसबब नहीं ग़ालिब

कुछ तो है जिसकी पर्दा-दारी है

पैदाइश 28:10-15

अब हम सीढ़ी पर ग़ौर करते हैं। यूहन्ना 1:15 के लिहाज़ से अगरचे इस सीढ़ी से इब्ने आदम मुराद है। पर हमारी राय में यहां सीढ़ी को सलीब से ज़्यादा मुनासबत पाई जाती है। क्योंकि वो मिलाप जो ख़ुदा और इन्सान में अज सर-ए-नौ फिर क़ायम हुआ वो इब्ने आदम के वसीले से है। लेकिन उस के क़ायम होने का तरीक़ा मसीह का दुख और उस की सलीबी मौत है क्योंकि जो काठ पर लटकाया गया सो लानती हो।

Genesis 28:10-15

पैदाइश 28:10-15

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Jan 11, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 11 जनवरी 1895 ई॰

10 वीं आयत पर ग़ौर करने से ज़ाहिर होता है कि इन्सान में ये एक अजीब ख़ासीयत है कि मौजूदा हालत की बनिस्बत जब उसे कुछ तक्लीफ़ पेश आती है अपनी पिछली हालत को अक्सर याद करता है। चुनान्चे याक़ूब के हाल से हमको इस की शहादत भी मिलती है जैसा लिखा है, कि वो हारान की तरफ़ गया। शहर हारान क़स्दियों के ऊर से जुनूब मग़रिब की तरफ़ 20 मील के फ़ासिले पर है। जहां तारा मए अपने ख़ानदान के 15 बरस तक रहा। और जिसको अबराहाम ने तारा की मौत के बाद बिल्कुल छोड़ दिया ताकि वो ख़ुदा के हुक्म के मुताबिक़ मुल्क-ए-मौऊद (वाअदा किया मुल्क) को जाये। इसी तरह बनी-इस्राईल जब कि मिस्र से निकल कर ब्याबान में सफ़र कर रहे थे ज़रा ज़रा सी तक्लीफ़ के ख़याल से हाय मिस्र हाय मिस्र पुकारने लगते थे। बावजूद ये कि मिस्र में वो गु़लामी की हालत में थे और जो कुछ ख़ुदा उन के साथ महरबानीयाँ करता था उन से वाक़िफ़ थे। लेकिन यहां याक़ूब और बनी-इस्राईल अगरचे मिस्र को लौट नहीं गए पर तो भी सिवाए यशूअ और क़ालिब के सब के सब ब्याबान में ही हलाक हुए। और याक़ूब अगरचे हारान को गया भी और वहां रहा भी फ़रेब से बरकत भी हासिल की। लेकिन ख़ुदावन्द ने उसे निहायत बरकत बीवीयां, औलाद, माल अस्बाब, चार पाए सब कुछ मर्हमत (करम, मेहरबानी) फ़रमाया और फिर कनआन में वापिस लाया। अब अगर कोई पूछे कि ऐसा क्यों हुआ तो हम कहेंगे कि ख़ुदा की मर्ज़ी। यहां से बर्गज़ीदगी की ताअलीम की ताईद होती है कि बर्गज़ीदों को ख़ुदा कभी हलाक ना होने देगा। पस याद रखना चाहिए कि इसी सूरत से हम में भी यही कमज़ोरी पाई जाती है। लेकिन जिसे ख़ुदा ने चुन लिया है उस को इस से कुछ नुक़्सान ना होगा। पर शर्त ये है कि ख़ुदा की रूह को रंजीदा ना करें। बल्कि उस की हर एक हिदायत पर अमल करने को तैयार रहें। जैसा कि 12 वीं आयत में याक़ूब को सीढ़ी दिखाई गई। सीढ़ी के बयान से पेश्तर हम ये ज़ाहिर करेंगे कि ईमानदार पर मुसीबत का आना ज़रूर है।

1. आदम पर ग़ौर करो ख़ुदा ने उसे अपनी सूरत पर बनाया। वो हर-दम ख़ुदा की हुज़ूरी में निहाल (ख़ुश) रहता था। सिवाए ख़ुशी के रंज नाम को भी ना था पर जब गुनाह आया तो वो सख़्त मुसीबत में पड़ गया। बाग-ए-अदन से निकाला गया ख़ुदा की क़ुर्बत (नज़दिकी) से महरूम हुआ।

2. हाबिल रास्तबाज़ जिसकी क़ुर्बानी ख़ुदा ने क़ुबूल की जान ही से मारा गया।

3. अबराहाम को जब ख़ुदा ने बुलाया तो उसे अपना वतन अपना शहर अपना ख़ानदान ज़मीन जगह सब कुछ छोड़ना पड़ा।

4. फिर इज़्हाक़ अपने बाप का इकलौता जो वाअदे का कहलाता है उस के ज़ब्ह किए जाने का हुक्म हुआ।

5. याक़ूब बरकत पाते ही हारान को भागा।

6. यूसुफ़ सूरज चांद और सितारों का मस्जूद (जिसको चांद सितारे सज्दा करें) हो कर गु़लामी की हालत में मिस्र को गया क़ैद में पड़ा।

7. मूसा मिस्र से जान को बचा कर भागा।

8. ख़ुदावन्द येसू मसीह को जब कि वो गुनेहगारों के बचाने पर मुक़र्रर हुआ। आस्मानी तख़्त छोड़ना और इन्सानी बदन ग़रीबी की हालत में इख़्तियार करना पड़ा। फिर जब बपतिस्मा पाते वक़्त रूहे पाक उस पर नाज़िल हुआ तब ब्याबान में 40 दिन तक शैतान से आज़माया गया।

9. मसीह के रसूल भी रूहुल-क़ुद्दुस पाते ही सख़्त अज़ीयतों में पड़े मस्लूब हुए मक़्तूल हुए।

10. ज़माना ब ज़माना मसीह के शागिर्द बुत परस्त बादशाहों हाकिमों रियाया से सताए गए। यहां तक कि शहीदों का ख़ून कलीसिया का बीज हुआ। पस सवाल है कि बर्गज़ीदों के वास्ते मुसीबतें क्यों ज़रूरी हैं। तवज्जोह अब ये है कि हम ख़ुदा के फ़र्ज़न्द हैं और जब फ़र्ज़न्द हुए तो वारिस भी और मीरास में मसीह के शरीक बशर्ते के हम उस के साथ दुख उठाएं ताकि उस के साथ जलाल भी पाएं।

रोमीयों 8:15,16 क्योंकि मेरी समझ में ज़माना-ए-हाल के दुख दर्द इस लायक़ नहीं कि उस जलाल के जो हम पर ज़ाहिर होने वाला है मुक़ाबिल हों। रोमीयों 8:18

अब हम सीढ़ी पर ग़ौर करते हैं। यूहन्ना 1:15 के लिहाज़ से अगरचे इस सीढ़ी से इब्ने आदम मुराद है। पर हमारी राय में यहां सीढ़ी को सलीब से ज़्यादा मुनासबत पाई जाती है। क्योंकि वो मिलाप जो ख़ुदा और इन्सान में अज सर-ए-नौ फिर क़ायम हुआ वो इब्ने आदम के वसीले से है। लेकिन उस के क़ायम होने का तरीक़ा मसीह का दुख और उस की सलीबी मौत है क्योंकि जो काठ पर लटकाया गया सो लानती हो। उसी ने हमको मोल ले के शरीअत की लानत से छुड़ाया। कि वो हमारे बदले मस्लूब हो कर लानती हुआ। जिस तरह याक़ूब ने ख़ुदावन्द को उस के ऊपर खड़ा देखा। उसी तरह हम मसीह ख़ुदावन्द को सलीब पर देखते हैं, कि वो अपने दोनों हाथ फैलाए हुए बर्गज़ीदों को बुलाता है। कि आओ ख़ुदावन्द से मिलाप करो। दुनिया में भी मिलाप का यही निशान है, कि जब वो मुख़ालिफ़ बाहम मेल करते हैं तो छाती से लगा लेते हैं। 13 वीं आयत में ख़ुदावन्द याक़ूब से कहता है कि मैं तेरे बाप अबराहाम का ख़ुदा हूँ हालाँकि रिश्ते के लिहाज़ से वो इस का दादा था। यहां उस मिलाप के हासिल करने का वसीला बतलाया जाता है कि अबराहाम ईमानदारों का बाप है। जो ईमान लाता है वो अबराहाम का फ़र्ज़न्द है। अब जो ईमान लाता है वो अबराहाम का फ़र्ज़न्द है अब जो ईमान लाता है ख़ुदावन्द उस का ख़ुदा है और वही इस मिलाप को हासिल कर सकता है।

14 वीं आयत में है कि तेरी नस्ल को। यहां नस्ल से खासतौर पर मसीह मुराद है। क्योंकि इब्तिदा ही से हाँ बाग-ए-अदन के वाअदे से वो नस्ल कहलाया। और आम तौर पर उस की कलीसिया क्योंकि लिखा है कि तो पूरब पच्छिम उत्तर दक्षिण को फूट निकलेगा सो देख लो कि मसीह की कलीसिया का यही हाल है। लेकिन याक़ूब की जिस्मानी औलाद यहूदी जो अब सिर्फ सत्तर लाख हैं मुराद लें तो निहायत मुश्किल है। कि दुनिया के तमाम घराने उन से बरकत पाएं। वो तो आप ज़लील व हक़ीर हो रहे हैं ख़ुदा उन पर रहम करे कि वो भी मसीह से बरकत पाए।

15 वीं आयत में है कि मैं तेरे साथ हूँ तेरी निगहबानी करूँगा। और तुझे इस मुल्क में फिर लाउंगा। यहां ईमानदारों के लिए बड़ी तसल्ली की बात है कि ख़ुदा उन के साथ है। मसीह ने फ़रमाया कि ज़माने के तमाम होने तक हर रोज़ तुम्हारे साथ हूँ कुछ परवाह नहीं, कि माँ बाप भाई अज़ीज़ व अका़रिब सब छोड़ दें लेकिन ख़ुदा साथ है। वो उन की निगहबानी करता है जिस तरह गडरिया भेड़ की ताकि वो भेड़ या जो शैतान है या जो उस के हम-शक्ल हैं फाड़ ना खाएं। और सबसे ज़्यादा ये कि इस जहान की मुसाफ़िरत और दौड़ धूप के बाद हक़ीक़ी कनआन में फिर लाने का वाअदा करता है। जहां हमेशा का आराम हमेशा की ज़िंदगी सब कुछ मौजूद है।

अय्यूब 42

इन आयतों में एक ही मज़्मून है। यानी अपना इन्कार करना। अय्यूब की इब्तिदाई हालत और शैतान के एतराज़ से ज़ाहिर होता है कि बसा औक़ात ख़ुदा से हर क़िस्म की दुनियावी बरकतों को हासिल करते हुए दीनदार की दीन-दारी वो दर्जा नहीं रखती, जो तक्लीफ़ और मुसीबत में वक़अत (क़द्र, हैसियत) पाती है। हाँ सोना सोना तो है मगर आग में तापाया जा कर कुंदन बनता है।

Job Chapter 42

अय्यूब 42

By

Kidarnath
कैदार-नाथ

Published in Nur-i-Afshan Jan 11, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 11 जनवरी 1894 ई॰

बिल-इत्तिफ़ाक़ मूसा की किताब तौरेत से क़दीम तर कोई किताब दुनिया में पाई नहीं जाती। लेकिन ये अजीब बात है कि अय्यूब की किताब इस से भी ज़्यादा क़दीम है। एक निहायत मशहूर मुनज्जम डाक्टर हलीज़ साहब ने अय्यूब 9:9, 38:31,32 के मुताबिक़ हिसाब कर के बताया है कि अय्यूब की किताब क़ब्ल अज़ मसीह 2130 और अब्राहम से 184 बरस पेश्तर तस्नीफ़ हुई। लेकिन अक्सरों का गुमान है कि अय्यूब की किताब को मूसा ने उस वक़्त तस्नीफ़ किया। जब कि वो मिस्र से भाग कर मिद्यान में औक़ात-ए-बसरी करता था। बहर-ए-हाल इस का तौरेत से क़दीम होना दोनों सूरतों में ज़ाहिर है। हमारी सनद की आयतें इसी किताब के 42 बाब में मुन्दरज हैं। चूँकि आदमी की बा-तबेअ (फ़ित्रत के लिहाज़ से) ये ख़ासीयत है कि वो क़दीम से क़दीम किताब का पढ़ना और उस पर ग़ौर करना चाहता है। और गुज़रे ज़मानों के हालात का मौजूदा हालत से मुक़ाबला कर के दर्याफ़्त करना चाहता है कि ज़माने के रोज़ाना इन्क़िलाब ने क़दीम बात की आज क्या हालत पैदा कर दी है। इसी तरह मज़्हबी बातों में जब ऐसा सिलसिला हाथ आ जाता है। तो नाज़रीन के दिल पर कैसी तासीर पड़ती है। ईसाई मज़्हब की ताअलीमात का यही हाल है वो एक ज़ंजीर है। जो मुख़्तलिफ़ ज़मानों में मुख़्तलिफ़ कारीगरों के हाथ से बनाई गई और जिस में 66 कड़ियाँ हैं। मगर जब उन की यकसानियत पर ग़ौर किया जाता है तो साफ़ मालूम होता है, कि दर-हक़ीक़त इन 66 कड़ीयों का बनाने वाला एक ही लोहार है। जब ये हाल है तो हम देखें कि इस पुरानी ताअलीम से आज हमारे वास्ते क्या फ़ायदा हासिल होता है। और ख़ुदा जो अगले ज़मानों में नबियों के वसीले बाप दादों से बार-बार और ख़ासकर अय्यूब से बगोले और गर्द बाद में कलाम करता रहा। इस आख़िरी ज़माने में बेटे के वसीले हमसे क्या बोलता है।

इन आयतों में एक ही मज़्मून है। यानी अपना इन्कार करना। अय्यूब की इब्तिदाई हालत और शैतान के एतराज़ से ज़ाहिर होता है कि बसा औक़ात ख़ुदा से हर क़िस्म की दुनियावी बरकतों को हासिल करते हुए दीनदार की दीन-दारी वो दर्जा नहीं रखती, जो तक्लीफ़ और मुसीबत में वक़अत (क़द्र, हैसियत) पाती है। हाँ सोना सोना तो है मगर आग में तापाया जा कर कुंदन बनता है। और यही एक कसौटी है जिस पर हम ईमान के सोने को कस (परख) कर देख सकते हैं। किताब के आख़िरी हिस्से से ज़ाहिर होता है कि ख़ुदा को भी यही मंज़ूर था, कि अय्यूब की आज़माईश हो। सच्च है कि वो जो अपने ही फ़र्ज़न्द को रूह के वसीले ब्याबान में आज़माने को ले जाता है। वो अय्यूब को कब बग़ैर आज़माऐ हुए छोड़ देता। मत्ती 4:1 जब हरे दरख़्त के साथ ऐसा करते हैं तो सूखे के साथ क्या ना किया जाएगा। लूक़ा 23:31 क्योंकि ख़ुदा के हुज़ूर किसी की तरफ़-दारी नहीं होती। रोमीयों 2:11 लेकिन शैतान की आज़माईश की ग़र्ज़ हलाकत और बर्बादी है। मगर ख़ुदा की ग़र्ज़ आज़माईश में दीनदार की रुहानी तरक़्क़ी और बरकतों का सबब है। अय्यूब के इस इक़रार कि मैंने तेरी ख़बर कानों से सुनी थी। पर अब मेरी आँखें तुझे देखती हैं। मालूम होता है कि अगरचे वो कामिल सादिक़ ख़ुदातरस था। तो भी उस में एक चीज़ की कमी थी जैसा हमारे ख़ुदावंद ने उस दौलतमंद से फ़रमाया कि तो भी तुझमें एक चीज़ बाक़ी है। जा और जो कुछ तेरा हो बेच डाल। और ग़रीबों को दे। मर्क़ुस 10:21 और वो भी चीज़ थी कि जब उस ने किसी ना किसी सूरत से ख़ुदा को आँखों से देखा तो इक़रार किया कि मैं अपने ही से बेज़ार हूँ। अगरचे हम जानते हैं कि ख़ुदा को किसी ने कभी ना देखा। यूहन्ना 1:18 पर तो भी इब्रानियों 10:2 और यूहन्ना 1:18 और यशूअ 5:14 के मुक़ाबले से वाज़ेह होता है कि बाइबल में जहां कहीं ख़ुदा के ज़हूर का बयान है वहां हमारे ख़ुदावंद येसू मसीह से मुराद है। और उस का देखना ख़ुदा का देखना है। जैसा कि उसने आप ही फ़रमाया कि जिसने मुझे देखा है उस ने बाप को देखा है। यूहन्ना 14:9 और ख़ुद अय्यूब ही उस ख़ुदा की बाबत जिसके आइंदा देखने की भी उम्मीद रखता है। एक ऐसा लक़ब इस्तिमाल करता है कि हमको कुछ शुब्हा नहीं रहता कि वो मसीह ही है। वो कहता है क्योंकि मुझको यक़ीन है कि मेरा फ़िद्या देने वाला ज़िंदा है। और वो रोज़ आख़िर ज़मीन पर उठ खड़ा होगा। और हर चंद मेरी पोस्त (जिल्द) के बाद मेरा जिस्म क्रम ख़ूर्दा (बोसीदा) होगा। लेकिन मैं अपने गोश्त में से ख़ुदा को देखूँगा। अय्यूब 19-26:25 साथ ही उस के हमको याद रखना है कि मसीही ख़ुद इंकारी और ग़ैर-क़ौम की ख़ुद इंकारी में फ़र्क़ है। हिंदू मज़्हब का वेदांती फ़िर्क़ा (ज़ात-ए-इलाही पर बह्स करने वाला) इस बात पर बहुत ज़ोर देता है कि हम कुछ नहीं और ख़ल्क़त कुछ नहीं। जो कुछ है सो ख़ुदा है इसी बेहूदा ख़याल से हमा ओसती (हर चीज़ ख़ुदा है) की तारीकी ने हमारे हिंदू भाईयों को अंधेरे में डाल दिया है। चाहीए कि हम इस तारीकी से दूर रहें और बाइबल की सच्ची ख़ुद इंकारी का सबक़ सीखें। वहां इस से बेहतर ताअलीम हमको ये मिलती है, कि हमारी हस्ती तो क़ायम रहती है और हमारे हवास-ए-ख़मसा (पाँच हवास) गवाही देते हैं कि हम मौजूद हैं मगर साफ़ ज़ाहिर होता है कि जो कुछ अच्छा हो सकता या अच्छा कहा जा सकता वो हमसे नहीं बल्कि ख़ुदा से है। जैसा रसूल फ़रमाता है कि “मसीह के साथ सलीब पर खींचा गया लेकिन ज़िंदा हूँ पर तो भी मैं नहीं बल्कि मसीह मुझमें ज़िंदा है।” ग़लतियों 2:20 ग़र्ज़ कि इंजीली ताअलीम सच्ची ख़ूद इंकारी सिखाती है। आप जानते हैं कि ख़ुदा की बाबत हमने और और लोगों ने बहुत कुछ सुना और सुनते हैं। दुनिया के मुअल्लिम यही करते रहे और करते हैं यहां तक कि लोग सुनते सुनते सुन हो गए। और नतीजा ये हुआ कि अपनी ख़ूबीयों को देखते देखते ख़ूदी ने यहां तक लोगों के दिलों में घर कर लिया कि ख़ुदा कोसों दूर हो गया और तमाम इन्सान उस ऊंट की मानिंद शुत्र बे मुहार (बेलगाम ऊंट) हो गए। जो अपने आपको तमाम मौजूदात से ऊंचा और बुलंद समझता है। लेकिन पहाड़ के नीचे जा कर उसे मालूम होता है कि मैं तो बिल्कुल छोटा और नाटा हूँ। इसी तरह घमंडी आदमी जब रूह की मदद से ख़ुदा के पहाड़ तले आकर साफ़ जानता है कि मुझमें यानी मेरे जिस्म में कोई अच्छी चीज़ नहीं बस्ती। रोमीयों 7:18 और क्या रोज़ाना तजुर्बा नहीं बता देता कि सब के सब गुनाह के तले दबे हैं। “कोई रास्तबाज़ नहीं एक भी नहीं। कोई समझने वाला नहीं, कोई ख़ुदा का तालिब नहीं। सब के सब गुमराह हैं, सब के सब निकम्मे हैं, कोई नेकोकार नहीं एक भी नहीं।” जब ये हाल हो तो क्या अय्यूब के दोस्तों की मानिंद ख़ुदा हमसे नहीं कहता कि अपने लिए सोख़्तनी क़ुर्बानी गुज़रानो। पर ख़ुदा का शुक्र है कि ख़ुदा ने अपना बर्रा भेज दिया जो जहान का गुनाह उठा ले जाता है। आओ आज हम उसे अपना कफ़्फ़ारा समझ कर ख़ुदा के हुज़ूर गुनाहों की माफ़ी हासिल करें। और देखें कि ख़ुद इंकारी में कौन कौन सी बातें शामिल हैं। क्योंकि ये अम्र इसलिए ज़रूरी है कि ख़ुदावंद मसीह ने साफ़ लफ़्ज़ों में फ़रमाया कि जो कोई मेरे पीछे आना चाहे चाहिए कि वो अपने से इन्कार करे। मर्क़ुस 9:34

1. ज़ात से इन्कार। बहुतेरे मसीही ख़ासकर इन्जील के ख़ादिम भी कोई कोई इस फंदे में फँसते हैं वो ग़ैर क़ौमों से कहते कि ज़ात पात कुछ नहीं। मगर आप ही ग़ैर क़ौमों की मानिंद अपने को ऊंची ज़ात और दूसरों को नीच ज़ात समझ कर बहुतेरों के वास्ते ठोकर का सबब हैं चाहिए कि हम इस से इन्कार करें।

2. ख़ानदान से इन्कार। ये भी एक ख़ुदा से दूरी और कमाल मग़रूरी का बाइस है कि हम तो आला ख़ानदान से ताल्लुक़ रखते लेकिन नासरत से कोई अच्छी चीज़ नहीं निकल सकती है इस से भी इन्कार करना चाहिए।

3. दुनिया के ऐश व इशरत से इन्कार जब मसीह ने साफ़ फ़र्मा दिया कि इन्जील और मेरे वास्ते हर तरह के दुख-दर्द में मुब्तला होना ज़रुरी है। तो क्या हम ख़याल कर सकते हैं कि वो जो रात-दिन दुनियावी ऐश व इशरत में पड़ कर इन्जील और मसीह की सलीब से कोसों भागता है। ख़ुदावंद का शागिर्द या मुनाद है? नहीं। पस ऐसे आराम से भी हमको इन्कार …….. करना चाहिए।

4. नेक कामों से इन्कार। इस से ये मुराद नहीं कि हम नेक काम ना करें। जिस हाल में कि हम मसीह में इसी लिए सर-ए-नौ पैदा हुई कि नेकी करें लेकिन ग़र्ज़ ये है कि उन कामों को नेक समझ कर अपने आपको नेक ना जानें। क्योंकि हमारे ख़ुदावंद का फ़र्मान है कि नेक कोई नहीं मगर एक यानी ख़ुदा। पस ऐसी नेकी से भी इन्कार करना ज़रूर है।

हासिल कलाम। आज के वाज़ से हमको कई बातें मालूम हुईं

1. ईमानदार की ज़िंदगी जो इस दुनिया में बसर होती है आज़माईश है।

2. दीनदारी जो दौलतमंदी में है वो मुसीबत और तंगी में रहे तो दीनदारी है वर्ना मक्कारी।

3. ख़ुदा जब दीनदारों को आज़माईश में डालता है तो उन को ज़्यादा रुतबा और दौलत भी इनायत करता है।

4. अगर कोई ईमानदार तक्लीफ़ में मुब्तला हो जाये तो हमसे ज़्यादा गुनेहगार नहीं साबित होता।

5. जब तक ख़ुदा को देखते नहीं तब तक अपना इन्कार नहीं हो सकता।

उलमा अहले इस्लाम से सवाल

मिर्ज़ा साहब की तहक़ीक़ात और उन के हवारियों (शागिर्दों) के बयानात से ये मालूम होता है। कि साहब ममदूह (जिसकी तारीफ़ की गई हो) मसीह मौऊद (वाअदा किया हुआ) और मुल्हिम-ए-ग़ैब (इल्हाम रखने वाला) हैं। और पंजाब के रिसाला जात और जाहिल आदमीयों की रिवायत से ये ज़ाहिर होता है,

Questions to the Muslim Scholars

उलमा अहले इस्लाम से सवाल

By

Abdul Hamid
अब्दुल हमीद मुदर्रिस कठोली

Published in Nur-i-Afshan Jan 4, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 4 जनवरी 1895 ई॰

मिर्ज़ा साहब की तहक़ीक़ात और उन के हवारियों (शागिर्दों) के बयानात से ये मालूम होता है। कि साहब ममदूह (जिसकी तारीफ़ की गई हो) मसीह मौऊद (वाअदा किया हुआ) और मुल्हिम-ए-ग़ैब (इल्हाम रखने वाला) हैं। और पंजाब के रिसाला जात और जाहिल आदमीयों की रिवायत से ये ज़ाहिर होता है, कि आँजनाब मह्दी-ए-वक़्त (रहनुमा) और मज़हरे इलाही (ख़ुदा को ज़ाहिर करने वाला) हैं।

जंग-ए-मुक़द्दस के बाद जो कि साहब मौसूफ़ ने मिस्टर साहब अब्दुल्लाह आथम ईसाई की बाबत पैशन गोई दर्ज फ़रमाई। जब उस में सूरत सदाक़त नज़र ना आई तो आपने सख़्त लाचार हो कर ताविलों (दलीलें) की भर मार कर चंद इश्तिहार निकाले जो दर-हक़ीक़त धोके की टट्टी (आड़ लेने की जगह) या फ़रेब के जाले थे। (जिससे आपके मसीह मौऊद होने और मह्दी-ए-वक़्त कहलाने की कैफ़ीयत ख़ुद बख़ुद मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) होती है।)

हमारे सच्चे नबी हज़रत मुहम्मद ﷺ की वो तमाम हदीसें जो कि ईसा इब्ने मर्यम की दुबारा तशरीफ़ आवरी के बाब में वारिद हैं। और क़ुरआन शरीफ़ की वो सब आयतें जो आने वाले मसीह की ख़ुशख़बरी सुनाती हैं। अगर बइत्तीफ़ाक उलमा-ए-अहले-इस्लाम वो दुरुस्त व रास्त हैं। और उन के मिस्दाक़ (तस्दीक़ करने वाला) भी साहब अल्लामा आफ़ाक़ हैं तो ऐसे इस्लाम और मुक़तिदायान इस्लाम (रहनुमा, पेशवा) को सलाम।

गर मसीहा दुशमन-ए-जान हो तो कब हो ज़िंदगी

कौन रह बतला सके जब ख़िज़र भटकाने लगे

और अगर उलमा-ए-इस्लाम को मिर्ज़ा साहब के मसीह मौऊद होने में कलाम है तो अजब अहले-इस्लाम हैं कि हदीसों और आयतों के तर्जुमों में किसी की राय नहीं मिलती। और बाहम मुत्तफ़िक़ हो कर एक बात मुक़र्रर नहीं करते। मिर्ज़ाई साहिबान अपने आपको जन्नती गिनते हैं और उन के मुख़ालिफ़ उन्हें काफ़िर क़रार देते हैं। इस के इलावा तहत्तर 73 फ़िर्क़ों से जिस अहले-मज़्हब के साथ गुफ़्तगु की जाती है वही अपने आपको नाजी बताता है और दूसरे को नारी (दोज़ख़ी, जहन्नुमी) क़रार देता है। अब नया मुतलाशी किस को सच्चा समझे और किस को झूटा क़रार दे। इसलिए मेरा जुम्ला उलमा-ए-अहले-इस्लाम से सवाल है इन चौहत्तर 74 मज़्हबों में से सच्चा कौन सा है। कि जिसके हासिल करने से नजात मिले।

इन्सान की तीन बड़ी ज़रूरतें

ब्रहमो मिस्ल दीगर अक़ला के इक़रार करते हैं कि गुनाह आशनान वग़ैरह से दूर नहीं हो सकता। मगर वो कर्म की ताअलीम में कुछ तादाद सज़ा की मुक़र्रर करते हैं जो नज़ा (मौत, जान कनी) के वक़्त होती है। ये जानना तो बहुत ही मुश्किल है। कि क्या सज़ा हो सकती है और कब मसीही मज़्हब इस के ख़िलाफ़ ज़ाहिर करता है। कि बतकाज़ा अदल ख़ुदा से माफ़ी क्योंकर हो सकती है।

Three Major Needs of Man

इन्सान की तीन बड़ी ज़रूरतें

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Feburary 1, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 1 फरवरी 1895 ई॰

इन्सान के पास रूह व जिस्म हैं। उन में से हर एक की ज़रूरतें अलैहदा अलैहदा (अलग-अलग) हैं।

1. जिस्म को ग़िज़ा, पोशाक और मकान की ज़रूरत होती है। 2. रूह को भी बहुत बड़ी-बड़ी ज़रूरतें होती हैं।

चंद मुद्दत-बाद जिस्म फ़ना हो जाएगा। मगर रूह तो ख़्वाह लाइन्तहा ख़ुशी में ख़्वाह तकालीफ़ में मुब्तला रहेगी। एक बड़े मुअल्लिम का क़ौल है “कि उस शख़्स को क्या हासिल जिसने तमाम दुनिया की लज़्ज़तों को हासिल किया। मगर रूह-ए-अज़ीज़ हलाक किया।” हमारी ग़र्ज़ रूह की उन जरूरतों की तक्मील से है। जो हस्ती की बिला इख़्तताम हालत के लिए ज़रूरी हैं। जो हमारी मुंतज़िर है। और थोड़े अर्से में हम सब जिसमें दाख़िल होंगे।

अव़्वल, इन्सान को माफी गुनाह की ज़रूरत है। हम सबको अपने गुनाहों का मुक्कर (इक़रार करना) होना चाहिए। चंद ब्रहमन रोज़ाना ऐसा इक़रार करते हैं। पापो हम। पाप कर मुहिम। पा पतिमा। पाप समबहवाह यानी मैं गुनेहगार हूँ। मैंने गुनाह किया मेरी जान गुनेहगार है। मैं गुनाह में पैदा हुआ। हाँ ये इक़रार ऐसा ही है। कि हर शख़्स करे। मगर अब सवाल ये आइद होता है। कि आया गुनाह माफ़ हो सकता है?

हिंदू मज़्हब के दो जवाब हैं जो एक दूसरे के बरअक्स (उलट) हैं। बहुत ख़याल करते बल्कि यक़ीन करते हैं। कि गुनाह दरिया-ए-गंग (गंगा) या किसी दीगर पाक पानी के आशनान (नहाना) से धुल सकता है। और किसी देवता का नाम लेने से भी गुनाह दूर हो जाता है। चुनान्चे एक मशहूर शख़्स अजमील का ज़िक्र है। कि उस ने नज़ा (मौत, जान कनी) के वक़्त अपने लड़के नारायन को पानी लाने के लिए बुलाया चूँकि नारायन ख़ुदा का भी नाम है। वो बहिश्त में दाख़िल हुआ।

अब इस के बरअक्स इस ताअलीम को भी देखो कि कर्म की ताअलीम के मुताबिक़ माफ़ी गुनाह ग़ैर-मुम्किन है। शंकर आचार्य कहता है कि बरहतम (हमा औसत) (सब कुछ ख़ुदा है) को कर्म के साथ कुछ दस्त अंदाज़ी (मुदाख़िलत) नहीं है।

ब्रहमो मिस्ल दीगर अक़ला के इक़रार करते हैं कि गुनाह आशनान वग़ैरह से दूर नहीं हो सकता। मगर वो कर्म की ताअलीम में कुछ तादाद सज़ा की मुक़र्रर करते हैं जो नज़ा (मौत, जान कनी) के वक़्त होती है। ये जानना तो बहुत ही मुश्किल है। कि क्या सज़ा हो सकती है और कब मसीही मज़्हब इस के ख़िलाफ़ ज़ाहिर करता है। कि बतकाज़ा अदल ख़ुदा से माफ़ी क्योंकर हो सकती है। ख़ुदा तमाम शरीअत का बख़्शने वाला है। अगर गुनाह की माफ़ी बग़ैर कफ़्फ़ारे के हो तो इन्सान को इलाही गर्वनमैंट के ख़िलाफ़ बग़ावत का सख़्त इश्तिआल (गु़स्सा) होगा ख़ुदा ने ख़ुद एक शफ़ी (शफ़ाअत करने वाला) बख़्शा उस ने इन्सान को ऐसा प्यार किया। कि अपने इकलौते बेटे येसू को दुनिया में भेजा। कि वो इन्सानी जामा इख़्तियार करे। दुनिया में रहे उन के लिए मरे। उस ने गुनाह की सज़ा को बर्दाश्त किया। कामिल तौर से ख़ुदा की शरीअत को पूरा किया वो जो उस को अपना शफ़ी समझ कर उस पर ईमान लाते हैं वो उन के गुनाहों का जवाब देता है। और अपनी रास्तबाज़ी की पोशाक में उन को छुपाता है। ख़ुदा फैज़ान-ए-रहमत (रहम की बड़ी बख़्शिश) के चशमे से कुल माफ़ी येसू मसीह के नाम से बख़्शता है हमें उस की तलाश में मंदिर हमिंदर जात्र व अश्नान (मुक़द्दस मुक़ामात की ज़ियारत व ग़ुस्ल) के लिए मारे मारे फिरने की ज़रूरत नहीं। ख़ुदा हर जगह हाज़िर व नाज़िर है। दस्त-ए-दुआ सर बसजूद हो कर कहो “ऐ क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा मैं इक़रार करता हूँ कि मैं गुनेहगार हूँ। इस लायक़ नहीं कि अपने को बचाऊं।”

मैं ख़ुदावन्द मसीह येसू के नाम से माफ़ी का ख़्वास्तगार (उम्मीदवार, सवाली) हूँ मैं सिर्फ उसी की पनाह में आता हूँ। उस की ख़ातिर से मेरे गुनाहों को मिटा दे “ऐसी दुआ मक़्बूल होगी।”

दुवम, इन्सान को पाकीज़गी की बड़ी ज़रूरत है हालाँकि गुनाह की माफ़ी एक बहुत बड़ी बख़्शिश है मगर यही काफ़ी नहीं है। फ़र्ज़ करो कि किसी आदमी को सज़ा-ए-मौत का हुक्म है और वो मर्ज़-ए-महलक में भी मुब्तला है। अगर वो सज़ा-ए-मौत से बरी किया जाये। तो माफ़ी के साथ ही ज़रूर है, कि उसका ईलाज भी हो। वर्ना सिर्फ माफ़ी ही माफ़ी है तो उस मर्ज़ से उस मर्ज़ का जल्द ख़ातिमा हो जाएगा।

नज़र बहालात उस को एक मुआलिज की ज़रूरत है। ताकि उस की तंदरुस्ती वापिस हो। हम सब मिस्ल कूड़े के मकरूह व ईलाज गुनाह के मर्ज़ में मुब्तला हैं। ख़ुदा के हुज़ूर हम सब सड़े नासूरों से भरे हैं। इस हालत से हम उस के मुक़द्दस बहिश्त (जन्नत) में हरगिज़ दाख़िल नहीं हो सकते। मज़्हब हिंदू कौनसा ज़रीया हमको पाकीज़गी में तरक़्क़ी करने का बख़्शता है? अफ़्सोस कोई भी नहीं। क्योंकि शाष्त्र के मुताबिक़ उस के तीन बड़े देवता।

1, ब्रहम 2, विष्णु 3, शिव ख़ुद ही गुनेहगार थे। तो इस सूरत में क्योंकर वो अपने परस्तार को बचा सकते हैं? क्या मुम्किन है, कि अंधा अंधे को रास्ता दिखला दे? हरगिज़ नहीं। क्या ख़ाना मंदिर कोई मदद दे सकता है। क्या उस में कोई पाकीज़गी की नसीहत है? बाअज़ में रन्डीयों का नाच होता है। जिसका असर अज़हर-मिन-श्शम्स (सूरज की तरह रोशन) है। हिंदू मज़्हब के अक़ाइद के मुताबिक़ कुल अच्छे व बुरे कामों का तर्क ख़ूब है। यहां तक कि ये अम्र हद तयक़्क़ुन (बेहद एतबार करना) को पहुंच जाये अहम ब्रह्मास्मि। मैं ब्रहम हूँ। यानी हमा औसत। जो एक हल तलब मसाइल है।

वाहिद व सच्चा ख़ुदा इलावा माफ़ी के एक हकीम का मर्ज़-ए-असयान (गुनाह का मर्ज़) के ईलाज के लिए वाअदा फ़रमाता है। और वो रूहुल-क़ुद्दुस है। हकीम दवा देता है। पस रूहुल-क़ुद्दुस ही गुनाह की माफ़ी व पाकीज़गी के लिए तरकीबें बतलाता है। चंद उन में से ज़ेल में दर्ज हैं :-

1. तिलावत किताब-ए-मुक़द्दस। ये किताब हक़ीक़ी शास्त्र है। हमारे रफ़्तार के लिए रोशनी। और राह़-ए-रास्त पर चलाने के रहनुमा किताब-ए-मुक़द्दस को रोज़ पढ़ना और इसी पर अमल चाहीए।

2. दुआ। जिस तरह बच्चे नाहमवार सड़क पर चलते हुए गिरते हैं। हम सब ही मासियत (गुनाह) में गिरते पड़ते हैं। मगर दुआ के ज़रीये आस्मानी बाप का हाथ पकड़ कर चलते हैं। हर सुबह गुज़श्ता शब की रहमतों का शुक्रिया अदा करना चाहीए। दिन-भर के लिए मदद हर शाम को आराम करने से क़ब्ल दिन-भर के गुनाहों का इक़रार कर के माफ़ी। और आज़माईश के वक़्त ख़ुदा की तरफ़ रुजू हो कर दुआ मांगनी चाहीए।

3. इबादत। ख़ुदा ने सात दिन में एक दिन ख़ास इबादत के लिए मुक़र्रर फ़रमाया है। हमको गुज़श्ता हफ्ते के अफ़आल पर नज़र-ए-सानी करना चाहीए। किताब मुक़द्दस पढ़ना। इबादतखाना में इबादत करना चाहीए।

4. गुनाह से एहतियात। “ख़बरदार रहो और दुआ माँगो ताकि आज़माईश में ना पड़ो।” जहां तक मुम्किन हो वो अफ़आल जिनसे आज़माईश में पड़ने का ख़तरा हो तर्क करना चाहीए। बे-दीनों की सोहबत। ख़राब किताबों की सैर से मत्रुक (छोड़ना) होना चाहीए। सोहबत नेक उम्दा किताबों की सैर एक ज़रीया तरक़्क़ी का हो सकती हैं। एक मरीज़ को दवा का हुक्म दिया जाता है वो उदूल करके कभी तंदरुस्ती की उम्मीद नहीं रख सकता। इसी तरह अगर हम रूहुल-क़ुद्दुस की हिदायत पर अमल ना करें। तो मर्ज़ इस्याँ (गुनाह) से शिफ़ा पाने की उम्मीद बेफ़ाइदा है।

सर गर्मी से दुआ माँगो। “ऐ बाप आस्मानी ख़ुदावंद मसीह की ख़ातिर से अपना रूहुल-क़ुद्दुस नाज़िल फ़र्मा। ताकि वो सदाक़त की रहनुमाई करे। मेरे दिल को पाक करे और पाकीज़गी में मिस्ल तेरे बनाए।”

सोइम, आस्मान या बहिश्त की ज़रूरत। हुज़ूर केसरा हिंद (हिन्दुस्तान का बादशाह) ज़ाइद अज़ पचास साल हुआ तख़्त हुकूमत पर रौनक अफ़रोज़ हैं। मगर कुछ रोज़ बाद ताज-ए-शाहाना रखा रहेगा। और अपने बुज़ुर्गों की तरह गोशा क़ब्र में जांनशीन होंगे। पस क्या थोड़ी सी ख़ुशी पर मतमीन होना चाहीए? नहीं हरगिज़ नहीं। हमको अबदी ख़ुशी व मसर्रत की ज़रूरत है। हिंदूओं का ख़याल है कि अपने फ़र्ज़ी नेक अफ़आल व खेरात या दान व चहना से बहिश्त खरीदेंगे। उन में से एक बहुत बड़ा ख़याल ये भी है। कि बवक़्त-ए-मौत अगर गाय की दुम ब्रहमन को पकड़ा कर दान दी जावे तो कष्ट (मुश्किल) दूर हो जाएगा। आक़िल बशरान तरीक़ों की बे बुनियादी पर ग़ौर कर सकता है। मरने वाला हिंदू दुनिया को आइंदा के ख़ौफ़ से बड़े तरद्दुद रंज में छोड़ता है। उस को अपने साबिक़ के मुतअद्दिद जन्मों का ख़याल जांकाह सख़्त परेशानी व उलझन में डालता है। और वो डरता है, कि बाद मौत के प्राण (सांस, दम) के मुताबिक़ उस को निवाला जहन्नम होना पड़ेगा।

मसीही कभी अपने नेक अफ़आल के भरोसे पर बहिश्त हासिल करने की उम्मीद नहीं रखते। उनका क़ौल है कि उन के नेक अफ़आल भी लौस इस्यान (गुनाह की आलूदगी) से ममलू (भरा हुआ) रहते हैं। और माफ़ी की ज़रूरत है। उन को सिर्फ ख़ुदावंद येसू मसीह की बेदाग रास्तबाज़ी के ज़रीये से बचने की उम्मीद है। उस के वसीले से उन के गुनाह माफ़ हो सकते हैं। और बहिश्त नसीब हो सकता है। बवक़्त-ए-मौत सच्चे मसीही को हरगिज़ किसी क़िस्म का ख़ौफ़ नहीं होता। यूंही कि रूह क़ालिब से परवाज़ करती है। फ़ौरन आस्मान में ख़ुदा के हुज़ूर अबदी ख़ुशी के लिए जाती है। ख़ुदा हमारा आस्मानी बाप है। क्योंकि उस ने हमें पैदा किया। हिंदूओं का जैसा ख़याल है। हमारा ख़याल हरगिज़ नहीं है, कि हम अबदी हैं। बल्कि ख़ुदा ने हमको अपने में बुलाया। हमारा हर एक नफ़्स उस की मर्ज़ी पर मौक़ूफ़ है। हम उस की दुनिया में रहते हैं। तमाम चीज़ें जो हमारे पास हैं। उस की बख़्शिश हैं। जिस तरह लड़कों को अपने बाप की फ़रमांबर्दारी व मुहब्बत लाज़िम है। इसी तरह हम पर उस का हक़ है। मगर अफ़्सोस कि हम नाशुक्रगुज़ार और बाग़ी लड़के हैं। उस के अहकाम की तामील व क़द्र नहीं करते। और अपनी गुनाह आलूद ख़्वाहिश पर चलते हैं। ताहम वो अपनी पिदराना शफ़क़त ज़ाहिर करता है। और अपनी तरफ़ बुलाता है। क्योंकि अक़्लमंद बाप अपने लड़कों को खेल में तज़ीअ औक़ात (वक़्त ज़ाया करना) नहीं करने देगा। उस की मर्ज़ी उस की फ़रमांबर्दारी से है। और नेक-चलनी से है। वो अपने लड़कों की ग़लतीयों की इस्लाह करता है। पस ख़ुदा भी अपने फ़रज़न्दों के साथ ऐसा ही सुलूक करता है। मुद्दा ये है कि हम अबदी ख़ुशी की तैयारी करें। और जो मज़्हब इन तीनों जरूरतों को रफ़ा करे इख़्तियार करें।

 

ईसा की इन्जील

अगरचे इस की बाबत और कुछ लिखना ज़रूरी नहीं है। क्योंकि इस के क़ब्ल ही विलायत में राज़ सर बस्ता (छिपा हुआ) खुल गया है। और साथ ही इस के हज़रत नोटोविच की क़लई (हक़ीक़त ज़ाहिर होना) भी खुल गई, कि वो क्या हैं। और हिन्दुस्तान के मशहूर व मारूफ़ अंग्रेज़ी अख़बारों ने भी बड़े ज़ोर से नोटोविच की तर्दीद (रद्द करना)

Gospel of Issa

ईसा की इन्जील

By

Ahmad Shah Shiaq
अहमद शाह शावक

Published in Nur-i-Afshan Dec 28, 1894

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 28 दिसंबर 1894 ई॰

अगरचे इस की बाबत और कुछ लिखना ज़रूरी नहीं है। क्योंकि इस के क़ब्ल ही विलायत में राज़ सर बस्ता (छिपा हुआ) खुल गया है। और साथ ही इस के हज़रत नोटोविच की क़लई (हक़ीक़त ज़ाहिर होना) भी खुल गई, कि वो क्या हैं। और हिन्दुस्तान के मशहूर व मारूफ़ अंग्रेज़ी अख़बारों ने भी बड़े ज़ोर से नोटोविच की तर्दीद (रद्द करना) कर दी। और उनका अगला पिछ्ला हाल भी अपने नाज़रीन को सुना दिया। जिन्हों ने मॉर्निंग पोस्ट और पायोनियर को बराबर पढ़ा होगा। वो इस हक़ीक़त से बख़ूबी आगाह होंगे। मगर फिर भी हमको अपना वो वाअदा पूरा करना ज़रूरी है, जो हम अपनी तहरीर में जो हम्स की ख़ानक़ाह से सरसरी (मामूली) तौर पर लिखी थी, किया था। और जो नूर-ए-अफ़्शां मत्बूआ 31 अगस्त 1894 ई॰ में शाएअ हो कर पब्लिक के मुलाहिज़ा से गुज़र चुकी है। उस के आख़िरी अल्फ़ाज़, कि “बाक़ी फिर लिखूँगा” हमको मज्बूर कर रहे हैं, कि ज़रूर कुछ लिखना चाहिए। और बाअज़ अहबाब की भी यही ख़्वाहिश है जो अक्सर अपने नवाज़िश नामों में इस की बाबत इसरार (ज़िद) करते हैं। लिहाज़ा ख़याल ख़ातिर अहबाब चाहिए हर दम। अनीस ठेस ना लग जाये आबगीनों को।

नाज़रीन का बेशक़ीमत वक़्त और नूर-अफ़्शां के क़ाइल क़द्र कालमों के वक़्फ़ होने लिए माफ़ किया जाऊं।

कप्तान ऐस ऐच गॉड फ़्री साहब ब्रिटिश जवाईंट कमिर लद्दाख की तहक़ीक़ात का नतीजा

साहब मौसूफ़ ने हमारी व नीज़ मूरीवीन मिशनरी साहिबान की दरख़्वास्त पर इस अम्र में ब हैसियत कमिशनरी तफ़्तीश (तहक़ीक़ात) शुरू की। उन्होंने कप्तान रामज़ी साहब को जो साबिक़ में यहां के ब्रिटिश जवाईंट कमिशनर थे एक ख़त बदीं मज़्मून लिखा, कि “क्या आपके ज़माने में कोई शख़्स निकोलस नोटोविच लद्दाख में आया था?” उन्होंने उस के जवाब में तहरीर किया “हाँ 1887 ई॰ माह-ए-अक्तूबर में एक शख़्स इस नाम का आया था। और वो दाँत के दर्द की शिकायत करता था जिसका मुआलिजा डाक्टर मार्क्स साहब ने जो उस वक़्त लद्दाख के मैडीकल ऑफीसर थे किया था। उस का दाँत उन्होंने उखाड़ा था। और ये शख़्स सिर्फ दो तीन दिन लद्दाख में रह कर चला गया था।” डाक्टर सूरज मल जो उस ज़माने में यहां दरबार कश्मीर की तरफ़ से गवर्नर लद्दाख थे। उन्होंने भी इस बात को तस्लीम किया, कि नोटोविच लद्दाख 1887 ई॰ में आया था। और दो तीन रोज़ रह कर चला गया था। इन दोनों तहरीरों से हमको इस क़द्र तो साबित हो गया, कि नोटोविच लद्दाख तक ज़रूर आए। मगर इस से ये हरगिज़ साबित ना होगा, कि वो इंजीली ईसा को हमस से ले गए। और अब तक उस के लिए बहुत कोशिश की गई, कि कोई सबूत इस अम्र का मिले। मगर कोई कामयाबी की सूरत नज़र नहीं आती।

हमस की ख़ानक़ाह के राहिब (ईसाई आबिद या ज़ाहिद) को भी ब्रिटिश जवाईंट कमिशनर साहब ने एक सर शता (महिकमा, कचहरी, शोबा) का ख़त लिखा, कि आया तुम्हारे यहां कोई शख़्स किसी वक़्त इस हालत में ख़ानक़ाह में रहा, कि “उस की टांग टूटी हो। और तुमने, या तुम्हारे और किसी साथी ने इस की ख़िदमत की हो। और अगर तुम्हारी ख़ानक़ाह में कोई ऐसी किताब हो जिसमें येसू मसीह की ज़िंदगी के हालात हों, या कोई दूसरी किताब जो मज़्हब ईस्वी से ताल्लुक़ रखती हो। इस बात की भी इत्तिला दो। और ये भी बतलाओ कि क्या किसी रूसी सय्याह, या और किसी शख़्स ने तुम्हारी ख़ानक़ाह में रह कर किसी किताब का जो “ईसा” से मन्सूब (मुताल्लिक़ किया हुआ) हो तर्जुमा किया?”

इस के जवाब में वहां के हैड लामा ने जवाब दिया, कि “ना तो कोई शख़्स हमारे यहां टूटी हुई टांग लेकर आया, कि हमने उस की ख़िदमत से फ़ख़्र हासिल किया हो। और ना कोई किताब हमारी ख़ानक़ाह में मज़्हब ईस्वी के मुताल्लिक़ है। और ना किसी शख़्स को हमने कभी कोई किताब दी कि वो तर्जुमा करता।” ये ख़ुलासा है कमिशनर साहब की तहक़ीक़ात का। हम गुज़श्ता हफ़्ता फिर ख़ानक़ाह हमस को गए थे। और वहां के कुल राहिबों से जो शुमार में क़रीब पाँच सौ के हैं बज़रीया मुतर्जिम दर्याफ़्त करते रहे। मगर किसी ने भी जवाब इस बात का ना दिया, कि उनको इस मुआमले से कुछ ख़बर है। उनका बयान है, कि “अव़्वल तो कोई ऐसा शख़्स यहां आया ही नहीं। और अगर अंग्रेज़ लोग ख़ानक़ाह देखने के लिए आते हैं तो ख़ानक़ाह के मकान के बाहर एक बाग़ है। उसी में अपना ख़ेमा लगा कर रहते हैं कोई अंग्रेज़, या रूसी कभी ख़ानक़ाह के अंदर नहीं रहा। ना ये हमारा दस्तूर (रिवाज) है, कि किसी को ख़ानक़ाह के अंदर आने की इजाज़त दें। और ना हम किसी को अपनी किताब छूने देते हैं। और ना किताब को ख़ानक़ाह के बाहर ले जाते हैं। और ना किसी को ऐसा करने की इजाज़त दे सकते हैं।”

रेवरेंड एफ़ बी शा और मिस्टर नोटोवि

अख़्बार डेली न्यूज़ लंडन मत्बूआ 2 जुलाई 1894 ई॰ में पादरी एफ़॰ बी॰ शाअ मौर्योविन मिशनरी लद्दाख ने नोटोविच साहब की तर्दीद में एक ख़त लिखा, कि “हमस की ख़ानक़ाह में ना तो कोई नुस्ख़ा पाली ज़बान में है। और ना कोई पाली ज़बान से वाक़िफ़ है। हत्ता कि कोई शख़्स पाली हुरूफ़ को पहचान भी नहीं सकता। और ना कोई शख़्स नोटोविच नाम का हमस की ख़ानक़ाह में आया। और ना कोई शख़्स टांग टूटी हुई हालत में ख़ानक़ाह हमस के राहिबों से ईलाज किया गया। और ना कोई ऐसा शख़्स कभी ख़ानक़ाह में रहा। वग़ैरह।” इस के जवाब में नोटोविच साहब तहरीर फ़र्माते हैं, कि “ज़रूर इन्जील ईसा” का असली नुस्ख़ा हमस की ख़ानक़ाह में मौजूद है। बशर्ते के उस को वहां के पादरीयों ने वहां से अलेहदा (अलग) ना कर दिया हो।” और साथ ही इस के ये भी लिखा है, कि “मैं साल आइंदा फिर लद्दाख को जाऊँगा। और हमस की ख़ानक़ाह में इस नुस्खे को तलाश करूँगा। और अगर वहां ना मिला तो लासा की ख़ानक़ाह में जा कर तफ़्तीश करूँगा।” हम नोटोविच साहब की दाद देते हैं। क्योंकि उनको सूझी बड़ी दूर की आप फ़र्माते हैं, कि “अगर पादरीयों ने इस नुस्खे को वहां से अलग ना कर दिया हो।” ऐ हज़रत जब आप ख़ुद उस के ख़रीदने में कामयाब ना हुए और बक़ौल आपके, कि “टांग की क़ीमत देकर सिर्फ तर्जुमा ही नसीब हुआ।” तो फिर बेचारे पादरी कहाँ से और किस तरह उस के वहां से अलग करने में कामयाब हो सकते हैं? ये सिर्फ़ आपकी बद-गुमानी है। जो अपने झूट को लोगों से छिपाने के लिए पैदा की। नोटोविच साहब के इस की नक़्ल 6 जुलाई 1894 ई॰ के होम न्यूज़ में भी की गई है उस में भी इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि “नोटोविच साहब साल आइंदा में फिर लद्दाख को जाऐंगे।” ख़ैर वह आएं। हम भी उनका ख़ैर मुक़द्दम करने को यहां बैठे हैं। मगर हमको भी इस के लिए मुंतज़िर रहना चाहिए। कि जल्द हम इस ख़बर को किसी अंग्रेज़ी अख़्बार में पड़ेंगे, कि नोटोविच साहब सख़्त बीमार हो गए। या ख़ुदा-न-ख़्वास्ता जिस तरह हमस की ख़ानक़ाह में टांग टूट गई थी। उसी तरह और कोई उज़ू (जिस्म का हिस्सा) नाकारा हो गया। इसलिए वो अब लद्दाख को इस साल नहीं जा सकते। क्योंकि अगर वो यहां आएँगे तो बनाएँगे क्या, “इन्जील ईसा” जहां से पहले पैदा की वहीं जाएं। हमस और लासा को जाना फ़ुज़ूल है।

नोटोविच साहब का साफ़ इन्कार कि उनकी टांग नहीं टूटी और ना उन्होंने नुस्ख़ा पाली ज़बान में देखा बल्कि तिब्बती ज़बान में देखा

चूँकि पादरी साहब ने नोटोविच साहब की तर्दीद में लिखा था कि कोई शख़्स हमस की ख़ानक़ाह में टांग टूटने की हालत में नहीं रहा और ना कोई नुस्ख़ा वहां ज़बान पाली में है। और ना कोई पाली जानता है।” इस पर नोटोविच साहब ने एक आर्टीकल एक फ़्रैंच अख़्बार में जो पैरिस से निकलता है इस तर्ज़ से लिखा कि “मैंने कभी नहीं कहा, कि मेरी टांग टूटी थी। और हमस के मालिकों ने मेरी मदद की। बल्कि मैंने ये कहा, कि मैं बीमार था। और इस बीमारी की हालत में हमस की ख़ानक़ाह में रहा। और वो नुस्ख़ा पाया। और तर्जुमा किया। और मैंने ये भी नहीं कहा कि वो नुस्ख़ा पाली ज़बान में मैंने देखा। बल्कि ये कि अस्ल नुस्ख़ा पाली ज़बान का लासा में मौजूद है। और इस का तर्जुमा तिब्बती ज़बान में हमस में मौजूद है।” नोटोविच साहब का ये बयान अख़्बार (Lintermedivere) जिल्द 30 नम्बर 662 मौरख़ा 10, अगस्त 1894 ई॰ में शाएअ हुआ है। और अपने बयान में इन्जील ईसा के 148 सफ़ा का हवाला देकर वही ज़िक्र शुरू किया है। जो अक्सर उर्दू व अंग्रेज़ी अख़बारों में ईसा की ज़िंदगी के मुताल्लिक़ शाएअ हो चुका है। इस का इआदा (दोहराना) इस जगह फ़ुज़ूल है।

अब मुक़ाम हैरत है, कि इब्तिदा इब्तिदा जब अख़बारों में ये ख़बर मशहूर हुई। तो उन्हें दो उन्वाने नू (नया) से हुई थी। और नोटोविच साहब ने ज़र्रा भर इस की मुख़ालिफ़त नहीं की। मगर जिस वक़्त पादरी शाअ साहब की तरफ़ से इस पर नोटिस लिया गया। तो नोटोविच साहब को ये सूझी, कि इन दोनों बातों से इन्कार कर जाओ तो बेहतर है। और हम यक़ीनी तौर पर ये कहते हैं, कि ज़रूर नोटोविच साहब भी ख़ुद इन मज़्कूर बाला ख़बरों के मुख़्बिर (ख़बर रखने वाला) होंगे। और बाद को जब देखा, कि झूट के पांव उखड़ गए। तो झट ये सूझ गई। अब या तो नोटोविच साहब इस बात की तस्दीक़ कराएं, कि क्योंकर अख़्बार नवीसों ने इस ख़बर को शाएअ किया। और या ये कहें, कि पहले मैंने अपनी बहादुरी दिखलाने को ये कह दिया था। अब मैंने देखा, कि उलटी आँतें गले में पढ़ीं। इसलिए मैं अपने झूट को मान लेता हूँ। सबसे अव़्वल विलायत के अख़बारों ने नोटोविच का साथ दिया। और वहीं से ये ख़बरें हिन्दुस्तान में पहुंचीं और हम आगे साबित कर देंगे, कि नोटोविच साहब की आदत झूट कहने की 1887 ई॰ से हिन्दुस्तान में साबित है।

आपका ये कहना, कि हमस में लासा वाले पाली नुस्खे का तर्जुमा है। आपकी लियाक़त क़ाबिलीयत का सबूत दे रहा है। कि आपने इस तर्जुमे को असली के साथ मुक़ाबला करने से पहले ही दुरुस्त व सही क़रार दे दिया। लासा आप गए नहीं। असली नुस्खे को देखा नहीं। और ये तो बतलाए, कि उस तर्जुमे का तर्जुमा किस की मदद से आपने किया? हमको हमस में एक भी शख़्स ऐसा नज़र नहीं आया। जो आपको अंग्रेज़ी या फ़्रैंच या और किसी ज़बान में इस का तर्जुमा समझा कर करा सकता। शायद आपने ख़ुद तिब्बती में इस क़द्र महारत पैदा की होगी। मगर ये भी मुहाल मालूम होता है। ख़ैर जो कुछ हो हम देखेंगे, कि किस तरह आप इस को यहां आकर साबित करते हैं।

प्रोफ़ैसर मेक्स मूलर साहब का मज़्मून नोटोविच साहब की इन्जील ईसा” पर

प्रोफ़ैसर मेक्स मूलर साहब के क़ाबिल अक्दर क़लम से एक मज़्मून उन्नीसवीं सदी बाबत माह-ए-अक्तूबर 1894 ई॰ में शाएअ हुआ है। जिसमें उन्होंने नोटोविच साहब के दाअवों को हर पहलू से जाँचा है। हमको उम्मीद थी, कि ज़रूर नोटोविच साहब प्रोफ़ैसर मेक्स मूलर साहब की तर्दीद में कुछ ख़ामा-फ़रसाई (लिखना) करेंगे। मगर हनूज़ (अभी तक) इंतिज़ार ही इंतिज़ार है। और उम्मीद पड़ती है, कि हमेशा तक ये इंतिज़ार बाक़ी रहेगा।

प्रोफ़ैसर साहब ने बहुत वाज़ेह दलाईल से साबित किया है, कि “इन्जील ईसा” हरगिज़ हरगिज़ बूदा (कमज़ोर, कम हिम्मत) लोगों के दर्मियान ना कभी थी। और ना अब है। और ना नोटोविच साहब ने कभी हमस की ख़ानक़ाह में टांग टूटने की हालत में पनाह ली और ना इस मतलब के वास्ते उन्होंने कभी टांग तोड़ी कि “इन्जील ईसा” उन को दस्तयाब हो। और इस बयान की ताईद (हिमायत) में बहुत से सय्याहों और मिशनरियों के हवाले दिए हैं जो लद्दाख में रहते हैं और जो लोग सय्याहों में से हमस को गए। एक लेडी के ख़त का ख़ुलासा जो प्रोफ़ैसर साहब को 26 जून को उस लेडी ने लद्दाख से भेजा ज़ेल में नाज़रीन के लिए तर्जुमा करता हूँ। ताकि नाज़रीन को मालूम हो जाये। कि सिर्फ हम और मिशनरी ही ऐसा नहीं कहते। बल्कि और लोग भी जिनको इस से कुछ ताल्लुक़ नहीं इस बात की बाबत किस क़द्र तलाश करते हैं और क्या राय रखते हैं लेडी के ख़त का ख़ुलासा :-

“क्या आपने ये सुना कि एक रूसी जिसको ख़ानक़ाह के अंदर जाने की इजाज़त ना मिली थी। तब उस ने अपनी टांग ख़ानक़ाह के फाटक के बाहर तोड़ डाली। और यूं ख़ानक़ाह के अंदर उस को पनाह दे दी गई? और उस का मतलब इस से सिर्फ ये था, कि बुद्धा लोगों के दर्मियान जो येसू मसीह की सवानिह उम्री है उस को हासिल करे और वो इसी ख़ानक़ाह में थी। और उस का बयान है, कि उस ने उसे हासिल किया। और उस ने उस को फ़्रैंच ज़बान में शाएअ भी करा दिया। इस क़िस्से का हर एक लफ़्ज़ सच्चाई से ख़ाली है। कोई रूसी वहां नहीं गया। ना कोई शख़्स गुज़श्ता पचास बरस से टूटी हुई टांग की हालत में इस सेमिनरी में दाख़िल हुआ और ना मसीह की कोई सवानिह उम्री वहां मौजूद है।” इस राकमा को लद्दाख से कोई ताल्लुक़ नहीं। वो सिर्फ़ बतौर सैर के यहां आई थी। और इस हालत में उस ने अख़बारों में इस ख़बर को पढ़ कर प्रोफ़ैसर साहब को इस सफ़ैद झूट से मुत्ला`अ (बाख़बर) किया।

नेक नीयत प्रोफ़ैसर साहब अपने मज़्मून में लिखते हैं कि “मुम्किन है कि नोटोविच ने हमस और लद्दाख का सफ़र किया हो। और उन की सब बातें दुरुस्त हों। मगर इस का जवाब नोटोविच साहब दें, कि क्यों हमस के राहिब लद्दाख के मिशनरीयों व अंग्रेज़ी सय्याहों, और दूसरे लोगों को इस बात की शहादत नहीं देते। कौनसा अम्र उन को मानेअ (मना) करता है।” और हम भी प्रोफ़ैसर मेक्स मूलर के हम ज़बान हो कर यही कहते हैं। हमने बहुत से पोशीदा वसीले इस बात के दर्याफ़्त करने के लिए बरते। मगर कोई बात भी इस के मुताल्लिक़ मालूम ना हुई जिससे सिर्फ ये गुमान कर सकते कि नोटोविच ज़रूर हमस में आए। और “इन्जील ईसा” उन को वहां मिली।

पायोनियर का एक नामा निगार नोटोविच साहब की 87 ई॰ की जालसाज़ी को ज़ाहिर करता है

पायोनियर में किसी नामा निगार ने (नम्बर का पता मैं नहीं दे सकता। क्योंकि जिस पर्चे में मैंने उस को देखा उस में से सिर्फ उसी क़द्र हिस्से काट लिया। जो नोटोविच साहब से मुताल्लिक़ था। तारीख़ व नम्बर का ख़याल ना रहा। ग़ालिबन 8 अक्तूबर के बाद किसी पर्चा में ये दर्ज है) लिखा है, कि “आपके नाज़रीन में से बहुतेरे एक रूसी मुसम्मा निकोलस नोटोविच के नाम से मानूस होंगे जो 1887 ई॰ की मौसम-ए-बहार में शमला पर आया। और वहां उस की ज़रक़-बरक़ व तुमतराक़ (शानो-शौकत, दाब) की बाइस इस पर लोगों की ख़ास तवज्जोह मबज़ूल हुई। उसने बयान किया कि मैं रूसी अख़्बार (Navoe upence) (जो रूस में बड़ा मशहूर अख़्बार है) का ख़ास नामा निगार हूँ।

और रूसी फ़ौज में ओहदा कप्तानी पर मामूर हूँ। जिस वक़्त ये ख़बर अख़्बार मज़्कूर के कान तक पहुंची उस ने बड़ी सफ़ाई के साथ इस की तर्दीद (रद्द) अपने कालमों में की। और बयान किया कि ना वो उनका नामा निगार है। और ना किसी रूसी फ़ौज का अफ़्सर है। और ना किसी और काम से रूस से उस को ताल्लुक़ है। वो पैरिस को वापिस गया। और वहां एक किताब येसू मसीह की सवानिह उम्री के नाम से फ़्रैंच ज़बान में शाएअ की। जिसमें वो कुछ कामयाब हुआ। और बहुत से अख़्बार को धोका देकर अपने साथ उस की ताईद (हिमायत) कराई। नामा निगार मज़्कूर लिखता है, कि मुझको बड़े अफ़्सोस के साथ कहना पड़ता है, कि बाअज़ उन अख़बारों में से हिन्दुस्तान के थे। जिनको इस की बाबत ज़्यादा बा-ख़बर होना वाजिब (लाज़िमी) था। फिर नामा निगार मज़्कूर ने नोटोविच की मुतर्जमा सवानिह उम्र अलगुज़ींडर सोवेम मर्हूम पर भी एक मज़ेदार चुटकी ली है। मगर वो हमारी बह्स से ख़ारिज है इसलिए क़लम अंदाज़ किए देते हैं।

अब नाज़रीन ख़ुद नोटोविच की दियानतदारी को मीज़ान इन्साफ़ (इन्साफ़ के तराज़ू) में तौल लें। हम अपनी तरफ़ से कुछ ना कहेंगे।

शमला पर नोटोविच को पोलेटिकल मुख़्बिर होने के लिए शुब्हा किया जाना और उनका फ़रार होना

जिस वक़्त हम श्री नगर से लद्दाख को ब्रिटिश जवाईंट कमिशनर साहब के हमराह आ रहे थे। तो रास्ते में हमको हमारे मेहरबान कर्नल वार्ड साहब मिले। उन से असनाए गुफ़्तगु (दौरान-ए-गुफ़्तगु) में नोटोविच, और उन की “इन्जील ईसा” का ज़िक्र हुआ। उन्हों ने नोटोविच का नाम सुनने पर ताज्जुब (हैरान होना) किया। और बयान किया, कि “जब मैं 1887 ई॰ में शिमला पर गर्वनमैंट आफ़ इंडिया की तरफ़ से वहां का सपरंटंडिंग इंजिनियर था। तो मैंने नोटोविच को देखा था। उस वक़्त वो एक रूसी अफ़्सर की वर्दी में था। और मैंने उस का फ़ोटो लिया था। और शिमला में उस पर शुब्हा किया गया था। कि वो कोई रूसी पोलिटिकल मुख़्बिर (सियासी ख़बर देने वाला) है। इसलिए पुलिस उस की निगरां रही। और उस को गिरफ़्तार करना चाहत्ता थी। मगर वो अय्यार (चालाक) पुलिस को झांसा देकर निकल गया।”

अब गुमान ग़ालिब है, कि ज़रूर नोटोविच साहब पुलिस के डर से शिमला से बख़्त रास्त लद्दाख आ गए हों। क्योंकि शिमला से लद्दाख को किलो के रास्ते बहुत आसानी होती है। और ख़ुसूसुन ऐसे पोलिटिकल मुख़बिरों के लिए उम्दा रास्ता है। क्योंकि सदहा मील तक आबादी का पता तक नहीं। और अक्सर ताजिरान शिमला इसी रास्ते से लद्दाख को बराए तिजारत आते हैं। हर जगह पर हमको नोटोविच साहब के चाल चलन का सबूत मिलता जाता है, कि वो क्या हैं। और इन सब बातों से की “इन्जील ईसा” की वक़अत (हैसियत) भी हमको मालूम हो गई।

नोटोविच साहब की तस्वीर फ़ौजी वर्दी में

पाल माल बजट जिल्द 26 नम्बर 1358 ई॰ मौरख़ा 14 अक्तूबर 1894 ई॰ में नोटोविच साहब की तस्वीर शाएअ हुई है। जिसकी बाबत ऐडीटर मुख़्बिर (ख़बर देने वाला) है। कि ये वो तस्वीर है जो नोटोविच साहब के हिंद में मौजूद होने के वक़्त ली गई। और ये भी कि सिर्फ दो साल हुए जब ये तस्वीर हिन्दुस्तान में उतारी गई थी। इस से नोटोविच साहब का अनक़रीब 1892 ई॰ तक हिन्दुस्तान ही में मौजूद होना साबित है। तस्वीर बिल्कुल फ़ौजी वर्दी में है। बड़े बड़े तमगे लगाए हुए हैं। तल्वार ज़ेब कमर है। तस्वीर देखने से बिल्कुल गबरू जवान मालूम होते हैं। मगर रूसी अख़्बार तर्दीद कर रहा है, कि वो रूस की किसी फ़ौज में कोई ओहदा नहीं रखता। पस साबित हुआ, कि सिर्फ अवाम को धोका दही की ग़र्ज़ से ये वज़ा तराशी (शक्ल, सूरत तराशना) थी। और यूँही “इन्जील ईसा” का ढोकोसला पैरिस में जा कर बघारा। इस तस्वीर से हमें अपने मेहरबान कर्नल वार्ड साहब का फ़रमाना याद आया, कि उन्होंने नोटोविच को शिमला पर फ़ौजी वर्दी में देखा था।

नोटोविच साहब की इन्जील ईसा की तब सोएम और अंग्रेज़ी तर्जुमा

किसी अख़्बार में हमने पढ़ा, कि नोटोविच साहब की “इन्जील ईसा” बार सोएम तबाअ हो चुकी यानी फ़्रैंच ज़बान में। और बहुत जल्द अंग्रेज़ी तर्जुमा पब्लिक को पेशकश किया जाएगा। इस से इस क़द्र तो हम भी समझ गए, कि नोटोविच साहब का मक़्सद ख़ातिर-ख़्वाह पूरा हो गया। और कुछ अजब नहीं, कि यही मतलब इनको मज्बूर करे कि हमस की ख़ानक़ाह से इस का बरामद होना हत्ता-उल-वसीअ (जहां तक हो सके) कर ही दिखाएं। और ऐसे बहरुपिए के नज़्दीक ये कोई मुश्किल अम्र नहीं है। मगर साथ इस के हमको यक़ीन-ए-कामिल है, कि हमस से तो उस का बरामद होना मुश्किल है। मगर नोटोविच ने इस की भी पेशबंदी कर ली है। वो होम न्यूज़, और डेली न्यूज़ में लिखते हैं, कि इलावा हमस के और भी ख़ानक़ाहों में उस की नक़्लें होंगी। ये सिर्फ़ इसी से मालूम होता है, कि अगर हमस से इस का बरामद करना नामुम्किन हो, तो और किसी जगह से किसी को कुछ ले देकर उस को बरामद दें।

हमको अफ़्सोस है, कि बावजूद इस क़द्र तर्दीद (रद्द करना, जवाब देना) के जो विलायत के अंग्रेज़ी अख़बारों में उनकी इन्जील की बाबत हो चुकी है। फिर भी इस जाली इन्जील की मांग बदस्तूर है। लोग ना मालूम क्यों इस के शैदा (फ़िदा, आशिक़) हैं। हमारे ख़याल में शैतान अपने एजैंटों की मार्फ़त लोगों को तर्ग़ीब (लालच) दे रहा है, कि वो ज़रूर उस को जो उन के लिए ज़हर हलाहिल का असर रखती है, ख़रीद कर अपनी रूहों को हलाक करें। हर एक नई शैय की क़द्र इंगलैंड में बड़े तपाक से की जाती है। और उन लोगों के लिए जो मज़्हब ईस्वी के मुख़ालिफ़ हैं मिस्टर नोटोविच और ऐम॰ पाल इस्टंडाफ़ जिनके मतबअ (छापने की जगह) में ये किताब शाएअ हुई है। अपने ख़याल में एक उम्दा औज़ार तैयार कर रहे हैं। मगर आख़िर को ये औज़ार नाकारा साबित हो चुका और हो जाएगा। गो इस वक़्त नोटोविच और उन के मतबाअ (छापाख़ाना) वालों की चांदी हो रही है। मगर ख़ुदा-ए-तआला को अपनी इन करतूतों का जवाब ज़रूर देना होगा। हमारे ख़याल में मिस्टर कोएलम, कर्नल इल्क़ाट, मिस्टर अलगज़ेन्डर देब, और एनी सैंट से नोटोविच ज़्यादा ही ले निकलेंगे। मगर उनको ख़याल करना चाहिए, कि “इन्सान अगर सारी दुनिया को कमाए और अपनी रूह को हलाक करे तो उस को क्या हासिल?”

अब हम इस का फ़ैसला नाज़रीन पर छोड़ते हैं, कि वो “इन्जील ईसा” की बाबत क्या ख़याल करें और उन उर्दू अख़बारात को अपनी तरफ़ से मोदबाना सलाह (मश्वरा) देते हैं। जिन्हों ने अपने अख़बारों में नोटोविच की इन्जील को असली ख़याल कर के उस पर लंबे चौड़े हाशिया चढ़ाए थे। कि अब अपने अख़बारों में सिर्फ इसी क़द्र लिख दें, कि नोटोविच की इन्जील अब तक ज़ेर-ए-बहस है। उस का असली होना अब तक साबित नहीं हुआ। और साल आइंदा में जब नोटोविच साहब यहां आकर इस को असली साबित कर दें। उस वक़्त जो चाहें सो लिखें। उस वक़्त हम भी उन की बड़ी अदब से सुनेंगे। अगर हक़ का पास होगा तो ज़रूर हमारी इस आख़िरी मुख़्तसर तहरीर को अपने अख़बारों में जगह देंगे। बाक़ी रहे अंग्रेज़ी अख़्बार, सो बाअज़ में तो तर्दीद हो चुकी। और जिनमें अब तक नहीं हुई उन में हम ख़ुद समझेंगे।