इब्न आदम सरदार काहिनों के हवाले

मसीह का मरना और जी उठना मत्ती की इन्जील से लेकर मुकाशफ़ात की किताब तक ऐसा साफ़ और मुफ़स्सिल बयान है जो कि इन दोनों में ज़र्रा भर शक व शुब्हा को दख़ल और गुंजाइश नहीं है। इस में शक नहीं सिर्फ इन दो बातों पर ही दीन मसीही का सारा दारोमदार रखा गया है। अगर उन में से एक बात वाक़ई और दूसरी ग़ैर-वाक़ई ठहरती तो दीन ईस्वी मुतलक़ किसी

Son of Man in hands of Chief Priests

इब्न आदम सरदार काहिनों के हवाले

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Aug 20, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 20 अगस्त 1891 ई॰

देखो हम यरूशलेम को जाते हैं और इब्न-ए-आदम सरदार काहिनों और फ़क़ीहों के हवाले किया जाएगा। और वह उस पर क़त्ल का हुक्म देंगे। और उसे ग़ैर-क़ौमों के हवाले करेंगे, कि ठठ्ठों में उड़ा दें, और कोड़े मारें और सलीब पर खींचें। पर वो तीसरे दिन जी उठेगा। (मत्ती 20:18-19)

मसीह का मरना और जी उठना मत्ती की इन्जील से लेकर मुकाशफ़ात की किताब तक ऐसा साफ़ और मुफ़स्सिल बयान है जो कि इन दोनों में ज़र्रा भर शक व शुब्हा को दख़ल और गुंजाइश नहीं है। इस में शक नहीं सिर्फ इन दो बातों पर ही दीन मसीही का सारा दारोमदार रखा गया है। अगर उन में से एक बात वाक़ई और दूसरी ग़ैर-वाक़ई ठहरती तो दीन ईस्वी मुतलक़ किसी काम का ना था। लेकिन शुक्र का मुक़ाम है कि मसीह ख़ुदावंद ने ख़ुद और उस के बाद उस के रसूलों ने इन बातों का ऐसा साफ़ और सही बयान किया और लिखा है कि ईमानदार आदमी के दिल में उनकी निस्बत कभी किस तरह का शक ना गुज़रे। ख़ुदावंद जानता था कि उस के बाद सच्चाई के मुख़ालिफ़ लोग खड़े होंगे और उस की हयात व ममात (ज़िंदगी और मौत) के बारे में ग़लत ताअलीम देकर बहुतों के हक़ीक़ी ईमान से बर्गशता और राह-ए-नजात से गुमराह करेंगे। चुनान्चे ऐसा ही हुआ कि आज लाखों आदमी मौजूद हैं जो हर दो वाक़ियात मज़्कूर बाला में से एक को क़ुबूल करते और दूसरे को रद्द करते हैं। यूरोप के बाअज़ मशहूर मुल्हिदों (मुन्किरीन ख़ुदा) और बिद्दतियों ने बावजूद ये कि उस उम्दियत (क़ाबिल-तारीफ़) ताअलीम अख़्लाक़ और उस की नेक चलनी और रास्तबाज़ी के मुक़र (इक़रार करने वाला) हुए। लेकिन उस के जी उठने का इन्कार किया। मुस्लिम भाई अगरचे उस की मोअजिज़ नुमाई और इस्मत व अज़मत को तस्लीम करते। मगर उस की मौत के क़ाइल नहीं हैं। और यह एक ऐसी भारी बात है कि जिसकी निस्बत फ़ी ज़माना (हर दौर, हर ज़माना) उलमाए मुहम्मदियाह में बाहम बड़ी बह्स व तकरार वाक़ेअ है। और तरह-तरह की तावीलें और तफ़्सीरें क़ुरआनी आयात व अहादीस की कर रहे हैं। और इन्जीली बयान से क़ुरआनी बयान को मुताबिक़ करने की कोशिश व फ़िक्र में हैरान व सर-गर्दान हैं। एक मुहम्मदी आलिम अपने ख़याल में बेहतर समझता है कि क़ुरआनी आयत (وماقتلوہ وماصلبوہ) इस माअनी से दुरुस्त है कि मसीह तल्वार से क़त्ल नहीं किया गया। और मस्लूब बामाअनी इस्तिख़्वान (हड्डी) शिकस्ता नहीं हुआ। दूसरा क़ियास दौड़ाता है कि मसीह सलीब दिया गया, लेकिन जब कि उस में कुछ जान बाक़ी थी उसे सलीब से उतार के दफ़न कर दिया, और शागिर्द उस की लाश को निकाल ले गए। और वो चंगा भला हो कर फिर किसी बीमारी में मुब्तला हो कर फ़ौत हो गया। और (انی متوفیک) यही मअनी रखता है। तीसरा शख़्स सर्फ़ व नहु (वो इल्म जिसमें लफ़्ज़ों का जोड़ तोड़ और उनके बोलने बरतने का क़ायदा बयान किया जाये) को अपने सहारे के लिए पेश करके लफ़्ज़ मुतवफ़्फ़ी (متوفی) को वफ़ात से मुश्तक़ बतला के हक़ीक़त पर पर्दा डालने और मसीह की वफ़ात के वाक़िये को टालने की कोशिश करता है, लेकिन कोई बात नहीं आती। और ये मुअम्मा (मख़्फ़ी, छिपी) वो बात जो बतौर रम्ज़ बयान की जाये) जूं का तूं क़ायम रहता है। सच्च तो यूं है कि मुहम्मदियों के दिलों में आजकल इस मसअले बाबत तरह तरह के ख़याल पैदा हो रहे हैं और वो नहीं जानते कि इस संग-ए-तसादुम (लड़ाई की वजह) को हटाकर क्योंकर अपने लिए कोई राह निकालें। इस में शक नहीं कि मुसन्निफ़-ए-क़ुरआन ने इस मसअले अहम की निस्बत मुफ़स्सिल ज़िक्र नहीं लिखा और एक चीस्तान (पहेली, बुझारत) कह के यूंही छोड़ दिया कि अक़्लमंद और होशियार आदमी ख़ुद उस का फल दर्याफ़्त कर लेंगे। लेकिन इस मुआमले में कुतुब अहादीस ने ऐसा लोगों को कशमकश में फंसा दिया कि क़ुरआनी मुख़्तसर लेकिन वाक़ई बयान की सही समझ में वो हर तरफ़ डांवां डोल फिर रहे हैं। अगर क़ुरआनी ताअलीम के मुताबिक़ मसीह के विलादत, मौत और फिर जी उठने का बयान सिर्फ सादा तौर पर (सूरह मर्यम) की इस आयात ज़ेल से मालूम करके। फिर उस की तफ़्सीर व तफ़सील के लिए इन्जील मुक़द्दस में तलाश करें। तो उस की विलादत और मौत व हयात का मुफ़स्सिल व मतूल (तवील) बयान उस में पाएँगे। और यूं इस ख़ुलजान (ख़लिश, फ़िक्र) से रिहाई हासिल करना एक आसान अम्र होगा। सूरह मर्यम आयत 33 में यूं लिखा है (وَ السَّلٰمُ عَلَیَّ یَوۡمَ وُلِدۡتُّ وَ یَوۡمَ اَمُوۡتُ وَ یَوۡمَ اُبۡعَثُ حَیًّا) यानी सलाम है मुझ पर जिस दिन मैं पैदा हुआ। जिस दिन मैं मरूँ। और जिस दिन मैं उठूँ ज़िंदा। अब अगर इन तीनों बातों यानी उस की विलादत, मौत और ज़िंदा उठने का बयान मुफ़स्सिल देखना और मालूम करना चाहते हो तो अनाजील अर्बा और नामजात व मुकाशफ़ात (ख़ुतूत और मुकाशफ़ा) में हर एक हक़-जू पढ़ के अपनी दिली तसल्ली व तशफ़ी हासिल कर सकता है। हदीसों में इन बातों की तलाश बेफ़ाइदा है। क़ुरआन ने उस की विलादत और मौत और फिर जी उठने का मुख़्तसर बयान कर दिया। अब चाहे कि इन्जील के मुफ़स्सिल बयान को इन बातों के लिए देखें और तमाम शकूक व शुब्हात रफ़ा हो जाएंगे।

इल्हाम

इस उन्वान का एक मज़्मून अलीगढ़ इंस्टिट्यूट गेज़ेत में और उस से मन्क़ूल औध अख़्बार में शाएअ हुआ है। इल्हाम के इस्तिलाही मअनी और इल्हाम की क़िस्में और उस के नतीजे जो कुछ इस में लिखे हैं। वो सिर्फ़ मुहम्मदी इल्हाम से इलाक़ा रखते हैं। वो सब तख़ैयुलात और तुहमात जो दीवाने-पन से कम नहीं हैं। वो उन्हीं से इलाक़ा रखते हैं।

Revelation

इल्हाम

By

One Christian Seyyed

एक मसीही सय्यद

Published in Nur-i-Afshan August 27, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 27 अगस्त 1891 ई

इस उन्वान का एक मज़्मून अलीगढ़ इंस्टिट्यूट गेज़ेत में और उस से मन्क़ूल औध अख़्बार में शाएअ हुआ है। इल्हाम के इस्तिलाही मअनी और इल्हाम की क़िस्में और उस के नतीजे जो कुछ इस में लिखे हैं। वो सिर्फ़ मुहम्मदी इल्हाम से इलाक़ा रखते हैं। वो सब तख़ैयुलात और तुहमात जो दीवाने-पन से कम नहीं हैं। वो उन्हीं से इलाक़ा रखते हैं। मुसलमान को चाहिए कि सर सय्यद अहमद ख़ान साहब की बातों को जांचें और परखें और वैसा ही पाएं तो उन तख़ैयुलात और तोहमात से सर ख़ाली करें। लेकिन अहले-किताब यानी यहूद व नसारा के रसूलों और नबियों और मुक़द्दसों के इल्हाम उन से बिल्कुल जुदा हैं।

हमारी इस्तिलाह में इल्हाम और वही एक ही चीज़ का नाम है। वो ऐसा कलाम है जो रोज़-ए-रौशन की मानिंद सच-मुच ख़ुदा की तरफ़ से बंदे की तरफ़ उस के दिल में डाला जाता है या जिन जिन सच्ची बातों के बयान करने का उस को हुक्म होता है।

ये बात भी सोचने के लायक़ है कि जो बातें सय्यद साहब ने तबीन-उल-कलाम” के दूसरे मुक़द्दमे में वही और इल्हाम की तारीफ़ और अक़्साम (मुख्तलिफ़ क़िस्में) की निस्बत लिखी हैं उन से और इस मज़्मून से क्या मेल है।

राक़िम एक मसीही सय्यद

मौलवियों के सवालात

कुछ महीनों की बात है कि इतवार को शाम की नमाज़ के लिए मैं इंग्लिश चर्च में था कि एक भाई आए और बोले कि मुनादी के वक़्त एक मौलवी साहब पादरी साहब से आन भिड़े हैं। सो पादरी साहब ने आप को याद किया है। मैंने कहा बहुत इस्लाम कहो और ये कि मुझे तो माफ़ फ़रमाएं, मैं तो ऐसी गुफ़्तगुओं में कुछ लुत्फ़ और फ़ायदा नहीं देखता हूँ।

Objection of Mulwais

मौलवियों के सवालात

By

Safdar Ali Bhandara

सफ़दर अली भंडारा

Published in Nur-i-Afshan Sep 10, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 10 सितंबर 1891 ई॰

कुछ महीनों की बात है कि इतवार को शाम की नमाज़ के लिए मैं इंग्लिश चर्च में था कि एक भाई आए और बोले कि मुनादी के वक़्त एक मौलवी साहब पादरी साहब से आन भिड़े हैं। सो पादरी साहब ने आप को याद किया है। मैंने कहा बहुत इस्लाम कहो और ये कि मुझे तो माफ़ फ़रमाएं, मैं तो ऐसी गुफ़्तगुओं में कुछ लुत्फ़ और फ़ायदा नहीं देखता हूँ। और इसलिए जलसों में कभी नहीं जाता। भाई ने इसरार किया कि ज़रूर चलो। बाज़ार से दोनों साहब बंगले पर चले आए हैं। खड़े-खड़े एक बात बताने की है, और बस कि मौलवी साहब अंग्रेज़ी नहीं जानते। और आपको मालूम है कि पादरी साहब उर्दू नहीं जानते। ग़र्ज़ में मुक़ाम पर पहुंचा तो मालूम हुआ कि मौलवी साहब कहते थे, कि तुम ईसाई मसीह को ख़ुदा का बेटा कहते हो। भला तुम दिखा तो दो कि इन्जील में कहाँ ऐसा लिखा है? पादरी साहब ने (इन्जील मत्ती बाब 3 आयत आयत 17) निकाल कर दिखा दी थी, कि (आस्मान से एक आवाज़ ये कहती आई कि ये मेरा प्यारा बेटा है जिसमें ख़ुश हूँ।) और इस पर मौलवी साहब बोले मुझे उर्दू तर्जुमा नहीं चाहिए, अस्ल किताब दिखाओ। पादरी साहब उन्हें अपने बंगले के पास लाए और यूनानी नुस्ख़ा दिखा कर कहते थे, कि देखो अस्ल इन्जील यूनानी है इस में भी ऐसा ही लिखा है। मौलवी साहब कहते थे कि ये तो अंग्रेज़ी है, मुझे इब्रानी लाकर दिखाओ। मैंने कहा आपको इब्रानी नुस्ख़ा पढ़ना है तो मेरे घर पर मौजूद है, अभी थोड़ी देर में ला देता हूँ। अब तो मौलवी साहब ने दूसरा पहलू बदला बोले मगरिब की नमाज़ का वक़्त नज़्दीक हो चला है, अब तो मैं नहीं ठहर सकता हूँ और दूसरा दिन और वक़्त और मुक़ाम मुसाफ़िरखाना ठहरा कर चले गए। वक़्त और मुक़ाम मुईन पर मैं और पादरी साहब हाज़िर हुए। देर तक इंतिज़ार किया पर मौलवी साहब तशरीफ़ ना लाए। देर के बाद एक मुसलमान ये पयाम लाए कि मौलवी साहब नहीं आएँगे। जब तक आप चिट्ठी ना लिखें। पादरी साहब ने चिठ्ठी लिखी। कुछ अर्से बाद मौलवी सय्यद अहमद साहब मौसूफ़ एक वेकसंटेर (ویکسنٹیر) हसन अली और अगले दिन के मुसलमानों वग़ैरह का लश्कर ख़ाक-ए-लहद तशरीफ़ लाए। अब इब्रानी बाइबल के नुस्खे का ज़िक्र छोड़ कर उन के हमराही हसन अली ने ये नई बात छेड़ दी, कि इन्जील में ईसा मसीह को आदमी और इब्ने आदम करके लिखा है। ख़ुसूसुन (इन्जील लूक़ा के बाब 18 की आयत 18, 19) पर बड़ा ज़ोर दिया। जिनमें मसीह ने फ़र्माया कि (तू मुझे क्यों नेक कहता है? कोई नेक नहीं मगर एक यानी ख़ुदा) पहले तो मुझे कहा गया कि मुँह खोलूं कि पादरी साहब उर्दू नहीं समझते और अंग्रेज़ी में तर्जुमा सुन अंग्रेज़ी में जवाब देते थे। पीछे मुझे रोक दिया, कि आपसे बह्स नहीं है सिर्फ तर्जुमा करने की इजाज़त दी। ख़ुलासा जिसका ये था कि किताब-ए-मुक़द्दस की ताअलीमात दर्जनों क़िस्म की हैं। और उन्हीं के बमूजब हम मसीहीयों के अकीदे ये है कि जिस तरह ख़ुदावंद यसूअ मसीह कामिल ख़ुदा था, वैसा ही वो कामिल इन्सान भी था। ये सुनते ही उन दोनों ने उन के साथ सब मुसलमानों ने गुल और शोर मचाया। और ख़ूब चिल्लाए कि लो अब तो पादरी साहब और सफ़दर अली ने क़ुबूल कर लिया कि ईसा मसीह सिर्फ़ इन्सान था। हाल में सुनने में आया कि ऐसी ही ग़लत ख़बर बाअज़ मुहम्मदी अख़बारों में छपा दी थी। नक़्क़ारख़ाने में तूती की आवाज़ कौन सुनता है। इतने लोगों का मुँह कौन पकड़ सकता है और किसी की क़लम को कौन रोक सकता है।

अब गुज़रे जुलाई के शुरू या वस्त में दो एक अज़ीज़ मुसलमान दोस्तों ने बातों बातों में ज़िक्र किया कि कोई साहब बहुत दूर से आए हैं। अभी तो नागपुर में ठहरे हैं फिर यहां बंदा दीनी गुफ़्तगु कर ने को आने वाला हैं। बंदे ने अर्ज़ किया कि मुझे तो माफ़ ही रखें, इसलिए कि बार-बार के मज़्हबी मुबाहिसों और मुनाज़िरों ने साबित कर दिखाया है कि अंजाम ऐसी गुफ़्तगुओं का तू तू मैं मैं या लो लो ला ला के सिवा और कुछ नहीं होता है। जनाब पादरी साहब और मौलवी साहब की गुफ़्तगु ही का अंजाम देख लो, कि क्या बात थी और क्या बात कह उड़ाई।

इस के बाद एक पीरमर्द मुसलमान सौदागर कामिटी से आकर तज़्किरे के तौर पर कहने लगे, कि दिल्ली के एक बड़े ज़बरदस्त मौलवी नागपुर में आए हुए हैं। शहर में बड़ी धूम मचाई है। पुलिस के चार कंस्टेबल उन के साथ हैं।

कुछ दिनों बाद एक ईसाई भाई ने भी ज़िक्र में ज़िक्र ये किया कि नागपुर में कोई लंबे चौड़े और बड़े ज़ोर व शोर से चलाने और धमका ने वाले एक मौलवी आए हैं और लट्ठ (डंडा) मार सवाल ईसाईयों से करते हैं। चुनांचे बड़ा सवाल उनका जो हर ईसाई से करते हैं ये एक नया सवाल है कि (तुम्हारे ख़ुदा की कितनी जोरुवां (बीवीयां) हैं?) और जब कहा गया कि भला ये भी कोई सवाल है तो, (हिज़्क़ीएल के बाब 23 की आयत 4) सुनाई। इन की परीच बाज़ार में ऐसी ही बातों से और क्रइया (क़ाबिले नफ़रत) लफ़्ज़ों से भर होती है। बहुत से मुसलमान बल्कि हिंदू भी उन के साथ गुल शोर मचाने में शामिल हो जाते हैं, कि ईसाई मज़्हब की मुख़ालिफ़त में वो उन के साथ भी अपनी हम्दर्दी ज़ाहिर करके इशितआलिक (जोश, तहरीक, चिंगारी) देते हैं।

फिर कुछ दिनों बाद मालूम हुआ कि ज़बरदस्त मौलवी साहब ने एक चालान ज़िला वर्धा के मिशनरी साहब के नाम भेजा है। (गोया कि आपको इख़्तयारात पुलिस भी हासिल हैं) कि फ़ला ने मुक़ाम और वक़्त पर मुबाहिसे के लिए आओ। जहां कि भंडारे के मिशनरी डाक्टर सैंड यलेंड भी जाने को तैयार हुए। मश्वरे में ये बात क़रार पाई कि मुबाहिसा तहरीरी किया जाए, ताकि फ़रीक़ैन को तर्जुमों के ज़रीये एक दूसरे की बह्स समझ लेने का ख़ातिर-ख़्वाह वक़्त और मौक़ा मिले और किसी को गुल शोर मचा के झूटी बात मशहूर करने की जुर्आत ना हो।

पीछे मैं बड़े ज़ोर शोर के तप व लरज़ा में मुब्तला हुआ और कुछ ख़बर ना पा सका। लेकिन 8, अगस्त को सुना कि बहुत से लोगों के गुल शोर ग़लतबयानी रोकने के लिए पादरी डाक्टर सनेड यलनेड साहब ने कहा तहरीरी मुबाहिसा हो। मौलवी साहब ने उसे मंज़ूर ना करके ज़बानी गुफ़्तगु चाही। जिसको पादरी साहब ने नामंज़ूर किया। और इसलिए जलसा बर्ख़ास्त हुआ और पादरी सैंड यलेंड साहब भंडारा चले आए। पीछे किसी वक़्त मौलवी साहब भी आए और मशहूर करते फिरते हैं कि पादरी साहब ने वर्धा में आप ही इक़रार किया था कि भंडारा में चल कर तक़रीरी बह्स करेंगे। पर जब मैं भंडारा आया, और साहब से मुलाक़ात चाही तो साहब काफ़ूर (ग़ायब) हो गए और यह कि वो तस्लीस और तौहीद और तालिमात बाइबल पर मेरे सवालों के जवाब देने से आजिज़ हो कर वर्धा भंडारा चले आए हैं।

बल्कि मौलवी साहब की तहरीर भी बतौर इश्तिहार जो उन्हों ने जनाब पादरी साहब मम्दूह (जिसकी तारीफ़ की जाये) के पास भेजी थी मेरी नज़र से गुज़री। वो ज़ेल में नक़्ल की जाती हैं :-

बिसमिल्लाह अल-रहमान अल-रहीम

नह्मदु नुसल्ली।

पादरी जी सैंड यलेंड साहब ने झूट बोला और डर गए। नाज़रीन पर तमकीन (ताक़त, वक़ार) पर हुवैदा (ज़ाहिर, अयाँ) हो।

जनाब पादरी सैंड यलेंड साहब ने खुद ही मुझसे वर्धा में इक़रार किया, कि भंडारा चल कर हम तकरीरी बह्स करेंगे। पर जब मैं भंडारा में आया, और मैंने साहब से मुलाक़ात चाही, तो साहब मुमिदा काफुर हो गए। जब मैंने अपने आने की वजह वाज़ में बयान की तो साहब ने चिट्ठी इस ख़ौफ़ से लिखी कि हाय अब तो आबरू (इज़्ज़त) चली और फिर यूरोपियों साहिबों को मुँह दिखलाने की जगह ना रहेगी। चिठ्ठी अंग्रेज़ी में लिख मारी जिसका जवाब कमतरीन ने उर्दू में लिख कर भेजा दिया।

वहोंदा (और वो है)

बिसमिल्लाह अल-रहमान अल-रहीम

पादरी साहब वाला मनाक़िब आला मनासिब पादरी सैंड यलेंड साहब :-

अहक़र-उल-ईबाद ख़ादिम मिल्लत-ए-हक़्क़ा मुहम्मदियाह शरफ़-उल-हक़ बाद मावजब के अर्ज़ करता है कि जैसा मेरा और जनाब का वर्धा में भंडारा चल कर तक़रीरी मुनाज़रा करने का इक़रार हुआ था, उसी पर आप क़ायम रहें, और रिक़्क़त (दिल भर्राना) मुक़ाम और वक़्त मुनाज़रा के जो कुछ लिखें उर्दू ज़बान में मुंशी सफ़दर अली साहब वग़ैरह से लिखवाकर रवाना फ़र्मा दें। और मेरे सवालों तस्लीस व तौहीद और ताअलीमात बाइबल के सवालात सोच रखें। जिनके जवाबों से आप आजिज़ हो कर वर्धा से भंडारा तशरीफ़ ले आए थे। आपका अंग्रेज़ी का ख़त मेरे नज़्दीक पहुंचा ना पहुंचा बराबर है। उर्दू में रवाना फ़रमाइये। बहुत जल्द जवाब अर-इज़ा हज़ा से मुत्ला`अ (बाख़बर) फ़रमाए कि कब और कहाँ मुबाहिसा होगा।

कुतब-अल-राजी रहमत रुबा शरफ़-उल-हक़

29, ज़िल्हिज्जा सन रवाँ

इस का जवाब बावजाह ख़ौफ़ तारी होने के पादरी साहब से ना हो सका। और इस से पहली चिठ्ठी का तर्जुमा उर्दू भेज दिया। जिसको मैंने अपने ख़त का जवाब ना समझ कर वापिस किया। और पादरी के मुलाज़िम इनायत को ताकीद की कि बहुत जल्द मेरे ख़त जवाब ला। पादरी साहब को पाने पालकुवाड़ी यानी वर्धा के दिन याद आए और घबरा गए, कि ऐसा ना हो जैसा वहां आजिज़ (बेबस, लाचार) हो गया था। यहां भी जवाब देने से आजिज़ मशहूर हो जाऊं मेरे ख़त का कोई भी उर्दू या अंग्रेज़ी जवाब ना दिया। क़रीब शाम के 5, 8, 19 को अपना पूलोसी बहान का नमूना दिखला ने को इश्तिहार चस्पाँ किए और लिखा कि मौलवी तहरीरी जवाब देने से डर गया है। जनाब आप तो क्या बेचारे हैं। आपके तीनों ख़ुदा और चौथे व पांचवें माबूद पादरी इमाद-उद्दीन व सफ़दर अली भी अगर इकट्ठे हो जाएं तो ख़ौफ़ क्या चीज़ है। बफ़ज़्ल व हिमायत उस वाहिद तआला शाना के आप जो मुझे बार-बार झूटा लिखते हैं आप ख़ुद झूटे हैं। बेशक हैं अब भी कहता हूँ कि आप मेरे सवालों का जवाब वर्धा में ना दे सके। और उसी शाम को चले आए। और कहा कि हम भंडारा में तक़रीरी मुबाहिसा करेंगे। मैंने कहा कि मैं अभी चलूं। लोगों ने, भला तुम्हें क्या फ़ायदा अगर आप सच्चे होते तो मर्द-ए-मैदान बन कर सामने आते और मेरे सवालों के जवाब देते अपने बड़े मददगार मुंशी सफ़दर अली साहब को क्यों ना बुलवा लिया। जान रखिए कि तहरीरी मुबाहिसे का कभी इख़्तताम नहीं होता। उन्हें दो ख़तों के आने-जाने में आपने क्या इन्साफ़ का ख़ून किया। और जनाब पौलुस मुक़द्दस की तरह कितने रंग पलटे। और दियानतदार ईमानदारी को ज़ाहिर किया, और लिख दिया मौलवी ने हमारा जवाब नहीं दिया। चूँकि जनाब को ज़ाती इल्मी माद्दा तो है ही नहीं इसलिए तहरीर पर डालते हैं। तहरीर में अवाम को कुछ भी फ़ायदा ना होगा। ख़वास (ख़ास की जमा, लोग) को भी जब होगा कि जब मुबाहिसा तमाम हो। फिर जानबीन इक़रार करें कि हाँ ये तहरीर सही है। और छुप भी जाये और छुप कर सब के पास पहुंच जाये। और उन को दुनियावी कामों से फ़ुर्सत भी हो। फिर जानबीन कि कुतुब का आलिम भी हो। अगर तक़रीरी हो तो सबको फ़ायदा बराबर पहुंच सकता है। और जो उस के साथ तहरीर भी होती जाये तो फिर क्या ही कहने है। जो हाज़िर ना हो उन्हें उस से फ़ायदा पहुंचे। चूँकि जवाब वाले मुसलमानों से ज़क उठा (शर्मिंदगी उठाना, हार जाना) चुके हैं। लिहाज़ा वो भी पहले दिन याद आते हैं कि एक अदना से मुसलमान ने भरे मजमें में आपसे चीं बुलवा दी। और मजबूरन आप को मसीह अलैहिस्सलाम को सिर्फ बंदा ख़ुदा मानना पड़ा। फिर ये भी आपको ख़याल है कि तहरीरी में जब चाहेंगे जवाब देंगे। मुसलमानों का ये ख़ादिम कब तक रहेगा। चला ही जाएगा। हम मशहूर कर देंगे। कि देखो बला तमाम होने के चला गया। ईसाई और मुसलमानों के बहुतेरे तहरीरी मुनाज़रे हो चुके। अब भी छपे हुए मौजूद हैं। आप हज़रात मानते क्या हो। क्यों साहब पहले मौलवी सय्यद अहमद साहब व हसन अली साहब व इक्सनेटर से क्यों ज़बानी बह्स की थी? मुंशी सफ़दर अली साहब बहादुर किधर सिधारे नियाज़नामा (इनकिसारी और आजिज़ी तहरीर) यूँही आख़िरत बिगाड़ने को लिखा था। ग़ौर फ़रमाईए।

उस के मुतद्दद जवाब किस ज़ोर शोर के लिखे गए। आया कुछ भी जवाब सिवाए बेहोशी के साहब बहादुर को नसीब हुआ? मैं तहरीरी मुनाज़िरे को भी तैयार हूँ। लेकिन घर में किसी तरह ना होगा। तमाम हाज़िरीन के सामने और आपकी तहरीर होगी। और फिर सामईन को भी सुना कर तहरीर मज़्कूर छपवा दी जाएगी। लेकिन मुबाहिसा हर रोज़ चार घंटा से कम ना होगा। इसलिए आपको और आप के ऐवान (मकामे) व अंसार को आज से पाँच यौम की मोहलत है। अपने तीनों ख़ुदाओं को मुसलमानों के मुक़ाबले में मदद पर बुला लो। बफ़ज़्ल तआला ये भी मवाहिदीन तुम पर ग़ालिब रहेंगे। अगर मुनाज़रा ज़बानी ना किया तो छपवा कर स्काट्लेंड तक भेजूँगा।

5, अगस्त 91 ई॰  रुक़ीमा शरफ़-उल-हक़

दूसरे दिन यानी 9, अगस्त को इतवार था। जब नौ बजे सुबह को मरहट्टी नमाज़ के बाद इबादतखाने से हम बाहर बर-आमदे में निकले। तो बहुत से लोग जौक़ जौक़ ज़िला स्कूल की तरफ़ से जहां शरफ़-उल-हक़ साहब बाज़ार में मुनादी कर रहे थे। पादरी सैंड यलेंड साहब के पास आए, और साहब ने एक अंग्रेज़ी तहरीर दिखाई और अस्ल और उस का तर्जुमा मरहट्टी में सुना, जो तहरीर को वर्धा के मुअज़्ज़िज़ और मोअतबर लोगों ने पादरी साहब मौसूफ़ की तहरीर के जवाब में 8, अगस्त 91 को लिख कर भेजी थी। और जिसका तर्जुमा नीचे लिखा जाता है।

वर्धा 8, अगस्त 91 ई॰  हम बड़ी ख़ुशी से ज़ाहिर करते हैं कि :-

अव्वल कि डाक्टर पादरी सैंड यलेंड साहब ने कोई इक़रार मौलवी शरफ़-उल-हक़ के साथ नहीं किया था कि वो कोई ज़बानी गुफ़्तगु भंडारा में करेंगे। उन्हों ने कहा कि वो मह्ज़ तहरीरी मुबाहिसा करना चाहते हैं।

उन मौलवी साहब ने तीन सवाल डाक्टर पादरी सैंड यलेंड साहब से तस्लीस व तौहीद और उसी ताअलीम की मज़्मून की बाबत नहीं किए। उन्हों ने एक सवाल से ज़्यादा नहीं किया और वह भी इस मज़्मून की बाबत ना था।

दस्तख़त :-

बाबू ऐम गो पताबिर स्टराऐट लाव प्रेजिडेंट डिस्ट्रिक्ट कौंसल

राऊद उमूर दरनेल कंठ खीरे बी ए बी ए आर प्लैडर।

राउ वासू देवो नायक पर ऐचनी प्रेजिडेंट म्यूनसिंपल कमेटी व सेकेट्री डिस्ट्रिक्ट कौंसल, प्लेडर, राउ केशवराओ कावले प्लेडर।

उस वक़्त सय्यद फ़रीद एक मुख़्तार कार शर्फ़-उल-हक़ साहब की तरफ़ से आए। और मुझ से बोले कि मौलवी साहब ने मुझे आपके पास भेजा, और कहा है कि आपसे मुलाक़ात चाहता हूँ। और अगर ऐसा हो तो हमको भी दोनों की गुफ़्तगु सुनने से फ़ायदा होगा। बंदे ने उन्हें जवाब दिया कि उन बातों को छोड़कर जो वो अलानिया बरसर बाज़ार कहा करते हैं सिर्फ उस तहरीर को देख कर कहता हूँ जो उन्होंने ने जनाब पादरी सैंड यलेंड साहब पास (5 अगस्त) को भेजी है कि इस तहरीर के कच्चे ख़त और ना दुरुस्त अमला और इंशा से बेहतर तो हमारे उर्दू के स्कूल के छोकरे (लड़के) लिखते हैं। मौलवी होना और दिल्ली की ज़बान-दानी तो दूर है। इसी तरह उन की वो तहरीर शाइस्ता है। इस वास्ते पहले आप के मौलवी साहब एक दो बरस हमारे उर्दू के स्कूल में पढ़ें और कहीं भले आदमीयों की सोहबत इख़्तियार करके भलमंसात (ख़ुश-मिज़ाजी) सीखें तब वो भले आदमीयों की मुलाक़ात और उन से बातचीत करने के क़ाबिल होंगे। उस पर सुना है कि वो और उनके साथ के भंडारा के मुतअस्सिब मुसलमान, बहुत उछले कूदे और ग़ुस्से में भर-भर कर हसबे मामूल बहुत कुछ भला बुरा कहा और अब तक कह रहे हैं। क्या इस सबब से कि मेंढोंइ लड़ाई नहीं हुई? लेकिन मसीह की ग़रीब भेड़ें मेंढों की लड़ाई लड़ना नहीं चाहतें। या क्या इस सबब से कि मुर्गों की सी लड़ाई नहीं हो सकी? लेकिन मसीह के ग़रीब कबूतर ऐसी लड़ाई से नाआशना हैं। या क्या इस सबब से कि जिस वक़्त बड़े ज़बरदस्त मौलवी साहब दो-चार सौ मुहर्रम के ग़ाज़ी साथ लिए तैयार खड़े थे। और हम भी ढेडों और चमारों (चमड़ा वालों) को जो उस वक़्त मुहर्रमी शेर, बंदर, लंगूर और रीछ का लश्कर तैयार था साथ लेकर मुक़ाबले को हाज़िर नहीं हुए। लेकिन मसीही बंदों को हुक्म है कि हर एक दंगा और फ़साद से दूर रहें। या क्या इस सबब से कि जनाब पादरी साहब ने मौलवी साहब की ख़िलाफ़ गोई, या क्या इस सबब से कि उन की बड़ी तअल्ली (बुलंदी) और ना शाइस्ता कलाम करना उन्हीं की तहरीर से ज़ाहिर की[1]? लेकिन उन्हों ने आप ही ज़ोर और ज़बरदस्ती करके इन बातों के बताने में हमें मज्बूर किया। नहीं तो बानेक व बद ख़ल्क़-ए-ख़ुदा का रनदारीम, या क्या इस सबब से कि उन्हें एक की बार ज़बानी झूटी बातें मशहूर करने का मौक़ा हाथ नहीं लगा? लेकिन सच्च को ज़ाहिर करना। और उस को एक झूटी ख़बर, और इल्ज़ाम से पाक व साफ़ करना, मसीहीयों पर फ़र्ज़ और उन के ही सच्चे दीन की अलामत और बुनियाद है।

जैसे शर्फ़-उल-हक़ साहब ने इस तरह के तीन चार मौलवी साहब मदारिस की तरफ़ फिर रहे हैं और यह सब के सब और उन के सिवा कितने ही दूसरे मुहम्मदी प्रिचर (मुबल्लिग़) जा-ब-जा (जगह जगह) इसी तरह की मुनादी करने में बेलगामी और बद-कलामी को काम में लाते हैं और मसीही मुनादी करने वालों, और दूसरे ईसाईयों के हक़ में जो मुँह में आता है कहते हैं। और मसीही मज़्हब और ख़ुदा की बरहक़ किताबों की निस्बत नाशाइस्ता कलाम करते हैं। मेरी दानिस्त में ऐ मसीही भाईयों ऐसे लोगों से गुफ़्तगु करना बिल्कुल बेफ़ायदा है। और मह्ज़ तज़ीअ औक़ात (वक़्त ज़ाए करना) है। इसलिए वो जहां कहीं जाएं और जो चाहें बुरा-भला कहें और गुल शोर मचाएँ ख़ामोश रहो। और ख़ुदावंद ख़ुदा से उन की वास्ते भी दुआ खैर करो। उस के फ़ज़्ल से दूर नहीं कि आख़िर को यही लोग तौबा करें। और उसके नेक बंदे और हमारे भाई बन जाएं। आमीन

 


[1] इस तहरीर के ख़त की खामी तो असल के देखने से ज़ाहिर होती है। लेकिन अमला और अंशा की फाश गल्तियाँ और कलाम की ना शाइस्तागियाँ इन अल्फ़ाज़ और इबारात के मुलाहिज़ा से नुमायां हैं, जिन पर ख़त किया गया है और जो नक़्ल मुताबिक़ अस्ल मनक़ूला बाला में मौजूद हैं।

अहले इस्लाम और ज़बीह-उल्लाह

अहले इस्लाम का यह ख़याल कि ज़बीह-उल्लाह होने की इज़्ज़त व फ़ज़ीलत इस्माईल को किसी सूरत से हासिल हो। इस अजीब ख़िताब की क़द्र व मन्ज़िलत को ज़ाहिर करता है। क्योंकि सिर्फ उसी के ज़रीये से अहद-ए-बरकत क़ायम व मुस्तहकम हो सकता है। और वही अकेला इस लायक़ है कि “किताब की मोहरों को तोड़े”

Muslims and God’s Sacrifice

अहले इस्लाम और ज़बीह-उल्लाह

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Sept 17, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 17 सितंबर 1891 ई॰

अहले इस्लाम का यह ख़याल कि ज़बीह-उल्लाह होने की इज़्ज़त व फ़ज़ीलत इस्माईल को किसी सूरत से हासिल हो। इस अजीब ख़िताब की क़द्र व मन्ज़िलत को ज़ाहिर करता है। क्योंकि सिर्फ उसी के ज़रीये से अहद-ए-बरकत क़ायम व मुस्तहकम हो सकता है। और वही अकेला इस लायक़ है कि “किताब की मोहरों को तोड़े” अब इस्हाक़ (या जैसा मुहम्मदी बिला दलील कहते हैं इस्माईल) ज़बीह-उल्लाह ठहरे तो वो मसीह की अलामत होगा। और बेशक हम उस को मुबारक और लायक़ ताज़ीम तस्लीम करेंगे। क्योंकि वो उस बर्रे का जिसकी ख़ुदा ने ख़ुद तदबीर कर ली पेश निशान था। हमारे मुहम्मदी भाई बड़ी जद्दो जहद कर रहे हैं कि इस्माईल को ज़बीह-उल्लाह ठहराएं। मगर क़ुरआन में कोई सनद व सबूत अपने दावे के लिए ना पाएंगे। मुसन्निफ़े क़ुरआन ने किसी हिक्मत-ए-अमली से ना तो इस्हाक़ और ना इस्माईल का नाम लिखा। सिर्फ या “बत्ती” या “ग़ुलाम” (’’بتی‘‘یا ’’غلام ‘‘) कह कर छोड़ दिया। हमारे एक मुअज़्ज़िज़ मसीही दोस्त ने इबारत ज़ेल रोज़तुल-अहबाब से नक़्ल करके भेजी है जिसको हम हदिया-ए-नाज़रीन करके मुस्तदई (इस्तिदा करने वाला, ख़्वाहिशमंद) इन्साफ़ हैं कि आया इस्हाक़ को ज़बीह-उल्लाह मानने वालों, या इस्माईल को ज़बीह-उल्लाह मानने वालों की दलील ज़बरदस्त और नातिक़ है।

नक़्ल अज़ रोज़तुल-अहबाब

اختلا ف ست علماءرائےکہ ذبیح اسمٰعؔیل بودہ(بُزدل)اسحاؔق ۔قاضی’’ بیضاوی‘‘ درتفسیر خویش وامام نواوی درکتاب’’ تہذ یب الاسماء والغات‘‘ وغیر ہما آور وہ اند کہ اکثر برانند کہ اسمٰعؔیل بودہ و جمعی کثیر بر انند کہ اسحاؔق بو دہ وہر طایفہ برمدعی خویش ولیلے وارند آنان کہ میگوبند اسحاؔق بودہ دلیل ایشان است کہ حق تعالیٰ درقرآن مجید (میفر ماید فبشرناہ بغلام حلیم فلما بلغ معہ السعی قال یانبی انی ادی فی المنام انی اذبحک فانطز اتری)چہ ظاہر آیہ دلالت میکند برآنکہ آن پسر کہ ابراہیم باادمبشر شدہ اوست کہ درخواب مامورگشتہ مذبح او۔دور قران ہیچ جانیست کہ وے مشبر شدہ باشد بغیر از اسحاؔق ہمچنا نکہ درسور ہو وفبشرنا ھابا سحاق ودرسورہ والصافات میفر مایدوبشرناہ باسحاؔق نبیا من الصالحین ۔

ودیگران حدیث کہ درذکر نسب یوسف دار دشدکہ یوسف  نبی اللہ ابن یعقوب اسرائیل اللہ ابن اسحاؔق ذبیح اللہ۔

وجماعتے برانند کہ اسمٰعؔیل بودہ دلیل ایشان آنسبت کہ حق تعالیٰ درقرآن مجید چوں قصہ ذبیح فرمودہ بعدازاں میگو ید وبشر ناہ باسحاؔق الایۃ۔ وآنکہ پیغمبر صلعم گفتہ انا ابن الذبیحین مراد از یکے ذبیح اسمٰعؔیل است وازدیگر عبداللہ فقط

क़ुर्बानी का बर्रा

इब्राहीम ने कहा, कि ऐ मेरे बेटे ख़ुदा आप ही अपने वास्ते सोख़्तनी क़ुर्बानी के लिए बर्रे की तदबीर करेगा। (पैदाइश 12:8) इब्राहीम से उस के बेटे इस्हाक़ का असनाए (दौरान, वक़्फ़ा) राह में ये सवाल करना कि “आग और लकड़ियाँ तोहें पर सोख़्तनी क़ुर्बानी के लिए बर्रा कहाँ” ताज्जुब की बात नहीं लेकिन बाप का ये जवाब देना,

Lamb of Sacrifice

क़ुर्बानी का बर्रा

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Setp 10, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 10 सितंबर 1891 ई॰

इब्राहीम ने कहा, कि ऐ मेरे बेटे ख़ुदा आप ही अपने वास्ते सोख़्तनी क़ुर्बानी के लिए बर्रे की तदबीर करेगा। (पैदाइश 12:8) इब्राहीम से उस के बेटे इस्हाक़ का असनाए (दौरान, वक़्फ़ा) राह में ये सवाल करना कि “आग और लकड़ियाँ तोहें पर सोख़्तनी क़ुर्बानी के लिए बर्रा कहाँ” ताज्जुब की बात नहीं लेकिन बाप का ये जवाब देना, दर हालेका जो कुछ वो अभी करने पर था जानता था। निहायत अजीब व अमीक़ मअनी रखता है। “ख़ुदा आप ही अपने वास्ते सोख़्तनी क़ुर्बानी के लिए बर्रे की तदबीर करेगा।” बेशक उसने आप ही अपने लिए बर्रे की तदबीर कर ली। और जो इब्राहीमी ईमान के साथ उस बर्रे पर नज़र करते हैं, जिसके हक़ में यहया रसूल ने कहा, “देखो ख़ुदा का बर्रा जो दुनिया के गुनाह उठा ले जाता है।” अहद-ए-नजात में उस के लहू के वसीले दाख़िल हो जाते हैं। क्यों तुम बर्रे की तदबीर आप ही करते हो, और ख़ुदा का काम ख़ुदा पर छोड़ना नहीं चाहते? तुम क्यों क़ुर्बानीयों के लिए मेंढों को तलाश करते फिरते हों, कि चितकबरा ना हो, लूला लंगड़ा या काना और दूम कटा ना हो, मोटा ताज़ा हो बेऐब हो, बीमार ना हो, ताकि उस की क़ुर्बानी से तुम्हारी सुलह ख़ुदा-ए-आदिल व क़ुद्दुस से कराए। पुल सिरात से पार उतारे, और बहिश्त में पहुंचा दे। क्यों तुम गाइयों और बैलों को चराकर मोटा ताज़ा बना कर उन्हें क़ुर्बानी के लिए लाते। और उन को फूलों और सहरों से आरास्ता करके समझते हो कि उन की क़ुर्बानी ख़ुदा की ख़ुशनुदी का ज़रीया होगी। जिसके कान सुनने के लिए हों सुने ख़ुदावंद क्या फ़रमाता है, “क्या मैं बैलों का गोश्त खाता हूँ या बकरों का लहू पीता हूँ? तू शुक्रगुज़ारी की क़ुर्बानियां ख़ुदा के आगे गुज़रान और हक़ तआला के हुज़ूर अपनी नज्रें अदा कर।” (ज़बूर 50:13-14)

क्या तुम नहीं चाहते कि तुम्हारे नाम उस बर्रे के दफ़्तर हयात में “जो बनाए आलम से क़ब्ल हुआ लिखे जाएं, तुम मुक़द्दसों के साथ वो आस्मानी नया राग गाते हुए कहो कि “तूही इस लायक़ है कि उस किताब को ले और उस की मोहरें तोड़े क्योंकि तू ज़ब्ह हुआ और अपने लहू से हमको हर एक फ़िर्क़े और अहले-ज़बान और मुल्क और क़ौम में से ख़ुदा के वास्ते मोल लिया। और हम को हमारे ख़ुदा के लिए बादशाह और काहिन बनाया और हम ज़मीन पर बादशाहत करेंगे।

इस्हाक़ या इस्माईल

दो तीन हफ़्तों से नूर-अफ़्शाँ में बह्स हो रही है कि हज़रत इब्राहीम ने इस्हाक़ को क़ुर्बानी गुज़ाराना या इस्माईल को। ये अम्र गो ग़ैर-मुतनाज़ा (लड़ाई के बग़ैर) है कि तौरेत में हज़रत इस्हाक़ के क़ुर्बानी किए जाने का बहुत मुफ़स्सिल (बयान) मज़्कूर है। रहा क़ुरआन का बयान अगर वह मुताबिक़ तौरेत ना होतो उस का नुक़्सान है,

Isaac and Ishmael

इस्हाक़ या इस्माईल

By

Akbar Masih

अक्बर मसीह मुख़्तार बन्दह

Published in Nur-i-Afshan Oct 1, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ यक्म अक्तूबर 1891 ई॰

दो तीन हफ़्तों से नूर-अफ़्शाँ में बह्स हो रही है कि हज़रत इब्राहीम ने इस्हाक़ को क़ुर्बानी गुज़ाराना या इस्माईल को। ये अम्र गो ग़ैर-मुतनाज़ा (लड़ाई के बग़ैर) है कि तौरेत में हज़रत इस्हाक़ के क़ुर्बानी किए जाने का बहुत मुफ़स्सिल (बयान) मज़्कूर है। रहा क़ुरआन का बयान अगर वह मुताबिक़ तौरेत ना होतो उस का नुक़्सान है, क्योंकि तवारीख़ तौरेत क़ुरआन से क़दीमतर (पुरानी) है। इस के मुक़ाबिल क़ुरआन के सुख़न (कलाम, शेअर, बात) को किस तरह भी वक़अत (दुशवारी) नहीं। मगर वाक़ई ये अम्र भी तहक़ीक़ तलब है कि क़ुरआन किस की क़ुर्बानी का ज़िक्र करता है। इस्माईल की, या इस्हाक़ की?

जहां तक क़ुरआन पर मैं ग़ौर करता हूँ, मुझ को मालुम होता है कि क़ुरआन में अगर हज़रत इब्राहीम के किसी लड़के की क़ुर्बानी का (बयान) मज़्कूर है। तो वो इस्हाक़ है ना कि इस्माईल। क़ुर्बानी के मुआमले का तज़्किरा क़ुरआन सिर्फ (सूरह साफ्फ़ात रुकूअ 3) में आया है और वह यूं है कि, हज़रत इब्राहीम ने ख़ुदा से दुआ की कि “ऐ रब बख़्श मुझको कोई नेक बेटा फिर ख़ुशख़बरी दी हमने उस को एक लड़के की जो होगा तहम्मुल वाला। फिर जब पहुंचा उस के साथ दौड़ ने को, कहा ऐ बेटे मैं देखता हूँ ख्व़ाब में कि तुझको ज़िबह करता हूँ फिर देख तू क्या देखता है। बोला ऐ बाप कर डाल जो तुझको हुक्म होता है तू मुझको पाएगा अगर अल्लाह ने चाहा सहारने वाला। फिर जब दोनों ने हुक्म माना, और पछाड़ा उसको माथे के बल। और हम ने उस को पुकारा कि ऐ इब्राहीम तू ने सच्च कर दिखाया ख्व़ाब, हम यूं देते ही बदला नेकी करने वालों को। बेशक यही है सरीह (साफ़) जाँचना और उस का बदला दिया हमने एक जानवर ज़ब्ह को बड़ा और बाक़ी रखा हमने उस पर पिछली ख़ल्क़ में कि सलाम है इब्राहिम पर। हम यूं देते हैं बदला नेकी करने वालों को। वो है हमारे बंदों ईमानदार में। और ख़ुशख़बरी दी हमने उस को इस्हाक़ की जो नबी होगा नेक बख़्तों में। और बरकत दी हमने एक उस पर और इस्हाक़ पर और दोनों की औलाद में नेकी वाले हैं। और बदकार भी हैं अपने हक़ में सरीह।

मेरे नज़्दीक इस बयान से इस्हाक़ की क़ुर्बानी का सबूत बहुत वज़ाहत के साथ निकलता है। मगर मुहम्मदी गुमान करते हैं कि आख़िर आयत (“और ख़ुशख़बरी दी हमने उस को इस्हाक़ की जो नबी होगा नेक बख़्तों में”) में इस्हाक़ की पैदाइश की ख़बर है। जो बाद गुज़राने क़ुर्बानी के मिली। और यहां से समझते हैं कि क़ुर्बानी क़ब्ल विलादत इस्हाक़ वाक़ेअ हुई। पस ज़रूर इस्माईल जो पेशतर इस्हाक़ के थे क़ुर्बान किए गए।

मगर ये ख़याल बिल्कुल बातिल है। क्योंकि अव़्वल तो वो बयान ऐसा है कि इस से मालूम होता है कि इस बशारत के वक़्त इस्हाक़ मौजूद था।

दोम : तौरेत में और नीज़ क़ुरआन में बहुत साफ़ ज़िक्र है कि इब्राहिम को विलादत इस्हाक़ की ख़बर ना बाद क़ुर्बानी, बल्कि क़ब्ल हलाकत उम्मत लूत मिली थी। चुनान्चे ये क़िस्सा (सूरह हूद, सूरह हिज्र और सूरह ज़ारयात) में मर्क़ूम है कि जो फ़रिश्ते क़ौम लूत को हलाक करने जाते थे असना राह में उन्हों ने इब्राहीम की मेहमानी क़ुबूल की और कहा, “हम तुझको ख़ुशी सुनाते हैं एक होशियार लड़के की” उस ने और उस की बीबी सारा ने अपनी ज़ईफ़ी (कमज़ोरी) का ख़याल करके बावर (यक़ीन, भरोसा) ना किया। और बहुत मुतअज्जिब (हैरान) हुए। तब फ़रिश्ते ने उन दोनों का इत्मीनान किया। (सूरह हिज्र रुकूअ 3, सूरह ज़ारयात रुकूअ 2) देखो। पस ये ख़याल कि बाद विलादत इस्हाक़ की ख़बर दी गई। बिल्कुल बातिल है ये ख़बर तो उन को मुद्दत क़ब्ल मिल चुकी थी।

अब देखिए कि सूरह साफ़्फ़ात से, क्योंकि क़ुर्बानी इस्हाक़ का सबूत मिलता है।

(1) ज़बीह-उल्लाह फ़र्ज़न्द मौऊद हज़रत इब्राहिम का था। उस के तव्वुलुद (पैदाइश) की बशारत ब-जवाब (जवाब के साथ) उन की दुआ के, उन को दी गई। क़ुरआन में वाअदा तो तव्वुलुद (पैदाइश) इस्हाक़ का बहुत ही साफ़ अल्फ़ाज़ में मस्तूर (सतर किया गया, ऊपर लिखा गया) है। मगर तव्वुलुद (पैदाइश) इस्माईल की कोई बशारत क़ुरआन में नहीं। हज़रत इब्राहीम ने उस फ़र्ज़न्द को नज़्र किया जिस की बशारत उन को दी गई।

(2) जब हज़रत इब्राहीम ने दुआ की “ऐ रब बख़्श मुझको कोई नेक बेटा।” (उसी को बादा (बाद में) उन्हों ने नज़्र गुज़राना) तो वो ज़रूर कोई बेटा उन की हक़ीक़ी बीबी सारा के बतन से चाहते थे, क्योंकि यूं तो उन के कई बेटे थे एक हाजरा से (4) क़तूरा से। मगर ये सब हरमों (लौंडियों, बांदियों) के बतन (शिकम, पेट) से थे जिनको वो मर्तबा नहीं हासिल हो सकता था, जो इस्हाक़ को हासिल था।

(3) इस में ये भी लिखा है कि जब इब्राहीम ने अपने बेटे से अपने ख्व़ाब का तज़्किरा (ज़िक्र करना) किया, तो उसी ने बड़ी ख़ुशी से अपनी जान ख़ुदा की राह में निसार (क़ुर्बान) करने पर मुस्तइद्दी (आमादगी, तैयारी) ज़ाहिर की और कहा, “ऐ बाप कर डाल जो तुझको हुक्म होता है।” मुफ़स्सिरीन ने इस पर और इज़ाफ़ा किया है कि उसने अपने बाप से ये भी कहा, कि तू मेरे हाथ पर पैर बांध दे ता ना हो कि वक़्त-ए-ज़ब्ह मेरे तड़पने से तेरे कपड़े ख़ून आलूदा हों, और कि तू मुझ पट गिरा दे, ताकि मेरा चेहरा देखकर तुझ पर महर पिदरी (बाप की मुहब्बत) ग़ालिब ना हो। और कि बाद क़ुर्बानी वास्ते तश्फ़ी मादर (माँ) की तसल्ली के लिए मेरा पैरहिन (लिबास) उसे दे देना। पस वाक़ई अगर ये सब दुरुस्त है, तो इस में फ़र्ज़न्द मौऊद (वाअदा किया हुआ) यानी इस्हाक़ के औसाफ़ नुमायां हैं ये सब बड़ी दानाई व होशियारी की बातें थीं। ज़रूर ये ज़बीह-उल्लाह वही “होशियार लड़का” है जिसकी विलादत की ख़बर सारा को दी गई थी। इलावा इस के एक और सिफ़त भी इस ज़बीह-उल्लाह की बतलाई गई “वो होगा तहम्मुल वाला (हलीम)” इन सिफ़तों से इब्राहीम का कोई लड़का मौसूफ़ (वो शख़्स जिसकी तारीफ़ की गई हो) ना था। मगर जिसको क़ुर्बानी गुज़ारना और भी सिफ़ात इस्हाक़ में मिलती हैं पस कोई कलाम नहीं, कि ये ज़बीह-उल्लाह इस्हाक़ ही था जो “नेक” भी था “होशियार” भी था, और “हलीम” भी था। और ब-वक़्त क़ुर्बानी इन तमाम सिफ़ात का इज़्हार हो गया। बरख़िलाफ़ उस के इस्माईल की शान में तौरेत में भी मर्क़ूम है कि वो एक वहशी जंगजू शख़्स होगा। (पैदाइश 16:12) पस इस्माईल हरगिज़ हलीम ना था। उस के “हलीम” “होशियार” होने की कोई ख़बर इब्राहीम को नहीं दी गई।

(4) अब और सुनिए। अगरचे हज़रत इब्राहिम बमूजब हुक्म ख़ुदा के, बेटे को नज़्र करने पर मुस्तइद हुए। मगर उस बेटे ने भी ज़्यादा जान-निसारी दिखलाई कि ख़ुदा की राह में ज़ब्ह होने से मुतलक़ मलाल (अफ़्सोस, रंज) ना किया। मगर अब क़ुरआन में इन दोनों के इस बेनज़ीर (जिसकी कोई मिसाल ना हो) काम का सिला क्या है? इब्राहीम से तो बाद क़ुर्बानी कहा गया, “बाक़ी रखा हमने इस पर पिछली ख़ल्क़ में कि सलाम है इब्राहीम पर। हम यूं बदला देते हैं नेकी करने वालों को। वो है हमारे बंदों ईमानदार में हैं।” ये सिला इब्राहीम का है। अब ज़बीह-उल्लाह को इस की फ़रमांबर्दारी का क्या अज्र? अगर ये ज़बीह-उल्लाह इस्माईल था, तो मुताल्लिक़ (आज़ाद) कुछ भी नहीं। उस का नाम तक यहां नहीं लिया। उस की कोई तारीफ़ नहीं। हालाँकि लिखा है “दोनों ने हुक्म माना” सच्च तो यूं है कि ज़बीह-उल्लाह ने इब्राहीम से भी बढ़कर काम किया। इब्राहीम तो क़ुर्बान करने के लिए आमादा हुए, मगर वो क़ुर्बान होने के लिए आमादा हुआ। और बाप की आख़िर तक तसल्ली और तश्फ़ी करता रहा। क्या उस का कोई अज्र इस जगह बयान ना हो? हालाँकि इब्राहीम का अज्र मर्क़ूम है। हक़ीक़ीत यूँ है कि दूसरी ख़ुशख़बरी बाद ज़िक्र इब्राहीम के दरअस्ल ज़बीह-उल्लाह इस्हाक़ था। उस के हक़ कहा गया, “और ख़ुशख़बरी दी हमने उस को इस्हाक़ की जो नबी होगा नेक बख्तों में और बरकत दी हमने इस पर और इस्हाक़ पर।” ये ख़बर तव्वुलुद इस्हाक़ हरगिज़ नहीं, बल्कि सरीह ख़बर नबुव्वत इस्हाक़ है। तव्वुलुद की ख़बर तो इब्राहीम और सारा मुद्दत क़ब्ल पा चुके थे। यहां ज़बीह-उल्लाह की फ़रमांबर्दारी के सिले में उस को नबुव्वत अता होई। और इलावा उस के और भी बरकत मिली।

(5) एक और हुल्या इस्हाक़ का ज़बीह-उल्लाह के साथ मिलता है। इब्राहीम ने दुआ की थी (رب ھب لی من الصلحین) “ऐ रब दे मुझको कोई नेक बेटा” इस दुआ के जवाब में उनको फ़र्ज़न्द अता हुआ जिस से उन्हों ने बादा (बाद में) नज़र गुज़राना। बाद क़ुर्बानी के इस्हाक़ की भी सिफ़त बयान हुई, “वो नबी होगा नेक बख़्तों में (نبیامن الضلحین ) कहो ये कैसी सरीह मुताबिक़त है? जिससे ज़बीह-उल्लाह का इस्हाक़ होना बिल्कुल साबित है। जो इस्हाक़ के औसाफ़ हैं वही ज़बीह-उल्लाह के औसाफ़ हैं चुनान्चे इस्हाक़ को “ग़ुलाम अलीम होशियार लड़का” कहा। ज़बीह-उल्लाह के ये सिफ़त साबित है। ज़बीह-उल्लाह को (من الضلحین) कहा, इस्हाक़ من الضلحین है। इब्राहीम और इस्हाक़ दोनों की निस्बत लिखा “दोनों ने हुक्म माना” यहां बाद क़ुर्बानी दोनों की फ़रमांबर्दारी को एक साथ याद किया और कहा, “बरकत दी हमने इस पर और इस्हाक़ पर”

(6) अब एक और अम्र गौर तलब है, कि क़ुरआन इस क़ुर्बानी को “सरीह जाँचना” यानी बड़ी आज़माईश कहता है। अगर दरअस्ल ये इस्हाक़ की क़ुर्बानी थी, तो ये बेशक “सरीह जाँचना” था, वर्ना नहीं। क्योंकि ये इस्हाक़ इब्राहीम और सारा का ऐसा ही प्यार था जैसे यूसुफ़ याक़ूब का या यहया ज़करिया का। जब इब्राहीम और सारा दोनों बहुत ही ज़इफ़ हो गए थे, और औलाद की उम्मीद इस उम्र में नहीं की जा सकती थी। इस वक़्त नाउम्मीदी में इस्हाक़ पैदा हुआ और अभी जवान भी ना हुआ था, कि उस की क़ुर्बानी का हुक्म हुआ। अब कहो इस लख़्त-ए-जिगर (जिगर का टुकड़ा) को अपने हाथों ज़ब्ह करना, और अपने शजर उम्मीद की जड़ काटना “सरीह जाँचना” हो सकता था या इस्माईल से किसी हरम के बेटे का बहुक्म ख़ुदा नज़र गुज़राना? जिसकी मुहब्बत इब्राहिम को इस क़द्र भी ना थी कि जब उनकी बीबी के उस को और उस की माँ को निकाल देने का क़सद किया तो उन को कोई बड़ा सदमा ही होता या उस के निकाल देने में ताम्मुल (सोच बिचार, सब्र व तहम्मूल) करते।

(7) इलावा इस के इस क़ुर्बानी का बयान यहूदी व ईसाईयों के रूबरू किया गया। क़ियास यही चाहता है कि वो मुताबिक़ तौरेत के हो। क्योंकि इस्हाक़ की क़ुर्बानी की निस्बत ना ईसाईयों में और ना यहूदीयों में कभी कोई तनाज़ा रहा। अगर मुहम्मद साहब ख़िलाफ़ इस बयान के इस्माईल को ज़बीह-उल्लाह मानते तो ज़रूर वो रिवायत साबिक़ा का सरीह इन्कार करते। जैसा कि उन्होंने बाअज़ रिवायत का दरबाब तादाद अस्हाब कहफ़ के इन्कार किया।

ये चंद दलाईल क़ुरआनी निस्बत क़ुर्बानी इस्हाक़ के बयान हुईं। अब अगर इस्माईल की क़ुर्बानी मानो। इस्माईल की फ़रमांबर्दारी का वहां कोई अज्र मन्क़ूल नहीं हुआ। ना उसका कोई ज़िक्र आया। और यह बात सरीह ख़िलाफ़ इन्साफ़ है। फिर क़ुरआन में किस मुक़ाम पर इस्माईल के तव्वुलुद (पैदाइश) की कोई बशारत नहीं है। हालाँकि ज़बीह-उल्लाह वाअदा का फरजंद है।

अब नाज़रीन इन्साफ़ करें कि जब मुहम्मद साहब इस्माईल की क़ुर्बानी का कोई ज़िक्र ना करें। ना इस ताल्लुक़ में उस का नाम लें। और ना इस्हाक़ की क़ुर्बानी से कोई इन्कार करें। तो दलाईल मज़्कूर ब-सबूत क़ुर्बानी इस्हाक़, अगर क़तई नहीं तो क्या हैं? कोई मौलवी साहब क़ुरआन से इस तरह के दलाईल इस्माईल के ज़बीह-उल्लाह होने के बाब में अगर पेश कर सकते हैं तो पेश करें। हमें यक़ीन है कि ये “भोंडी ग़लती” मौलवियों की है, ना कि मुहम्मद साहब की। और अगर मुहम्मद साहब ने ऐसी ग़लती की है तो हम अफ़्सोस करते हैं।

झूटे नबी

सभों को मालूम है कि मिर्ज़ा साहब क़ादियानी मुद्दई मुमासिलत (मिस्ल) मसीह के इल्हाम की तरफ़ से मसीहीयों ने मुतलक़ इल्तिफ़ात (मुतवज्जोह होना, मेहरबानी) ना किया तो भी मालूम नहीं कि हमारे लखनवी हम-अस्र मुहज़्ज़ब ने क्यूँ-कर ऐसा लिखने की जुर्आत की है, कि क़ादियानी साहब के दावे को तस्लीम करने से समझा जाता है, कि ईसाई गवर्मेंट को

False Prophets

झूटे नबी

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Oct 22, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 22 अक्तूबर 1891 ई॰

क्योंकि झूटे मसीह और झूटे नबी उठेंगे और ऐसे बड़े निशान और करामातें दिखाएँगे कि अगर हो सकता तो वो बर्गज़ीदों को भी गुमराह करते।” (मत्ती 24:24)

इस साफ़ पेशगोई ही की वजह से मसीही आज तक कभी किसी झूटे मसीह और झूटे नबी की तरफ़ मुतवज्जोह नहीं हुए। और अगरचे तवारीख़ हमें अक्सर ऐसे मुद्दियों (दावेदारों) के नाम बतला रही है। और ज़माना-ए-हाल में भी इस क़िस्म के अश्ख़ास जाबजा (जगह जगह) वक़्त ब वक़्त सुनने में आते हैं। मगर मसीहीयों ने जो अपने ख़ुदावंद की ख़ूबीयों और अलामतों से आगाह हैं और उस के मुंतज़िर हैं। ऐसों की तरफ़ मुतलक़ तवज्जोह नहीं की और ना कभी करेंगे।

“क्योंकि झूटे मसीह और झूटे नबी उठेंगे”

सभों को मालूम है कि मिर्ज़ा साहब क़ादियानी मुद्दई मुमासिलत (मिस्ल) मसीह के इल्हाम की तरफ़ से मसीहीयों ने मुतलक़ इल्तिफ़ात (मुतवज्जोह होना, मेहरबानी) ना किया तो भी मालूम नहीं कि हमारे लखनवी हम-अस्र मुहज़्ज़ब ने क्यूँ-कर ऐसा लिखने की जुर्आत की है, कि क़ादियानी साहब के दावे को तस्लीम करने से समझा जाता है, कि ईसाई गवर्मेंट को मुसलमानों की तरफ़ से इत्मीनान हो जाएगा, कि अहले-इस्लाम जिस मसीह के मुंतज़िर थे और जिस का नाम लेकर दीगर अदयान (दीन की जमा) वालों को धमकीयां देते थे, उस के वो मुंतज़िर नहीं रहे और वो आया भी तो यूं कि ना कर सका। बल्कि उलटे मुसलमानों को ईसाईयों की इताअत का सबक़ देने लगा। बजा है ईसाई बहुत ख़ुश होंगे। और ख़सूस (ख़ास काम, ख़ुसूसीयत) इस ख़याल से कि आप मसील (मिस्ल, मानिंद) मसीह हैं इस दर्जा मुअतक़िद (अक़ीदतमंद, पैरौ) होंगे, कि क्या अजब अब के पोप का ओहदा ख़ाली होते ही वो मिर्ज़ा साहब को पोप बना कि इटली भेज दें।” मसीहीयों में से तो ना मिर्ज़ा साहब का कहीं कोई मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) और ना कोई ख़ुश मग़्मूम (ग़मगीं हुआ। हाँ ये सच्च है कि अक्सर मुहम्मदियों अख़्बार नवीसों और ताअलीम याफ़्तों ने उन के दावा को तस्लीम की और शायद और करेंगे। क्योंकि ईसाई मोअर्रिखों का ये एतराज़ किसी क़द्र दुरुस्त है कि “मुसलमानों में एक नया दीन पैदा करने और पैग़म्बरी के जुनून अंगेज़ ख्व़ाब देखने का हमेशा शौक़ रहा है।” लेकिन हमारी समझ में झूटे मसीहीयों और झूटे नबियों का ज़ाहिर होना किसी ख़ास क़ौम या मुल्क में मुक़य्यद (क़ैदी) व महदूद नहीं है।

शायद हमारे अक्सर नाज़रीन मार्मन-इज़म के लीडर यूसुफ़ स्मीथ के नाम से वाक़िफ़ होंगे। जो अमरीका में मबऊस (नबी का भेजा) जाना हुए और कसीर-उल-अज़दवाजी (कस्रत इज़्दवाज़ज, बीवियां) वग़ैरह की ताअलीम देकर बहुतों को अपना मुअतक़िद (अक़ीदतमंद) और पैरू बना लिया। और एक फ़िर्क़ा खड़ा कर दिया जो हनूज़ मौजूद है। लेकिन अब सुनने में आ रहा है, कि एक औरत ने जो सिनसिनाटी वाक़ेअ अमरीका की रहने वाली है। दावा किया है कि मैं फीमेल क्राईस्ट (मुअन्नस) मसीह हूँ। चुनान्चे इंडियन इस्टंडर्ड लिखता है कि “यूनाईटिड इस्टेट्स (अमरीका) में जो मज़्हबी मुआमलात में फ़ुज़ूल बेहूदा गोईआं पैदा होती हैं उन की कोई हद मालूम नहीं होती।” किसी मस मार्टीन ने अपने को मुअन्नस मसीह मशहूर किया है। और “मिलेनियम” यानी मसीह की सल्तनत के आइन्दा ज़माने का इजलास क़ायम किया है।” अख़्बार ब्रिटिश वीकली” लिखता है कि “मस मार्टीन ने जिसने दिलेरी के साथ मुअन्नस मसीह होने का दावा किया है। अपने मुरीदों का शुमार बढ़ाने के लिए मुश्तहिर (ऐलान करना, इश्तिहार देना) कर दिया है कि जो लोग उस की फ़ौक़-उल-फ़ित्रत ख़ासीयत के अव्वल मोतरिफ़ होंगे। वो उस की नई सल्तनत में हाकिम बनाए जाऐंगे। उस के पैरौ (मानने वाले) अपने को परफेक्शनिष्ट (अहले-कमाल) नाम देते हैं। और अपनी मजलिसें यहां तक ब होशियारी पोशीदा तौर पर करते हैं। कि किसी अख़्बार के मेहनती और मतफ़हस (तलाश करने वाला, जुस्तजू करने वाला) रिपोर्टर को भी उनमें कोई दख़ल, या उन की कार्रवाई की कुछ ख़बर नहीं मिलती है। लेकिन ये मालूम करने से इत्मीनान है कि इस नए फ़िर्क़े के अंदर कोई बदकारी का धब्बा नहीं है। मस मार्टीन एक वक़्त मालूम होता है कि अमरीकन मथ्यू-डॉज़म की पेशतर व मेम्बर थी। ग़ालिबन उस की बाबत और ज़्यादा सुनने में आएगा। क्योंकि उस ने मए अपने पैरों (मानने वालों) की क़लील गिरोह के पूरप में जाकर अपने नए अक़ीदे को जारी करने वाला इरादा कर लिया है।

दिली आराम

ऐ नाज़रीन ये मीठी और शिरीं आवाज़ किस की है? ये बे-आराम दिल को चैन, ग़म-ज़दा को तसल्ली, नाउम्मीद को उम्मीद और बेकस को सहारा देने वाली सदा किस मेहरबान की है? क्या आप के कान में ये फ़हर्त बख्श अवाज़ कभी आई है? अगर आई है, तो क्या आप का दिल उस का शुन्वा (सुनने वाला) हुआ है? क्या आपने इस गुनाह के

Comfort of Heart

दिली आराम

By

C.H.Luke

सी॰ ऐच॰ ल्यूक

Published in Nur-i-Afshan Nov 5, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 5 नवम्बर 1891 ई॰

 तुम लोगो जो थके और बड़े बोझ से दबे हो सब मेरे पास आओ कि मैं तुम्हें आराम दूँगा।” (मत्ती 11:28)

ऐ नाज़रीन ये मीठी और शिरीं आवाज़ किस की है? ये बे-आराम दिल को चैन, ग़म-ज़दा को तसल्ली, नाउम्मीद को उम्मीद और बेकस को सहारा देने वाली सदा किस मेहरबान की है? क्या आप के कान में ये फ़हर्त बख्श अवाज़ कभी आई है? अगर आई है, तो क्या आप का दिल उस का शुन्वा (सुनने वाला) हुआ है? क्या आपने इस गुनाह के आलम में गुनाह की ज़ेर बारी से थक कर और बार इस्याँ (गुनाहों का बोझ) से ज़ेरबार हो कर अपनी हालत ज़ार से घबरा कर ख़लासी की जुस्तजू में हो कर और रिहाई का तालिब बन कर इस तसल्ली बख़्श आवाज़ देने वाले की बाबत दर्याफ़्त किया है? क्या आप के दिल में इस मुद्दई के दावे का सबूत हो चुका है और आपके ईमान का लंगर इस चट्टान पर जोज़ मानूँ का चट्टान है क़ायम हुआ है? और क्या अपने अपने गुनाहों से तौबा करके और दस्त बर्दार हो कर इस चश्मे फ़ैज़ से फ़ैज़याब हो कर दिली आराम जो गुनेहगारों को हरगिज़ नसीब नहीं, हासिल किया है? क्या आपके दिल को आक़बत (आख़िरत) के अंदेशे और दोज़ख़ के अज़ाब से जिस से कि हर एक गुनाहगार का दिल धड़कता है, बेपर्वाई हासिल हुई है और आपका ख़दशा जाता रहा? और क्या आप ने रूह का बयाना हासिल करके बहिश्त की उम्मीद को पालिया है और अब हमेशा की ज़िंदगी के लिए मुतयक़्क़न (यक़ीन वाला) हो गए हो? अगर इन तमाम बातों के जवाब में आप हाँ कह सकते हो तो दर हक़्क़ीत मुबारक हो। क्योंकि गुनाह और बुराई से छुट कर और दोज़ख़ के अज़ाब से रिहाई पाकर हमेशा की ज़िंदगी के लायक़ ठहरे हो। लेकिन अगर अभी तक आपकी तरफ़ से इन का जवाब नफ़ी है तो ऐ प्यारे नाज़रीन मैं जो इन तमाम बातों की दर्याफ़्त कर चुका हूँ और दिली आराम का लुत्फ़ उठा चुका हूँ, ये चंद सतरें सिर्फ आप ही की ख़ातिर लिखता हूँ। इस उम्मीद पर कि आपके बे-आराम दिल को भी आराम हासिल हो। अज़हर-मिन-श्शम्स (रोज़-ए-रौशन की तरह अयाँ) है कि हर इन्सान के दिल की तख़्ती पर यह लिखा हुआ है कि नेकी करना मूजिब जज़ा और बदी करना (वाजिब) सज़ा है। दूसरे लफ़्ज़ों में यूं कहो कि अहकाम इलाही का बजा लाना सबब सवाब का और उस के हुक्मों की उदूली बाइस अज़ाब का है।

जब क़ादिर-ए-मुतलक़ मालिक कोन-व-मकान ने आदम को पाक व साफ़ बनाया था, उस को ज़िंदगी की तमाम बरकतें हासिल थीं पर अफ़्सोस कि उस ने हुक्म उदूली की और उन बरकतों को खो दिया। और सरकशी (बग़ावत) के सबब से वो पहला आदमी बसबब गुनाह के तक्लीफ़ और दुख का आश्ना बना। और अगरचे उस के गुनाह की सज़ा मौत थी, ताहम रहीम ख़ुदा ने अपने अहकाम देकर उस को फ़ुर्सत उम्र की बख़्शी और तौबा और मआफी की जगह छोड़ी। और इसी तरह पर कुल बनी-आदम का भी ये ही हिस्सा है। अगर इन्सान ख़ुदा की शरीअत को जो उस ने बनी-आदम के लिए इनायत फ़रमाई थी जिसको दस (10) अहकाम कहते हैं या अख़्लाक़ी शराअ (शरीअत) जो सब लोगों के दिलों में सब्त (छपी) है पूरे तौर पर अमल लाए तो अज सर-ए-नव ज़िंदगी की तमाम बरकतें हासिल कर सकता है। लेकिन अगर उन में क़ासिर रहे तो तू मुस्तूजिब सज़ा का ठहरेगा। उस को अहद-ए-अमल कहते हैं इस अहद-ए-अमल पर चलना अज़हद मुश्किल हो गया है। क्योंकि बसबब गुनाह के इन्सान का दिल नापाक हो गया है और पाक ख़ुदा की मर्ज़ी को बजा लाना उस के लिए अज़हद मुश्किल, बल्कि ना मुम्किन हो गया है। अफ़्सोस कि बेशुमार लोग इस मुश्किल, बल्कि नामुम्किन काम के करने का दम-भर तय हुए अपनी बेशक़ीमत जानों को नाहक़ खो डालते हैं। शरीअत की तक्मील आदमी के लिए बसबब गुनाह के एक बड़ा बोझ हो गई है कि जिसको वो उठा नहीं सकता, बल्कि बिल्कुल उस के नीचे दबा हुआ है। ये ठीक ऐसा है कि जैसे किसी शख़्स को ताक़त नहीं कि एक मन बोझ उठाए पर दस (10) मन उस के सर पर रखा जाये और वो बीमार भी हो, तो क्या वो इस को उठा सकेगा? नहीं हरगिज़ नहीं। एसा ही बोझ शरीअत का है, जिसको कोई भी बशर उठा नहीं सकता। थोड़ी सी सोच व फ़िक्र वाला भी ज़रूर इस बात को तस्लीम करेगा। तो फिर ऐ नाज़रीन क्या आप शरीअत का भारी बोझ उठा सकते हो?

क्या आप इस से थक नहीं गए हो? अगर ये हाल है तो इस नाउम्मीदी में एक उम्मीद है जो गुनाहगार को मिलती है, कि ख़ुदा का कलाम मुजस्सम हुआ और फ़ज़्ल और रास्ती से फिर पूर हो कर हमारे दर्मियान रहा। और अब जो उस पर ईमान लाए वो हलाक ना हो, बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए। इस मज़्मून की सुर्ख़ी उसी नजात दहिंदे की दिलकश और तसल्ली बख़्श आवाज़ है जिसने गुनाहगारों के एवज़ अपनी जान क़ुर्बान कर दी। और शरीअत को पूरा करके अदल में रहमत की राह गुनाहगारों के लिए खोल दी। इसलिए अब तमाम लोगों को ख़्वाह किसी फ़िर्के या मिल्लत के हों, इस बोझ से छुड़ाने के लिए बुलाता है। हाँ वो गुनाहगारों को गुनाह से मौत से दोज़ख़ से और ख़ुदा की लानत से रिहाई देने के वास्ते बाआवाज़ बुलंद पुकार के बुलाता है। तुम थके हो मैं तुमको आराम दूँगा, सिर्फ़ आओ। ये आराम इस दुनिया की चंद रोज़ा ज़िंदगी का बे-क़याम आराम नहीं, बल्कि रूह का अबदी आराम है जो लाज़वाल है। जो इस से ग़ाफ़िल रहे उस का ख़ून उस की गर्दन पर। नजात का दरवाज़ा खुला है। सब कुछ तैयार है। कुछ देर नहीं। सिर्फ आने की देर है। आओ और नजात मुफ़्त ले लो। दिल का आराम जो दुनिया की ऐश व इशरत इज़्ज़त व दौलत माल वग़ैर किसी शैय से हासिल नहीं हो सकता। अब इस वक़्त ज़िंदगी के मालिक से मिलता है जो हाथ फैलाए हुए हम तुम सबको प्यार से बुलाता है। अपने फ़ायदे के वास्ते नहीं, बल्कि हमारे फ़ायदे के वास्ते। अब ये आवाज़ धीमी, हलीम और प्यारी और तरस की आवाज़ है, लेकिन कब तक? आपके लिए जब तक कि आप को दम क़ायम है। दुनिया के लिए जब तक कि ये आस्मान और ज़मीन बरक़रार हैं। लेकिन वक़्त मुक़र्ररा के बाद जब कि आपका सफ़र यहां ख़त्म हो जाएगा, और मौत का सुमन (हाज़िर अदालत होने का हुक्म) मिल जायेगा या आवाज़ फिर सुनाई ना देगी। और दुनिया को भी ना सुनने में आएगी। क्योंकि अनासिर जल कर गुज़ार हो जाएंगे। उस वक़्त के बाद ये आवाज़ दहिन्दा अदालत के तख़्त पर बैठ जाएगा। और आवाज़ के ना सुनने वालों को जिन्हों ने सुनकर अपने कान भारी और दिल मोटे कर लिए सख़्त और ख़ौफ़नाक आवाज़ से फ़त्वा दोज़ख़ का देगा।

ऐ नाज़रीन वक़्त को ग़नीमत समझ कर इस नापायदार (क़ायम ना रहने वाली) ज़िंदगी को हीच व पोच (क़ाबिल-ए-नफ़रत) जान कर आइंदा ज़िंदगी उस की बरकतों और दिली आराम और रूह के इत्मीनान को हासिल करने के लिए इस आवाज़ के शुन्वा हो (ध्यान से सुनो) जो कहती है “ऐ तुम लोगो जो थके और बड़े बोझ से दबे हो सब मेरे पास आओ कि मैं तुम्हें आराम दूँगा।”

राक़िम

सी॰ ऐच॰ ल्यूक हैड मास्टर मिशन स्कूल चम्बा

मसीह और अम्बिया साबिक़ीन

नूरअफ़्शां मत्बूआ 3, सितंबर में मुसन्निफ़ तक़्दीस-उल-अम्बिया की इस ग़लतफ़हमी पर, कि ख़ुदावंद मसीह ने अम्बिया-ए-साबक़ीन को (नऊज़-बिल्लाह) चोर और डाकू बतलाया। हमने लिखा था कि “हम समझते थे कि ज़माने की इल्मी तरक़्क़ी के साथ मुसलमानों के मज़्हबी ख़यालात भी पच्चीस तीस साल गुज़श्ता की बनिस्बत अब किसी क़द्र मुबद्दल हो गए होंगे। लेकिन

Christ and the prophets who came before Him

मसीह और अम्बिया साबिक़ीन

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Sep 24, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 24 सितंबर 1891 ई॰

नूरअफ़्शां मत्बूआ 3, सितंबर में मुसन्निफ़ तक़्दीस-उल-अम्बिया की इस ग़लतफ़हमी पर, कि ख़ुदावंद मसीह ने अम्बिया-ए-साबक़ीन को (नऊज़-बिल्लाह) चोर और डाकू बतलाया। हमने लिखा था कि “हम समझते थे कि ज़माने की इल्मी तरक़्क़ी के साथ मुसलमानों के मज़्हबी ख़यालात भी पच्चीस तीस साल गुज़श्ता की बनिस्बत अब किसी क़द्र मुबद्दल हो गए होंगे। लेकिन वक़्त ब-वक़्त उनके रिसालों और अख़बारों में ऐसी बातें पढ़ने में आती हैं कि ब-अफ़सोस वही ढाक के तीन पत्ते वाली याद आ जाती है। “जिस पर एक मुस्लिम भाई… ने इलाहाबाद से एक रिसाला मौसूम बह “इब्ताल सलीब” बड़े फ़ख़्र के साथ हमारे पास भेजा है। जिसको हमने बनज़र सरसरी देखा जिससे हमारा ख़याल यक़ीन से बदल गया कि हमारे इस़्माईली भाई बेशक बदस्तूर गिर्दाब (चक्कर) तास्सुब व मुख़ालफ़त हक़ में मुब्तला हैं। और “बाअज़ उनमें हैं जो मसीह की इन्जील उलट देने चाहते हैं।” पतरस रसूल ने बेशक ऐसे ही लोगों के हक़ में लिखा है कि “वो जो जाहिल और बे-क़याम हैं उनके (यानी मुक़द्दस नविश्तों) माअनों को दूसरी किताबों के मज़्मूनों की तरह अपनी हलाकत के लिए फेरते हैं।”

इब्ताल सलीब पर बहुत लोगों ने ख़ामा-फ़रसाई (लिखना) और क़िस्मत आज़माई रिसाला मज़्कूर के मुसन्निफ़ से पेशतर कर ली है। लेकिन चूँकि ये “माजरा कोने में नहीं हुआ था।” और कुतुबे मुक़द्दसा में इस का बयान ऐसा मुफ़स्सिल और मुशर्रेह लिखा गया है कि किसी ख़िलाफ़ नवीस की जद्दो जहद इस को झुटलाने में उन्नीस सौ बरस से आज तक पेश ना आई। पस आजकल के ऐसे नीम मुल्लाओं की लचर (गंदी) और फ़ुज़ूल तस्नीफ़ात इस मुस्तहकम व मोअतबर तवारीख़ी माजरे की सेहत व सदाक़त में ज़रा भर भी ख़लल-अंदाज़ और मोअस्सर नहीं हो सकतीं। इस क़िस्म के रिसालों और किताबों के जवाब लिखने में मसीही मुबश्शिरों और मुसन्निफ़ों को हरगिज़ अपना क़ीमती वक़्त सर्फ़ करना लाज़िम नहीं है।

काइफ़ा और मसीह मस्लूब

बाअज़ अश्ख़ास जाहिलाना मसीहीयों के साथ हुज्जत व बह्स करते और कहते हैं कि गुनाहों की माफ़ी हासिल करने के लिए कुफ़्फ़ारे की ज़रूरत नहीं है। और मसीह के गुनाहगारों के बदले में अपनी जान को क़ुर्बान करने और अपना पाक लहू बहाने पर एतराज़ करते हैं कि ये कहाँ की अदालत थी कि गुनाह तो करें और लोग और उन के एवज़ में बेगुनाह शख़्स को

Caiaphas and Resurrected Christ

काइफ़ा और मसीह मस्लूब

By

One Disciple

एक शागिर्द

Published in Nur-i-Afshan Sep 3, 1891

नूर-अफ़्शाँ मत्बूआ 3सितंबर 1891 ई॰

ये वही काइफ़ा था जिसने यहूदीयों को सलाह दी कि उम्मत के बदले एक का मरना बेहतर है।” (यूहन्ना 18:14)

बाअज़ अश्ख़ास जाहिलाना मसीहीयों के साथ हुज्जत व बह्स करते और कहते हैं कि गुनाहों की माफ़ी हासिल करने के लिए कुफ़्फ़ारे की ज़रूरत नहीं है। और मसीह के गुनाहगारों के बदले में अपनी जान को क़ुर्बान करने और अपना पाक लहू बहाने पर एतराज़ करते हैं कि ये कहाँ की अदालत थी कि गुनाह तो करें और लोग और उन के एवज़ में बेगुनाह शख़्स को सज़ा दी जाये और फिर यह कि एक आदमी के सज़ा और दुख उठाने से दूसरों को क्योंकर फ़ायदा पहुंच सकता है। अक्सर मर्तबा ख्वान्दा मुहम्मदियों की ज़बान से भी ऐसी बातें सुनने में आई हैं। लिहाज़ा बेहतर होगा और कि हम उन के लिए मज़्हबी अक़ाइद का इस अम्र की निस्बत कुछ ज़िक्र करें। इमाम हुसैन के कर्बला में मारे जाने, और भुक व प्यास और तरह तरह की तक्लीफ़ात सहने का सबब मुहम्मदियों की किताबों से यही ज़ाहिर होता है कि उन पर ये तमाम मुसीबतें और तकलीफ़ें गुनाहगार उम्मत मुहम्मदिया की ख़ातिर गुज़रीं। शीया व सुन्नी हर दो फ़रीक़ की किताबों को हमने देखा। और वो इस पर मुत्तफ़िक़ हैं कि उन की शहादत रफ़ाह उम्मत का बाइस है। शीयों की एक किताब “ख़िलास-उल-मसाइब” में लिखा है कि :-

“एक रोज़ आँहज़रत ने अपनी बेटी फ़ातिमा को इमाम हुसैन के कर्बला में क़त्ल किए जाने की ख़बर दी, तो वो बहुत ग़मगीं हुईं। आपने फ़रमाया कि, ऐ फ़ातिमा क्या तुम राज़ी नहीं हो? ये कि शहादत हुसैन की एवज़ ताज शफ़ाअत उम्मत आसी (गुनाहगार) का ख़ुदा तुम्हारे बाप के सर पर रखे और तुम्हारा शौहर अपने दोस्तों को आबे कोसर पिलाए और दुश्मनों को दूर करे। मलाइका तुम्हारे मुंतज़िर हुक्म खड़े हों? इसी तरह जब हज़रत ने बहुत से कलिमे फ़रमाए तो उन्होंने ने अर्ज़ की कि ऐ बाबा जो ये सवाब है, हमारे दोस्त बरोज़ क़ियामत यूं बचेंगे तो मैं (राज़ी) हूँ।” अब ख़्वाह ऐसी पेशगोई हज़रत से हुई या नहीं। इस से कुछ बह्स नहीं। लेकिन सिर्फ ये मालूम कराना मंज़ूर है कि शफ़ाअत गुनाहगार उनके लिए मुहम्मदियों में भी कफ़्फ़ारे की ज़रूरत का ख़याल पाया जाता है। अक्सर क़ौमों में आदमीयों की क़ुर्बानी चढ़ने की बिना ज़रूर कुछ मअनी तो रखती है, मगर ग़लती सिर्फ ये वाक़ेअ हुई है कि लोगों ने इस बात के असली मतलब को ना समझा कि आदमी की क़ुर्बानी बामज्बूरी, या किसी मह्ज़ इन्सान का तमाम बनी-आदम के लिए क़ुर्बान होना, मूजिब नजात गुनाहगार और ख़ुशनुदी ख़ुदावंद तआला हो सकता है या नहीं। और ये कि क़ुर्बान होने वाला शख़्स पाक और मासूम, गुनाहगारों से जुदा और आसमानों में बुलंद हो। और कुल अम्बिया और उस की शहादत व क़ुर्बानी पर गवाह व शाहीद हूँ। फिर ये भी ज़रूर है कि वो बनी-आदम का ऊज़ी (क़ाइम मक़ाम, बदला) हमेशा के लिए क़ब्र के फाटक में बंद, और मौत के क़ब्ज़े में गिरफ़्तार ना रहे। बल्कि जब अपनी जान कफ़्फ़ार हमें गुज़रान चुके तो वो अपनी अज़मत व इख़्तयार शफ़ाअत का सबूत अपने फिर ज़िंदा हो जाने से बख़ूबी दे सके। अब ये सब शफ़ी व ज़बीज के लिए ज़रूरी बातें बजुज़ ख़ुदावंद यसूअ मसीह के और किसी में नहीं पाई जातीं। पस सिर्फ़ मसीह का लहू, जिसने बेऐब हो के अबदी रूह के वसीले (अपने) आपको ख़ुदा के हुज़ूर क़ुर्बानी गुज़राना। हमारे दिलों को मुर्दा कामों से पाक कर सकता है, ताकि हम ज़िंदा ख़ुदा की इबादत करें। और मुर्दों पर अपनी नजात का कुछ भरोसा ना रखें।