मुहम्मद साहब की बशारत का होना तौरेत व इन्जील में?

दूसरी बशारत (ख़ुशी) फ़ारक़लीत (فارقلیط) (हज़रत मुहम्मद का वो नाम जो इन्जील में आया है) की कि ये भी उन्हीं के हक़ में है। और इस की ताईद (हिमायत) में क़ौल डाक्टर गाद फ़्री हेगनस साहब का नक़्ल किया इस मसअले के तहक़ीक़ में लंबे चौड़े मज़्मून की तहरीर इसी अख़्बार में साल गुज़श्ता में दर्ज हो चुकी है। अब मैं इस तमाम को दुबारा पेश करना नहीं चाहता

The Prophecy of Muhammad is in the Torah and the Gospel?

मुहम्मद साहब की बशारत का होना तौरेत व इन्जील में?

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan June 3, 1875

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 3जून 1875 ई॰

मौलवी सय्यद अहमद अली वाइज़ साहब 25 मार्च और 25, अप्रैल की वाअज़ में फ़र्माते हैं, कि मुहम्मद साहब की निस्बत बशारत (ख़ुशी) नबियों की किताब और इन्जील में मौजूद है। और इस दाअवे के सबूत में दो मुक़ाम पेश किए पहला दानयाल नबी की किताब के 9 बाब की 24 आयत से 27 तक और ये फ़रमाया कि ये नबुव्वत मुहम्मद साहब पर इशारत (इशारा) करती है। ख़बर नहीं उन को ये कहाँ से सूझ गई। मह्ज़ उनकी मुँह ज़ोरी है क्योंकि अगर इन आयात पर ग़ौर करें तो फ़ौरन मालूम होता है कि उनका दाअवा बातिल (झूटा) और लाताइल (बेफ़ाइदा) है।

अव्वल इस वास्ते कि यहां लिखा है कि नबुव्वत मज़्कूर 490 बरस के बाद वक़ूअ में आएगी। और हमको मालूम है कि दानयाल नबी का ज़माना मसीह से 500 बरस पेश्तर हुआ। इस वास्ते मुहम्मद साहब से मुराद नहीं हो सकती। क्योंकि दानयाल नबी उनके ग्यारह सौ बरस पेश्तर गुज़रे।

दोम, उस के हक़ में मर्क़ूम (लिखा हुआ) हुआ कि वो बदकारियों (ज़िना कारी, हरामकारी, बदचलनी, बदफ़ेअली) के लिए कफ़्फ़ारा (गुनाह धोने वाला) करेगा और ज़बीहा (क़ुर्बानी का जानवर, शरई तौर पर ज़ब्ह किया हुआ जानवर) और हदाया (नज़राने, नज़रें) मौक़ूफ़ (मन्सूख़, बर्ख़ास्त) करेगा और वो क़त्ल किया जाएगा। पर अपने लिए नहीं।

भला मैं पूछता हूँ कि मौलवी साहब तवारीख़-ए-मुहम्मदी से नावाक़िफ़ हैं कि उमूर मज़्कूर को मुहम्मद साहब पर जमाते हैं। उनके अहद में ज़बीहा हद्या कब मौक़ूफ़ हुआ और वो ख़ुद कब मारे गए। जब कि दस्तावेज़ कामिल ना मिले और बे इस्तिदलाल (सबूत के बग़ैर) मतलब ना बने तो ख़ामोशी बेहतर है। झूटी शहादत (गवाही) लाने से।

दूसरी बशारत (ख़ुशी) फ़ारक़लीत (فارقلیط) (हज़रत मुहम्मद का वो नाम जो इन्जील में आया है) की कि ये भी उन्हीं के हक़ में है। और इस की ताईद (हिमायत) में क़ौल डाक्टर गाद फ़्री हेगनस साहब का नक़्ल किया इस मसअले के तहक़ीक़ में लंबे चौड़े मज़्मून की तहरीर इसी अख़्बार में साल गुज़श्ता में दर्ज हो चुकी है। अब मैं इस तमाम को दुबारा पेश करना नहीं चाहता हूँ सिर्फ इतनी बात दिखलाऊँगा कि मौलवी साहब मुंसिफ़ मिज़ाज हो कर उन आयात को मुलाहिज़ा करें। जिनमें फ़ारक़लीत (فارقلیط) का बयान हुआ। उम्मीद क़वी (मज़बूत, मुस्तहकम) ये है कि अगर बग़ौर मुलाहिज़ा करेंगे तो ख़ुद ही मोतरिफ़ (एतराफ़ करने वाला, इक़रार करने वाला) हो जाऐंगे। कि ये औसाफ़ (खूबियां) मज़्कूर किसी सूरत से मुहम्मद साहब पर मुंतबिक़ (मुवाफ़िक़, ठीक) नहीं हो सकते। डाक्टर गाद फ़्री हेगनस साहब की शहादत (सबूत, गवाही) इस मुआमला में लगू (बकवास, बेफ़ाइदा) और बेकार है। क्योंकि ये शख़्स मसीही नहीं था। बल्कि युनीटेरियन अक़ीदे में बिल्कुल मुसलमान।

 

मौलवी साहब का ये कहना कि मसीहियों ने इन्जील में मोटानस के वक़्त में पैराकलीतोस को पैराकलीतस बना लिया है। और इस लफ़्ज़ अव्वल को छिपाने के लिए तमाम तहरीरें क़लमी ग़ारत (तबाह) कर दी गईं एक ख़िलाफ़ बात और झूटी तोहमत (इल्ज़ाम) है। इस का सबूत सिर्फ़ मौलवी साहब की ज़बान का बयान है और किसी तवारीख़ कलीसिया में पाया नहीं गया शायद मौलवी साहब ने अपनी पुरानी हरकात को याद फ़रमाया होगा कि उस्माने ग़नी ने क़ुरआन जमा करदह अपना बाक़ी रखकर और सबको आग दिखलाई इलावा बरीं ये भी याद रहे कि ये मुबाहिसा लफ़्ज़ी नहीं है, कि इस लफ़्ज़ को बदल डालें तो मतलब पूरा हो। बल्कि फ़ारक़लीत (فارقلیط) जिसकी निस्बत ख़ुदावन्द येसू मसीह ने वाअदा किया उस की ख़ुसूसियात और अफ़आल का मुफ़स्सिल बयान है। जो कि मुहम्मद साहब पर हरगिज़ मुंतबिक़ नहीं हो सकता। मैं उन आयात को मुंतख़ब कर के दिखलाता हूँ जिनमें फ़ारक़लीत (فارقلیط) का बयान है पढ़ने वाले ख़ुद ही दर्याफ़्त कर हैं। (यूहन्ना के 14 बाब की 16, 17 आयत) और मैं अपने बाप से दरख़्वास्त करूँगा और वो तुम्हें दूसरा तसल्ली देने वाला बख़्शेगा कि हमेशा तुम्हारे साथ रहे यानी रूहे हक़ दुनिया हासिल नहीं कर सकती क्योंकि उसे ना देखती है और ना उसे जानती है। लेकिन तुम उसे जानते हो क्योंकि वो तुम्हारे साथ रहती है और तुम में होएगी। 26 आयत लेकिन वो तसल्ली देने वाला जो रूह-उल-क़ुद्दुस है जिसे बाप मेरे नाम से भेजेगा वही तुम्हें सब चीज़ें सिखलाएगा। और सब बातें जो कि मैंने तुम्हें कही हैं तुम्हें याद दिलाएगा। 15 बाब की 26 आयत पर जब कि वो तसल्ली देने वाला जिसे मैं तुम्हारे लिए बाप की तरफ़ से भेजूँगा यानी रूह-ए-हक़ जो बाप से निकलता है आए तो वो मेरे लिए गवाही देगा। (16 बाब की 7 से 15, आयत तक) लेकिन मैं तुम्हें सच्च कहता हूँ कि तुम्हारे लिए मेरा जाना ही फ़ायदा है। क्योंकि अगर मैं ना जाऊं तो तसल्ली देने वाला तुम्हारे पास ना आएगा। पर अगर मैं जाऊं तो मैं उसे तुम्हारे पास भेज दूंगा। और वो आकर दुनिया को गुनाह से रास्ती से अदालत से तक़सीरदार (क़सूरवार, मुजरिम) ठहराएगा। मेरी और बहुत सी बातें हैं कि मैं तुम्हें कहूं। पर अब तुम उनकी बर्दाश्त नहीं कर सकते। लेकिन जब वो यानी रूहे हक़ आए तो वो तुमको सारी सच्चाई की राह बताएगा। इसलिए कि वो अपनी ना कहेगा लेकिन जो कुछ वो सुनेगा वही कहेगा और तुम्हें आइंदा की ख़बरें देगा। वो मेरी बुजु़र्गी करेगा इस लिए कि वो मेरी चीज़ों में से पाएगा और तुम्हें दिखलाएगा।

सब चीज़ें जो बाप की हैं मेरी हैं इसलिए मैंने कहा कि वो मेरी चीज़ों में से ले कर वह तुम्हें दिखाएगा। (आमाल का पहला बाब 4, 5, 8 आयत) उन के साथ एक जा हो के मसीह ने हुक्म दिया कि यरूशलेम से बाहर ना जाओ बल्कि बाप के उस वाअदे के जिसका ज़िक्र मुझसे सुन चुके हो राह देखो क्योंकि यूहन्ना ने तो पानी से बपतिस्मा दिया पर तुम थोड़े दिनों के बाद रूह-उल-क़ूदस से बपतिस्मा पाओगे। और यरूशलेम और सारे यहूदिया व सामरिया बल्कि ज़मीन की हद तक मेरे गवाह होगे। आयात मज़्कूर में तसल्ली देने वाले की दो क़िस्म की सिफ़तों का मज़कूर हुआ।

अव्वल आम जो हर किसी मुर्शिद (हिदायत करने वाला, उस्ताद) या दीनी ताअलीम दहिंदा पर मुंतबिक़ (मुवाफ़िक़) हो सकते हैं। इसी सबब से ना सिर्फ मुहम्मद साहब ने दाअवा किया कि मसीह की नबुव्वत फ़ारक़लीत (فارقلیط) की बाबत मुझमें पूरी हुई। बल्कि ईसाई जमाअत में मुख़्तलिफ़ औक़ात में और चंद अश्ख़ास ने ऐसे दाअवा किया इस में से दो आदमी निहायत मशहूर हैं एक मोंटेनेस और दूसरा सीनतेर वो आम सिफ़ात में वो तुम्हें सब चीज़ें सिखलाऊँगा। और सब बातें जो कि मैंने तुम्हें कहीं याद दिलाएगा। वो आकर दुनिया को गुनाह से और रास्ती से और अदालत से तक़्सीर-वार (मुजरिम, क़सूरदार) ठहराएगा वग़ैरह।

दूसरी ख़ास ये सिफ़तें इस क़िस्म की हैं, कि किसी ख़ास शख़्स पर सादिक़ (सच्ची) आ सकती हैं और जब तक ये ख़ुसूसीयत किसी शख़्स में ना पाई जाये तब तक उस के लिए फ़ारक़लीत (فارقلیط) होने का दावा करना ला-हासिल है। और किस का कहना कि उस में ये बातें पूरी हुईं हज़यान (बेहूदा गोई) है। और इस की जहालत का उन्वान वो ख़ुसूसियात ये हैं वो हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा उसे दुनिया नहीं देखती है वो तुम्हारे साथ रहता है।

 

अब मैं ये पूछता हूँ कि ये सिफ़तें मुहम्मद साहब पर क्योंकर लग सकती हैं मसीह ने फ़रमाया कि वो हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा। मुक़ाबिल अपने रहने के लिए जैसे मैं थोड़ी मुद्दत रहा और फिर चला जाता हूँ वो ऐसा ना करेगा। मुहम्मद साहब तो दुनिया में आए और तिरेसठ बरस के बाद वफ़ात पाई और बशर की मानिंद दुनिया से गुज़र गए। फिर लिखा है कि वो तुम्हारे बीच में रहता है यानी उसी वक़्त जब मसीह उनके साथ गुफ़्तगु कर रहा था।

मुहम्मद साहब तो इस गुफ़्तगु के बाद छः सौ बरस के क़रीब पैदा हुए सिवा उस के वो ऐसा शख़्स होगा जिसको दुनिया ना देखेगी यानी वो जिस्मानी ना होगा, बल्कि रुहानी। इलावा बरीं उस को बाप मेरे नाम से भेजेगा वो अपनी ना कहेगा। लेकिन जो कुछ वो सुनेगा और कहेगा वो मेरी बुजु़र्गी करेगा। इसलिए कि वो मेरी चीज़ों में से पाएग़ा सब चीज़ें जो बाप की हैं मेरी हैं इसलिए मैंने कहा कि वो मेरी चीज़ों में से लेगा और तुम्हें दिखाएगा।

इन आयात से वाज़ेह है कि फ़ारक़लीत (فارقلیط) जो होगा कोई क्यों ना हो वो मसीह के नाम से और उस का भेजा हुआ होगा क्या सोलूय साहब तैयार हैं कि मुहम्मद साहब को मसीह के नाम से आया हो और उस का रसूल कहें अगर ऐसा हो तो मुझे कुछ इन्कार नहीं फ़ारक़लीत (فارقلیط) का दर्जा मुहम्मद साहब पर लगाने से तावील (बयान, बात को फेर देना) तो यहां किसी तरह की बन नहीं सकती। क्योंकि इबारत निहायत साफ़ है लेकिन मौलवी साहब को ये भी इक़रार करना पड़ेगा, कि सब जो कुछ मुहम्मद साहब ने पाया मसीह से पाया सो उस के आमाल की आयात और उनके बयानात से ये भी ज़ाहिर है। कि रूह-ए-हक़ थोड़े अर्से में शागिर्दों पर नाज़िल होने वाला था क्योंकि मसीह ने उन्हें फ़रमाया था तुम यरूशलेम में उस की इंतिज़ारी करो और जब वो तुम पर आए क़ुव्वत पाओगे। और यरूशलेम और सारे यहूदीया और सामरिया बल्कि ज़मीन की हद तक मेरे गवाह होंगे। भला क्योंकि ये बात मुहम्मद साहब की निस्बत मुताल्लिक़ हो सकती है और कौन मुंसिफ़ मिज़ाज इस को क़ुबूल कर सकता है मालूम नहीं बाअज़ मुहम्मदी अश्ख़ास फ़ारक़लीत (فارقلیط) की नबुव्वत पर क्यों इतना ज़ोर लगाते हैं। मुहम्मदी मज़्हब की सच्चाई तो कुछ इस पर मौक़ूफ़ नहीं इस बेफ़ाइदा कोशिश से सिर्फ अपनी बेइल्मी और बेइंसाफ़ी और तास्सुब (हिमायत, तरफ़दारी) ज़ाहिर करते हैं। बेहतर है कि और किसी क़िस्म की दलील (गवाही) पेश करें। जिससे सच्चाई उन के मज़्हब की साबित हो। और उलमा को उस की पज़ीराई में ताम्मुल (बर्दाश्त) ना हो। झूटा फ़ख़्र बहर -हाल नामुनासिब है कि नदामत और शर्मिंदगी के सिवा और कुछ इस से हासिल नहीं।

मुहम्मद साहब या ख़ुदावन्द मसीह

दुवम, ये अल्फ़ाज़ ऐसो और बनी कतूरह की निस्बत इस्तिमाल नहीं हो सकते। क्योंकि बनी ऐसो और बनी कतूरह बरकत के मालिक नहीं हुए हैं। बनी इस्माईल और बनी-इस्राईल इन दोनों में से अल्फ़ाज़ मज़कूर इस मुक़ाम में बनी-इस्राईल के हक़ में वारिद नहीं हो सकता। क्योंकि यहां हज़रत मूसा बनी-इस्राईल को इकट्ठा कर के और उनकी तरफ़ मुख़ातिब हो कर उनको फ़र्माते हैं कि

Muhammad or Jesus Christ

मुहम्मद साहब या ख़ुदावन्द मसीह

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan June 29, 1884

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 12 जून 1884 ई॰

इस्तिस्ना के 18 बाब की 15 आयत “ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा तुम उस की तरफ़ कान धर लो।” फिर इस्तिस्ना के 18 बाब की 17, 18, 19, 20, “और ख़ुदावन्द ने मुझे कहा कि मैं उन के लिए उन के भाईयों में से तुझ सा एक नबी क़ायम करूँगा। और अपना कलाम उस के मुँह में डालूँगा। और जो कुछ मैं उसे फ़र्माउंगा वो उन से कहेगा और ऐसा होगा। कि जो कोई मेरी बातों को जिन्हें वो मेरा नाम लेकर कहेगा। ना सुनेगा तो मैं उस से मुतालिबा करूँगा। लेकिन वो नबी जो ऐसी गुस्ताख़ी करे कि कोई बात जो मैंने उस से नहीं कही मेरे नाम से कहे या जो और माबूदों (जिसकी इबादत की जाये) के नाम से कहे तो वो नबी क़त्ल किया जाये।”

ये एक मशहूर नबुव्वत तौरेत में से है जिस को बाअज़ मुहम्मदी पढ़ने वाले कलाम के अपने नबी यानी मुहम्मद साहब के हक़ में गुमान (अंदाज़ा) करते हैं उनका ख़याल ये है कि हज़रत मूसा इस मुक़ाम में बनी-इस्राईल को फ़र्माते हैं, “कि ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से यानी बनी इस्माईल से मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा। तुम उस की तरफ़ कान धरो।” और उनकी तक़रीर ये है पहला अल्फ़ाज़ तेरे भाईयों में से जो कि इस आयत में है चार शख़्स की निस्बत मन्सूब (निस्बत किया गया) हो सकता है अव़्वल नबी इस्माईल की निस्बत क्योंकि हक़ीक़त में बनी इस्माईल बनी-इस्राईल का बिरादर कहा गया। पैदाइश के 16 बाब की 12, और पच्चीस की 18।

दूसरा बनी-इस्राईल की निस्बत

तीसरा बनी ऐसो की निस्बत

चौथा बनी कत्तूरह

 

दुवम, ये अल्फ़ाज़ ऐसो और बनी कतूरह की निस्बत इस्तिमाल नहीं हो सकते। क्योंकि बनी ऐसो और बनी कतूरह बरकत के मालिक नहीं हुए हैं। बनी इस्माईल और बनी-इस्राईल इन दोनों में से अल्फ़ाज़ मज़कूर इस मुक़ाम में बनी-इस्राईल के हक़ में वारिद नहीं हो सकता। क्योंकि यहां हज़रत मूसा बनी-इस्राईल को इकट्ठा कर के और उनकी तरफ़ मुख़ातिब हो कर उनको फ़र्माते हैं कि, “ऐ बनी इस्राईलियों ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा।” यहां से साफ़ मालूम हुआ कि मेरे भाई से ग़ैर-इस्राईली जो कि वहां मौजूद ना थे। मुराद है और ग़ैर-इस्राईली और कोई नहीं हो सकता सिवाए बनी-इस्माईल के इस वास्ते हम पूरे यक़ीन के साथ मानते हैं कि हज़रत मूसा इस मौज़अ (मुक़ाम) में हमारे नबी मुहम्मद साहब की बशारत (ख़ुशी) दे रहे हैं जो कि बनी-इस्माईल से पैदा हुए और जिनके मुँह में बज़रीये वही अपना कलाम डाला। और जिसने जो कुछ ख़ुदा ने उसे फ़रमाया वो बनी-इस्राईल से कहा ये तक़रीर मेरी समझ में मह्ज़ ग़लत है। मैं मंज़ूर करता हूँ कि अल्फ़ाज़ तेरे भाईयों में से चार गिरोह के हक़ में यानी बनी इस्माईल बनी-इस्राईल बनी ऐसो बनी कतूरह वारिद हो सकता है। और मैं ये भी मंज़ूर करता हूँ कि ये बयान बनी ऐसो और बनी कतूरह की निस्बत नहीं हो सकता। क्योंकि वो रूहानी बरकत और नबुव्वत के वारिस नहीं हुए। लेकिन ये बात सच्च नहीं है कि इस वास्ते कि हज़रत मूसा कुल बनी-इस्राईल को इकट्ठा कर के उनकी तरफ़ मुख़ातिब हो कर उनको कह रहे हैं, कि “तेरे भाईयों से ख़ुदावन्द ख़ुदा एक नबी क़ायम करेगा।” अल्फ़ाज़ तेरे भाईयों में से बनी-इस्राईल के हक़ में वारिद नहीं हो सकता। क्योंकि वो वहां हाज़िर शूदा थे ज़रूर है। कि ये किसी ग़ैर-इस्राईलियों के हक़ में समझा जाये जो हाज़िरीन में दाख़िल ना हों बरख़िलाफ़ इस के अगर हम इस्तिस्ना की इबारत ग़ौर से पढ़ें हमेशा बनी-इस्राईल के हक़ में वारिद हुआ तो हमको बख़ूबी मालूम होगा कि अल्फ़ाज़ “तेरे भाईयों में से” या “अपने भाईयों में से” इस किताब में सारे बनी-इस्राईल को इकट्ठा कर के उनकी तरफ़ मुख़ातिब हो कर हज़रत मूसा यूं फ़रमाया है, इस्तिस्ना के 15 बाब की 17, “अगर तुम्हारे बीच तुम्हारे भाईयों में से तेरी सरहद में तेरी इस सर-ज़मीन पर जिसे ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा देता है। कोई मुफ़्लिस (ग़रीब, हाजतमंद) हों तो उस से सख़्त दिली मत कीजीए। और अपने मुफ़्लिस भाई की तरफ़ से अपना हाथ मत खींचो।” यहां से साफ़ मालूम हुआ, कि तुम्हारे भाईयों में से बनी-इस्राईल मुराद हैं ना ग़ैर-इस्राईली। इस्तिस्ना के 17 बाब की 14, 15 जब तू इस ज़मीन में जो ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तुझे देता है दाख़िल हो और उस पर क़ाबिज़ हो तू इस को अपना बादशाह कीजीए जिसे ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा पसंद फ़रमाए तू अपने भाईयों में से एक को अपना बादशाह ना कर सकेगा। हमारे मुहम्मदी भाई की तक़रीर के बमूजब लाज़िम आया, कि अल्फ़ाज़ अपने भाईयों में से इस मुक़ाम में ग़ैर-इस्राईलियों से मुराद है और हज़रत मूसा बनी-इस्राईल को फ़र्मा रहा है कि जब तू कनआन के मुल्क पर क़ाबिज़ हो तो अपने में से नहीं, बल्कि बनी-इस्माईल में से किस को बुला कर अपने ऊपर बादशाह बनाईयो। इस्तिस्ना के 24 बाब की 14 तू अपने ग़रीब और मुहताज चाकर पर ज़ुल्म ना करना ख़्वाह वो तेरे भाईयों में से हो ख़्वाह मुसाफ़िर हो जो तेरी ज़मीन पर तेरे फाटकों के अंदर रहता हो। यहां से साफ़ ज़ाहिर है कि तेरे भाईयों में से ग़ैर इस्राईली मुराद नहीं बल्कि बनी-इस्राईल मुराद हैं। अला हज़ा-उल-कियास (इसी तरह) इतनी नज़ीर (मिसाल, मानिंद) काफ़ी समझता हूँ। बेतास्सुब पढ़ने वालों को इस से वाज़ेह होगा कि हज़रत मूसा इस आयत में ग़ैर-इस्राईली नबी पर इशारा नहीं करता बल्कि इस किसी पर जो बनी-इस्राईल में से हुआ इस्तसना के मुहावरे के बमूजब यही नतीजा निकलता है और दूसरा नतीजा नहीं। आइंदा

बक़ीया मुहम्मद साहब या ख़ुदावन्द मसीह

दुवम, मेरा ये क़ियास (ख़याल) कि अल्फ़ाज़ “तेरे भाईयों में से उनके भाईयों में से” किसी ग़ैर-इस्राईली के हक़ में वारिद (आने वाला, मौजूद) नहीं है बल्कि ज़रूर किसी ऐसे अश्ख़ास से मुराद है जो बनी-इस्राईल में से हूँ ज़्यादा सफ़ाई से मालूम देगा।

अगर नाज़रीन ग़ौर से अठारवां बाब इस्तिस्ना का तमाम व कमाल मुतालआ करें ख़ुसूसुन नौवीं आयत से आख़िर तक उनको मालूम हो जाएगा। जिस नबुव्वत की निस्बत बह्स हो रही है। ये नबुव्वत उस वक़्त में कही गई थी जब कि मूसा को ख़ुदा की तरफ़ से पैग़ाम आया, कि तुम यर्दन के पार नहीं जाओगे बल्कि उस की पूरब की तरफ़ मर जाओगे और बाद तुम्हारी मौत के यशूअ बिन नून बनी-इस्राईल का सरदार हो कर उनको मुल्क मौऊद पर क़ाबिज़ करेगा।

हज़रत मूसा बनी-इस्राईल के लिए फ़िक्रमंद हो कर उनको इकट्ठा कर के उनकी तरफ़ मुख़ातिब हो कर फ़रमाता है कि जब तू इस सर-ज़मीन में जो ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा देता है दाख़िल हो तो तू वहां की क़ौमों के काम मत सीखना। तुम में कोई ऐसा ना हो कि अपनी बेटी या अपने बेटे को आग में गुज़ारे या ग़ैब (पोशीदा) की बात बताए। या बुराई भलाई का शागुनिया (फ़ाल निकालना) या जादूगर बने। और अफ़्सूँगर (साहिर, जादूगर) ना हो उन देवओं से जो मुसख़्ख़र (तसख़ीर किया गया, क़ब्ज़ किया गया) होते हैं। सवाल करने वाला और साहिर (जादूगर) और सयाना ना हो। क्योंकि वो सब जो ऐसे काम करते हैं ख़ुदावन्द उन से कराहीयत (नफ़रत करता) है। और ऐसी कराहयतियों (नफ़रतों) के बाइस से उनको ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तेरे आगे से दूर करता है। तू ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा के आगे कामिल (मज़्बूत) हो क्योंकि वो गर्दाएं (कौमें) जिनको तू अपने आगे से हाँकता (चलाना, दौड़ाना) है। ग़ैब गहूँ और शगुनियों की तरफ़ धरते हैं। पर तू जो है ख़ुदावन्द तेरे ख़ुदा ने तुझको इजाज़त नहीं दी कि ऐसा करे। ख़ुदावन्द तेरा ख़ुदा तेरे लिए तेरे ही दर्मियान से तेरे ही भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा। तुम उस की तरफ़ कान धरो। इस पूरी आयत के पढ़ने से ज़ाहिर है कि हज़रत मूसा इस मुक़ाम में इस सिलसिले अम्बिया पर जो ख़ुदा बनी-इस्राईल के दर्मियान बाद उस की मौत के क़ायम करेगा इशारा करता है वो कहता है, कि जब तुम कनआन के मुल्क में जाओ तब उस मुल्क के ना उनके देवओं, ना साहिर, और सयाना से सवाल करो। बल्कि ख़ुदा के नबियों से अपनी हिदायत और ताअलीम के लिए पूछो। क्योंकि ख़ुदावंद तुम्हारा ख़ुदा तुम्हारे लिए तुम्हारे दर्मियान से तुम्हारे भाईयों में से मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा। तुम उस की तरफ़ कान धरो यहां इस सिलसिले अम्बिया से मुराद है जो यशूअ से शुरू कर के ख़ुदावन्द येसू मसीह में जो सारी नबियों का नमूना और सर है ख़त्म हुआ। इस वास्ते पत्रस रसूल और इस्तीफ़ान शहीद ख़ासकर के मसीह पर इशारा कर के कहते हैं ये वही नबी है जिसकी बाबत मूसा ने बनी-इस्राईल से कहा, कि ख़ुदावन्द जो तुम्हारा ख़ुदा है तुम्हारे भाईयों में से तुम्हारे लिए एक नबी ज़ाहिर करेगा। तुम उस की सुनो।

बनी-इस्राईल मूसा की मौत की ख़बर सुन कर घबरा गए थे। हज़रत मूसा उन को तसल्ली देता है और कहता है, तुम मत घबराओ मैं तो मर चला हूँ लेकिन ख़ुदावन्द तुम्हारा ख़ुदा तुम्हारे भाईयों में से तुम्हारे लिए एक नबी क़ायम करेगा। वो तुमको हिदायत करेगा तुम उस की सुनो। बनी-इस्राईल पर ख़तरा था कि मुल़्क-ए-कनआन में अगर बुत परस्तों के देव और ग़ैब दानों में जा कर अपनी चाल चलन की बाबत सलाह (मश्वरा) और हिदायत पूछे। हज़रत मूसा उनको इस मुक़ाम में इस ख़तरे से मुतनब्बाह (आगाह, ख़बरदार) कर रहा है और फ़रमाया है कि तुम कभी ऐसा मत करना। तुम बुत परस्तों के देओं और ग़ैब गोइयों के पास मत जाना। और तुम्हारा ख़ुदा तुम्हारे भाईयों में तुम्हारे लिए मेरी मानिंद एक नबी क़ायम करेगा। तुम उस की सुनों मैं हैरान हूँ कि किस तरह से इस बाब के पढ़ने वाले इस नबुव्वत को मुहम्मद साहब पर जो कि दो हज़ार बरस पीछे और एक ग़ैर-मुल्क में पैदा हुआ वारिद करते हैं। मुझे क़वी (मज़्बूत) उम्मीद है कि अगर इस नबुव्वत के क़रीना (तर्ज़, अंदाज़) पर ग़ौर करें और इस का आग़ा पीछा अच्छी तरह देख-भाल लें तो फ़ौरन मुहम्मद साहब का ख्व़ाब व ख़याल दिल से दूर हो जाएगा।

सोम मुझको ख़ुदा के कलाम से ख़ासकर तौरेत पर ग़ौर करने से साफ़ मालूम देता है, कि नबुव्वत या दीनी बरकत बनी-इस्माईल पर वाअदा नहीं है इसलिए बनी-इस्माईल के दर्मियान किसी नबी की तलाश करना ला-हासिल है। ये बात यूं साबित होती है, पैदाईश के 17 बाब की पहली से 8 तक जब अब्राम निनावें (99) बरस का हुआ तब ख़ुदावन्द अब्राम को नज़र आया और उस से कहा कि मैं ख़ुदा ए क़ादिर हूँ तू मेरे हुज़ूर चल और कामिल हो। और मैं अपने और तेरे दर्मियान अहद करता हूँ कि मैं तुझे निहायत बढ़ाऊँगा। तब अब्राम मुँह के बल गिरा और ख़ुदा उस से हम-कलाम हो कर बोला कि देख मैं तुझसे ये अहद करता हूँ, कि तू बहुत क़ौमों का बाप होगा और तेरा नाम फिर अब्राम ना रहेगा बल्कि तेरा नाम अबराहाम हुआ क्योंकि मैंने तुझे बहुत क़ौमों का बाप ठहराया। और मैं अपने और तेरे दर्मियान और तेरे बाद तेरी नस्ल के दर्मियान इनकी पुश्त दर पुश्त के लिए अपना अहद जो हमेशा का अहद है करता हूँ। कि मैं तेरा और तेरे बाद तेरी नस्ल का ख़ुदा होऊंगा और मैं तुझको और तेरे बाद तेरी नस्ल को कनआन का तमाम मुल्क जिसमें तू परदेसी है देता हूँ, कि हमेशा के लिए मालिक हो। और मैं उनका ख़ुदा होऊंगा फिर देखो (पैदाइश का 17 बाब पंद्रह से बीस आयत तक) और खुदा ने अबराहाम से कहा कि तू अपनी जोरू को सारी मत कह बल्कि उस का नाम सारा है। मैं उसे बरकत दूंगा और इस से भी तुझे एक बेटा बख्शूंगा मैं उसे बरकत दूंगा क़ौमों की माँ होगी और मुल्कों के बादशाह इस से पैदा होंगे। तब अबराहाम मुँह के बल गिरा और हंस के दिल में कहा कि क्या सौ बरस के मर्द को बेटा पैदा होगा। और क्या सारा जो नव्वे बरस की है जनेगी। और अबराहाम ने ख़ुदा से कहा कि काश इश्माइल तेरे हुज़ूर जीता रहे। तब ख़ुदा ने कहा कि बेशक तेरी जोरू सारा तेरे लिए एक बेटा जनेगी तू उस का नाम इज़्हाक़ रखना। और मैं इस से और बाद इस के उस की औलाद से अपना अहद जो हमेशा का अहद है करूँगा। और इसमाआईल के हक़ में मैंने तेरी सुनी देख में उसे बरकत दूंगा। और इसे बरूमंद करूँगा। और इसे बहुत बढ़ाऊँगा और इस से बारह सरदार पैदा होंगे। और मैं इसे बड़ी क़ौम बनाऊँगा।

लेकिन मैं इज़्हाक़ से जिसको सारा दूसरे साल जनेगी अपना अहद करूँगा। फिर (पैदाइश के 21 बाब की 12, 13 आयत) ख़ुदा ने अबराहाम से कहा कि वो बात जो सारा ने इस लड़के और तेरी लौंडी की बाबत कही तेरी नज़र में बुरी ना मालूम हो सब कुछ जो सारा ने तुझे कहा मान क्योंकि तेरी नस्ल इज़्हाक़ से कहलाएगी। और इस लौंडी के बेटे से भी एक क़ौम पैदा करूँगा क्योंकि वो तेरी नस्ल है। 18 ख़ुदा ने कहा कि ऐ हाजिरा उठ और लड़के को उठा कर अपने हाथ से सँभाल कि मैं इस को एक बड़ी क़ौम बनाऊँगा। इन आयतों को बग़ौर पढ़ने से ये उमूर बख़ूबी दर्याफ़्त हो जाएगा। अव्वल ये कि जब अबराहाम निनावें बरस का था ख़ुदा ने इस के साथ अहद बाँधा जो हमेशा का अहद है। और जिसका एक जुज़्व (हिस्सा) ये था, कि मैं तेरा और तेरे बाद तेरी नस्ल का ख़ुदा होऊंगा। और मैं तुझको और तेरे बाद तेरी नस्ल को कनआन का मुल्क जिसमें तू परदेसी है देता हूँ, कि हमेशा का मालिक हो और मैं उनका ख़ुदा होऊंगा। दूसरा अबराहाम के दो बेटे पैदा हुए एक इस्माईल हाजिरा लौंडी से और दूसरा इज़्हाक़ उस की बीबी सारा से।

तीसरा अपना अहद ख़ुदा ने जो अबराहाम के साथ किया था। इज़्हाक़ और इस की नस्ल में क़ायम किया इस वास्ते पौलुस रसूल रोमीयों के ख़त में यूं कहता है वो इस्राईली हैं और फ़र्ज़ंदी और जलाली और अहदनामा और शरीअत और इबादत और वाअदे इन्हीं के हैं। और बाप दादे इन्हीं के हैं। और जिस्म की निस्बत मसीह भी इन्हीं में से पैदा हुआ। जो सब का ख़ुदा हमेशा मुबारक है। (9 बाब की 4, 5 आयत) यानी सारी दीनी नेअमतें बनी-इस्राईल पर ख़ुदा ने नाज़िल कीं। यानी वो हमेशा का अहद कि मैं तेरा और तेरे बाद तेरी नस्ल के साथ पुश्त दर पुश्त करता हूँ कि मैं उनका ख़ुदा होऊंगा और वो मेरे लोग होंगे। ये अहद इब्राहीमी ख़ुदा ने इज़्हाक़ की नस्ल में क़ायम किया और फ़रमाया कि इस में इस्माईल शरीक नहीं होगा।

चौथा इस्माईल को भी ख़ुदा ने बरकत दी और वाअदा किया, कि इसे भी मैं बढ़ाऊँगा और इस से बारह सरदार पैदा होंगे। और मैं इसे बड़ी क़ौम बनाऊँगा। ख़ुदा ने इस्माईल के हक़ में सिर्फ दुनियावी बरकत का वाअदा किया और फ़रमाया कि दीनी बरकतें ख़ास इज़्हाक़ की नस्ल के लिए हैं। इसलिए मेरी नज़र में किसी क़िस्म की दीनी बरकतों की यानी ख़ुदा का कलाम या नबुव्वत की तलाश बनी इस्माईल के दर्मियान करना ला-हासिल है। ख़ुदा ने अपने कलाम में साफ़ फ़रमाया कि ये नेअमतें उनको ना मिलेंगी। मैं उम्मीद करता हूँ कि मेरे मुहम्मदी भाई जिन को सच्चे दीन की तलाश है इन बातों को जोकि मैं उनकी ख़िदमत में गुज़ारिश करता हूँ ग़ौर से मुतालआ करेंगे।

मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े किए हैं या नहीं?

अब हम इस बात पर कई एक सवाल करते हैं। सवाल अव़्वल क्या सब मुहम्मदी लोग हदीसों को मानते हैं? नहीं। हर शख़्स को मालूम है कि शीया सब हदीसों को नहीं मानते। सवाल दुवम किया सुन्नी तमाम हदीसों को क़ाबिल-ए-एतिबार समझते हैं कभी नहीं। ये बात साफ़ ज़ाहिर है कि सुन्नी हदीसों को दर्जा ब दर्जा मानते हैं। इस से वाज़ेह होता है कि उनके नज़्दीक

Whether Muhammad has done miracles or not?

मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े किए हैं या नहीं?

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan July 22, 1875

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 22 जुलाई 1875 ई॰

 तमाम अहले इस्लाम मुक़िर (राज़ी) हैं कि मुहम्मद साहब ने बहुत से मोअजिज़े दिखलाए हैं। अगर कोई उस के मोअजिज़े पर शक करे तो वो उन की नज़र में काफ़िर और मलऊन (जिस पर लानत की गई हो) है। मगर जो कोई तास्सुब (मज़्हब की बेजा हिमायत) और ज़िद को तर्क कर के हक़ का मुतलाशी (तलाश करने वाला) हो। उसे चाहिए कि इन बातों से हरगिज़ ना डरे। क्योंकि वो लोग जो अपने मज़्हब को बग़ैर सोचे और दर्याफ़्त किए सच्चा और दूसरों के मज़्हब को झूटा जानते हैं। वो अक्सर उस शख़्स को जो दीने हक़ की तहक़ीक़ात करना चाहता है तअन (ताने देना) और मलामत (बुरा भला) कहना करते हैं। और उस को मलऊन काफ़िर और तरह तरह का मुजरिम ठहराते हैं। मसलन अगर शाइस्ता आदमी उम्दा लिबास पहन कर नंगे वहशी आदमीयों में जा निकले। तो क्या वो उस के साथ नेक सुलूक से पेश आएँगे। हरगिज़ नहीं बल्कि पथराओ करेंगे इसलिए हमें मुनासिब है कि जिस क़द्र वो हमारे साथ सख़्ती और तअद्दी (नाइंसाफ़ी) करें। उस क़द्र हम हक़ के दर्याफ़्त करने में सई और कोशिश करें।

मुहम्मदियों को दाअवा है कि मुहम्मद साहब के बहुत से मोअजिज़ों का ज़िक्र हदीसों और क़ुरआन में मौजूद है। और मुहम्मद साहब की वफ़ात के बाद मुहम्मदियों ने भी बहुत से मोअजिज़े किए हैं। अब हम पर ये फ़र्ज़ है कि हत्तलमक़्दूर (जहां तक हो सके) इन चार बातों पर ख़ूब ग़ौर करें सब लोग जानते और इक़रार करते हैं, कि करामातों (मोअजिज़ों) को पुख़्ता शहादतों (गवाहों) से क़ुबूल करना चाहिए। और बग़ैर गवाही पुख़्ता के क़ुबूल करना मुनासिब नहीं। अव़्वल इनके हम इस दाअवे को तहक़ीक़ (छानबीन) करते हैं कि हदीसों में कैसी करामातों का ज़िक्र है। मसलन लिखा है कि एक रोज़ जब मुहम्मद साहब को हाजत हुई दरख़्त इकट्ठे हो कर उस के लिए जा-ए-ज़ुरूर (बैतूल-खला) बन गए।

अब हम इस बात पर कई एक सवाल करते हैं। सवाल अव़्वल क्या सब मुहम्मदी लोग हदीसों को मानते हैं? नहीं। हर शख़्स को मालूम है कि शीया सब हदीसों को नहीं मानते। सवाल दुवम किया सुन्नी तमाम हदीसों को क़ाबिल-ए-एतिबार समझते हैं कभी नहीं। ये बात साफ़ ज़ाहिर है कि सुन्नी हदीसों को दर्जा ब दर्जा मानते हैं। इस से वाज़ेह होता है कि उनके नज़्दीक भी हदीसें एतबार के लायक़ नहीं हैं। अब इनका ना-मोअतबर (नाक़ाबिल-ए-एतबार) होना चंद दलीलों से जो ज़ेल में मुन्दरज की जाती हैं, साबित है। मुहम्मद साहब की हयात (ज़िंदगी) में उनके पैरौ (मानने वाले) उन को बहुत ही अज़ीज़ जानते थे। लेकिन जब वो फ़ौत हो गए तो उन के पैरू (पीछे चलने वाले) कहने लगे, कि हज़रत ने हमसे ये बातें फ़रमाई थीं। ग़र्ज़ की हर एक उन में से यही कहता था, कि मुहम्मद साहब ने मुझे फ़ुलानी बात सुनाई। कुछ अर्से बाद मुहम्मद साहब की उन्होंने उन तमाम बातों को जमा करने का इरादा किया। और ये भी वाज़ेह हो कि सब लोग दाना (अक़्लमंद) नहीं होते। और ना सब लोग सच्चे होते हैं। जाहिल अपनी जहालत के सबब उन बातों को जो क़ाबिल-ए-एतबार नहीं लोगों को सुनाते थे। फ़िल-जुम्ला उन्होंने और और झूटों ने इज़्ज़त और हुर्मत (इज़्ज़त) पाने के लिए इन बातों का ज़िक्र लोगों के आगे किया। और इन तमाम बातों का ज़िक्र लोगों के आगे किया और इन तमाम बातों को जमा कर लिया। जब आलिमों ने इन बातों पर ग़ौर किया तब उन्होंने सोचा कि ये बातें बिल्कुल मानने के लायक़ नहीं हैं। मगर जो बातें उन को ज़रा भी अच्छी मालूम हुईं उन को अलेहदा (अलग) कर लिया। अब हमको क्योंकर मालूम हो कि वो बातें जिनको आलिमों ने तस्लीम किया रास्त (दुरुस्त) हैं। और जिनको उन्होंने रद्द किया ख़िलाफ़ हैं। क्योंकि अक़्लमंदों के नज़्दीक तहक़ीक़ करना इन उमूरात का मुहाल (दुशवार) है। ऐसी बातें क़ाबिल-ए-तस्लीम कभी नहीं हो सकतीं। सब लोग बख़ूबी जानते हैं कि जब कोई पेशवा या गुरु मर जाता है उस के पैरू या चेले उस के हक़ में अजीब अजीब बातें लोगों को सुनाते हैं। मगर कौन जानता है कि वो सब बातें सच्ची हैं। कोई दाना शख़्स ऐसी बातों पर बग़ैर सबूत यक़ीन नहीं कर सकता।

मैं अपने फायदे और नुक़्सान का कुछ भी इख्तियार नहीं रखता।

मसलन सिर्फ तीन चार सौ (400) बरस का अर्सा गुज़रा है कि बाबा नानक मर गया। उस के पैरू (मानने वाले) अब तक बहुत सी करामतों का ज़िक्र करते हैं। इन अजीब बातों में से एक तो ये है कि एक रोज़ बाबा नानक मक्का शरीफ़ गया और काअबा की तरफ़ पांव फैला कर सो गया। एक मुसलमान ने देखकर उसे गालियां दीं और कहा कि काअबा की तरफ़ तुमने क्यों पांव किया है। ये सुनकर बाबा नानक ने अपने पांव दूसरी तरफ़ कर लिए और सो रहा। इतने में काअबा भी फ़ील-फ़ौर उस के पांव की तरफ़ हो गया। क्या कोई मुहम्मदी इस करामत (ख़ूबी) को क़ाबिल-ए-एतिबार समझता है कोई नहीं।

पोशीदा ना रहे कि जब कोई आदमी अपना बड़ा महल बनाना चाहता है तो उसे बड़ी पुख़्ता (मज़्बूत) बुनियाद दरकार होती है। ताकि उस का मकान देर तक क़ायम रहे। इस तरह हमारे ईमान के लिए पुख़्ता न्यू दरकार है ना सिर्फ लोगों की बेहूदा बातें बल्कि ख़ुदा तआला का पाक कलाम।

अब हमें ये भी दर्याफ़्त करना चाहिए कि आया क़ुरआन से मुहम्मद साहब की करामातें साबित होती हैं, कि नहीं। सूरह क़मर की पहली आयत में लिखा है कि :-

“اقتربت الساعت وانشق القمر” यानी पास आ लगी वो घड़ी और फट गया चांद लेकिन अक्सर मुहम्मदी कहते हैं कि इस आयत में रोज़-ए-हश्र (क़ियामत के दिन) का ज़िक्र है और हमको इबारत से साफ़ मालूम नहीं होता है, कि इस में मुहम्मद साहब का ज़िक्र है। क्योंकि किसी का नाम इस में मुन्दरज नहीं किया गया। फिर सूरह बनी-इस्राईल की पहली आयत में लिखा है। سبحان الذی اسرً ا بعبد ہ الخ ۔ जिसके ये मअनी हैं पाक ज़ात है जो ले गया अपने बंदे को राती रात अदब वाली मस्जिद से पर ली मस्जिद तक फ़क़त।”

लेकिन इस आयत में भी मुहम्मद साहब का ज़िक्र नहीं है और मसीह की वफ़ात के चालीस बरस बाद टाइटस ने जो रूमी सिपाहसालार था इस मस्जिद को गिरा दिया था। और मुहम्मद साहब के वक़्त तक किसी ने इस जगह मस्जिद ना बनाई थी। और मुहम्मद साहब के वक़्त पर ये मस्जिद मौजूद ना थी। फिर वो किस तरह इस मस्जिद में गए। और कोई ये भी नहीं कह सकता कि फ़ुलाने ने इस मोअजिज़े को देखा। यानी मुहम्मद साहब का बैत-उल-हराम से बैतुल-मुक़द्दस तक जाना। ये भी वाज़ेह हो कि तवारीख़ की बातें सिर्फ़ गवाहों से साबित हो सकती हैं। जब इस बात का कोई पुख़्ता गवाह नहीं है तो ये किस तरह क़ाबिल-ए-एतिबार हो सकता है। ये भी पोशीदा ना रहे कि अगर कोई शख़्स कहे कि मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े किए हैं, तो वो सरासर क़ुरआन के बरख़िलाफ़ कहता है क्योंकि इस में बार-बार लिखा है कि मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े हरगिज़ नहीं किए। अगर दर्याफ़्त करना हो तो सूरह अनआम की इन आयतों में मुलाहिज़ा करो :-

36 आयत “قا لو الو لا نزل علیہ آیتہ ولکن اکثر ھم لا یعلمون ” और कहते हैं क्यों नहीं उतरी इस पर निशानी उस के रब से तू कह कि अल्लाह की क़ुद्रत है कि उतारे कुछ निशानी लेकिन न बहुतों को समझ नहीं और फिर इसी सूरह की एक सौ नौवीं आयत,

واقمواباللہ جھد ایما نہم لئن جاوتھم آیتہ منن بھاقل نما الا یت عنداللہ وما یشع کر انھا ذا جایت لا یومنون

और क़समें खाते हैं अल्लाह की कि अगर उनको एक निशानी पहुंचे अलबत्ता उस को मानें तू कह निशानियाँ तो अल्लाह के पास हैं और तुम मुसलमान क्या ख़बर रखते हो कि जब वो आएँगे तो ये ना मानेंगे।” एक सौ ग्यारवीं, اننا نزلینا الہم الملئکتہ و کلہم للتی وحشر نا علیم کل شی قبلا ما کانو الیو منوالا ان بشا اللہ ولکن اکثر ہم لچھلون और अगर हम न पर उतारें फ़रिश्ते और उनसे बोलें मुर्दे और जिला दें हम हर चीज़ को उन के सामने हरगिज़ मानने वाले नहीं। मगर जो चाहे अल्लाह पर ये अक्सर नादान हैं।” और एक सौ चौबीसवीं, و اذا جا ء تھم آیہ قالوالن نو من حتی نوتی مثل ما اوتی رسول اللہ اللہ علم جنث یجعلوا और जब पहुंचे उन को एक आयत कहें हम हरगिज़ ना मानेंगे। जब तक हमको ना मिले जैसा कुछ पाते हैं अल्लाह के रसूल अल्लाह बेहतर जानता है जहां भेजे अपने पयाम।”

 

फिर सूरह आराफ़ की एक सौ अठाईसवीं, رقل لا املک لنفسی نفعاو لا ضراً ماشا اللہ و لو کنت اعلم الغیب لا سکثرت من الخبر و مامنسی السوء ان اناالا نذیر و بشیر لقوم یومنون۔

“तू कह मैं मालिक नहीं जान के भले और बुरे का। मगर जो अल्लाह चाहे और अगर मैं जान करता ग़ैब की बातों की बहुत खूबियां लेता और मुझको बुराई कभी ना पहुँचती। मैं तो ये हूँ डर और ख़ुशी सुनाने वाला मानने वाले लोगों को।” बाक़ी आइंदा

बक़ीया, मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े किए हैं या नहीं

और सूरह बनी-इस्राईल की बानवें आयत से पिचान्वीं आयत तक :-

وقا لو الن نو من لک حتی لفجر لنامن الارض یجبنوعا ً اوتکون لک جنتہ من فخیل و عنب ففجرا کا نھم خللھا تففیراً اوتسقط السما ء کی زعمت علینا کسفا اوتاتی باللہ ولمکیکتہ قبیلا اویکون لک بیت من ذخرف و ترقی فی السماء ولن نومن رقیک حتی تنزل علینا کتبا تقر و قل سبحان ربی ھل کنت الا بشر رسولا

“और बोले हम ना मानेंगे तेरा कहा जब तक तू ना बहा निकाले हमारे वास्ते ज़मीन से एक चश्मा या हो जाये तेरे वास्ते एक बाग़ खजूर और अंगूर का फिर बना ले तू उस के बीच नहरें चला कर या गिरा दे आस्मान हम पर जैसा कहा करता है टूकड़े टूकड़े या ले आओ फ़रिश्तों को और अल्लाह को ज़ामिन या हो जाये तुझको एक घर सुनहरी या चढ़ जाये तू आस्मान में और हम यक़ीन ना करेंगे। तेरा चढ़ना जब तक ना उतार लादे, हम पर एक लिखा जो हम पढ़ लें तू कह सुब्हान-अल्लाह मैं कौन हूँ मगर एक आदमी हूँ भेजा हुआ फ़क़त।”

और इक्सठवीं आयत :-

وماسعنا ان نرسل باالا یت الا ان کذب بھا الا ولون و اتینا ثمو د الناقہ مبصر ۃ فظلمو بھاو مانرسل باا لا یت الا تخو یفا

“और हमने इस से मौक़ूफ़ (ठहराया गया) कीं निशानियाँ भेजनी कि अगलों ने उनको झुठलाया। और हमने दी समूद को ऊंटनी समझा ने को फिर उस का हक़ ना माना और निशानीयां जो हम भेजते हैं सो डराने को फ़क़त।” और सूरह अम्बिया की पांचवीं आयत, بل قالو اضغات احروم بل فتوہ بل ھو شاعر فلیا تنا بایہ کما ارسل الا ولون

ये छोड़कर कहते हैं उड़ती ख्व़ाब में नहीं झूट बांध दिया है नहीं शेअर कहता है फिर चाहे ले आए हमारे पास कोई निशानी जैसे पैग़ाम लाए हैं पहले।” अब इन आयतों पर ग़ौर करो और देखो इनमें साफ़ पाया जाता है कि मुहम्मद साहब ने मोअजिज़े नहीं किए।

एक दफ़ाअ में ज्वालामुखी (एक इलाक़ा) को गया और उन लोगों से मुलाक़ात की जो मोअजिज़े करने का दावा करते थे। और हक़ीक़त में लोगों को फ़रेब देते थे। मैंने कहा कि मेहरबानी कर के मुझे भी कोई मोअजिज़ा दिखलाए। तब उन्होंने इन्कार किया क्योंकि उन्होंने जाना कि ये अच्छी तरह से तहक़ीक़ (तस्दीक़) करेगा। ऐसा ही जब मुहम्मद साहब इस दुनिया में थे तो बहुत लोग उनको भी कहते हैं कि हमें मेहरबानी कर के ऐसी चंद अलामतें जिनसे नबुव्वत साबित होती है दिखलाए। तो उन्होंने भी इन्कार किया और ये कहा कि ख़ुदा तआला ने ऐसी अलामतों का दिखलाना बंद कर दिया है क्योंकि अगलों ने झुठलाया। जब ये आयतें हम क़ुरआन से मुहम्मदियों को सुनाते हैं। तो वो जवाब देते हैं कि ईसा ने भी कहा कि बुरे लोग निशान ढूंडते हैं लेकिन उनको कभी दिखलाया ना जाएगा। बेशक जब लोगों ने मसीह को आज़माना चाहा उस ने मोअजिज़ा दिखलाने से इन्कार किया। लेकिन उस ने ये कभी नहीं कहा कि ख़ुदा तआला ने ऐसी अलामतों का दिखलाना बंद कर दिया है और ना ये कहा कि सुब्हान-अल्लाह मैं कौन हूँ मगर राह दिखाने वाला।

अब हम इस से ये मालूम करते हैं कि मुहम्मद साहब ने कोई मोअजिज़ा नहीं किया मगर ईसा को मोअजिज़ा करने का कुल इख़्तयार था और अगर वो चाहता तो उन लोगों को भी जो उसे आज़माना चाहते थे मोअजिज़े दिखलाता।

अगर मैं गैब कि बातें जानता होता तो बहुत से फायदे जमा कर लेता।

फिर मुहम्मद इक़रार करते हैं कि क़ुरआन ख़ुद एक मोअजिज़ा है। क्योंकि इस की इबारत ऐसी उम्दा है कि कोई आदमी उस के मुवाफ़िक़ बना नहीं सकता। मैंने माना कि ये सच्च है। मगर संस्कृत की इबारत भी बहुत ही अच्छी है। बेशक कोई शख़्स बेद की संस्कृत इबारत की मानिंद नहीं बना सकता। और बड़े बड़े पण्डित भी कहते हैं कि बेद (हिन्दुवों की किताब) की संस्कृत इबारत की मानिंद कोई बशर नहीं बना सकता। फिर मुहम्मद किस तरह उस को मोअजिज़ा कहते हैं। अगर कोई आदमी ऐसा बड़ा दरख़्त देखे जिसके बराबर और कोई बड़ा दरख़्त ना हो तो वो मोअजिज़ा तसव्वुर नहीं किया जाता। सब लोग जानते हैं कि दाऊद के वक़्त एक पहवान मुसम्मा जोलियत था जिसे उस ने मार डाला था उस के क़द के मुवाफ़िक़ कोई दूसरा शख़्स ना था। मगर कोई शख़्स इतने बड़े क़द को मोअजिज़ा नहीं कहता था। कोई मुहम्मदी होमर की मानिंद यूनानी इबारत और गुल की मानिंद लातीनी इबारत और कालीदास की मानिंद संस्कृत इबारत हरगिज़ नहीं बना सकता है। फिर क्या ये भी मोअजिज़ा होगा? फिर अक्सर मुहम्मदी कहते हैं कि मुहम्मद साहब के वक़्त भी कोई शख़्स ऐसा ना था कि ऐसी इबारत बनाने की लियाक़त (क़ाबिलीयत) रखता। बल्कि तमाम लोग यही इक़रार करते थे, कि क़ुरआन की इबारत के मुवाफ़िक़ कोई बशर इबारत नहीं बना सकता। कौन जानता है कि मुहम्मद साहब के वक़्त सब लोग ऐसा ही कहते थे सब दाना आदमी जानते हैं कि आजकल फ़्रांस जर्मनी इंग्लिस्तान अस्ट्रिया अमरीका वग़ैरह मुल्कों में बहुत लोग इब्रानी योनानी संस्कृत और अरबी ज़बान को बख़ूबी पढ़ते हैं। और उन ज़बानों की किताबो को अच्छा कमा-हक़्क़ा (ठीक ठाक, बख़ूबी) समझते हैं। मगर किसी शख़्स ने कभी नहीं कहा कि क़ुरआन की इबारत दूसरी ज़बानों की इबारत से फ़ौक़ियत (सबक़त) रखती है। अगर मुहम्मदी इब्रानी योनानी संस्कृत और लातीनी ज़बान को तहसील (हासिल) करें तो बड़ा फ़ायदा उठाएं।

क्योंकि इन ज़बानों में निहायत उम्दा और क़दीमी किताबें लिखी गई हैं मसलन वो लोग जो दिल्ली में रहते हैं उन्होंने और कोई बड़ा आलीशान शहर नहीं देखा। वो तो ज़रूर यही कहेंगे कि दिल्ली की मानिंद और कोई शहर दुनिया की सतह पर नहीं है। अगर वो और मुल्कों की भी सैर करें और सेंट पीटरज़ बर्ग वायना मास्को, पार्स, न्यूयार्क, लीवर पोल, लंडन, वग़ैरह शहरों को देखकर फिर दिल्ली की तारीफ़ जैसी पहले करते थे हरगिज़ ना करेंगे और और शहरों पर उसे फ़ौक़ियत ना देंगे। इसी तरह अगर मुहम्मदी सेसरवीमा सतहर व रजल हारिस होमर मिल्टन वग़ैरह मुसन्निफ़ों की किताबें पढ़ें। और क़ुरआन से उनका मुक़ाबला करें तो वो भी ज़रूर कहेंगे कि इन किताबों की इबारत बेशक क़ुरआन की इबारत से उम्दा है।

ये भी वाज़ेह हो कि इबारत मज़्मून से ऐसी निस्बत रखती है जैसी पोशाक (लिबास) आदमी से, इस का मतलब ये है कि बुरे लोग भी अच्छी पोशाक पहन सकते हैं। अब बेहतर ये है कि हम इबारत की फ़िक्र हरगिज़ ना करें। लेकिन मतलब पर ख़ूब ग़ौर करें। अगर क़ुरआन की ताअलीम सब मज़्हबी किताबों की ताअलीम से अच्छी हो तो मैं इस को ज़रूर ख़ुदा का कलाम समझूंगा। और मानूँगा लेकिन इस का ज़िक्र आगे किया जाएगा। फिर मुहम्मदी कहते हैं कि मुहम्मद साहब के पैरओं ने बेशुमार मोअजिज़े किए हैं इस बात का ज़िक्र करना ला-हासिल है। क्योंकि जब मुहम्मद साहब के मोअजिज़े साबित ना हुए तो उन के पैरओं के मोअजिज़े किस तरह साबित हो सकते हैं। आइंदा

मज़्हब का अस्ल काम क्या है?

जैसा हम लोग मज़्हब के नाम से कुछ काम करते या करना चाहते हैं। वैसा ही मज़्हब ख़ुद हमारे लिए कुछ काम करता है। और जहां जानबीन (दोनों जानिब से, फ़रीक़ैन) के काम बराबर हो जाएं वहां कहा जाएगा कि मज़्हब की तक्मील हुई।

What is the Purpose of Religion?

मज़्हब का अस्ल काम क्या है?

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan March 20, 1884

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 20 मार्च 1884 ई॰

जैसा हम लोग मज़्हब के नाम से कुछ काम करते या करना चाहते हैं। वैसा ही मज़्हब ख़ुद हमारे लिए कुछ काम करता है। और जहां जानबीन (दोनों जानिब से, फ़रीक़ैन) के काम बराबर हो जाएं वहां कहा जाएगा कि मज़्हब की तक्मील हुई।

आम लोगों के ख़यालात मज़्हब की निस्बत सिर्फ उन्हीं कामों पर मुन्हसिर पाए जाते हैं, जो वो मज़्हब के नाम से करते हैं और बस। वो मज़्हब की बैरूनी अलामात की पाबंदी ज़रूरी समझते हैं। यानी एक मज़्हब का जामा पहन लेना मसलन चोटी और जेनियु (वो बटा हुआ धागा जिसे हिंदू लोग बुद्धहि की तरह गले में डालते रहते हैं) का क़ायम रखना। खतना और शरई मूछों का लिहाज़ रखना इस्तबाग (बपतिस्मा) लेना वग़ैरह-वग़ैरह। वो समझते हैं कि पूजापाट और ज़ोहद व रियाज़ (पाकीज़गी की मश्क़) करना। दान पुन क़ुर्बानी और ज़कात का देना। वाअज़ व ताअलीम और इबादत में अपने आपको मसरूफ़ रखना। हज और तीर्थ (मुक़द्दस मुक़ाम जहां लोग नहाने और यात्रा के लिए जाते हैं) के लिए दूर दराज़ सफ़र करना मज़्हब है।

लेकिन मैं कहता हूँ कि ये मज़्हब के काम नहीं हैं। बहुत लोग तारिक-उल-दुनिया (दुनिया को छोड़कर) हो कर गोशा नशीन (तन्हाई में रहने वाला) या

बन मानुस बन जाते हैं। और ज़बान से अल्लाह अल्लाह या राम-राम जपना और जिस्म को तरह तरह की तक़्लीफों में डालना मज़्हब का काम समझते हैं लेकिन ये मज़्हब नहीं है। बहुत से मुसलमान सूफ़ी तर्क तअय्युन और बहमा औसत की क़ील व क़ाल (बातचीत, गुफ़्तगु) और हिंदू ज्ञानी (आलिम, फ़ाज़िल) मह्ज़ ज्ञान (इल्म, अक़्ल, फ़हम) के चर्चे को मज़्हब समझे हुए हैं। लेकिन ये इसी क़िस्म की गुफ़्तगु है जो फ़िलोसफ़ी या मन्तिक़ी मुबाहिसों में काम देती है। और जिसमें हार जीत का दर्जा मद्द-ए-नज़र रहता है पर वो मज़्हब नहीं है। बहुत लोग दिन या साल के मुक़र्ररा वक़्तों की इबादत का नाम मज़्हब रखते हैं। गोया मज़्हब को एक शुग़्ल समझते हैं जो ख़ास वक़्तों में काम देता है और बाक़ी औक़ात में तह कर के धर दिया जाता है। बहुत लोग नेचर (दुनिया, क़ुद्रत, फ़ित्रत) की आड़ में छिप कर इलावा पाबंदीयों से आज़ादी हासिल कर लेते हैं। और मह्ज़ उन्हीं बातों को मानते हैं जिनको उन की अक़्ल नेचर से महदूद कर सकती है। और इसी का नाम मज़्हब रखते हैं। लेकिन ये मज़्हब नहीं है। बाअज़ वाइज़ों की पुर तासीर कलाम और बाअज़ मुसन्निफ़ों की असर अंगेज़ तहरीर हमारी आँखों से आँसू बहा देती है। और गुनाहों की ख़राबी और ज़िल्लत इस दर्जे तक दिखाती है, कि हम एक दम के लिए बिल्कुल डर जाते और दिल में कोशिश करते हैं कि गुनाह से तौबा करें और फिर कभी उस के गर्द न भटकें।

दुनिया में जैसे नेक लोग हैं वैसे बद (बुरे) भी हैं

लेकिन ये बस नहीं है ये सब वही काम हैं जो हम मज़्हब के लिए करते हैं। और इनमें वो शामिल नहीं हैं जो मज़्हब हमारे लिए करता है और गो हमारे वो काम एक तरह से मज़्हबी काम हैं क्योंकि मज़्हब की पाबंदी में सरज़द होते हैं ताहम हमारे किए और मज़्हब के किए हुए कामों में बड़ा फ़र्क़ है। मज़्हब के लिए आप काम करना और मज़्हब को अपने ऊपर करता हुआ पाना दो मुख़्तलिफ़ ख़बरें हैं हमारे काम करने के साथ ज़रूर है कि मज़्हब भी हम पर अपना काम करे और हमारी रूहों में तब्दीली पैदा कर दे।

अल-मुख़्तसर मज़्हब हमारी अक़्ल या हमारे जिस्म का काम नहीं है ख़ुदा की बाबत ख़ाली खुली सोच रखना मज़्हब नहीं है इस के हुज़ूर चढ़ावा चढ़ाना ख़्वाह हाथ से हो ख़्वाह मुँह से मज़्हब नहीं है नफ़्सकुशी और तर्क-ए-आलाइक़ (ताल्लुक़ात, बखेड़े) और अपने आप में ज़ोहद व याज़त (पाकीज़गी की मश्क़) की आदत डालना भी मज़्हब नहीं है अलबत्ता ये सब बातें मज़्हब में शरीक हो सकती हैं। और मज़्हब के काम का नतीजा कही जा सकती हैं इल्ला मज़्हब नहीं हैं पस जब ये नहीं तो सवाल पैदा होता है कि फिर मज़्हब का काम क्या है?

मज़्हब का अस्ल काम क्या है?

हम अपने पिछले पर्चे नम्बर 12 में दिखला चुके हैं कि मज़्हब इंसान की अख़्लाक़ी ज़रूरीयात को पूरा करता। और अपनी तासीर (अमल, नतीजा, ख़ासियत) से उसे ऐसा बना देता है, कि वैसा और तरह से बनना मुहाल (मुश्किल) है और यह सच्च है। क्योंकि मज़्हब एक आस्मानी ताक़त है और आस्मानी ताक़त के बग़ैर इंसान ख़ुद अपनी कोशिशों से ख़ुदा की नज़र में जचने के क़ाबिल नहीं ठहर सकता। लेकिन इंसानी ज़रूरीयात एक और क़िस्म की भी हैं जो अक्सर उस के दिल में खटकती हैं। और वो भी मज़्हब की इमदाद के सिवा और किसी चीज़ से पूरी नहीं हो सकतीं।

हम अपनी तबीयत में दो मुख़्तलिफ़ ख़्वाहिशें देखते हैं, जो अपने होने में दोनों ज़बरदस्त हैं। एक नेक काम करने की और दूसरी बदी करने की। और अक्सर बदी की ख़्वाहिश को नेकी पर ग़ालिब (ज़ोर-आवर) पाते हैं। और यही ख़याल हमको एक ख़दशा में डालता और एतराज़ पैदा करता है, कि क्या ये दोनों मुतज़ाद सिफ़तें क़ुदरती हैं अगर क़ुदरती हैं तो ऐसा क्यों हुआ। ये तो किसी तरह ख़याल नहीं किया जा सकता कि मआज़-अल्लाह ख़ुदा, नापाक या बेमुंसिफ़ (इन्साफ़ न करने वाला) है। क्योंकि हम तबई तौर पर उस को ग़ायत व नेक ग़ायत (अंजाम) या गायत बयान करने वाला और क़ादिर-ए-मुतलक़ मानते हैं। और ऐसे ख़ौफ़नाक ख़याल को मुश्किल से जगह दे सकते हैं कि वो अपनी मख़्लूक़ात की कुछ परवाह नहीं करता। और उमूमन उस को नफ़्सानी जोशों के रहम पर छोड़ता ही नहीं। हम बज़ाते यक़ीन करते हैं कि ख़ुदा जैसा क़ादिर-ए-मुतलक़ है वैसा ही मुतलक़ पाक और मुतलक़ प्यार है। वो हरगिज़ नहीं चाहता कि उस की मख़्लूक़ात हलाकत के रास्ते में चले या सीधे राह से भटके। पस जब ये यक़ीन है तो फिर हमारी मौजूदा अंदरूनी हालत का तज़बज़ब (शक व शुब्हा) क्यों है। अब इस तज़बज़ब के हटाने में ना हमारी अक़्ल कुछ काम कर सकती है और ना हमारा कान्शियस (इन्सानी ज़मीर) कुछ इमदाद दे सकता है। और आख़िरश (आख़िरकार) हमको मज़्हब की तरफ़ रुजू होना पड़ता है। क्योंकि इस का ईलाज मह्ज़ मज़्हब के हाथ में है वही उसकी तर्दीद कर सकता है और वही अपनी तासीर से इस खटकता को दिल से साफ़ निकाल है।

फिर जब हम चारों तरफ़ इस वसीअ दुनिया को देखते हैं तो इस में बेशुमार बे तर्तिबियाँ पा कर एक और नए मज़्हब में पड़ जाते हैं।

हम देखते हैं कि दुनिया में जैसे नेक लोग हैं वैसे बद (बुरे) भी हैं। लेकिन नेक हमेशा अपने इरादों में कामयाब नहीं देखे जाते हालाँकि बद (बुरे) जिनको हम ख़राब जानते हैं अक्सर बा मुराद और बाइकबाल नज़र आते हैं। नेक आदमी जिनसे दुनिया को नेक फ़ायदे पहुंचते या पहुंचने वाले हैं। बहुत से जवान उम्र में मरते और अपनी जोरु, बच्चे वग़ैरह को अपने रिश्तेदारों या ग़ैरों के रहम पर छोड़कर चल बस्ते हैं। हालाँकि एक शरीर आदमी जो लोगों को नुक़्सान पहुंचा कर ख़ुश होता है अपनी पूरी उम्र तक जीता और तमाम बैरूनी हालतों में महफ़ूज़ नज़र आता है। और ये सिर्फ एक जगह या एक ख़ास वक़्त का इत्तिफ़ाक़ नहीं है बल्कि हर जगह और हर वक़्त बराबर देखा जाता है। पस अगर कोई नेक और क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा मौजूद है। जो हमेशा नेक आदमीयों को बीमार करता और बदी से मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाला) है। तो बहुत से नेक आदमी तामर्ग क्यों ना ख़ुश और ख़राब आदमी उम्र-भर ख़ुश रहते हैं। हमारी अक़्ल ऐसे सवालों के जवाब की अशद ज़रूरत रखती है क्योंकि बग़ैर मिलने शाफ़ी जवाब के वो दुनिया के मालिक-ए-कुल पर कामिल भरोसा नहीं रख सकती।

नेक हमेशा अपने इरादों में कामयाब नहीं देखे जाते

हमारी अक़्ल जब इस तरह के अंदरूनी और बैरूनी मख़्सूस में पड़ जाती है और देखती है कि नेक और बद का अंजाम मौत है। जिसके नाम से हर एक ज़िंदा मख़्लूक़ काँपती है तो इस की वजह दर्याफ़्त करना चाहती है। वो सवाल करती है कि नेक ख़ुदा अपनी मख़्लूक़ात को बदी के फंदे में क्यों फंसने देता है अगर वो उस का नेक होना पसंद करता है तो क्यों उस को बिल्कुल नेक नहीं पैदा करता। गो बाअज़ लोग रफ़्ता-रफ़्ता इसी दुनिया में नेक बन जाते हैं। मगर बहुत सी मुसीबत और तक्लीफ़ के बाद फिर अगर वो नेकों का दोस्त है तो नेकों को तक्लीफ़ में क्योंकर देख सकता है। ये तो नहीं हो सकता बाअज़ का क़ौल है कि दुनिया मह्ज़ एक खेल है जिसको उस बड़े खिलाड़ी ने मह्ज़ अपने दिल बहलाने के वास्ते फैला रखा है। नहीं बेशक इस में कोई आला मतलब मद्द-ए-नज़र है जो हमारे इदराक (अक़्ल) से बाहर है और ज़रूर इस में कोई ना कोई भारी सर मस्तंर है जिसका इफ़शा (ज़ाहिर होना) हम पर अज़ ख़ुद नहीं हो सकता और ना हम ख़ालिक़ की मुहब्बत और उस की मुतलक़ क़ुद्रत पर आसानी से क्योंकर यक़ीन कर सकते।

अल-मुख़्तसर क्या वजह है कि जब वो नेक है और हमसे नेकी चाहता और हमको नेक बना सकता है और फिर नहीं बनाता। हमको तमाम बुराईयों से महफ़ूज़ रखना चाहता और रख सकता है और फिर नहीं रखता। ख़ुद बदी से नफ़रत करता है और फिर रोकने की क़ुद्रत रखता है और फिर नहीं रोकता। इन सवालों का जवाब मज़्हब के मुताल्लिक़ है और सच्चा मज़्हब है इन मुअम्मों (उलझे हुए मसले) को हल करता और हमारी तस्कीन कर सकता है और अगर ना करे तो फिर उस के होने का फ़ायदा ही क्या है।

 

मज़्हब का अस्ल काम क्या है?

 

हम अपने पिछले पर्चे में दिखला चुके हैं कि मज़्हब का अस्ल काम इंसान की अख़्लाक़ी और अक़्ली ज़रूरीयात का पूरा करना है। और अब इस आर्टीकल में सिर्फ इस अम्र के बतलाने की कोशिश करेंगे कि सच्चे मज़्हब की पहचान क्या है।

अगर हम तहज़ीब अख़्लाक़ की कुल बातों का जो देख़ने में भली और अक़्ल को ख़ुश करने वाली हैं। लब-ए-लबाब (खुलासे का ख़ुलासा) लेकर अपने लिए एक दस्तूर-उल-अमल (क़ानून, रिवाज) बना दें। और उस को मज़्हब क़रार दें। तो ये बस नहीं होगा या अपने चारो तरफ़ नज़र दौड़ा दें। और जो बातें हमारे मज़ाक़ के पसंद हों या हमारे ख़यालात को तहरीक (हरकत देना) दे सकती हों कुछ यहां और कुछ वहां से इंतिख़ाब कर के उस का नाम मज़्हब रखें। तो ये भी काफ़ी नहीं है कि हमारे लिए एक असली और मोअस्सर ताक़त की ज़रूरत है, जो हम पर अपना असर डाले और अपनी तासीर से हम में ऐसा नतीजा पैदा करे जिसकी अज़मत और फ़ज़ीलत हम अपने पिछले पर्चों में बयान कर चुके हैं। ये सच्च है कि दुनिया में बाअज़ मज़ाहिब ऐसे मौजूद हैं। जो आदमजा़द की ज़रूरीयात को किस क़द्र कम व बेश पूरा कर सकते हैं। लेकिन जब कि कुल ज़रूरीयात पर हावी (ग़ालिब) नहीं हैं इस वास्ते तस्कीन (तसल्ली) के क़ाबिल नहीं हैं। हम मज़्हब को इलाही ताक़त मानते हैं। जो मह्ज़ ख़ुदा हमारे ख़ालिक़ की जानिब से हमको उस की मर्ज़ी के मुताबिक़ बनाने के लिए तहरीक पाती है और जो मज़्हब उस की जानिब से आता ही है। हक़ीक़त में इस सिफ़त (ख़ूबी) से मौसूफ़ (जिसकी तारीफ़ की जाये) पाया जाएगा, वही बज़ाते क़वी (ज़ोर-आवर, ताक़तवर) और मज़्बूत होगा। और वही अस्ल में सच्चा मज़्हब और हमारी तबीयत की कुल ज़रूरीयात और ख़्वाहिशों को पूरा कर सकेगा। और जब उस का मिंजानिब अल्लाह होना साफ़ और माक़ूल (मुनासिब) शहादतों (गवाहियों) से साबित होगा तो वही एतिक़ाद (यक़ीन) और एतिमाद के क़ाबिल होगा। वर्ना इंसान उस मज़्हब से कभी तस्कीन नहीं पा सकता। क्योंकि उस में ना ज़ाती वहदानियत (तौहीद) है और ना मोअस्सर ताक़त।

हम दरख़्त में मज़बूती लचक और ख़ूबसूरती तीनों सिफ़तें मुश्तर्क पाते हैं। और ये इस बाइस से है कि ख़ुदा ने ख़ुद उस को अपनी क़ुदरत-ए-कामिल से उगाया है और वो एक ही जड़ से बढ़कर अपने पूरे क़द व क़ामत और ताक़त को पहुंच गया है। लेकिन अगर हम ख़ास अपनी सनअत से एक दरख़्त बना दें जो अस्ल में पीपल का दरख़्त हो और उस पर जामुन का छिलका चढ़ा कर आम की टहनियां और उन पर नीम की पत्तियाँ जमा दें। और शगूफ़ों की जगह गुलाब के फूल और फल की जगह सेब लगा दें तो वो किसी काम का नहीं होगा क्योंकि उस में ना ताक़त होगी ना इस्तिमाल का फ़ायदा और ना ख़ूबसूरती।

पस मज़्हब भी एक ज़िंदा दरख़्त ख़ास ख़ुदा की पैदाइश का होना चाहिए। जिसमें इंसानी ज़रूरीयात के लिहाज़ से सख़्ती, लचक और ख़ूबसूरती बराबर पाई जाएं और जड़ की मज़बूती भी। ताकि उस दरख़्त को आंधीयों के तूफ़ान से जो अक्सर उस के गर्द उमंडे रहते हैं महफ़ूज़ रख सके। इंसान की नफ़्सानी शहवतों के जोश उस की मग़रूरी उस की ख़ुदी उस की ख़ुदग़रज़ी उस के शकूक सब के सब मज़्हब के लिए ख़ौफ़नाक तूफ़ान हैं और मह्ज़ वही मज़्हब जिसकी जड़ मज़्बूत होगी उन के मुक़ाबले में क़ायम रह सकेगा और दूसरा नहीं।

जब ये हालत है तो फिर एक ऐसे मज़्हब पर जो अपनी सच्चाई के सबूत की कुल्ली (पूरा) इत्मीनान नहीं दिला सकता भरोसा करना गोया सराब (धोका) से आब तलाश करना है। और इस वास्ते इंसान का हक़ बल्कि उस का फ़र्ज़ है कि मज़्हब की जड़ यानी अस्लियत की ख़ूब तहक़ीक़ करे और देखे, कि वो ख़तरे के वक़्त मज़्बूत रह सकता है या नहीं और नीज़ ये कि वो मेरे हक़ में क्या कर रहा है। अगर हमारी मौजूद हालत बमुक़ाबला गुज़श्ता हालत के इस अम्र का यक़ीन नहीं दिला सकती कि हम पिछले साल की निस्बत किस क़द्र बेहतर हो गए हैं। या देखते हैं कि अपने नफ़्स-ए-अम्मारा के मुफ़सिद (फ़साद करने वाला) जोशों को बनिस्बत साबिक़ कुछ ज़्यादा मुतीअ (ताबे) नहीं कर सकते। या अपने कमज़ोर कंगाल और मुसीबतज़दा हम-जिंसों की हम्दर्दी का ख़याल पहले से बढ़कर नहीं रख सकते या ख़ुदी और ख़ुदग़रज़ी हमारी तबीयत से आगे की निस्बत कुछ कम नहीं हुई। तो ये अमरूद शक़ों से ख़ाली ना होगा या तो हमारा मज़्हब झूटा है। जो अपने कामों में सच्चाई की तासीर मुतलक़ नहीं दिखला सकता। और बाहम दीदा व दानिस्ता (जान-बूझ कर) अपनी ज़ईफ़-उल-एतिक़ादी (कमज़ोर एतिमाद) का और शूरा पुश्ती (लड़ाई, झगड़ा) से उस की तासीर अपने दिल पर जमने नहीं देते। पस दोनों हालतों में हमें ख़ुदा से दुआ मांगनी चाहिए, कि वो हमको कामिल रोशनी और कामिल ताक़त बख़्शे ताकि हम उस का सच्चा रास्ता देखने और उस पर ताज़ीस्त (तमाम उम्र) साबित क़दम रहने पर क़ादिर हो जाएं और अपने आपको ऐसा बनाएँ जैसा वो हमारा बनना पसंद करता है।

हम बड़े अफ़्सोस से लिखते हैं कि जनाब सय्यद मौलवी यूसुफ़ हामिद मसीही ने 13 अप्रैल 1884 ई॰ को जनरल हॉस्टल मदारिस में बा-रज़ा जिगर इंतिक़ाल किया। साहब मासूर बड़े सर-गर्म देसी मसीहियों में से एक मसीही थे बलिहाज़ इल्मीयत व तजुर्बा कारी एक मशहूर आलिम थे। जब से ये मसीही हुए थे। इशाअत मज़्हब ईस्वी में बड़ी कोशिश करते रहे ख़ुसूसुन गुज़श्ता सह माही में बड़ी सर गर्मी के साथ शहर मद्रास में अहले इस्लाम के साथ दीनी मुबाहिसा जिसका ज़िक्र सिलसिला-वार अख़्बार नूर अफ़्शां में शाएअ हो चुका है। हमको उम्मीद है कि उन के तमाम काम ज़रूर फल दिखाएँगे। अगर कोई साहब उनकी मुख़्तसर और सच्ची सवानिह उम्र लिख कर हमारे पास रवाना करें तो इस को हम बखु़शी तमाम अपने अख़्बार में जगह देंगे। आख़िर में हम दुआ करते हैं कि ख़ुदावन्द उनके रिश्तेदारों और दोस्तों को सब्र और तसल्ली बख़्शे। आमीन

दीन-ए-ईस्वी सब के लिए है

चंद रोज़ हुए एक तर्बीयत याफ्ताह हिंदू रईस ने हमसे बयान किया। मसीह अख़्लाक़ी मुअल्लिमों में से सबसे अच्छा था और हर एक बात जो उसने फ़रमाई आपके लिए सच्च व रास्त (दुरुस्त, ठीक) है। लेकिन ये ताअलीम हमारे लिए ना थी। बाइबल में कहीं नहीं लिखा कि वो हमारे लिए थी। ख़ैर देखा जाएगा अज़रूए बाइबल के मसीह की पैदाइश से थोड़ी देर बाद एक फ़रिश्ते

Christianity is for everyone

दीन-ए-ईस्वी सब के लिए है

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan March 11, 1875

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 11 मार्च 1875 ई॰

चंद रोज़ हुए एक तर्बीयत याफ्ताह हिंदू रईस ने हमसे बयान किया। मसीह अख़्लाक़ी मुअल्लिमों में से सबसे अच्छा था और हर एक बात जो उसने फ़रमाई आपके लिए सच्च व रास्त (दुरुस्त, ठीक) है। लेकिन ये ताअलीम हमारे लिए ना थी। बाइबल में कहीं नहीं लिखा कि वो हमारे लिए थी। ख़ैर देखा जाएगा अज़रूए बाइबल के मसीह की पैदाइश से थोड़ी देर बाद एक फ़रिश्ते ने कई एक चौपानों (चरवाहे, गडरीए) पर ज़ाहिर हो कर कहा मैं तुम्हें एक बड़ी ख़ुशख़बरी सुनाता हूँ। जो सब लोगों के वास्ते है ये ख़ुशख़बरी नजातदिहंदा की पैदाइश थी। इसी जगह लिखा है कि मजूसी मशरिक़ से यरूशलम में उस की परस्तिश करने को आए। ज़ाहिर होता है कि मशरिक़ किसी दौर के मुल्क से मुराद है अग़्लब (मुम्किन) है कि फ़ारस हो। पस मसीह की पैदाइश के वक़्त कम से कम दो क़ौमों के लोग उस पर ईमान लाए और फ़रिश्ते ने बयान किया, कि वो सब आदमीयों के लिए बचाने वाला होगा। तीस बरस की उम्र में मसीह मुनादी करने लगा।

अब देखना चाहिए कि उसने किन लोगों को ताअलीम दी इस एक आदमी ने एक मज़्हब की बुनियाद डालनी चाही कोई मसीही ना था कोई ऐसा आदमी ना था जिसने उसे पहले क़ुबूल किया हो, ताकि वो उस की तरफ़ मुख़ातिब हो कर अपने मसाइल सुना सके। इस बात पर उस ने कभी इशारा ना किया, कि मेरे पैरों (पीछे चलने वाले) सिर्फ एक ही क़ौम के आदमी होंगे। इलाही इंतिज़ाम के मुवाफ़िक़ वो दुनिया में यहूदी हो कर आया और यहूदीयों के दर्मियान मुनादी करनी शुरू की। लेकिन उस ने अपनी ताअलीम उन्हीं के दर्मियान महदूद ना रखी। सामरी लोग यहूदीयों के गिरोह से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ क़ौम थी मसीह ने उन्हें सिखलाया। और बाअज़ उनमें से उस पर ईमान लाए रूमी सूबेदार और कनआन के बाअज़ आदमीयों का ज़िक्र है जो मसीही हुए। जब यरूशलम में सब क़ौमों से बहुत से आदमी जमा हुए मसीह ने अपनी ताअलीम में कभी ना फ़रमाया, कि मेरा कलाम बनिस्बत और क़ौमों के यहूदीयों के लिए ज़्यादा है अगरचे उस ने पहले यहूदीयों के दर्मियान मुनादी की तो भी बहुतेरे उस पर ईमान ना लाए। इसी लिए उस ने बादअज़ां अपने शागिर्दों को हुक्म दिया कि और लोगों के पास जाएं।

अब हम उस के कलाम में से चंद एक बातें पेश करेंगे। जो इस मज़्मून पर गवाही देती हैं। हम उन्हें मत्ती की इन्जील से निकालेंगे 8 बाब की 11, आयत में लिखा है मैं तुमसे कहता हूँ कि बहुतेरे पूरब और पक्षिम से आएँगे। और अबराहाम और इज़्हाक़ और याक़ूब के साथ आस्मान की बादशाहत में दाख़िल होंगे। इस से ये मअनी हैं कि बहुत सी क़ौमों के लोग मसीही होंगे। 12 बाब की 50 आयत में मसीह ने फ़रमाया जो कोई मेरे बाप की जो आस्मान पर है मर्ज़ी पर चलेगा। वही मेरा भाई और बहन और माँ है। जो कोई ख़्वाह यहूदी या ग़ैर क़ौम अंग्रेज़ या हिंदू ख़ुदा की मर्ज़ी पर चलता है मसीह से अज़ीज़ रिश्ता रखता है। 13 बाब की 37, 38 आयात में उस ने अपने तईं और अपने मुनादी के काम को एक बीज बोने वाले किसान से तश्बीह देकर फ़रमाया, कि वो जो अच्छा बीज बोता है इब्ने आदम है और खेत दुनिया है मसीह की अक्सर ताअलीम में साफ़ कहा जाता है, कि ये उन के वास्ते है जो सुने और जहां ये नहीं कहा जाता तो भी यही मुराद है। फ़िक़्रह ज़ेल हिंदू के हक़ में कैसी अच्छी मुनासबत (ताल्लुक़) रखता है जिनमें से बाज़ों को अगर मसीह पर ईमान लाएं कैसी तक्लीफ़ बर्दाश्त करनी पड़ती है। 16 बाब की 24 से 27 आयत तक यूं लिखा है, अगर कोई आदमी मेरे पीछे आना चाहे तो वो अपना इन्कार करे। और अपनी सलीब उठा कर मेरी पैरवी (फ़रमांबर्दारी) करे। क्योंकि जो कोई अपनी जान को बचाना चाहे उसे बचाएगा। क्योंकि आदमी को क्या फ़ायदा है अगर सारी दुनिया को हासिल करे। और अपनी जान को खोदे या आदमी अपनी जान के बदले क्या दे सकता है। फिर 18 बाब की 4 आयत जो कोई इस छोटे लड़के की मानिंद अपने तईं हक़ीर (छोटा) जानेगा वही आस्मान की बादशाहत में सबसे बड़ा होगा। और फिर 11 आयत में इब्ने आदम खोए हुओं को बचाने के लिए आया है। मसीह हर एक गुनेहगार को जो ख़ुदा से बर्गश्ता (भटका हुआ) हुआ बचाने को आया। 24 बाब में मसीह दुनिया के ख़त्म होने से पेश्तर अपनी दूसरी आमद के अलामात के बयान करने में 14 आयत में यूं फ़रमाता है, कि बादशाहत की ये ख़ुशख़बरी दुनिया में सुनाई जाएगी। ताकि सब क़ौमों पर गवाही हो और उस वक़्त आख़िर आएगा। बहुत सी और ऐसी आयात पेश की जा सकती हैं। लेकिन हम सिर्फ एक और पेश करेंगे। सारे आस्मान और ज़मीन का इख़्तियार मुझे दिया गया है इसी लिए तुम जा कर तमाम क़ौमों में मुनादी करो और बाप और बेटे और रूह-उल-क़ुद्दुस के नाम से बपतिस्मा दो और उन्हें सिखलाओ कि उन सब बातों को जिनका मैंने तुम्हें हुक्म दिया है मानें और देखो मैं हमेशा दुनिया के आख़िर तक तुम्हारे साथ हूँ।

क्या इन अल्फ़ाज़ का ज़्यादातर सफ़ाई से बयान हो सकता है, कि मसीह ने अपनी ताअलीम से हिन्दुओं और अंग्रेज़ों के लिए जैसा कि यहूदीयों के लिए इरादा किया था उस के सऊद (आस्मान पर चढ़ना) से सिर्फ दस रोज़ बाद बड़ी ईद के वक़्त जब कि यरूशलेम में हमेशा बहुत से मुसाफ़िर जमा हो जाते थे। मसीहियों पर वहां रूह-उल-क़ुद्दुस का अजीब नुज़ूल (नाज़िल) हुआ। जिसके सबब से तीन हज़ार आदमी मसीही हुए। ये बहुत ही मुख़्तलिफ़ क़ौमों और एशीया अफ़्रीक़ा और यूरोप के मुख़्तलिफ़ हिस्सों के थी। अग़्लब (मुम्किन) है कि बहुत से उन में हिन्दुस्तान से भी दूर के मुल्कों से आए होंगे। लेकिन अमरीका और इंग्लिस्तान से नहीं आए थे। अगर बाइबल बाशिंदगान अमरीका के लिए सच्च है तो हिन्दू के वास्ते भी वैसी ही सच्च है। पस ये मसीह के इस दुनिया को छोड़ने के बाद जल्द ज़ाहिर हुआ कि उस का आना सब लोगों के लिए बड़ी ख़ुशी का मसर्रदह (बशारत) साबित होना था। फ़ौरन शागिर्द तमाम मुल्कों में जाने लगे और बाज़ों ने हिन्दुस्तान में भी आकर मसीह की नजात की बशारत (ख़ुशख़बरी) दी।

अब अगर मसीह ने वैसी ही ताअलीम दी जैसा कि उसी के कलाम से ज़ाहिर होता है कि वो सब गुनेहगारों के बचाने को आया और अगर हर एक बात जो उस ने फ़रमाई सच्च है तो हिन्दू को उसे क़ुबूल करना चाहिए।

अगर हिंदू किसी और तरह से नजात पा सकते हैं तो या तो मसीह ने बहुत ही फ़रेब (धोका) खाया वो एक फ़रेबी था क्योंकि उस ने कहा कि कोई बाप के पास बग़ैर मेरे आ नहीं सकता। इलावा अज़ीं अगर मसीह अख़्लाक़ी मुअल्लिमों में सबसे अच्छा था जैसा कि बहुत से हिंदू क़ुबूल करते हैं। तब क्यों हिन्दू को अच्छी बात ना माननी चाहिए जब कि वो इस बात को मान सकते या नहीं मान सकते हैं। दीने ईस्वी का सब लोगों के लिए होना उस की एक आला फ़ज़ीलत (इल्म व फ़ज़्ल) है ख़ासकर ये उस वक़्त दिलकश है, जब कि वो दीन-ए-हनूद से मुक़ाबले किया जाता है। जो और सबको रद्द कर के कहते हैं कि ये सिर्फ़ हमारे ही वास्ते है। सिर्फ एक ही ख़ुदा है और सब आदमीयों ने उस के हुज़ूर गुनाह किया है। लेकिन ख़ुदा ने अपनी मेहरबानी से अपने इकलौते बेटे को दुनिया में भेजा है ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।

इलावा अज़ी उस ने फ़रमाया है ज़मीन पर आदमीयों के दर्मियान कोई दूसरा नाम नहीं बख़्शा गया। जिससे हम नजात पा सकें। अगर मसीह सब हिन्दू के वास्ते मुआ है और अपने शागिर्दों को हुक्म दिया है कि उन को मिस्ल सारी दुनिया को उस की बड़ी मुहब्बत की ख़बर दें तो क्या और मुल्कों के मसीहियों और ख़ासकर उन को जिन्हों ने इन में से मसीह को क़ुबूल किया है। हत्तल-इम्कान कोशिश ना करना चाहिए कि इस हुक्म को मानें। और अगर कोई भी हुक्म ना होता तो मसीह की रूह उस के पैरौओं (पीछे चलने वाले) को ऐसा मिज़ाज बख़्शती कि वो वही ख़बर देते जिससे वो ख़ुद बरकत पा चुके थे।

मसीह पर ईमान रखने का बयान

ईमान की ख़ासियत और उस की हद पाक कलाम के हर एक वर्क़ में उम्दा अलामात ईमान की बयान की गई हैं। और जो तासीरात उस की गुरु हागर वह ख़ल्क़त ने बयान की हैं वो सब बजा हैं। लेकिन जब बयान बाइबल के मुताबिक़ जब तक मसीह पर ईमान ना हो तब तक फ़िल-हक़ीक़त इंसान ख़ुदा के ग़ज़ब में मुब्तला रहता है। इसी वास्ते हर एक आदमी को मुनासिब

Statement of Faith in Christ

मसीह पर ईमान रखने का बयान

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Nov 2, 1876

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 2 नवम्बर 1876 ई॰

ईमान की ख़ासियत और उस की हद पाक कलाम के हर एक वर्क़ में उम्दा अलामात ईमान की बयान की गई हैं। और जो तासीरात उस की गुरु हागर वह ख़ल्क़त ने बयान की हैं वो सब बजा हैं। लेकिन जब बयान बाइबल के मुताबिक़ जब तक मसीह पर ईमान ना हो तब तक फ़िल-हक़ीक़त इंसान ख़ुदा के ग़ज़ब में मुब्तला रहता है। इसी वास्ते हर एक आदमी को मुनासिब है कि पाक कलाम में तलाश करे कि ईमान की ख़ासियत क्या है और हद उस की कहाँ तक है। इस की ख़ासियत का बयान इस तरह पर है कि इन्जील-ए-मुक़द्दस में ख़ुदावन्द मसीह ने बाअज़ शख्सों के ईमान की तारीफ़ की और बाज़ों को बेईमानी पर तम्बीहा (ताकीद, नसीहत) जब ये दोनों बातें इंसान की समझ में बख़ूबी आ जाऐं। तो ईमान की ख़ासियत और बेईमानियों की ग़लतीयों से बख़ूबी आगाह हो जाएगा। और बहुत से तरद्दुद (फ़िक्र) और बिदआत (मज़्हब में नई बात निकालना) जिनकी बाबत झगड़े वाक़ेअ होते हैं बिल्कुल दफ़ाअ हो जाऐंगे। पहली मिस्ल जो हम इस वक़्त इन्जील में से तुम्हारे फ़ायदे के लिए ज़िक्र करते हैं। वो सूबादार की हिकायत (कहानी, दास्तान) मत्ती के आठवें बाब में से है। इस सूबेदार के घर में उस के नौकरों में से एक शख़्स बीमार था उस ने उस की बीमारी पर रहम कर के बतौर ग़मख़ारी मसीह की ख़िदमत में आ के इल्तिजा (दरख़्वास्त) की कि आप मेरे नौकर पर रहम करें। और मैं उस को अधरंग की बीमारी में तड़पता छोड़कर आया हूँ। इस सूबेदार के दिल में मसीह की क़ुव्वत-ए-शिफ़ा बख़्शी और रहम पर ऐसा ईमान था। जिससे महरूम होने का शक बिल्कुल दिल में नहीं था। और मसीह के हम नशीन बिल्कुल इन बातों से नावाक़िफ़ थे। ख़ुदावन्द मसीह ने उस को फ़रमाया कि चल में आकर उसे आराम देता हूँ। इस ईमानदार के लिहाज़ ने मंज़ूर ना किया कि ऐसा बड़ा आदमी उस के ग़रीबख़ाना में आए। और ऐसी तक्लीफ़ फ़ुज़ूल अपने आप पर उठाए। इस वास्ते अर्ज़ की कि ऐ ख़ुदावन्द यहीं पर ज़रा ज़बान से कह दे कि मेरा नौकर अच्छा हो जाये और मुझको तेरी क़ुव्वत शिफ़ा-ए-बख़्शी पर इस क़द्र यक़ीन है। जिस क़द्र अपने सिपाहीयों पर हुक्म कर के अपने काम बे रोक-टोक लेने का इख़्तियार है। जब येसू ने उस की ये बातें सुनीं तो ताज्जुब (हैरान) हो कर इस रूमी सूबेदार के ईमान की तारीफ़ की। बावजूद ये कि वो यहूदीयों की नज़र में निहायत हक़ीर (अदना, छोटा) था। उस के ईमान की बड़ाई सब लोगों पर ज़ाहिर करने के लिए और नजात के मुक़द्दमे में इस फ़ज़्ल को क़ियाम बख़्शने के लिए येसू ने अपने शागिर्दों की तरफ़ मुतवज्जोह हो के कहा, कि मैं तुम्हें सच्च सच्च कहता हूँ कि ऐसा बड़ा ईमान मैंने इस्राईलियों में भी नहीं पाया। मैं तुम्हें कहता हूँ कि बहुत लोग पूरब और पक्षिम से ऐसे ही ईमान के ज़रीये से आएँगे। और अब्रहाम और इज़्हाक़ और याक़ूब की गोद में आस्मानी बादशाहत में बैठेंगे। अब ख़याल करो कि इस सूबेदार के ईमान की ख़ासियत क्या थी। अस्ल में इतनी ही बात है कि उस ने अपने दिल में यक़ीन किया कि क़ुव्वत और भलाई मसीह की ऐसी बेहद है जिस पर तवक्कुल (भरोसा) करने से हर काम में इमदाद और हर बला से रिहाई हासिल होती है। पस सच्चे ईमान के भी माअने हैं कि मसीह की क़ुद्रत और उस के मन्सब (ओहदा) पर वास्ते मदद और नजात रुहानी मौत के भरोसा रखे।

यही मसअला एक दूसरी मिस्ल से भी साबित होता है, कि एक औरत ज़ात की कनआनी अपने गर्दो नवाह में मसीह के आने की ख़बर सुन कर दौड़ कर उस के पास आई और चिल्ला के बोली कि ऐ ख़ुदावन्द दाऊद के बेटे मुझ पर रहम कर मेरी बेटी देव के आसेब से तक्लीफ़ शदीद में पड़ी है। मसीह ने उस के चिल्लाने पर जवाब ना दिया बल्कि कहा, कि मुनासिब नहीं कि लड़कों की रोटी छीन कर कुत्तों को डालूं। क्योंकि सारे यहूदी लोग बुत-परस्तों को ख़ुदा की नज़र में नापाक जान कर कुत्ते से भी हक़ीर (ज़लील ख़ार, बेक़द्र) समझते थे। उस औरत ने तसपर (इस के बावजूद) भी मसीह का कहना क़ुबूल किया और कहा कि हाँ ख़ुदावन्द सच्च है लेकिन कुत्ता भी जो उस के मालिक के दस्तर ख़्वान से टुकड़े गिरते हैं खाता है मुझ पर तू वैसा ही रहम कर जैसे कुत्ते अपने मालिक के हाथ से देखते हैं। फ़य्याज़ी के हज़ारों मोअजिज़े तो यहूदीयों में दिखलाए हैं। इसी में से मुझ कमतरीन पर भी ज़रा इनायत फ़र्मा। तब मसीह ने जवाब दिया कि ऐ औरत तेरा ईमान बड़ा है जैसा तू चाहती है तेरे लिए वैसा ही होगा। ये हाल मत्ती के पंद्रहवीं बाब में लिखा है। इस से भी साफ़ मालूम होता है, कि तवक्कुल (भरोसा) में पाएदारी और मदद रिहाई के वास्ते मसीह पर पक्का भरोसा ही कामयाब है। देखिए किस क़द्र यास और ना उम्मीदी की हालत उस औरत पर गुज़री तिसपर भी सब्र कर के अपनी दरख़्वास्त से बाज़ ना आई बल्कि रिहाई की उम्मीद को क़ायम रखा। क्योंकि अपने दिल में जानती थी कि मसीह में क़ुव्वत और रहम कस्रत से है। ग़र्ज़ जैसे पहली हिकायत (कहानी) से मसीह पर ईमान रखने की ख़ासियत मालूम हुई। ऐसे ही इस माजरे से ज़ाहिर होता कि वास्ते मदद और रिहाई के उसी पर तवक्कुल भी हो। यही ईमान और यही सच्चाई अच्छी तरह उन नुक़्सों से साबित होती है जो मसीह ने उन लोगों को जिनके ईमान में क़सूर पाया दिखलाए और तंबीया दी।

 

2. पहले ईमान की तारीफ़ बयान हुई थी। अब बेईमानी की तंबीया का ज़िक्र है। लूक़ा के आठवें बाब में मर्क़ूम है कि एक वक़्त ख़ुदावन्द मसीह कश्ती रवां में सो गए। इसी अर्से में यकायक आंधी आई शागिर्द हत्ता-उल-क़द्र व हिकमतें इस्तिमाल में लाए ताकि कश्ती को सम्भालें पर कुछ फ़ायदा ना हुआ। मौज का पानी कश्ती में आने लगा और डूबने लगी। वो सब बहालत ना उम्मीदी चलाते हुए मसीह के पास आए कि उस्ताद उस्ताद हम हलाक होते हैं। उन की आहट ने उस को जगा दिया उसी वक़्त (मसीह ने) आंधी को डाँटा और दरिया में चेन हो गया। मसीह ने शागिर्दों की तरफ़ मुतवज्जोह हो के उन को तंबीया (नसीहत) की, कि क्यों तुम ऐसे डरे और किस वास्ते तुम में ईमान नहीं। इस मुक़द्दमे से तुमको मालूम होगा कि उन के दिलों में क़िल्लत (कमी) उस तवक्कुल की थी जिसकी तारीफ़ वो आगे कर चुका था। ईमानदारों को चाहिए, कि जब कोई सदमा या बलाए अज़ीम यहां तक भी ग़लबा पाए कि अपने बचने की उम्मीद बाक़ी ना देखें तो भी ख़ुदा की क़ुद्रत और रहम से हरगिज़ ना उम्मीद ना हों। ऐसी नाउम्मीदी बेईमानदारों का फल है। हक़ीक़त में ये बेईमानी उन शागिर्दों में थी क्योंकि उन्हों ने मसीह के मोअजिज़े भी बहुत देखे थे। और उस की क़ुव्वत और भलाई से भी वाक़िफ़ थे ये कौनसी बड़ी बला थी जिससे मसीह के उसी कश्ती में होने के बावजूद उन्हों ने उस पर बचाओ का एतिमाद ना किया। तुम्हारी मलालत (रंज, उदासी) के ख़ौफ़ से मैं सिर्फ एक ही और मिसाल लाता हूँ। जो मर्क़ुस के नौवे बाब में लिखी है। किसी लड़के का बाप अपने बेटे को बीमारी की शिद्दत में लेकर मसीह के शागिर्दों के पास आया और वो उस को अच्छा ना कर सके तब वो दिल में ना उम्मीद हो कर बहालत शक के मसीह के पास आकर यूं कहने लगा कि अगर तुझसे हो सके तो हम पर रहम कर। मसीह ने कहा कि अगर तू ईमान ला सके तो कामिल ईमान से सब कुछ हो सकता है यानी अगर तेरे दिल में मेरी क़ुद्रत और रहम पर मुस्तक़िल तवक्कुल हो तो तेरा बेटा अच्छा हो सकता है। उसी वक़्त उस शख़्स ने चिल्ला कर कहा कि मैं ईमान लाता हूँ मेरी बेईमानियों को माफ़ कर। बहुत मिसालें इस क़िस्म की इन्जील में मौजूद हैं लेकिन जिन चार को हमने दोनों बातों में बयान किया है उन से साफ़ मालूम होगा कि मसीह की क़ुव्वत पर तवक्कुल करना ईमान है। अगर कोई कहे कि वो सूबेदार और कनआनी औरत वास्ते दुनियावी फ़वाइद के ईमान रखते थे। और नजात रुहानी चीज़ है इन दोनों का मुक़ाबला हरगिज़ नहीं हो सकता तो ग़ौर से मालूम करे। कि अगरचे फ़वाइद रुहानी और जिस्मानी अलग अलग हैं पर दोनों के लिए ईमान की हद और ख़ासियत एक ही है। इसी क़िस्म के ईमान से नूह ने कश्ती बनाई इब्राहिम अपने बेटे को क़ुर्बान करने के लिए आमादा हुआ और मूसा ने मिस्र की दौलत और हश्मत से ख़ुदा के लोगों के साथ मुफ़्लिस (गरीब, मुहताज) रहना बेहतर समझा। अगरचे नतीजे उन के अलग अलग हैं दरअस्ल ईमान एक ही है। ख़्वाह मसीह पर इस नीयत से तवक्कुल रखें कि दुनियावी बल्लयात (बुलाऐं, मुसीबतें) से मख़लिसी (रिहाई) बख़्शे ख़्वाह बदें मुराद कि रुहानी आदाद बमअने शैतान दुनिया नफ़्स दोज़ख़ ग़ज़बे इलाही से नजात दे। फ़िल-हक़ीक़त हद ईमान की हमारी हाजत (ज़रूरत) पर मौक़ूफ़ है। जिस क़द्र हमारी हाजात हों उसी क़द्र ईमान की कस्रत हमारे दिलों में होनी चाहिए। पहले हम अपने आमाल को साथ क़ानून फ़र्ज़ के मालूम करें और हर एक हुक्म को जो रुहानी तरह पर है समझ लें जैसे कि मसीह ने मत्ती के पांचवें बाब और छटे और सातवें बाब में तश्रीह की है। ख़ुदा हमारे दिलों में ये ख़याल डालता है कि गुनाह सिर्फ़ निस्यान (نسیان) (भूलना) से ही नहीं बल्कि बहुतेरे गुनाह हम जान-बूझ के और बहुतेरे रोशनी बातिन के बरख़िलाफ़ मग़ुरूर हो के अज़ रूए सरकशी के बरअक्स ख़ुदा के करने हैं। इन गुनाहों से रिहाई पाने की उम्मीद में मसीह पर तवक्कुल वाजिब है। जैसे कि पहले बयान हुआ। उस के कफ़्फ़ारे के ख़ून पर जिसे ख़ुदा ने हमारी मग़्फिरत (नजात, बख़्शिश) के वास्ते मुईन (मुक़र्रर किया गया) किया। बिल्कुल भरोसा करना और ऐसी इस्तिमाल तवक्कुल कफ़्फ़ारे की अदल की गिरफ़्तारी और क़ादिर-ए-मुतलक़ के ग़ज़ब से हमको छुड़ा सकती है। जब कभी हमारा दिल गुनाहों के डर से घबराए तो मसीह के कफ़्फ़ारे पर ग़मगीनी के साथ तवक्कुल करना वाजिब है। अपनी नेकी से आँखें बंद कर के उसी की रास्तबाज़ी से मदद का ख़्वाहां होना चाहिए।

हमारी समझ भी बिगड़ गई जिससे शरीअत का समझना हमारे लिए मुश्किल हुआ। क्योंकि दिल तारीक है इस तारीकी को हटाने और सख़्त दिल को नादानी और सरकशी से बाज़ लाने के वास्ते रोशनी इलाही दरकार है। इस के लिए भी ख़ुदावन्द मसीह पर उसी तरह तवक्कुल ज़रूर है क्योंकि इस में ताक़त है और वो चाहता भी है, कि ईमानदारों के दिलों को रोशन करे और उनको रुहानी समझ बख़्शे और उन ग़लतीयों को जो ख़्याली हैं और बुनियाद उन की ख़ुदा के कलाम में नहीं और सिर्फ इंसान ने अपने ख़ाम ख़यालों से पैदा की हैं सही करे। तुम्हें चाहिए कि इसी तरह मुतवक्किल हो कर उस से दरख़्वास्त करो कि मौत की मलालत और गुनाह की जहालत से तुम्हें रिहाई अता करे। लड़के की तरह उस के क़दमों के तले बैठ कर सीखने की इल्तिजा रखो। और उस की परवरदिगारी और बंदो बस्त से बेदिल ना हो।

नजात के वास्ते जो कुछ मसीह ने सिखलाया और जो रूहुल-क़ुदुस की हिदायत से तुम्हें मालूम हुआ बिल्कुल उसी पर भरोसा रख के ये दुआ करो कि तुमको क़ुव्वत और इस्तिदाद (लियाक़त, क़ाबिलीयत) सीखने की बख़्शे। जैसा अच्छा तालिबे इल्म अपने उस्ताद की नसीहतों को सीखता है एतराज़ नहीं करता तुम भी वैसा ही करो। तुम अपने दिल से जानते हो कि तुम कमज़ोर हो फ़रमांबर्दारी की ताक़त तुम में बिल्कुल नहीं। तुम्हारी जिस्मानी ख़ासियत हमेशा बुराई की तरफ़ राग़िब (ख़्वाहिशमंद) और दिल की ख़्वाहिश हमेशा गुनाह और दुनिया की तरफ़ मुतवज्जोह है। हज़ारों इम्तिहान इस दुनिया में मौजूद हैं जो तुम्हें ख़ुदा की तरफ़ से हटाने पर मुस्तइद (तैयार, मौजूद) हैं और मायूस करने को हमेशा आमादा (तैयार, राज़ी) इस हालत में इसी की इमदाद के शावक (शौक़ीन) हो के रुहानी अहकाम के मानने में तवक्कुल रखो। जितनी अख़्लाक़ी और रुहानी खूबियां तुम में थीं और जिस क़द्र ख़ुदा और आक़िबत (आख़िरत) से जुदा हो कर दुनिया और नफ़्स और शैतान की तरफ़ फिर गई हैं। उन सबको फिर लौटा के ख़ुदा की राह पर लाना अपनी ख़ुशी और बहबूदी के लिए निहायत मतलूब (तलब किया गया) है। पर अपनी ताक़त से तुम ये काम नहीं कर सकते और गुनाहों से पाकीज़गी की तरफ़ वो दिली बाज़गश्त (वापसी) जो ख़ुदा चाहता है तुम्हारी ताक़त से बईद (दूर, अलैहदा) और ख़ुदा के फ़ज़्ल से मुम्किन। इस नेअमत के वास्ते भी तवक्कुल ही दरकार है। ग़र्ज़ ईमान लाना मसीह पर यही है कि सब रुहानी बरकतों के लिए जैसा कि ख़ुदा ने मुक़र्रर किया है उसी पर मदार (गर्दिश की जगह) चाहिए और हर वक़्त उस की आदत डालनी वाजिब है यानी हर-दम अपने नफ़्स का इन्कार करना और अपनी तबीयत के बरख़िलाफ़ चलना और ख़ुदा के फ़र्मान के मुताबिक़ अमल करना और इमदाद सिर्फ़ मसीह की कामिल तसव्वुर करनी लाज़िम है। उनके इस्तिमाल में सुस्त होना ना चाहिए क्योंकि फ़ौज दुश्मनों की ग़ालिब है। और तुम में जुर्आत नहीं। अगर साबित-क़दम रहोगे तो वो क़ादिर-ए-मुतलक़ तुम्हें ताक़त और फ़त्ह दोनों बख़्शेगा।

नजात सिर्फ़ ईमान ही से है

3. मैंने ख़ासियत और हद ईमान की बयान कर दी कि वास्ते बख़्शिश गुनाह के तवक्कुल मसीह और उस की इमदाद पर है। जिससे तुम गुनाह की पाबंदी से छूटो। लेकिन एक अम्र बाक़ी है कि सुकूनत (मस्कन, रहने की जगह) हमारी इस दुनिया में चंद रोज़ा है ये ज़िंदगी जल्दी से ख़त्म होने वाली है और एक नई फ़ील-फ़ौर शुरू होने को जिसकी इंतिहा कोई नहीं जानता। इस में ना-माफ़ गुनाहों की सज़ा हमेशा के लिए सहनी पड़ेगी। और ज़रूरी ख़ुशीयों और ख़ुदा की मुहब्बत को दिल में दख़ल ना होगा। पस हद ईमान की गोया यहां तक पहुँचती है और बड़ा दर्जा रखती है। क्योंकि अबद तक पहुँचती है और हमेशा की ख़ुशी इसी ईमान और तवक्कुल पर मौक़ूफ़ है। ये हमेशा की ख़ुशी और क़ुव्वत और ख़ुदा की मुहब्बत उस वक़्त में भी तुम्हें तसल्ली और तश्फ़ी बख़्शेगी, जिस वक़्त इस दुनिया की चीज़ें और इस जहां की मदद तुम्हारे लिए काम ना आएगी। जो कि साहिब-ए-ईमान ख़ुदा के कलाम पर भी तवक्कुल (यक़ीन) रखता है और यक़ीन जानता है कि अर्वाह हरगिज़ मुजर्रिद (तन्हा) नहीं छोड़ी जाएगी। और आज़ा अगरचे क़ब्र में मिट्टी हो जाते हैं। लेकिन वो भी फिर किसी वक़्त दुबारा क़ायम किए जाऐंगे। और जलाली बदन में जी उठेंगे। और उस मुबारक बादशाहत में जो हकीम बरहक़ और क़ादिर-ए-मुतलक़ ने ख़ुशी व दवाम ख़वास अपनी के लिए मुहय्या की है दख़ल पाएँगे। इस दाइमी ज़िंदगी की उम्मीद पर भी तवक्कुल करना इसी ईमान का फल है जिससे हम जानते हैं। कि ख़ुदावन्द येसू मसीह आप आस्मान पर उरूज कर के हमारे लिए रहनुमा हुआ है। और हम भी उस के पीछे पीछे जाने वाले हैं। ये तश्रीह ईमान की जो हमने इस वक़्त बयान की और जिसका मंशा (इरादा) तवक्कुल है वास्ते नजात और इफ़ज़ाल मुताल्लिक़ा इस के लिए काफ़ी है। इस का समझना बहुत आसान बल्कि इस क़द्र बयान है कि जाहिल मुतलक़ जिनको ज़रा भी इल्म ना हो समझ लेंगे। क्योंकि ईमान की बाबत उलमा में बहुत तकरार पहले भी होते आए हैं और अब भी होते हैं। लेकिन ये ऐसा साफ़ और र सीधा मसअला है कि ईमानदारों को अच्छी तरह मालूम है और सारी तसल्ली इसी पर मौक़ूफ़ है। और लाज़िम है कि ये मसअला सब मसाइल में से साफ़ हो क्योंकि जिस पर रूह की नजात मौक़ूफ़ हो उस का समझना आम और ख़ास को ज़रूरी होता है। भला उस को कौन नहीं समझता कि ईमान इन चीज़ों पर तवक्कुल है यानी दानाई रास्तबाज़ी येसू मसीह की नजात। क्या इस दुनिया में मुफ़्लिस (मुहताज़, ग़रीब) और जाहिल मदद माल और इल्म के लिए उन तोनगरों (दौलतमंदों) और आलिमों पर तवक्कुल नहीं करते जिनकी दौलत और इल्म पर उन को एतबार है। ये किसी आदमी की समझ या दानाई इस से क्या कम होगी कि वो अपने उस्ताद के कहने पर ईमान ना रखे। ख़ुसूसुन जब उस्ताद सब तरह की दानाई और रास्ती में मशहूर हो। अगर ऐसा एतिक़ाद (यक़ीन) ना रखें तो इस्तिफ़ादा (फ़ायदा) कब हो सकता है और बड़ों से इमदाद कब मिल सकती है। कर्ज़दार जब आए क़र्ज़ की अपने आप में ताक़त नहीं देखता तो ज़रूर ज़ामिन (ज़मानत देने वाला) का आसरा तकता है फिर ये क्या मुश्किल है कि आदमी जो जाहिल और नाचार और गुनाहों के क़र्ज़ से दबा हुआ है शैतान से दुश्मन के ज़ुल्म और अपनी बद तबई कैसे मग़्वी (अग़वा करने वाला) के अग़वा से रिहाई पाने के लिए मसीह पर तवक्कुल रखे। पस अगर इन बातों को जो रोज़मर्रा इंसान के जिस्म में हो रही हैं फ़वाइद रुहानी के लिए एक मसीह पर ही डालें तो निहायत आसानी है। और इस से रोज़ बरोज़ एतबार वास्ते मदद के और शुक्र वास्ते फ़वाइद के बढ़ता है।

बक़ीया मसीह पर ईमान रखने का बयान

4. हम ईमान की ख़ासियत और इस की हद के मुताबिक़ मुन्दरिजा कुतुब-ए- मुक़द्दस जिनमें कस्रत-ए-ईमान की तारीफ़ और क़िल्लत (कमी) की सरज़निश (मलामत, बुरा भला कहना) हुई है। बयान कर चुके कि इस की मुराद दानाई और रास्तबाज़ी और पाकीज़गी और नजात का मसीह पर पुख़्ता तवक्कुल (यक़ीन) है। अब हम इस के फ़वाइद का ज़िक्र करते हैं बसबब ना-वाक़िफ़ी तासीरात ईमान के कई बिदआत (बुराईयां) और ख़राबियां वाक़ेअ हुई हैं। और इंसान ने बाइस ख़ुद-पसंदी के झूठे ईमान का लिबास पहन कर अपने आपको ईमानदार तसव्वुर कर लिया और अपने आपको फ़रेब दिया। और दूसरों को भी ग़लती में डाला। मसलन ख़वांदा (पढ़े लिखे) आदमीयों ने उन पैशन गोईयाँ को जो नबियों की किताबों में बहक मसीह मुन्दरज हैं पढ़के और जैसे कि वो हो बहू वक़ूअ में आई हैं उन पर लिहाज़ कर के और उन मोअजज़ात को जो मसीह ने दिखलाए बतौर दलील (गवाही, सबूत) काफ़ी समझ के वास्ते हराने बेईमानों के एक हथियार जाना और जो लोग कि इन्जील के मुन्किर (इन्कार करने वाले) थे। उन के साथ बह्स करने के लायक़ हुए और ऐसे इल्म को ईमान की जगह तसव्वुर कर के अपने आपको ईमानदार मशहूर किया। और अपने ईमान को कामिल जान कर किसी बात का क़सूर ना समझे। बावजूद ये कि उन के अमल अच्छी तरह ज़ाहिर करते हैं, कि उन के दिलों में बिल्कुल ईमान की तासीर नहीं ऐसे लोगों को इस बात के क़ाबिल करना निहायत मुश्किल है, कि वो ईमानदार नहीं हैं और जो ईमान बरा-ए-नाम रखते है। सो सिर्फ एक ख़्याली अम्र है क्योंकि मसीही मज़्हब के मसाइल से वाक़िफ़ होना और मसीह की तवारीख़ से बख़ूबी आगाही हासिल करनी और क़वाइद नजात को जो मसीह की मौत के ज़रीये से इन्जील में ज़ाहिर हुए हैं इस्तिमाल में लाना ईमान नहीं। नए उमूर सिर्फ़ बह्स और मजलिसी गुफ़्तगु के लायक़ हैं। रूह को इन से कुछ फ़ायदा नहीं पहुंचता। और इस क़िस्म का इल्म ना गुनाहों से नफ़रत देता है और ना उनको क़ाइल करता है और ना उन को तर्क कर सकता है। और ना दिल में पाक होने का शौक़ पैदा करता है। पहले-पहल ग़ैर-क़ौमों में भी जहां मसीह की मुनादी अव़्वल हुई थी इसी ख़याल ने रिवाज पाया और उन्हों ने समझा कि मसीही मज़्हब में रास्तबाज़ी की कुछ ज़रूरत नहीं नजात सिर्फ़ ईमान ही से है दिल की तब्दील और फ़र्मांबरदारी और तवक्कुल जो ईमान के साथ मुताल्लिक़ हैं उन्हों ने कुछ चीज़ ना समझी और वो अपने बातिल (झूट) भरोसे पर ये कहते रहे, कि मसीह की रास्तबाज़ी हमारी रास्तबाज़ी और मसीह की पाकीज़गी हमारी पाकीज़गी है। उन्हों ने आमाल की पैरवी करनी छोड़ दी और हुक्मों को मतरूक (तर्क करना) कर दिया। जहां कहीं सच्चे ईमान की ख़ासियत और हद ना पहचानी जाये वहां ऐसी ऐसी बिदआत ज़रूर ज़हूर (ज़ाहिर होना) पकडती हैं। इस मुक़द्दमे में पौलूस पत्रस यूहन्ना याक़ूब रसूलों के मक्तूबात (ख़ुतूत) पढ़ने से मालूम हो सकता है, कि ईमान बेअमल निकम्मा है बल्कि ईमान का होना ईमानदारों के नेक अमलों से साबित होता है। इंग्लिस्तान और जर्मन में अगले ज़माने के बहुत लोग यही ख़याल रखते थे, कि नजात सिर्फ़ ईमान ही से है। और हक़ीक़त में ऐसा ही है पर अमल को बिल्कुल नाचीज़ जानना बड़ी ग़लती है। ईमान ज़रूर मसीह पर तवक्कुल है जैसे कि बयान हुआ है और ये तवक्कुल वास्ते नजात रूह के आख़िरत में दोज़ख़ से है। लेकिन वैसा ही तवक्कुल वास्ते नजात के शौक़-ए-गुनाह और शहवत और नफ़्स की सरकशी से भी ज़रूरी है। ये कैसे हो सकता है कि आदमी गुनाह के नतीजे से नजात चाहे। और गुनाह की पलीदी से ना बचे और तमन्ना करे कि बाप फ़रिश्तों की सोहबत और ज़िंदगी दवाम (हमेशा) के आराम से हिस्सा पाए। पर जो दिली पाकीज़गी उस सोहबत के लायक़ है और जिस पर सब फ़र्हतें आक़िबत की मौक़ूफ़ हैं ज़िंदगी में हासिल ना करे। तवक्कुल ख़ुद चाहती है कि शब व रोज़ उस ख़ुदावन्द का ख़याल दिल में रहे ताकि मदद और नजात उस से मिले। लेकिन जब गुनाह के ख़याल और शौक़ दिल में भरे रहें तो ख़ुदा और ख़ुदावन्द मसीह के ख़याल ने कब दख़ल पाया। आदमी जिस गुनाह से बचने के लिए मसीह के पास आया उसी गुनाह को किस तरह दिल से प्यार करेगा। ग़र्ज़ ऐसा मुर्दा ईमान जिसमें पाकीज़गी की ज़िंदगी ना हो ईमान नहीं होता।

5 एक ख़राबी और भी फैली है और वो ये है कि लोग बा सबब ताअलीम ख़ुर्द साली के चंद आदात मज़्हबी इख़्तियार कर लेते हैं और उन्हीं को ईमान की जगह में नजात के लिए काफ़ी समझ कर औक़ात बसर करते हैं। मसलन गिरजा में जाके दुआएं मांगने और मज़्हबी किताबों के पढ़ने और मुफ़लिसों पर सख़ावत (बख़्शिश, ख़ैरात) करने और अपने मज़्हब के मुक़द्दमे में कुमुक (मदद) देने और अपना नाम मज़्हबी लोगों के साथ लेने और जहां कहीं मज़्हब के तज़्किरे के लिए जमाअत इकट्ठी हो वहां पर हाज़िर होने को ईमान तसव्वुर करते हैं। लेकिन सच्चे ईमान से जो तवक्कुल मसीह पर वास्ते रास्तबाज़ी और पाकीज़गी और नजात के है। मह्ज़ बे-बहरा हैं ऐसे ज़ाहिर परस्तों को मुनासिब है, कि अपने ख़यालात और सच्चे ईमान से बे-बहरगी (आज़ादी) को समझ के मालूम करें कि उनका ईमान इस बुनियाद पर क़ायम है कि नहीं जो मुवाख़िज़ा (गिरिफ्त, जवाबतलबी) में हरगिज़ जुंबिश ना करे और साबित करें कि ईमान सिर्फ़ ख़्याली ही तो नहीं बल्कि तबकन वास्ते नजात के है। अगर आदमी ऐसी नेक चाल भी रखें कि लोगों की नज़र में कभी बुरे मालूम ना हों और ख़ुदा की रहमत पर भी ऐसा तकिया हो कि वो कमज़ोरीयों की हालत में मदद करे तिसपर (बावजूद इस के) अगर ईमान इन्जील के मुताबिक़ ना हो तो वो ईमान किसी काम का नहीं। इन बातों से तसव्वुर अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) ईमान के बख़ूबी आ सकते हैं कि बजा कौनसा है और ग़लत कौन।

6. एक और ग़लती ये है कि बाअज़ आदमी बग़ैर तिलावत-ए-कलाम रब्बानी और बदों सेहत ख़याल ईमानी के कहते हैं कि ईमान ने हमारे दिलों में ऐसा ग़लबा किया है कि सब उमूरे मज़्हबी हमारे दिल पर खुल गए हैं और वज्द (दीवानगी) की हालत में आकर अपने आपको सच्चा ईमानदार गिनते हैं और गुनाह की मगफिरत (माफ़ी) और पाकीज़गी की बुनियाद इसी अंदरूनी ख़याल से तस्दीक़ कर लेते हैं ऐसे लोगों को सोचना चाहिए कि उन्होंने गुनाह से तौबा और मसीह पर तवक्कुल जिस पर अफ़व (माफ़ी) गुनाह के वाअदे किए गए हैं अपने दिल के तजुर्बे में पाई है या नहीं। क्योंकि अगरचे ख़ुदा ने बाज़ औक़ात अपनी कमाल रहमत से बाअज़ अश्ख़ास पर अपनी मुहब्बत का पर्तो (रोशनी) आस्मानी तरीक़े से रोशन किया है लेकिन नजात और फ़ज़्ले रब्बानी वास्ते अफ़ु-ए-गुनाह (गुनाह की माफ़ी) अवाम के इस तरीक़ पर ज़ाहिर नहीं हुए। अम्बिया और शुहदा बहालते वज्द (बे-ख़ुदी) आग के शोलों में भी शुक्रगुज़ारी के राग गाये हैं और बहुत तक्लीफ़ की मौत में भी इंतिक़ाम की तबाअ (आदत) पर ग़ालिब आ के अपने दुश्मनों के लिए दुआएं मांगी हैं। लेकिन अवाम को ये बरकात मयस्सर नहीं हैं हर एक इंसान को नहीं चाहिए कि ऐसी आस्मानी नागहानी बरकत हासिल करने की गुमानी इल्तिजा रखे। वज्द में आकर ख़ुदा की रहमत पर इस क़द्र ख़ुश होना कि अपने ज़ाहिरी कामों से बिल्कुल बे-ख़ुद हो जाये और शैय है और मसीह पर वास्ते नजात दोज़ख़ और रिहाई गुनाह और मख़लिसी शैतानी इम्तिहान के तवक्कुल रखना और शैय इन दोनों में ज़मीन और आस्मान का तफ़ावुत (फ़र्क़) है बख़्शिश की गवाही अपनी अपनी तबीयत के वज्द से समझ लेनी एक क़ौल व फ़ेअल का एतबार करे और कोई रहम-दिल आदमी ये नहीं कह सकता कि तुर्क ईसाई रियाया पर हुक्मरानी करने के लायक़ हैं क्योंकि जैसे जैसे ज़ुल्म ब अआनत (मदद) सुल्तान रुम तुर्कों ने ईसाईयों पर किए हैं वो ज़ुल्म किसी सर-ज़मीन पर नहीं हुए। और किसी मज़्हब में ऐसे ज़ुल्म व सितम रवा नहीं रखे गए। चुनान्चे इस हफ्ते में हमने एक अंग्रेज़ी अख़्बार में तुर्कों के अदना ज़ुल्म की एक तस्वीर छपी हुई देखी जिसमें दिखाया गया है, कि चंद ईसाई दरख़्तों से बंधे हुए लटक रहे हैं और नीचे उन के आग जल रही है। पैर उन के जल कर भस्म हो गए हैं चेहरों पर मुर्दाई छा रही है। क़रीब है कि इस तरह तड़प-तड़प कर उन के दम निकल जाएं।

इसी अख़्बार में हमने ये भी देखा कि तुर्क इस से भी ज़्यादा ज़्यादा ज़ुल्म औरतों पर करते हैं। और छोटे छोटे बच्चों के साथ निहायत ही बेरहमी से पेशी आते हैं।

देखो सल्तनत-ए-रूम ने कैसी धोके बाज़ी के साथ हफ़्ता गुज़श्ता में चंद शहरों पर क़ब्ज़ा कर लिया यानी हस्बे फहिमाइश (तल्क़ीन, नसीहत) सलातीन दीगर बाग़ीयों के साथ ये इक़रार किया कि हमको छः माह की मोहलत देनी चाहिए। जिस पर रूस ने जवाब दिया कि नहीं बल्कि बजाय छः माह के छः हफ्ते की मोहलत होनी वाजिब है। सुल्तान रुम ने 28 अक्तूबर को ये अम्र क़ुबूल किया मगर 29, 30 अक्तूबर को बाग़ीयों पर अचानक हमला किया गया और बड़े बड़े दो शहर अपने क़ब्ज़े में कर लिए। ये फ़ेअल शहनशाह रूस को नागवार गुज़रा। फ़ौरन इत्तिला दे गई कि अगर 48 घंटे के अंदर छः हफ्ते की मोहलत मंज़ूर हो तो क़ुबूल करो। वर्ना तमाम ताल्लुक़ात तोड़ दीए जाऐंगे अब इस पर सुल्तान रुम ने फिर इक़रार किया है कि हम दो माह तक जंग नहीं करेंगे।

तार बर्क़ियों से मालूम होता है कि तमाम यूरोप के सफ़ीर रुम में जमा होंगे और मशरिक़ी मुआमलात पर गौर करेंगे। अब हमको यक़ीन-ए-कामिल है कि अगर सुल्तान रुम ने इन सफ़ीरों के बरख़िलाफ़ कुछ भी किया तो सल्तनत-ए-रूम की ख़ैर नहीं और उनके जमा होने से तुर्कों के ज़ुल्म भी साफ़ साफ़ ज़ाहिर हो जाऐंगे।

एक आज़ाद शख़्स कहता है कि सल्तनत-ए-रूम अब बहुत बीमार हो गई है। उस के ईलाज के वास्ते कई सल्तनतों से डाक्टर आएँगे और बीमारी की तशख़ीस करेंगे चुनान्चे सल्तनत इंग्लेंड से जनाब लार्ड सालबरी साहब वज़ीर-ए-आज़म भी बीमार सल्तनत के देखने के वास्ते तशरीफ़ ले जाऐंगे।

हमने इस मुआमले को कि लूदियाना में फ़क़ीर लोगों के बर्तन उठा ले जाते हैं। अच्छे और मोअतबर लोगों से दर्याफ़्त किया बल्कि हमने पुलिस से भी पूछा ये ही जवाब पाया, कि ये बात बिल्कुल झूट है और कोई शख़्स जो हुक्काम से अदावत (दुश्मनी) रखता है ऐसी बातें जिनकी कुछ भी बुनियाद नहीं है ओढ़ता है अब कोरिस्पोंडेंड कोह नूर को जो लूदियाना के हालात लिखता है मुनासिब है कि अपनी तस्दीक़ के वास्ते दो चार जगह का नाम लिख कर बतलाए कि फ़ुलां फ़ुलां जगह से बर्तन फ़क़ीर उठा ले गए हैं। और अगर इस बात का कुछ सबूत नहीं है तो ज़रूर अपने लिखे की तक़्ज़ीब (झुटलाना, झूट बोलने का इल्ज़ाम लगाना) करानी मुनासिब है। वर्ना हुक्काम पुलिस जिनकी इस में ग़फ़लत (लापरवाही) और बे इंतिज़ामी पाई जाती है दाअवा कर के सज़ा दिलवाएंगे।

 

बक़ीया मसीह पर ईमान रखने का बयान

वास्ते अफ़ुगुनाह के मसीह पर तवक्कुल करने का सबब

उस ख़ुदा ने जिसने इब्तिदा में तरीक़ा मग़्फिरत (बख़्शिश, नजात) का मसीह पर ईमान लाने से ज़ाहिर किया। ख़वास और जलाल उस बचाने वाले के भी पाक किताब में मुन्दरज किए जिससे ईमानदारों के दिल में बुनियाद तवक्कुल के सबब क़वी (ताक़तवर, ज़ोर-आवर) पैदा हों। यही ख़ुदा की गवाही मसीह के जलाल और अज़मत पर यसूई ईमान की बुनियाद है। और नजात की बातें ऐसी साफ़ और बाक़ायदा मालूम होती हैं कि किसी जगह उन में इशतिबाह (शक, मुशाबेह होना) की गुंजाइश नहीं। जिस दिन से गुनाह ने दुनिया में दख़ल पाया और इंसान अपने ख़ालिक़ की नज़र में ख़ताकार और ग़सब का सज़ा-वार ठहरा। उसी दिन से नजात का वसीला भी ख़ुदा ने ऐसा ज़ाहिर किया। जिससे आदम और उस की औलाद उस की रहमत से नाउम्मीद और हिरासाँ ना हुए।

बाइबल के मज़्मून से मालूम होता है कि ख़ुदावन्द येसू मसीह सिर्फ़ इंसान ही ना था बल्कि उलूहियत (ख़ुदाई) भी उस में थी। जो कलाम इब्तिदा में था वो कलाम ख़ुदा था और सारी चीज़ें उस से बनीं। और जो सुनें बग़ैर उस के ज़रीये के नहीं बनीं। बसबब इस असली उलूहियत के जब ख़ुदावन्द येसू मसीह ज़मीन पर वास्ते फ़िद्या (ख़ून बहाना) गुनेहगारों के पैदा हुआ। अगरचे वो और तिफ़्लों (बच्चों) की तरह सिर्फ एक तिफ़्ल (बच्चा) था और मर्यम के पेट से पैदा हुआ और बाद पैदाइश तवीला (अस्तबल) में रखा गया। लेकिन उस वक़्त ख़ुदा बाप ने फ़रिश्तों को फ़रमाया कि उस की परस्तिश करें और सारे फ़रिश्तों ने यूं पुकारा कि ख़ुदा को आस्मान पर जलाल और ज़मीन पुर-अम्न और इंसान को रजामंदी।

फिर पैदाइश ख़ुदावन्द मसीह की ख़बर चरवाहों को दी कि ख़ुदा हमारे साथ हो उसी वास्ते इम्मानुएल नाम रखा गया। इस से साफ़ मालूम होता है कि मसीह में उलूहियत भी थी। और इसी वास्ते नजात के लिए इस पर तवक्कुल सारे ताइब (तौबा करने वाला) ईमानदारों के दिलों में मुस्तक़ीम (दुरुस्त, मज़्बूत) है और सब नबियों ने मिस्ल यशायाह और दानयाल की बाबत उलूहियते मसीह के ख़बर दी। और उस के कफ़्फ़ारे में जान देने पर ये बड़ाई की कि उस ने गुनाह को ख़त्म किया और इन्सान को रिहाई बख़्शी। और येसू मसीह की उलूहियत वास्ते कफ़्फ़ारा गुनाह के तवक्कुल की पक्की बुनियाद है। क्योंकि अगर वो ख़ुदा ना होता तो गुनाह बख़्शने का इक़तिदार हरगिज़ ना रखता। इस मुक़द्दमे में ख़ुदा ने ख़ुद फ़रमाया है कि ख़ुदा ने दुनिया पर ऐसा प्यार किया कि अपना इकलौता प्यारा बेटा बख़्शा। ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हमेशा की ज़िंदगी पाए। फ़क़त वह ख़ुदा का बर्रा है जो जहान के गुनाह उठा लिए जाता है उस ने हमारे गुनाह उठा लिए। क्योंकि वो ख़ुदा भी और इंसान भी था।

ग़ौर करो कि अगर ख़ुदा ऐसे शख़्स को जैसा मसीह है मुक़र्रर कर के सिर्फ आस्मान पर रख के गुनेहगारों को इत्तिला देता, कि उस पर ईमान लाओगे तो तुम्हारा शफ़ी (शफ़ाअत करने वाला) होगा। और उस की शफ़ाअत गुनाह की मग़्फिरत के लिए मक़्बूल होगी तो भी हर एक को लाज़िम होता कि उस पर ईमान लाओ। ख़ुदा ने उसे सिर्फ मुक़र्रर ही नहीं किया बल्कि ज़मीन पर भेजा और अपना रहम और अदल दोनों एक जगह में ज़ाहिर किए। अगर मसीह सिर्फ़ इंसान ही होता उस का कफ़्फ़ारा माफ़ी कुल जहान के लिए काफ़ी ना होता। और अगर वो सिर्फ़ उलूहियत में लोगों पर ख़ुदा की जीत ज़ाहिर करता तो अदल पूरा ना हो सकता। इसी वास्ते ख़ुदा और इंसान का मुतवस्सित (औसत दर्जा का, दर्मियानी) हुआ जैसा कलाम में तज़्किरा हुआ है कि ख़ुदावन्द मसीह में उलूहियत थी। जिसे आस्मान के फ़रिश्ते परस्तिश करते थे। ये भी लिखा है कि इंसान गुमराह के बचाने के लिए उस ने आके जान दी।

मसीह की पैदाइश से साफ़ ज़ाहिर होता है कि उस में ज़रूर उलूहियत थी क्योंकि उस में लिखा है कि उस ने फ़रिश्ते की सूरत ना पकड़ी बल्कि इब्राहिम की औलाद में पैदा हुआ ताकि गुनेहगारों का नजातदिहंदा हो। इन दोनों ख़ासियत का होना मसीह में ज़रूर था। ताकि वो ख़ुदा हो के ख़ुदा का हक़ पहचाने और इंसान हो के इंसान की कमज़ोरी पर रहम लाए। और यही दोनों ख़ासियत वास्ते तक़वियत (क़ुव्वत, ताक़त) बुनियाद तवक्कुल के पाक किताबों में ज़िक्र हुई हैं। इस जगह में लिखना उनका ज़रूरी नहीं। कलाम के पढ़ने वालों को आप ही मालूम होगा कि मसीह में ये दोनों खासियतें मौजूद थीं। और इसी वास्ते वो हमारे लिए नजातदिहंदा कामिल और वास्ते अफ़व (माफ़ी, बख़्शना बख़्शिश) गुनाह के तवक्कुल उस पर बख़ूबी हो सकता है। यहूदीयों ने मसीह के हक़ में ये ग़लती की कि वो उस को बादशाह साहिब-ए-हलाल उलूहियत से पुर उन को दुश्मनों से छुड़ा ने वाला शुजाअत (बहादुरी, दिलेरी) में बहादुर इंतिज़ार करते थे। और मसीह बरअक्स ख़याल उन के मुफ़्लिस (हाजतमंद) आदमीयों की सूरत में पैदा हुआ। और हर एक क़िस्म की तक्लीफ़ में उस ने अपने आपको डाला। सामने पिलातूस के हाज़िर हुआ गो सारी दुनिया का मुंसिफ़ यानी मसीह उस बुत-परस्त हाकिम के सामने इन्साफ़ के लिए लाया गया क्योंकि ख़ुदा ने हमारे गुनाह उस पर डाले थे। जब दूसरे गुनेहगार वाजिब-उल-क़त्ल ने पिलातूस के हाथ से रिहाई पाई तो उस ने मसीह के हक़ में सलीब का फ़त्वा दिया। ये सख़्त सज़ा जो मसीह पर वारिद हुई। हमारे गुनाहों के सबब थी। फ़िल-हक़ीक़त उदूल हुक्मी ऐसी ही सज़ा का तक़ाज़ा करती है। जिससे सारी दुनिया ग़ारत हो। और यक़ीनन मसीह ने ऐसी ही सज़ा उठाई जिससे सारी दुनिया को नजात मिले। सज़ा का बोझ जो मसीह ने उठाया ऐसा सुबक (हल्का, कम वज़न) नहीं था कि सिर्फ इंसानियत उसे उठा सकती उदूल हुक्मी की सज़ा उन फ़रिश्तों से भी उठाई नहीं गई। जो इंसान से ताक़त और लियाक़त कई दर्जा ज़्यादा रखते थे। इसी सज़ा में वो फ़रिश्ते उम्दा आराम आस्मानी से शैतान की तरह दोज़ख़ के लायक़ हुए। पर ख़ुदावन्द मसीह ने अपने जिस्म में बसबब सँभालने और था मुन्ने उलूहियत के वो आस्मानी ग़ज़ब उठा या। और ख़ुशी से इस को सहा। लेकिन तो भी बोझ उस ग़ज़ब का उस के इंसानी जिस्म पर बख़ूबी मालूम हुआ। और एक बात से जो सारी तक़्लीफों से ज़्यादातर क़वी थी वो घबराया। देखो उस ने पिलातूस के आगे वास्ते रहम के कुछ दरख़्वास्त ना की। और जब यरूशलेम की औरतें उस पर रोने लगीं तो उस ने हुलुम (नर्मी) से उन को कहा, कि अपने फ़रज़न्दों के लिए रोओ मुझ पर ना रोओ। और फिर बखु़शी ख़ुद सलीब को क़ुबूल किया। और जैसे भेड़ बाल कतरने वालों के आगे चुप रहती है वैसे ही सारे दुख सहता रहा। लेकिन जब ख़ुदा का ग़ज़ब उस पर नाज़िल हुआ और ख़ुदा ने अपनी उलुहियत का चेहरा उस से जुदा कर लिया तब मसीह चिल्लाया, कि ऐ मेरे ख़ुदा ऐ मेरे ख़ुदा तू ने मुझे क्यों तर्क (छोड़ना) किया। इस से भी साफ़ मालूम होता है कि मसीह गुनेहगारों को नजात देने में कामिल और तवक्कुल उस पर बजा इस क़द्र साहिबे जलाल हो के ऐसा पस्त बना और ख़ुदा की रहमत से ये भी आशकार (वाज़ेह, ज़ाहिर) है, कि उस ख़ुदा ने हमसे ऐसा प्यार किया कि अपने इकलौते और प्यारे बेटे को भेजा। ताकि गुनेहगार उस के वसीले से नजात पाएं। पस इस कलाम पर तकिया (भरोसा, पूरा एतिमाद) ना करना निहायत गुनाह है अगरचे तुम्हारे गुनाह शुमार में बेहद हैं तो भी मसीह से बख़्शिश के उम्मीदवार हो सकते हो। क्योंकि कोई गुनाह ऐसा नहीं जिसको उस का ख़ून साफ़ ना कर सके। और कोई गुनाह ऐसा नहीं जिसका बदला उस ने ना दिया हो। और कोई सज़ा गुनाह की ऐसी नहीं जो उस ने ना उठाई हो और उस की नजात ख़ुदा की मुक़र्रर की हुई है। पस तवक्कुल करो कि उस ने अदल (इन्साफ़) को पूरा किया और शरीअत को इज़्ज़त दी और रहम को ज़हूर में लाया। और गुनाहों की सज़ा अपने आप पर उठाई।

बक़ीया मसीह पर ईमान रखने का बयान

बल्कि येसू मसीह पर ईमान लाने से रास्तबाज़ गिना जाता है

अब हम वो मदद जो मसीह से हासिल होती है और वो छुटकारा जो मसीह बख़्शता है। और वो क़हर और ग़ज़ब शरीअत का जो उस ने हमारे लिए उठाया। और वो रोशनी फ़हम की जो अपने कलाम के ज़रीये से हमको अता की है बयान कर चुके। लेकिन एक और बात बाक़ी है जिसका ज़िक्र अब करना चाहते हैं और वो नजात के लिए लाज़िम है यानी आदमी बज़ाना दुनिया का ग़ुलाम है और दुनियावी शहवतों (जिन्सी ख़्वाहिश) का लालच और आदात तिफ़लाना (बचपन की आदात) और हसद और तकब्बुर उस के दिल में मौजूद हैं यही नहीं कि उन चीज़ों को सिर्फ रग़बत (ख़्वाहिश, तवज्जोह) से इस्तिमाल ही में लाता हो बल्कि उस के कामों से साफ़ मालूम होता है, कि इन शहवतों के क़ब्ज़े में ऐसा आ रहा है जिससे छूटने की ताक़त नहीं रखता। और जब तक अपनी ताक़त से छूटने का इरादा रखता है, तब तक हरगिज़ छूट भी नहीं सकता। हर एक इम्तिहान में जिसका वो मग़्लूब (आजिज़, हारा हुआ) होता है ये बात उस को सच्च मालूम होती है। अगरचे अपनी नानवानी का इक़रार करने में ज़ाहिरन नदामत (शर्मिंदगी) है लेकिन बचने की राह की तलाश ना करनी ऐन हमाक़त (बेवक़ूफ़ी) है। बाज़ों को बज़ाता और बाज़ों को ताअलीम से कुछ-कुछ नेक आदतें हासिल भी हैं। मगर अंदरूनी बद-अख़्लाकी तिसपर भी वक़्तन फ़-वक़्तन उन के इल्म के बरख़िलाफ़ ग़ालिब हो जाती है और तबीयत को बिल्कुल परागंदा (परेशान, हैरान) और तल्ख़ (सख़्त, नागवार) बनाती है। ये गु़लामी ज़्यादातर ग़म अफ़ज़ा और बर्दाश्त से बाहर होती है। जिस क़द्र ख़ुदा के इन्साफ़ और गुनाह के हालात से इंसान वाक़िफ़ होता है उसी क़द्र उस गु़लामी से छुड़ाने पर मसीह क़ादिर है। इस मख़लिसी के लिए भी ख़ुदा का ये हुक्म है कि मसीह पर तवक्कुल करो। और उसी की क़ुव्वत पर भरोसा रखो। अगले ज़माने के नबियों ने भी मसीह की ख़ासियत को इसी तरह बयान किया है। कि वो गुनाह से छुड़ाने पर क़ादिर और शैतान की जंग में बहादुर है। और उस के क़ब्ज़े से फिर कोई नहीं छुड़ा सकता। मसीह की ज़ाहिरी पस्त हाली पर ख़याल कर के कोई ये ना समझे कि गुनाह की गु़लामी से छुड़ाने पर उस की क़ुव्वत कम है। क्योंकि इन्जील के पढ़ने से मालूम होता है, कि उस ने गूँगे को ज़बान दी और बहरे को कान और लंगड़े को पांव अता किए। और अंधे को आँखें और मुर्दा को ज़िंदगी बख़्शी। और आंधी और दरिया ने उस का हुक्म माना और दरिया की मौजें उस के ख़ौफ़ से थम गईं। आंधी में अगरचे दोज़ख़ की क़ुव्वत है और इंसान पर वो ग़ालिब है। लेकिन मसीह पर ग़ालिब नहीं उस की क़ुद्रत इन सब चीज़ों पर फ़ाइक़ (आला) है। हमारे ईमान और तवक्कुल और उम्मीद की तक़वियत (क़ुव्वत) के वास्ते पाक कलाम में बारहा मज़्कूर हुआ है कि मसीह हमको गुनाह की गु़लामी से आज़ाद करने वाला है। ख़राज लेने वालों को जो गुनेहगारों में बड़े शुमार होते थे। और ज़नान-ए-क़हबा को जो औरतें फ़ाहिशा गिनी जाती थीं मसीह की क़ुव्वत ने शहवतों से रिहाई दी। ग़र्ज़ गुनेहगारों को गुनाह से रिहाई बख़्शने की क़ुव्वत जो मसीह में है इस का तज़्किरा मैं कहाँ तक करूँ सब कलाम-ए-रब्बानी इन्हीं बातों की तवारीख़ है। और सारे मसीह लोग इस कलाम के गवाह हैं देखो उस ख़ूनी को जो मसीह के साथ मस्लूब हुआ था मसीह ने कहा कि तू आज हमारे साथ फ़िर्दोस में होगा। यानी मैं तुझे बहिश्त में इस अम्र की अलामत कर के ले जाऊँगा कि हम शैतान पर ग़ालिब हुए। ऐसा ही जो लोग कि मसीह पर ईमान लाते हैं और दुनिया और नफ़्स और गुनाह पर ग़ालिब होते हैं क़ुव्वत-ए-मसीह की अलामत हैं। गोया कि उस ने उन को शैतान के हाथ से छुड़ा दिया। और जल (पानी) ने तिनके को आग से बचा लिया। हर एक दिल जो मसीह की क़ुव्वत से साफ़ होता है और हर एक तबा (तबीयत, मिज़ाज) जो गुनाह से फिर के ख़ुदा की तरफ़ रुजू होती है। और हर एक गुनेहगार जो गुनाह से तौबा कर के शैतान के मुक़ाबले में खड़ा होता है और मसीह का सिपाही कहलाता है। मसीह की क़ुव्वत का निशान है। ये ख़ासियत मसीह की भी बाइबल में उस के लक़ब के मुताबिक़ है क्योंकि लिखा है कि वो फ़ातेह और दुश्मन पर ग़ालिब होगा। झूट को कुचलेगा और रास्ती को क़ायम करेगा। अगर कोई कहे कि मसीह की मौत और क़ब्र उस की कमज़ोरी पर दलालत करती है। तो ये पाक किताबों की ना-वाक़िफ़ी से है क्योंकि मसीह क़ब्र में इस वास्ते नहीं गया, कि क़ब्र का पाबंद हो बल्कि फ़त्हमंद की मानिंद था। इस वास्ते क़ब्र के बंद को और मौत की सल्तनत को तोड़ के इन दोनों पर ग़ालिब आया। और मर के तीसरे दिन जी उठा। पस उस पर तवक्कुल करना हमेशा की मौत से छुटकारा है। ये मर के जी उठना उस का क़ुव्वते इलाही है, जिसने नबियों के कलाम को पूरा किया और तमाम आदमीयों की उम्मीद का पहला सबब हुआ। और ज़ाहिर कर दिया कि सारी ख़ल्क़ मर के फिर जी उठेगी जैसे कि लिखा है कि जाग और गा ऐ तू जो ख़ाक में बस्ती है। तेरी शबनम और तेरी सबज़ीयां क़ायम हैं कि ज़मीन अपने मुर्दों को निकाल देगी बाब 26 आयत 9 यसअयाह नबी की। पस इन कामों से मसीह की क़ुव्वत साफ़ ज़ाहिर है और हमारी तवक्कुल की बुनियाद वो हमको सिर्फ़ गुनाह की सज़ा ही से नहीं छुड़ाता, बल्कि गुनाह की क़ुव्वत से भी छुड़ाता है पौलुस हवारी (शागिर्द) ने भी लिखा है कि वो साहिबे नजात जो अपने नाम पर तवक्कुल रखने वालों को नजात के दुश्मनों से रिहाई देता है हमारा मियां जी (उस्ताद, मुअल्लिम) मन्सब में ये इक़तिदार रखता है और हमारे सारे दुश्मनों पर ऐसी हुकूमत करता है, कि जब तक मुख़ालिफ़त गुनाह और शैतान और ख़ुदा की मौक़ूफ़ ना हो तब तक इसी मियां जी के तख़्त पर बैठेगा। और वो ख़ुदा के दहने हाथ पर बैठा। ताकि तमाम क़ुव्वतें और सारी रियासतें ना सिर्फ दुनियावी जो मौजूद हैं बल्कि उक़बी (पीछे) की भी उस के क़दम तले की जाएं और कलीसिया की सारी चीज़ों पर मुख़्तार (सरपरस्त) रहेगा। इम्तिहान की तादाद और क़ुव्वत कितनी है तसव्वुर करो और इंसान की कमज़ोरीयों और बद-आदतों और शैतानी फ़रेबों को कितना ही ख़याल करो सब मसीह की क़ुव्वत के नीचे हैं। वो अपने लोगों को पाक करेगा और ख़ास क़ौम बना कर ख़ुदा के हुज़ूर में पहुंचाएगा। मसीह ईमानदारों का बादशाह है कि सब रुहानी ज़ुल्मों और नापाक शहवतों से रिहाई बख़्शता है। अगर कोई शख़्स हुलुम और पाएदारी से मसीह की क़ुव्वत पर तवक्कुल करे तो तजुर्बे से मालूम करेगा कि ये सदा ही खूबियां उस में हैं। और गुनाह की बला में हरगिज़ गिरफ़्तार ना रहेगा। मसीह पर तवक्कुल करने वाले गुनाह पर ज़रूर फ़त्ह पाएँगे वर्ना उन को ख़ुदा के कलाम में शक होगा। जिस क़द्र इस बात में कहा गया उसी क़द्र ईमान में तक़वियत पैदा करने और मसीह पर तवक्कुल की बुनियाद मज़्बूत करने को किफ़ायत करता है। कि वो बचाने वाला वास्ते दानाई और रास्तबाज़ी और पाकीज़गी के काफ़ी है।

मसीह ख़ातिम-उन्नबीय्यीन नहीं

ये कलाम जो पेशानी (काग़ज़ का बालाई हिस्सा जो इबारत से ऊपर ख़ाली छोड़ दिया जाये) पर लिखी गई। आख़िरी हिस्सा मज़्मून मलिक शाह साहब में दर्ज है। और इस की निस्बत उन्होंने ज़ोर व शोर किया है। अगर इस से उनका ये मतलब है कि मसीह आख़िरी नबी नहीं है। यानी नबुव्वत उस पर ख़त्म नहीं हुई बल्कि और नबी उस के पीछे हुए तो इस से हम इन्कार नहीं करते बल्कि तस्लीम करते हैं जिसके दो सबब हैं।

Christ is not the Seal of prophets, Objection by Muslims

मसीह ख़ातिम-उन्नबीय्यीन नहीं

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan July 9-15, 1873

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 9-15 जुलाई 1873 ई॰

ये कलाम जो पेशानी (काग़ज़ का बालाई हिस्सा जो इबारत से ऊपर ख़ाली छोड़ दिया जाये) पर लिखी गई। आख़िरी हिस्सा मज़्मून मलिक शाह साहब में दर्ज है। और इस की निस्बत उन्होंने ज़ोर व शोर किया है। अगर इस से उनका ये मतलब है कि मसीह आख़िरी नबी नहीं है। यानी नबुव्वत उस पर ख़त्म नहीं हुई बल्कि और नबी उस के पीछे हुए तो इस से हम इन्कार नहीं करते बल्कि तस्लीम करते हैं जिसके दो सबब हैं।

अव़्वल ये, कि ख़ुदावन्द येसू मसीह को हम सिर्फ नबी नहीं जानते। क्योंकि नबुव्वत (रिसालत) उस के दूसरे दर्जे का काम था ख़ास काम जिसके लिए वो इस दुनिया में आया ये था, कि अपनी जान देकर गुनाहों का कफ़्फ़ारा (गुनाह धो देने वाला) करे और गुनेहगारों को नजात बख़्शे इसलिए येसू मसीह उस का नाम हुआ। वो कलाम–अल्लाह और इब्ने-अल्लाह है इसलिए और नबियों के साथ उस का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। नबी और पैग़म्बर जो दुनिया के शुरू से हुए सब के सब मसीह की शहादत (सबूत, गवाही) देते रहे। वो तो नबियों की नबुव्वत का मज़्मून था जिस क़द्र नबी गुज़रे वो तमाम बंदगाने ख़ुदा की आँखें उस की तरफ़ रुजू करते रहे। इसलिए उस का नबियों के साथ मुक़ाबला नहीं हो सकता।

दूसरी वजह ये है, कि हम यक़ीनन जानते हैं कि नबुव्वत का कलाम मसीह के बाद मसीही कलीसिया में जारी रहा। चुनान्चे मसीह के बारह हवारी (शागिर्द) इल्हामी और नबी थे। उन के ख़ुतूत और कुतुबे मुसन्निफा में बहुत कलाम-ए-नबुव्वत मौजूद हैं। ख़ुसूसुन मुकाशफ़ा की किताब शुरू से आख़िर तक कलामे नबुव्वत से ममलू (भरा हुआ, पुर) है। बाअज़ जिनमें से पूरे हो गए बाअज़ जिनमें से हो रहे हैं। और बाअज़ जिसमें से होंगे सिवा इस के हम जानते हैं, कि अन्ताकिया की कलीसिया में बहुत से नबी हुए (देखो आमाल की किताब 13 बाब पहली आयत) और आंतकिय की कलीसिया में कई नबी और मुअल्लिम (उस्ताद) थे। और यरूशलेम की जमाअत में भी नबी हुए। (आमाल की किताब 11 आयत) इन्ही दिनों में कई एक नबी यरूशलेम से अन्ताकिया में आए और (इफ़िसियों का ख़त 4 बाब 11, आयत) में पौलूस रसूल यूं फ़रमाता है कि जमाअत पर ख़ुदा ने बाज़ों को रसूल और बाज़ों को नबी मुक़र्रर कर दिया। फिर (पहला ख़त कुरिन्थियों का और इस का 12 बाब और 28 आयत) ख़ुदा ने कलीसिया में कितनों रसूलों को दूसरे नबियों को पहले मुक़र्रर किया, के इन कलामों से साफ़ मालूम होता है। कि पहली सदी की मसीही जमाअतों में ख़ुदा ने बाअज़ अश्ख़ास को नबुव्वत अता की इस वास्ते बमूजब क़ौल मलिक शाह साहब के हम भी मसीह के ख़ातिम-उन-नबियीन होने से इन्कारी नहीं हैं। लेकिन अगर इस कलाम से उनका ये ख़याल हुआ है कि ख़ुदावन्द येसू मसीह का ज़माना आख़िरी ज़माना नहीं। बल्कि उस के पीछे और कोई रसूल आएगा जो इन्जील को मन्सुख (रद्द) कर के नई शरीअत और नया तरीक़ा नजात का जारी करेगा। और मालूम होता है कि उनका मतलब भी ऐसा ही है। तो हम इस बात को तस्लीम नहीं करते। क्योंकि इन्जील में साफ़ बयान है कि किसी दूसरे से नजात नहीं आस्मान के तले आदमीयों को कोई दूसरा नाम नहीं बख़्शा गया। जिससे वो नजात पाएं। (देखो आमाल 4 बाब 12 आयत) और सिवा इस के इन्जील में बयान है कि मसीह का ज़माना आख़िरी ज़माना है। देखो (इब्रानियों का ख़त पहला बाब पहली और आयत) ख़ुदा जिसने अगले ज़माने में नबियों के वसीले बाप दादों से बार-बार और तरह तरह कलाम किया। इन आख़िरी ज़मानों में हमसे बेटे के वसीले बोला जिसने उस को सारी चीज़ों का वारिस ठहराया और जिसके वसीले उस ने आलम बनाया। और (ग़लतीयों का ख़त पहला बाब 9 आयत) जिसमें पौलूस रसूल यूं कहता है कि जैसा हमने आगे कहा वैसा ही अब मैं कहता हूँ। कि अगर कोई तुम्हें किसी दूसरी इन्जील को सिवा उस के जिसे तुमने पाया सुनाए। तो वो मलऊन (लानत किया गया, मर्दूद) है। इस से साफ़ ज़ाहिर है कि सिवाए इन्जील के अगर कोई तुम्हें कोई और इन्जील सुनाए तो वो ख़ुदा के हुज़ूर मलऊन है। और ख़ुदावन्द येसू मसीह ख़ुद फ़रमाता है कि अगर कोई तुमसे कहे। देखो मसीह यहां या वहां है तो यक़ीन ना लाओ। क्योंकि झूटे मसीह और झूटे नबी उठेंगे। निशानीयां और करामात दिखलाएँगे। कि अगर हो सके तो बर्गज़ीदों (चुने हुए) को भी गुमराह (बेदीन) करें। पर तुम ख़बरदार रहो देखो मैंने तुम्हें पहले ही सब कुछ कह दिया है। (मर्क़ुस की इन्जील 13 बाब 21 से 23 आयत) तक इन आयतों में ख़ुदावन्द येसू मसीह शागिर्दों को जताता है कि अगर कोई शख़्स मसीह या नबी होने का दावा कर के तुम्हारे पास आए, मोअजिज़ा और निशानीयां दिखाये तो तुम उन पर यक़ीन ना करना वो झूटे मसीह और झूटे नबी होंगे। पस इस हालत में हम क्योंकर मान सकते हैं कि और किसी नबी का आना इन्जील से साबित है। सो इसलिए ख़ुदावन्द येसू मसीह अपने रसूलों को ये कहता है कि तुम जा कर सब क़ौमों को शागिर्द बनाओ। उन्हें बाप बेटा और रूह-उल-क़ुद्दुस के नाम से बपतिस्मा दो और उन्हें सिखलाओ कि उन सब बातों पर अमल करें जिनका मैंने तुम्हें हुक्म दिया है। और देखो ज़माने के तमाम होने तक मैं तुम्हारे साथ हूँ। इस आयत से साफ़ मालूम होता है कि इन्जील की ताअलीम और नसीहत ज़माने के तमाम होने तक क़ायम रहेगी। और मसीह अपने शागिर्दों के साथ तब तक रहेगा। इस हालत में हम क्योंकर सोच सकते हैं कि और कोई नतीजा नजात का जारी होगा। मसीह ने उस रोज़ जब वो पकड़ा गया अपने शागिर्दों से ईद फ़स्ह खाई और इशाए रब्बानी की ईद उन के बीच मुक़र्रर की। और उनको कहा कि तुम इस तरह मेरी यादगारी करते रहो जब तक कि मैं फिर आऊँ यानी रोज़-ए-क़यामत तुम देखो (पहला ख़त कुरिन्थियों का 11 बाब 26 आयत) जब बयान इस क़द्र सफ़ाई से इन्जील में मिलता है कि जब तक मैं फिर आऊँ तुम मेरी यादगार में इशाए रब्बानी करते रहो। और मेरी हिदायत पर चलो तब क्योंकर ख़याल हो सकता है कि उस की ताअलीम के ख़िलाफ़ कोई और ताअलीम सच्ची होगी। और इन्जील के सिवा कोई और किताब सच्ची और इल्हामी समझी जाएगी। और नजात का तरीक़ा और शरीअत मन्सूख़ (रद्द किया गया) हो कर कोई और तरीक़ा और शरीअत क़ायम होगी इस क़द्र सबूत इस अम्र का कि मसीह का ज़माना आख़िरी ज़माना ही काफ़ी है और इसलिए हम बस करते हैं।

और उन आयात का बयान किया जाता है कि जो मियां मलिक शाह मुहम्मद साहब से मन्सूब (मुताल्लिक़ किया हुआ) करते हैं और कहते हैं कि उन में इनके आने[1]

बक़ीया मसीह ख़ातिम-उन्नबीय्यीन नहीं

वो आयात ये हैं (मुकाशफ़ा 2 बाब 17 आयत) जो ग़ालिब (ज़ोर-आवर) होता है मैं उसे मन (आस्मानी ख़ुराक) खाने को दूंगा। और उसे सफ़ैद पत्थर दूंगा। और उस पत्थर पर एक नाम लिखा हुआ दूँगा जिसे उस के पाने वाले के सिवा कोई नहीं जानता। (36 सतर से 28 सतर) जो ग़ालिब होता है और मेरे कामों को आख़िर तक हिफ़्ज़ (हिफ़ाज़त करना) करता है में उसे क़ौमों पर इख़्तियार दूँगा और वो लोहे के असा से उन पर हुकूमत करेगा वो कुम्हार के बर्तनों की मानिंद चकना-चूर हो जाऐंगे। जैसा मैंने अपने बाप से पाया है और उसे सुबह का सितारा दूंगा।

मुझको निहायत ताज्जुब (हैरान) आता है कि इन आयतों से मुहम्मद साहब के आने की ख़बर क्योंकर समझी गई। अगर मलिक शाह साहब सारे बाब को गौर व ताम्मुल (सब्र तहम्मुल) से मुलाहिज़ा फ़र्माते, तो ये ख़याल उनके दिल में कभी ना आता मेरी इल्तिमास है, कि वो सारे बाब को अच्छी तरह देखें इस से मुझे यक़ीन है कि वो अपनी ग़लती पर मुत्ला`अ (बाख़बर) हो कर ख़ुद ही ग़लतफ़हमी के मुकर (इक़रार वाले) होंगे। मैं इस मौक़े पर इन आयात की तफ़्सीर (तश्रीह) नहीं करता बल्कि इस क़द्र दिखाता हूँ, कि ये आयात मुहम्मद साहब से ताल्लुक़ नहीं रखतीं सत्रहवीं आयत का कलाम जो ग़ालिब होता है मैं उसे मन खाने को दूंगा और मैं उसे सफ़ैद पत्थर दूंगा…. अलीख। अव़्वल परगमन की कलीसिया को कहा गया है और सारी मसीही कलीसियाओं को ये वाअदा उन मसीहियों से है जो कि बुराई पर ग़ालिब होंगे। और मुहम्मद साहब पर आइद नहीं होता ग़ौर से साफ़ ज़ाहिर हो सकता है। और 26 सतर से 28 थवातेराह के कलीसिया की निस्बत है। अठारहवीं आयत से पढ़ कर देखो ये आयतें किसी सूरत से मुहम्मद साहब पर आइद नहीं हो सकतीं। क्योंकि उनमें बयान है वो जो ग़ालिब होता और मेरे कामों को आख़िर तक हिफ़्ज़ करता है। मैं उसे क़ौमों पर इख़्तियार दूंगा… अलीख। ये कलाम मसीह का है वो कहता है कि ये बरकतें मैं उस शख़्स को दूंगा जो मेरे कलाम को आख़िर तक हिफ़्ज़ रखता है। भला मलिक शाह साहब ये बातें किस तरह मुहम्मद साहब से मन्सूब हो सकती हैं। ये तो उस की निस्बत हैं जो कि मसीह के कामों को आख़िर तक हिफ़्ज़ रखता है मुहम्मद साहब ने उन के काम की हिफ़ाज़त नहीं की बल्कि उस के ख़िलाफ़ बयान किया। और उस के ख़िलाफ़ ताअलीम की और फिर ग़ौर करना चाहिए इन अल्फ़ाज़ पर वो जो ग़ालिब होता है मैं उसे क़ौमों का इख़्तियार दूंगा। आप इस अम्र का इक़रार करते हैं कि जो कुछ इख़्तियार मुहम्मद साहब को मिला मसीह से मिला और वो सब इक़तिदार मसीह की तरफ़ से था और वो उनके नायब या ताबेदार थे हरगिज़ नहीं इसलिए बेहतर है कि आप नज़ीर इन्साफ़ ये आयतें मुहम्मद साहब से मन्सूब ना करें।

अक्सर ऐसा देखा गया है कि सरगर्म मुहम्मदी मुहम्मद साहब की निस्बत इन्जील की शहादत (गवाही) पेश करते हैं और उस से ऐसी आयतें अख़ज़ कर के मुहम्मद साहब से मन्सूब करते हैं जो कि उन की ज़ात के साथ कुछ ताल्लुक़ नहीं रखतीं बल्कि ख़िलाफ़ उन के होती हैं।

इन साहिबान फ़हम व ज़का की ख़िदमत में इल्तिमास है कि पेश्तर इस के कि वो ज़िक्र करें। इन आयात को बख़ूबी देख लिया करें ताकि उनको पीछे से नदामत (शर्मिंदगी) हासिल ना हो और उनका दाअवा इस शहादत बे-बुनियाद से बातिल (झूट) ना हो जाये।

چرا کاری کند عاقل کہ باز آر و پشیمانی ۔

अब मैं ये तूल व तवील मज़्मून ख़त्म करता हूँ जिस क़द्र कि ज़रूरी था इन्जील से मसीह के ख़ुदा और इब्ने-अल्लाह और कफ़्फ़ारा होने वग़ैरह का सबूत दिया गया ये दलाईल (सबूत) क़तई और सबूत कामिल है जो पेश हुआ। उम्मीद है, कि मोअतरिज़ (एतराज़ करने वाला) क़ाइल होगा और मुत्ला`श्यान की इस से तस्कीन (तसल्ली) होगी। हमको निहायत अफ़्सोस है कि अक्सर लोग बे-बुनियाद और वही एतराज़ करते हैं। जवाब दिया गया और उन की तर्दीद की तरफ़ तवज्जोह नहीं करते और वही नकारह बजाय जाते हैं उन के लिए ज़रूर है कि सच्चाई को निगाह रख के और हर तरह का तास्सुब (मज़्हब की बेजा हिमायत) दिल से दूर कर के ख़ुदा से उस के फ़ज़्ल व करम के ख़्वास्तगार (दरख़्वास्त गार) होएं और फिर इन्जील का।

 


[1] इतलाअ। जवाब ख़त मौलवी इमदाद साहब एडिटर राजपुर ताना अखबार हफ्ता आइन्दा में दर्ज होगा। बमतबअ अमरीकन मिशन लुदियाना बअह्तमाम पादरी वज़ीर साहब के छपा। की बशारत है। बाक़ी हफ्ता आइन्दा।

मसीह इब्ने-अल्लाह ख़ुदा, कफ़्फ़ारा, ख़ातिम-उन-नबिय्यीन है

ये चारों बातें ईसाईयों के अक़ीदे का एक जुज़्व हैं। और बड़ी मुश्किल हैं और इसलिए हिंदू व मुसलमान वग़ैरह इस में लग़्ज़िश (ख़ता, लर्ज़िश) खाते हैं। और इस पर मोअतरिज़ (एतराज़ करने वाले) होते हैं। चंद रोज़ हुए कि अख़्बार मंशूर मुहम्मदी में भी एक मज़्मून इसी बिना पर एक शख़्स मुसम्मा मलिक शाह ने तहरीर फ़रमाया है। जो कि मह्ज़ उन की ना-वाक़िफ़ी और नाफ़हमी का नतीजा है।

The Christ is son of God, God, Atonment and the seal of Prophets

मसीह इब्ने-अल्लाह ख़ुदा, कफ़्फ़ारा, ख़ातिम-उन-नबिय्यीन है

By

One Disciple
एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan July 9-15, 1873

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 9, 15 जनवरी 1873 ई॰

ये चारों बातें ईसाईयों के अक़ीदे का एक जुज़्व हैं। और बड़ी मुश्किल हैं और इसलिए हिंदू व मुसलमान वग़ैरह इस में लग़्ज़िश (ख़ता, लर्ज़िश) खाते हैं। और इस पर मोअतरिज़ (एतराज़ करने वाले) होते हैं। चंद रोज़ हुए कि अख़्बार मंशूर मुहम्मदी में भी एक मज़्मून इसी बिना पर एक शख़्स मुसम्मा मलिक शाह ने तहरीर फ़रमाया है। जो कि मह्ज़ उन की ना-वाक़िफ़ी और नाफ़हमी का नतीजा है।

इस वास्ते मैं इन उमूर पर अपनी अक़्ल ख़ुदादाद के मुवाफ़िक़ तहरीर करता हूँ ताकि मोअतरिज़ (एतराज़ करने वाला) और नीज़ मुत्ला`श्यान (तलाश करने वाला) दीने ईस्वी को इस के समझने में मदद मिले।

मलिक शाह ने अपने मज़्मून का आग़ाज़ यूं किया है, कि इन्जील का हाल नई तवारीख़ की किताबों से मालूम हुआ है कि ये किताबें मुरवज्जाह (राइज) अहले-किताब बिल्कुल फ़ासिद (ख़राब, नाक़िस) और निकम्मी हैं। चुनान्चे मिस्टर कारलायल कहते हैं कि तर्जुमा अंग्रेज़ी में मतलब बिल्कुल फ़ासिद और बाज़ार रास्ती कासिद (नाक़िस, ग़ैर ख़ालिस, खोटा) है। और नूर को ज़ुल्मत में और सच्च को दरोग़ (झूट, बोहतअन) पर फ़ौक़ियत बख़्शते हैं। और उलमाए लिंकन ने बदरख़्वास्त ख़ुद गुज़ारिश बादशाह को किया था कि तर्जुमा अंग्रेज़ी बाइबल का बहुत ख़राब है, कि बाअज़ जगह बढ़ाया गया और बाअज़ जगह घटाया गया और बाअज़ जगह बदला गया। और मिस्टर बरातन ने दरख़्वास्त की थी कि तर्जुमा अंग्रेज़ी बाइबल का मौजूदा इंग्लिस्तान ग़लतीयों से पुर है। और मिस्टर हरजिन ने कहा था कि मैं कमी व बेशी और इख़्फ़ाए मतलब और तब्दील मुद्दआ की क्योंकर सनद दूँ। ग़र्ज़ कि इन्जील मुरव्वजा तमाम तग़य्युर व तबद्दुल (तब्दीलीयां, फ़र्क़) से पुर और तायर (उड़ने वाला) मतलब से बेपर है। फिर ऐसी इन्जील की रु से ईसा को ख़ुदा का बेटा कहना। और उलूहियत उस की साबित करनी और तमाम दुनिया का पैग़म्बर मबऊस (भेजा गया) कहना बातिल व आतिल (झूट, बेअस्ल) है। बल्कि उस में भी पाया सबूत को नहीं पहुंचता। ईसा ने तम्सिलन कहा होगा कि ऐसा अज़ीज़ो बर्गुज़ीदा दरगाह किबरिया (ख़ुदा का एक सिफ़ाती नाम, फ़ख़्र) हूँ कि जैसा बेटा बाप को महबूब और उस की तबअ (तबीयत, मिज़ाज) को मर्ग़ूब (पसंदीदा) होता है।

मलिक शाह साहब मालूम नहीं कि आपने कौनसी तवारीख़ से साबित किया है कि इन्जील फ़ासिद और निकम्मी है इस का हवाला तो दीजिए। ये सबूत और हवाले जो आपने दिए हैं बिल्कुल फ़ासिद और निकम्मे हैं। ऐ जामेअ इल्म-ए-माक़ूल (अक़्ल में लाया गया) बेहतर होता अगर आप आग़ाज़े मुबाहिसा से पहले और शुरू एतराज़ से पेश्तर इल्म-ए-मन्तिक़ (ठीक तौर से सोचने का इल्म) और मुनाज़रा (बह्स व मुबाहिसा) का मुतालआ कर लेते। ताकि आपको एतराज़ करने और सबूत देने और दलील के पेश करने का ढंग याद हो जाता। और इस क़िस्म की फ़ाश (ज़ाहिर, सरीह) ग़लती में गिरफ़्तार ना होते। छोड़ा कहीं था और जा पड़ा कहीं। आपका दाअवा है कि इन्जील फ़ासिद और निकम्मी है और दलील उस की आप ये देते हैं कि मिस्टर कार्लाइल या किसी और के कहने से ये साबित है कि उस का तर्जुमा अंग्रेज़ी बहुत ख़राब है।

वाह साहब वाह आप ही इन्साफ़ फ़रमाएं कि ये दलील इसी क़िस्म की नहीं जैसा कि हम कहें क़ुरआन बिल्कुल फ़ासिद और निकम्मा है। क्योंकि उस का तर्जुमा उर्दू बहुत ख़राब है। आपको मालूम नहीं कि ईसाईयों का एतिक़ाद (यक़ीन) और उनके अक़ीदे की बुनियाद कुछ तर्जुमा अंग्रेज़ी और उर्दू पर नहीं बल्कि असली किताब पर है। और ना कोई ईसाई तर्जुमे को इल्हामी किताब रूह-उल-क़ुद्दुस की लिखाई हुई मानता है हम जो कुछ दाअवा करते हैं वो अस्ल किताब की निस्बत है ना तर्जुमे की निस्बत और तर्जुमे की ख़राबी कुछ अस्ल किताब पर नुक़्स नहीं डालती। तर्जुमा ग़लत है तो ग़लत से इस की पाबंदी और शहादत (गवाही, सबूत) वहीं तक है जहां तक अस्ल किताब को मोअतबर (दुरुस्त) समझा जाएगा।

और इब्ने-अल्लाह वग़ैरह का लफ़्ज़ येसू की निस्बत तर्जुमे में ही मुस्तअमल (इस्तिमाल) नहीं हुआ बल्कि अस्ल किताब में आया है और हम अस्ल इन्जील की रु से ही उस को ख़ुदा का बेटा कहते हैं और इसी से उस की उलूहियत (ख़ुदाई) वग़ैरह साबित करते हैं।

बेशक मुहम्मदी येसू को इब्ने-अल्लाह कहने से नफ़रत करते हैं और इस पर एतराज़ लाते हैं लेकिन ये उनकी ग़लती है।

हम येसू को जिस्मानी तौर पर ख़ुदा का बेटा नहीं कहते जैसा कि उनका ख़याल है बल्कि हमारा ये अक़ीदा है कि ख़ुदा जोरु (बीवी) से और बेटे से पाक हैं और जो शख़्स जिस्मानी तौर पर उस को ख़ुदा का बेटा क़रार देता है वो गुनेहगार और काफिर जहन्नुमी है।

अब इन्साफ़ को मद्द-ए-नज़र और तास्सुब (बेजा हिमायत, तरफ़-दारी) को दूर फ़र्मा कर मुलाहिज़ा फ़रमाएं ताकि आप कोताह फ़हमी (कम इल्मी) से इस ग़लती और धोके में फंसे ना रहें, कि इब्ने-अल्लाह कुल बाइबल में चार अश्ख़ास की निस्बत मुस्तअमल (इस्तिमाल) हुआ है।

1. फ़रिश्तों की निस्बत देखो अय्यूब की किताब पहला बाब 6 आयत जहां लिखा है एक दिन ऐसा हुआ कि बनी अल-राए आए कि ख़ुदा के हुज़ूर हाज़िर हों। फिर 38 बाब 7 आयत किताब सदर जब सुबह के सितारे मिल के गाते थे। और सारे बनी अल्लाह ख़ुशी के मारे ललकारते थे। और इस लफ़्ज़ का इस्तिमाल फ़रिश्तों की निस्बत इस वास्ते हुआ है, कि वो आदमज़ाद की मानिंद ब-तवस्सुल (मिलाप, ज़रीया) माँ और बाप के पैदा नहीं हुए। बल्कि सारे एक ही दफ़ाअ ख़ुदा के हुक्म से मबऊस (भेजे गए) हुए।

2. आदम की निस्बत देखो लूक़ा की इन्जील तीसरा बाब 38 आयत जिसमें आदम को ख़ुदा का बेटा कहा गया है। और इस का सबब भी यही है कि वो बग़ैर माँ और बाप के सिर्फ ख़ुदा क़ादिर-ए-मुतलक़ के हुक्म से पैदा हुआ।

3. ख़ुदा-परस्त लोगों की निस्बत भी ये लफ़्ज़ बाइबल में आया है। जैसे इस्राईल और एफ्राईम बल्कि उन को पहलौठे बेटे कहा गया है। देखो (यर्मियाह नबी 31 बाब 9) आयत और मसीह पर ईमान लाने वालों के लिए ये लफ़्ज़ मुस्तअमल (इस्तिमाल) हुआ है। देखो इन्जील (यूहन्ना पहला बाब 12 आयत) लेकिन जिन्हों ने मसीह को क़ुबूल किया उस ने उन्हें इक़तिदार (इख़्तियार, मर्तबा) बख़्शा कि ख़ुदा के फ़र्ज़न्द हों। यानी उन्हें जो उस के नाम पर ईमान लाते हैं। फिर यूहन्ना का पहला ख़त तीसरा बाब पहली आयत देखो। कैसी मुहब्बत बाप ने हमसे की कि हम ख़ुदा के फ़र्ज़न्द कहलाए। और रोमीयों का ख़त 8 बाब 14 आयत जितने ख़ुदा की रूह की हिदायत से चलते हैं वही ख़ुदा के बेटे हैं।

इन आयतों से साफ़ मालूम होता है कि ख़ुदा के बंदों को बाइबल में फ़र्ज़ंद-ए-ख़ुदा कहा गया है इस का सबब ये है :-

1. कि उन्होंने ख़ुदा की पाक रूह की तासीर से नया जिस्म हासिल किया है और

2. कि ख़ुदावन्द येसू मसीह पर ईमान लाने से ख़ुदा के ख़ानदान में शामिल हुए जैसा लिखा है, वैसे ना लहू से और ना जिस्म की ख़्वाहिश से ना मर्द की ख़्वाहिश से मगर ख़ुदा से पैदा हुए हैं और फ़रज़न्दों की सी तबीयत और हक़ हासिल किया।

3. ख़ुदावन्द येसू मसीह की निस्बत इब्ने-अल्लाह का लफ़्ज़ बाइबल में आया है। देखो लूक़ा की इन्जील पहला बाब 35 आयत, वो पाक लड़का ख़ुदा का बेटा कहलाएगा। और मर्क़ुस की इन्जील पहला बाब पहली आयत ख़ुदा के बेटे येसू मसीह की इन्जील का शुरू। यूहन्ना की इन्जील पहला बाब 34 आयत, सो मैंने देखा और गवाही दी कि यही ख़ुदा का बेटा है। यूहन्ना की इन्जील 6 बाब 19 आयत, हम तो ईमान लाए और जान गए कि तू ज़िंदा ख़ुदा का बेटा है। और इस तरह कम से कम 45 दफ़ाअ लफ़्ज़ इब्ने-अल्लाह का बाइबल में मसीह की निस्बत आया है लेकिन हम इसी पर इक्तिफ़ा करते हैं। अब ये सवाल है कि ख़ुदावन्द येसू मसीह को इब्ने-अल्लाह क्यों कहा गया है सो इस का जवाब हम इन्जील से ही तहरीर करते हैं।

वाज़ेह हो कि इन्जील मुक़द्दस में येसू मसीह को इब्ने-अल्लाह कहने के दो सबब बयान हुए हैं :-

1. लूक़ा की इन्जील पहला बाब 25 आयत, फ़रिश्ते ने जवाब में उसे यानी मर्यम को कहा कि रूह-उल-क़ुद्दुस तुझ पर उतरेगी और ख़ुदा तआला की क़ुद्रत का साया तुझ पर होगा इस सबब से वो पाक लड़का ख़ुदा का बेटा कहलाएगा।

इस आयत से साफ़ मालूम होता है, कि हमारा ख़ुदावन्द येसू मसीह इब्ने आदम इब्ने मर्यम ख़ुदा का बेटा कहलाया इस वास्ते कि उस की पैदाइश रूह-उल-क़ुद्दुस से और ख़ुदा की क़ुद्रत के साये से बग़ैर बाप के हुई।

यानी वो ख़ुदा की ख़ास क़ुद्रत से पैदा हुआ इस वास्ते ख़ुदा का बेटा कहलाया। दूसरी वजह येसू को इब्ने-अल्लाह कहने की यूहन्ना की इन्जील में मुन्दरज है देखो पहला बाब 14 आयत, और कलाम मुजस्सम हुआ और वो फ़ज़्ल और रास्ती से भरपूर हो के हमारे दर्मियान रहा और हमने उस का ऐसा जलाल देखा, जैसा बाप के इकलौते का जलाल। इस आयत का बयान यूं है कि कलिमतुल्लाह जो इब्तिदा में था। और ख़ुदा के साथ था और ख़ुदा था। यानी इब्ने-अल्लाह जो ज़ाते उलूहियत का दूसरा शख़्स है मुजस्सम हुआ यानी जिस्म इख़्तियार कर के येसू मसीह में रहा और उस का जलाल उस में ऐसा ज़ाहिर हुआ जैसा बाप के इकलौते का जलाल। इस सबब से ख़ुदा के बेटे कहलाए। ये ख़ास सबब इब्नियत (फ़र्ज़ंदी, बेटा होना) का सिर्फ ख़ुदावन्द येसू मसीह में मौजूद था। और वही अकेला इन्सान था। जिसमें उलूहियत (ख़ुदाई) मुजस्सम हुई यानी इब्ने-अल्लाह जो इब्तिदा में था ख़ुदा के साथ ख़ुदा था अकेला उस में रहा। इस वास्ते ख़ुदावन्द येसू मसीह ख़ुदा का इकलौता बेटा कहलाया है।

ना इसलिए जैसा कि मलक शाह साहब ने ये कुफ़्र का कलमा कहा कि ख़ुदा की तीन जोरुएँ थीं और मसीह तीसरी जोरू का इकलौता बेटा था।

ये सारी बातें इल्हामी हैं तक़रीर में नहीं आ सकतीं। इस की सच्चाई उन मोअजज़ात से साबित होती है। जो कि उस से ज़ाहिर हुए और नीज़ इस का समझना मुताल्लिक़ मसअला तस्लीस के ही इन्सान को पूरी समझ इस की जब ही आ सकती उस की सच्चाई इन मोअजज़ात से साबित होती है जो कि उस से ज़ाहिर हुए और नीज़ उस का समझना मुताल्लिक़ मसअला तस्लीस के है इन्सान को पूरी समझ उस की जब ही आ सकती है जब कि बयान तस्लीस को वो बख़ूबी समझ ले।

लेकिन इस जगह इस का बयान मुवाफ़िक़ इन्जील के हुआ कि किस वास्ते येसू को इब्ने-अल्लाह कहा गया है ताकि लोग इस को बख़ूबी समझ लें। झूठी तोहमत ईसाईयों पर ना रखें कि वो जिस्मानी तौर पर ख़ुदा का बेटा है। बाक़ी ये हफ़्ता आइंदा।

मसीह की उलूहियत का बयान

मज़्मून साबिक़ा में ख़ुदावन्द येसू मसीह के इब्ने-अल्लाह होने का ज़िक्र था। इस में उस की उलूहियत (ख़ुदाई) का बयान और उस की दलाईल (सबूत) मुन्दरज हैं। ख़ुदावन्द येसू मसीह ख़ुदा है इस कलाम के समझने के लिए याद रखना चाहिए, कि ख़ुदावन्द येसू मसीह एक शख़्स था जिसमें दो ज़ात मौजूद थीं।

1. इन्सानियत

2. उलूहियत

वो पूरा इन्सान था ऐन इस तरह जैसे और इन्सान हैं जिस्म और रूह से बना हुआ। इस वास्ते वो पैदा हुआ। लड़कपन से परवरिश पाई। और इन्सान के मुवाफ़िक़ खाता पीता रहा और काम व काज करता रहा। और इल्म में भी उसने तरक़्क़ी की और आख़िर मर गया सिर्फ एक बात में वो और इन्सानों से फ़र्क़ रखता था, कि वो बिल्कुल बेगुनाह था और बे-नुक़्स और कामिल इन्सान था और उस में उलूहियत मौजूद थी। ये उलूहियत इन्सानियत से मिलकर यक ज़ात और मुत्तहिद नहीं थी बल्कि अलेहदा (अलग) और हदी थी और मसीह को नजात का काम पूरा करने में हमेशा मदद देती रही। ये उलूहियत उस में इस तरह मौजूद ना थी, जैसा इस मुल्क के वेदाँती लोग ख़याल करते हैं कि हर एक जीव (ज़िंदगी, रूह) में ख़ुदा की ज़ात मौजूद है। जैसा ख़ुदा हर जा (जगह) मौजूद होने के सबब सब जगह और सब जीव में है मसीह में उलूहियत इस तौर पर थी कि उस की उलूहियत और इन्सानियत दोनों मिलकर वो एक शख़्स बना और उस के काम व काज में और ख़याल व गुफ़्तगु में उलूहियत की सिफ़ात ज़ाहिर हुईं जिसका सबूत दिया जाएगा।

मसीह ख़ुदावन्द ख़ुदा मुजस्सम था यानी ख़ुदा इन्सान के पैराया में आया। और इसलिए उस का एक नाम इन्जील में इम्मानुएल है। जिसके मअनी हैं हमारे साथ वो परमेश्वर का अवतार था। यानी इस में पूरा मनुष्य (मर्द, आदमी) का और परमेश्वर का अंस (तवानाई) मौजूद था।

मलिक शाह साहब फ़र्माते हैं कि इन्जील से ये बात साबित नहीं होती, कि ख़ुदा की ज़ात उस में मौजूद थी ये बात ग़लत है। इस का सबूत इन्जील में बेशुमार है कोई शख़्स जो इन्जील से वाक़िफ़ हो इस बात से इन्कार नहीं कर सकता। चुनान्चे इस अम्र का सबूत और दलाईल चार हिस्सों में बयान करता हूँ।

1. इन्जील में ख़ुदा का लफ़्ज़ मसीह की निस्बत इस्तिमाल हुआ है देखो यूहन्ना की इन्जील पहला बाब पहली आयत, “इब्तिदा में कलाम था और कलाम ख़ुदा के साथ था। और कलाम ख़ुदा था। (रोमीयों का ख़त 9 बाब 5 आयत) जिस्म की निस्बत मसीह भी बाप दादों से हुआ जो सब का ख़ुदा हमेशा मुबारक है। (1 तीमुथियुस का 3 आयत) और बिला-इत्तिफाक़ दीनदारी का भेद बड़ा है यानी ख़ुदा जिस्म में ज़ाहिर किया गया। और रूह से रास्त (दुरुस्त, मुवाफ़िक़) ठहराया गया ये कलाम येसू मसीह की निस्बत है। तितुस दूसरा बाब 13 आयत, और बुज़ुर्ग ख़ुदा और अपने बचाने वाले येसू मसीह के ज़हूर (ज़ाहिर होना) जलील (आला) की राह तके। इब्रानियों का ख़त पहला बाब 8 आयत बेटे की बाबत कहता है कि, ऐ ख़ुदा तेरा तख़्त अबद तक है रास्ती का असातीरी बादशाहत का असा है। (यूहन्ना का पहला ख़त 5 बाब 20 आयत) हम उस में जो हक़ ही रहते हैं यानी येसू मसीह में जो उस का बेटा है ख़ुदा-ए-बरहक़ और हमेशा की ज़िंदगी। और यसअयाह नबी की किताब 9 बाब 6 आयत, कि मसीह इस नाम से कहलाता है अजीब मुशीर और ख़ुदा-ए-क़ादिर।

1. अज़लियत दलील उस की उलूहियत (ख़ुदाई) की ये है कि ख़ुदा की सिफ़ात उस की निस्बत बयान हुईं। अव़्वल अज़लियत (यूहन्ना की इन्जील 1 बाब 2 आयत) कलाम इब्तिदा में ख़ुदा के साथ (8 बाब 8 आयत) येसू ने लोगों को कहा कि पेश्तर इस के कि इब्राहिम हो मैं हूँ (मैं ही हूँ) (17 बाब 5 आयत) और ऐ बाप तू मुझे अपने साथ उस जलाल से जो मैं तेरे साथ दुनिया की पैदाइश से पेश्तर रखता था जलाल दे। (मुकाशफ़ा पहला बाब 17, 18 आयत) ख़ुदावन्द यूं फ़रमाता है कि मैं अल्फ़ा और ओमेगा अव़्वल और आख़िर हूँ मैं मुवा (मरा) था और ज़िंदा हूँ मैं अबद तक ज़िंदा हूँ।

2. बेतब्दीली। इब्रानियों का ख़त पहला बाब 11-12 आयत वो नेस्त हो जाऐंगे पर तू बाक़ी है और वो सब पोशाक (लिबास, कपड़े) की मानिंद पुराने होंगे और वो जल जाऐंगे पर तू वही है और तेरे बरस जाते ना रहेंगे पिछ्ला कलाम मसीह की निस्बत,

13 बाब 8 आयत येसू मसीह कल और आज अबद तक यकसाँ है।

3. हर जा (जगह) मौजूद (हाजिर नाज़िर) होना (यूहन्ना की इन्जील 3 बाब 13 आयत) और कोई आस्मान पर नहीं गया सिवाए उस शख़्स के जो आस्मान से उतरा यानी इब्ने आदम जो आस्मान पर है। (मत्ती की इन्जील 28 बाब 20 आयत) मसीह ने अपने रसूलों को कहा देखो मैं ज़माने के तमाम होने तक हर रोज़ तुम्हारे साथ हूँ। (18 बाब 20 आयत) जहां दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठे हों वहां मैं उनके बीच हूँ।

4. सब कुछ जानना (यूहन्ना की इन्जील 2 बाब 23 से 25 आयत) लेकिन येसू ने अपने तईं लोगों पर छोड़ा इसलिए कि वो सबको जानता था और मुहताज (हाजतमंद, ज़रूरतमंद) ना था कि कोई इन्सान के हक़ में गवाही दे क्योंकि वो आप जो कुछ इंसान में है जानता है। (मुकाशफ़ा 2 बाब 23 आयत) सारी कलीसियाओं को मालूम होगा कि मैं वही हूँ जो दिलों और गुर्दों का जांचने वाला है। और मैं तुम हर एक को तुम्हारे कामों के मुवाफ़िक़ बदला दूंगाई

5. क़ादिर-ए-मुतलक़ होना (मुकाशफ़ा पहला बाब 8 आयत) ख़ुदावन्द यूं फ़रमाता है कि मैं क़ादिर-ए-मुतलक़ हूँ। (इब्रानियों का ख़त 1 बाब 12 आयत) और वो यानी येसू मसीह ख़ुदा के जलाल की रौनक और उस की माहीयत (अस्ल, हक़ीक़त) का नक़्श हो के सब कुछ अपनी ही क़ुद्रत के कलाम से संभालता है।

(3) (तीसरी) क़िस्म की दलीलों से ये ज़ाहिर है कि उलूहियत (शान-ए-ख़ुदावंदी) के काम मसीह में और मसीह के वसीले से ज़ाहिर हुए।

1. पैदाइश (यूहन्ना की इन्जील 1 बाब 2 आयत) सब चीज़ें उस से मौजूद हुईं। और कोई चीज़ मौजूद ना थी जो बग़ैर उस के हुई (10 आयत और 17 आयत) क्योंकि उस से सारी चीज़ें जो आस्मान और ज़मीन पर हैं देखी और अनदेखी। क्या तख़्त क्या हुकूमतें किया रियासतें क्या मुख्तारीयाँ पैदा की गईं। और सारी चीज़ें उस से और उस के लिए पैदा हुईं। और वो सबसे आगे है और उस से सारी चीज़ें बहाल रहती हैं।

2. परवर्दिगारी का काम मसीह की निस्बत बयान हुआ। (इब्रानियों का ख़त पहला बाब 12 आयत) वो यानी मसीह उस के जलाल की रौनक और उस की माहीयत (अस्ल, जोहर) का नक़्श हो के सब कुछ अपनी ही क़ुद्रत से संभालता है। (क़ुलिस्सियों का ख़त पहला बाब 17 आयत) और वो यानी मसीह सबसे आगे है और उस से सारी चीज़ें बहाल हैं। (मत्ती की इन्जील 28 बाब 18 आयत) और येसू ने उन से कहा कि आस्मान और ज़मीन का सारा इख़्तियार मुझे दिया गया।

3. मौत व ज़िंदगी पर इख़्तियार। (यूहन्ना की इन्जील 5 बाब 2 आयत) जिस तरह बाप मुर्दों को उठाता है और जिलाता है बेटा भी जिन्हें चाहता है जलाता है।

4. इख़्तियार क़ियामत। (दूसरा कुरिन्थियों का ख़त 5 बाब 10 आयत) हम सबको ज़रूर है कि मसीह की मस्नद (तख़्त) अदालत के आगे हाज़िर हों ताकि हर एक जो कुछ हमने किया है क्या भला या बुरा मुवाफ़िक़ उस के पाएं। (मत्ती की इंजील 25:31-32 आयत) जब इब्ने आदम अपने जलाल से आएगा। और सब पाक फ़रिश्ते उस के साथ तब वो अपने जलाल के तख़्त पर बैठेगा। और सब कौमें उस के आगे हाज़िर की जाएँगी। और जिस तरह गडरिया भेड़ों को बकरीयों से जुदा करता है वो एक को दूसरे से जुदा करेगा वग़ैरह।

4. चोथी दलील (गवाही, सबूत) मसीह की उलूहियत की वो है जिससे ये ज़ाहिर है, कि ख़ुदा की बंदगी और इबादत मसीह को देनी वाजिब है और वही की गई है।

(यूहन्ना की इन्जील 8 बाब 23 आयत) सब बेटे की इज़्ज़त करें जिस तरह से बाप की इज़्ज़त करते हैं जो बेटे की इज़्ज़त नहीं करता बाप की जिसे उस ने भेजा है इज़्ज़त नहीं करता। (फिलिप्पियों का ख़त 2 बाब 9 आयत) इस वास्ते ख़ुदा ही ने उसे बहुत सर्फ़राज़ (सर-बुलंद, मुअज़्ज़िज़) किया और उस को ऐसा नाम जो सब नामों से बुज़ुर्ग है बख़्शा ताकि येसू का नाम ले, आस्मानी क्या, ज़मीनी क्या। वो जो ज़मीन के तले हैं घुटने टैकें। (इब्रानियों का ख़त पहला बाब 6 आयत) और जब पहलौठे को यानी येसू मसीह को दुनिया में फिर लाया तो कहा कि ख़ुदा के सब फ़रिश्ते उस को सज्दा करें।

(मत्ती की इन्जील 28 बाब 19 आयत) तुम सब क़ौमों को शागिर्द करो और उन्हें बाप और बेटे और रूहुल-क़ुदुस के नाम से बपतिस्मा दो। और इस हुक्म से मालूम होता है कि बाप बेटा रूह-उल-क़ुद्दुस बराबर हैं। (आमाल की किताब 7 बाब 59 और 60 आयत) स्तिफ़नुस ये कह के दुआ मांगता था कि ऐ ख़ुदावन्द येसू (मेरी रूह को) क़ुबूल कर ऐ ख़ुदावन्द ये गुनाह उनके हिसाब में मत रख। (दूसरा कुरिन्थियों का 12 बाब 14 आयत) ख़ुदावन्द येसू मसीह का फ़ज़्ल और ख़ुदा की मुहब्बत और रूह-उल-क़ुद्दुस की रिफ़ाक़त तुम सभों के साथ हो। इस जगह येसू और रूह-उल-क़ुद्दुस और ख़ुदा से बराबर दुआ मांगी गई।

इन चार किस्मों की दलीलों से साफ़ मालूम होता है कि ख़ुदावन्द येसू मसीह को इन्जील में ख़ुदा कहा गया है। और ख़ुदा की सिफ़तें उस में मौजूद थीं और उलूहियत का काम व काज उस से ज़ाहिर है। कि ख़ुदा की इबादत उस को दी गई अलबत्ता पहली क़िस्म की दलील क़तई नहीं। क्योंकि ख़ुदा का लफ़्ज़ सिवाए येसू के और नबियों और नीज़ हुक्काम और बाअज़ दीगर इन्सानों की निस्बत भी बाइबल में मुस्तअमल हुआ है। देखो (यूहन्ना की इन्जील 10 बाब 35 आयत) जब कि उस ने उन्हें जिनके पास ख़ुदा का कलाम आया ख़ुदा कहा और मुम्किन नहीं कि किताब बातिल (झूट) हो। (ख़ुरूज की किताब 7 बाब 1 आयत) ख़ुदा ने मूसा से कहा कि देख मैंने तुझे फ़िरऔन का सा बनाया। (82 ज़बूर 6 आयत) मैंने तो कहा कि तुम इलाही हो और तुम सब हक़ तआला के फ़र्ज़न्द हो। ये कलाम शैतान की निस्बत भी मुस्तअमल हुआ है। (दूसरा कुरिन्थियों का ख़त 4 बाब 4 आयत) इस जहां के ख़ुदा ने उन की अक़्लों को जो बेईमान हैं तारीक कर दिया। अगर सिर्फ यही दलील मसीह की उलूहियत की बाइबल में होती, तो हम कभी उस को ख़ुदा ना कहते बल्कि हम समझते कि जैसा अगले ज़माने में उन लोगों को ख़ुदा कहा गया जिनके पास ख़ुदा का कलाम आया इसी तरह ख़ुदावन्द येसू मसीह को रसूल-ए-ख़ुदा होने के सबब ख़ुदा कहा गया। लेकिन मसीह की उलूहियत सिर्फ इसी एक के ऊपर मुन्हसिर (इन्हिसार) नहीं। और ना उस की उलूहियत की यही ख़ास दलील है बल्कि ये एक चौथा हिस्सा उस की उलूहियत की दलीलों का है। और उनके साथ मिलकर क़तई हो जाता है हमने बयान किया कि बाइबल में ख़ुदावन्द येसू मसीह को ना सिर्फ ख़ुदा कहा गया है। बल्कि ख़ुदा की सिफ़ात उस में ज़ाहिर हुईं। ये किसी इन्सान में किसी पैग़म्बर में कभी ज़ाहिर नहीं हुईं। और ये भी बयान हुआ कि ख़ुदा के काम यानी वो काम सिर्फ ख़ुदा कर सकता है, जैसा पैदाइश और परवरदिगारी मौत व ज़िंदगी पर इख़्तियार और क़ियामत पर इक़तिदार उसे हासिल था। और सबसे पीछे ये बयान हुआ कि वो बंदगी और इबादत जो सिर्फ ख़ुदा को दी गई और जो उसी को देनी वाजिब थी मसीह को दी गई। और उस की निस्बत वाजिब बयान हुई अब इस हाल में हम क्या कह सकते हैं सिवाए इस के कि बाइबल में जगह जगह उस की उलूहियत का बयान है। और इसलिए हर एक शख़्स पर जो इन्जील को इल्हामी किताब जानता है। उस की उलूहियत का इक़रार करना वाजिब है।

इसलिए मुनासिब है कि मलिक शाह साहब या और कोई हमारा मुहम्मदी दोस्त जो इन्जील के इल्हामी होने का क़ाइल है। पेश्तर इस के कि मसीह की उलूहियत से इन्कार करे इन आयतों को मुलाहिज़ा फ़रमाए या इस के ऊपर सबूत दे कि ये आयतें जो पेश हुईं अस्ल इन्जील में मुन्दरज नहीं हैं। अगर ऐसा ना कर सके तो उनका इल्ज़ाम झूटा और बातिल है और उनको ये कहना मुनासिब नहीं कि मसीह की उलूहियत इन्जील से साबित नहीं होती।

अब मैं मसीह की उलूहियत की गवाही पेश करता हूँ, जो कि उन लोगों पर भी असर करती है जो कि इन्जील के इल्हामी होने के क़ाइल नहीं और सिर्फ इस को तवारीख़ी किताबों के मुवाफ़िक़ समझते हैं। वो ये है कि मसीह ख़ुदावन्द ने उलूहियत का दाअवा किया और अपने कलाम के सबूत में मोअजिज़ा दिखाया। उलूहियत का बयान पेश्तर मुतफ़सिल हो चुका अब सिर्फ बतौर यादाशत के एक दो आयतें बयान की जाती हैं। (मर्क़ुस की इन्जील 2 बाब 5 आयत) येसू ने कहा ऐ बेटे तेरे गुनाह माफ़ हुए ये बात सुनकर लोग कुड़कुड़ाए (ज़ोर से बड़बड़ाए) और बोले कि ख़ुदा के सिवा कौन गुनाह माफ़ कर सकता है?

मसीह ने कहा (10 आयत से 12) तक ताकि तुम जानो कि इब्ने आदम ज़मीन पर गुनाहों के माफ़ करने का इख़्तियार रखता है। मैं तुझे कहता हूँ ऐ मफ़लूज (फ़ालिज का मरीज़) कि उठ और खटोला उठा के अपने घर को जा और फ़ील-फ़ौर (फ़ौरन) वो उठा और अपना खटोला उठा के सब के सामने चला गया सब देखकर दंग (हैरान) हो गए। (मत्ती की इन्जील 18 बाब 20 आयत) क्योंकि जहां दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठे हों वहां मैं उनके बीच में हूँ। (यूहन्ना की इन्जील 18 बाब 5, 8 आयत) पेश्तर इस के कि इब्राहिम हो मैं हूँ। (मैं वही हूँ) (17 बाब 5 आयत) ऐ बाप अब तू मुझे अपने साथ उस जलाल से जो मैं दुनिया की पैदाइश से पेश्तर रखता था बुजु़र्गी दे। (तीसरा बाब 13 आयत) कोई शख़्स आस्मान पर नहीं गया सिवाए उस के जो आस्मान पर से उतरा यानी इब्ने आदम जो आस्मान पर है। (यूहन्ना की इन्जील 10 बाब 25 आयत) मैंने तो तुम्हें कहा और तुमने यक़ीन ना किया। जो काम यानी मोअजिज़ा मैं अपने बाप के नाम से करता हूँ ये मेरे गवाह हैं। (5 बाब 26 आयत) ये काम जो मैं करता हूँ ये मेरे गवाह हैं कि बाप ने मुझे भेजा है। (यूहन्ना की इन्जील 10 बाब 20 आयत) मैं और बाप एक हैं ये सुनके यहूदीयों ने कहा कि तो कुफ्र (ख़ुदा को ना मानना, बेदीनी) कहता है। और इन्सान हो के अपने तईं ख़ुदा बनाता है। (33 आयत) इन आयतों से साफ़ मालूम होता है, कि मसीह ने उलूहियत और उस की सिफ़ात का दाअवा किया। और इस के सबूत में मोअजिज़ा दिखाया अब हम जानते हैं, कि ख़ुदा किसी झूटे या फ़रेबी आदमी को मोअजिज़ा करने की ताक़त नहीं देता। इसलिए ज़रूर ख़ुदावन्द येसू मसीह के मोअजिज़े साफ़ इस अम्र को ज़ाहिर करते हैं, कि उस में उलूहियत मौजूद थी और वो उलूहियत (ख़ुदाई, शान-ए-ख़ुदावंदी) की सिफ़ात रखता था। अगर कोई कहे कि वो मोअजिज़ा शैतान की मदद से करता था तो ये निहायत उनकी समझ की ग़लती है क्योंकि शैतान कभी किसी को अपनी बादशाहत दूर करने के लिए मदद नहीं देता। और मसीह के मोअजिज़े इस क़िस्म के थे कि शैतान की बादशाहत को नेस्त व नाबूद (फ़ना कर देना) करते थे। इसलिए हर सूरत से ख़्वाह इन्जील को इल्हामी मानो या उस को तवारीख़ी किताब समझो। साबित है कि ख़ुदावन्द येसू मसीह में ज़ात व सिफ़ात ख़ुदा की मौजूद थीं अब अगर ज़िंदगी बाक़ी है तो आइंदा अख़्बार में उन आयतों का मुलाहिज़ा किया जाएगा जो बाइबल में ज़ाहिरन मसीह की उलूहियत के ख़िलाफ़ मालूम होती हैं।

मसीह गुनेहगारों का कफ़्फ़ारा

मसीह के कफ़्फ़ारा होने का ज़िक्र इन्जील में बहुत जगह है। चुनान्चे मिन-जुम्ला इस की चंद आयतें बयान की जाती हैं इफ़िसियों का ख़त 5 बाब 2, आयत जिसमें पौलूस रसूल यूं लिखता है तुम मुहब्बत से चलो जैसा मसीह ने हमसे मुहब्बत की। और ख़ुशबू के लिए हमारे एवज़ में अपने तईं ख़ुदा के आगे नज़र और क़ुर्बान किया।

The Christ Atonement of Sinners

मसीह गुनेहगारों का कफ़्फ़ारा

By

Kidarnath
केदारनाथद

Published in Nur-i-Afshan Nov 6-12, 1873

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 6 ता 12 नवम्बर 1873 ई॰

पर्चा हाय गुज़श्ता अख़्बार में मसीह की उलूहियत और इंसानियत का बयान हुआ। अब उस के कफ़्फ़ारे होने का सबूत पेश किया जाता है।

1. नबियों के कलाम में मसीह जाबजा कफ़्फ़ारे के तौर पर बयान हुआ है। ख़ासकर यसअयाह नबी की किताब में देखो 53 बाब और इस की 4, 5, 6, 8, आयत इस में यूं बयान है, “यक़ीनन उस ने यानी मसीह ने हमारी मशक्क़तें उठालीं। और हमारे ग़मों का बोझ अपने ऊपर चढ़ाया। पर हमने उस का ये हाल समझा, कि वो ख़ुदा का मारा कूटा और सताया हुआ है। पर वो हमारे गुनाहों के सबब घायल (ज़ख़्मी) किया गया। और हमारी बदकारियों के सबब कुचला गया। हमारी ही सलामती के लिए उस पर सियासत हुई। ताकि उस के मार खाने से हम चंगे हों। हम सब भेड़ों की मानिंद भटक गए और हम में से हर एक अपनी राह से फिरा और ख़ुदावन्द ने हम सभों की बदकारी उस पर लादी एज़ाओं के और उस पर हुक्म कर के वो उसे ले गए। पर कौन उस के ज़माने का बयान करेगा कि वो जिन्दों की ज़मीन से काट डाला गया। मेरे गिरोह के गुनाहों के सबब उस को मार पड़ी। उस की क़ब्र भी शरीरों के दर्मियान ठहराई गई थी। पर अपने मरने के बाद दौलतमंदों के साथ वो हुआ क्योंकि उस ने किसी तरह का ज़ुल्म ना किया। और उस के मुँह में किसी तरह का छल फ़रेब, धोका ना था। लेकिन ख़ुदावन्द को पसंद आया कि उसे कुचले उस ने उसे ग़मगीं किया। जब उस की जान गुनाह के लिए गुज़रानी जाये तो वो अपनी नस्ल को देखेगा और उस की उम्र दराज़ होगी। और ख़ुदा की मर्ज़ी उस के हाथ के वसीले बर आएगी अपनी जान ही का दुख उठा के वो उसे देखेगा और सैर होगा। अपनी ही पहचान से मेरा सादिक़ (सच्चा) बंदा बहुतों को रास्तबाज़ ठहराएगा। क्योंकि वो उनकी बदकारीयाँ अपने ऊपर उठा लेगा।

और दानीएल नबी 6 बाब में पैदाइश मसीह से चार सौ नव्वे (490) बरस पेश्तर यूं कहता है कि, बदकारी की बाबत कफ़्फ़ारा (गुनाह धो देने वाला) किया जाएगा और मसीह क़त्ल किया जाएगा पर ना अपने लिए।

मसीह के कफ़्फ़ारा होने का ज़िक्र इन्जील में बहुत जगह है। चुनान्चे मिन-जुम्ला इस की चंद आयतें बयान की जाती हैं इफ़िसियों का ख़त 5 बाब 2, आयत जिसमें पौलूस रसूल यूं लिखता है तुम मुहब्बत से चलो जैसा मसीह ने हमसे मुहब्बत की। और ख़ुशबू के लिए हमारे एवज़ में अपने तईं ख़ुदा के आगे नज़र और क़ुर्बान किया। पहला कुरिन्थियों का ख़त 5 बाब 3 आयत, मसीह हमारे गुनाहों के वास्ते मुआ। 1 पतरस दूसरा बाब 24 आयत, वो यानी मसीह आप हमारे गुनाहों को अपने बदन पर उठा के सलीब पर चढ़ गया। ताकि हम गुनाहों के हक़ में मर के रास्तबाज़ी में चलें। उन कोड़ों के सबब जो उस पर पड़े तुम चंगे हुए। पहला ख़त यूहन्ना 2 बाब 2 आयत। और वो यानी मसीह हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा है पर फ़क़त हमारे गुनाहों का नहीं बल्कि तमाम दुनिया के गुनाहों का भी। 2 कुरिन्थियों का ख़त 5 बाब 21, आयत उस ने यानी ख़ुदा ने उस को जो गुनाह से नावाक़िफ़ था। हमारे बदले गुनाह ठहराया ताकि हम उस में शामिल हो के इलाही रास्तबाज़ी ठहरें। रोमीयों का ख़त 5 बाब 10, आयत ख़ुदा ने अपने बेटे की मौत के सबब हमसे मेल किया। मुकाशफ़ात 5 बाब 9 आयत, तूने अपने लहू से हमको हर एक फ़िर्क़ा और अहले ज़बान और उम्मत और क़ौम में से मोल लिया।

और ख़ुदावन्द येसू मसीह ख़ुद फ़रमाता है, कि मैं अपनी जान अपनी भेड़ों के लिए देता हूँ बाप मुझे इसलिए प्यार करता है, कि मैं अपनी जान देता हूँ। ताकि मैं उसे फिर लूँ कोई शख़्स उसे मुझसे नहीं लेता पर मैं उसे आप देता हूँ। मेरा इख़्तियार है कि उसे दूँ। और मेरा इख़्तियार है कि उसे फिर लूं ये हुक्म मैंने बाप से पाया है। इस तरह बाइबल में जाबजा ज़िक्र है कि मसीह गुनाह का कफ़्फ़ारा है।

मैं ताज्जुब करता हूँ कि बावस्फ़ (सलीक़ा) इस के मलक शाह साहब किस तरह से फ़र्माते हैं कि बाइबल से मसीह का कफ़्फ़ारा होना साबित नहीं होता।

हर एक शख़्स इन आयतों से मालूम कर सकता है कि बाइबल से मसीह का कफ़्फ़ारा होना साबित है और नीज़ इन आयतों की किसी और तरह तफ़्सीर नहीं हो सकती जिससे इस के ख़िलाफ़ ख़याल दौड़ सके। इसलिए मुनासिब है कि मलिक शाह साहब इन पर ग़ौर फ़र्मा कर ये इल्ज़ाम ईसाईयों पर से उठालें, कि बाइबल से मसीह का कफ़्फ़ारा होना साबित नहीं।

मलिक शाह साहब के वास्ते तो इतने दलाईल (सबूत) काफ़ी हैं। लेकिन इसलिए कि और लोगों को कफ़्फ़ारा के माने और ख़ासियत मालूम नहीं, मैं इस की निस्बत बयान करता हूँ। और चंद और दलाईल देता हूँ मसीह के कफ़्फ़ारा के माने और ख़ासियत समझने के लिए पहले इन बातों पर ग़ौर करना वाजिब है जिनका ज़िक्र ज़ेल में किया जाता है।

1. सारे इंसान गुनेहगार हैं कोई रास्तबाज़ (सच्चा, ईमानदार) नहीं एक भी नहीं सब गुमराह (बेदीन बिद्अती, मुतकब्बिर) हैं कोई नेकोकार नहीं एक भी नहीं। इस कलाम में महल इंसान शामिल हैं अदना फ़क़ीर अमीर पीर पैग़म्बर नबी मुर्सल ग़र्ज़ कि ये कलाम हर फ़र्दे बशर पर मुहीत (घेरा) है।

और याद रहे कि गुनाह दो क़िस्म के हैं एक अमली दूसरा ख़्याली अमली गुनाह तो वो हैं जो ज़ाहिरी अमल और काम व काज में होते हैं। और जिसको हर एक इंसान देख सकता है। और ख़्याली वो हैं जो सिर्फ ख़याल से ताल्लुक़ रखते हैं। और सिर्फ इंसान के दिल में वसवसा (अंदेशा, डर, शक) अंदाज़ होते हैं जैसा कि लालच, ग़ुस्सा, तमअ (हिर्स, ख़्वाहिश) ख़यालात, फ़ासिद (नाक़िस, बर्बाद, तबाह) और दीगर उमूरात मज़मूम (बुरा, ख़राब) मालूम रहे कि ख़ुदा दिल और गुर्दों का जांचने वाला है। और उस के सामने ख़्याली गुनाह भी वैसा ही है जैसा कि अमली। और ये दोनों उस के हुज़ूर हम पल्ला (बराबर हैं। अगर अनुमानों को इन्सान मद्द-ए-नज़र रखे तो किसी को इस से या राय इन्कार नहीं। कि कोई शख़्स गुनाह से बुरी है क्योंकि अगर ज़ाहिरी गुनाह से अहितराज़ (परहेज़। किनारा-कशी भी किया जाये। ताहम ऐसा कोई फ़र्दे बशर नहीं जो ख़्याली गुनाह से बच जाये। पस इन्जील का वो कलाम कि सारे इंसान गुनेहगार हैं ऐन सच्च है।

2. ख़ुदा हमारा ख़ालिक़ मालिक और परवरदिगार है। उसने हमें बनाया और पैदा किया और जो कुछ हमारे पास है वो उस का है। इस वास्ते हम पर फ़र्ज़ है कि हम उस की बंदगी और फ़रमांबर्दारी करें। और उस की ताबेदारी बजा लाएं। और उस से दिल व जान से मुहब्बत रखें। और उस की मर्ज़ी पूरा करने के लिए कोशिश करें। अगर हम ये फ़र्ज़ अदा ना करें तो हम उस के क़सूरवार और गुनेहगार और फ़र्ज़ के क़र्ज़दार ठहरते हैं। और सज़ा के लायक़ होते हैं इस वास्ते हर एक गुनेहगार उस के हुज़ूर फ़र्ज़ और फ़रमांबर्दारी का देनदार है और सज़ा का सज़ावार है।

3. ये फ़र्ज़ का दीन इंसान तौबा के वसीले से अदा नहीं कर सकता। क्योंकि तौबा हमारी तरफ़ से ख़ुदा की तरफ़ वाजिब है। अगर वाजिब को अदा करें तो पिछ्ला देन साक़ित (निकम्मा, गिरा हुआ, मुस्तर्द) नहीं होता तो ये पिछली चीज़ों पर असर नहीं कर सकती। ये सिर्फ़ आइन्दा से ताल्लुक़ रखती है मसलन एक कर्ज़दार क़र्ज़ उठाने से तौबा करे। और आइंदा बल्कि क़ायम रहता है। हाँ आइंदा[1] को वो इस बोझ से सबकदोश (जिस पर कोई बोझ हो) रहता है। ऐसा ही अगर कोई शख़्स बेवक़ूफ़ी से अपने किसी अज़्व (बदन का टुकड़ा, जिस्म) को काट डाले और आइंदा को ऐसे काम करने से तौबा करे। और एहतियात अमल में लाए। तो इस तोहम करने से वो उस का उज़ू दुरुस्त नहीं हो जाएगा। गो आइंदा को उस के दूसरे उज़ू सलामत और महफ़ूज़ रहें। इसी तरह इंसान गुनेहगार जब अपने गुनाहों से पशेमान (शर्मिंदा) हो के तौबा करता है। और गुनाहों से परहेज़ और कफ़्फ़ारा करके ख़ुदा की तरफ़ मुतवज्जोह होता है, तो इस से उस के गुनाह साबिक़ा ज़ाइल (दूर, कम) नहीं हो जाते। हाँ उस की तौबा का असर उस की आइंदा ज़िंदगी पर ज़रूर पहुंचता है उस के साबिक़ा गुनाहों की माफ़ी के लिए कोई और तरीक़ या कोई और वसीला ज़रूर है लेकिन तौबा ईलाज नाकारा है।

4. एक और सबब है जिससे साबित होता है कि गुनाह तौबा से माफ़ नहीं हो सकता। वो ये है कि ख़ुदा आदिल (इन्साफ़) करने वाला और मुंसिफ़ है। और उस की अदालत उस के हर एक काम में ज़ाहिर होती है अदालत उस की ज़ात का एक हिस्सा है और इस के बग़ैर वो कुछ नहीं कर सकता। और हर एक अम्र (काम, फ़ेअल) में उस को मल्हूज़ (ख़याल, लिहाज़ रखना) रखता है। अदालत इस अम्र की मुक़तज़ी (ख़याल, तक़ाज़ा करने वाला) है, कि हर एक गुनेहगार गुनाह के एवज़ में सज़ा पाए। और हर एक ख़ता (ग़लती) और ग़फ़लत (लापरवाही) के एवज़ में इस पर सज़ा का फ़त्वा सादिर (नाफ़िज़) किया जाये। और वो किसी शख़्स को बरी ज़िम्मा नहीं करते, जब तक कि वो फ़रमांबर्दारी और इताअत (जो उस पर वाजिब है) ख़ुदा की तरफ़ अदा ना हुई हो अलबत्ता ये ज़रूर है कि ख़ुदा बड़ा रहीम है और रहीमी की सिफ़त उस में मौजूद है। लेकिन ये रहम उस का अदल (इन्साफ़, बराबरी) के साथ मिला हुआ है। और जब तक उस की अदालत का हक़ पूरा ना हो तब तक वो रहम गुनेहगारों की बख़्शिश और नजात में ज़ाहिर नहीं होता। पस फिर क्योंकर तौबा गुनाहों की माफ़ी का वसीला हो सकती है।

5. बसूरत हाय मस्बूक़-उल-ज़िक्र यानी जब कि ख़ुदा की बंदगी और फ़रमांबर्दारी और उस के अहकाम और शरीअत की इताअत हम पर[2] फ़र्ज़ और वाजिब (लाज़िमी) है। और हम बाखल्क़त गुनेहगार और मुसीबत परवरदह हैं। और किसी सूरत से हम उस के फ़र्ज़ को अदा नहीं कर सकते। और तौबा हमारी नजात का वसीला नहीं हो सकती और ना हमारे पिछले गुनाहों को मादूम (मिटाया गया, फ़ना) कर सकती है। और उस की अदालत हमारी निस्बत सज़ा का फ़त्वा सादिर (नाफ़िज़) करती है। और हमारे लिए कोई सूरत बरतीत की नहीं। और हम निहायत नाउम्मीदी और यास की हालत में हैं। तो ज़रूर था कि कोई और तरीक़ा हमारी नजात का होता जिससे ख़ुदा का रहम भी ज़ाहिर होता और उस का अदल (इन्साफ़) भी क़ायम और बरक़रार रहता।

पस ख़ुदा ने ऐसे बेहद रहम को काम में लाकर अपनी लातादाद हिक्मत से हमारे लिए एक तरीक़ा नजात का निकाला। जिससे उस की अदालत में भी कुछ फ़र्क़ नहीं आया वो ये है, कि ख़ुदावन्द येसू मसीह को जो इब्ने-अल्लाह था इस दुनिया में भेजा और इस ने पैराये इंसानियत में आकर 33 बरस तक दुनिया में ज़िंदगानी बसर की और आख़िर को उस ने गुनेहगारों का ज़ामिन बन के और उन के एवज़ में आप सज़ा उठा के ख़ुदा की शरीअत को पूरा किया और सारा हक़ उस की अदालत का पहुंचाया। यानी वो पूरी और कामिल फ़रमांबर्दारी जो इंसान पर ख़ुदा की तरफ़ वाजिब (लाज़िमी) थी। येसू मसीह ने इंसान का ज़ामिन (ज़मानत देने वाला) हो कर पूरी की। और आख़िरश (अंजाम-कार) उस ने अपनी जान इंसान के एवज़ में सलीब पर दी। और आप बेगुनाह हो कर उस ने गुनेहगारों की सज़ा अपने सर उठाई।

और यही अम्र यानी येसू का इंसान के एवज़ में ख़ुदा की फ़रमांबर्दारी उठाना और गुनाह की सज़ा का अपने ऊपर बर्दाश्त करना कफ़्फ़ारा कहलाता है जो शख़्स इस कफ़्फ़ारे पर ईमान लाता है वो गुनाह की सज़ा से बच जाता है। क्योंकि वो सज़ा और सियासत जो उस पर लाज़िम थी उस ने पूरी की।

अब अदालत भी बरक़रार रही। और उस का रहम भी बाज़हूर (ज़ाहिर होना) आ गया। और इंसान को नजात की उम्मीद हो गई। यही एक तरीक़ा नजात का है जिसका ज़िक्र ऊपर हुआ और जो इन्जील से ज़ाहिर है।

अब वाज़ेह राय ज़रीन नाज़रीन हो कि इस तरीक़ा नजात यानी कफ़्फ़ारे पर दो एतराज़ लाज़िम आते हैं :-

(अव़्वल ये) कि एक आदमी की मौत से किस तरह बहुतों की माफ़ी हो सकती है। ख़ुदावन्द येसू मसीह अकेला गुनेहगारों के एवज़ में सलीबी मौत उठा कर कफ़्फ़ारा हुआ। इस एक कफ़्फ़ारे से सारी दुनिया की नजात किस तरह हो सकती है एक आदमी के एवज़ में एक ही बच सकता है ना कि कुल दुनिया।

इस का जवाब ये है, कि ख़ुदावन्द येसू मसीह आम इंसानों के मुवाफ़िक़ इंसान नहीं था। बल्कि उस में उलूहियत थी यानी ज़ात व सिफ़ात ख़ुदा के मौजूद थी। और इस उलूहियत के सबब जो कुछ काम व काज उस ने जामा इंसानी में किया। उस में उलूहियत का असर पहुंचा और उस के दर्जा और सिफ़त ने इस में तास्सुर किया। इसलिए जब मसीह ने इंसान के एवज़ में फ़रमांबर्दारी और मौत उठाई। तब उस के अहकाम में भी दर्जा उलूहियत का पहुंचा। इसलिए मसीह की रास्तबाज़ी बेहद रास्तबाज़ी थी। उस की मौत का असर भी बेहद है वो पूरा और कामिल और बे नुक़्स और सबसे बढ़कर इन्सान था या ये कहें कि वो एक बड़ी क़द्र व मंजिलत का इंसान था। और उस में उलूहियत भी मौजूद थी। इसलिए उस की जान गिरामी सारी दुनिया का कफ़्फ़ारा हो सकती है। और उस की एक जान तमाम जहान के एवज़ काफ़ी ख़याल की जा सकती है बल्कि मेरी राय तो ये है कि उस की क़ीमत इस से भी बढ़कर है क्योंकि उस का मर्तबा बेहद है।

(दूसरा एतराज़) इस बयान से बेइंसाफ़ी ज़ाहिर होती है कि गुनाह और इंसानों ने किया और सज़ा मसीह ने उठाई इस से ख़ुदा का इन्साफ़ क़ायम नहीं रहता कि करे कोई और भरे कोई।

इस का पहला जवाब यूं है इस से ख़ुदा की बेइंसाफ़ी ज़ाहिर नहीं होती क्योंकि मसीह ने अपनी मर्ज़ी और अपनी ख़ुशी से ये सज़ा बओज़ गुनेहगारों के अपने ऊपर उठाई। देखो यूहन्ना की इन्जील जिसमें मसीह ख़ुदावन्द ख़ुद फ़रमाता है कि मैं अपनी जान भेड़ों के लिए देता हूँ मैं अपनी ख़ुशी से उसे देता हूँ कोई उसे मुझसे नहीं लेता मुझको इख़्तियार है, कि मैं उसे दूँ या फिर लूँ। वो आप इंसान पर रहम खा कर गुनेहगारों का ज़ामिन बना। और उन के एवज़ में उस ने ख़ुद गुनाह की सज़ा अपने सर पर उठाई इस हाल में क्योंकर ख़ुदा बे इन्साफ़ हो सकता है।

(2) जवाब ये हो सकता है कि एक के एवज़ में दूसरा सज़ा का सज़ावार हो। देखो दुनिया का आम वतिरा (दस्तूर) है कि ज़ामिन अपने अस्ल मुजरिम के एवज़ में माख़ूज़ (अख़ज़ करना) किया जाता है। और ख़ुदा के इंतिज़ाम में तो ये आम है और उस की परवरदिगारी के काम में हम अक्सर देखते हैं, कि एक शख़्स दूसरे के एवज़ जिससे उस का कुछ ताल्लुक़ हो सज़ा उठाता है। देखो बाप हरामकारी करता है और उस की बीमारी का असर बेटे पर पहुंचता है और वो आतिशक (एक जिन्सी बीमारी) की बीमारी से मरता और जलता है। बाप बदकारी में अपने जिस्म को कमज़ोर करता है और इस का अज़ाब उस की नस्ल पर पड़ता है। देखो गुनाह-ए-आदम से बज़हुर आया उस के एवज़ में उस की तमाम नस्ल को बहिश्त से महरूम रखा गया। ताहम हम ख़ुदा को बे इन्साफ़ नहीं कह सकते। ये सब परवरदिगारी के इंतिज़ाम हैं इस में हम नुक़्स नहीं निकाल सकते। पस जब इस में नुक़्स नहीं निकाल सकते तो हम पर वाजिब है, कि हम नजात के काम में भी नुक़्स ना निकालें बल्कि हमें वाजिब है कि हम उस के मुताबिक़ परवरदिगारी के कामों को क़ुबूल लें।

फ़ुर्सत हुई तो आइंदा अख़्बार में मसीह के खातिमुन-न्नबीय्यीन होने की निस्बत बयान होगा।

 


[1] बमतबअ अमरीकन मिशन लुदियाना बएहतमाम पादरी वेरी साहब के छपा। अगर नक़द सौदा लेता रहता है तो उस से उस का पिछला क़र्ज़ जाता नहीं रहता। बाक़ी हफ्ता आइन्दा।

 

[2] खान पर बाबत खेवा के जुर्माना हुआ है जो 1993 तक अदा किया जाएगा।

वो नजात पाएं

नाज़रीन नूर अफ़्शां को मालूम हुआ, कि हम मसीहियों में ये दस्तूर-उल-अमल है। कि नए साल के शुरू में बमाह जनवरी एक हफ़्ता बराबर मुख़्तलिफ़ मक़ासिद व मुतालिब पर ख़ुदा से दुआ मांगें। मसलन अपने गुनाहों का इक़रार।” ख़ुदा की नेअमतों का शुक्रिया, रूहुल-क़ुद्दुस की भर पूरी, उस के कलाम के फैलाए जाने की ख़्वाहिश

They get salvation

वो नजात पाएं

By

Kidarnath
केदारनाथ

Published in Nur-i-Afshan Jan 25, 1895

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 25 जनवरी 1895 ई॰

पूरी आयत इस पर है, “ऐ भाईयो मेरी दिल की ख़्वाहिश। और ख़ुदा से मेरी दुआ इस्राईल की बाबत ये है, कि वो नजात पाएं।”

नाज़रीन नूर अफ़्शां को मालूम हुआ, कि हम मसीहियों में ये दस्तूर-उल-अमल है। कि नए साल के शुरू में बमाह जनवरी एक हफ़्ता बराबर मुख़्तलिफ़ मक़ासिद व मुतालिब पर ख़ुदा से दुआ मांगें। मसलन अपने गुनाहों का इक़रार।” ख़ुदा की नेअमतों का शुक्रिया, रूहुल-क़ुद्दुस की भर पूरी, उस के कलाम के फैलाए जाने की ख़्वाहिश, हाकिमों पर बरकत, हिंदू मुसलमानों की नजात वग़ैरह। इसी सिलसिले में ख़ुदा की बर्गुज़ीदा क़ौम बनी-इस्राईल के वास्ते भी दुआएं मांगी जाती हैं। चुनान्चे हमारे यहां फर्रुखाबाद के गिरजाघर में भी बतारीख़ दहुम (10) माह जनवरी 95 ई॰ यही क़रार पाया, कि यहूदीयों के वास्ते दुआ व मुनाजात की जाये। और तारीख़ मुन्दरिजा सदर के वास्ते बंदा क़रार पाया था। लिहाज़ा 4 बजे शाम को मुन्दरिजा उन्वान आयत पर कुछ थोड़ी देर तक बयान हुआ। और ख़त रोमीयों 9 बाब पढ़ा गया। इस बाब की पहली आयत से पढ़ते हुए 5वीं आयत के इस आख़िरी फ़िक़्रह पर, कि “जो सब का ख़ुदा हमेशा मुबारक है।” पहुंचा, तब बंदे को ख़याल हुआ, कि रसूल का इस फ़िक़्रह से क्या मतलब है। और ख़याल पैदा होने का सबब ये था, कि अर्सा से बअवकात मुख़्तलिफ़ एक रिसाला मौसूमा उलूहियत मसीह मअनवता व मोइलफ़ा मिस्टर अकबर मसीह मुख़्तार बांदा बंदा के ज़ेर-ए-नज़र रहता है। रिसाला मज़्कूर में भी सफ़ा 97 पर इसी फ़िक़्रह की बाबत कुछ बह्स है। चूँकि मुख़्तार साहब उलूहियत मसीह के मुन्किर हैं।

लिहाज़ा उन्हों ने अपने ख़याल की ताईद में पौलुस रसूल की अफ़्ज़ल-उल-तफ़सील दलील को, जो बनी-इस्राईल की फ़ज़ीलत और दुनिया की तमाम अक़्वाम पर साबित करती है। बह्स की सूरत में लाना अपना फ़र्ज़ समझा। आपकी मिसाल वही है जो एक हकीम से निकली है। कि जिसने बग़ैर पढ़े और ताअलीम हासिल कएचंद जोहला देहात (अनपढ़ देहाती) को धोखा दे रखा था। एक मर्तबा का ज़िक्र है। कि हकीम मौसूफ़ के पास एक ऐसा मरीज़ लाया गया। जिसकी दवा आपके ज़हन शरीफ़ में ना आ सकी। और ना मर्ज़ की तशख़ीस हो सकी। अब अगर कहते हैं कि और हकीम के पास जाओ। तो पेट का धंदा जाता है। बदनामी होती है। लोग कहेंगे कि पूरे हकीम नहीं हैं। पस कुछ सोच साच कर आएं, बाएं शाएं तीन पुड़ीयां ख़ाक धूल बला की बना कर मरीज़ के हवाले कीं। और फ़रमाया कि इन पुड़यों को इस्तिमाल करते हुए ऊंट का ख़याल ना करना। मतलब ये कि अगर मरीज़ ने कभी ऊंट देखा भी ना हो। तो भी जब इन पुड़यों के खाने का इरादा करेगा, फ़ौरन ऊंट का ख़याल पैदा होगा। ग़र्ज़ ये कि इन पुड़ीयों से मरीज़ को फ़ायदा ना हुआ। इसलिए कि मरीज़ ऊंट के ख़याल को अपने दिमाग़ से बाहर ना कर सका। यही सबब था कि बंदे को विर्द पढ़ते हुए भी मुख़्तार साहब की दलील ना भूली। बल्कि ख़ुद बख़ुद ख़याल सब आ मौजूद हुए। और अच्छा हुआ, कि ऐसे वक़्त में ख़याल पैदा हुआ। क्योंकि चंद सबबों का बयान करना ज़रूरी था। ताकि कुल शुरका इबादत के दिल इस बात पर मुतवज्जोह हो जाएं, कि क्यों बनी इस्राईल के वास्ते आज दुआ चाहीए।

बल्कि येसू मसीह पर ईमान लाने से रास्तबाज़ गिना जाता है

मिनजुम्ला उन अस्बाब के पहला सबब क़वी (मज़्बूत) ये है, कि वो इस्राईली हैं। और फ़र्ज़ंदी, और जलाल, और ईदें, और शरीअत, और इबादत की रस्में। और वाअदे उन्हीं के हैं। और दूसरा सबब ये है कि बाप दादे उन ही में से हैं। और तीसरा सबब ये है कि जिस्म की निस्बत मसीह भी उन में से हुआ। लेकिन इस तीसरे सबब पर हमको एतराज़ है। अगर जिस्म के मअनी कुछ और ना हों। इस वास्ते कि बाप दादे यानी अबराहाम, इज़्हाक़, याक़ूब वग़ैरह क्या जिस्म नहीं रखते थे? फिर मसीह को बाप दादों से अलैहदा कर के बयान करने में रसूल का क्या मतलब है। मुख़्तार साहब हमको समझा दें। आया वही मतलब है, जो क़ुरआन की सूरह इन्ना अंज़लना के इस फ़िक़्रह में है, “تَنَزَّلُالملايکتہ وَالرُّوح” (उतरते हैं फ़रिश्ते और रूह) अगर रूह से रूहुल-क़ुद्दुस ख़ुदा मुराद नहीं तो क्या है। अगर जिब्राईल का नाम रूह है। तो क्या जिब्राईल फ़रिश्ता नहीं है। और फ़रिश्तों के उतरने में जिब्राईल को उतरा हुआ नहीं समझेंगे। या इस का वो मतलब है, जो क़ुरआन की इन आयतों में है, “فَارَنسَلُناَاِلَيھٰارُوُحنا۔فنَفَخُنَافيھامِن روحِناٰ” (पस फूंक दी हमने उस की तरफ़ अपनी रूह में से) क्या यहां इन दोनों रूहों में कुछ मुग़ाइरत (ना मुवाफ़िक़त, अजनबीयत) है। या नहीं? अगर है तो क़ुरआन से ख़ुदा की रूह की शख़्सियत साबित हो गई। और अगर मुग़ाइरत नहीं है। तो क्या जिब्राईल ने जिब्राईल को फूंक दिया? ये कैसी बात है।

नाज़रीन नाराज़ ना हों। और ना कहें कि इन्जील से मसीह की बह्स में क़ुरआनी दलाईल। और ख़ासकर रूह-उल-क़ुद्दुस की उलूहियत का बयान पेश करना चेह माअनी? जनाब-ए-मन बेमाअनी नहीं, बल्कि ये दिखाना चाहा है, कि युनिटेरियन दलाईल मुहम्मदी दलाईल के सगे भाई हैं। जो वहां है सो यहां है। जो यहां है सो वहां है। लेकिन हमारे एतराज़ का जवाब ख़ुद पौलुस रसूल से हमको ये मिलता है, कि प्यारे भाई, अगरचे ख़ुदावंद मसीह जिस्म की निस्बत बाप दादों से कुछ भी मुग़ाइरत नहीं रखता। (और मेरे दूसरे सबब ही में ये तीसरा सबब भी मिल जाता है) पर तो भी ज़माना आइंदा में मसीह के मुख़ालिफ़ उठेंगे। और लोगों के दिलों में शुब्हा पैदा करेंगे। इस वास्ते मैंने तुमको साफ़ बता दिया, कि जिस्म की निस्बत मसीह भी उन ही में से हुआ। जो सब का ख़ुदा हमेशा मुबारक है। मतलब ये है कि मसीह ख़ुदावन्द जब मुजस्सम हुआ। तब ग़ैर-अक़्वाम में नहीं। बल्कि ख़ुदा की बर्गुज़ीदा क़ौम इस्राईल में। क्योंकि नजात यहूदीयों में से है। और अगर ज़्यादा इत्मीनान ख़ातिर मंज़ूर हो, तो मर्क़ुस की इन्जील में सरदार काहिन से दर्याफ़्त करो। वो तुम्हें बता देगा। क्योंकि 14:61 में सरदार काहिन ने उस से पूछा, कि क्या तो मसीह उस मुबारक का बेटा है? तब 62वीं आयत में येसू ने उस से कहा, मैं वही हूँ

मुख़्तार साहब अगर मसीह में उलूहियत ना थी। तो बाप दादों से बिला-वजह मौजा अलेहदा करना ख़लल-ए-दिमाग़ के सिवा और क्या हो सकता है?। लेकिन मुलहम शख़्स की बाबत ऐसा बदगुमान ना तो आप कर सकते हैं और ना मैं। फिर आपकी ये दलील कि “मुक़द्दस पौलुस ने किसी एक जगह भी मसीह के के हक़ में ये ख़िताब इस्तिमाल नहीं किया” इस का जवाब ये है कि इस आयत में इस्तिमाल किया है। अगर दूसरी जगह भी इन ही अल्फ़ाज़ को इस्तिमाल करता तब आप क्या कहते? और तीसरी जगह भी इस्तिमाल करता। और चौथी जगह भी इस्तिमाल करता तो आप क्या कहते? फिर आप ही तो कहते हैं कि बजिन्सा ये वही फ़िक़्रह है, जो रोमीयों 1-25 में है। और ख़ल्क़ की निस्बत लिखा है। वाह जनाब यही तो दलील है। कि ख़ुदा के कलाम में मसीह के हक़ में अक्सर ख़िताब पाए जाते हैं। जो ख़ुदा की निस्बत हैं। पस बावजूद उन सिफ़ात के जो ख़ुदा की मुअर्रिफ़ (तारीफ़ करने वाला) हैं। मसीह की उलुहिय्यत को रद्द करना किस क़ानून की रु से दुरुस्त है? अब आख़िरी फ़ैसला सुनीए। ख़ुदा बाप की उलुहियत के आप भी क़ाइल हैं। और रूहुल-क़ुद्दुस की उलुहियत क़ुरआन से ज़ाहिर हो चुकी है। और मसीह की उलुहियत इस अफ़्ज़ल-उल-तफ़सील दलील-ए-पौलुस से आपको दिखाई गई। बराहे मेहरबानी तस्लीस की फिर तन्क़ीह (तहक़ीक़) फ़रमाए। और अपने रिसाले का जवाब जल्द छपवाए।